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भारत-विभाजन के कारण
भारत के राष्ट्रीय आंदोलन की चरम परिणति भारत की स्वतंत्रता के साथ-साथ इस उपमहाद्वीप के विभाजन के रूप में हुई। 3 जून की माउंटबेटन योजना के आधार पर 14 अगस्त 1947 को भारतीय उपमहाद्वीप के विभिन्न हिस्सों को मिलाकर एक नये मुस्लिम राष्ट्र ‘पाकिस्तान’ का निर्माण हो गया। यह महत्त्वपूर्ण प्रश्न अकसर उठाया जाता रहा है कि भारत-विभाजन के कारण क्या थे? वह कौन-सी अपरिहार्य पस्थितियाँ थीं जिनके कारण भारत का विभाजन करना पड़ा?
भारत-विभाजन के कारणों के संबंध में नीति-निर्माता नेताओं और इतिहासकारों का अलग-अलग दृष्टिकोण रहा है और सभी ने 1947 के भारत-पाकिस्तान के दुखद विभाजन के कारणों को अलग-अलग ढंग से विश्लेषण करने का प्रयास किया है। साम्राज्यवादी लेखक मानते हैं कि विभाजन सदियों पुराने हिंदू-मुस्लिम वैमनस्य का दुर्भाग्यपूर्ण परिणाम था। इसका प्रमाण यह है कि ये दोनों समुदाय आपस में यह तय नहीं कर सके कि सत्ता किसे सौंपी जाए?
साम्यवादी इतिहासकारों के अनुसार आजादी 1946-47 के उन जन-संघर्षों से प्राप्त की गई, जिनमें बहुत से कम्युनिस्टों ने योगदान दिया था और अनेक मौकों पर जिनका नेतृत्व भी किया था। कांग्रेस इस क्रांतिकारी उभार से भयभीत हो गई और उसने साम्राज्यवादियों से समझौता कर सत्ता अपने हाथ में ले ली। परिणामतः देश को इसकी कीमत विभाजन के रूप में चुकानी पड़ी।
बिपिन चंद्र जैसे राष्ट्रीय इतिहासकारों का एक वर्ग मानता है कि ब्रिटिश भारत का विभाजन मुख्य रूप से 1930 के बाद मुस्लिम लीग की संप्रदायवादी राजनीति, ब्रिटिश सरकार की विभेदकारी ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति व भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कुछ दक्षिणपंथी नेताओं की महत्वाकांक्षा का परिणाम था। कुछ इतिहासकार केवल मुहम्मदअली जिन्ना की हठधर्मिता को विभाजन के लिए दोषी ठहराते हैं।
जी.डी. खोसला, सतीश सब्बरवाल व ज्ञानेंद्र पांडे जैसे इतिहासकारों के अनुसार विभाजन के मूल में भारत में अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में होने वाले सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन और ब्रिटिश सरकार की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति थी। यद्यपि आरंभ में इन आंदोलनों का उद्देश्य हिंदू और मुस्लिम बुद्धिजीवियों द्वारा अपने-अपने समुदाय में नैतिक चेतना को जगाना था, किंतु कालांतर में यही राजनीतिक विघटन का कारण बने। जहाँ एक ओर हिंदू समाज सुधारकों ने भारत को ब्रिटिश साम्राज्य के समक्ष गौरवान्वित करने के लिए प्राचीन भारत का महिमामंडन किया, वहीं दूसरी ओर मुस्लिम सुधारकों ने मध्यकाल को अपना आदर्श बताया।
उत्तर भारत में गो-रक्षा अभियान, पश्चिम भारत में शिवाजी का गुणगान और आर्य समाज आंदोलन द्वारा शुद्धि आंदोलन मुसलमानों को सामाजिक रूप से हिंदुओं से अलग करने लगे थे। मुसलमानों द्वारा शुद्धि आंदोलन के विरुद्ध पुनः इस्लामीकरण की बातें व मुगलकाल को मुस्लिम काल के रूप में चर्चा आदि ने हिंदू और मुसलमानों के बीच पहचान की राजनीति को और आगे बढ़ाया, जिसने धीरे-धीरे बढ़कर बीसवीं शताब्दी में प्रतिद्वंद्वी राजनीति का रूप धारण कर लिया।
गांधीजी की रामराज्य की अवधारणा, स्वराज्य व सांकेतिक हिंदू देवी-देवताओं का प्रयोग करना, हिंदुओं के धार्मिक स्थानों व अन्य सामाजिक सांस्कृतिक स्थलों पर सभा करना आदि से भी मुसलमान हिंदुओं से दूर होते चले गये और इन सबका मिला-जुला परिणाम विभाजन के रूप में सामने आया।
हम्जा अलवी, आयशा जलाल व याशमीन खान जैसे संशोधनवादी इतिहासकारों का मानना है कि विभाजन मुख्य रूप से कांग्रेस के अंदर दक्षिणपंथियों की उग्र विचारधारा, सांप्रदायिक हिंदू राजनीति व मुस्लिम लीग को अलग-थलग करने की राजनीति का परिणाम था। इन इतिहासकारों का विचार है कि जिन्ना द्वारा पाकिस्तान की माँग मुसलमानों के आत्मनिर्णय के अधिकार से संबंधित ऐसी माँग थी, जो मुसलमानों के लिए एक भू-क्षेत्र से अधिक उनकी भावनाओं से जुड़ी थी। विभाजन के लिए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को ही उत्तरदायी माना जाना चाहिए क्योंकि उसने जिन्ना की माँगों को नहीं माना। जिन्ना पाकिस्तान की माँग को एक हथियार के रूप में ब्रिटिश सरकार व भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के विरुद्ध इस्तेमाल कर रहे थे।
पाकिस्तानी इतिहासकारों के अनुसार विभाजन न्यायोचित एवं अनिवार्य था और यही मुसलमानों के हितों के संरक्षण एवं पोषण का एकमात्र उपाय था। यदि विभाजन नहीं होता, तो मुसलमानों की अस्मिता और उनकी महत्वाकांक्षाएं बहुसंख्यक हिंदू राष्ट्र में घुटकर रह जातीं। इनका मानना है कि भारत-विभाजन के लिए लार्ड माउंटबेटन मुख्य रूप से जिम्मेदार थे। यदि माउंटबेटन ने एक निष्पक्ष गवर्नर जनरल की भूमिका निभाई होती, तो शायद विभाजन रुक सकता था।
वस्तुतः स्वतंत्रता और विभाजन का यह द्वैध कांग्रेस के नेतृत्व में चले साम्राज्यवाद-विरोधी आंदोलन की सफलता और विफलता का ही द्वैध था। भारतीय कांग्रेस राष्ट्रीय आंदोलन का केंद्र थी और यह उसकी जिम्मेवारी थी कि वह विभिन्न वर्गों, समुदायों, समूहों और अंचलों को एक राष्ट्र के ढाँचे में ले आये और उदीयमान भारत राष्ट्र को ब्रिटिश शासकों के चंगुल से मुक्त कराये। राष्ट्रवादी चेतना का प्रसार कर कांग्रेस भारत को ब्रिटिश सत्ता से मुक्त कराने में तो सफल रही, किंतु वह राष्ट्र-निर्माण का काम पूरा नहीं कर सकी, विशेषकर मुसलमानों को राष्ट्र की मुख्य धारा के साथ नहीं जोड़ सकी। राष्ट्रीय आंदोलन की इसी सफलता और असफलता का अंतर्विरोध स्वतंत्रता और विभाजन के द्वैध में भी दिखाई देता है। भारत-विभाजन के लिए मुख्यतः निम्नलिखित कारणों और परिस्थितियों को उत्तरदायी माना जा सकता है।
‘फूट डालों और राज करो’ की नीति
1857 के विद्रोह के बाद अंग्रेज मुसलमानों को अपना सबसे खतरनाक शत्रु मानने लगे थे, किंतु उन्नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी के आते-आते जब भारतीय राष्ट्रवाद कांग्रेस के नेतृत्व में मुखर होने लगा, तो मुसलमानों के प्रति उनका दृष्टिकोण बदल गया। अंग्रेजी राज के खिलाफ साझे संघर्ष में मुसलमान हिंदुओं के साथ गुट न बना लें, यह सुनिश्चित करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने मुसलमानों को विशेष रियायतें देकर राष्ट्रवाद की धारा को अवरुद्ध करने का प्रयास किया।
बीसवीं सदी के आरंभ में ही मुसलमान हिंदुओं के बहुमत से डरने लगे थे और हिंदुओं को लगने लगा कि ब्रिटिश सरकार मुसलमानों को विशेषाधिकार देकर हिंदुओं के प्रति भेदभाव कर रही है। ब्रिटिश सत्ता के प्रोत्साहन से कुछ अभिजातवर्गीय मुसलमान नेताओं ने 1906 में ढाका में मुस्लिम लीग की स्थापना की और 1909 में मुसलमानों को पृथक् निर्वाचकमंडल का अधिकार मिल गया।
यद्यपि अनेक इतिहासकार पृथक् निर्वाचनमंडल को ही पाकिस्तान का बीजारोपण मानते हैं, किंतु अभी तक अलग पृथक् मुस्लिम राष्ट्र की अवधारणा का उदय नहीं हुआ था। तिलक और जिन्ना के प्रयास से 1916 में कांग्रेस-लीग के बीच ‘लखनऊ समझौता’ हुआ, जिसमें कांग्रेस ने मुसलमानों के अलग प्रतिनिधित्व के अधिकार को स्वीकार कर लिया। खिलाफत और असहयोग आंदोलनों के दौरान बहुत से राष्ट्रवादी मुसलमानों ने साम्राज्यवाद-विरोधी राष्ट्रीय गतिविधियों में सक्रिय भागीदारी की। कुछ लोगों का आरोप है कि खिलाफत और असहयोग आंदोलन के कारण भारतीय राजनीति में धार्मिकता का समावेश हुआ और इसी के परिणामस्वरूप अंततः पाकिस्तान का निर्माण हुआ। किंतु इस समय तक भी मुसलमानों के लिए पृथक् राष्ट्र की अवधारणा का उदय नहीं हुआ था।
कांग्रेस की एकाधिकारवादी मनोवृत्ति
अनेक इतिहासकार मानते हैं कि कांग्रेस के एकाधिकारवादी रवैये और कांग्रेस द्वारा जिन्ना की उपेक्षा किये जाने के कारण भारत को विभाजन की त्रासदी से रूबरू होना पड़ा। दरअसल कांग्रेस सदैव यह दावा करती थी कि राष्ट्रीय आंदोलन में वही एक मात्र पार्टी है, जो पूरे भारत के सभी वर्गों और समुदायों का प्रतिनिधित्व करती है। 1934 के बाद गांधीजी नेपथ्य में चले गये और राजनीतिक नेता के तौर पर समाजवादी झुकाव वाले नेहरू की पहली परीक्षा 1937 के प्रांतीय चुनावों में हुई। चुनाव परिणामों के बाद नेहरू ने बड़े गर्व से घोषणा की कि भारत में अब दो ही महत्त्वपूर्ण शक्तियाँ हैं- कांग्रेस और ब्रिटिश सरकार। लेकिन नेहरू यह भूल गये थे कि उस समय कांग्रेस के 97 प्रतिशत सदस्य हिंदू थे और देश के लगभग 90 फीसदी मुस्लिम संसदीय क्षेत्रों में खड़े होने के लिए कांग्रेस को मुसलमान उम्मीदवार तक नहीं मिले थे। फिर भी, अभी तक कांग्रेस और मुस्लिम लीग के संबंध बहुत खराब नहीं हुए थे। लेकिन चुनाव बाद जब लखनऊ में बनने वाले मंत्रिमंडल में कुछ प्रतिनिधित्व हासिल करने के लिए लीग ने कांग्रेस से गठबंधन करना चाहा, तो लीग को बड़ी बेरूखी कह दिया गया कि ऐसा कुछ चाहने से पहले उसे अपने आप को कांग्रेस में विलीन करना होगा। अभी तक मुहम्मदअली जिन्ना मुखर राष्ट्रवादी और हिंदू-मुस्लिम एकता के पक्षधर थे, किंतु 1937 के चुनावों में लीग की हार और उसके बाद कांग्रेस की बेरूखी से वे अपने राजनीतिक भविष्य की चिंता में उग्र संप्रदायवाद की ओर बढ़ते चले गये।
यद्यपि जिन्ना मुस्लिम लीग के निर्विवाद नेता थे, लेकिन उन्हें अपनी बुनियादी कमजोरी का ज्ञान था। अभी लीग की स्थिति बहुत कमजोर थी। उत्तर प्रदेश में लीग सबसे ज्यादा मजबूत स्थिति में थी, किंतु यहाँ मुसलमानों की आबादी एक तिहाई से भी कम थी। सुदूर पश्चिम में सिंध, बलूचिस्तान और उत्तर-पश्चिम सीमावर्ती प्रांत में मुस्लिम बहुलता में तो थे, किंतु उन देहाती पिछड़े क्षेत्रों में स्थानीय नेताओं का वर्चस्व था और वहाँ लीग का कोई सांगठनिक ढाँचा तक नहीं था। पंजाब और बंगाल में भी मुसलमान बहुसंख्यक थे, लेकिन इन दोनों प्रांतों में भी लीग का कोई विशेष प्रभाव नहीं था। पंजाब में यूनियनिस्ट पार्टी का नियंत्रण था और बंगाल में के.पी.पी. (कृषक प्रजा पार्टी) का। इस प्रकार हिंदू-बहुल इलाकों में उसे कांग्रेस ने सत्ता से दूर कर दिया था और मुस्लिम-बहुल क्षेत्रों में उसे उसके विरोधी संगठनों ने उपेक्षित कर रखा था। कांग्रेस चाहती तो वह लीग को अनदेखा कर अन्य क्षेत्रीय मुस्लिम पार्टियों को अपना सहयोगी बना सकती थी, किंतु उसने ऐसा नहीं किया। इससे जिन्ना को अपना प्रभाव-विस्तार करने का अवसर मिल गया।
जिन्ना की हठधर्मिता
कुछ इतिहासकार केवल मुहम्मदअली जिन्ना की हठधर्मिता को ही विभाजन के लिए दोषी ठहराते हैं। माउंटबेटन ने भी कहा था कि, ‘‘यदि जिन्ना अपनी बीमारी के कारण दो वर्ष पहले मर गये होते, तो मेरा विचार है कि हम भारत को एकीकृत रख सकते थे।’’ यह भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की बिडंबना ही है कि 1906 में जिस व्यक्ति ने ‘हिंदू-मुस्लिम एकता के राजदूत’ के रूप में अपना राजनीतिक जीवन शुरू किया था, वही परिस्थितिवश अंत में पाकिस्तान की माँग करने लगा। 1913 में जब जिन्ना मुस्लिम लीग में शामिल हुए, तो वे राष्ट्रवादी से सांप्रदायिक राष्ट्रवादी हो गये। 1916 का लखनऊ में होने वाला कांग्रेस-लीग समझौता तिलक और जिन्ना ने ही मिलकर तैयार किया था। फिर भी, अभी तक जिन्ना का मानना था कि भारत में असली राजनीतिक मुद्दा एक ही है और वह है- होमरूल यानी स्वराज; सत्ता का नौकरशाही से लोक को हस्तांतरण।
1920 के दशक के दौरान जब कांग्रेस ने शांतिपूर्ण अवज्ञा पर आधारित असहयोग आंदोलन आरंभ किया, तो जिन्ना ने कांग्रेस छोड़ दी। चूंकि वे राजनीतिक निर्वासन का शिकार नहीं होना चाहते थे, इसलिए उन्होंने 1924 में समाप्तप्राय मुस्लिम लीग को पुनर्जीवित किया। अब वे मुसलमानों के हितों और अधिकारों की रक्षा के नारे के आधार पर उसे सुदृढ़ करने लगे। 1924 में अपने लाहौर अधिवेशन में, जिसकी अध्यक्षता जिन्ना ने ही की थी, मुस्लिम लीग ने ऐसे संघ की माँग की, जिसमें मुसलमान बहुल क्षेत्रों को ‘हिंदुओं के प्रभुत्व’ से बचाने के लिए ‘पूर्ण प्रांतीय स्वायत्तता’ प्राप्त हो। यह माँग अलग निर्वाचकमंडलों के अतिरिक्त थी। 1940 में पाकिस्तान की अलग माँग उठने तक यही मुस्लिम लीग का मूलभूत नारा रहा।
1927-28 में उन्होंने साइमन कमीशन का बहिष्कार किया, लेकिन उसके खिलाफ आयोजित किसी जुलूस में शामिल नहीं हुए। 1928-29 में नेहरू रिपोर्ट पर बातचीत के दौरान जिन्ना ने प्रतिक्रियावादी शक्तियों के समक्ष आत्म-समर्पण कर दिया और 14 सूत्रीय माँग-पत्र प्रस्तुत किया। जब कांग्रेस ने 1930 में सविनय (नागरिक) अवज्ञा आंदोलन चलाया तो युवा, विशेषकर मुस्लिम राष्ट्रवादी वामपंथी राजनीति की ओर खिंचने लगे। इससे जिन्ना राष्ट्रवाद की मुख्य धारा से अलग-थलग पड़ गये और ज्यादातर ब्रिटेन में रहने लगे।
लंदन में स्वघोषित निर्वासन के बाद जिन्ना 1936 में मुस्लिम लीग को पुनर्जीवित करनेे का संकल्प लेकर भारत वापस लौटे। 1936 के पूरे साल के दौरान जिन्ना ने राष्ट्रवाद और स्वाधीनता पर जोर दिये और हिंदू-मुस्लिम एकता के पक्ष में बोलते रहे। 1937 के चुनाव में जिन्ना ने लीग के जिस कार्यक्रम के आधार पर चुनाव लड़ा, वह कांग्रेस से काफी मिलता-जुलता था। उसमें सिर्फ यही माँगें शामिल की गई थीं कि मुसलमानों के धार्मिक अधिकारों की रक्षा की जाए, उर्दू भाषा तथा लिपि की सुरक्षा और संरक्षण के लिए कदम उठाये जायें और मुसलमानों की माली हालत में सुधार लाने के प्रयास किये जायें। लेकिन चुनाव परिणामों से निराश जिन्ना, कांग्रेस की एकाधिकारवादी प्रवृत्ति से हताश होकर अपना राजनीतिक अस्तित्व बचाने के लिए घृणा और भय पर आधारित सांप्रदायिक राजनीति की ओर खिंचते चले गये।
1938 में लीग का अध्यक्ष चुने जाने के बाद जिन्ना ने अपने राजनीतिक कौशल और दूरदर्शिता का प्रयोग कर न केवल मुस्लिम लीग और अपने प्रभाव-क्षेत्र का विस्तार किया, बल्कि भारतीय उपमहाद्वीप की दूर-दूर तक तक बिखरी मुस्लिम जनता और उसके नेताओं को संगठित किया। जीवन-पद्धति और दृष्टिकोण में पूर्णतः धर्मनिरपेक्ष होने के बावजूद कांग्रेस ने जिस जिन्ना को दशकों से अस्वीकार कर रखा था, उसी जिन्ना को यूनियनिस्ट, कृषक प्रजा पार्टी (के.पी.पी.) और अन्य मुस्लिम नेताओं ने अंग्रेजों के साथ केंद्र में बातचीत के लिए अपना प्रतिनिधि बना लिया। अब जिन्ना यह प्रचार करने लगेे कि कांग्रेस राष्ट्र की स्वाधीनता नहीं चाहती, बल्कि वह ब्रिटिश हुकूमत से मिलकर ‘हिंदूराज’ कायम कर भारत से इस्लाम का नामोनिशान मिटा देना चाहती है।
दूसरा विश्वयुद्ध शुरू होने पर जब प्रांतीय कांग्रेसी सरकारों ने इस्तीफा दे दिया, तो जिन्ना ने 22 दिसंबर 1939 को ‘मुक्ति-दिवस’ (हश्र का दिन) के रूप में मनाया। जिन्ना को लगा कि इस युद्धकालीन संकट में लंदन को अपनी वफादारी दिखाने का यही उचित समय है। उन्होंने संकट की घड़ी में ब्रिटेन के प्रति अपना समर्थन व्यक्त किया। इस वफादारी के बदले उन्हें अंग्रेजों की अनुग्रह हासिल हो गई। अब लीग को मुसलमानों का एकमात्र प्रवक्ता मान लिया गया और उसे यह अधिकार दे दिया गया कि वह किसी भी राजनीतिक समझौते के खिलाफ ‘वीटो’ लगा सकता है।
द्विराष्ट्र का सिद्धांत
यद्यपि हिंदू और मुसलमान इस क्षेत्र में हजारों वर्षों से एक साथ शांति और सद्भावना से रहे थे। परंतु पुनरुत्थानवादी आंदोलन और सांप्रदायिक राजनीतिक प्रतिद्वंद्वता ने इस शांति और स्थिरता को 1940 के दशक आते-आते पूर्ण रूप से अस्थिर कर चुका था। 1940 के दशक में ब्रिटिश भारत की कुल जनसंख्या 38.9 करोड़ थी, जिसमें 25.5 करोड़ हिंदू थे, 9.2 करोड़ मुसलमान, 63 लाख इसाई, 56 लाख सिख और शेष अन्य छोटे-छोटे मान्यताओं व धर्मों में विश्वास करने वाले लोग थे। आज का उत्तर प्रदेश ‘ब्रिटिश भारत के विभाजन’ की माँग का केंद्रस्थल था। उस समय यहाँ मुसलमानों की संख्या 16 प्रतिशत थी। भारत का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं था जहाँ किसी विशेष संप्रदाय के लोग ही रहते हों। हर क्षेत्र में सभी धर्मावलंबी के लोग थे और वह भी वर्षों से रहे रहे थे। फिर ऐसी कौन-सी विशेष स्थिति आई जिसके कारण ब्रिटिश भारत का विभाजन दो स्वंतत्र राष्ट्र- भारत और पाकिस्तान के रूप में सामने आया। इस विशेष परिस्थिति की व्याख्या द्विराष्ट्र के सिद्धांत के रूप में की जाती है। यद्यपि कांग्रेस सैद्धांतिक रूप से दो द्विराष्ट्र के सिद्धांत को अस्वीकार करती रही है, लेकिन मुस्लिम लीग भारत के विभाजन का कारण द्विराष्ट्र के सिद्धांत को ही मानती है।
वास्तव में बीसवीं सदी के चौथे दशक से ही मुस्लिम अल्पसंख्यकों को यह डर सताने लगा था कि हिंदू बहुसंख्यक हैं और देश की स्वतंत्रता के बाद बहुसंख्यक हिंदू ही सरकार बनायेंगे, जिसमें अल्पसंख्यकों के साथ अन्याय होगा या उन्हें नजरअंदाज किया जायेगा। इसी भय और आशंका से एक अलग मुस्लिम राष्ट्र की अवधारणा का उदय हुआ।
प्रायः मुसलमानों के लिए पृथक् राज्य के विचार का प्रवर्तक प्रख्यात कवि एवं राजनैतिक चिंतक मोहम्मद इकबाल को माना जाता है, क्योंकि 1930 में मुस्लिम लीग के इलाहाबाद अधिवेशन में मोहम्मद इकबाल ने ही सबसे पहले ‘सर्व इस्लाम’ की भावना से प्रेरित होकर पृथक् मुस्लिम राष्ट्र की स्थापना की बात उठाई थी। उन्होंने लीग के अधिवेशन में कहा था कि यदि यह सिद्धांत स्वीकार कर लिया जाता है कि भारत के सांप्रदायिक प्रश्न का स्थायी हल भारतीय मुसलमान को अपने देश में अपनी संस्कृति और परंपराओं के पूर्ण और स्वतंत्र विकास का अधिकार है, तो मेरी इच्छा है कि पंजाब, उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत, सिंध और बलुचिस्तान को मिलकर एक राज्य बना दिया जाये। इसी वर्ष जिन्ना ने भी कांग्रेस पर मुस्लिम हितों की अनदेखी करने का आरोप लगाया था।
मुसलमानों के पृथक् राष्ट्र का नाम ‘पाकिस्तान’ हो, यह विचार स्पष्ट रूप से पहली बार कैंब्रिज के अनुस्नातक विद्यार्थी व पंजाब प्रांत के नागरिक चौधरी रहमतअली के मस्तिष्क की उपज थी। रहमतअली की मौलिक सोच यह थी कि ब्रिटिश भारत के वह प्रांत, जहाँ मुसलमानों की बहुलता है, उसे भारत से अलग कर एक संप्रभु राज्य का निर्माण किया जाए, जहाँ मुसलमानों की अलग संस्कृति व पहचान हो। उसने 1933 में कैंब्रिज विश्वविद्यालय में एक पंफलेट जारीकर ब्रिटिश भारत के पंजाब, अफगानिस्तान (उत्तर-पश्चिमी प्रांत), कश्मीर, सिंध और बलूचिस्तान को मिलाकर मुसलमानों के अलग राष्ट्र का नाम ‘पाकिस्तान’ दिया था। रहमतअली का स्पष्ट विचार था कि हिंदू और मुसलमान मूलभूत रूप से पृथक राष्ट्र अथवा जातियाँ हैं। उसने लिखा था: ‘‘हमारा धर्म, संस्कृति, इतिहास, परम्पराएं, साहित्य, आर्थिक प्रणाली, दाय के कानून, उत्तराधिकार और विवाह हिंदुओं से मुख्यतः भिन्न हैं। ये भिन्नताएं मुख्य मूल सिद्धांतों में ही नहीं, अपितु छोटे-छोटे ब्योरे में भी भिन्न हैं। हिंदू और मुसलमान आपस में बैठकर खाते नहीं और विवाह नहीं करते। हमारी राष्ट्रीय रीतियां, पंचांग यहाँ तक कि खाना और पहनावा सभी भिन्न है।’’ मुस्लिम लीग ने 1940 के लाहौर अधिवेशन में रहमतअली की इसी सोच को स्वीकार कर अलग राष्ट्र की माँग की। लीग ने दो राष्ट्रवाद के सिद्धांत को इस रूप में आगे बढ़ाने की कोशिश की कि यह माँग दोनों समुदाय को न्याय दिलायेगा और दोनों समुदाय स्वतंत्रापूर्वक व सदभावनापूर्वक आगे बढ़ सकेंगे। उनका मानना था कि ‘एकता के लिए विभाजन’ अपरिहार्य है, और इसके माध्यम से अल्पसंख्यकों, शोषितों व पिछड़ों को उनके अधिकार प्राप्त हो सकते हैं।
1940 से लेकर 1947 तक की मुस्लिम लीग की राजनीति मुसलमानों के लिए एक स्वायत्त प्रदेश या स्वतंत्र देश की राजनीति पर आधारित थी। उसका आधारबिंदु मुस्लिम बहुल क्षेत्र विशेषकर उत्तर-पश्चिम और उत्तर पूर्वी भारत, जहाँ मुसलमान बहुसंख्यक थे, वहाँ मुस्लिम संस्कृति व मुस्लिम विचारधारा की प्रभुत्ता रहे। जिन्ना ने 23 मार्च 1940 को मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन की अध्यक्षता की और भारतीय उपमहाद्वीप में एक पृथक् राष्ट्र की स्थापना का एक प्रस्ताव पारित किया। अधिवेशन में जिन्ना ने घोषित किया कि, ‘‘हिंदुओं और मुसलमानों के धर्म, विचारधाराएँ, रीति-रिवाज और साहित्य बिलकुल अलग-अलग हैं। एक राष्ट्र बहुमत में और दूसरा अल्पमत में, ऐसे दो राष्ट्रों को एक साथ बाँधकर रखने से असंतोष बढे़गा और अंततः ऐसे राज्य की बनावट का विनाश होकर रहेगा।’’ अधिवेशन में जिन्ना ने स्पष्ट कह दिया कि वे अलग मुस्लिम राष्ट्र के अतिरिक्त कुछ भी स्वीकार नहीं करेंगे।
किंतु जिन्ना के निर्देश पर खलीकुज्जमां द्वारा तैयार किये गये इस प्रस्ताव में तो ‘पाकिस्तान’ शब्द का प्रयोग किया गया था और न ही उन प्रदेशों का विवरण था, जो पाकिस्तान में सम्मलित होने थे। वास्तव में लाहौर प्रस्ताव के समय तक मुस्लिम लीग के नेता नहीं जानते थे कि पाकिस्तान का निर्माण, भारत की सीमा से अलग एक क्षेत्र के रूप में होगा। लीग के नेताओं का ऐसा कोई विचार भी नहीं था कि जो मुस्लिम बहुल क्षेत्र है वहाँ से गैर-मुस्लिमों की आबादी को अन्य क्षेत्रों में विस्थापित कर दिया जाए और जहाँ हिंदू बहुसंख्यक हैं, वहाँ से मुसलमानों को। उनकी सोच थी कि जो आबादी जहाँ है, वही. रहेगी और उनके सामाजिक आर्थिक और सांस्कृतिक आधार वैसी ही रहेंगे। अंतर केवल इतना होगा कि मुस्लिम बहुल क्षेत्र पाकिस्तान कहलायेंगे और हिंदू बहुल क्षेत्र भारत।
इसके बाद जिन्ना और लीग ने विभाजन की डोर को इस प्रकार मजबूती से पकड़ लिया कि वह डोर से रस्सी बन गई और अंततः उसने मुस्लिम भावनाओं को इसी रस्सी के अंदर जकड़कर रख दिया। लाहौर प्रस्ताव से स्पष्ट हो गया था कि स्वतंत्रता के साथ शाश्वत एकता की गारंटी नहीं होगी। 1935 में नेहरू ने भारत में एक मुस्लिम राष्ट्र की संभावना को यह कहकर नकार दिया था कि ‘‘यह गौर किये जाने लायक है ही नहीं।’’ 1938 में अमेरीकियों से नेहरू ने बड़े गर्व से कहा था कि ‘‘भारत में कोई धार्मिक या सांस्कृतिक संघर्ष नहीं है और सदियों से चली आई उसकी अनिवार्य एकता भारत का अद्भुत और सारभूत तत्त्व है।’’ उनका दावा था कि, ‘‘भारत की एकात्मकता के लिए कार्यरत ताकतें दुर्जेय और जबरदस्त हैं और कोई अलगाववादी प्रवृत्ति इस एकात्मकता को तोड़ डालेगी, ऐसी कल्पना नहीं की जा सकती।’’ किंतु लाहौर प्रस्ताव के बाद अब वही अलगाववादी प्रवृत्ति उनके सामने मुँह फैलाये खड़ी थी।
विश्वयुद्ध के दौरान ब्रिटिश सरकार ने जिन्ना को हरसंभव सहयोग देकर उपकृत किया और आश्वासन दिया कि भारत को तब तक आजादी नहीं दी जायेगी, जब तक हिंदू और मुसलमान एकताबद्ध नहीं हो जाते। 1942 में ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन के दौरान जब कांग्रेस के सभी वरिष्ठ नेता जेलों में बंद थे, तो जिन्ना और लीग को भारतीय उपमहाद्वीप में बिखरे मुसलमानों के बीच अपने प्रभाव-क्षेत्र का विस्तार करने और सांप्रदायिक भावनाओं को उकसाने की खुली छूट मिल गई। पंजाब और सिंध में लीग अपनी पहचान बनाने में सफल रही, जहाँ उसकी इसके पहले कोई खास पहचान नहीं थी। इस बीच 23 मार्च 1943 को जिन्ना ने ‘पाकिस्तान दिवस’ मनाने का आह्वान किया। उन्होंने मुस्लिम बहुल राज्यों के मुसलमानों को समझाया कि हिंदू और मुसलमान दो पृथक् समुदाय हैं और हिंदू बहुसंख्यक भारत में उनके हित कभी सुरक्षित नहीं हो सकते। हिंदू बहुसंख्यक भारत में वे अपने अधिकारों से वंचित हो जायेंगे, इसलिए मुस्लिम समाज की उन्नति एवं सुदृढ़ता के लिए उनका अलग राष्ट्र में रहना अनिवार्य है। 26 अप्रैल 1943 को लीग ने इसका समर्थन भी कर दिया। इस प्रकार जिन्ना की पाकिस्तान बनाने की माँग और सशक्त हो गई।
हिंदूवादी संगठनों की भूमिका
चौरीचौरा की घटना (4 फरवरी 1922) के कारण असहयोग आंदोलन के अचानक स्थगन से उत्पन्न राजनीतिक निराशा के वातावरण में सांप्रदायिकता को फलने-फूलने का भरपूर अवसर मिला। इस समय मुस्लिम सांप्रदायिकता के साथ-साथ हिंदू सांप्रदायिकता भी मुखर होने लगी थी। सांप्रदायिकता का शिकार होकर स्वराज्य पार्टी भी बँट गई। यद्यपि हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयं संघ जैसे हिंदू संगठन भारत के बँटवारे के प्रबल विरोधी थे, किंतु लीग की तरह वे भी मानते थे कि भारत एक राष्ट्र नहीं है, यहाँ पर दो राष्ट्र हैं- हिंदू और मुसलमान, और दोनों के बीच एकता नहीं हो सकती है। 1937 में इलाहाबाद में हिंदू महासभा के सम्मेलन में एक भाषण में सावरकर ने हिंदुओं को समझाते हुए कहा था कि ‘‘मुसलमान हिंदुओं को परमर्दित करना चाहते हैं, उन्हें उनके ही देश में गुलाम बनाना चाहते हैं।’’ 1939 में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक एम.एस. गोलवलकर ने कहना शुरू कर दिया था कि ‘‘यदि अल्पसंख्यकों की माँगें मंजूर कर ली जाती हैं, तो हिंदुओं का राष्ट्रीय जीवन छिन्न-भिन्न हो जायेगा।’’
1940 के शुरू में जब जिन्ना और लीग ने पृथक् राष्ट्र की माँग करने का फैसला किया, तो हिंदुत्ववादी संगठन चूंकि हिंदू राष्ट्र की माँग नहीं कर सकते थे, इसलिए उन्होंने यह कहना शुरू किया कि भारत में एक ही राष्ट्रीयता के लोग रहते हैं और वे हिंदू हैं। मुसलमानों को या तो भारत से निकाल बाहर कर देना चाहिए या फिर दूसरे दर्जे का नागरिक बना देना चाहिए। गोलवलकर मुसलमानों और अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों को चेतावनी देने लगे कि हिंदुस्तान के गैर-हिंदू लोगों, विशेषकर मुसलमानों को हिंदू संस्कृति और भाषा अपनानी ही होगी, नहीं तो उन्हें सामान्य नागरिक अधिकारों से भी वंचित कर दिया जायेगा। यही नहीं, 1946-47 के दौरान राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने कांग्रेस और गांधी की ओर इशारा करते हुए कहा कि ‘‘जिन लोगों ने ‘हिंदू-मुस्लिम एकता के बिना स्वराज्य नहीं मिल सकता’ का नारा बुलन्द किया है, उन्होंने हमारे समाज के साथ सबसे बड़ी गद्दारी की है। जब हिंदू संप्रदायवादी भी मुस्लिम लीग की तरह ‘हिंदुत्व खतरे में है’ का शोर मचाना शुरू कर दिये, तो स्पष्ट हो गया कि भारत का विभाजन ही अंतिम विकल्प है।
भारत विभाजन की परिस्थितियाँ
कांग्रेस और लीग के बीच बढ़ते जा रहे विवाद को दूर करने और देश के विभाजन को रोकने के आखिरी प्रयास में 10 जुलाई 1944 को गांधी ने जिन्ना के साथ ‘राजाजी सूत्र’ के आधार पर वार्ता का प्रस्ताव रखा जो वास्तव में पाकिस्तान की माँग को स्वीकार करने के समान था। इस प्रस्ताव के अनुसार मुस्लिम लीग को भारतीय स्वतंत्रता की माँग का समर्थन करना और अस्थायी सरकार के गठन में कांग्रेस से सहयोग करना था। विश्वयुद्ध के समाप्त होने पर भारत के उत्तर-पश्चिमी व पूर्वी भागों के मुस्लिम बहुसंख्यक क्षेत्रों में जनमत संग्रह करके भारत से उनके संबंध-विच्छेद का निर्णय किया जाना था। किंतु उपर्युक्त शर्तें तभी लागू होनी थीं जब ब्रिटेन भारत को पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान कर दे। सी.आर. फार्मूला के आधार पर गांधी ने कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच मौजूद खाई को पाटने के लिए ‘कायद-ए-आजम’ (महान् नेता) जिन्ना से कई बार विचार-विमर्श किया। किंतु जिन्ना पहले विभाजन और उसके बाद स्वतंत्रता की माँग पर अड़े हुए थे, जबकि कांग्रेस स्वतंत्रता के पहले विभाजन पर कोई बात करने को तैयार नहीं थी। गांधी की राय में वार्ता परिप्रेक्ष्य-संबंधी बुनियादी मतभेदों के कारण भंग हुई, जहाँ गांधी अलगाववाद को परिवार के अंदर के अलगाव के रूप में देखते थे और इसलिए भागीदारी के कुछ तत्व बनाये रखना चाहते थे, वहीं जिन्ना प्रभुसत्ता के साथ पूरा संबंध-विच्छेद चाहते थे।
भारत के भावी संविधान सभा पर सहमति बनाने और कांग्रेस-लीग में एक कार्यकारी समझौता कराने के लिए ब्रिटिश गवर्नर जनरल लार्ड वेवल ने शिमला सम्मेलन में कांग्रेस-लीग के विवादों के मध्य एक बीच का रास्ता निकालने की कोशिश की, लेकिन मुस्लिम लीग ने हिंदुओं और मुसलमानों के लिए बराबर-बराबर सीटों की माँग के साथ-साथ बनने वाले मंत्रिमंडल में सभी मुस्लिम सदस्यों की नियुक्ति का अधिकार लीग को देने की माँग की, जो कांग्रेस को स्वीकार नही था, अतः यह कांफ्रेंस असफल हो गया। वास्तव में 1940 तथा 1946 में कैबिनेट मिशन के आगमन के बीच पाकिस्तान की माँग को जिन्ना या मुस्लिम लीग ने कभी स्पष्ट नहीं किया। फिर भी, इस माँग की अस्पष्टता ने 1940 के दशक में लीग को मुस्लिम जनता की लामबंदी के लिए एक उत्तम साधन बना दिया। इस काल में मुस्लिम राजनीति अपने परंपरागत आधार अर्थात भूस्वामी कुलीनों के अलावा मुस्लिम जनता के एक भाग का समर्थन भी पाने लगी थी, खासकर पेशेवर लोगों और व्यापारी समूहों का, जिनके लिए एक अलग पाकिस्तान का अर्थ हिंदुओं से प्रतियोगिता की समाप्ति थी। इसके अलावे, उसे अग्रणी उलेमा, पीरों और मौलवियों का भी राजनीतिक समर्थन मिला, जिन्होंने इस अभियान को एक धार्मिक वैधता प्रदान की।
1945 के आते-आते ब्रिटिश शासकों को पता चल गया था कि अब साम्राज्यवादी खेल खत्म हो गया है और उन्हें जल्द ही भारत छोड़कर जाना होगा। दरअसल फरवरी 1946 तक साम्राज्यवाद और राष्ट्रवाद के संघर्ष का सैद्धांतिक रूप से समाधान हो गया था और ब्रिटिश सरकार ने फैसला किया कि सम्मानपूर्वक सत्ता-हस्तांतरण कर दिया जाये। ब्रिटिश सरकार की इस घोषणा से भारतीय उपमहाद्वीप के राजनीतिक दलों के बीच प्रतिस्पर्धा का एक नया दौर शुरू हो गया। जहाँ 1940 से पूर्व भारतीय राजनीति मुख्य रूप से राष्ट्रीय स्वतंत्रता पर आधारित थीं, वहीं अब राष्ट्रीय संघर्ष का स्थान एक नये संघर्ष ने ले लिया, जो कांग्रेस, ब्रिटिश सरकार और मुस्लिम लीग की भविष्य के तरह-तरह की कल्पनाओं के बीच था। कांग्रेस ने सरकार से माँग की कि सर्वप्रथम एक केंद्रीय इकाई को सत्ता सौंप दी जाये, उसके बाद अल्पसंख्यक संप्रदायों की समस्याओं का समाधान निकाला जायेगा-मुस्लिम बहुमत वाले प्रांतों को स्वायत्तता देकर या फिर आत्मनिर्णय द्वारा भारतीय संघ से संबंध-विच्छेद करके। किंतु यह सब तभी होगा, जब अंग्र्रेज सरकार सत्ता-हस्तांतरण कर देगी। किंतु जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग की जिद थी कि पहले बँटवारा होगा, उसके बाद आजादी चाहिए।
1946 में संविधान सभा के लिए हुए चुनाव में जहाँ कांग्रेस एक धर्मनिरपेक्ष एजेंडा के साथ चुनाव मैदान में उतरी, वहीं लीग यह चुनाव अपने पाकिस्तान की माँग पर मुस्लिमों के मध्य एक जनमत संग्रह के रूप में लड़ी। इस चुनाव के परिणाम चौंकानेवाले थे। मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में लीग ने लगभग 90 प्रतिशत से ज्यादा मत पाये तथा कुल मुस्लिम मतों का लगभग 80 प्रतिशत मत मुस्लिम लीग को मिले। पंजाब और बंगाल में मुस्लिमों के प्रतिनिधित्व का दावा करने वाले अन्य राजनीतिक दल हाशिये पर चले गये। इन चुनावों की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता थी मुस्लिम सांप्रदायिकता के आधार पर वोट डाला जाना। 1946 में मुसलमानों को अपना वोट लीग के पक्ष में देने के लिए अपील करते हुए जिन्ना ने कहा था, ‘‘अगर आज हम अपना फर्ज अदा नहीं करते, तो आपकी हालत शूद्रों जैसी कर दी जायेगी और भारत से इस्लाम की विदाई हो जायेगी।’’ इस चुनाव परिणाम के आधार पर लीग ने वस्तुतः अपनी पाकिस्तान की माँग पर विजय पा ली। लीग विधायक दल के बैठक को संबोधित करते हुए जिन्ना ने अलग पाकिस्तान के सवाल पर किसी भी प्रकार के समझौते से इनकार कर दिया और साथ ही ब्रिटिश सरकार को चेतावनी भी दी कि अगर ब्रिटिश सरकार ने मुस्लिम हितों को नजरअंदाज करते हुए कांग्रेस के साथ किसी प्रकार के समझौते की कोशिश करेगी, तो उसके गंभीर परिणाम होंगे।
इंग्लैंड की मजदूर दल की सरकार ने संवैधानिक ढाँचे के बारे में बातचीत करने के लिए फरवरी, 1946 में कैबिनेट मिशन भेजा। मिशन ने अंततः जिस संघीय संरचना का प्रस्ताव रखा, वह लाहौर में जिन्ना द्वारा रखी गई व्यवस्थाओं से कुछ मिलता-जुलता था। यद्यपि दोनों पार्टियों ने पहले इस योजना के प्रति अपनी सहमति दे दी थी, किंतु शीघ्र ही विभिन्न कारणों से कांग्रेस और मुस्लिम लीग, दोनों अपने वादे से मुकर गये।
वेवल ने नेहरू के नेतृत्व में अंतरिम सरकार का गठन किया, जिसमें बाद में बड़े मान-मनौव्वल के बाद जिन्ना भी कुछ शर्तों के आधार पर अपने सहयोगियों के साथ नेहरु के नेतृत्ववाली अंतरिम सरकार में शामिल हो गये। लेकिन लीग का उद्देश्य किसी प्रकार का सहयोग करना नहीं, केवल शक्ति प्राप्त कर अलग पाकिस्तान की माँग को और सुदृढ़ करना था। फलतः अंतरिम सरकार में गृहयुद्ध जैसी स्थिति पैदा हो गई। अंततः जीवन भर संवैधानिक राजनीति के विश्वास करनेवाले ‘कायदे-आजम’ जिन्ना ने संवैधानिक तरीकों को अलविदा कह दिया और अपने अलग राष्ट्र की माँग की दावेदारी को और मजबूत करने के लिए 16 अगस्त, 1946 को ‘डायरेक्ट एक्शन’ (सीधी कार्यवाही) की घोषणा कर दी, जिसके परिणामस्वरुप पूरे देश में बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक दंगे शुरू हो गये। ‘डायरेक्ट एक्श्न डे’ के हादसे के बाद स्थिति दिन-ब-दिन बदतर होती जा रही थी। इसी बीच फरवरी 1947 में एटली सरकार ने घोषणा कर दी कि जून 1948 तक सत्ता का हस्तांतरण कर दिया जायेगा और हस्तांतरण के प्रभारी के तौर पर माउंटबेटन वायसरॉय का काम सँभालेंगे।
अपने अंतिम चरण में लंदन ने विभिन्न कारणों से मुस्लिम लीग को जबरदस्त झटका दिया। एक समय था कि वेवल ने जिन्ना से सभी मुसलमानों के नामांकन की माँग करवा करके शिमला सम्मेलन को असफल करा दिया था, लेकिन अब मजदूर दल की सरकार ने स्पष्ट कर दिया था कि, ‘‘अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों की उन्नति में बाधा नहीं बनने दिया जायेगा।’’
दरअसल 1947 में ब्रिटेन की इस नीति-परिवर्तन के कई कारण थे। एक तो ब्रिटेन के मजदूर दल की सबसे निकटतम् भारतीय पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस थी; दूसरे, ब्रिटेन ने एक बिखरे उपमहाद्वीप को एक एकल राजनीतिक क्षेत्र बना दिया था, जिसे अंग्रेज बड़े गर्व से अपने साम्राज्य की सबसे उत्कृष्ट सृजनात्मक उपलब्धि बताते थे और वे नहीं चाहते थे कि उनकी वापसी के समय उसमें दरार पड़े। तीसरे, उस समय उत्तर-पश्चिम सीमा से थोड़ी ही दूर पर अंग्रेजी राज का पारंपरिक हौवा सोवियत संघ बैठा था। ब्रिटेन को पता था कि यदि साम्यवाद के खिलाफ दक्षिण एशिया के दरवाजों को मजबूती के साथ बंद करना है, तो इसके लिए संयुक्त भारत की मजबूत चहारदीवारी चाहिए। इस प्रकार ब्रिटिश सरकार की मंशा थी कि वह संयुक्त एवं मैत्रीभाव वाले अखंड भारत को सत्ता हस्तांतरित करे और राष्ट्रमंडल की सुरक्षा हेतु भारत को सक्रिय साझेदार बनाये। ब्रिटेन का मानना था कि विभाजित भारत से राष्ट्रमंडल की शक्ति क्षीण होगी और ब्रिटिश सर्वोच्चता की उसकी नीति प्रभावित होगी।
माउंटबेटन जब दिल्ली आये तो बड़े खुश थे कि उन्हें लगभग दिव्य शक्तियों से नवाजा गया है। उनका मानना था कि राष्ट्रमंडल के अंतर्गत भारत एक राज्य बना रहे, तो विश्व में प्रतिष्ठा और रणनीति, दोनों ही दृष्टियों से यूनाइटेड किंगडम के लिए यह बड़े गौरव की बात होगी। कांग्रेसी भी अखंडता का झंडा उठाये हुए थे, लेकिन जिन्ना पाकिस्तान की जिद पकड़े हुए थे और देश सांप्रदायिकता की आग में धधक रहा था। उपमहाद्वीप के भविष्य की योजना बनाने में कांग्रेस शीघ्र ही माउंटबेटन की सहयोगी बन गई और नेहरू वायसरॉय और उनकी पत्नी के अंतरंग मित्र बन गये। किंतु मुस्लिम लीग, जो कभी अंग्रेजी राज का नीतिगत साधन हुआ करती थी, अब एक प्रमुख बाधा थी और उसका साक्षात् रूप जिन्ना थे। जिन्ना ने माउंटबेटन से स्पष्ट बता दिया कि विभाजन आवश्यक है। हम उन हिंदुओं पर विश्वास नहीं कर सकते।…..जब आप चले जायेंगे, हम सदैव के लिए उनकी कृपा पर आधारित हो जायेंगे और तब हमारे लिए कोई स्थान नहीं बचेगा, हमारा दमन किया जायेगा और यह बहुत भयानक होगा।’’ अब माउंटबेटन को जिन्ना एक ‘पागल’, ‘घटिया आदमी’ और ‘मनोरोगी’ लगने लगे थे।
माउंटबेटन ने सभी राजनीतिक दलों और प्रमुख नेताओं से व्यापक विचार-विमर्श के बाद निष्कर्ष निकाला कि कांग्रेस और लीग के बीच का गतिरोध दूर करना संभव नहीं है और विभाजन अपरिहार्य है। वायसरॉय ने कहा थाः ‘‘मुझे इस बात पर घमंड था कि मैं लोगों को सही व उचित कार्य करने के लिए तैयार कर सकता हूँ।…..लेकिन जिन्ना के मामले में कुछ भी करना संभव नहीं था। उसने अपना मन बना (पाकिस्तान के लिए) लिया था और कोई भी ताकत उसे हिला नहीं सकती थी।’’ इससे यह निश्चित हो गया कि भारत स्वतंत्र तो होगा, लेकिन उसके पहले उसका बँटवारा होगा। केरल के एक उच्च-पदस्थ हिंदू अधिकारी वी.पी. मेनन की सहायता से बँटवारे को अंतिम रूप दिया। लगातार होने वाले सांप्रदायिक दंगो से विवश होकर भारतीय एकात्मकता का दावा करने वाली कांग्रेस को मुस्लिम लीग की पृथक् पाकिस्तान की माँग को स्वीकार करना पड़ा और 3 जून की माउंटबेटन योजना के आधार पर 14 अगस्त 1947 को भारत का धार्मिक विभाजन राजनीतिक विभाजन में परिवर्तित हो गया और एक नये राष्ट्र पाकिस्तान का उदय हुआ।
यह सही है कि भारत-विभाजन के लिए अंग्रेजों की ‘फूट डालो राज करो’ की नीति, कांग्रेस की एकाधिकारवादी मनोवृत्ति और बड़ी संख्या में मुसलमानों को राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ने में असफलता तथा जिन्ना व लीग की हठधर्मिता सर्वाधिक उत्तरदायी थे, किंतु घटनाओं के संतुलित विश्लेषण से यह भी पता चलता है कि इस विभाजन के संबंध में हिंदूवादी संगठनों ने भी कुछ कम गलत कदम नहीं उठाये थे और उन्होंने भी वातावरण को विषाक्त बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी। यदि वे ही कुछ संतुलित रुख अपना लेते, तो शायद बात बन सकती थी। लेकिन उन्होंने समय-समय पर ऐसे भेदभावपूर्ण बयान दिये, जिससे स्थिति बद से बदतर होती चली गई। यद्यपि हिंदूवादी संगठन मुस्लिम लीग जितने लोकप्रिय नहीं थे, फिर भी वे मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की माँग के प्रतिकार में ‘अखंड हिंदुस्तान’ का नारा लगाते थे।
कुल मिलाकर, भारतीय उपमहाद्वीप के चीर-फाड़ के लिए किसी एक व्यक्ति या संगठन को उत्तरदायी मानना उचित नहीं है। अनेकानेक कारकों एवं परिस्थितियों ने एक साथ मिलकर ऐसा वातावरण बना दिया कि भारतीय उपमहाद्वीप का विभाजन अवश्यसंभावी हो गया। यह विभाजन अठारहवीं सदी में यूरोप, एशिया, अफ्रीका और मध्यपूर्व में किये गये अनेक विभाजनों की तरह ही था। धार्मिक, जातीय या सांस्कृतिक विभेद और राज्य के कारण पैदा की गई जटिलताएं परस्पर गुँथकर ऐसी स्थितियां पैदा कर देती हैं, जिनका परिणाम अंततः विभाजन ही होता है। भारत-विभाजन को लेकर अंग्रेज, कांग्रेस और मुस्लिम लीग सबके अपने-अपने उद्देश्य थे। ब्रिटिश सरकार जानती थी कि कांग्रेस शीघ्र स्वतंत्रता पाने के लिए भारी दबाव में है। उसने कांग्रेस की अधीरता और व्यग्रता का उपयोग बंँटवारे को स्वीकार कराने में किया। आजादी की चाह में देश की जनता ने भी विभाजन का जहरीला घूँट पी लिया, लेकिन विभाजन से दोनों देशों के बीच नफरत की ऐसी चौड़ी दीवार खड़ी हो गई कि एकीकरण की सारी संभावनाएँ समाप्त हो गईं।
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