भारत में राष्ट्रवाद का उदय (Rise of Nationalism in India)

भारत में राष्ट्रवाद

1857 की महान् क्रांति की असफलता के बाद भारत में कंपनी के शासन का अंत हो गया और ब्रिटिश सरकार ने सुधारों के द्वारा भारतीय जनता को संतुष्ट करने का प्रयास किया। ब्रिटिश सरकार ने विद्रोह की संभावनाओं को पूरी तरह समाप्त करने के लिए न केवल भारतीय सेना के चरित्र में परिवर्तित किया, बल्कि अपना साथ देनेवाले राजाओं, महाराजाओं, सामंतों और जमींदारों को पुरस्कृत कर अपनी नीति में आमूल-चूल परिवर्तन भी किया। अब रियासतों, रजवाड़ों तथा जमींदारियों को छीनने का कार्य बंद कर दिया गया और इन्हें गोद लेने का अधिकार फिर से दे दिया गया। अब धर्म के मामले में हस्तक्षेप की नीति बंद कर दी गई, लेकिन किसानों, शिल्पकारों, दस्तकारों तथा व्यापारियों के शोषण में किसी प्रकार का कोई परिवर्तन नहीं आया। अपनी ओर से अंग्रेजों ने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी, जिसके आधार पर भारतवासी ब्रिटिश साम्राज्य के विघटन के लिए प्रयास करते। फिर भी, भारत में आधुनिक राष्ट्रवाद का उदय और विकास हुआ, जो पहले से भी अधिक संतुलित और संगठित था।

भारतीय राष्ट्रवाद की पृष्ठभूमि

भारतीय राष्ट्रवाद की प्राचीनता

भारतीय राष्ट्रवाद ऐसा विवादग्रस्त एक क्षेत्र है, जहाँ से किसी ऐसे द्वंद्ववादी मध्यम मार्ग पर पहुँचना कठिन है, जो सबको स्वीकार्य हो। अंग्रेज इतिहासकारों ने तो पहले भारत में राष्ट्रीयता के अस्तित्व को मानने से ही इनकार कर दिया था। 1883 में जे. आर. सीले भारत को एक ‘भौगोलिक अभिव्यक्ति’ मात्र मानता था, जिसमें राष्ट्रीयता की कोई भावना नहीं थी। 1884 में जान स्ट्रैची ने भी कैंब्रिज विश्वविद्यालय के भूतपूर्व छात्रों को बताया था कि भारत के बारे में सबसे पहली और प्रमुख जानने योग्य बात यह है कि ‘भारत न एक है और न एक था।’

लेकिन जब उन्नीसवीं शताब्दी के अंत और बीसवीं शताब्दी के पहले दशक में भारतीय राष्ट्रवाद उभरकर शक्तिशाली हो रहा था, तो अंग्रेजों ने इसका श्रेय खुद लेना चाहा। तर्क दिया कि भारत में राष्ट्रवाद के उत्थान को औद्योगीकरण, नगरीकरण और मुद्रण-पूँजीवाद से बढ़ावा मिला। मांटेग्यू चेम्सफोर्ड रिपोर्ट के लेखकों ने दावा किया था: ‘‘राजनीतिक भावना से प्रेरित भारतीय बौद्धिक रूप से हमारी ही संतान हैं। उन्होंने वे ही विचार अपनाये हैं, जो हमने उनके सामने रखे हैं और इसका श्रेय हमें ही मिलना चाहिए।’’ कूपलैंड ने स्पष्ट लिखा था: ‘भारतीय राष्ट्रवाद तो अंग्रेजी राज की ही संतति थी।’’ इस प्रकार भारतीय राष्ट्रवाद के अधिकांश इतिहासकारों का तर्क रहा है कि आधुनिक अर्थ में भारतीय राजनीतिक राष्ट्र ब्रिटिश राज की स्थापना के पहले मौजूद नहीं था।

किंतु भारत में राष्ट्रीय चेतना वेदकाल से अस्तित्वमान है। अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में धरती माता का यशोगान किया गया हैं- माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः (भूमि माता है और मैं पृथ्वी का पुत्र हूँ)। विष्णुपुराण में तो राष्ट्र के प्रति का श्रद्धाभाव अपने चरमोत्कर्ष पर दिखाई देता है। इस ग्रंथ में भारतभूमि का यशोगान ‘पृथ्वी पर स्वर्ग’ के रूप में किया गया है।
अत्रापि भारतं श्रेष्ठं जम्बूद्वीपे महागने।
यतोहि कर्म भूरेषा ह्यतोऽन्या भोग भूमयः।।
गायन्ति देवाः किल गीतकानि धन्यास्तु ते भारत-भूमि भागे।
स्वर्गापस्वर्गास्पदमार्गे भूते भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात्।।
इसी प्रकार वायुपुराण में भारत को अद्वितीय कर्मभूमि कहा गया है, तो भागवतपुराण में विश्व की ‘सबसे पवित्र भूमि’ बताया गया है जहाँ देवता भी जन्म धारण करने की अभिलाषा रखते हैं। इसी प्रकार महाभारत, गरुड पुराण, रामायण आदि ग्रंथों में भारतभूमि की महिमा का बखान किया गया है और जननी जन्मभूमि को स्वर्ग से भी महान् बताया गया है। किंतु भारत में राष्ट्रवाद का जन्म और विकास कोई नई और अपरिचित प्रक्रिया नहीं थी।

आधुनिक राष्ट्रवाद

कहा जाता है कि भारतीय राष्ट्रवाद का जन्म उपनिवेशपूर्व काल में ‘पारंपरिक देशभक्ति’ से हुआ था। सत्ता के लिए राजनीतिक संघर्ष के आरंभ से बहुत पहले ही भारतीय समाज एक निजी सांस्कृतिक क्षेत्र में अपने राष्ट्रत्व की कल्पना करने लगा था, भले ही राज्य तब उपनिवेशकों के हाथों में था। इसी जगह आकर उसने प्रभुसत्ता के अपने स्वयं के क्षेत्र के बारे में सोचा और ऐसी भारतीय आधुनिकता का निर्माण किया, जो आधुनिक तो थी, लेकिन पाश्चात्य नहीं थी।

उन्नीसवीं सदी के आरंभिक वर्षों के भारत में क्षेत्रीय आधार पर ऐसी भावनाओं का विकास होने लगा था, जब जन्मभूमि की परिभाषा देश, वतन या नाडु के रूप में की जाने लगी थी और क्षेत्रीय भाषाओं तथा धार्मिक संबद्धताओं के विकास के साथ धीरे-धीरे पहचानों का निर्माण होने लगा था। संचार के विभिन्न साधनों के कारण भी उनका अलगाव भंग हुआ। मुगल साम्राज्य की राजनीतिक वैधता पूरे देश में स्वीकार की जाती थी, जिसे हिंदू और मुसलमान दोनों का देश समझा जाता था और सांस्कृतिक बाधाएँ व्यापार और नियमित तीर्थयात्राओं के कारण हवा हो जाती थीं। जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपना वर्चस्व स्थापित किया, तो यह परस्पर देशभक्ति प्रतिरोध की अनेक कार्रवाइयों में फूटकर सामने आई, जिसका चरर्मोत्कर्ष 1857 की क्रांति था। क्रांति के बाद भारत में शिक्षा के तीव्र प्रसार, रेल और तार जैसी संचार व्यवस्थाओं के विकास तथा औपनिवेशिक संस्थाओं के कारण उत्पन्न कर्मक्षेत्र के कारण धीरे-धीरे राजनीति का यह आधुनिक स्वरूप सामने आया। यद्यपि पुराना ‘देशप्रेम’ पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ, किंतु उसे नये सिरे से ढालकर एक ऐसी नई उपनिवेशी आधुनिकता पैदा की गई, जो पश्चिम की आधुनिकता से भिन्न थी।

आधुनिक राष्ट्रवाद के उदय के कारण

दरअसल भारत में आधुनिक राष्ट्रवाद के उदय की प्रक्रिया अत्यंत जटिल और बहुमुखी रही है क्योंकि भारत एक बहुलवादी समाज था और इसलिए भारतीय राष्ट्रवाद के अनेक स्वर थे। चूंकि भारत कोई ढ़ाँचाबद्ध राष्ट्र न होकर एक निर्माणाधीन राष्ट्र था, इसलिए विभिन्न वर्गों, समूहों, समुदायों और क्षेत्रों ने अपने राष्ट्र की व्याख्या विभिन्न और कभी-कभी परस्पर-विरोधी ढंग से की है। इन परस्पर-विरोधी हितोंवाले विभिन्न समूहों की अनेक पहचानें थीं, जैसे- वर्गीय पहचान, जातिगत पहचान, धार्मिक पहचान आदि। विभिन्न ऐतिहासिक मोड़ों पर भिन्न-भिन्न पहचानों को अभिव्यक्ति मिलती थी और वे एक-दूसरे से घात-प्रतिधात करती थीं। जब उपनिवेशी राजसत्ता ने इन टकरावों को तीखा करने और बढ़ाने की कोशिशें की, तो भारतीय राष्ट्रवादियों ने परस्पर-विरोधी हितोंवाले सभी असंबद्ध समूहों को एकछत्र नेतृत्व के अंतर्गत लाने के प्रयास किये। फलतः भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन एक जन-आंदोलन बन गया। इस प्रकार आधुनिक भारतीय राष्ट्रवाद बुनियादी तौर पर विदेशी आधिपत्य की चुनौती के जवाब के रूप में उदित हुआ।

पाश्चात्य विचार और शिक्षा

भारतीय राष्ट्रवाद के उदय में पश्चिमी विचारधारा और शिक्षा के प्रसार की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। यद्यपि इस शिक्षा का उद्देश्य पढ़े-लिखे भारतीयों के मन का उपनिवेशीकरण करना और उनमें वफादारी की एक भावना भरना था, किंतु भारतीयों ने उपनिवेशवाद के प्रति अपनी समालोचना तैयार करने के लिए वर्चस्व के इस ज्ञान का चयनित उपयोग किया और उसमें फेरबदल किया।

यह सही है कि भारतवासियों के विभिन्न समूहों में इस आलोचनात्मक चेतना के स्तर अलग-अलग थे, क्योंकि स्वयं शिक्षा का प्रसार असमान था, जैसे तीनों तटीय प्रेसीडेंसियों अर्थात् बंगाल, मुंबई और मद्रास में शिक्षा का प्रसार उत्तर भारत के केंद्रीय क्षेत्रों से अधिक व्यापक था। प्रेसीडेंसियों में भी कुछ समुदाय दूसरों से अधिक उन्नत थे, जैसे बंगाल में उच्च शिक्षा पर भद्रलोक का एकाधिकार था, जो मुख्यतः तीन ऊँची जातियों ;ब्राह्मण, कायस्थ और वैद्यद्ध के लोग थे, मुंबई में यह मुख्यतः चितपावन ब्राह्मणों और पारसियों तक सीमित रही और मद्रास में तमिल ब्राह्मणों और आयंगरों तक। बंगाल में भी बंगाली लोग उडि़याओं, बिहारियों और असमियों से बहुत आगे थे, मुंबई में मराठीभाषी क्षेत्र गुजरातीभाषी क्षेत्रों से आगे थे और मद्रास में तमिलभाषी क्षेत्र तेलगु और मलयालम के क्षेत्रों से आगे बढ़ गये। हिंदू मुसलमानों से बहुत आगे थे और हिंदुओं में निचली जातियों और अछूतों का एक बड़ा भाग शिक्षा से वंचित रहा।

शिक्षा के प्रसार की भिन्नता से स्पष्ट है कि विभिन्न क्षेत्रों में इससे राजनैतिक क्रियाकलापों के स्तर पर प्रभाव पड़ा, यानी शिक्षा के उच्चतर स्तरोंवाली प्रेसीडेंसियाँ, प्रांतों के मुकाबले राजनीतिक दृष्टि से अधिक मुखर थीं। लेकिन इसका कारण यह था कि यहाँ पश्चिमी शिक्षा ने और भी बहुत से छात्रों का संपर्क अनेक प्रकार के वैचारिक प्रभावों से कराया। अगर अंग्रेजी शिक्षा का आरंभ निष्ठा की भावना पैदा करने के लिए किया गया था, तो उसने भारतवासियों का संपर्क आधुनिक पश्चिम के ‘बुद्धिवादी और लोकतांत्रिक विचारों’ से भी कराया। इस ‘आधुनिक राजनीतिकता’ में नागरिकता, राज्य, नागरिक समाज, सार्वजनिक कर्मक्षेत्र, मानवाधिकार, कानून के समक्ष समानता, व्यक्ति, सार्वजनिक और निजी का भेद, प्रजा की अवधारणा, लोक, जनता की प्रभुसत्ता, सामाजिक न्याय, वैज्ञानिक बौद्धिकता आदि धारणाएँ शामिल थीं।

यह कहना पूरी तरह सही नहीं है कि भारतीय राष्ट्रीयता की भावना पश्चिमी शिक्षा का पोष्य शिशु था। इतना अवश्य है कि पश्चिमी शिक्षा और विचारधारा के प्रचार के कारण भारतीयों ने एक आधुनिक, बुद्धिसंगत, धर्मनिरपेक्ष, जनतांत्रिक तथा राष्ट्रवादी राजनीतिक दृष्टिकोण अपनाया। वे यूरोपीय राष्ट्रों के समसामयिक राष्ट्रवादी आंदोलनों का अध्ययन, उसकी प्रशंसा तथा उनका अनुकरण करने के प्रयत्न भी करने लगे। रूसो, पेन, जान स्टुअर्ट मिल तथा दूसरे पाश्चात्य विचारक उनके राजनीतिक मार्गदर्शक बन गये, जबकि मेजिनी, गैरीबाल्डी तथा आयरलैंड के राष्ट्रवादी नेता उनके राजनीतिक आदर्श हो गये। इस प्रणाली ने शिक्षित भारतीयों को पाश्चात्य विचार अपनाकर राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व संभालने तथा उसे एक जनतांत्रिक और आधुनिक दिशा देने में समर्थ बनाया।

राष्ट्रीय जागरण और सुधार-आंदोलन

राष्ट्रीय आंदोलन आधुनिक शिक्षा प्रणाली की उपज नहीं था, बल्कि वह ब्रिटेन तथा भारत के हितों के टकराव से उत्पन्न हुआ था। बढ़ते नस्लीय तनाव, धर्मांतरण के डर और बेंथमवादी प्रशासकों के सुधारवादी उत्साह ने पढ़े-लिखे भारतीयों को विवश कर दिया कि वे रुककर अपनी स्वयं की संस्कृति पर गहरी नजर डालें। अब शिक्षित भारतीयों ने अपनी संस्कृति को एक ठोस इकाई के रूप में निरूपित किया, जिसका आसानी से उद्धरण दिया जा सके, तुलना की

भारत में राष्ट्रवाद का उदय (Rise of Nationalism in India)
भारत के युवा संन्यासी स्वामी विवेकानंद

जा सके, उल्लेख किया जा सके और विशेष उद्देश्यों से जिसका उपयोग किया जा सके। यह नई सांस्कृतिक परियोजना उन्नीसवीं शताब्दी के सामाजिक और धार्मिक सुधारों के माध्यम से व्यक्त हुई जिसे सूत्र रूप में ‘सांस्कृतिक जागरण’ कहा गया है। इसका उद्देश्य भारतीय संस्कृति को शुद्ध करना और इस तर्क की पुनर्खोज करना था कि वह बुद्धिवाद, अनुभवाद, एकेश्वरवाद और व्यक्तिवाद के यूरोपीय आदर्शों से मेल खाये। इसका उद्देश्य यह दिखाना था कि भारतीय सभ्यता किसी भी तरह से पश्चिमी सभ्यता से हीन नहीं है, बल्कि एक अर्थ में, अपनी आध्यात्मिक सिद्धियों में, उससे श्रेष्ठ भी है। इस प्रकार इस आंदोलन का उद्देश्य एक ऐसी आधुनिक राष्ट्रीय संस्कृति का निर्माण करना था, जो फिर भी पाश्चात्य न हो।

राममोहन राय और उनके ब्रह्मसमाज ने भारतवासियों को प्रजा एवं स्वतंत्रता के नये विचार ग्रहण करने के लिए प्रेरित किया, तो स्वामी दयानंद सरस्वती और उनके आर्यसमाज ने न केवल हिंदू धर्म तथा समाज में व्याप्त बुराइयों का विरोध किया, अपितु अपने देशवासियों में राष्ट्रीय चेतना का भी संचार किया। युवा संन्यासी विवेकानंद ने यूरोप और अमेरिका में भारतीय संस्कृति का प्रचारकर भारतीयों में सांस्कृतिक चेतना जागृत किया। पश्चिम की भौतिकवादी संस्कृति के विपरीत भारतीय सभ्यता के आध्यात्मिक मूल में गर्व के इस भाव ने भारतवासियों को न केवल अपने निजी जीवन को पुनर्गठित और गरिमामय बनाने में मदद दी, बल्कि इसकी वैचारिक प्रेरणा ने एक नये-नये पैदा हो रहे सार्वजनिक कर्मक्षेत्र में उपनिवेशी राजसत्ता का सामना करने के लिए उसको प्रेरित भी किया। इसने आधुनिक राष्ट्रवाद को वैचारिक आधार भी प्रदान किया, जो उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षों में विकसित हुआ।

यह विचारधारा निश्चित ही अंतर्विरोधों से मुक्त नहीं थी क्योंकि आध्यात्मिक विरासत पर गर्व की यह भावना प्रायः नीचे गिरकर अतीत के सभी रीति-रिवाजों का आनालोचनात्मक और पोंगापंथी समर्थक बन जाती थी। भारतीय परंपरा के इस आविष्कार ने अब नये उपयोगोंवाले प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में निहित हिंदू परंपरा का एक आदर्श रूप प्रस्तुत करने के लिए मुस्लिम शासन के लंबे दौर को उपेक्षित किया। उसने एक विदेशी शासन के विरोध में हिंदुओं को एकजुट किया, किंतु इस क्रम में मुसलमानों, गैर-ब्राह्मणों और अछूतों को उनसे दूर कर दिया। हिंदू पुनरुत्थानवाद की इसी पहेली को सांप्रदायिकता का जन्मदाता समझा जाता है।

ऐतिहासिक अन्वेषण एवं अनुसंधान

उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में भारतवासियों को अपने प्राचीन इतिहास की बहुत कम जानकारी थी। इसका कारण भारत में इतिहास न लिखे जाने की परंपरा थी, किंतु विलियम जोंस (बंगाल एशियाटिक सोसाइटी), जेम्स प्रिंसेप, एलेक्जेंडर कनिंघम, मैक्समूलर, विल्सन, मोनियर विलियम्स, रोथ, सैसून तथा फग्र्यूसन जैसे यूरोपीय प्राच्य शिक्षाविदों के निरंतर प्रयासों तथा पुरातात्त्विक खुदाइयों ने भारत के प्राचीन महान् संस्कृति एवं इतिहास पर पड़े सदियों पुराने आवरण को उतार फेंका। जेम्स प्रिंसेप ने 1837 ई. में सर्वप्रथम ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपियों को पढ़ने में सफलता प्राप्त की और सबसे पहले अभिलेखों और सिक्कों पर पियदस्सी (प्रियदर्शी) को पढ़ा था।

इतिहास की इन नई खोजों ने प्राचीन भारत की सस्कृति एवं महानता को पुनर्स्थापित किया। अनेक राष्ट्रवादी लेखकों, जैसे- आर.जी. भंडारकर, आर.एल. मित्रा एवं स्वामी विवेकानंद इत्यादि ने भारत की प्राचीन सांस्कृतिक विरासत को पुनर्व्याख्यित कर भारतीयों की राष्ट्रीय भावनाओं को बल प्रदान किया। सर विलियम जोंस, मैक्समूलर, जैकोबी, कोलब्रुक, ए.बी. कीथ, बुर्नूफ आदि ने भारत के संस्कृत भाषा में लिपिबद्ध ऐतिहासिक ग्रंथों का अध्ययन-विश्लेषण किया और उनका अंग्रेजी भाषा में अनुवाद किया। इन पश्चिमी विद्वानों ने अथक परिश्रम करके कला, साहित्य, वास्तुकला, संगीत, दर्शन, विज्ञान तथा गणित आदि विभिन्न क्षेत्रों में भारतीयों की उपलब्धियों को खोज निकाला और मानव सभ्यता के विकास में भारत के योगदान को पुनः प्रकाशित किया। इन ऐतिहासिक अन्वेषणों और अनुसंधानों ने भारतीयों को अपनी सभ्यता और संस्कृति पर गर्व करना सिखाया।

इसी समय जेम्स मिल ने भारत में इतिहास लेखन के आधुनिक परंपरा की नींव डाली। उसने भारतीय इतिहास के तीन कालखंडों- प्राचीन काल, मध्यकाल और आधुनिक काल को हिंदूकाल, मुस्लिम काल तथा ब्रिटिश काल के रूप में विभाजित किया। मिल ने भारतीय इतिहास में प्राचीन भारत के गौरव को अत्यंत बढ़ा-चढ़ाकर बताया, जिसका परिणाम यह हुआ कि उस काल के नवबुद्धिजीवियों का एक बहुत बड़ा तबका यह मानने लगा कि भारत के तत्कालीन दुर्दशा का कारण उनके धर्म में आई रूढि़वादिता, कुरीतियाँ और धर्मांधता थीं, न कि अंग्रेजी शासन। इन बुद्धिजीवियों ने भारतीय धर्म और समाज में फैले अंधविश्वासों, कुरीतियों और कर्मकांडों को दूर करने का प्रयास किया।

आर्थिक शोषण की नीतियाँ

ब्रिटिश शासन के प्रति विरोध उत्पन्न होने का सबसे प्रमुख कारण आर्थिक असंतोष और कठिनाइयाँ थीं। ब्रिटिश औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था में देश के विभिन्न वर्गों, जैसे-किसानों, शिल्पकारों, दस्तकारों, मजदूरों, बुद्धिजीवियों, शिक्षित वर्गों एवं व्यापारियों- सभी के हित विदेशी शासन की भेंट चढ़ गये। सरकार की भेदभावपूर्ण आर्थिक नीतियों से भारतीय उद्योग-धंधें बिल्कुल नष्ट हो गये। बाहर भेजी जानेवाली भारतीय वस्तुओं पर भारी कर लगाया गया और भारत में आनेवाले माल पर आयात-शुल्क में भारी छूट दी गई। जब इंग्लैंड के औद्योगिक उत्पादों ने भारतीय बाजार पर धावा बोला, तो भारत का आर्थिक ढ़ांँचा ही टूटकर बिखर गया। कुटीर उद्योगों के पतन से करोड़ों की संख्या में भारतीय दस्तकार बेरोजगार हो गये। 1834-35 में गर्वनर जनरल ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि इनका दुःख-दर्द व्यापार के समूचे इतिहास में अतुलनीय है। कपड़ा बुनकरों की अस्थियों से भारत की धरती सफेद हो गई है।

ब्रिटिश भाप और विज्ञान ने समूचे हिंदुस्तान में कृषि उद्योगों की एकता को जड़ से उखाड़ फेंका। उद्योगों एवं दस्तकारी के पतन के कारण इनमें कार्यरत व्यक्ति कृषि की ओर झुके, जिससे भूमि पर दबाव बहुत अधिक बढ़ गया। यही नहीं, सरकार की अत्यधिक मालगुजारी, जमींदारों और साहूकारों के शोषण के कारण किसानों की दशा इतनी खराब हो गई कि 75 प्रतिशत से अधिक व्यक्तियों को भरपेट खाना भी नसीब नहीं होता था। 1900 में सर विलियम डिग्वी ने लिखा था कि ब्रिटिश भारत में करीब दस करोड़ मनुष्य ऐसे हैं, जिन्हें किसी समय भी भरपेट अन्न नहीं मिलता। अचानक पड़नेवाले अकाल तो किसानों की स्थिति को और अधिक असहनीय बना देते थे। इससे भारतीयों ने जान लिया कि उनकी इस दीन-हीन स्थिति का कारण विदेशी शासन है और जबतक देश में विदेशी शासन रहेगा, लोगों के आर्थिक हितों पर कुठाराघात होता रहेगा।

प्रशासनिक एकीकरण

1707 के बाद भारत में सुव्यवस्था व राजनीतिक एकता का लोप हो चुका था, लेकिन ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने भारत की पुरानी चली आ रही सांस्कृतिक एकता को तमाम अनेकताओं के बावजूद एक नवीन प्रकार की राजनीतिक एकता के सूत्र में बाँध दिया। हिमालय से कुमारी अंतरीप तक संपूर्ण भारत एक सरकार के अधीन आ गया और पूरे देश में राजनीतिक एकता के साथ ही शांति और सुव्यवस्था स्थापित हुई। समस्त भारतीय उपमहाद्वीप में एक कोने से दूसरे कोने तक एक ही प्रकार का न्यायिक ढाँचा, संहिताबद्ध फौजदारी तथा दीवानी कानून लागू हुए। यद्यपि ब्रिटिश शासन द्वारा स्थापित भारत की राजनीतिक एकता सामान्य अधीनता की एकता थी, लेकिन उसने सामान्य राष्ट्रीयता की एकता को जन्म दिया।

यातायात एवं संचार के साधन

ब्रिटिश सरकार ने पूरे देश में रेलों तथा सड़कों का जाल बिछा दिया। डाक, तार, टेलीफोन आदि की भी व्यवस्था हुई। अंग्रेज सरकार का मुख्य उद्देश्य यह था कि इससे विद्रोह को दबाने के लिए अंग्रेजी सेनाएँ एक स्थान से दूसरे स्थान पर शीघ्रता से भेजी जा सकेंगी और दूर-दूर के प्रांतों से सूचनाएँ शीघ्र प्राप्त हो सकेंगी। संचार के इन साधनों ने सारे देश को गूँथकर एक कर दिया और भौगोलिक एकता को एक मूर्तरूप दिया। अनजाने में ही इस विकास से भारतीयों का बड़ा लाभ हुआ। अब देश के भिन्न-भिन्न भागों में रहनेवाले लोगों के बीच दूरी कम हो गई और उनका एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना सुगम हो गया। इससे भारतीयों का आपसी संपर्क बढ़ा और उनका दृष्टिकोण व्यापक हुआ। इन साधनों के माध्यम से समाचार-पत्र देश के दूर-दराज के भागों में भी पहुँचने लगे। अब राष्ट्रवादियों का मिलना-जुलना और पत्र-व्यवहार करना भी आसान हो गया, वे एक स्थान से दूसरे स्थान का भ्रमण कर आंदोलन को और अधिक गरम बनाने लगे, जिससे जनसाधारण में जागृति आई। इस प्रकार एकीकरण से देश के विभिन्न भागों के लोगों के आर्थिक हित आपस में जुड़ गये, जिससे राष्ट्रवाद को बढ़ावा मिला।

मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवियों का उदय

अंग्रेजों की प्रशासनिक और आर्थिक क्षेत्र में नवीन प्रक्रिया से नवीन मध्यमवर्गीय नागरिकों की एक श्रेणी उत्पन्न हुई। इस नवीन वर्ग ने शीघ्रता से अंग्रेजी भाषा सीख ली क्योंकि इससे नौकरियों को पाने में सुविधा होती थी और दूसरों से सम्मान भी मिलता था। यह नवीन वर्ग जल्द ही अपनी शिक्षा और समाज में उच्च स्थान के कारण प्रशासक वर्ग के समीप पहुँच गया। यद्यपि इस नवीन मध्यम वर्ग की पृष्ठभूमि अलग-अलग थी, लेकिन उनके ज्ञान, विचार और मूल्यों की अग्रभूमि समान थी। भारतीय समाज का यही गतिशील मध्यम वर्ग आधुनिक भारत की नवीन आत्मा बन गया और बाद में इसने समस्त भारत में अपनी इस शक्ति का संचार किया। इसी वर्ग ने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को नेतृत्व प्रदान किया।

प्रेस एवं साहित्य की भूमिका

तेजी से फैल रही मुद्रण-संस्कृति ने राष्ट्रवादी विचारों को पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में फैलाया। समाचारपत्रों, जर्नल्स, पेम्फलेट्स तथा राष्ट्रवादी साहित्य ने देश के विभिन्न भागों के राष्ट्रवादी नेताओं के मध्य विचारों के आदान-प्रदान में भी सहायता पहुँचाई। 1875 में भारतीय स्वामित्ववाले लगभग 400 समाचारपत्र थे, जो अंग्रेजी और भारतीय भाषाओं, दोनों में छपते थे और उनका अनुमानित पाठक वर्ग 1,50,000 का था। इन समाचारपत्रों ने अंदरूनी बाधाओं को

भारत में राष्ट्रवाद का उदय (Rise of Nationalism in India)
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (9 सितंबर 1850-6 जनवरी 1885)

दूर किया और अंतक्र्षेत्रीय एकजुटता को बढ़ावा दिया। लार्ड लिटन ने 1878 में राजनैतिक आलोचनाओं तथा भारतीय राष्ट्रवाद के प्रसार को बाधित करने के लिए देसी समाचारपत्रों पर नियंत्रण लगाया, किंतु तब तक विकसित प्रेस ने एक ऐसा वर्ग उत्पन्न कर दिया था, जो पूरी तरह समकालीन पश्चिमी मूल्यों, वैज्ञानिकता एवं औद्योगीकरण, तर्क एवं विवेक तथा उदारवाद एवं लोकतंत्र के यूरोपीय वातावरण में विकसित हुआ था। इस प्रकार प्रेस और भारतीय समाचारपत्र न केवल जनता को शिक्षित करने का माध्यम बने, बल्कि भारतीय राष्ट्रवाद के दर्पण भी सिद्ध हुए।स्वतंत्र प्रेस और विदेशी राज एक-दूसरे के विरुद्ध हंै और ये दोनों एक साथ नहीं चल सकते। भारतीय समाचार-पत्रों पर यह बात पूरी तरह सही उतरती है। यद्यपि भारत में प्रेस की नींव 1780 में ‘बंगाल गजट’ के प्रकाशन के साथ पड़ गई थी, किंतु राममोहन राय के ‘संवाद कौमुदी’ के साथ भारत में सही अर्थों में पत्रकारिता की नींव पड़ी। अंग्रेज भारत में प्रेस की स्वतंत्रता के पूरी तरह विरुद्ध थे जिसके कारण 1834 तक प्रेस पर कड़ा सरकारी नियंत्रण बना रहा, किंतु स्वयं ब्रिटेन में 1832 सुधारों के बाद उदारवाद की जो लहर चली, उसके कारण 1835 में मेटकाॅफ ने भारतीय प्रेस पर लगे नियंत्रण को हटाना दिया। इस नियंत्रण के हटते ही भारत का देसी प्रेस उद्योग दिन दूनी रात चैगुनी की गति से बढ़ने लगा। इस समय के समाचारपत्रों में बंगदूत, प्रभाकर, हिंदू पैट्रियट, इंडियन मिरर, अमृत बाजार पत्रिका, पब्लिक ओपिनियन, ब्रह्मो, बंगाली, सोम प्रकाश, कामरेड, न्यू इंडियन, केसरी, नव विभाकर, सुलभ समाचार, संजीवनी, साधारिणी, हितवाणी, रस्त गुफ्तार, बाम्बे समाचार, इंदु प्रकाश, जामे जमशेद, मराठा, ध्यान प्रकाश, केसरी, बंग्लौर, आर्यदर्शन, बंधवा, हिंदू, स्टैंडर्ड, स्वदेश मित्र, ट्रिब्यून, हेराल्ड, एडवोकेट आदि प्रमुख थे। 1877 तक देश में प्रकाशित होनेवाले समाचारपत्रों की संख्या 644 तक पहुँच गई थी।

उपन्यासों, निबंधों, कविताओं, कथाओं एवं देशभक्तिपूर्ण काव्य के रूप में राष्ट्रीय साहित्य ने भी राष्ट्रीय चेतना के जगाने में प्रमुख भूमिका निभाई। बंगला में रबींद्रनाथ टैगोर, बंकिमचंद्र चटर्जी, हेमचंद्र बनर्जी, मराठी में विष्णुशास्त्री चिपलुणकर, असमी में लक्ष्मीदास बेजबरुआ, गुजराती में नर्मद, तमिल में सुब्रमण्यम भारती, हिंदी में भारतेंदु हरिश्चंद्र और उर्दू में अल्ताफ हुसैन हाली इस काल के प्रख्यात राष्ट्रवादी लेखक थे। इन राष्ट्रवादी लेखकों ने अपने उत्कृष्ट साहित्य के माध्यम से भारतीयों में स्वतंत्रता, समानता, एकता, भाईचारा और राष्ट्रीयता की भावना को बढ़ावा दिया।

जातीय श्रेष्ठता का दंभ और जाति-विभेद

भारत में राष्ट्रीय भावनाओं के विकास का एक गौण, किंतु महत्त्वपूर्ण कारण जातीय श्रेष्ठता का दंभ और जाति-विभेद की नीति थी। यूरोपियनों की जाति-विभेद नीति तीन महत्त्वपूर्ण सिद्धांतों पर आधारित थी। पहला, एक यूरोपियन का जीवन अनेक भारतीयों के बराबर है, दूसरा, भारतीय केवल भय एवं दंड की भाषा को ही समझ सकते हैं एवं तीसरा, यूरोपियन भारत में लोकहित के दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि निजी स्वार्थ की सिद्धि हेतु आये हैं। 1857 के बाद भारत आने वाले अंग्रेजों के मस्तिष्क में भारतीयों के बारे में विचित्र धारणाएँ होती थीं। वे तत्कालीन हास्य-चित्रों के अनुसार भारतीयों को ऐसा जंतु समझते थे, जो आधा वनमानुष और आधा नीग्रो था, जिसे केवल भय द्वारा ही समझाया जा सकता था और जिसके लिए जनरल नील तथा उनके साथियों का घृणा और आतंक का व्यवहार ही उपयुक्त है।

इस जातीय विभेद और दंभ का एक कड़वा और प्रचलित रूप तब देखने को मिलता था, जब कोई अंग्रेज किसी भारतीय से किसी विवाद में उलझा होता था और न्याय व्यवस्था अंग्रेजों का पक्ष लेती थी। जी.ओ. ट्रेवेलियन ने 1864 में लिखा: ‘‘हमारे देश के एक व्यक्ति का बयान भी अदालत में अनेकों हिंदुओं के बयान से अधिक महत्त्व रखता है। यह एक ऐसी परिस्थिति है जिसमें शक्ति का एक भयानक साधन एक बेईमान और चालाक अंग्रेज के हाथों में पहुँच जाता है।’’ ‘अमृत बाजार पत्रिका’ में कई ऐसी घटनाओं का जिक्र है, जिनमें अंग्रेज हत्यारों को पूरी कानूनी सजा नहीं मिली। यूरोपियनों के मुकदमों में शहरों से जूरी बुलाये जाते थे जो विजेता जाति का होने के कारण किसी यूरोपीय को भारतीयों की हत्या के अपराध में सजा देना नहीं चाहते थे। अंग्रेजों ने बिना किसी कारण के अनेक भारतीयों की हत्याएँ की, किंतु उन्हें दंड नहीं दिया गया। एक बार एक अंग्रेज सैनिक ने भारतीय रसोइये को इसलिए मार डाला क्योंकि वह उसके लिए भारतीय स्त्री नहीं ला सका था। यदि चाय के रोपक पर किसी असहाय कुली को निर्दयतापूर्वक पीटने का अभियोग चलाया जाता, तो उसका निर्णय करने के लिए चाय के रोपकों की जूरी बनाई जाती थी। यह जूरी स्वाभाविक रूप से अभियुक्त के पक्ष में होती थी। यदि किसी कारण से दोष सिद्ध भी हो जाता था, तो अंग्रेजों का जनमत उस निर्णय की निंदा करता था। आंग्ल-भारतीय समाचारपत्र इसका विरोध करते थे, अपराधी के लिए चंदा एकत्रित करते थे और प्रभावशाली लोगों द्वारा स्मरण-पत्र तैयार कर अपराधी के छुटकारे के लिए निवेदन किया जाता था।

अंग्रेजों का यह प्रजातीय भेदभाव जाति, धर्म, प्रांत या वर्ग का भेदभाव किये बिना तमाम भारतीयों को एक समान हीन सिद्ध करता था। भारतीय लोग यूरोपियन लोगों के होटलों, क्लबों, पार्कों में नहीं जा सकते थे और अक्सर उन्हें रेलगाड़ी के उस डिब्बे में यात्रा करने की अनुमति नहीं थी जिसमें यूरोपीय यात्री जा रहे हों। इस जातीय कटुता और राष्ट्रीय अपमान के बोध के कारण सभी भारतीय अपने-आपको एक जनगण के रूप में देखने लगे और उनमें राष्ट्रीयता की भावना का उदय हुआ।

सरकारी नौकरियों में पक्षपात

यद्यपि 1833 के चार्टर अधिनियम और 1858 की महारानी विक्टोरिया की घोषणा में यह स्पष्ट कहा गया था कि सरकारी नौकरियों में नियुक्ति योग्यता के आधार पर ही की जायेगी, किंतु व्यवहार में इस नीति का पालन करने के स्थान पर इसे भंग ही किया गया। ब्रिटिश सरकार पढ़े-लिखे भारतीयों को नौकरी नहीं देना चाहती थी, इसलिए इन नवशिक्षित युवकों में असंतोष बढ़ना स्व़ाभाविक था। भारतीयों को उच्च पदों, विशेषकर भारतीय नागरिक सेवा से अलग रखने के लिए विधिवत् प्रयास किये गये। इस सेवा में प्रवेश की आयु 21 वर्ष थी और इसकी परीक्षा इंग्लैंड में अंग्रेजी भाषा में होती थी। ऐसी स्थिति में किसी भी भारतीय द्वारा इस परीक्षा को पास करना अत्यंत कठिन था। इसके बावजूद भी अगर कोई भारतीय सफल हो जाता था, तो उसे किसी न किसी बहाने नौकरी से निकाल दिया जाता था। उदाहरणार्थ, 1869 में सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने आई.सी.एस. की परीक्षा पास कर ली, किंतु ब्रिटिश सरकार ने सेवा में प्रवेश करने के बाद मामूली-सी गलती पर उन्हें नौकरी से हटा दिया। इसी प्रकार 1877 में अरविंद घोष ने इस परीक्षा को पास कर लिया, परंतु उनकी नियुक्ति इसलिए नहीं की गई क्योंकि वे घोड़े की सवारी में प्रवीण नहीं थे। सच तो यह है कि ब्रिटिश अधिकारी भारतीयों को उच्च पदों से वंचित रखने के लिए नित नये-नये बहाने ढूढ़ते रहते थे।

ब्रिटिश सरकार की प्रतिक्रियावादी नीतियाँ

उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में ब्रिटिश सरकार शिक्षित भारतीयों के अधिकारों का हनन करने लगी थी। इसका आरंभ ईसाई धर्मांतरण के आसन्न खतरे से हुआ, जिसको 1850 में पारित ‘लैक्स लोकी ऐक्ट’ ने और बढ़ावा दिया, जिससे धर्म-परिवर्तन करनेवाले को पुश्तैनी संपत्ति में हिस्सा लेने का अधिकार मिल गया। 1861 के इंडियन कौंसिल ऐक्ट ने गवर्नर जनरल की कौंसिल में गैर-सरकारी भारतीय सदस्यों को सीमित संख्या में शामिल किये जाने की व्यवस्था दी, किंतु वे गवर्नर जनरल की अनुमति के बिना कोई विधेयक पेश नहीं कर सकते थे। इससे बड़ी बात यह कि उसे ‘वीटो’ का अधिकार प्राप्त था। सरकार सेना पर, होम चार्जेज पर और साम्राज्य की आवश्यकतानुसार लोक-निर्माण के कार्यों पर अत्यधिक खर्च कर रही थी, किंतु 31 मार्च 1870 को जब सरकार ने एक प्रस्ताव द्वारा बंगाल में अंग्रेजी शिक्षा के आवंटन में कटौती का फैसला किया, तोे शिक्षित युवाओं को बड़ी निराशा हुई। 1870 के दशक में न्यायिक सुधार के अंतर्गत सीमित चुनाव के सिद्धांत को जगह तो दी गई थी, किंतु 1876 में सिविल सेवा में बैठने की आयु 21 वर्ष से घटाकर 19 साल करके इसकी भी काट निकाल ली गई, जबकि अभी पुरानी माँग कि परीक्षा लंदन के साथ-साथ भारत में भी कराई जाए, पूरी नहीं हुई थी।

शिक्षित भारतीयों पर सबसे बड़ा हमला लाॅर्ड लिटन ने किया। उसका 1878 का वर्नाक्यूलर प्रेस ऐक्ट देशव्यापी आंदोलन का निशाना बना, जिसके अनुसार भारतीयों को बिना लाइसेंस हथियार रखने को अपराध घोषित कर दिया गया। लिटन के काल में जब दक्षिण भारत में अकाल से हजारों लोग मौत के मुँह में जा रहे थे, उस समय उसने महारानी विक्टोरिया को ‘भारत-साम्राज्ञी’ की उपाधि धारण करने के उपलक्ष्य में दिल्ली दरबार के आयोजन पर पैसा पानी की तरह बहाया। इस आयोजन पर एक समाचारपत्र ने लिखा था: ‘‘जब रोम जल रहा था, तब नीरो बंशी बजा रहा था।’’ भारत में लोग जब अन्न के अभाव में भूख से मर रहे थे, तो ब्रिटिश सरकार ने 80 लाख पौंड गेहूँ भारत से इंग्लैंड को निर्यात कर भारतीयों के दुखों को और बढ़ाया। यही नहीं, लिटन ने अपनी साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा को पूरा करने केे लिए अफगानिस्तान पर आक्रमण करके भारत की निर्धन जनता से दो करोड़ स्टर्लिंग वसूल लिया। सरकार की इन जन-विरोधी नीतियों के विरुद्ध भारतवासियों में असंतोष पैदा होना लाजिमी था।

इल्बर्ट बिल-संबंधी विवाद

उदारपंथी लार्ड रिपन ने जब न्याय व्यवस्था में जाति-विभेद खत्म करने के लिए इल्बर्ट बिल के द्वारा भारतीय मजिस्ट्रेटों को यूरोपियनों के विरुद्ध अभियोग की सुनवाई करने और दंडित करने का अधिकार देने की व्यवस्था की, तो यूरोपियनों ने संपूर्ण भारत और इंग्लैंड में इस विधेयक के विरुद्ध संगठित रूप से आंदोलन चलाने के लिए ‘यूरोपियन रक्षा संघ’ की स्थापना की और लगभग 1,50,000 रुपये का चंदा एकत्र किया। इस विधेयक का भयानक विरोध केवल गैर-सरकारी आंग्ल-भारतीय लोगों ने ही नहीं, बल्कि ब्रिटिश अधिकारियों के एक बड़े भाग ने भी किया, इनमें बंगाल का ले. गवर्नर रीवर्स टाॅमसन भी शामिल था, जिसने कथित रूप से विधेयक की निंदा की कि कलम की एक जुंबिश से समता स्थापित करने के लिए इसमें नस्ली भेदों को अनदेखा किया गया था। सर हेनरी काटन की मानें तो कलकत्ते में कुछ अंग्रेजों ने सरकारी भवन के संतरियों के माध्यम से लार्ड रिपन को बाँधकर वापस इंग्लैंड भेजने का षड्यंत्र भी रचा था और यह सब बंगाल के गर्वनर तथा पुलिस कमिश्नर की जानकारी में हुआ था। अंततः जनवरी 1884 में अंग्रेजों के संगठित आंदोलन के सामने रिपन को झुकना पड़ा और इल्बर्ट बिल में संशोधन करना पड़ा।

इल्बर्ट बिल विवाद ने शिक्षित भारतवासियों को साम्राज्य की शक्ति संरचना में कष्टदायक ढंग से अपनी अधीनता की स्थिति का अनुभव कराया, जिससे भारतीयों को न केवल संगठित आंदोलन के महत्त्व और उसके मूल्य का ज्ञान हुआ, बल्कि उन्हें संगठित होने की प्रेरणा भी मिली। इस बिल के विरोध ने भारतीयों को एक ऐसे संगठन की आवश्यकता का अनुभव कराया, जो अखिल भारतीय हो और राजनीतिक उद्देश्य रखता हो। अंततः 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना से यह आवश्यकता पूरी हुई।

समकालीन विदेशी घटनाएँ

उन्नीसवीं सदी का युग राष्ट्रवाद, उदारवाद तथा साम्राज्यवाद जैसे आंदोलनों को जन्म देनेवाली शक्तियों के प्रभाव में था। 1830 एवं 1848 की फ्रांसीसी क्रांतियों से भारतीयों में बलिदान की भावना जागी। इटली तथा यूनान की स्वाधीनता ने उनके उत्साह में असाधारण वृद्धि की। यूरोप के बाल्कन क्षेत्र में तुर्की साम्राज्य के विरुद्ध राष्ट्रवादी आंदोलनों का जन्म होने लगा था। आयरलैंड में भी अंग्रेजों की पराधीनता से मुक्त होने का आंदोलन चल रहा था, जिससे भारतीय जनता काफी प्रभावित हुई। इटली, जर्मनी, रूमानिया और सर्बिया के राजनीतिक आंदोलन, इंग्लैंड के सुधार-कानून एवं अमेरिका के स्वतंत्रता संग्राम ने भी भारतीयों में साहस पैदा किया और प्रोत्साहित किया कि वे स्वाधीनता प्राप्त करने के संघर्ष में जुट जायें।

इस प्रकार भारत में राष्ट्रवाद का जन्म ब्रिटिश सरकार की नीतियों के परिणामस्वरूप हुआ। भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के दो विरोधी दृष्टिकोण सामने आते हैं- विकासवादी और प्रतिक्रियावादी। किंतु इन दोनों ही स्वरूपों ने राष्ट्रवाद के जन्म में सहायता पहुँचाई। ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में राजनीतिक एकता की स्थापना हुई, पाश्चात्य शिक्षा का प्रचार-प्रसार हुआ और यातायात एवं संचार के साधनों का विकास हुआ। इनसे जहाँ एक ओर ब्रिटिश शासन को लाभ हुआ, वहीं दूसरी ओर अप्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रवाद के उदय और विकास में भी सहायता मिली।

ब्रिटिश शासन के विकासशील स्वरूप ने अप्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रवाद के जन्म में योगदान दिया, किंतु उसके प्रतिक्रियावादी स्वरूप ने इस प्रक्रिया को तीव्र किया। ब्रिटिश शासन द्वारा भारत का आर्थिक शोषण, भारतीयों के साथ भेदभाव, सरकारी नौकरियों में पक्षपात, प्रेस पर प्रतिबंध, साम्राज्यवादी खर्चीले युद्ध, आर्म्स ऐक्ट जैसे कानून से आधुनिक शिक्षाप्राप्त भारतीय नेताओं को स्पष्ट हो गया कि ब्रिटिश शासन भारत के हित में नहीं है।

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