1857 की क्रांति : कारण और प्रसार (Revolution of 1857: Causes and Dissemination)

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1857 की क्रांति

ब्रिटिश राज के विरुद्ध भारतीय जनता के असंतोष और प्रतिरोध की पहली बड़ी अभिव्यक्ति 1857 में एक सशस्त्र सिपाही विद्रोह के रूप में हुई। यह सिपाही विद्रोह, जिसे भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम या 1857 की क्रांति भी कहा जाता है, विश्व इतिहास की एक महानतम् घटना है जिसने यूरोप के सबसे बड़े राज्य ब्रिटिश साम्राज्य की जड़ों को हिलाकर रख दिया। इससे पूर्व किसी भी यूरोपीय साम्राज्य में अथवा एशिया के किसी भाग में इतना बड़ा विद्रोह नहीं हुआ था। यद्यपि इसका आरंभ कंपनी की सेना के भारतीय सिपाहियों ने किया, किंतु जल्द ही इसने एक शक्तिशाली जन-क्रांति का रूप धारण कर लिया, जिसमें सिपाहियों के साथ-साथ भारत के प्रायः सभी वर्गों- स्वत्व से वंचित किये गये मुखियों, किसानों, दस्तकारों- ने बढ़-चढ़कर भाग लिया और तीन लाख से अधिक लोग मारे गये। इस क्रांति को भारतीय राष्ट्रवाद की आधारशिला और भारतीय इतिहास का परिवर्तन-बिंदु माना जाता है।

1857 की क्रांति के प्रमुख कारण

1857 की क्रांति मात्र सिपाहियों के असंतोष या चर्बीवाले कारतूसों का परिणाम नहीं था। इंग्लैंड में समकालीन रूढि़वादी दल के प्रमुख नेता बेंजामिन डिजरायली का विचार था कि, ‘‘यह विद्रोह एक आकस्मिक प्रेरणा नहीं, अपितु एक सचेत संयोग का परिणाम था…..साम्राज्य का उत्थान-पतन चर्बीवाले कारतूसों से नहीं होते। ऐसे विद्रोह उचित और पर्याप्त कारणों के एकत्रित होने से होते हैं।’’ लाॅर्ड सेलिसबरी ने भी हाउस आफ कामन्स में कहा था कि वह यह मानने को तैयार नहीं हैं कि ऐसा व्यापक और शक्तिशाली आंदोलन चर्बीवाले कारतूस को लेकर हो सकता था।

वस्तुतः यह क्रांति औपनिवेशिक शासन के चरित्र, उसकी नीतियों और कंपनी के शासन के प्रति जनता के संचित असंतोष और घृणा का परिणाम था। एक शताब्दी से अधिक समय तक अंग्रेज इस देश पर धीरे-धीरे अपना अधिकार बढ़ाते जा रहे थे, और इस काल में भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों में विदेशी शासन के प्रति जन-असंतोष और घृणा में वृद्धि होती रही। इस असंतोष और घृणा ने क्रांति के लिए विस्फोटक एकत्र कर दिया था, जिसमें चर्बीवाले कारतूस ने चिनगारी का काम किया।

आर्थिक कारण

1857 की महान् क्रांति को प्रायः बंगाल की सेना के भारतीय सिपाहियों का गदर मात्र समझा जाता रहा है, किंतु जन-असंतोष का संभवतः सबसे महत्त्वपूर्ण कारण अंग्रेजों द्वारा देश का आर्थिक शोषण तथा देश के परंपरागत आर्थिक ढ़ाँचे का विनाश था, जिसने बहुत बड़ी संख्या में किसानों, दस्तकारों तथा हस्त-शिल्पियों को और साथ ही बड़ी संख्या में परंपरागत जमींदारों तथा मुखिया लोगों को निर्धनता के मुँह में झोंक दिया।

भूराजस्व नीति

वास्तव में ईस्ट इंडिया कंपनी की प्रशासनिक कार्य प्रणाली ‘अयोग्य और अपर्याप्त’ थी। भू-राजस्व नीति, भूमि-संबंधी कानून तथा प्रशासन की शोषक प्रणालियों के कारण भू-स्वामी और किसान सभी असंतुष्ट थे। पहले कंपनी ऐसे जमींदारों का एक वर्ग कायम रखने की नीति के पक्ष में थी, जो स्वाभाविक रूप से सरकार के पक्षपाती हों। उत्तर-पश्चिमी प्रांत (बाद में आगरा और अवध) के लेफ्टिनेंट गर्वनर थामसन का विश्वास था कि बड़े-बड़े जमींदारों से कंपनी को खतरा पैदा हो सकता है, इसलिए उसका विचार था कि जमींदार एक वर्ग के रूप में कायम न रहें और सरकार को रैयत से सीधा संपर्क स्थापित करना चाहिए। इस नई नीति के कारण कंपनी ने बहुत से जमींदारों की जमींदारियाँ खत्म कर दी और बहुत से तालुकेदार और वंशानुगत भूमिपति, जो सरकार का भूमिकर एकत्र करते थे, अपने पद और अधिकार से वंचित कर दिये गये।

अवध-विलय के समय तालुकेदारों के पास 25,543 गाँव थे, जिनमें से 11,903 गाँव उन लोगों को दे दिये गये, जो तालुकेदार नहीं थे, अर्थात् तालुकेदारों के लगभग आधे गाँव छीन लिये गये, कुछ तो अपना सर्वस्व गवाँ बैठे थे।

जमींदारियों की जब्ती

मुंबई के प्रसिद्ध ‘इनाम कमीशन’ ने दक्षिण भारत की 20,000 जमींदारियों को जब्त किया। उस समय भारत में सामंतशाही का अंतिम दौर था। सामंत प्रणाली में स्वाभावतः जनता की वफादारी अपने जमींदार या राजा के प्रति रहती है। जब जनता ने देखा कि एक के बाद दूसरी भारतीय रियासतें खत्म होती जा रही हैं और जमींदारों का वर्ग भी समाप्त किया जा रहा है, तो इससे उन्हें बड़ा धक्का लगा। उन्होंने अनुभव किया कि कंपनी भारत के सामाजिक और राजनीतिक जीवन के स्वरूप को ही बदल रही है। इससे संपत्ति और प्रतिष्ठा खोनेवाले तालुकेदारों और जमींदारों के साथ उनके लोग भी कंपनी राज से बहुत असंतुष्ट थे।

किसानों की दयनीय दशा

खेती करनेवाले किसानों की हालत तो और भी खराब थी। ब्रिटिश शासन के प्रारंभ में किसानों को जमींदारों की दया पर छोड़ दिया गया था, जो लगान बढ़ाकर और बेगार तथा अन्य तरीकों से किसानों का शोषण कर रहे थे। 19वीं शताब्दी के पहले चरण में कंपनी को दिया जानेवाला भू-राजस्व 70 प्रतिशत तक बढ़ाया गया। इस अमानवीय राजस्व प्रथा को अवध तक फैलाया गया, जहाँ की संपूर्ण कुलीनता को सरसरी तौर पर अपदस्थ किया जा चुका था। फसल के खराब होने पर किसानों को साहूकार से अधिक ब्याज पर कर्ज लेना पड़ता था और साहूकार अनपढ़, गँवार किसानों को कई तरीकों से ठगते थे। इसके अलावा, निचले स्तरों पर व्याप्त भ्रष्टाचार से भी साधारण जनता बुरी तरह पीडि़त थी। ब्रिटिश कानून व्यवस्था के अंतर्गत भूमि-हस्तांतरण वैध हो जाने के कारण किसानों को प्रायः अपनी जमीन से भी हाथ धोना पडता था। 1853 में केवल पश्चिमोत्तर प्रांत में 1,10,000 एकड़ जमीन नीलाम की गई और इसी कारण जब क्रांति का आरंभ हुआ, तो बनिये, महाजन और उनकी संपत्तियाँ किसानों के हमलों के स्वाभाविक निशाने बने। जमीनों की बिक्री ने केवल छोटी जोतवालों को ही नहीं, गाँव के कुलीनों को भी तबाह किया, और ब्रिटिश दीवानी कानून के कार्यकलापों के शिकार होने के नाते ये दोनों ही वर्ग 1857-58 के क्रांतिकारी दौर में, जो कुछ वे खो चुके थे, उसे पाने के साझे प्रयास में एकजुट हो गये।

व्यापार और उद्योग-धंधों का विनाश

अंग्रेजों के विरुद्ध असंतोष केवल कृषि-समुदायों तक ही सीमित नहीं था। अंग्रेजों की आर्थिक नीतियाँ भारतीय व्यापार और उद्योग-धंधों के भी विरुद्ध थीं। जिन प्रदेशों पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया था, वहाँ के व्यापार पर उन्होंने अपना एकाधिकार स्थापित कर लिया और अपनी राजनैतिक शक्ति का दुरुपयोग कर भारतीय हस्तशिल्प और व्यापार का सत्यानाश कर दिया, जिससे भारत की पारंपरिक अर्थव्यवस्था पूरी तरह नष्ट हो गई और बहुत से किसान, दस्तकार, मजदूर और कलाकार कंगाल हो गये। 1813 में कंपनी की एक तरफा मुक्त-व्यापार की नीति के कारण स्थानीय उद्यमों को ब्रिटिश आयातित वस्तुओं की भ्रष्ट प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ा। अब यूरोपियनों ने भारत में अंग्रेजी वस्तुओं को लाकर बुनकरों, सूती वस्त्रकर्मियों, बढ़इयों, लुहारों और जूता बनानेवालों को बरोजगार कर दिया। हर प्रकार का दस्तकार भिखारी बन गया। जब रेलवे के विकास ने अंग्रेज व्यापारियों को दूर-दराज के गाँवों तक पहुँचा दिया, तो ग्रामीण क्षेत्रों के बचे-खुचे लघु उद्यम भी नष्ट हो गये। कार्ल मार्क्स ने 1853 में लिखा था: ‘‘सूती कपड़ा उद्योग के नाश होने पर कृषि पर बोझ बढ़ा और अंत में देश अकिंचन हो गया।’’ पारंपरिक उद्योगों के नष्ट होने और साथ-साथ आधुनिक उद्योगों का विकास न होने की वजह से स्थिति और भी भयावह हो गई।

धार्मिक एवं सामाजिक कारण
मिशनरियों का धर्म-प्रचार

अंग्रेजी शासन के विरोध में जनता के खड़े होने का एक प्रमुख कारण लोगों की यह धारणा थी कि इस शासन के कारण उनका धर्म खतरे में है। इस भय का प्रमुख कारण उन ईसाई मिशनरियों की गतिविधियाँ थीं जो ‘हर जगह स्कूलों, अस्पतालों, जेलों और बाजारों में देखे जाते थे।’ ये मिशनरी लोगों को ईसाई बनाने का प्रयास करते तथा हिंदू धर्म और इस्लाम पर सार्वजनिक रूप से तीखा और भौड़ा प्रहार करते थे। वे जनता की पुरानी तथा प्रिय परंपराओं और मान्यताओं की खुलकर हंसी उड़ाते और उनकी निंदा करते थे।

सरकार द्वारा धर्म-प्रचारकों का सहयोग

जनता को आशंका थी कि विदेशी सरकार ईसाई मिशनरियों की गतिविधियों को संरक्षण देती है। सरकार के कुछ कामों तथा बड़े अधिकारियों की कुछ गतिविधियों से इस आशंका को और बल मिला। 1850 में सरकार ने एक कानून बनाया, जिसके अनुसार धर्म बदलकर ईसाई बनने वालों को अपनी पैतृक संपत्ति में अधिकार मिल गया। इसके अलावा, सरकार अपने खर्च पर सेना में ईसाई उपदेशक या पादरी भी रखती थी। अनेक नागरिक और सैनिक अधिकारी मिशनरी प्रचार को प्रोत्साहन देना तथा सरकारी स्कूलों और जेलों तक में ईसाई धर्म की शिक्षा की व्यवस्था करना अपना धार्मिक कर्तव्य समझते थे। मेजर एडवडर्स ने कहा भी था: ‘‘भारत पर हमारे अधिकार का अंतिम उद्देश्य देश को ईसाई बनाना है।’’ अंग्रेजी सरकार के इशारे पर अंग्रेज अफसरों ने जिस तरह सामाजिक धार्मिक परंपराओं, मान्यताओं पर कुठाराघात करना शुरू किया, उससे परंपरावादी हिंदुओं और मुसलमानों को आघात पहुँचा।

सामाजिक-धार्मिक परंपराओं पर कुठाराघात

अंग्रेजी सरकार के इशारे पर अंग्रेज अफसरों ने जिस तरह सामाजिक धार्मिक परंपराओं, मान्यताओं पर कुठाराघात करना शुरू किया, उससे परंपरावादी हिंदुओं और मुसलमानों को भारी आघात पहुँचा। उन्हें लगा कि एक विदेशी ईसाई सरकार सामाजिक परिवर्तन के नाम पर काननू बनाकर उनके धर्म और संस्कृति को नष्ट करना चाहती है। सतीप्रथा का उन्मूलन, विधवा-पुनर्विवाह संबंधी कानून तथा लड़कियों के लिए पश्चिमी शिक्षा की व्यवस्था जैसे सामाजिक सुधारों से भारतीयों को लगा कि सरकार भारतीय धर्म और समाज का ईसाईकरण करने का प्रयास कर रही है। अब स्कूलों और शिक्षा-कार्यालयों को ‘शैतानी दफ्तर’ माना जाने लगा। कई तो रेलवे और भाप-चालित जहाज को भी भारतीय धर्म-परिवर्तन के अप्रत्यक्ष साधन मानते थे।

यही नहीं, पहले के भारतीय शासकों ने मंदिरों और मस्जिदों से जुड़ी जमीन को, उनके पुजारियों या सेवा-संस्थाओं को कर से मुक्त रखा था। अब उनसे कर वसूल करने की सरकारी नीति से भी लोगों की धार्मिक भावनाओं को चोट लगी। इसके अलावा, इन जमीनों पर निर्भर अनेक ब्राह्मण और मुस्लिम परिवार गुस्से से उबल उठे और यह प्रचार करने लगे कि अंग्रेज उनके धर्म को नष्ट करने पर तुले हुए हैं।

अंग्रेजों का प्रजातीय अहंकार

अंग्रेजों की धारणा थी कि प्रजातीय दृष्टि से भारतीय नस्ल से उच्च श्रेणी के हैं और उनकी सभ्यता भारतीयों से श्रेष्ठ है। वे भारतीयों को हीन दृष्टि से देखते थे। एक नियम द्वारा यह अनिवार्य कर दिया गया था कि प्रत्येक भारतीय सड़क पर चलते हुए यूरोपियनों को सलाम करे। अंग्रेज भारतीयों को सुअर, काले, आदि कहकर अपमानित करते थे, जिससे भारतीयों में अंग्रेजों के प्रति असंतोष होना स्वाभाविक था। इसके अलावा समाज के मध्य तथा उच्च वर्ग के लोग, खासकर उत्तर भारत में, प्रशासन के अच्छी आयवाले पदों पर शामिल नहीं किये जाते थे, जिसके कारण उनमें भी असंतोष की भावना फैल रही थी।

राजनैतिक कारण
व्यपगत सिद्धांत

लार्ड वेलेजली ने सहायक संधि की आड़ लेकर भारतीय रियासतों पर प्रभावशाली नियंत्रण और उनकी धीरे-धीरे समाप्ति की नीति अपनाई थी, किंतु डलहौजी ने नैतिक और राजनैतिक आचार की सभी सीमाओं को तोड़कर एक नया ‘व्यपगत सिद्धांत’ (डाक्ट्रिन आफ लैप्स) गढ़ा। इस सिद्धांत के अनुसार कोई राज्य, क्षेत्र या ब्रितानी प्रभाव का क्षेत्र कंपनी के अधीन हो जायेगा, यदि क्षेत्र का राजा निःसंतान मर जाता है या शासक कंपनी की नजरों में अयोग्य साबित होता है। इसी व्यपगत सिद्धांत के आधार पर 1848 और 1856 के बीच झाँसी (1853), सतारा (1848), नागपुर, संभलपुर, बघाट (1850), उदयपुर (1852) और सैनिक विजय द्वारा पंजाब, पीगू और सिक्किम अंग्रेजी राज्य में मिला लिये गये थे।

अवध की रियासत 70 साल से कंपनी के प्रति वफादार थी। इस दौरान उसने एक बार भी कंपनी के हितों के खिलाफ कोई काम नहीं किया था। जब शासितों के हित का तर्क देकर 1856 में अवध का अधिग्रहण करके नवाब को कलकत्ता भेज दिया गया, तो पूरे भारत में, खासतौर पर अवध में और कंपनी की सेना, विशेषकर बंगाल सेना के सिपाहियों में क्रांति की भावना पैदा हुई और वे कंपनी के शासन का अंत करने की सोचने लगे।

अवध का अधिग्रहण

अवध के अधिग्रहण के लिए डलहौजी ने तर्क दिया था कि वह जनता को नवाब के कुप्रबंध तथा तालुकेदारों के उत्पीड़न से मुक्ति दिलायेगा, किंतु जनता को कोई राहत नहीं मिली। उल्टे, साधारण जनता को अब पहले से अधिक भू-राजस्व तथा खाने-पीने की वस्तुओं, मकानों, खोमचों तथा ठेलों, अफीम और न्याय पर अधिक टैक्स देने पड़ रहे थे। नवाब का प्रशासन और सेना भंग होने से हजारों कुलीन तथा भद्र लोग, अधिकारी और सिपाही बेरोजगार हो गये। लगभग हर किसान के घर में कोई न कोई बेरोजगार हुआ। अवध के दरबार तथा कुलीनों की सेवा करनेवाले व्यापारियों, दुकानदारों तथा दस्तकारों की जीविका चली गई। इसके अलावा, अधिकांश तालुकेदारों तथा जमींदारों की जागीरें भी अंग्रेजों ने जब्त कर ली। उनके हथियार जब्त कर लिये गये और किलेबंदियाँ गिरा दी गईं, जिसके कारण स्थानीय समाज में उनकी स्थिति और शक्ति में काफी गिरावट आई। कानून की दृष्टि में अब वे अपने मामूली काश्तकारों से भिन्न नहीं रहे। संपत्तिहीन बने तालुकेदारों की संख्या लगभग 21,000 थी। अपनी खोई जागीरों और सामाजिक स्थिति को पुनः प्राप्त करने के लिए ये लोग ब्रिटिश शासन के सबसे खतरनाक दुश्मन बन गये।

अविश्वास का वातावरण

डलहौजी की विलय नीति से सभी भारतीय राजाओं के कान खड़े हो गये। देसी नरेशों को लगने लगा कि सभी रियासतों का अस्तित्व खतरे में है, बस केवल समय का प्रश्न है। कंपनी द्वारा तोड़ी गई संधियों और वादों के कारण कंपनी की राजनैतिक विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लग चुका था। मालेसन ने सही कहा था कि डलहौजी की नीति ने और अन्य ऊँचे पदाधिकारियों के कथनों और लेखों ने एक प्रकार का ‘अविश्वास का वातावरण’ उत्पन्न कर दिया था और भारतीयों को लगने लगा था कि अंग्रेज ‘मेमने के रूप में भेडि़ये हैं।’ राज्य हड़पने या उन्हें अधीन बनाने की यह नीति नानासाहब, झाँसी की रानी तथा बहादुरशाह जैसे अनेक शासकों को अंग्रेजों का कट्टर दुश्मन बनाने के लिए सीधे-सीधे जिम्मेदार थी। नाना साहब आखिरी पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र थे। अंग्रेज बाजीराव को जो पेंशन दे रहे थे, उसे नाना साहब को देने से इनकार कर दिये तथा उनको अपनी पैतृक राजधानी पूना से बहुत दूर, कानपुर (बिठूर) में रहने पर बाध्य किये। इसी तरह झाँसी को हड़पने की अंग्रेजों की जिद ने स्वाभिमानी रानी लक्ष्मीबाई का गुस्सा भड़काया। रानी की इच्छा थी कि उनके स्वर्गीय पति के सिंहासन पर उनका दत्तक पुत्र बैठे।

मुगल सम्राट के प्रति दुर्व्यवहार

1849 में डलहौजी ने मुगल वंश की प्रतिष्ठा पर यह घोषणा करके चोट की थी कि बहादुरशाह के उत्तराधिकारी शहजादा फकीरूददीन को ऐतिहासिक लालकिला छोड़कर दिल्ली के बाहर कुतुबमीनार के पास एक बहुत छोटे निवास स्थान में रहना होगा। 1856 में फकीरूददीन की मृत्यु के बाद लार्ड कैनिंग ने घोषणा की कि बहादुरशाह के उत्तराधिकारी शहजादे को ‘बादशाह’ की उपाधि और ‘महल’ दोनों छोड़ने होंगे। इस घोषणा से भारतीय जनमानस, विशेषकर मुसलमानों का चिंतित और असंतुष्ट होना स्वाभाविक था। उन्हें लगा कि अंग्रेज तैमूर के वंश को नीचा दिखाना चाहते हैं।

ब्रिटिश शासन का विदेशी चरित्र

ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध भारतीयों में असंतोष का एक और प्रमुख कारण उसका विदेशी चरित्र था। अंग्रेज भारत में लगातार परदेसी ही बने रहे। उनके और भारतीय लोगों के बीच कोई संबंध या संपर्क नहीं रहा। पहले के विदेशी शासकों की तरह अंग्रेजों ने उच्च वर्गों के भारतीयों से भी सामाजिक मेलजोल नहीं बढ़ाया। उल्टे, वे प्रजातीय श्रेष्ठता के नशे में चूर रहे तथा भारतीयों के साथ अपमानजनक और घृष्टतापूर्ण बर्ताव करते रहे। वे भारतीयों को ‘काले’ अथवा ‘सुअर’ कहते थे और प्रत्येक अवसर पर उनका अपमान करते थे। सैयद अहमद खाँ ने बाद में लिखा कि ‘‘उच्चतम श्रेणियों के देसी लोग तक भी बिना अंदरूनी डर के तथा बिना काँपे हुए कभी अधिकारियों के सामने उपस्थित नहीं हुए।’’ वास्तव में अंग्रेज भारत में बसने या इसे अपना घर बनाने नहीं आये थे। उनका प्रमुख उद्देश्य धन कमाना और उस धन को लेकर ब्रिटेन लौटना होता था। भारतवासी अपने नये शासकों के इस विदेशी चरित्र को अच्छी तरह पहचानते थे। वे कभी भी अंग्रेजों को अपना शुभचिंतक नहीं माने और उनके हर क्रियाकलाप को संदेह की दृष्टि से देखते रहे। इस तरह उनके अंदर एक धुंधली-सी ब्रिटिश-विरोधी भावना पहले से ही मौजूद थी, जो 1857 के विद्रोह से पहले भी अनेक अंग्रेज-विरोधी जन-विद्रोहों में अभिव्यक्त होती रही।

सैनिक कारण

1857 की क्रांति कंपनी के सिपाहियों के विद्रोह से आरंभ हुई थी। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि जिन सिपाहियों ने अपनी निष्ठापूर्ण सेवा से कंपनी को भारत-विजय में समर्थ बनाया था और जिन्हें अच्छी प्रतिष्ठा और आर्थिक सुरक्षा प्राप्त थी, वे एकाएक विद्रोही क्यों हो गये? इसका सीधा-सा उत्तर है कि सिपाही भी भारतीय समाज के अंग थे और इसलिए दूसरे भारतीयों पर जो गुजरती थी, उसे ये भी कुछ हद तक महसूस कर दुःखी होते थे। समाज के दूसरे वर्गों, खासकर किसानों की आशाएँ, इच्छाएँ और दुख-दर्द इन सिपाहियों के बीच भी प्रतिबिंबित होते थे। यह सिपाही दरअसल ‘वर्दीधारी किसान’ ही था। अगर ब्रिटिश सरकार के विनाशकारी आर्थिक कृत्यों से उनके निकट-संबंधी पीड़ित होते थे, तो उस पीड़ा को ये सिपाही भी महसूस करते थे।

धार्मिक या जातिगत शिकायतें

सिपाही भी इस सामान्य विश्वास से ग्रस्त थे कि अंग्रेज उनके धर्मों में दखलंदाजी कर रहे हैं और सभी भारतीयों को ईसाई बनाने पर तुले हुए हैं। उनके अनुभव भी उनके इस विश्वास को बल देते थे क्योंकि उन्हें पता था कि सेना में राज्य के खर्च पर ईसाई धर्मोपदेशक मौजूद थे। इसके अलावा, कुछ ब्रिटिश अधिकारी भी धार्मिक जोश में सिपाहियों के बीच ईसाई धर्म का प्रचार किया करते थे।

सिपाहियों की अपनी धार्मिक या जातिगत शिकायतें भी थीं। सैनिक अधिकारियों की ओर से सिपाहियों को जाति या पंथ के चिन्हों के धारण करने, दाढ़ी रखने या पगड़ी पहनने पर प्रतिबंध था। सिपाही लंबे समय से शिकायतों से भरे हुए थे और 1856 में उनकी धार्मिक आस्थाओं का सेवा की नई दशाओं से टकराव हो चुका था। लार्ड केनिंग द्वारा जारी किये गये ‘सामान्य सेवा भर्ती अधिनियम के अनुसार हर नये भर्ती होनेवाले सिपाही को आवश्यकता पड़ने पर समुद्रपार जाकर भी सेवा करने की जमानत देनी पड़ती थी। इससे भी सिपाहियों की भावनाओं को चोट पहुँची, क्योंकि उस समय की हिंदू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार समुद्र-यात्रा पाप थी और इसके दंड में किसी को जाति बाहर भी कर दिया जाता था। सीताराम नाम का एक सिपाही जब अफगानिस्तान से लौटा, तो न सिर्फ उसे अपने गाँव, बल्कि अपनी बैरक में भी जात-बाहर कर दिया गया। यही नहीं, सिंध या पंजाब में तैनाती के समय सिपाहियों का विदेश सेवा भत्ता (बट्टा) भी समाप्त कर दिया गया, जिसके कारण अधिसंख्य सिपाहियों के वेतन में भारी कटौती हुई।

सिपाहियों के प्रति अपमानजनक व्यवहार

सिपाहियों की कई दूसरी शिकायतें भी थीं। ब्रिटिश अधिकारी सिपाहियों से अकसर अपमानजनक व्यवहार करते थे। एक तत्कालीन ब्रिटिश प्रेक्षक ने लिखा है: ‘‘अधिकारी और सिपाही परस्पर मित्र नहीं, एक दूसरे के लिए अजनबी ही रहे हैं। सिपाही को एक हीन प्राणी माना जाता है। उसे डाँटा-फटकारा जाता है। उसके साथ बुरा बर्ताव होता है, उसे नीग्रो जैसा समझा जाता है। उसे ‘सुअर’ कहकर पुकारा जाता है।…छोटे अधिकारी….उसे एक हीन प्राणी मानकर व्यवहार करते हैं।’’ अगर भारतीय सिपाही श्रेष्ठ योद्धा भी हो तो भी उसे कम पैसा दिया जाता था और अंग्रेज सिपाही से भी बुरे ढंग से रखा या खिलाया-पिलाया जाता था। उसकी पदोन्नति की आशाएँ नहीं के बराबर थीं। कोई भी भारतीय सिपाही असाधारण योग्यता या बहादुरी दिखाने पर भी 60-70 रुपये मासिक पानेवाले जमादार (सेकेंड लेफ्टिनेंट) से ऊपर नहीं उठ सकता था। टी.आर. होम्स ने लिखा है: ‘‘सिपाही जानता था कि वह चाहे जितनी कर्त्तव्य-निष्ठा दिखाये, चाहे जितना बहादुर सैनिक बन जाये, उसे अंग्रेज सैनिक के बराबर वेतन कभी नहीं मिलेगा। 30 वर्ष की कर्तव्यनिष्ठ सेवा भी उसे अंग्रेज अफसर का मातहत होने से बचा नहीं सकेगी।’’

सैन्य-संगठन की खामियाँ

मुंबई, मद्रास और बंगाल प्रेसीडेंसी की अपनी अलग सेना और सेना-प्रमुख होता था। इस सेना में अंग्रेजी सेना से अधिक भारतीय सिपाही थे। मुंबई और मद्रास प्रेसीडेंसी की सेना में अलग-अलग क्षेत्रों के प्रायः छोटी जातियों के लोग थे, जिसके कारण ये सेनाएँ विभिन्नता से पूर्ण थी और इनमें किसी एक क्षेत्र के लोगों का प्रभुत्व नहीं था। किंतु बंगाल प्रेसीडेंसी की सेना में न केवल अंग्रेजों की सैन्य-उपस्थिति सबसे कम थी, बल्कि इस सेना में भर्ती किये गये 60 प्रतिशत सिपाही मुख्यतः अवध और गंगा के मैदानी इलाकों के थे। भूमिहार, राजपूत और ब्राह्मणों की सवर्ण पृष्ठभूमि के कारण उनमें एक महान् भाईचारा था, जिसमें सभी सदस्य एकता से कार्य करते थे। चार्ल्स नेपियर को इन ‘उच्च जातीय’ भाड़े के सैनिकों पर कोई विश्वास नहीं था। 1856 में अवध के अधिग्रहण ने इन सिपाहियों की वफादारी को झकझोर दिया, क्योंकि लगभग 75,000 सैनिक तो उसी क्षेत्र से भर्ती किये गये थे। सर जेम्स आउट्रम ने पहले ही डलहौजी को सचेत किया था: ‘‘संभवतः बिना किसी अपवाद के, अवध का हरेक खेतिहर परिवार….ब्रिटिश सेना में अपना एक सदस्य भेजता है।’’ अवध सिपाहियों का घर था, उसके हड़पे जाने से सिपाहियों को लगा कि ‘‘उनकी सेवा और बलिदान से कंपनी ने जो शक्ति अर्जित की है, वही आज उनके राजा को समाप्त करने में प्रयोग की जा रही है।’’ इसके अलावा, ये वर्दीधारी किसान अवध के चलताऊ बंदोबस्तों के कारण किसानों की बिगड़ती दशा को लेकर भी चिंतित थे। विद्रोह से पहले ये सिपाही लगभग 14,000 प्रार्थना-पत्र मालगुजारी व्यवस्था के कारण पैदा समस्याओं के बारे में दे चुके थे। दूसरे शब्दों में, सिपाहियों ने हथियार उठाकर अंग्रेजों के विरुद्ध खुली बगावत की, तो केवल ‘कारतूस’ के कारण नहीं की।

सिपाहियों का असंतोष

सिपाहियों के असंतोष के पीछे एक लंबा इतिहास रहा है। बंगाल में बहुत पहले, 1764 में ही एक सिपाही विद्रोह हो चुका था। अधिकारियों ने 30 सिपाहियों को तोपों से उड़ाकर विद्रोह को दबा दिया था। 1806 में वेल्लूर में सिपाहियों ने विद्रोह किया, किंतु जिलेप्सी ने भयानक हिंसा का सहारा लेकर उसका दमन कर दिया था। 1824 में बैरकपुर की 47वीं रेजीमेंट के समुद्री रास्ते से बर्मा जाने से इनकार करने पर वह रेजीमेंट तोड़ दी गई थी। उसके निहत्थे सिपाहियों पर तोपखाने के गोले बरसाये गये थे और सिपाहियों के नेताओं को फाँसी दे दी गई थी। 1844 में वेतन और भत्ते के सवाल पर सात बटालियनों ने विद्रोह किया था। इसी तरह अफगान युद्ध से कुछ ही पहले अफगानिस्तान में सिपाही विद्रोह करनेवाले थे। सेना में व्याप्त असंतोष को समाप्त करने के लिए एक मुसलमान और एक हिंदू सूबेदार को गोली मार दी गई थी। सिपाहियों में असंतोष इस कदर व्याप्त था कि 1858 में बंगाल के लेफ्टीनेंट गवर्नर फ्रेडरिक हैलीडे को कहना पड़ा था कि ‘‘बंगाल की फौज कमोवेश बागी और हमेशा विद्रोह के लिए तैयार थी और तय है कि कभी न कभी अगर संयोगवश उत्तेजना और अवसर मिले, तो वह विद्रोह कर बैठती।’’ इस प्रकार भारतीय जनता के साथ-साथ सिपाहियों के बीच विदेशी शासन के प्रति व्यापक और तीखी नापसंदगी, बल्कि घृणा भी मौजूद थी।

यह सही है कि 1857 की क्रांति ब्रिटिश नीतियों और साम्राज्यवादी शोषण के प्रति जन-असंतोष का विस्फोट था। किंतु यह कोई आकस्मिक घटना नहीं थी। लगभग एक शताब्दी तक पूरे भारत में ब्रिटिश आधिपत्य के विरुद्ध तीव्र जन-प्रतिरोध होते रहे थे। बंगाल और बिहार में जैसे ही ब्रिटिश शासन स्थापित हुआ, सशस्त्र विद्रोह शुरू हो गये, और जैसे-जैसे यह नये क्षेत्रों को जीतता गया, वैसे-वैसे उन क्षेत्रों में विद्रोह भी फूटते गये। निरंतर चलनेवाले ये हथियारबंद विद्रोह अपने प्रसार में पूरी तरह स्थानीय और एक-दूसरे से असंबद्ध थे, इसलिए वे आसानी से कुचल दिये गये।

तात्कालिक कारण

1857 की क्रांति के लिए बारूद जमा हो चुका था, केवल इसमें एक चिनगारी की देर थी। चर्बी मिले कारतूसों की घटना ने यह चिनगारी भी बारूद को दिखा दिया और सिपाहियों के विद्रोह पर उतर आने पर साधारण जनता भी उठ खड़ी हुई।

गाय और सुअर की चर्बीवाले कारतूस

1856 में सरकार ने पुरानी और कई दशकों से उपयोग में लाई जा रही ब्राउन बैस बंदूक के स्थान पर 0.577 कैलीबर की अधिक शक्तिशाली और अचूक एनफील्ड राइफल को प्रयोग करने का निश्चय किया। नई राइफल में गोली दागने की आधुनिक प्रणाली (प्रिकाशन कैप) का प्रयोग किया गया था। इस राइफल में कारतूस के ऊपरी भाग को दाँतों से काटकर खोलना पड़ता था। जनवरी 1857 में बंगाल सेना में यह अफवाह फैल गई कि चर्बीवाले कारतूस में सुअर और गाय की चर्बी लगी है। यह हिंदू और मुसलमान, दोनों की धार्मिक भावनाओं के विरुद्ध था। सैनिक अधिकारियों ने इस अफवाह की जाँच किये बिना तुरंत इसका खंडन कर दिया। बाद में पता चला कि वूलिच शस्त्रागार में वास्तव में गाय और बैल की चर्बी प्रयोग की जाती थी। अंग्रेज अफसरों ने सुझाव दिया कि सिपाही नये कारतूस बनायें, जिसमें बकरे या मधुमक्खी की चर्बी प्रयोग की जाये। इस सुझाव ने सिपाहियों के बीच फैली अफवाह को और पुख्ता कर दिया। सिपाहियों को विश्वास हो गया कि चर्बीवाले कारतूसों का प्रयोग उनको धर्मभ्रष्ट करने का कुत्सित प्रयास है। इस प्रकार जब कंपनी औरंगजेब की भूमिका में थी तो सैनिकों को शिवाजी बनना ही था।

1857 की क्रांति का आरंभ

24 जनवरी, 1857 को कलकत्ता में आगजनी की कई घटनाओं के कारण वातावरण में पहले से तनाव व्याप्त था। 26 फरवरी, 1857 को कलकत्ता से 120 मील दूर स्थित बरहमपुर के 19वीं बंगाल नेटिव इनफैंट्री के सिपाहियों ने चर्बीवाले नये कारतूसों को प्रयोग करने से इनकार कर दिया। इन सिपाहियों पर अनुशासनहीनता का आरोप लगाकर दंडित किया गया। इसके तत्काल पश्चात् 29 मार्च, 1857 को कलकत्ता के निकट स्थित बैरकपुर परेड मैदान में 34वीं देसी सैनिक छावनी के सिपाहियों ने इन कारतूसों को प्रयोग करने से मना कर दिया और मंगल पांडे नामक सिपाही ने रेजीमेंट के अफसर लेफ्टीनेंट बाग की गोली मारकर हत्या कर दी। जनरल जान हियरसे के अनुसार ‘‘मंगल पांडे किसी प्रकार के मजहबी पागलपन में था।’’

जनरल ने जमादार ईश्वरीप्रसाद को मंगल पांडे को गिरफ्तार करने का आदेश दिया, किंतु सिवाय एक सिपाही शेख पलटू को छोड़कर सारी रेजीमेंट ने मंगल पांडे को गिरफ्तार करने से इनकार कर दिया। ब्रिटिश सैन्य अधिकारियों ने इस सिपाही विद्रोह को सरलता से नियंत्रित कर लिया और 34वीं एन.आई. बटालियन को भंग कर दिया। 6 अप्रैल, 1857 को मंगल पांडे का कोर्ट मार्शल किया गया और 8 अप्रैल, को फाँसी दे दी गई। जमादार ईश्वरीप्रसाद को भी 22 अप्रैल को फाँसी पर लटका दिया गया। सिपाही शेख पलटू को तरक्की देकर बंगाल सेना में जमादार बना दिया गया।

कारतूसों में चर्बी लगी होने की सूचना ने उत्तर भारत के समस्त सैनिक छावनियों को भी अशांत कर दिया था। अंबाला, लखनऊ और मेरठ की छावनियों से अवज्ञा, भड़कावे और लूटपाट की घटनाओं की खबरें आ रही थीं। मेरठ में 24 अप्रैल को तीसरी देसी घुड़सवार सेना के 85 सिपाहियों ने गाय और सुअर की चर्बी से बने कारतूसों को लेने से मना कर दिया। 9 मई को मेरठ परेड ग्राउंड में इन्हीं 85 सिपाहियों के कोर्ट मार्शल की घटना ने 1857 के क्रांति की तात्कालिक पृष्ठभूमि तैयार की। कोर्ट मार्शल के साथ उनको 10 साल की सजा सुनाई गई थी। अंततः 10 मई रविवार की शाम 6.30 बजे 20वीं पैदल सेना और 11वीं पैदल सेना के सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया और तीसरी देसी घुड़सवार सेना के 85 कैदी साथियों को विक्टोरिया पार्क जेल से छुड़ा लिया। सिपाहियों ने अपने यूरोपीय अधिकारियों, उनकी पत्नियों और बच्चों को मार डाला। उस समय जनरल हेविट के पास 2,200 यूरोपीय सैनिक थे, किंतु उसने इस तूफान को रोकने का कोई प्रयास नहीं किया।

क्रांतिकारियों का दिल्ली पर अधिकार

क्रांतिकारी सिपाही सूर्यास्त के बाद दिल्ली की ओर चल पड़े। सत्ता के केंद्र और प्रतीक के रूप में दिल्ली पर कब्जे के साथ 1857 के क्रांति की शुरूआत हुई। 12 मई को क्रांतिकारी सिपाहियों ने दिल्ली शहर पर अधिकार कर मुगल सम्राट बहादुरशाह द्वितीय को हिंदुस्तान का सम्राट घोषित किया। दिल्ली पर कब्जा करने के अभियान में कंपनी के राजनीतिक एजेंट साइमन फ्रेजर समेत सैकड़ों अंग्रेज मारे गये। दिल्ली पर कब्जे और बहादुरशाह द्वितीय द्वारा खुद को हिंदुस्तान का सम्राट घोषित किये जाने से इस क्रांति को एक सकारात्मक राजनीतिक अर्थ मिला। केवल इस एक कार्य के द्वारा सिपाहियों ने एक फौजी विद्रोह को एक क्रांतिकारी युद्ध में बदल दिया। यही कारण है कि पूरे देश के क्रांतिकारी सिपाहियों के कदम अपने आप दिल्ली की ओर मुड़ गये और क्रांति में भाग लेनेवाले सभी भारतीय राजाओं ने मुगल सम्राट के प्रति अपनी वफादारी घोषित करने में कोई देर नहीं की। फिर सिपाहियों के कहने पर या संभवतः उनके दबाव में बहादुरशाह ने भारत के सभी राजाओं और सरदारों को पत्र लिखा और उनसे अपील की कि ब्रिटिश साम्राज्य से लड़ने और उसको हटाने के लिए वे भारतीय राज्यों का एक महासंघ स्थापित करें।

1857 की क्रांति : कारण और प्रसार (Revolution of 1857: Causes and Dissemination)
क्रांतिकारी सिपाहियों ने मुगल सम्राट बहादुरशाह द्वितीय हिंदुस्तान का सम्राट घोषित किया
क्रांति की व्यापकता और तीव्रता

मेरठ का विद्रोह और दिल्ली पर कब्जा तो बस एक शुरूआत थी। इसके बाद जल्द ही समूचे उत्तर भारत और पश्चिम व मध्य भारत के कुछ हिस्सों में सिपाहियों और नागरिकों के बीच क्रांति की तेज लहर चल पड़ी। कंपनी के 2,32,224 सिपाहियों में से लगभग आधे सिपाहियों ने अपनी-अपनी रेजीमेंटों को छोड़ दिया और सेना के उस आदर्श को फूंक मारकर उड़ा दिया, जिसे वर्षों के प्रशिक्षण और अनुशासन के जरिये उन्हें सिखाया गया था। अनेक रियासतों में शासक तो वफादार बने रहे, किंतु उनकी फौजों में क्रांति भड़क उठी या भड़कने के करीब आ गई। इंदौर के अनेक फौजी विद्रोह करके क्रांतिकारियों से आ मिले। इसी तरह ग्वालियर के 20,000 से अधिक फौजी तात्या टोपे और झाँसी की रानी के साथ चले गये। गवर्नर जनरल लार्ड केनिंग ने 19 जून को हताशा भरे शब्दों में लिखा: ‘‘रुहेलखंड और दोआबे में दिल्ली से कानपुर और इलाहाबाद तक देश न केवल हमारे विरुद्ध बगावत कर बैठा है, बल्कि एक सिरे से विधि-विरुद्ध हो चुका है।’’

दिल्ली पर कब्जे के एक महीने के भीतर क्रांति लगभग सभी बड़े केंद्रों- कानपुर, लखनऊ, बनारस, इलाहाबाद, बरेली, जगदीशपुर और झाँसी तक फैल गई और चिढ़ी हुई ग्रामीण जनता भी क्रांतिकारियों की मदद के लिए आगे आ गई। क्रांतिकारियों ने हर जगह अंग्रेजी प्रशासन के पाँव उखाड़ दिये। चूंकि क्रांतिकारियों के पास अपना कोई नेता नहीं था, इसलिए उन्होंने स्थानीय सामंतों, नवाबों और राजाओं को अपने साथ लिया और उन्हें नेतृत्व की जिम्मेदारी सौंपी।

लखनऊ

लखनऊ में क्रांति 4 जून को आरंभ हुई जिसका नेतृत्व बेगम हजरत महल ने किया। लखनऊ के सिपाहियों तथा अवध के किसानों और जमींदारों की सहायता से बेगम ने अंग्रेजों के खिलाफ चैतरफा युद्ध छेड़ दिया। क्रांतिकारी सिपाहियों ने नगर पर कब्जा करके रेजीडेंसी को घेर लिया। इस घेरे में ब्रिटिश रेजीडेंट लारेंस मारा गया। हजरत महल के बेटे बिरजिस कादिर ने वहाँ खुद को नवाब घोषित कर दिया और अपना प्रशासन स्थापित किया। सारे महत्त्वपूर्ण पदों पर मुसलमान और हिंदुओं को नियुक्त किया गया। यद्यपि हैवलाक और आउट्रम के लखनऊ जीतने के आरंभिक प्रयास विफल रहे, किंतु नवंबर, 1857 में इंग्लैंड से भेजे गये नये सेनापति जान कालिन कैंपबेल ने गोरखा रेजीमेंट की सहायता से नगर में प्रवेश कर यूरोपियनों की रक्षा की। मार्च, 1858 में लखनऊ नगर पर अंग्रेजों का पुनः अधिकार हो गया, यद्यपि छिटपुट आक्रमणों का सिलसिला सितंबर, 1858 तक चलता रहा।

कानपुर

कानपुर में अंतिम मराठा पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र नानासाहब को क्रांतिकारियों ने अपनी कमान सौंपी। अंग्रेज नानासाहब को उत्तराधिकारी नहीं स्वीकार किये और उन्हें पूना से निर्वासित कर दिये। वह इस समय कानपुर के बिठूर में रह रहे थे। नानासाहब ने सिपाहियों की सहायता से 5 जून, 1857 को अंग्रेजों को कानपुर से खदेड़कर बहादुरशाह को भारत का सम्राट और स्वयं को बहादुरशाह का प्रतिनिधि पेशवा घोषित कर दिया। छावनी के कमांडर जनरल व्हीलर ने 27 जून को आत्म-समर्पण कर दिया। लेकिन एक माह बाद ही शहर पर अंग्रेजों का पुनः कब्जा हो गया। नानासाहब का संघर्ष जारी रहा और नवंबर में एक बार पुनः कानपुर अंग्रेजों के हाथ से निकल गया। इस नवंबर-क्रांति के अगुआ नाना के सेनापति तात्या टोपे थे। नानासाहब के एक और विश्वसनीय सेवक अजीमुल्लाह थे जो राजनीतिक प्रचार-कार्य में कुशल थे। 6 दिसंबर को सर कैम्पबेल ने कानपुर पर पुनः अधिकार कर लिया।

झाँसी

झाँसी में वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई और झलकारीबाई ने क्रांतिकारी सिपाहियों का नेतृत्व किया। लार्ड डलहौजी ने उनके दत्तक पुत्र को उनके पति का उत्तराधिकारी मानने से इनकार कर दिया और विलय की नीति (व्यपगत सिद्धांत) के तहत उनके राज्य को छीन लिया था। इस फैसले को बदलवाने के लिए रानी ने हर बड़े अफसर का दरवाजा खटखटाया, बार-बार फरियाद की, किंतु उनकी नहीं सुनी गई। उन्होंने विद्रोह के मौके पर फिर अंग्रेजों से बातचीत शुरू करने की कोशिश की कि अगर उनकी माँगें मान ली जायें, तो वह अंग्रेजों का साथ देंगी और इस तरह झाँसी की ओर से अंग्रेजों को कोई खतरा नहीं होगा। किंतु अंग्रेज नहीं माने। परिणामतः रानी क्रांतिकारियों से आ मिली। जून, 1857 के आरंभ में सिपाहियों ने विधवा रानी लक्ष्मीबाई को रियासत की शासिका घोषित कर दिया। अंग्रेजों के साथ उनकी भयंकर लड़ाई हुई, जिसमें स्त्रियाँ तोपें चलाते और गोला-बारूद बाँटते देखी गईं। रानी ने बहादुरी के साथ अपने सैनिकों का नेतृत्व किया। जब ह्यूरोज ने 3 अप्रैल, 1858 को झाँसी पर अधिकार कर लिया, तो रानी लक्ष्मीबाई और तात्या टोपे ने अपने अफगान रक्षकों की सहायता से ग्वालियर पर कब्जा कर लिया। अंग्रेजों के वफादार महाराज सिंधिया ने रानी से लड़ने की एक कोशिश की, किंतु उसके अधिकांश सैनिक रानी से जा मिले। फलतः सिंधिया ने आगरा जाकर अंग्रेजों की शरण ली।

बरेली

बरेली में रुहेलखंड के भूतपूर्व शासक के उत्तराधिकारी खानबहादुर ने सिपाहियों का नेतृत्व किया और अपने आप को ‘नवाब नाजिम’ घोषित कर दिया। ब्रिटिश पेंशन पर गुजर-बसर कर रहे खानबहादुर ने शुरू में इसमें कोई दिलचस्पी नहीं ली, लेकिन क्रांति की लहर फैलते ही उन्होंने खुद प्रशासन संभाल लिया और करीब 40,000 सैनिकों को संगठित कर अपनी मजबूत सेना बनाई और अंग्रेजों का कड़ा मुकाबला किया।

फैजाबाद

फैजाबाद के मौलवी अहमदुल्लाह क्रांति के एक और प्रमुख नेता थे। वे मद्रास के रहनेवाले थे और वहीं से उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति का प्रचार-कार्य शुरू कर दिया था। जनवरी, 1857 में वे उत्तर में फैजाबाद आ गये। यहाँ उन्हें ब्रिटिश सैनिकों की एक कंपनी से भीषण लड़ाई लड़ी, जो उनको राजद्रोह के प्रचार से रोकने के लिए भेजी गई थी। जब मई में आम बगावत भड़क उठी, तो वे अवध में इसके एक मान्य नेता के रूप में सामने आये। इलाहाबाद में एक अध्यापक मौलवी लियाकत अली नामक वहाबी ने क्रांति का नेतृत्व किया।

जगदीशपुर

बिहार में जगदीशपुर के जमींदार बाबू कुँवरसिह ने क्रांति का नेतृत्व संभाला। सत्तर साल के वीर कुँवरसिह जगदीशपुर के एक तबाह और असंतुष्ट जमींदार थे, जिनको अंग्रेजों ने दिवालियेपन की कगार पर पहुँचा दिया था। जैसे ही क्रांतिकारी सिपाहियों का दस्ता दीनापुर से आरा पहुँचा, कुँवरसिह उनके साथ हो गये। अपनी बढ़ती उम्र के बावजूद उन्होंने जिस तरह से अंग्रेजों से कई लड़ाइयाँ लड़ीं, वह वास्तव में बहुत प्रेरणादायी है। उनकी प्रेरणा से पटना, आरा, गया, छपरा, मोतिहारी, मुजफ्फरनगर आदि स्थानों पर भी क्रांति की ज्वाला धधक उठी।

क्रांति का अन्य क्षेत्रों में प्रसार

क्रांति की लहर केवल बड़े केंद्रों तक ही सीमित नहीं रही। पंजाब में लाहौर, फिरोजपुर, अमृतसर, जालंधर, रावलपिंडी, झेलम, सियालकोट, अंबाला तथा गुरुदासपुर में सैनिकों व आम जनता ने इस क्रांति में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। हरियाणा के गुड़गाँव (गुरुग्राम), मेवात, बहादुरगढ़, नारनोल, हिसार, झज्झर आदि स्थानों पर क्रांति अपने चरम पर थी। बंगाल की करीब सभी सैनिक छावनियों और मुंबई की कुछ छावनियों को इसके अपनी लपेट में ले लिया था। मध्य भारत में इंदौर, ग्वालियर, सागर, बुंदेलखंड व रायपुर को केंद्र में रखते हुए यह क्रांति आगे बढ़ी। आंध्र्र प्रदेश में यह संग्राम राॅयल सीमा, हैदराबाद, राजमुदड़ी तक फैला था, जहाँ किसानों ने भी इस क्रांति में हिस्सा लिया था। दक्षिण भारत में सिर्फ मद्रास अछूता रहा।

इस प्रकार 1857 के इस क्रांति का फैलाव लगभग पूरे देश में था और इसमें प्रायः प्रत्येक वर्ग, समुदाय व जाति के लोगों ने भाग लिया था। अंग्रेजों के विरुद्ध इस क्रांति से प्रभावित होकर गोवा के पुर्तगाली बस्तियों ने भी क्रांति की थी। फ्रांसीसियों के अधीन पांडिचेरी में भी बगावत हुई। यह एक ऐसा समय था जब समूचे दक्षिण एशिया में हलचल फैली हुई था, जिसमें नेपाल, अफगानिस्तान, भूटान, तिब्बत आदि देश भी शामिल थे।

प्रशासनिक अभिकरण ‘जलसा’

क्रांति के पहले किसी प्रकार की योजना या संगठन का भले ही अभाव रहा हो, किंतु क्रांति शुरू होते ही क्रांतिकारियों ने संगठन बनाने की कोशिश शुरू कर दी थी। दिल्ली पर कब्जा होते ही आसपास के सभी राज्यों और राजस्थान के शासकों को एक चिट्ठी भेजकर उनके समर्थन की कामना की गई और उन्हें हिस्सा लेने के लिए आमंत्रित किया गया। दिल्ली में छः सैनिकों और चार नागरिकों का एक प्रशासनिक अभिकरण बनाया गया, जिसने ‘जलसा’ के नाम से दिल्ली का प्रशासन अपने हाथ में ले लिया। सारे निर्णय बहुमत से लिये जाते थे। अधिकरण सम्राट के नाम पर राजकाज का संचालन करता था। एक ब्रिटिश अधिकारी ने लिखा है कि दिल्ली की सरकार का स्वरूप कुछ-कुछ तानाशाही की तरह का था। सम्राट सर्वोच्च था और संवैधानिक सम्राट की तरह ही उसका सम्मान किया जाता था। लेकिन संसद के स्थान पर सैनिकों की एक परिषद् थी, जिसमें सत्ता निहित थी। इसी तरह दूसरे केंद्रों में भी संगठन बनाने के प्रयास किये गये थे।

क्रांति का जन-चरित्र

यह क्रांति जितना व्यापक थी उतनी ही इसमें गहराई भी थी। किसानों, दस्तकारों, दिहाड़ी मजदूरों और जमींदारों की व्यापक भागीदारी ने क्रांति को उसकी वास्तविक शक्ति दी तथा इसे ‘जन-क्रांति’ का चरित्र भी दिया, खासकर उन क्षेत्रों में जो आज उत्तर प्रदेश तथा बिहार में शामिल हैं। इस क्षेत्र में किसानों तथा जमींदारों ने सूदखोरों तथा अपनी जमीन से बेदखल करनेवाले नये जमींदारों पर हमले करके अपनी तकलीफों को खुलकर जाहिर किये। क्रांति का लाभ उठाकर उन्होंने सूदखोंरो की खाताबहियों तथा कर्जों के दस्तावेजों को नष्ट कर दिया। उन्होंने अंग्रेजों द्वारा स्थापित अदालतों, तहसीलों, कार्यालयों, मालगुजारी के दस्तावेजों तथा थानों पर हमले किये। कई लड़ाइयों में सामान्य जनता की भागीदारी सिपाहियों से भी अधिक थी। एक अनुमान के अनुसार अवध में अंग्रेजों से लड़ते हुए मरनेवाले लगभग डेढ़ लाख लोगों में एक लाख से अधिक सामान्य नागरिक थे। सबसे बड़ी बात यह कि जहाँ जनता क्रांति में शामिल नहीं हुई, वहाँ भी लोगों ने क्रांतिकारियों के साथ सहानुभूति दिखाई, वे क्रांतिकारियों की हर जीत पर खुश होते रहे और अंग्रेजों के वफादार रहनेवाले सैनिकों का सामाजिक बहिष्कार करते रहे।

1857 की क्रांति का जन-चरित्र उस समय उभर कर सामने आया, जब अंग्रेजों ने इसे कुचलने की कोशिश की। उन्हें केवल क्रांतिकारी सिपाहियों से ही नहीं निपटना पड़ा, बल्कि दिल्ली, अवध, पश्चिमोत्तर प्रांत, आगरा, मध्य भारत और पश्चिम बिहार की जनता के खिलाफ भी एक भरपूर और निर्मम लड़ाई लड़नी पड़ी। गाँव के गाँव जला दिये गये तथा ग्रामीण और नगरीय जनता का भीषण कत्लेआम किया गया। उन्हें लोगों को बिना किसी मुकदमे के फाँसी देना और फाँसी के बाद सबके सामने पेड़ों से लटकाना पड़ा। इससे पता चलता है कि इन क्षेत्रों में क्रांति कितनी गहराई तक फैल चुकी थी।

हिंदू-मुस्लिम एकता

1857 के क्रांति की शक्ति बहुत कुछ हिंदू-मुस्लिम एकता में निहित थी। सभी क्रांतिकारियों ने एक मुसलमान बहादुरशाह को अपना सम्राट स्वीकार कर लिया था। हिंदू और मुसलमान क्रांतिकारी और सिपाही एक-दूसरे की भावनाओं का पूरा-पूरा सम्मान करते थे, जैसे क्रांति जहाँ भी सफल हुई, वहाँ हिंदुओं की भावनाओं का आदर करते हुए तुरंत गोहत्या बंद करने के आदेश जारी किये गये। इसके अलावा, नेतृत्व में हर स्तर पर हिंदुओं तथा मुसलमानों को समान प्रतिनिधित्व दिया गया। एक ब्रिटिश अधिकारी एचिंसन ने बड़े बुझे मन से स्वीकार किया था: ‘‘इस मामले में हम मुसलमानों को हिंदुओं से नहीं लड़ा सकते।’’

क्या 1857 की क्रांति सुनियोजित थी?

1857 का आंदोलन सिपाहियों और कसमसाती जनता के असंतोष के संगम से उपजी अप्रत्याशित क्रांति थी। प्रश्न उठता है कि क्या यह सुनियोजित क्रांति थी या एकाएक भड़का क्रांति? यह क्रांति किसी सुनियोजित योजना का परिणाम था, इसके सबूत नहीं मिलते। नेताओं के काम करने के तरीकों से भी नहीं लगता कि उन्होंने पहले कोई योजना बनाई थी। संभव है कि योजना बनाने की बात सोची गई रही हो, किंतु उसे अंतिम रूप दिया गया था, ऐसा नहीं लगता।

नानासाहब का मार्च और अप्रैल, 1857 में लखनऊ व अंबाला जाना और मई में क्रांति आरंभ हो जाना, यह प्रमाणित नहीं करता कि उन्होंने क्रांति की योजना बनाई थी। यह कहना भी सही नहीं है कि मुंशी अजीमुल्लाह खाँ और राँगो बापू ने क्रांति की योजना बनाई थी। वस्तुतः नानासाहब के प्रतिनिधि अजीमुल्लाह खाँ लंदन में यह वकालत करने के लिए गये थे कि बाजीराव को मिलनेवाली पेंशन नानासाहब को दे दी जाये। वे भारत लौटते समय तुर्की गये और वहाँ क्रीमिया युद्ध के मैदान में उमरपाशा से मिले थे। इसी प्रकार सतारा को ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाने के डलहौजी के निर्णय के खिलाफ अपील करने के लिए रांगो बापू को लंदन भेजा गया था। इन दोनों व्यक्तियों के व्यक्तिगत कार्यों से लंदन जाने से अनुमान लगाया जाता है कि वे क्रांति की योजना में शामिल थे। किंतु इस तरह के अनुमानों कोई प्रमाण नहीं हैं। बिठूर जीतने के बाद नानासाहब के सभी कागज-पत्र अंग्रेजों के हाथ लगे, जिसमें अजीमुल्लाह खाँ का उमरपाशा के नाम लिखा एक पत्र भी मिला था, जो कभी भेजा ही नहीं गया। इसमें मात्र यह बताया गया था कि भारतीय सैनिकों ने अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति कर दिया है। अजीमुल्लाह खाँ के इस पत्र या किसी अन्य पत्र से भी यह नहीं पता चलता है कि उसने कभी भारतीय क्रांति की योजना बनाई थी। इस प्र्रकार 1857 की क्रांति को अंग्रेजों के विरुद्ध किसी सुनियोजित योजना का परिणाम नहीं माना जा सकता है।

चपातियों और कमल के फूलों के माध्यम से जगह-जगह संदेश पहुँचाने या ‘भारत में ब्रिटिश शासन सिर्फ सौ वर्ष तक चलेगा’ जैसी भविष्यवाणीवाली कहानी पर भी विश्वास करने का कोई ठोस आधार नहीं है। सच तो यह है कि यह क्रांति बहादुरशाह के लिए उतना ही आश्चर्यजनक थी, जितना अंग्रेजों के लिए। बहादुरशाह के विरुद्ध चलाये गये मुकदमे में भी अंग्रेजों को आयोजित क्रांति का कोई सबूत नहीं मिला। इस प्रकार इस बात में गंभीर संदेह है कि योजना बनी और आंदोलन चला।

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