बंगाल का सेन वंश  (Sen Dynasty of Bengal)

बंगाल के सेन

12वीं शताब्दी के मध्य में भारत के बंगाल में सेन राजवंश ने अपना प्रभुत्व स्थापित किया और 160 वर्ष तक शासन किया। बंगाल के इस महत्वपूर्ण राजवंश की स्थापना सामंतसेन ने ‘राढ़’ नामक स्थान पर की थी। इसकी राजधानी नदिया (लखनौती) थी। सेन राजवंश के उत्कर्षकाल में भारतीय महाद्वीप का पूर्वोत्तर क्षेत्र इस साम्राज्य में सम्मिलित था। सेन राजाओं के शासनकाल में अनेक देवालय बनवाये गये। कहा जाता है कि बल्लालसेन ने ढाकेश्वरी मंदिर बनवाया था। प्रसिद्ध रचना ‘गीतगोविंद’ के लेखक कवि जयदेव सेन शासक लक्ष्मणसेन के पंचरत्नों में से एक थे। लक्ष्मणसेन ने अपने नाम पर एक नये संवत् ‘लक्ष्मण संवत्’ का प्रवर्तन किया था। सेन राजवंश पहला राजवंश था, जिसने अपना अभिलेख सर्वप्रथम हिंदी में उत्कीर्ण करवाया।

बंगाल के सेन वंश के संस्थापक सामंतसेन को कर्नाटक क्षत्रिय कहा गया है। इससे लगता है कि सेन राजवंश का मूलस्थान दक्षिण में कर्णाटक था। 9वीं, 10वीं और 11वीं शताब्दी में मैसूर राज्य के धारवाड़ जिले में कुछ जैन उपदेशक रहते थे, जो सेन वंश से संबंधित थे। किंतु यह स्पष्ट नहीं है कि बंगाल के सेनों का इन जैन उपदेशकों के परिवार से कई संबंध था या नहीं। फिर भी, इस तथ्य के समर्थन में पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध हैं कि बंगाल के सेनों का मूल वासस्थान दक्षिण ही था। सेन शासक अपने को कर्णाट क्षत्रिय, ब्रह्म क्षत्रिय और क्षत्रिय मानते थे तथा अपनी उत्पत्ति कर्नाट वंश के पौराणिक नायकों से बताते थे।

देवपाल के समय पाल शासकों ने विदेशी साहसी वीरों को अधिकारी पदों पर नियुक्त किया था, जिनमें से कुछ कर्णाटक से संबंधित थे। कालांतर में दक्षिण से आये ये अधिकारी शासक बन गये और स्वयं को ‘राजपुत्र’ कहने लगे। राजपुत्रों के इसी परिवार में बंगाल के सेन राजवंश का संस्थापक और प्रथम सेन शासक सामंतसेन उत्पन्न हुआ, जिसने पाल साम्राज्य के केंद्रीय भग्नावशेष पर सेन राज्य का निर्माण किया। सेन वंश के लोग संभवतः ब्राह्मण थे, किंतु अपने सैनिक-वृत्ति के कारण वे बाद में क्षत्रिय कहे जाने लगे। इसलिए इन्हें ‘ब्रह्म-क्षत्रिय’ भी कहा गया है।

सामंतसेन

सेन वंश के संस्थापक सामंतसेन ने दक्षिण के एक शासक, संभवतः द्रविड़ देश के राजेंद्र चोल को पराजित कर अपनी प्रतिष्ठा में वृद्धि की। सामंतसेन का उत्तराधिकारी हेमंतसेन था। किंतु हेमंत के संबंध में कोई विशेष सूचना नहीं मिलती है।

विजयसेन (1095-1158 ई.)

हेमंतसेन के बाद सेन वंश का उत्तराधिकारी सामंतसेन का पौत्र विजयसेन (1095-1158 ई.) हुआ। सेन राजवंश का यह पहला स्वतंत्र शासक था, जिसने अपने परिवार की प्रतिष्ठा को स्थापित किया। विजयसेन ने ‘अरिराजवृषभशंकर’ और ‘परममाहेश्वर’ के अतिरिक्त ‘परमेश्वर’, ‘महाराजाधिराज’ और ‘परमभट्टारक’ जैसी महत्वपूर्ण उपाधियाँ धारण की थी।

विजयसेन को अपने दीर्घकालीन शासनकाल के दौरान अनेक युद्ध करने पड़े और उन युद्धों में उसे सफलता भी मिली। उसकी यशस्वी विजयों का उल्लेख देवपाड़ा प्रशस्ति में मिलता है। इस प्रशस्ति की रचना कवि धोयी ने की थी। विजयसेन की उपलब्धियों और वीरगाथा प्रभावित होकर श्रीहर्ष नामक कवि ने भी विजयसेन की प्रशंसा में ‘विजयप्रशस्ति’ नामक काव्य की रचना की थी।

विजयसेन की राजनीतिक उपलब्धियों के संबंध में ज्ञात होता है कि उसने बंगाल से वर्मनों के शासन का अंत किया, पालवंश के मदनपाल को उत्तरी बंगाल से निर्वासित किया और गौड़ पर अधिकार कर लिया। कहा जाता है कि उसने नान्यदेव को हराकर मिथिला पर अधिकार किया, गंगा के मार्ग से जलसेना द्वारा गहड़वालों पर आक्रमण किया, आसाम की विजय किया, उड़ीसा पर धावा बोला और कलिंग के शासक अनंतवर्मन् चोड़गंग के पुत्र राघव पर विजय प्राप्त की।

इस प्रकार रामपाल की मृत्यु के बाद विजयसेन ने पाल साम्राज्य के ध्वंसावशेष पर जिस विशाल राज्य की स्थापना की, उसमें पूर्वी, पश्चिमी और उत्तरी बंगाल के क्षेत्र सम्मिलित थे। धोयी के अनुसार विजयसेन ने दो महत्वपूर्ण राजधानियों की स्थापना भी की थी- जिनमें से एक पश्चिम बंगाल में थी, जिसका नाम विजयपुर था और दूसरी राजधानी विक्रमपुर, जो पूर्वी बंगाल (आधुनिक बांग्लादेश) में थी।

सैन्य-विजयों के साथ-साथ विजयसेन ने अनेक सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व के कार्य भी किये। उसकी ‘अरिराजवृषभशंकर’ और ‘परममाहेश्वर’ की उपाधि से स्पष्ट है कि वह शैव मतावलंबी था। उसने वारेंद्री (देवपाड़ा) में प्रद्युम्नेश्वर शिव का मंदिर बनवाया, एक झील खुदवाई और उमापति को राज्याश्रय प्रदान किया। इन्हीं उपलब्धियों के कारण विजयसेन को सेन वंश का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। इसने 64 वर्षों (1095-1158 ई.) तक शासन किया।

बल्लालसेन (1158-1179 ई.)

विजयसेन के बाद उसका पुत्र बल्लालसेन सेन वंश की गद्दी पर बैठा। बल्लालसेन ने अपने पिता के राजत्व-काल में शासन-कार्य का संचालन किया था। उसने उत्तराधिकार में प्राप्त राज्य की पूर्ण रूप से रक्षा की और अपने पिता की भाँति ‘परममाहेश्वर’, ‘घोडेश्वर’, ‘परमभट्टारक’, ‘निःशंकशंकर’ तथा ‘महाराजाधिराज’ जैसी भारी-भरकम उपाधियाँ धारण की थी।

लघुभारत’ तथा ‘बल्लालचरित’ नामक ग्रंथों से पता चलता है कि बल्लालसेन का अधिकार मिथिला एवं उत्तरी बिहार पर था। इसके अलावा, उसने वारेंद्र, राधा, बागडी व बंगाल नामक चार प्रांतों पर भी शासन किया था। उसका राज्य पाँच प्रांतों में विभक्त था और इसने गौड़पुर, सुवर्णग्राम और विक्रमपुर में तीन राजधानियाँ स्थापित की थी।

बल्लालसेन विद्वान् तथा समाज सुधारक था। इसे बंगाल में जाति प्रथा और कुलीन प्रथा को संगठित करने का श्रेय प्राप्त है। इसने वर्ण-धर्म की रक्षा के लिए कुलीनवाद के नाम से एक आंदोलन चलाया और उस वैवाहिक प्रथा का प्रचार किया, जिसे कुलीन प्रथा कहा जाता है। प्रत्येक जाति में उप-विभाजन, उत्पत्ति की विशुद्धता और ज्ञान पर निर्भर करता था। कालांतर जाति का यह उप-विभाजन अधिक कठोर और जटिल हो गया।

बल्लालसेन स्वयं एक विद्वान् शासक था। कहा जाता है कि उसने अपने गुरु की सहायता से ‘दानसागर’ रचना की और ‘अद्भुतसागर’ नामक ग्रंथ का प्रणयन भी आरंभ किया था, किंतु वह इसे पूर्ण नहीं कर सका। उसने अपने दरबार में अनेक विद्वानों को संरक्षण भी दिया था।

बल्लालसेन की ‘घोडेश्वर’ व ‘निःशंकशंकर’ जैसी उपाधियों से स्पष्ट है कि वह शैव धर्म का अनुयायी था। अपने जीवन के अंतिम समय में उसने संन्यास धारण कर लिया था।

लक्ष्मणसेन (1179-1205 ई.)

बल्लालसेन के बाद उसका पुत्र और उत्तराधिकारी लक्ष्मणसेन सेन वंश का राजा हुआ। सेन वंश का यह अंतिम शक्तिशाली शासक था, जिसने संपूर्ण बंगाल पर शासन किया और लक्ष्मणवती अथवा लखनौती नामक राजधानी की स्थापना की, जो बंगाल की प्राचीन राजधानी गौड़ के निकट है। लक्ष्मणसेन ने एक नये संवत् ‘लक्ष्मण संवत्’ का प्रवर्तन भी किया था।

अभिलेखों में लक्ष्मणसेन को कलिंग, आसाम, बनारस और इलाहाबाद की विजय का श्रेय दिया गया और कहा गया है कि उसने इन स्थानों पर अपने विजय-स्तंभों की स्थापना की थी। किंतु लक्ष्मणसेन गहड़वाल नरेश जयचंद्र का समसामयिक था, जिसके अधिकार में बनारस और इलाहाबाद थे। इसलिए इन स्थानों पर लक्ष्मणसेन द्वारा विजय-स्तंभ स्थापित किये जाने का दावा निराधार प्रतीत होता है। संभव है कि उसने आसाम और कलिंग पर विजय प्राप्त की हो।

मुस्लिम इतिहासकारों के विवरणों से पता चलता है कि लक्ष्मणसेन नितांत कायर था। मिनहाज ने अपनी रचना ‘तबकात-ए-नासिरी’ से पता चलता है कि 1202 ई. के लगभग बख्तियार खिलजी ने लखनौती पर आक्रमण कर उसे नष्ट कर दिया। इससे भयभीत होकर लक्ष्मणसेन पश्चिम और उत्तर बंगाल बख्तियार खिलजी को समर्पित कर दिया। इस प्रकार लक्ष्मणसेन बंगाल का अंतिम हिन्दू शासक था।

लक्ष्मणसेन का शासन संस्कृत साहित्य के विकास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। लक्ष्मणसेन स्वयं भी विद्वान् था और उसे अपने पिता के अपूर्ण ग्रंथ ‘अद्भुतसागर’ को पूरा करने का गौरव प्राप्त है।

लक्ष्मणसेन ने अपने दरबार में बहुत से विद्वानों को संरक्षण प्रदान किया था। उसकी राजसभा में जयदेव (गीतगोविंद), उमापति, धोयी (पवनदूत), हलायुध (ब्राह्मणसर्वस्व) और श्रीधरदास जैसे ‘पंचरत्न’ शोभायमान रहते थे। श्रीधर उसके दरबारी कवि थे और हलायुध लेखक होने के साथ-साथ प्रधान न्यायाधीश एवं मुख्यमंत्री भी थे।

लक्ष्मणसेन की ‘परमभागवत’ उपाधि से स्पष्ट होता है कि यह अपने पूर्वजों के विपरीत वैष्णव धर्म का अनुयायी था। मुसलमानों के आक्रमण के कारण 1202 ई. के आसपास सेन राजवंश का अंत हो गया, यद्यपि पूर्वी बंगाल पर इसके उत्तराधिकारी 13वीं शताब्दी के मध्य तक राज्य करते रहे। तत्पश्चात् देववंश ने देश पर सार्वभौम अधिकार कर लिया।

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