भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना (Establishment of Indian National Congress)

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना (Establishment of Indian National Congress)

अखिल भारतीय स्तर पर राष्ट्रीय आंदोलन की पहली संगठित अभिव्यक्ति भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के रूप में हुई जिसकी नींव एलन आक्टेवियन ह्यूम ने डाली, जिन्हें ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जनक’ भी कहते हैं। किंतु दिसंबर 1885 में ह्यूम द्वारा कांग्रेस की स्थापना कोई अप्रत्याशित घटना नहीं थी। दरअसल 1860 और 1870 के दशकों से ही शिक्षित भारतीयों में राजनीतिक चेतना पनपने लगी थी। कांग्रेस की स्थापना इसी बढ़ती राष्ट्रीय चेतना का प्रतीक थी। 1866 में जब लंदन में ईस्ट इंडिया एसोसिएशन बनी थी, तो आशा की गई थी कि वह मुंबई और कलकत्ता में अपनी शाखाएँ खोलेगी। 1877 में ‘पूना सार्वजनिक सभा’ ने भी मुंबई और कलकत्ता के प्रतिनिधियों को मिल-जुलकर कार्य करने के लिए प्रेरित किया था। कलकत्ता और मुंबई में अधिक समन्वय स्थापित करने के लिए 1883 में के.टी. तेलंग ने कलकत्ता की यात्रा भी की थी। तीनों प्रेसीडेंसी नगरों (मुंबई, मद्रास और कलकत्ता) के विभिन्न स्थानीय संगठन, जैसे ‘कलकत्ता इंडियन एसोसिएशन’, ‘ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन’, ‘राष्ट्रीय मुस्लिम एसोसिएशन’ और ‘इंडियन यूनियन’ एक राष्ट्रीय कान्फ्रेंस बुलाने का प्रयत्न कर रहे थे।

किंतु पहले ‘राष्ट्रीय सम्मेलन’ को संगठित करने का विशेष श्रेय मिला कलकत्ता इंडियन एसोसिएशन और इसके नेता सुरेंद्रनाथ बनर्जी को। कलकत्ता इंडियन एसोसिएशन ने 29-30 दिसंबर 1883 को कलकत्ता में प्रथम भारतीय राष्ट्रीय सम्मेलन (इंडियन नेशनल कान्फ्रेंस) का आयोजन किया। यह राष्ट्रीय सम्मेलन कलकत्ता के अल्बर्ट हाल में प्रसिद्ध शिक्षाविद् रामतनु लाहिड़ी के अध्यक्षता में प्रारंभ हुआ जिसमें भारत के बड़े-बड़े नगरों से लगभग 100 प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। सम्मेलन के प्रस्तावों में सिविल सर्विस की परीक्षा भारत में भी प्रारंभ करने, इसके प्रतियोगियों की अधितम आयु सीमा 22 वर्ष करने, भारत में प्रतिनिधि विधान सभाओं की स्थापना तथा आर्म्स ऐक्ट को निरस्त करने की माँग रखी। सम्मेलन ने इल्बर्ट विधेयक पर हुए समझौते पर खेद प्रकट करने के साथ-साथ ‘राष्ट्रीय कोष’ के संग्रह की आवश्यकता पर भी जोर दिया। एक अखिल भारतीय राष्ट्रीय संगठन की स्थापना का यह पहला प्रयास था।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना (Establishment of Indian National Congress)
सुरेंद्रनाथ बनर्जी

1885 तक आते-आते भारतीय राजनीति में सक्रिय बुद्धिजीवी राष्ट्रीय हितों के लिए राष्ट्रीय स्तर पर संघर्ष करने के एक एक अखिल भारतीय संगठन की स्थापना करने के लिए छटपटाने लगे थे। प्रथम राष्ट्रीय सम्मेलन के बाद सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने समस्त भारत का दौरा प्रारंभ किया, जिसके परिणामस्वरूप कलकत्ता के तीन प्रमुख संगठनों- कलकत्ता इंडियन एसोसिएशन, ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन और नेशनल मोहम्मडन एसोसिएशन ने संयुक्त रूप से 25, 26 एवं 27 दिसंबर 1885 को दूसरा राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया। इसमें बंगाल, मुंबई, बिहार आसाम, इलाहाबाद, बनारस तथा मेरठ से आये लगभग 900 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। आगंतुक प्रमुख एवं विशिष्ट प्रतिनिधियों में राव साहब विश्वनाथ मांडलिक, महाराजा दरभंगा, नेपाल के राजदूत एच.के.एस. कारन, आई.सी.एस. अमीरअली, सर गुरुदास बनर्जी के अतिरिक्त कालीमोहन दास, महेंद्रचंद्र चौधरी, प्यारी मोहन मुकर्जी, डा. त्रैलोक्यनाथ मित्र, सुरेंद्रनाथ बनर्जी, कालीचरण बनर्जी आदि प्रमुख व्यक्ति भी थे। इंडियन एसोसिएशन के आनंदमोहन बोस इस समय आसाम की राजनीतिक यात्रा पर थे।

कांग्रेस की स्थापना

ए.ओ. ह्यूम ने राष्ट्रीय स्तर पर भारत के प्रमुख शिक्षित नेताओं के बीच अपने व्यापक संपर्कों को जोड़ने के लिए 1884 के अंत में एक भारतीय राष्ट्रीय संघ (इंडियन नेशनल यूनियन) की स्थापना की थी। मार्च 1885 में यूनियन ने यह निर्णय लिया कि क्रिसमस के अवसर पर पूना में इस मंच की ओर से बंगाल, मुंबई तथा मद्रास प्रांत के अंग्रेजीभाषी प्रमुख नेताओं का सम्मेलन आयोजित किया जायेगा। किंतु पूना में हैजा फैल जाने के कारण यह सम्मेलन मुंबई में आयोजित किया गया।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना (Establishment of Indian National Congress)
ए.ओ. ह्यूम

जिस दिन कलकत्ता में द्वितीय राष्ट्रीय सम्मेलन समाप्त हो रहा था,, उसी दिन मुंबई में आयोजित होनेवाली ह्यूम के ‘भारतीय इंडियन नेशनल यूनियन’ (भारतीय राष्ट्रीय संघ) के सम्मेलन में भाग लेने के लिए भारत के विभिन्न प्रांतों से इसके प्रतिनिधि गोकुलदास तेजपाल संस्कृत महाविद्यालय में एकत्रित हो रहे थे। अगले दिन 28 दिसंबर, 1885 को यूनियन के मुंबई सम्मेलन में दादाभाई नौरोजी के सुझाव पर ‘’भारतीय राष्ट्रीय संघ’ (इंडियन नेशनल यूनियन) का नाम बदलकर ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ (इंडियन नेशनल कांग्रेस) कर दिया गया। अखिल भारतीय स्तर पर राष्ट्रवाद की यह पहली सुनियोजित अभिव्यक्ति थी। चूंकि इस अखिल भारतीय रूप की संस्था को एक निश्चित और प्रत्यक्ष रूप प्रदान करने में ए.ओ. ह्यूम की भूमिका महत्त्वपूर्ण थी, इसलिए उन्हें कांग्रेस का जन्मदाता मान लिया जाता है। दूसरे राष्ट्रीय सम्मेलन में व्यस्त होने के कारण सुरेंद्रनाथ बनर्जी और आनंदमोहन बोस भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के इस स्थापना सत्र में शामिल नहीं हो सके थे।

कांग्रेस की स्थापना  की ‘सुरक्षा-वाल्व’ संबंधी मिथक

कांग्रेस के पहले सत्र में ह्यूम की भागीदारी ने कांग्रेस की स्थापना के बारे में ‘सुरक्षा वाल्व’ के मिथक को जन्म दिया। इस मिथक के अनुसार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना ह्यूम और उनके साथियों ने ब्रिटिश सरकार के इशारे पर भारतीयों में बढ़ते हुए असंतोष को रोकने तथा भारत में ब्रिटिश शासन को सुदृढ़ करने के उद्देश्य से की थी। इस मिथक को प्रायः हर तरह के इतिहासकार एक लंबे समय से स्वीकार करते रहे हैं, किंतु हाल के अनुसंधानों से इस मिथक का बुरी तरह खंडन हो चुका है।

दरअसल सुरक्षा वाल्व-संबंधी मिथक का जन्म ह्यूम के विलियम वेडरबर्नकृत जीवनचरित से हुआ, जो 1913 में प्रकाशित हुआ। वेडनबर्न एक और भूतपूर्व सिविल अधिकारी थे, जिन्होंने लिखा कि 1878 में ह्यूम ने रिपोर्टों के सात संस्करण देखे और उनसे पता चला कि निचले वर्ग असंतोष से उबल रहे थे और ब्रिटिश सरकार को शक्ति के बल पर पलटने का षड्यंत्र चल रहा था। वे चिंतित हो उठे, लाॅर्ड डफरिन से मिले। डफरिन का विचार था कि शिक्षित भारतवासियों का एक ऐसा राजनीतिक संगठन होना चाहिए, जिसके द्वारा सरकार जनता की वास्तविक भावनाएँ जान सके, ताकि जनता में पनपते ‘असंतोष की वाष्प’ को ‘सौम्य, सुरक्षित, शांतिपूर्ण और संवैधानिक निकास या सेफ्टी वाल्व’ उपलब्ध कराया जा सके। इस तरह कांग्रेस ब्रिटिश राज की उपज थी।

सेफ्टी वाल्व के इस सिद्धांत में आरंभिक राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने विश्वास किया और साम्राज्यवादी इतिहासकारों ने इसका उपयोग कांग्रेस को बदनाम करने के लिए किया। इसी सिद्धांत के आधार पर मार्क्सवादी इतिहासकारों ने षड्यंत्र के सिद्धांत का विकास किया और आर.पी. दत्त जैसे इतिहासकारों ने कांग्रेस की स्थापना को ब्रिटिश सरकार की एक पूर्वनियोजित योजना का परिणाम बताया। लाला लाजपत राय ने 1916 में ‘यंग इंडिया’ अखबार में एक लेख में कांग्रेस को लार्ड डफरिन के दिमाग की उपज बताया था। लालाजी का विचार था कि यह संगठन इसलिए बना क्योंकि ह्यूम अंग्रेजी राज्य को छिन्न-भिन्न होने से बचाना चाहते थे। 1939 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर ने भी कांग्रेस को गैर-राष्ट्रवादी संगठन ठहराने के लिए ‘सुरक्षा वाल्व’ की इसी परिकल्पना का इस्तेमाल किया। गोलवलकर के अनुसार ‘‘ह्यूम, काटर्न और वेडरबर्न जैसे लोगों ने उस समय उबल रहे राष्ट्रवाद के खिलाफ ‘सुरक्षा वाल्व’ के तौर पर कांग्रेस की स्थापना की थी।’’ कुछ अन्य इतिहासकारों का मानना है कि कांग्रेस भारत में एक जन-विद्रोह रोकने के षड्यंत्र से पैदा हुई और इसमें भारत के पूँजीवादी नेता भी शामिल थे।

सुरक्षा वाल्व-संबंधी मिथक का खंडन

सेफ्टी वाल्व का यह सिद्धांत 1950 के दशक में गलत सिद्ध हो गया। पहली बात यह कि भारत या लंदन के किसी भी अभिलेखागार में खुफिया रिपोर्टों के ये सात संस्करण नहीं मिलते हैं। इतिहासकारों का तर्क है कि 1870 के दशक में ब्रिटिश सूचना व्यवस्था के ढ़ाँचे को देखते हुए खुफिया रिपोर्टों के इतने सारे संस्करणों का अस्तित्व बिल्कुल असंभव रहा होगा। ह्यूम के वेडनबर्नकृत जीवन-चरित के अलावा ऐसी रिपोर्टों की उपस्थिति का कोई उल्लेख कहीं और नहीं पाया गया है, और वे स्वयं भी इस बात का उल्लेख करते हैं कि ह्यूम को ये रिपोर्ट धर्मगुरुओं ने दी थी और ये किसी आधिकारिक स्रोत से प्राप्त नहीं की गई थीं। 1950 के दशक के अंतिम वर्षों में लाॅर्ड डफरिन के निजी कागजात के सामने आने के बाद यह भ्रांति दूर हो गई, क्योंकि इनसे यह कथा झूठी साबित होती है कि डफरिन ने कांग्रेस या ह्यूम को प्रायोजित किया था। वह मई 1885 में शिमला में ह्यूम से अवश्य मिला था, किंतु उसको गंभीरता से स्वीकार नहीं किया था, और फिर उसने मुंबई के गवर्नर को सुनिश्चित आदेश दिये थे कि उस नगर में जो प्रतिनिधि उनसे मिलनेवाले थे, उनके बारे में सचेत रहे। प्रस्तावित बैठक के बारे में वह और मुंबई का गवर्नर लार्ड री दोनों ही सशंकित थे और उसके विरुद्ध थे, क्योंकि वे समझते थे कि ये लोग भारत में आयरलैंड के होमरूल लीग आंदोलन जैसी कोई चीज आरंभ करना चाहते हैं।

कांग्रेस की स्थापना के कुछ ही समय बाद वायसराय डफरिन कांग्रेस के संदिग्ध उद्देश्यों के आधार पर उसकी खुलकर भर्त्सना करने लगे थे। उनकी आलोचना ही सेफ्टी वाल्व के सिद्धांत की धज्जी उड़ा देता है। इस प्रकार खुफिया रिपोर्ट के सात संस्करण की कहानी मनगगढ़ंत है और संभवतः वेडनबर्न ह्यूम को एक ऐसे देशभक्त अंग्रेज के रूप में चित्रित करना चाहते थे, जो एक आसन्न संकट से ब्रिटिश राज को बचाना चाहता था। लेकिन ‘अब समय आ गया है कि सेफ्टी वाल्व के सिद्धांत को…..उन्हीं महात्माओं को सौंप दिया जाए, जिनसे संभवतः उसका आरंभ हुआ था।’

आधुनिक शोधों से स्पष्ट हो गया है कि भारत सरकार के सेवानिवृत्त अधिकारी ए.ओ. ह्यूम एक उदारपंथी एवं स्वतंत्रता प्रेमी व्यक्ति थे। ब्रिटेन में उदारवादी दल के संस्थापक का पुत्र होने के कारण उनके अंदर आवश्यक उदारवादी लोकतांत्रिक मूल्य भी उपस्थित थे। वह ब्रिटेन में विकसित हो रहे लोकतांत्रिक संस्थाओं के समान ही भारत में भी संतुलित लोकतंत्र के विकास की आधारशिला रखना चाहते थे। ह्यूम के मन में भारतीयों में बढ़ते असंतोष के बारे में स्पष्ट विचार थे। उन्होंने एक अखिल भारतीय संगठन की कल्पना की, जो भारतीय हितों का प्रतिनिधित्व करे और महारानी की (सरकार के) विपक्ष की भूमिका निभाये। वे इस बात को अच्छी तरह से समझते थे कि कोई भी शासन, चाहे वह देसी हो या विदेशी, बिना किसी दबाव के जनता की माँगों को पूरा नहीं करता। 1 मार्च 1883 को कलकत्ता विश्वविद्यालय के स्नातकों को संबोधित पत्र में ह्यूम ने लिखा था: ‘‘एकताविहीन व्यक्ति कितने ही बुद्धिमान् और उच्च आदर्शोंवाले क्यों न हों, अकेले शक्तिहीन होते हैं। आवश्यकता है संघ की, संगठन की और कार्यवाही के लिए एक निश्चित और स्पष्ट प्रणाली की।’’ पत्र के अंत में ह्यूम ने भारतीय युवकों को आगे बढ़कर भारतीय राजनीति को संचालित करने का आह्वान किया था: ‘‘आपके कंधों पर रखा हुआ जुआ तब तक विद्यमान रहेगा, जब तक आप इस कटु-सत्य को समझकर उसके अनुसार कार्य करने को उद्यत नहीं होंगे कि आत्म-बलिदान और निःस्वार्थ कर्म ही स्थायी सुख और स्वतंत्रता के अचूक पथ-प्रदर्शक हैं।’’ उन्होंने लार्ड रिपन के उदारपंथी सुधार कार्यक्रम, खासकर उसकी स्थानीय स्वशासन आरंभ करने की योजना को समर्थन देने का वादा किया था। रिपन के जाने के बाद उन्होंने शिक्षित भारतीयों के बीच अपने व्यापक संपर्कोंको जोड़ने का काम शुरू किया, ताकि वे (भारतीय) अपनी शिकायतें पेश करने के लिए एक वैध मंच के रूप में एक राष्ट्रीय संगठन में आयें।

इस प्रकार कांग्रेस की स्थापना भले ही ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा के लिए की गई थी, किंतु कांग्रेस की स्थापना के मूल में भारतीयों के हित का विचार और भारतीयता की भावना विद्यमान थी। दरअसल भारतीय राजनीति में उस समय दो प्रकार की विचारधाराओं में विश्वास करनेवाले लोग थे। पहले मत के लोग हिंसा के माध्यम से ब्रिटिश शासन को समाप्त करना चाहते थे और दूसरे मत के लोग ब्रिटिश राज्य का अंत धीरे-धीरे करना चाहते थे। वे भारतीय प्रशासन में भारतीय जनता का प्रतिनिधित्व चाहते थे, ताकि स्वशासन प्राप्त हो सके। ह्यूम और उनके सहयोगी भारतीय राजनीति की इसी दूसरी विचारधारा से संबद्ध थे। इस कार्य में इन्हें प्रमुख प्रेरणा संकीर्ण राष्ट्रीय भावों से नहीं, अपितु सत्य और न्याय के उदात्त विचारों के प्रति सच्ची लगन और भक्ति से मिली, जिनके समर्थकों को वे अपने देश के लिए गौरव की बात मानते थे और जो पिछली शताब्दी के दोनों देशों के पारस्परिक सहयोग से किये गये कार्यों का सुखद परिणाम था।

यदि ह्यूम ने पहल न की होती, तो भी भारत में 1870 और 1880 के दशकों में एक राष्ट्रीय संगठन की स्थापना की बात सुस्पष्ट नजर आ रही थी। तीनों प्रेसीडेंसियों-मुंबई, कलकत्ता और मद्रास में शिक्षित भारतीयों के समूह राजनीति में सक्रिय थे और उन्होंने ऐसे संगठन बना लिये थे, जो विभिन्न राष्ट्रीय प्रश्नों पर नागरिक स्वतंत्रता और संगठित देेशव्यापी आंदोलन के लिए सक्रिय होने लगे थे। मिशनरियों के हस्तक्षेपों और 1850 के लेक्स लोकी ऐक्ट के विरुद्ध भारत के विभिन्न भागों में एक साथ प्रतिरोध हुए थे। 1867 में प्रस्तावित आयकर के विरुद्ध और एक संतुलित बजट की माँग के समर्थन में एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन हो चुका था, 1870-80 में सिविल सेवाओं के भारतीयकरण की माँग के लिए एक विशाल अभियान चल चुका था, और लार्ड लिटन के खर्चीले और दुस्साहसिक अफगान अभियानों के विरुद्ध भी, जिनका खर्च भारतीय राजस्व से उठाया जा रहा था। 1878 में कुख्यात वर्नाक्यूलर प्रेस ऐक्ट के विरुद्ध भी भारतीय प्रेस और संगठनों ने जमकर अभियान चलाया था। उन्होंने 1881-82 में बागान मजदूरों और अंतर्देशीय प्रवास-संबंधी उस कानून के विरुद्ध प्रतिरोध संगठित किये थे, जो बागान मजदूरों को भू-दास बनाता था। 1883 में इल्बर्ट बिल के समर्थन में भी एक बड़ा राष्ट्रव्यापी आंदोलन आरंभ हुआ था, जब अंग्रेजी राज के न्याय में शिक्षित भारतवासियों का विश्वास हिल गया था।

सुरेंद्रनाथ बनर्जी और इंडियन एसोसिएशन जैसे संगठन 1883 में कलकत्ता में पहला राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित कर एक अखिल भारतीय संगठन बनाने की ओर अग्रसर थे और दिसंबर 1885 में दूसरा राष्ट्रीय सम्मेलन करने की योजना बनाई थी। थियोसोफिकल सोसायटी के एक सदस्य की पहल पर 1884 में भारत के विभिन्न भागों के प्रतिनिधि भी सोसायटी के वार्षिक सम्मेलन के अवसर पर एक राष्ट्रीय संगठन की आवश्यकता पर चर्चा करने के लिए अलग से मिले थे। इस प्रकार एक राष्ट्रीय संगठन का उदय स्पष्ट रूप से आसन्न था। अब केवल एक ऐसे मध्यस्थ की आवश्यता थी, जो सभी क्षेत्रीय नेताओं को एक सांगठनिक छतरी ने नीचे ला सके। ए.ओ. ह्यूम इस भूमिका के लिए बेहद उपयुक्त थे, क्योंकि अपनी परा-क्षेत्रीय पहचान और उदारपंथी राजनीतिक विचारधारा के कारण वे सभी क्षेत्रीय नेताओं के लिए स्वीकार्य थे। कांग्रेस के संस्थापकों को अपनी परियोजना में ह्यूम को इसलिए भी शामिल करना पड़ा कि उनके जुड़ने से सरकार का शक नहीं होगा और यह बात उस समय बहुत महत्त्वपूर्ण थी। 1913 में ह्यूम स्मारक सभा में भाषण देते हुए उदारपंथी नेता गोपालकृष्ण गोखले ने कहा भी था: ‘‘अगर एक महान् अंग्रेज कांगे्रस का संस्थापक न होता तो अधिकारीगण तुरंत ही आंदोलन को कुचलने के लिए कोई न कोई तरीका निकाल लेते।’

हो सकता है कि ब्रिटिश साम्राज्य को बचाने के लिए कांग्रेस का प्रयोग एक अभयदीप की तरह करने का विचार ह्यूम तथा वेडरबर्न के मन में रहा हो, किंतु इस बात पर विश्वास करना असंभव है कि दादाभाई नौरोजी, सुरेंद्रनाथ बनर्जी, फीरोजशाह मेहता तथा रानाडे जैसे भारतीय नेता उनके हाथों के साधन-मात्र थे और वे भी ब्रिटिश साम्राज्य को क्रांति के खतरे से बचाने का विचार रखते थे। सच तो यह है कि अगर ह्यूम और दूसरे अंग्रेज कांग्रेस का उपयोग सुरक्षा वाल्व की तरह करने की आशा कर रहे थे, तो कांग्रेस के नेता ह्यूम का उपयोग एक तडि़त चालक के रूप में करने के प्रति आशावान थे। इस प्रकार राजनीतिक उद्देश्यों से एक राष्ट्रीय सम्मेलन का विचार कई व्यक्तियों के मन में उठा था, किंतु 1885 में भारतीय एवं ब्रिटिश समर्थकों के संयुक्त प्रयत्नों के परिणामस्वरूप भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्म हुआ।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का उद्देश्य

कांग्रेस का पहला अधिवेशन 28 दिसंबर 1885 को मध्यान्ह 12 बजे मुंबई के गोकुलदास तेजपाल संस्कृत भवन में प्रारंभ हुआ जिसमें आधिकारिक रूप से 72 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इनमें से 38 मुंबई प्रेसीडेंसी, 21 मद्रास प्रेसीडेंसी, 3 बंगाल प्रेसीडेंसी, 7 उत्तर पश्चिम प्रांत और अवध तथा 3 पंजाब से आये थे। सम्मेलन में शामिल होनेवाले प्रमुुख प्रभावशाली लोगों में देशभक्त व्यापारी दादाभाई नौरोजी, इंडियन मिरर के जाने-माने साहसी संपादक नरेंद्रनाथ सेन, प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ के.टी. तैलंग, फीरोजशाह मेहरजी मेहता, दीनशां एदलची वाचा, गंगाप्रसाद वर्मा, लाला मुरलीधर, एन.जी. चंद्रवरकर, महाजन सभा के अध्यक्ष रंगया नायडू, मुदालियर, सार्वजनिक सभा के कृष्णाजी नलकर तथा सचिव सीताराम हरि चिपलुणकर, बी. राघवाचार्य, जी. सुब्रहण्यम अय्यर, ए.ओ. ह्यूम आदि थे। सम्मेलन की अध्यक्षता प्रसिद्ध वकील व्योमेशचंद्र बनर्जी ने की। इस सम्मेलन में यूरेशियन के अध्यक्ष डी.एस. व्हाईट, मद्रास के न्यायाधीश दीवान बहादुर रघुनाथ राव, पूना के लघुन्यायालय के न्यायाधीश माननीय महादेव गोविंद रानाडे, आगरा के लाला बैजनाथ, अहमदाबाद के प्रोफेसर अंबाजी विष्णु कटवथा, अरकाट के प्रोफेसर कादंबी सुंदररमन, दकन कालेज के प्रोफेसर आर.जी. भंडारकर आदि पर्यवेक्षक एवं परामर्शदाता के रूप में शामिल हुए थे।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना (Establishment of Indian National Congress)
कांग्रेस का पहला अधिवेशन

स्थापना-काल में कांग्रेस मूलतः एक सामाजिक संस्था थी, राजनीतिक संस्था नहीं। कांग्रेस के प्रथम अध्यक्ष व्योमेशचंद्र बनर्जी ने अपने भाषण में कांग्रेस के चार लक्ष्यों पर प्रकाश डाला- पहला, देशहित की दिशा में प्रयत्नशील भारतीयों में परस्पर संपर्क एवं मित्रता को प्रोत्साहन देना, दूसरा भारत से प्रेम करनेवाले सभी लोगों के मध्य से जातिवादी, संप्रदायवादी तथा क्षेत्रवादी भावनाओं को समाप्त कर उनमें राष्ट्रवादी भावना को प्रोत्साहित करना और उसका प्रसार करना, तीसरा महत्त्वपूर्ण राजनैतिक एवं सामाजिक प्रश्नों पर विचार-विमर्श कर पारस्परिक समझदारी पैदा करना, और चौथा देशहित के अनुसार आगामी वर्ष के लिए नीति निर्धारित करना और यह सुनिश्चित करना कि आनेवाले वर्षों में भारतीय जन-कल्याण के लिए किस दिशा में किस आधार पर कार्य किया जाए।

इस त्रिदिवसीय प्रथम अधिवेशन में कांग्रेस ने अनेक प्रस्ताव पारित किये, जिनमें भारतीय शासन की जाँच हेतु शाही आयोग की नियुक्ति, राज्य सचिव के परिषद् की समाप्ति, स्थानीय विधान सभाओं का विस्तार एवं सुधार, सिविल सर्विस की परीक्षाओं का केंद्र भारत में भी खोलने, सेना के व्यय में कटौती और कपास आयात पर पुनः तटकर लगाने एवं लाइसेंस टैक्स का विस्तार तथा बर्मा का प्रश्न आदि शामिल थे। इन प्रश्नों पर विस्तारपूर्वक चर्चा कर इन्हें देश के अन्य राजनैतिक संगठनों के पास पुनर्विचार के लिए अग्रसारित किया गया। अधिवेशन के अंत में कांग्रेस के सदस्यों ने ‘महारानी विक्टोरिया की जय’ के नारे लगाये और ब्रिटिश अधिकारियों ने कांग्रेस को अपना आशीर्वाद दिया। इस प्रकार तीन दिनों का कांग्रेस का प्रथम सम्मेलन सफलतापूर्वक 30 दिसंबर को समाप्त हो गया।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना भारत के राष्ट्रीय आंदोलन में एक नवयुग के आगमन की घोषणा थी। आरंभिक कांग्रेसी सतर्क सुधारवादी थे, जो सुरेंद्रनाथ बनर्जी के शब्दों में : ‘‘भारत में ‘गैर-ब्रिटिश राज’ के कुछ अप्रिय पक्षों को दूर करने के लिए प्रयासरत थे और प्रार्थनापत्र तथा ज्ञापन भेजना उनकी कार्य-पद्धति था।’’ कांग्रेस के पहले सत्र में ही अध्यक्ष व्योमेशचंद्र बनर्जी ने स्पष्ट कर दिया था कि यह कोई षड्यंत्रकारियों और निष्ठाहीनों का अड्डा नहीं था, ये लोग पूरी तरह ब्रिटिश सरकार के वफादार और सुसंगत शुभचिंतक थे।

यद्यपि कांग्रेस का आरंभ बहुत प्रारंभिक उद्देश्यों को लेकर हुआ था, लेकिन उसकी स्थापना के पश्चात् भारत का स्वतंत्रता आंदोलन लघु पैमाने पर एवं मंद गति से ही सही, एक संगठित रूप में प्रारंभ हुआ। धीरे-धीरे कांग्रेस के उद्देश्यों में परिवर्तन होता गया और यह भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की अगुआ बन गई। यही वह धुरी थी, जिसके चारों ओर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की महान् गाथा की विविध घटनाएँ घटित हुईं।

कांग्रेस का दूसरा अधिवेशन

यद्यपि कांग्रेस का जन्म मुंबई में हुआ था, किंतु इसने अपना प्रारंभिक स्वरूप कलकत्ता के दूसरे अधिवेशन (1886) में प्राप्त किया। दादाभाई नौरोजी की अध्यक्षता में होनेवाले इस सम्मेलन में 431 प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। सदस्यों की इस अप्रत्याशित वृद्धि के कारण ही इसका सम्मेलन ‘ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन’ के भवन में न होकर कलकत्ता के टाउनहाल में शुरू किया गया। कांग्रेस सम्मेलन में सदस्यों की वृद्धि का कारण सुरेंद्रनाथ बनर्जी का कांग्रेस में शामिल होना था। सुरेंद्रनाथ बनर्जी और इंडियन एसोसिएशन के अधिवेशन में शामिल होने के कारण बंगाल के अन्य राजनैतिक संगठनों ने भी इसमें खुलकर हिस्सा लिया। ह्यूम को कांग्रेस का महासचिव बनाया गया और कांग्रेस की स्थानीय समितियों को गठित करने का निर्णय लिया गया।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना (Establishment of Indian National Congress)
दादाभाई नौरोजी (ग्रैंड ओल्डमैन आफ इंडिया)

कलकत्ता अधिवेशन में कांग्रेस में उन तत्त्वों का भी समावेश हुआ जिनके कारण कांग्रेस को ब्रिटिश शासकों द्वारा नियंत्रित करना संभव नहीं रह गया। इस सम्मेलन में भाग लेने के लिए डफरिन की कार्यकारिणी को भी निमंत्रण भेजे गये थे, लेकिन इसे राजनैतिक सम्मेलन मानकर निमंत्रण स्वीकार नहीं किया गया। फिर भी, डफरिन ने सम्मेलन में शामिल होनेवाले अनेक प्रतिनिधियों को व्यक्तिगत रूप से एक भोज देकर उनसे बातचीत की, लेकिन इसमें डफरिन ने सुरेंद्रनाथ बनर्जी को नहीं बुलाया था।

कांग्रेस का तीसरा अधिवेशन

कांग्रेस का तीसरा अधिवेशन 1887 में बदरुद्दीन तैय्यबजी की अध्यक्षता में मद्रास में हुआ। यह अधिवेशन अपने पूर्ववर्ती दोनों सम्मेलनों से अधिक सफल सिद्ध हुआ। इसमें 607 प्रतिनिधियों ने भाग लिया और पहली बार प्रतिनिधियों के रहने के लिए एक सभा-स्थल का निर्माण कराया गया, जिसे तमिल में ‘पंडाल’ कहते हैं। बाद में यही शब्द भारत के सभी प्रांतों द्वारा कांग्रेस अधिवेशन-स्थल के लिए स्वीकार कर लिया गया। कांग्रेस को एक जन-संगठन बनाने का प्रयास यहीं प्रारंभ हुआ। इसके लिए दक्षिणी और उत्तरी भारत में वीर राघवाचार्य द्वारा तमिल तथा उर्दू भाषाओं में लिखित पुस्तिका का निःशुल्क-वितरण किया गया। इस अधिवेशन में भारतीय जनता का प्रतिनिधित्व करनेवाली विधानसभाओं की माँग की गई, जिसे कानून बनाने तथा टैक्स-संबंधी निर्णय लेने का अधिकार प्राप्त हो। आर्म्स ऐक्ट के विरुद्ध तथा असम कुली अधिनियम के विरुद्ध भी इस अधिवेशन में प्रस्ताव पारित किये गये।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना (Establishment of Indian National Congress)
बदरुद्दीन तैय्यबजी

कलकत्ता अधिवेशन में यदि राजनैतिक विचारोंवाले शिक्षित व्यक्तियों की भरमार हो गई थी, तो मद्रास अधिवेशन में कांग्रेस के चरित्र में कई मौलिक परिवर्तन हुए। पहली बार इस अधिवेशन में निम्न मध्यम वर्ग तथा कृषक वर्ग के प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। कुल 607 प्रतिनिधियों में 95 प्रतिनिधि किसान तथा 55 शिक्षक थे। यह पहला अधिवेशन था जिसमें बहुत से प्रतिनिधि अग्रेजी भाषा भी नहीं जानते थे, और जिसमें एक भारतीय भाषा में भाषण हुआ। ह्यूम ने ‘इंडियन मिरर’ के संपादक को लिखा था: ‘‘पिछले कांग्रेस (मद्रास 1887) में ऐसे बहुत से प्रतिनिधि और यहाँ तक कि कई वक्ता भी, जो सिर्फ अपनी देसी भाषा जानते थे….अगर हम संगठन के प्रांतीय कमेटियों को देखें, तो पूरे एक तिहाई लोग अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त नहीं हैं और अधिक नीचे जाने पर अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त सदस्य बहुत मुश्किल से मिलता है।’’ मद्रास अधिवेशन तक कांग्रेस में ऐसे सदस्यों की संख्या काफी बढ़ गई थी जो सरकार की कटु आलोचना करते थे। फलस्वरूप डफरिन तथा ब्रिटिश शासक वर्ग कांग्रेस के विरुद्ध हो गया, जिसका परिणाम कांग्रेस के अगले अधिवेशन में सामने आनेवाला था।

कांग्रेस के पहले तीन अधिवेशन भारतीय राष्ट्रवाद के अंकुरण के द्योतक थे। इसके चौथे अधिवेशन से 1905 तक का काल भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास में राष्ट्रवाद के विकास का शैशवकाल माना जा सकता है। इस दौर में कांग्रेस को अंदर तथा बाहर दोनों तरफ से आक्रमणों का सामना करना पड़ा। राष्ट्रवाद के इस दौर में उग्र राष्ट्रवाद का भी जन्म हुआ, जिसके कारण आगे चलकर भारतीय राष्ट्रवाद की कई धाराएँ बन गईं, यद्यपि मुख्य धारा कांग्रेस ही बनी रही।

कांग्रेस की कमजोरियाँ और सीमाएँ

कांग्रेस आरंभ से ही कुछ कमजोरियों का शिकार रही, इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण कमजोरी असमान प्रतिनिधित्व और भारतीय समाज के गैर-कुलीन समूहों के पूरे अलगाव की थी। पहले अधिवेशन के 72 सदस्यों के संबंध में कांग्रेस की आधिकारिक रिपोर्ट का दावा था कि उनमें समाज के सभी क्षेत्रों के लोग शामिल थे और वे अधिकांश वर्गों का प्रतिनिधित्व करते थे। भौगोलिक दृष्टि से प्रेसीडेंसियों की प्रमुखता थी, किंतु उनमें बंगाल धीरे-धीरे नेतृत्व की स्थिति खोता जा रहा था और दूसरे सभी क्षेत्रों से आगे बढ़ते हुए मुंबई उसकी जगह ले रहा था। क्षेत्रीय वितरण के आधार पर उनमें 38 प्रतिनिधि मुंबई प्रेसीडेंसी से और 21 मद्रास से थे, किंतु बंगाल से केवल 4 थे। सामाजिक संरचना की दृष्टि से आरंभ में कांग्रेस के सदस्य अधिकांशतः सवर्ण हिंदू समुदायों के थे और यही स्थिति उसके अस्तित्व के दो दशकों से अधिक समय तक बनी रहीं। भागीदारी की यह सीमा कांग्रेस के सदस्यों को बचैन नहीं करती थी क्योंकि वे आत्मतुष्ट ढ़ंग से पूरे राष्ट्र के प्रतिनिधित्व का दावा करते रहे। इसने कांग्रेस के कार्यक्रमों में कुछ बाधाएँ अवश्य पैदा की।

अपनी कमजोरियों और सीमाओं के बावजूद कांग्रेस ने एक सर्वसमावेशी राष्ट्रीय एकता स्थापित करने का प्रयास किया और इस महत्त्वपूर्ण प्रश्न को उठाया कि सरकार का आधार व्यापक बनाया जाना चाहिए और उसमें जनता को उसका समुचित और वैध हिस्सा मिलना चाहिए। इस सिद्धांत के आधार पर भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की मुख्य धारा का प्रवाह यहीं से आरंभ हुआ।

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