विजयनगर साम्राज्य का उत्थान और पतन (Rise and Fall of Vijayanagara Empire)

Table of Contents

विजयनगर साम्राज्य

चौदहवीं सदी में दक्षिण भारत में दो बड़े शक्तिशाली साम्राज्यों का उद्भव हुआ- एक था विजयनगर साम्राज्य और दूसरा था बहमनी साम्राज्य। दक्कन क्षेत्र दिल्ली सल्तनत के प्रांतीय प्रशासन का भाग था।

विजयनगर साम्राज्य की स्थापना दक्षिण भारत के आधुनिक कर्नाटक राज्य में तुंगभद्रा नदी के तट पर हुई थी। इसका वास्तविक नाम कर्नाट साम्राज्य था, जिसे पुर्तगालियों ने बिसनाग’ साम्राज्य कहा है।

परंपरा और अभिलेखीय साक्ष्यों के अनुसार इस साम्राज्य की स्थापना पाँच भाइयों (हरिहर, कम्पा प्रथम, बुक्का प्रथम, मारप्पा तथा मदुप्पा) के परिवार के दो सदस्यों- हरिहर और बुक्का ने 1336 ई. में की थी। इस साम्राज्य की प्रारंभिक राजधानी अनेगुंडी दुर्ग थी और यही नगर विजयनगर साम्राज्य का उत्पत्ति-स्थान था।

दक्षिण का यह महान साम्राज्य अपने स्थापना काल से लेकर लगभग सवा दो सौ साल तक दक्षिण की राजनीति का प्रमुख केंद्र बना रहा। अपने उत्कर्ष-काल में यह साम्राज्य उत्तर में कृष्णा नदी से लेकर प्रायद्वीप के सुदूर दक्षिण तक फैला हुआ था। यद्यपि 1565 ई. में तालीकोटा के युद्ध में इस साम्राज्य की भारी पराजय हुई और इसकी वैभवशाली राजधानी विजयनगर को लूटकर भस्मीभूत कर दिया गया। किंतु इस महान् संकट के बाद भी यह साम्राज्य लगभग 70 वर्षों तक अस्तित्व में बना रहा।

यह सही है कि विजयनगर के शासकों को उर्वर नदी घाटियों, विशेषकर रायचूर दोआब तथा लाभकारी विदेशी व्यापार से उत्पन्न संपदा पर अधिकार करने के लिए अपने समकालीन राजाओं, जैसे-दक्कन के सुल्तानों और उड़ीसा के गजपतियों के साथ निरंतर संघर्ष करना पड़ा, फिर भी, इस साम्राज्य के प्रतिभाशाली शासकों के काल में राजनीति के साथ-साथ शासन, समाज, अर्थव्यवस्था, धर्म, कला-स्थापत्य एवं साहित्य के क्षेत्रों में अभूतपूर्व प्रगति हुई।

भारत पर तुर्क आक्रमण: महमूद गजनवी 

ऐतिहासकि स्रोत

विजयनगर साम्राज्य के इतिहास-निर्माण में मौखिक परंपराओं, तमाम अभिलेखों एवं साहित्यिक ग्रंथों के साथ-साथ समय-समय पर इस साम्राज्य की यात्रा करने वाले विभिन्न विदेशी यात्रियों के विवरणों से सहायता मिलती है।

पुरातात्विक स्रोत

यद्यपि सत्रहवीं-अठारहवीं शताब्दी तक विजयनगर पूरी तरह से विनष्ट हो गया था, फिर भी यह साम्राज्य कृष्णा-तुंगभद्रा दोआब क्षेत्र की मौखिक परंपराओं में हम्पी साम्राज्य के नाम से जीवित रहा। इस साम्राज्य के भग्नावशेष पहली बार 1800 ई. में एक अभियंता तथा पुराविद कर्नल कॉलिन मैकेंजी द्वारा आधुनिक कर्नाटक राज्य के हम्पी से ही प्रकाश में लाये गये थे।

अभिलेखीय साक्ष्यों में बागपल्ली ताम्रपत्र (1336 ई.) और बिट्रगुंट अनुदान पत्र (1356 ई.) विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इनमें संगम वंश के प्रारंभिक शासकों को सूची मिलती है। हरिहर द्वितीय के चन्नस्यपट्टन अभिलेख (1378 ई.) से पता चलता है कि बुक्का प्रथम ने विजयनगर को अपनी राजधानी बनाई थी। इनके अतिरिक्त, देवराय द्वितीय के श्रीरंगम् अनुदानपत्र (1434 ई.), इम्मादि नरसिंह के देवपल्ली अनुदानपत्र (1504 ई.), कृष्णदेव राय के कांचीपुरम् ताम्रपत्रलेख (1528 ई.) तथा छाया चित्रकारों द्वारा संकलित भवनों के चित्र भी विजयनगर के इतिहास-निर्माण में सहायक हैं।

साहित्यिक स्रोत

विजयनगर साम्राज्य के इतिहास-निर्माण में तेलुगु, कन्नड़, तमिल और संस्कृत में लिखी गई अनेक साहित्यिक कृतियाँ, जैसे- विद्यारण्यवृत्तांत, विद्यारण्यकालज्ञान, मदुराविजय, गंगदासप्रतापविलसन तथा वरदाम्बिकापरिणय उपयोगी हैं। विद्यारण्यवृत्तांत तथा विद्यारण्यकालज्ञान जैसी प्राचीनतम कृतियाँ अपनी संदिग्ध ऐतिहासिकता के बावजूद विजयनगर के प्रारंभिक इतिहास की जानकारी का एक प्रमुख स्रोत हैं। बुक्का द्वितीय के पुत्र कंपन की पत्नी गंगादेवी (1308 ई.) की अपूर्ण कृति मदुराविजयम् (मधुराविजयम्) में कंपन की मदुरा विजय का वर्णन है। गंगाधर विरचित गंगदास प्रतापविलसन से मल्लिकार्जुन के शासनकाल की सूचना मिलती है। कवयित्री तिरुमलंबोकृत चंपूकाव्य वरदाम्बिका परिणय में अच्युतदेव राय और वरदांबिका के प्रणय एवं विवाह का वर्णन है।

विजयनगरकालीन इतिहास-निर्माण के महत्वपूर्ण स्रोतों में राजा सालुव नरसिंह के जीवन पर डिंडीमा का रामाभ्युदयम, दिंडीमा द्वितीय का अच्युतभ्युदयम, तिरुमलम्बा का वरदम्बिका परिनयम्, नंजुंदा का कुमारा रमण काथे कनकदास का मोहनतरंगिणी, लिंगन्ना का केलादिरिविजयम, श्रीनाथ का काशीकंद, मल्लय्या और सिंगय्या का वाराहपुराणमु, पेद्दन के मनुचरितमु और राजा कृष्णदेव राय का ‘अमुक्तमाल्यद’ सूचना के महत्वपूर्ण स्रोत हैं।

विदेशी यात्रियों के विवरण

विजयनगर साम्राज्य के इतिहास-लेखन में विदेशी यात्रियों के विवरण भी बहुत उपयोगी सिद्ध हुए हैं। इस दृष्टि से फारसी इतिहासकार मुहम्मद कासिम फ़िरिश्ता, मोरक्को के रहने वाले इब्नबतूता, इटालियन निकोलो दि कोंटी, फारस के सूफी यात्री अब्दुर रज्जाक तथा पुर्तगाल के डेमिंगो पायस, फर्नाओ नुनिज एवं दुआरतो बारबोसा के विवरण विशेष उपयोगी हैं।

फ़िरिश्ता और इब्नबतूता जैसे यात्रियों के विवरणों से बहमनी और विजयनगर राज्यों के आपसी संबंधों पर विशेष प्रकाश पड़ता है। इसके अलावा, समकालीन मुस्लिम लेखक, जिन्होंने बहुमूल्य रचनाएँ छोड़ी हैं, वे हैं- बरनी, इसामी (फुतूह उस सलातीन), सैयद अली तबताबाई (बुरहान-ए-मैसर, 1596), निसामुद्दीन बख्शी, फ़रिश्ता (तारिक-ए-फ़रिश्ता) और रफ़ीउद्दीन शिराज़ी (तज़किरत उल मुल्क, 1611)।

1420 ई. में विजयनगर आने वाले निकोलो दि कोंटी ने अपने यात्रा-विवरण ट्रेवल्स ऑफ निकोलो कोंटी में विजयनगर के शान-शौकत की बड़ी प्रशंसा की है। फारस का अब्दुर रज्जाक 1442-43 ई. में विजयनगर आया था। उसने सदाइन वा मजमा-उल-बहरीन में देवराय द्वितीय के काल में विजयनगर की राजधानी की शानो-शौकत, नगर की सुरक्षा, बाजार, रहन-सहन आदि का विस्तृत विवरण दिया है। पुर्तगाली व्यापारी, लेखक और खोजकर्ता डोमिंगो पायस ने अपने यात्रा-वृतांत में विजयनगर साम्राज्य के शासक कृष्णदेव राय के शासनकाल में प्राचीन शहर हम्पी के सभी ऐतिहासिक पहलुओं का विवरण दिया है। दूसरे पुर्तगाली इतिहासकार और घोड़ों के व्यापारी फर्नाओ नुनीज ने 1535 ई. में अच्युतराय के शासनकाल में विजयनगर की यात्रा की थी। इसके विवरणों में भी तत्कालीन विजयनगर (बिश्नाग) के इतिहास वर्णन मिलता है। पुर्तगाल के ही बारबोसा की पुस्तक एन अकाउंट ऑफ कंट्रीज बॉर्डरिंग द इंडियन ओसियन एंड देअर इनहैबीटेंट में कृष्णदेव राय के शासनकालीन विजयनगर की स्थिति का वर्णन मिलता है। इसके अलावा रूसी यात्री निकीतिन और वेनिस के मार्कोपोलो के यात्रा-विवरण भी विजयनगर के इतिहास-निर्माण में सहायक हैं।

विजयनगर साम्राज्य की उत्पत्ति

विजयनगर साम्राज्य की उत्पत्ति के संबंध में विभिन्न दंतकथाएँ भी प्रचलित हैं। कन्नड़ साक्ष्यों के आधार पर कुछ इतिहासकारों का दावा है कि विजयनगर साम्राज्य के संस्थापक हरिहर तथा बुक्का दोनों प्रारंभ में काकतीय प्रतापरुद्र के यहाँ रहते थे। जब प्रतापरुद्र दिल्ली सुल्तान के सैनिकों द्वारा बंदी बना लिया गया, तो दोनों भाइयों ने भागकर तुंगभद्रा नदी के तट पर होयसल साम्राज्य के पतन के दौरान आचार्य विद्यारण्य की मदद से उत्तरी भागों पर अधिकार कर लिया था।

कुछ विद्वान मानते हैं कि हरिहर तथा बुक्का मूल रूप से कर्नाटक के निवासी थे और उत्तरी भारत से मुस्लिम आक्रमणों को रोकने के लिए होयसल शासक बल्लाल तृतीय के अधीन तुंगभद्रा क्षेत्र में शासन कर रहे थे। वीर बल्लाल तृतीय तथा उसके बेटे बल्लाल चतुर्थ की मृत्यु के बाद इन्होंने होयसल राज्य पर अधिकार कर लिया और विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की।

परंपराओं, मुस्लिम इतिहासकारों और अभिलेखिक साक्ष्यों के साथ-साथ विद्यारण्यकालज्ञान तथा विद्यारण्यवृत्तांत से पता चलता है कि दोनों भाई- हरिहर और बुक्का वारंगल के काकतीय शासक प्रतापरुद्र के यहाँ राजकीय कोषागार से संबद्ध अधिकारी थे और संभवतः सीमावर्ती क्षेत्रों के प्रशासक थे। दिल्ली के सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक के सैनिकों ने जब वारंगल पर अधिकार कर प्रतापरुद्र को बंदी बना लिया, तो दोनों भाइयों ने भागकर कंपिलि में शरण ली।

किंतु 1326 ई. में सुल्तान ने कंपिलि पर अधिकार कर शासक की हत्या कर दी और उसके संगे-संबंधियों के साथ हरिहर और बुक्का को भी बंदी बनाकर दिल्ली ले गया जहाँ उन्होंने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया। जब सुल्तान के विरूद्ध दक्षिण में विद्रोह तो सुल्तान ने उन्हें विद्रोह का दमन करने दक्षिण भेजा।

कहा जाता है कि दक्षिण पहुँच कर हरिहर और बुक्का एक संत माधव विद्यारण्य के संपर्क में आये और इस्लाम का परित्याग कर हिंदू धर्म में दीक्षित हुए। इसके बाद उन्होंने विद्यारण्य (माधवाचार्य) और वेदों के भाष्यकार सायण सायण की प्रेरणा से तुंगभद्रा नदी के दक्षिण में विजयनगर शहर और राज्य की नींव डाली] जो कालांतर में विजयनगर साम्राज्य के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

इस प्रकार उत्पत्ति-संबंधी मतभेद के बावजूद प्रायः सभी इतिहासकार इस बात पर एकमत हैं कि विजयनगर के संस्थापकों को मुस्लिम आक्रमण से लड़ने के लिए दक्षिण भारत के श्रृंगेरी मठ के एक संत विद्यारण्य द्वारा समर्थित और प्रेरित किया गया था।

विजयनगर साम्राज्य की स्थापना

दक्षिण भारत में मुसलमानों का प्रवेश अलाउद्दीन खिलजी के समय हुआ था। उसने तेरहवीं सदी के अंत और चौदहवीं सदी के आरंभ में सुदूर दक्षिण के देवगिरि के यादव, वारंगल के काकतीय, द्वारसमुद्र के होयसल तथा पांड्य राजाओं को पराजित कर उनसे करादि वसूल किया था। मुहम्मद बिन तुगलुक के काल में कंपिलि तथा द्वारसमुद्र के होयसल जैसे कुछ प्रमुख राज्यों को छोड़कर दक्षिण भारत का अधिकांश हिस्सा दिल्ली सल्तनत के अधीन था। किंतु दिल्ली के सुल्तान को अकसर दक्षिण भारत में विद्रोहों का सामना करना पड़ता था। कभी-कभी तो उनके अपने अधिकारी भी संकट का कारण बन जाते थे।

विजयनगर साम्राज्य का उत्थान और पतन (Rise and Fall of Vijayanagara Empire)
विजयनगर साम्राज्य

इसी श्रृंखला में मुहम्मद बिन तुगलुक के समय में एक महत्वपूर्ण विद्रोह 1325 ई. में गुलबर्गा (कर्नाटक) के समीप सागर के गवर्नर और उसके चचेरे भाई बहाउद्दीन गुर्शप ने किया। इसमें उसे कंपिलि के शासक से भी मदद मिली थी।

सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलुक ने विद्रोहियों के दमन के लिए गुजरात के गवर्नर मलिक जैद तथा देवगिरि के गवर्नर मजिर-अबु-रियाज को दक्षिण भेजा। गोदावरी के तट पर सुल्तान के गवर्नरों से पराजित होकर कंपिलि भाग गया।

कंपिलि (बेल्लारी, रायचूर तथा धारवाड़ जिले) का राज्य पहले देवगिरि के यादवों की अधीन था। किंतु जब अलाउद्दीन खिलजी ने देवगिरि पर अधिकार किया, तो कंपिलि के शासक ने अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी थी। कंपिलि के शासक ने अपने शरणार्थी मित्र गुर्शस्प का स्वागत किया। कंपिलि के शासक को दंडित करने के लिए मुहम्मद तुगलक स्वयं सेना लेकर कंपिलि पहुँच गया। कंपिलिदेव ने गुर्शस्प को होयसल शासक के यहाँ भेज दिया और स्वयं सुल्तान की सेना का सामना किया।

अंत में सुल्तान ने कंपिलि के शासक को पराजित कर बंदी बना लिया गया और संभवतः मार डाला। कंपिलिदेव के पुत्र और तमाम अधिकारी बंदी बनाकर दिल्ली ले जाये गये जिनमें हरिहर तथा बुक्का नामक दो भाई भी थे। दिल्ली पहुँच कर हरिहर और बुक्का ने इस्लाम धर्म को स्वीकर कर लिया। कंपिलि पर अधिकार कर सुल्तान ने उसे एक अलग प्रांत बना दिया और मलिक मुहम्मद को अपना गवर्नर नियुक्त किया।

चूंकि गुर्शस्प ने होयसल शासक वीर बल्लाल तृतीय के यहाँ शरण ली थी। इसलिए कंपिलि पर अधिकार करने के बाद सुल्तान ने होयसल बल्लाल तृतीय पर आक्रमण किया। आरंभिक प्रतिरोध के बाद वीर बल्लाल तृतीय ने गुर्शस्प को मुस्लिम आक्रमणकारियों के हवाले कर दिया और सुल्तान की अधीनता स्वीकार कर ली। समर्पण के बाद सुल्तान ने वीर बल्लाल को उसके राज्य के कुछ हिस्से पर स्वतंत्रतापूर्वक शासन करने की अनुमति दे दी और दिल्ली लौट गया।

किंतु सुल्तान के दक्षिण से हटते ही वीर बल्लाल तृतीय ने अधीनता का जुआ उतार फेंका और दिल्ली सुल्तान द्वारा नियुक्त कंपिलि के शासक मलिक मुहम्म्द के विरुद्ध लड़ाई छेड़ दी। तमाम स्थानीय सामंतों और नायकों के सहयोग के कारण इस विद्रोह ने शीघ्र ही भयंकर रूप धारण कर लिया। गवर्नर मलिक मुहम्मद के आग्रह पर दिल्ली के सुलतान ने विद्रोह के दमन के लिए अपने विश्वासपात्र हरिहर और बुक्का को कर्नाटक का शासक नियुक्त कर सेना सहित दक्षिण भेजा।

दक्षिण पहुँच कर हरिहर तथा बुक्का ने कृष्णा के दाहिने तट पर वीर बल्लाल तृतीय की सेना का सामना किया। किंतु बल्लाल तृतीय ने इन्हें पराजित कर दिया। इसके बाद दोनों भाई अपनी कूटनीति और सूझ-बूझ से दिल्ली सल्तनत की अधीनता में रहने का स्वांग करते हुए अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने में लग गये। संयोग से इसी दौरान इनका संपर्क आचार्य विद्यारण्य से हुआ जिनके उपदेशों से प्रेरित होकर इन्होंने अपनी शक्ति को सुदृढ़ किया और फिर वीर बल्लाल तृतीय को पराजित कर अनेगोंडी पर अधिकार लिया। विद्यारण्य ने हरिहर को भगवान विरूपाक्ष का प्रतिनिधि घोषित किया और कुछ दिन बाद इन्होंने अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी। इनके द्वारा स्थापित साम्राज्य विजयनगर (जीत का नगर) के नाम से जाना गया। विद्यारण्य के नाम पर इन्होंने विद्यानगर नामक नगर की स्थापना की।

विजयनगर साम्राज्य का उत्थान और पतन (Rise and Fall of Vijayanagara Empire)
विजयनगर के राजवंश

विजयनगर के राजवंश

विजयनगर साम्राज्य पर कुल चार राजवंशों ने लगभग तीन सौ दस वर्षों तक शासन किया- संगम राजवंश (1336-1485 ई.), सालुव राजवंश (1485-1505 ई.), तुलुव राजवंश (1505-1570 ई.) और अराविदु राजवंश (1570-1646 ई.)।

संगम राजवंश (1336–1485 ई.)

हरिहर और बुक्का के पिता का नाम ‘भावना संगम’ था जो यादव जाति के एक गौपालक समुदाय के मुखिया थे। इसलिए हरिहर और बुक्का ने विजयनगर में जिस राजवंश की स्थापना की, उसे उनके पिता के नाम पर ‘संगम वंश’ के नाम से जाना जाता है।

विजयनगर साम्राज्य का उत्थान और पतन (Rise and Fall of Vijayanagara Empire)
संगम राजवंश के शासक

हरिहर प्रथम (1336-1356 ई.)

हरिहर प्रथम संगम का पुत्र था। उसने अपने भाई बुक्का (प्रथम) के साथ मिलकर तुंगभद्रा नदी के दक्षिणी तट पर स्थित अनेगोंडी के आमने-सामने दो नगर विजयनगर और विद्यानगर बसाये। हरिहर ने 18 अप्रैल, 1336. में भगवान विरूपाक्ष को साक्षी मानकर भारतीय परंपरानुसार अपना राज्याभिषेक संपन्न कराया।

हरिहर प्रथम का स्वतंत्र राज्य में दक्षिण-पूर्व में नेल्लोर से लेकर उत्तरी कर्नाटक में धारवाड़ तथा बादामी तक का प्रदेश शामिल था। किंतु उसका राज्य चारों ओर से सशक्त प्रतिद्वंदियों से घिरा था। इसकी उत्तरी पूर्वी सीमा पर वारंगल का शासक कापाया नायक अपने राज्य के विस्तार में लगा था जो वीर बल्लाल तृतीय का, जिसे कुछ दिन पहले प्रथम हरिहर ने हराया था, मित्र था। बल्लाल तृतीय का राज्य उसके राज्य के दक्षिण पश्चिम स्थित था। उत्तर पूर्व में देवगिरि का गवर्नर कुतलुग खाँ दिल्ली के सुल्तान की अधीनता में शासन कर रहा था जो विजयनगर के स्वतंत्र अस्तित्व का विरोधी था।

हरिहर प्रथम की उपलब्धियाँ
प्रशासनिक सुदृढ़ीकरण

हरिहर प्रथम ने सबसे पहले हरिहर राज्य के आंतरिक सुदृढ़ीकरण की ओर ध्यान दिया। यद्यपि उसकी राजधानी अनेगोंडी तुंगभद्रा के तट पर एक पहाड़ी पर स्थित थी, वह सुरक्षित नहीं थी। इसलिए उसने नदी के दूसरे किनारे विरूपाक्ष मंदिर के समीप हेमकूट, पतंग तथा मालयवंत पहाड़ियों से घिरे एक सुरक्षित स्थान पर विजय अथवा विद्यारण्य नाम से नई राजधानी की नींव डाली। यही बाद में विजयनगर नाम से विख्यात हुई, जिसके ध्वंसावशेष वर्तमान हम्पी में विद्यमान हैं।

आनुश्रुतिक स्रोतों से पता चलता है कि विजयनगर की स्थापना विद्यारण्य की सलाह पर की गई थी। किंतु इतिहासकार फिरिश्ता के अनुसार विजयनगर की स्थापना बल्लाल तृतीय ने की थी। इसके अनुसार बल्लाल तृतीय ने अपने पुत्र बिजेनराय के नाम पर बिजयनगर (विजयनगर) की स्थापना की थी।

इसके अलावा, हरिहर प्रथम ने चालुक्यों की राजधानी बादामी का सुदृढ़ीकरण किया और उदयगिरि दुर्ग का निर्माण करवाकर इसे राज्य के पूर्वी प्रांतों का मुख्यालय बनाया। उसने इस क्षेत्र के प्रशासन की जिम्मेदारी अनुज कम्पन को सौंप दी। पश्चिमी सीमा की सुरक्षा के लिए हरिहर ने बुक्का प्रथम को युवराज तथा सहशासक नियुक्त कर गूट्टी दुर्ग के प्रशासन की जिम्मेदारी दी।

होयसल राज्य की विजय

राज्य विस्तार के क्रम में हरिहर प्रथम ने सर्वप्रथम 1340 ई. में होयसल राज्य पर आक्रमण कर पेनुकोंडा के दुर्ग पर अधिकार कर लिया क्योंकि होयसल शासक वीर बल्लाल मदुरै के विजय अभियान में लगा हुआ था।

बाद में 1342 ई. में मदुरै के सुल्तान ने बल्लाल तृतीय की हत्या कर दी और बल्लाल चतुर्थ (विरूपाक्ष बल्लाल) होयसल राजगद्दी पर बैठा, जो नितांत दुर्बल तथा अयोग्य था। इस अवसर का लाभ उठाते हुए हरिहर ने 1346 ई. में होयसल बल्लाल चतुर्थ को पराजित कर होयसल राज्य पर अधिकार कर लिया। बल्लाल चतुर्थ ने राज्य छोड़कर संभवतः कदंबों के यहाँ शरण ली। बाद में 1347 ई. में हरिहर प्रथम के अनुज मारप ने बनवासी के कदंब राज्य पर अधिकार कर लिया।

मदुरै के विरूद्ध अभियान

मदुरै के सुल्तान ने उत्तरी तथा दक्षिणी अर्काट के शासक राजनारायण संबुवराय को बंदी बनाकर उसके राज्य पर अधिकार कर लिया था। हरिहर ने मदुरै के सुल्तान को पराजित कर न केवल राजनारायण संबुवराय को मुक्त कराया, बल्कि उसे उसके राज्य पर पुनः प्रतिष्ठित किया।

बहमनी से संघर्ष

इसी समय (1346 ई.) रायचूर दोआब पर आधिपत्य को लेकर बहमनी तथा विजयनगर के बीच उस संघर्ष की शुरुआत हुई, जो लगभग 200 वर्षों तक चलता रहा।

प्रशासनिक सुधार

राज्य की आंतरिक तथा बाह्य सुरक्षा सुदृढ़ करने के बाद हरिहर प्रथम ने प्रशासन की ओर ध्यान दिया और संपूर्ण राज्य को काकतीय प्रशासनिक आदर्शों के अनुरूप स्थलों, नाडुओं तथा सीमाओं में विभाजित कर स्थानीय प्रशासन तथा राजस्व-संग्रह के लिए अधिकारियों की नियुक्ति की। उसने राज्य की आर्थिक समृद्धि के लिए किसानों को राजस्व में रियायत देकर जंगलों को साफ कर खेती करने के लिए प्रोत्साहित किया।

हरिहर प्रथम निसंतान था। उसने अपने जीवनकाल में ही बुक्का प्रथम को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया था। हरिहर प्रथम की 1356 ई. में मृत्यु हो गई। उसके बाद उसका अनुज बुक्का प्रथम विजयनगर राजगद्दी पर बैठा।

बुक्का राय प्रथम (1356-1371 ई.)

हरिहर प्रथम का उत्तराधिकारी उसका भाई बुक्का राय प्रथम (1356-1371 ई.) हुआ। यह भी अपने भाई के समान महान योद्धा, राजनीतिज्ञ तथा कुशल प्रशासक था। इसने प्रशासनिक व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त करने के सबसे पहले अपने भतीजों के स्थान पर अपने पुत्रों को विभिन्न क्षेत्रों का प्रशासक नियुक्त किया। इसके बाद इसने सैन्याभियान की योजना बनाई और अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार किया। बुक्का राय प्रथम ने विद्यानगर का नाम परिवर्तित कर विजयनगर कर दिया।

बुक्का राय प्रथम की उपलब्धियाँ
संबुवराय के विरुद्ध सफल अभियान

हरिहर प्रथम ने समय राजनारायण संबुवराय को मदुरै के सुल्तान के चंगुल से छुड़ाकर उसके पैतृक राज्य पर प्रतिष्ठित किया था। किंतु लगता है कि कुछ समय बाद उसने विद्रोह कर अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी थी। फलतः बुक्का राय प्रथम ने 1359-60 ई. में संबुवराय पर आक्रमण कर उसके राज्य को विजयनगर में मिला लिया। इस विजय के बाद विजयनगर राज्य की दक्षिणी सीमा दक्षिण पेन्नार तथा कोल्लडम नदी तक पहुँच गई।

बहमनी के साथ संघर्ष

बुक्का राय प्रथम और बहमनी सुल्तान मुहम्मदशाह प्रथम के बीच 1367 ई. में रायचूर दोआब में स्थित मुद्गल के किले को लेकर युद्ध आरंभ हो गया। किंतु बहमनी के सुल्तान ने अपने बंदूकधारियों तथा अश्वारोहियों की सहायता से बुक्का को पराजित कर खदेड़ दिया। इस युद्ध में संभवतः पहली बार तोपखाने का प्रयोग किया गया था। बाद में मुहम्मदशाह बहमन भी अपनी अस्वस्थता के कारण पीछे हट गया। अंततः दोनों पक्षों में समझौता हो गया और कृष्णा नदी को दोनों राज्यों की सीमा मान लिया गया।

कोंडवीडु की विजय

बहमनी संघर्ष से मुक्त होने के बाद बुक्क राय प्रथम को कोंडवीडु के साथ संघर्ष में उलझना पड़ा। रेड्डि राज्य के संस्थापक प्रोलय वेम की 1355 ई. में मृत्यु के बाद उसका बेटा वीर अनपोत राज्याधिकारी बना था। बुक्का प्रथम ने इस पर आक्रमण कर अहोबलम तथा विनुकोंड पर अधिकार कर लिया।

मदुरै विजय

राजनारायण संबुवराय को पराजित करने तथा तोंडैमंडलम् पर अपनी सत्ता स्थापित करने के फलस्वरूप बुक्का राय प्रथम का मदुरै के सुल्तान से संघर्ष होना अनिवार्य था क्योंकि दोनों राज्यों की सीमाएँ समीप आ गई थीं।

बुक्का राय प्रथम के पुत्र कुमार कंपन के नेतृत्व में विजयनगर की सेना ने 1370 ई. में मदुरै पर आक्रमण कर दिया। कुमार कंपन की पत्नी गंगादेवी ने अपनी रचना ‘मदुराविजयम्’ में कंपन की मदुराविजय का वर्णन किया है। पता चलता है कि इस युद्ध में मदुरै का सुल्तान पराजित हुआ और मारा गया। 1377 ई. में मदुरै को विजयनगर राज्य में मिला लिया। इस प्रकार सेतुबंध रामेश्वरम् तक का संपूर्ण दक्षिण भारत विजयनगर साम्राज्य का अंग बन गया। संभवतः इसी विजय के उपलक्ष्य में बुक्का राय प्रथम ने ‘तीनों समुद्रों का स्वामी’ की उपाधि धारण की थी।

यद्यपि बुक्का राय प्रथम वैदिक धर्म का अनुयायी था और ‘वेदमार्ग प्रतिष्ठापक’ की उपाधि धारण की थी। किंतु एक धर्मसहिष्णु शासक के रूप में उसने जैनों और वैष्णवों के साथ-साथ अन्य सभी धर्मावलंबियों को समान रूप से संरक्षण प्रदान किया।

बुक्का राय प्रथम के काल में संस्कृत तथा तेलुगु साहित्य की विशेष उन्नति हुई। विद्यारण्य (माधवाचार्य) तथा सायणाचार्य के संरक्षण में संस्कृत साहित्य और महाकवि नचन सोम के निदेशन में तेलुगु साहित्य के विकास को प्रोत्साहन मिला। इसके समय के एक अभिलेख में मालागौड़ नामक एक महिला के सती होने का उल्लेख मिलता है। इसने मैत्री-संबंध स्थापित करने के लिए 1374 ई. में चीन में एक दूतमंडल भेजा था।

बुक्का राय प्रथम की फरवरी 1377 ई. में मृत्यु के बाद उसकी गौरांबिका नामक पत्नी से उत्पन्न पुत्र हरिहर द्वितीय विजयनगर की राजगद्दी पर बैठा।

हरिहर द्वितीय (1377–1404 ई.)

बुक्का राय प्रथम का उत्तराधिकारी हरिहर द्वितीय (1377-1404 ई.) एक महान् विजेता था। उसने अपने भाई के सहयोग से कनारा, मैसूर, त्रिचनापल्ली, काँची, चिंगलपुट आदि प्रदेशों पर अधिकार कर लिया और उत्तर श्रीलंका पर भी अपनी विजय-पताका फहराई।

सैनिक उपलब्धियाँ

हरिहर द्वितीय को अपने पारंपरिक शत्रु बहमनी सुल्तान से निपटना पड़ा। 1375 ई. में मुहम्मदशाह प्रथम की मृत्यु के बाद उसका बेटा अलाउद्दीन मुजाहिदशाह बहमनी का सुल्तान हुआ। वह अपने राज्य की दक्षिणी सीमा का विस्तार कृष्णा नदी के बजाय तुंगभद्रा नदी तक करना चाहता था। इसके लिए उसने 1377 ई. में विजयनगर पर आक्रमण कर दिया।

किंतु बहमनी सुल्तान अपने इस अभियान में असफल रहा और चचेरे भाई (चाचा?) दाऊद द्वारा मार दिया गया। इसके बाद बहमनी में अराजकता फैल गई जिसका लाभ उठाकर हरिहर द्वितीय ने अपने मंत्री माधव की सहायता से उत्तरी कर्नाटक तथा कोंकण पर आक्रमण कर दिया।

विजयनगर की सेना ने बहमनी सेना (तुरुक्षों) को पराजित कर गोवा बंदरगाह के साथ-साथ चाउल तथा दबोल के महत्वपूर्ण दुर्गों पर भी अधिकार कर लिया। इस प्रकार दकन के संपूर्ण पश्चिमी तट पर विजयनगर की अधिसत्ता स्थापित हो गई।

इसके बाद हरिहर द्वितीय ने 1382-83 ई. में विजयनगर राज्य की सीमा से सटे अड्डण्कि तथा वेलमों के श्रीशैलम् प्रदेशों पर अधिकार कर लिया।

1390-91 ई. में वेलम शासक ने बहमनी के सुल्तान मुहम्मदशाह द्वितीय के साथ मिलकर उदयगिरि राज्य पर आक्रमण किया। किंतु विजयनगर की सेना ने आक्रमणकारियों को पराजित कर दिया और इस प्रकार वेलम एवं बहमनी शासकों का यह प्रयास भी व्यर्थ रहा।

किंतु बार-बार की पराजय से भी बहमनी के सुल्तान हार मानने वाले नहीं थे। बहमनी के नये सुलतान सुल्तान ताजुद्दीनशाह (फिरोजशाह) ने, जो मुहम्मदशाह द्वितीय का दामाद था, 1398 ई. में न केवल सागर के दुर्ग पर पुनः अधिकार कर लिया, बल्कि कृष्णा नदी को पार कर विजयनगर को घेर लिया। अंततः हरिहर द्वितीय को 1400 ई. में बहमनी सुल्तान फिरोजशाह से पराजित होना पड़ा और एक अपमानजनक संधि के बाद भारी हर्जाना देना पड़ा।

प्रशासनिक सुधार

हरिहर द्वितीय ने सामान्य प्रशासन में तो कोई विशेष परिवर्तन नहीं किया, किंतु पश्चिमी तट पर स्थित मंगलोर, बरकुर तथा गोवा जैसे महत्वपूर्ण प्रांतों के प्रशासन की जिम्मेदारी अपने विश्वस्त सरदारों को दी और अपने पुत्रों को केवल सुदूरवर्ती तथा पूर्वीतट के प्रांतों के प्रशासन से संबद्ध किया। उसने तमिल देश का प्रशासन विरूपाक्ष प्रथम को, आरग तथा होयसल क्षेत्र का प्रशासन इम्मादि बुक्का (बुक्का द्वितीय) को तथा उदयगिरि का प्रशासन देवराय प्रथम को सौंप दिया। यद्यपि हरिहर द्वितीय के शासनकाल तक यह व्यवस्था सुचारु रूप से चलती रही, लेकिन उसकी मृत्यु के बाद विजयनगर राज्य में भी गृहयुद्ध छिड़ गया।

हरिहर द्वितीय व्यक्तिगत रूप से शैव था और शिव के विरूपाक्ष रूप का उपासक था। उसने ‘महाराजाधिराज’ और ‘राजपरमेश्वर’ की उपाधियाँ धारण की थी। उसके अभिलेखों में विद्यारण्य को ‘सर्वोच्चतम प्रकाश का अवतार’ कहा गया है। हरिहर द्वितीय ने लगभग 1404 ई. तक शासन किया।

विरुपाक्ष प्रथम (1404-1405 ई.)

हरिहर द्वितीय की मृत्यु के बाद इसके पुत्रों- विरूपाक्ष राय प्रथम, इम्मादि बुक्क राय द्वितीय तथा देवराय प्रथम के बीच राजगद्दी के लिए संघर्ष प्रारंभ हो गया। किंतु विरुपाक्ष राय प्रथम (1404-1405 ई.) ने अपनी स्थिति मजबूत कर राजगद्दी प्राप्त कर ली और लगभग एक वर्ष शासन किया।

बुक्का द्वितीय (1406 ई.)

विरुपाक्ष प्रथम को अपदस्थ कर हरिहर द्वितीय के दूसरे पुत्र बुक्का द्वितीय ने (1406 ई.) विजयनगर की गद्दी पर अधिकार कर लिया। लेकिन एक वर्ष बाद ही देवराय प्रथम ने बुक्का द्वितीय को अपदस्थ कर विजयनगर का सिंहासन हथिया लिया।

देवराय प्रथम (1406-1422 ई.)

देवराय प्रथम विजयनगर का एक शक्तिशाली शासक था। बहमनी के सुल्तानों, राचकोंड के वेलम सरदारों तथा कोंडवीडु के रेड्डियों से लड़ते रहने के बावजूद वह अपनी सैनिक योग्यता और सूझबूझ के बल पर न केवल विजयनगर राज्य की सीमाओं को सुरक्षित रखने में सफल रहा, बल्कि उसका यथासंभव विस्तार भी किया।

देवराय प्रथम की उपलब्धियाँ
बहमनी से संघर्ष

देवराय प्रथम को बहमनी के आक्रमणों का सामना करना पड़ा। बहमनी के सुल्तान फिरोजशाह ने अपने वेलमों और कोंडवीडु के रेड्डियों को साथ लेकर विजयनगर पर आक्रमण कर दिया। फिरिश्ता के अनुसार वह बिना किसी व्यवधान के विजयनगर पहुँच गया। किंतु विजयनगर-बहमनी संघर्ष के स्वरूप तथा परिणाम के संबंध में निश्चितता के साथ कुछ कहना कठिन है।

कुछ इतिहासकार मानते हैं कि सुल्तान नगर पर अधिकार करने में असफल रहा और अंततः खदेड़ दिया गया। किंतु अधिकांश इतिहासकारों का मत है कि देवराय प्रथम पराजित हुआ और उसने फिरोजशाह से अपनी पुत्री का विवाह करके रायचूर दोआब का बाँकापुर का क्षेत्र दहेज में दे दिया।

विजयनगर के विरूद्ध फीरोजशाह की अपेक्षा उसके सहायक वेलमों और रेड्डि सरदारों को इस अभियान में अधिक सफलता मिली। रेड्डियों ने कुडप्पा के दक्षिण-पूर्व स्थित पोट्टपिनाडु तथा पुलुगुलनाडु पर अधिकार कर लिया और लगभग सात वर्ष (1413-1414 ई.) तक अपने कब्जे में बनाये रखा।

किंतु अपने अंतिम समय में देवराय प्रथम ने फिरोजशाह बहमन को पराजित कर दिया और संपूर्ण कृष्णा-तुंगभद्रा दोआब पर पुनः अपनी सत्ता स्थापित कर ली।

पंगल (नलगोंड, पंगल) दुर्ग पर हरिहर द्वितीय के समय में 1398 ई. से ही विजयनगर का कब्जा था। इस दुर्ग की सामरिक महत्ता के कारण सुल्तान फीरोजशाह ने 1417 ई. में इस पर आक्रमण कर दिया और देवराय प्रथम को पराजित कर दिया।

राजमुंद्री में हस्तक्षेप

कोंडवीडु में कुमारगिरि रेड्डि की 1402 ई. में मृत्यु के बाद उसका भतीजा पेड कोमति वेम राज्याधिकारी हुआ। रेड्डि राज्य के उत्तरी जिलों का प्रशासन कातय वेम संभाल रहा था जिसकी राजधानी राजमुंद्री थी। पेड कोमति वेम ने वेलमों के साथ मिलकर कातय वेग को पदच्युत कर उसकी राजधानी पर कब्जा कर लिया। कातय वेग देवराय प्रथम का संबंधी था।

बहमनी से निपटने के बाद देवराय प्रथम ने कातय वेम की सहायता की और पेड कोमति वेम को पराजित होकर भागना पड़ा। लेकिन बहमनी सुल्तान फीरोजशाह के अप्रत्याशित सैनिक हस्तक्षेप के कारण कातय वेम और विजयनगर की सम्मिलित सेनाएँ पराजित हो गईं और कातय वेम मारा गया। इस पराजय के बाद देवराय प्रथम ने अतिरिक्त सेना भेजी जिसने सेनानायक दोदय अल्ल के नेतृत्व में कुछ सफलताएँ प्राप्त की।

देवराय और गजपति शासक

राजमुंद्री में देवराय प्रथम के हस्तक्षेप से नाराज उड़ीसा के गजपति शासक भानुदेव चतुर्थ ने राजमुंद्री पर आक्रमण कर दिया। देवराय प्रथम ने तत्काल अपने मित्र की सहायता के लिए एक सेना भेजी। किंतु दोद्दय अल्ल की दूरदर्शिता से दोनों पक्षों में समझौता हो गया। हालांकि इस समय युद्ध टल गया लेकिन इससे दोनों पक्षों में ऐसी दरार पड़ी कि संपूर्ण पूर्वी तट अगली लगभग एक शती तक युद्ध में उलझा रहा।

संभवतः देवराय प्रथम की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि उनकी सेना का पुनर्गठन था। सेना में घुड़सवार सैनिकों और प्रशिक्षित तीरंदाजों के महत्व को समझते हुए उन्होंने फारस और अरब से बड़े पैमाने पर घोड़ों का आयात किया और पहली बार दस हजार तुर्क धनुर्धारियों की सेना में भर्ती की। इस प्रकार देवराय ने एक ऐसी सेना का निर्माण किया जो रणनीतिक और तकनीकी दृष्टि से खुले मैदानों में युद्ध के लिए पर्याप्त सक्षम थी।

देवराय प्रथम कुशल निर्माता भी था। नुनिज के अनुसार बुक्का द्वितीय तथा देवराय प्रथम ने नई दीवारें तथा मीनारें बनवाई थीं। देवराय प्रथम ने सिंचाई की सुविधा तथा नगर में जल की आपूर्ति के लिए तुंगभद्रा नदी पर हरिद्रा बाँध बनवाकर 24 किमी. लंबी नहर निकलवाई जिससे 3 लाख 50 हजार पेरदा की आमदनी बढ़ गई थी।

देवराय प्रथम के काल में ही 1420 ई. में इटली का यात्री निकोलो कोंटी विजयनगर आया था। उसने इस नगर की बड़ी प्रशंसा की है और विजयनगर में मनाये जाने वाले दीपावली, नवरात्र आदि उत्सवों का भी वर्णन किया है।

धार्मिक दृष्टि से देवराय प्रथम परम शैव था और पम्पा देवी का विशेष उपासक था। इसके शासनकाल में विजयनगर राज्य में कई मंदिरों का निर्माण हुआ जिनके अवशेष आज भी विद्यमान हैं।

देवराय प्रथम निर्माता के साथ-साथ विद्याप्रेमी भी था। इसने अनेक विद्वानों तथा साहित्यकारों को संरक्षण प्रदान किया था। देवराय प्रथम के विषय में कहा गया है कि सम्राट अपने राजप्रसाद के ‘मुक्ता सभागार’ में प्रसिद्ध व्यक्तियों को सम्मानित किया करता था। इसने प्रसिद्ध तेलुगू कवि श्रीनाथ को संरक्षण दिया जिन्होंने ‘हरविलासम्’ नामक प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना की थी। इसके समय में विजयनगर वास्तव में दक्षिण भारत का विद्या का केंद्र (विद्यानगर) बन गया था। देवराय प्रथम का स्वर्णिम शासनकाल 1422 ई. में इसकी मृत्यु के साथ समाप्त हो गया।

रामचंद्र राय (1422 ई.)

देवराय प्रथम के बाद विजयनगर के शासकों का अनुक्रम स्पष्टतः ज्ञात नहीं है। आभिलेखिक साक्ष्यों से पता चलता है कि देवराय प्रथम के बाद 1422 ई. में उसके दो पुत्र रामचंद्र तथा वीर विजय बुक्का राय (बुक्का राय III या विजय राय) एवं पौत्र देवराय द्वितीय तीनों एक ही समय शासन कर रहे थे।

विद्यारण्य कालज्ञान के अनुसार देवराय प्रथम के बाद ‘रा’ तथा ‘वि’ अक्षरों से प्रारंभ होने वाले नाम के राजाओं ने शासन किया। इससे स्पष्ट है कि देवराय प्रथम के बाद क्रमशः रामचंद्र एवं वीर विजय बुक्का राय ने शासन किया था। किंतु इनकी शासनावधि का ठीक-ठीक ज्ञान नहीं हैं। संभवतः रामचंद्र ने बहुत कम समय (मात्र छः माह) तक शासन किया।

वीरविजय बुक्का राय  (1422-1430 ई.)

वीरविजय बुक्का राय 1422 ई. में विजयनगर साम्राज्य के राजा के रूप में अपने भाई रामचंद्र राय के उत्तराधिकारी बने। इसकी शासनावधि अभिलेखों के आधार पर आठ वर्ष (1422-1430 ई.) मानी जा सकती है। नुनीज के अनुसार वीर विजय राय के शासनकाल में कोई महत्वपूर्ण घटना नहीं हुई, किंतु इसके शासनकाल की दो घटनाएँ अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। एक तो विजयनगर तथा बहमनी सुल्तान के मध्य संघर्ष, और दूसरी उड़ीसा के गजपति के साथ संघर्ष। इन दोनों में विजयनगर की ओर से मुख्य भूमिका देवराय द्वितीय ने निभाई थी।

वीरविजय राय के शासनकाल में फीरोजशाह के भाई अहमदशाह बहमनी ने विजयनगर पर आक्रमण किया। कहा जाता है कि वारंगल के शासक के अचानक युद्ध मैदान में आ जाने के कारण विजयनगर की सेना पराजित हुई। विवश होकर वीरविजय बुक्का को संधि करनी पड़ी और एक बड़ी धनराशि युद्ध की क्षतिपूर्ति के रूप में देनी पड़ी।

किंतु कनारा जनपद से प्राप्त 1429-30 ई. के एक अभिलेख से पता चलता है कि देवराय द्वितीय ने तुरुक्षों (मुसलामानों) की शक्तिशाली अश्वारोही सेना को पराजित किया था।

वीरविजय बुक्का के काल में उड़ीसा के चतुर्थ भानुदेव ने वेलम सरदार के साथ मिलकर आंध्रप्रदेश के तटीय क्षेत्र में रेड्डियों के राजगुंद्री और कोंडवीडु प्रदेश पर अधिकार कर लिया। बहमनी सुल्तान से निपटने के बाद देवराय द्वितीय ने भानुदेव चतुर्थ और उसके सहयोगी वेलमों को पराजित कर रेड्डि राज्य के कोंडवीडु वाले प्रदेश पर अधिकार कर लिया और राजमुंद्री का राज्य रेड्डियों को पुनः वापस दिलाया। इसके बाद देवराय द्वितीय जब तक जीवित रहा, कोंडवीडु पर विजयनगर की प्रभुसत्ता बनी रही।

इस प्रकार वीरविजय बुक्का राय ने अपने पुत्र देवराय द्वितीय के बल पर न केवल बहमनी सुल्तान अहमदशाह को कड़ी टक्कर दी, अपितु उड़ीसा के भानुदेव चतुर्थ और उसके सहयोगी वेलमों की शक्ति को भी नष्ट किया। उसने राजमुंद्री पर वेलम तथा वीरभद्र को पुनर्प्रतिष्ठित कर कोंडवीडु पर अपने अधिकार को बनाये रखा।

वीरविजय राय की 1430 ई. में मृत्यु हो गई और इसके पुत्र देवराय द्वितीय ने औपचारिक रूप से विजयनगर राज्य की सत्ता संभाली।

देवराय द्वितीय (1430-1446 ई.)

देवराय द्वितीय की गणना संगम वंश के महानतम शासकों में की जाती है। इसने अपने पिता के जीवनकाल में सहशासक के रूप में बहमनी सुल्तान अहमदशाह और उड़ीसा के गजपति भानुदेव चतुर्थ एवं इसके सहयोगी वेलमों को पराजित कर अपनी योग्यता का परिचय दिया था। इसने इम्मादि देवराय और गजबेटकार (हाथियों का शिकारी) की उपाधि धारण की थी।

देवराय द्वितीय की उपलब्धियाँ
बहमनी से संघर्ष

देवराय द्वितीय के शासनकाल के आरंभिक वर्षों में विजयनगर में शांति बनी रही। किंतु जब 1436 ई. में बहमनी सुल्तान अहमदशाह की मृत्यु के बाद उसका बेटा अलाउद्दीन अहमद द्वितीय बहमनी की गद्दी पर बैठा तो विजयनगर और बहमनी में पुनः संघर्ष प्रारंभ हो गया।

मुस्लिम इतिहासकारों के अनुसार देवराय द्वितीय तथा बहमनी सुल्तान के बीच दो बार लड़ाई हुई। पहली लड़ाई द्वितीय अलाउद्दीन अहमद के राज्य-ग्रहण के बाद लगभग 1436 ई. में और दूसरी इसके सात वर्ष बाद लगभग 1443-44 ई. में। दोनों लड़ाइयाँ मुद्गल तथा रायचूर दुर्ग के आसपास कृष्णा-तुंगभद्रा दोआब में केंद्रित थीं। यद्यपि युद्ध के परिणामों की सही सूचना नहीं है, किंतु लगता है कि 1436 ई. के पहले युद्ध में देवराय द्वितीय ने अहमदशाह प्रथम के हमले को नाकाम कर दिया और मुद्गल किले पर अपना अधिकार बनाये रखने में सफल रहे।

लेकिन 1443 ई. में देवराय द्वितीय को बहमनी सुल्तान के साथ एक अपमानजनक संधि करनी पड़ी और रायचूर दोआब के कुछ क्षेत्रों से हाथ धोना पड़ा। किंतु कुछ इतिहासकार मानते हैं कि बहमनी सुल्तान को विजयनगर के विरूद्ध कोई सफलता नहीं मिली थी और मुस्लिम इतिहासकारों द्वारा देवराय द्वितीय की पराजय तथा अपमानजनक संधि मानने संबंधी मुस्लिम इतिहासकारों का दावा अतिशयोक्तिपूर्ण है।

राजमुंद्री राज्य में हस्तक्षेप

उड़ीसा के गजपति को देवराय द्वितीय ने 1427 ई., 1436 ई. और 1441 ई. में तीन बार पराजित किया। भानुदेव चतुर्थ को पदच्युत कर गजपति कपिलेंद्र ने उड़ीसा की गद्दी पर बैठा था। उसने वेलमों के साथ मिलकर रेड्डियों के राज्य राजमुंद्री पर आक्रमण कर दिया। बहमनी सुल्तान के साथ संघर्ष में व्यस्त रहने के बावजूद देवराय द्वितीय की सेना ने मल्लप्प उणैयर के नेतृत्व में गजपति कपिलेंद्र और उसके सहयोगी वेलमों को पराजित कर राजमहेंद्री के रेड्डी साम्राज्य को उसकी पूर्वकालिक स्थिति में पुनर्स्थापित किया।

श्रीलंका के विरुद्ध अभियान

देवराय द्वितीय ने केरल की ओर बढ़कर क्विलनों के शासक तथा अन्य क्षेत्रीय सरदारों को पराजित किया। 1438 ई. के आसपास इसने अपने दीवान तथा महादंडनायक लक्कना या लक्ष्मण को नौ सेना के साथ श्रीलंका के विरुद्ध भेजा। इस अभियान में विजयनगर के सैनिकों ने सिंहलियों को पराजित कर खिराज देने के लिए बाध्य किया। पुर्तगीज यात्री नुनिज ने भी लिखा है कि क्वीलन (केरल क्षेत्र) श्रीलंका, पुलीकट (आंध्र), पेगू (बर्मा) और तेनसिरिम (मलाया) के राजा देवराय द्वितीय को भेंट देते थे। इस अभियान के समय अब्दुर रज्जाक (1443 ई.) विजयनगर में उपस्थित था। संभवतः इसी दक्षिणी विजय के कारण ही लक्कना को अभिलेखों में ‘दक्षिणी समुद्रों का स्वामी कहा गया है।

इस प्रकार देवराय द्वितीय ने अपनी सैनिक क्षमता के बल पर दक्षिण में एक ऐसा विशाल साम्राज्य स्थापित किया, जो उत्तर में कृष्णा नदी से लेकर दक्षिण में श्रीलंका तक तथा पश्चिम में अरब सागर से लेकर पूरब में बंगाल की खाड़ी तक विस्तृत था।

देवराय द्वितीय एक कुशल सैनिक-संगठनकर्ता भी था। उसकी सेना में एक हजार लड़ाकू हाथी और ग्यारह लाख सैनिक थे। उसने अपनी सैन्य-व्यवस्था को सुदृढ़ करने और अपने सैनिकों को प्रशिक्षित करने के लिए सेना में बड़ी संख्या में मुसलमान तीरंदाजों की भर्ती की और अच्छे अरबी घोड़ों का आयात किया।

राज्य की आर्थिक समृद्धि और वाणिज्य को नियमित करने के लिए देवराय द्वितीय ने लक्कन्ना को विदेश-व्यापार का भार सौंपा। उसने राज्य की आमदनी बढ़ाने के लिए अपने राज्य में स्थित बंदरगाहों से कर वसूलने की व्यवस्था की।

देवराय द्वितीय के शासनकाल में कला एवं साहित्य के क्षेत्र में पर्याप्त उन्नति हुई। इसी काल में विजयनगर के प्रसिद्ध विठ्ठलस्वामी मंदिर के निर्माण-कार्य का प्रारंभ हुआ, जो बाद में अच्युतराम के समय आंशिक पूर्ण से हुआ।

देवराय द्वितीय स्वयं विद्वान् होने के साथ-साथ अनेक कन्नड़ तथा तेलुगु विद्वानों का आश्रयदाता था। इनमे लक्कना दंडेसा, चामरस, जक्कनार्या तथा कुमार व्यास जैसे कन्नड़ कवि और श्रीनाथ जैसे तेलुगु कवि अधिक प्रसिद्ध हैं। तेलगू कवि श्रीनाथ कुछ समय तक उसके राजकवि थे। कुमार व्यास ने कन्नड़ भाषा का प्रसिद्ध ग्रंथ ‘भारतया भारतम् लिखा।

देवराय द्वितीय स्वयं एक विद्वान था और उसने कन्नड़ में सोबागिना सोने (रूमानी कहानियों का संग्रह), संस्कृत में महानाटक ‘सुधानिधि’ तथा ब्रह्मसूत्र पर एक टीका की रचना की। हाथियों के शिकार की कला में महारत हासिल करने के कारण उसे ‘गजबेटेकर’ (हाथियों का शिकारी) कहा गया है।

देवराय द्वितीय के काल में ही फारस के प्रसिद्ध यात्री अब्दुर रज्जाक (1443 ई.) ने विजयनगर की यात्रा की थी। उसने देवराय द्वितीय के शासन की बड़ी प्रशंसा की है और विजयनगर के संबंध में लिखा है कि ‘विजयनगर जैसा नगर न इस पृथ्वी पर कहीं देखा था और न सुना था।’ कुल मिलाकर देवराय के शासनकाल में विजयनगर ने आर्थिक और सांस्कृतिक समृद्धि के एक गौरवशाली युग में प्रवेश किया। 1446 ई. में इस महान शासक की मृत्यु हो गई।

विजयराय द्वितीय (1446 ई.)

प्रायः माना जाता है कि देवराय द्वितीय के बाद उसका पुत्र मल्लिकार्जुन उत्तराधिकारी बना। किंतु ऐसे साक्ष्य उपलब्ध हैं, जिनसे पता चलता है कि दोनों के बीच थोड़े समय के लिए (1446 ई.) देवराय द्वितीय के छोटे भाई विजयराय द्वितीय अथवा प्रतापदेव राय ने शासन किया था। एन. वेंकटरमनैया के अनुसार संभवतः विजयराय ने मल्लिकार्जुन राय से समझौता कर राजगद्दी छोड़ दी तथा पेनुकोंडा चला गया और वहाँ 1455 ई. तक शासन करता रहा।

मल्लिकार्जुन राय (1446–1465 ई.)

विजयराय द्वितीय के सिंहासन-परित्याग के बाद मई, 1447 ई. में देवराय द्वितीय का बड़ा पुत्र मल्लिकार्जुन राजा बना। अभिलेखों में इसे मुम्मादि देवराय (तृतीय) अथवा मुम्मादि प्रौढ़ देवराय (तृतीय) भी कहा गया है।

मल्लिकार्जुन राय सैनिक दृष्टि से अयोग्य था। इसके समय से राज्य की केंद्रीकृत शक्ति में गिरावट आई और संगम वंश के हृास एवं पतन की प्रक्रिया प्रारंभ हो गई। केंद्रीय शक्ति की दुर्बलता का लाभ उठाकर बहमनी सुल्तानों और उड़ीसा के शक्तिशाली गजपति शासक (कपिलेश्वर) ने विजयनगर राज्य के बहुत से क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया।

बहमनी सुल्तान ने मल्लिकार्जुन के शासन के प्रारंभ में ही वेलमों की राजधानी राजकोंड पर कब्जा कर लिया। इसके बाद बहमनी सुल्तान अलाउद्दीन अहमद द्वितीय तथा गजपति कपिलेंद्र ने 1450 ई. में एक साथ विजयनगर पर आक्रमण किया। इस अवसर पर कपिलेंद्र (कपिलेश्वर) ने मल्लिकार्जुन से भारी जुर्माना वसूल किया। किंतु समसामयिक नाटककार गंगादास के अनुसार 1454-55 ई. में कोंडवीडु सहित तटीय क्षेत्र मल्लिकार्जुन राय के अधिकार में था।

विजयनगर और उड़ीसा की लड़ाई यहीं समाप्त नहीं हुई। चार वर्ष बाद गजपति कपिलेंद्र (कपिलेश्वर) ने अपने पुत्र हम्वीरा के साथ पुनः विजयनगर के विरुद्ध जंग छेड़ दिया और 1463 ई. के आसपास उदयगिरि, राजमुंद्री, कोंडवीडु, काँची और तिरुचिरपल्ली के रेड्डी राज्यों को जीत लिया। इन पराजयों से विजयनगर साम्राज्य की प्रतिष्ठा को भारी आघात पहुँचा। कपिलेंद्र (कपिलेश्वर) के पौत्र प्रतापरुद्र के एक लेख में गजपति राजा को ‘कर्नाटक राजा की भेड़ों के लिए जम्हाई लेने वाला शेर’ बताया गया है।

मल्लिकार्जुन राय की संभवतः जुलाई, 1465 ई. में मृत्यु हो गई। वैष्णव ग्रंथ प्रपन्नामृतम् से पता चलता है कि मल्लिकार्जुन के चचेरे भाई विरूपाक्ष द्वितीय ने परिवार सहित उसकी हत्या कर राजगद्दी पर बलात् अधिकार कर लिया था।

विरूपाक्ष राय द्वितीय (1465-1485 ई.)

विरूपाक्ष द्वितीय (1465-1485 ई.) संगम राजवंश का अंतिम ज्ञात शासक है। यह राज्य-ग्रहण के पूर्व कई वर्षों तक पेनुकोंडा का गवर्नर रह चुका था। किंतु इस दुर्बल और विलासी शासक के राज्यासीन होते विजयनगर साम्राज्य में आंतरिक विद्रोह और बाह्य आक्रमण दोनों तीव्र हो गये।

विजयनगर राज्य की अराजकता का लाभ उठाकर बहमनी सुल्तान मुहम्मदशाह तृतीय के प्रधानमंत्री महमूद गवाँ ने गोवा पर अधिकार कर लिया। इससे विजयनगर की आर्थिक क्षति तो हुई ही, अच्छी नस्ल के घोड़ों की आमद भी प्रभावित हुई। इसके बाद चाउल तथा दाबोल भी विजयनगर के हाथ से निकल गये। महमूद गवाँ के सैनिक अभियान के फलस्वरूप विरूपाक्ष द्वितीय ने उत्तरी कोंकण के साथ-साथ उत्तरी कर्नाटक का अधिकांश हिस्सा भी खो दिया।

इन प्रतिकूल परिस्थितियों में चंद्रगिरि तालुके के प्रांतपति (सामंत) सालुव नरसिंह ने विजयनगर साम्राज्य की रक्षा की और शीघ्र ही वह विजयनगर राज्य के रक्षक के रूप में प्रसिद्ध हो गया। उसने चित्तूर, आर्काट और कोलार के साथ-साथ कृष्णा नदी के दक्षिण के प्रायः सभी तटीय क्षेत्रों को अपने अधीन कर लिया। सालुव नरसिंह ने गजपति (कपिलेश्वर) को पराजित कर उदयगिरि पर अधिकार किया, तंजौर से पांड्यों को निकाल बाहर किया और मसुलीपट्टम् बंदरगाह तथा कोंडवीडु किले को जीत लिया। बाद में उसने बहमनी सेना को पराजित कर साम्राज्य के पहले के अधिकांश नुकसानों की भरपाई की।

बाद में बहमनी के महमूद गवाँ की 1481 ई. में हत्या के बाद सालुव नरसिंह के सेनानायक ईश्वर ने कंदुकुर पर आक्रमण कर इसे नष्ट-भ्रष्ट कर दिया और वराहपुराणम् के अनुसार उदयगिरि, नेल्लोर, ओमुरु (चिंग्लेपुट), कोवेल (श्रीरंगम), कोंगु-धारापुरी, कुंडानि (सलेम), श्रीरंगपट्नम, नागमंगलम, बंगलोर, पेनुकोंडा (अनंतपुर) तथा गंडिकोट (कुडप्पा) की विजय की। इस प्रकार सालुव नरसिंह एक प्रकार से संपूर्ण विजयनगर राज्य का वास्तविक शासक बन गया।

संगम राजवंश का अवसान

1485 ई. में संगम राजवंश के राजा विरूपाक्ष द्वितीय की हत्या उसी के पुत्र ने कर दी और प्रौढ़ देवराय विजयनगर की गद्दी पर बैठा। इस समय विजयनगर साम्राज्य में चारों ओर अशांति व अराजकता का वातावरण था। प्रौढ़ देवराय के राज्यारोहण से विघटनकारी शक्तियाँ और प्रबल हो गईं और विजयनगर साम्राज्य में चारों ओर अशांति व अराजकता फैल गई।

नुनिज के विवरण से पता चलता है कि विजयनगर राज्य की रक्षा के लिए सालुव नरसिंह के सेनापति तुलुव ईश्वर नायक नायक ने विजयनगर साम्राज्य पर अधिकार कर लिया और सालुव नरसिंह को राजगद्दी पर बैठने के लिए आमंत्रित किया। भयभीत राजा (प्रौढ़ देवराय) राजधानी छोड़कर भाग गया। इस घटना को विजयनगर साम्राज्य के इतिहास में ‘प्रथम बलोपहार कहा जाता है। इस प्रकार प्रौढ़ देवराय के पलायन के साथ संगम राजवंश का अंत हुआ और उसके स्थान पर सालुव राजवंश की स्थापना हुई।

सालुव राजवंश(1486-1505 ई.)

विजयनगर साम्राज्य का उत्थान और पतन (Rise and Fall of Vijayanagara Empire)
सालुव राजवंश के शासक

सालुव वंश का संस्थापक सालुव नरसिंह (1485-1491 ई.) था। इसने संगम वंश के अंतिम शासक प्रौढ़ देवराय को पदच्युत् कर विजयनगर का सिंहासन ग्रहण किया था। इस राजवंश के प्रमुख शासक सालुव नरसिंह (1485-1491 ई.) और इम्मादि नरसिंह (1491-1505 ई.) थे।

सालुव नरसिंह (1486-1491 ई.)

सालुव नरसिंह चित्तूर जिले के चंद्रगिरि तालुक के सरदार सालुन गुंड का बड़ा पुत्र था। उसे मल्लिकार्जुन राय के काल में 1452 ई. में चंद्रगिरि के ‘महामंडलेश्वर’ की उपाधि मिली थी। सालुव नरसिंह ने प्रौढ़ देवराय को अपदस्थ कर विजयनगर साम्राज्य को विघटन से तो बचा लिया, लेकिन उसे स्वयं अपने सामंतों तथा सेनानायकों के विरोध का सामना करना पड़ा।

विद्रोही सामंतों के विरूद्ध अभियान

राज्य-ग्रहण करने के बाद सालुव नरसिंह को गोंडिकोट सीमा के पेरनिपाडु के संबेत, उम्मत्तूर तथा तालकाडु के पॉलीगारों तथा कुछ अन्य विद्रोही सामंतों से निपटना पड़ा। संबेत शिवराज अपने तमाम साथियों सहित मारा गया और मड्डिगुंडल दुर्ग पर सालुव नरसिंह का अधिकार हो गया।

किंतु सालुव नरसिंह को उम्मत्तूर (मैसूर) तथा संगितपुर (तुलनाडु) के पॉलीगारों से लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी। अपने शासन के अंतिम दिनों में वह तुलुनाडु पर तो अधिकार करने में यह सफल रहा, किंतु उम्मत्तूरों के राज्य पर अधिकार नहीं कर सका।

गजपति के साथ युद्ध

सालुव नरसिंह का गजपति (कपिलेश्वर) के साथ युद्ध विनाशकारी साबित हुआ। 1489 ई. में उड़ीसा के गजपति शासक पुरुषोत्तम ने विजयनगर पर आक्रमण कर गुंटूर जिले में विनिकोंड तक तटीय आंध्रदेश पर अधिकार कर लिया और उदयगिरि को घेर कर सालुव नरसिंह को बंदी बना लिया। अंततः उदयगिरि का किला तथा आसपास का प्रदेश पुरुषोत्तम गजपति को सौंपने के बाद ही उसे कैद से मुक्ति मिल सकी। इस प्रकार उदयगिरि इसके हाथ से निकल गया।

पश्चिमी बंदरगाहों पर अधिकार

सालुव नरसिंह कन्नड़ क्षेत्र मैंगलोर, भटकल, होन्नावर और बकनूर के पश्चिमी बंदरगाहों पर अधिकार करने में सफल रहा। इस सफलता के परिणामस्वरूप उसने अरबों के साथ घोड़ों के व्यापार को पुनः आरंभ किया जिससे उसकी घुड़सवार सेना और सुदृढ़ हो गई। नुनिज के अनुसार ‘सालुव नरसिंह ओरमुज तथा अदन से घोड़े मँगवाता था तथा उनके व्यापारियों को मुँहमाँगी कीमत अदा करता था।’

वास्तव में सालुव नरसिंह अपने वंश का संस्थापक होने के साथ-साथ इस वंश का सर्वाधिक योग्य शासक भी था। उसने अधिकांश स्थानीय विद्रोह का दमन कर विजयनगर की राजनीतिक प्रतिष्ठा में वुद्धि की और विजयनगर की गरिमा को पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया। उसने ‘रामाभ्युदयम्’ के लेखक माधव संत श्रीपादराय और कन्नड़ कवि लिंग को संरक्षण दिया। विजयनगर के उद्धारक सालुव नरसिंह की 1491 ई. में मृत्यु हो गई।

सालुव नरसिंह के उत्तराधिकारी

सालुव नरसिंह के दो पुत्र- थिम्म भूपाल और इम्मादि नरसिंह थे। उसने तुलुव ईश्वर के पुत्र एवं अपने विश्वसनीय सेनानायक नरसा नायक को इनका संरक्षक नियुक्त किया था।

थिम्म भूपाल (1491 AD.)

सालुव नरसिंह की मृत्यु के बाद तुलुव नरसा नायक ने पहले अल्पवयस्क थिम्म भूपाल (1491 ई.) को, जो पिता के काल युवराज बना था, विजयनगर की गद्दी पर बैठाया और राज्य का सारा काम-काज स्वयं देखने लगा। किंतु शीघ्र ही नरसा नायक के एक प्रतिद्वंदी मंत्री तिम्मरस ने थिम्म भूपाल की हत्या करवा दी। नरसा नायक ने थिम्म के बाद उसके अनुज इम्मादि नरसिंह को विजयनगर का राजा बनाया।

इम्मादि नरसिंह राय द्वितीय (1491-1506 ई.)

विजयनगर का नया शासक इम्मादि नरसिंह राय द्वितीय भी अवयस्क था, इसलिए सेनानायक नरसा नायक ने उसकी संरक्षकता के बहाने शासन की सारी शक्ति अपने हाथों में केंद्रित कर ली। किंतु शीघ्र ही नरसा नायक और इम्मादि नरसिंह राय के बीच अनबन हो गई। विवाद इस हद तक बढ़ गया कि जब नरसा ने इम्मादि नरसिंह से तिम्म भूपाल के हत्यारे मंत्री तिम्मरस को दंडित करने के लिए कहा तो इम्मादि नरसिंह ने उसे दंड देने के बजाय उससे मित्रता कर ली। इससे क्षुब्ध होकर नरसा नायक पेनुकोंडा चला गया और एक सुदृढ़ सेना तैयार कर विजयनगर पर आक्रमण कर दिया।

भयभीत इम्मादि नरसिंह ने तिम्मरस को मृत्युदंड देकर नरसा नायक से समझौता कर लिया और उसे अपना संरक्षक मान लिया। अब नरसा नायक और शक्तिशाली हो गया और उसका प्रभाव पहले से भी अधिक बढ़ गया। अंततः किसी षड्यंत्र तथा विद्रोह की संभावना से बचने के लिए तुलुव नरसा ने 1494 ई. में इम्मादि नरसिंह को पेनुकोंडा में कड़ी सुरक्षा में बंद कर दिया और स्वयं उसके प्रतिनिधि के रूप में शासन करने लगा।

तुलुव नरसा नायक

तुलुव नरसा नायक विजयनगर साम्राज्य के तुलुव राजवंश का संस्थापक था। वह सम्राट कृष्णदेवराय का पिता था। नरसा नायक अपने पिता तुलुव ईश्वर नायक की तरह विजयनगर साम्राज्य में एक सेनापति था। इसने विजयनगर राज्य में स्थिरता और शांति के लिए इम्मादि नरसिंह राय के संरक्षक के रूप में शासन की समस्त शक्तियाँ अपने हाथों में केंद्रित कर ली। उसने सेनाधिपति, महाप्रधान तथा राजा के कार्यकर्ता के पदों पर कार्य किया और विजयनगर के रक्षाकर्ता और स्वामी की उपाधि धारण की।

इम्मादि नरसिंह के प्रतिनिधि के रूप में तुलुव नरसा नायक ने दक्षिण भारत के राज्यों को अपने अधीन किया, बहमनी सुल्तानों और गजपतियों से विजयनगर की सफलतापूर्वक रक्षा की और स्वतंत्रता घोषित करने वाले विद्रोही सामंतों का दमन किया।

दक्षिण की विजय

सालुव नरसिंह के काल में 1463 ई. में कावेरी नदी के दक्षिण का क्षेत्र विजयनगर साम्राज्य के अधिकार से निकल गया था। नरसा नायक ने 1496 ई. में दक्षिण की ओर अभियान किया और त्रिची के सालास राय और तंजौर के विक्रमशाह जैसे विद्रोहियों को अपने अधीन किया। उसने कावेरी के दक्षिण में केप कोमोरिन तक के पूरे क्षेत्र की विजय कर चोल, पांड्य तथा चेर राज्यों को अपनी अधीन किया। इस प्रकार नरसा नायक तमिल प्रांतों पर नियंत्रण करने में सफल रहा।

होयसलों के विरूद्ध अभियान

 नरसा नायक ने पश्चिमी तट पर कर्नाटक की ओर बढ़कर सेरिंगपटनम् पर अधिकार कर होयसल शासक नंजराज को कैद कर लिया और 1497 ई. में कर्नाटक पर अधिकार कर लिया।

कलिंग के गजपतियों पर विजय

नरसा नायक को उड़ीसा के गजपति शासक प्रतापरुद्र के आक्रमण का भी सामना करना पड़ा। गजपति प्रतापरुद्र ने नवंबर 1496 ई. में एक विशाल सेना लेकर विजयनगर राज्य पर आक्रमण कर दिया और पेन्नार तक बढ़ आया। किंतु लगता है कि इस अभियान में प्रतापरुद्र को कोई विशेष सफलता नहीं मिली और उसके राज्य की सीमा पहले के समान कृष्णा नदी बनी रही।

बहमनी राज्य से संघर्ष

नरसा नायक का सामना बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह से भी हुआ। नरसा नायक ने बहमनी सुल्तान महमूदशाह तृतीय के प्रधानमंत्री कासिम बरीद से मित्रता कर बीजापुर के यूसुफ आदिलशाह के विरूद्ध रायचूर दोआब पर आक्रमण कर क्षेत्र को तबाह कर दिया। किंतु कुछ आरंभिक सफलता के बाद अंततः विजयनगर की सेना को पीछे हटना पड़ा।

वास्तव में नरसा नायक ने अपने शासन के अंत तक विजयनगर राज्य की उन्नति और समृद्धि के लिए हरसंभव प्रयत्न किया। उसने एक सुदृढ़ प्रशासन और प्रभावी सेना का निर्माण किया जिससे उसके योग्य पुत्र कृष्णदेव राय के अधीन विजयनगर के स्वर्णयुग का मार्ग प्रशस्त हुआ।

नरसा नायक विद्वानों का उदार संरक्षक भी था। इसके दरबार में विद्वानों तथा कवियों का जमघट लगा रहता था। इसके काल में कन्नड़ ग्रंथ ‘जैमिनी भारतम्’ की रचना हुई। तेलुगु साहित्य के संवर्धन के लिए इसने अपने दरबार में अनेक कवियों को आमंत्रित किया और उन्हें भूमि तथा धन देकर पुरस्कृत किया। नरसा नायक की 1503 ई. में मृत्यु हो गई।

तुलुव नरसा नायक की मृत्यु के बाद उसका बड़ा पुत्र इम्मादि नरसा नायक, जो वीरनरसिंह नाम से अधिक प्रसिद्ध है, इम्मादि नरसिंह का संरक्षक (प्रतिशासक) बना। यद्यपि इस समय इम्मादि नरसिंह वयस्क हो चुका था, लेकिन उसने वीरनरसिंह के संरक्षण में ही शासन करना उचित समझा। प्रतिशासक बनने के बाद वीरनरसिंह महत्वाकांक्षा बढ़ गई और 1505 ई. में उसने पेनुकोंडा के दुर्ग में कैद इम्मादि नरसिंह की हत्या करके राजसिंहासन पर अधिकार कर लिया। इस घटना को विजयनगर साम्राज्य के इतिहास में ‘द्वितीय बलोपहार‘ कहा गया है।

इम्मादि नरसिंह के दुःखद अंत के साथ विजयनगर के सालुव राजवंश का भी अंत हो गया तथा इसके स्थान पर तुलुव वंश की स्थापना हुई।

तुलुव राजवंश (1505–1565 ई.)

विजयनगर साम्राज्य का उत्थान और पतन (Rise and Fall of Vijayanagara Empire)
तुलुव राजवंश के शासक

वीरनरसिंह राय ने 1505 ई. इम्मादि नरसिंह राय की हत्या करके विजयनगर में एक नवीन राजवंश की स्थापना की, जिसे उसके पितामह तुलुव ईश्वर के नाम पर तुलुव वंश नाम से जाना जाता है। इस राजवंश ने लगभग सात दशक तक (1505-1572 ई.) शासन किया।

वीरनरसिंह राय (1505-1509 ई.)

तुलुव राजवंश के संस्थापक वीरनरसिंह राय (1505-1509 ई.) का शासनकाल आंतरिक विद्रोहों व बाह्य आक्रमणों से प्रभावित रहा।

कासप्प उडैय व आदिलशाह के विरूद्ध सफलता

वीरनरसिंह राय की पहली लड़ाई आदवनि के शासक कासप्प उडैय से हुई जो उम्मत्तूर के पॉलीगारों तथा यूसुफ आदिलशाह का मित्र था। आदवनि दुर्ग के गवर्नर कासप्प उडैय ने यूसुफ आदिलशाह के साथ मिलकर विजयनगर पर आक्रमण कर कंडनवोलु (कुर्नूल) दुर्ग को घेर लिया। इस युद्ध में अरविडु वंश के शासक रामराय प्रथम तथा उसके पुत्र तिम्म ने वीरनरसिंह राय का साथ दिया और वह विजयी हुआ। वीरनरसिंह राय ने रामराय प्रथम को आदवनि एवं कंडनवोलु का किला देकर पुरस्कृत किया और उसके पुत्र तिम्म को नायक का नूपुर पहना कर सम्मानित किया।

उम्मत्तूर एवं श्रीरंगम् के व्रिदोह

वीरनरसिंह राय को आदिलशाह के विरुद्ध व्यस्त देखकर उम्मत्तूर तथा श्रीरंगम् के सामंतों ने भी विद्रोह कर दिया। यद्यपि वीरनरसिंह राय कर्नाटक के विद्रोहियों को दबाने में असफल रहा, किंतु पश्चिमी तट के विद्रोहियों के विरूद्ध उसे कुछ सफलता अवश्य मिली। घाट पार कर इसने लगभग संपूर्ण तुलुनाड प्रदेश पर अधिकार कर लिया। इतालवी यात्री वर्थेमा के अनुसार 1506 ई. में वीरनरसिंह राय ने एक बार पुनः गोवा पर अधिकार करने का प्रयत्न किया।

यद्यपि वीरनरसिंह राय अपने संपूर्ण शासनकाल में आंतरिक विद्रोहों के दमन और सैन्याभियानों में व्यस्त रहा, फिर भी, उसने विजयनगर राज्य की सैन्य-व्यवस्था सुधारने का विशेष प्रयत्न किया। वीरनरसिंह ने बिना किसी भेदभाव के अपनी सेना में जवानों और प्रशिक्षकों की भर्ती की। अरबी घोड़े प्राप्त करने के लिए उसने पुर्तगालियों के साथ मैत्री स्थापित करने का भी प्रयास किया।

वीरनरसिंह राय एक धार्मिक प्रवृत्ति का शासक था। उसने रामेश्वरम्, श्रीरंगम्, कुंभकोणम्, चिदंबरम्, श्रीशैलम्, कांचीपुरम्, कालहस्ति, महानंदि तथा गोकर्ण जैसे मंदिरों को उदारतापूर्वक दान दिया। उसके समय में प्रजा के कल्याण के लिए विवाह कर को समाप्त कर दिया गया था।

वीरनरसिंह राय की 1509 ई. में मृत्यु हो गई। स्थानीय परंपराओं से पता चलता है कि उसने अपने चचेरे भाई कृष्णदेव राय को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत किया था।

कृष्णदेव राय (1509-1529 ई.)

वीरनरसिंह राय के बाद उसका सौतेला भाई कृष्णदेव राय विजयनगर की राजगद्दी पर बैठा। इसका राज्याभिषेक शक संवत् 1432 की श्रीजयंती को तदनुसार (8 अगस्त 1509 ई.) को संपन्न किया गया। नीलकंठ शास्त्री का मानना है कि राज्याभिषेक के लिए कृष्ण जन्माष्टमी की तिथि का चुनाव कृष्णदेव राय को कृष्ण का अवतार दिखाने के लिए किया गया था।

कृष्णदेव के राज्यारोहण के समय राजनीतिक परिस्थितियाँ सर्वथा प्रतिकूल थीं। उम्मत्तूर का विद्रोही सामंत मैसूर पर आधिपत्य स्थापित करने के लिए सन्नद्ध था। गजपति प्रतापरुद्र विजयनगर राज्य के उत्तरी पूर्वी जिलों पर अपना आधिपत्य जमाने के बावजूद खुली शत्रुता की नीति अपनाये हुए था। इसी प्रकार बहमनी राज्य के पाँच खंडों में बँट जाने के बावजूद बीजापुर के आदिलशाही वंश का संस्थापक यूसुफअली विजयनगर राज्य पर अपनी अधिसत्ता स्थापित करने के लिए प्रयासरत था। पुर्तगाली भी कम चिंता के कारण नहीं थे।

कृष्णदेव राय की उपलब्धियाँ

कृष्णदेवराय विजयनगर के राजाओं में सर्वाधिक योग्य सिद्ध हुआ। उसने अपनी सामरिक कुशलता एवं राजनीतिमत्ता के बल पर न केवल स्थिति पर नियंत्रण स्थापित करने में सफलता प्राप्त की, बल्कि पुर्तगालियों को भी मैत्री-संबंध बनाये रखने पर विवश किया।

बहमनियों के विरुद्ध अभियान

बहमनी राज्य का प्रारंभ से ही विजयनगर से संघर्ष चलता आ रहा था। राज्य-ग्रहण के बाद कृष्णदेव राय को भी सबसे पहले बहमिनयों से निपटना पड़ा। यूसुफ आदिलशाह के कहने पर महमूदशाह तृतीय ने 1509 ई. में विजयनगर पर आक्रमण कर दिया। किंतु कृष्णदेव ने इस आक्रमण को विफल कर दिया और यूसुफअली मारा गया। बाद में कृष्णदेव राय ने अपनी सैनिक-शक्ति सुदृढ़ कर 1512 ई. में कृष्णा-तुंगभद्रा रायचूर दोआब पर आक्रमण किया और रायचूर पर अधिकार कर लिया।

उम्पत्तूर का अधिग्रहण

बहमनी से निबटने के बाद कृष्णदेव राय ने उम्मत्तूर के पॉलीगारों के विरुद्ध अभियान किया जो वीरनरसिंह राय के समय से ही कावेरी घाटी में स्वतंत्र शासक की हैसियत से शासन कर रहे थे। कृष्णदेव ने 1510 ई. से 1512 ई. तक उम्मत्तूर के शासक गंगराज के विरुद्ध सैनिक कार्यवाही की और सेरिंगपटम, उम्मत्तूर तथा गंगराज की राजधानी शिवनसमुद्रम् को तहस-नहस कर दिया। उसने विजित प्रदेश को विजयनगर राज्य का नया प्रांत बनाया तथा सेरिंगपटम् को इस नये प्रांत की राजधानी बनाकर सालुव गोविंदराय को इसका गवर्नर नियुक्त किया।

उड़ीसा से संघर्ष

उड़ीसा का गजपति शासक सालुव नरसिंह राय के समय से ही साम्राज्य के पूर्वी प्रांतों-उदयगिरि तथा कोंडवीडु पर अधिकार जमाये बैठे थे। कृष्णदेव राय ने उम्मत्तूर के विजय अभियान के बाद उड़ीसा के गजपति प्रतापरुद्र को पराजित कर 1514 ई. में उदयगिरि, कोंडवीडु, बेजवाड़, कोंडपल्लि, नलगोंड, वारंगल आदि दुर्गों पर अधिकार कर लिया।

कलिंग की ओर बढ़कर कृष्णदेव ने राजमुंद्री पर भी अधिकार कर लिया। अंततः प्रतापरुद्र ने संधि कर ली और अपनी पुत्री का विवाह कृष्णदेव के साथ कर दिया। किंतु कृष्णदेव ने कृष्णा नदी के उत्तर का समस्त प्रदेश प्रतापरुद्र को वापस कर दिया।

कुली कुतुबशाह से सघर्ष

उड़ीसा के गजपति प्रतापरुद्र के विरूद्ध कृष्णदेव राय को व्यस्त देखकर तेलिंगान के कुतुबशाही शासक ने विजयनगर राज्य की सीमा पर स्थित पंगल तथा गुंटूर किलों पर कब्जा कर लिया और कोंडवीडु पर घेरा डाल दिया।

किंतु कृष्णदेव राय के प्रांतपति सालुव तिम्म ने कुली कुतुबशाह की सेना को बुरी तरह पराजित कर उसके सेनानायक मदर-उल-मुल्क को बंदी बना लिया।

बीजापुर से संघर्ष

कृष्णदेव राय ने 1512 ई. में बीजापुर के अवयस्क सुल्तान इस्माइल आदिलशाह से रायचूर दुर्ग छीन लिया था। वयस्क होने पर आदिलशाह ने रायचूर पर आक्रमण कर अधिकार कर लिया था। मार्च, 1520 में कृष्णदेव ने पुर्तगाली बंदूकधारी सैनिकों की सहायता से बीजापुर के सुल्तान इस्माइल आदिलशाह को बुरी तरह पराजित किया और गोलकुंडा के दुर्ग को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया।

बीजापुर पर अधिकार कर विजयनगर की सेना ने बहमनियों की राजधानी गुलबर्गा (फूलों का शहर) को घेर लिया और अमीर बरीद-ए-मलिक को पराजित कर दुर्ग पर अधिकार कर लिया। इसके बाद कृष्णदेव की विजयवाहिनी ने आगे बढ़कर ‘दकन की लोमड़ी’ कहे जाने वाले बीदर पर अधिकार बहमनी शासक महमूदशाह द्वितीय को अमीर बरीद-ए-मलिक के चंगुल से मुक्त कराया और पुनः उसके पैतृक सिंहासन पर बैठाया। इस उपलक्ष्य में कृष्णदेव ने ‘यवनराज्यस्थापनाचार्य’ की उपाधि धारण की।

सालुव तिम्म का दमन

गुलबर्गा से वापस आने के बाद कृष्णदेव राय ने अपने छः वर्षीय पुत्र तिरुमलदेव महाराय को राजा बनाकर स्वयं प्रधानमंत्री बनकर शासन करने लगा। आठ माह बाद तिरुमलदेव महाराय बीमार पड़ा और मर गया। तिरुमल की मृत्यु के बाद कृष्णदेव को पता चला कि सालुव तिम्म ने उसे विष दिया था। फलतः कृष्णदेव ने सालुव तिम्म को सपरिवार जेल में डाल दिया। किंतु तीन वर्ष बाद तिम्म दंडनायक किसी तरह जेल से निकल कर गूट्टी अथवा कोंडवी भाग गया और वहाँ के गवर्नरों के साथ मिलकर कृष्णदेव के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। कृष्णदेव ने अपने मंत्री रायसम अय्यपरस की सहायता से इस विद्रोह का दमन किया और तिमम दंडनायक और उसके पुत्र तिम्मरस को अंधा करके पुनः जेल में डाल दिया गया।

पुर्तगालियों से संबंध

मध्यकालीन भारतीय सेना की ताकत बहुत कुछ अश्वारोही सेना पर निर्भर थी। लेकिन पुर्तगालियों ने अरबी और फारसी व्यापारियों को पराजित कर घोड़ों के व्यापार पर एकाधिकार कर लिया था। सेना में घोड़ों की उपयोगिता को समझते हुए कृष्णदेव राय ने गोवा बंदरगाह से अरबी घोड़े प्राप्त करने के लिए पुर्तगालियों से संधि की और 1510 ई. में पुर्तगाली गवर्नर अल्बुकर्क के अनुरोध पर उन्हें भट्टकल में एक दुर्ग के निर्माण की आज्ञा दी। किंतु यह मैत्री-संबंध व्यापारिक गतिविधियों तक ही सीमित रहा।

कृष्णदेव राय का मूल्यांकन

कृष्णदेव राय की गणना विजयनगर साम्राज्य के सर्वश्रेष्ठ शासकों में की जाती है। प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद कृष्णदेव राय राय ने एक-एक करके अपने सभी शत्रुओं को पराजित कर संपूर्ण दक्षिण में विजयनगर की सत्ता को स्थापित किया।

कृष्णदेव राय एक कुशल योद्धा एवं सेनानायक होने के साथ-साथ कुशल प्रशासक भी था। इसकी सैनिक एवं नागरिक प्रशासनिक क्षमता का प्रमाण इसका तेलुगु ग्रंथ आमुक्तमाल्यद है। आमुक्तमाल्यद के अनुसार ‘शासक को तालाब तथा अन्य सुविधाएँ उपलब्ध कराकर प्रजा को संतुष्ट रखना चाहिए। विदेशी व्यापार के समुचित संपादन के लिए बंदरगाहों की व्यवस्था करनी चाहिए।’ कृष्णदेव राय ने कृषि की उन्नति और सूखी जमीनों की सिंचाई के लिए पुर्तगाली इंजीनियरों की सहायता से अनेक तालाब खुदवाया और नहरें बनवाई। कृष्णदेव की मजबूत सेना में लगभग 10 लाख सैनिक थे, जिसमें 32 हजार घुड़सवार, एक तोपखाना और हाथी भी थे।

कृष्णदेव राय महान योद्धा एवं कुशल प्रशासक होने के साथ-साथ विद्याप्रेमी और विद्वानों का आश्रयदाता भी था। विद्वानों को संरक्षण देने के कारण उसे ‘अभिनवभोज’ व ‘आंध्रभोज’ भी कहा जाता है। उन्होंने कन्नड़, तेलुगु, तमिल और संस्कृत के कवियों और विद्वानों को संरक्षण दिया। इसकी राजसभा में तेलगू साहित्य के आठ विद्वान्- अल्लसानि पेद्दन, नंदि थिम्मन, भट्टमूर्ति, धूर्जदि, मदय्यागरी मल्लाना, अय्यलराजु रामभद्र, पिंगली सूरन तथा तेनाली रामकृष्ण रहते थे, जिन्हें ‘अष्टदिग्गज’ कहा जाता था।

तेलुगु कवि अल्लसानी पेदन्न उसका राजकवि था जिसे ‘तेलगू कविता का पितामह(तेलुगु कविता के पिता) कहा जाता है। अल्लसानी पेदन्न ने स्वरोकिशा संभव या मनुचरित उनका लोकप्रिय प्रबंध कार्य है जो कृष्णदेव राय को समर्पित था। नंदी थिम्मन ने पारिजातपहारनम्, मदय्यागरी मल्लाना ने राजशेखर चरित्रमु, धूर्जती ने कालहस्ती महात्यमु, अय्यालाराजू रामभद्रुडु ने सकलकथा संग्रह और रामभ्युदयमु की रचना की। पिंगली सूरन ने राघव पांडवियामु, कलापूर्णोदयम् और प्रभावते प्रद्युम्न की रचना की। राघवपंडवेयमु एक दोहरे अर्थ की रचना है जिसमें रामायण और महाभारत दोनों का वर्णन है। कलापूर्णोदयम तेलुगु साहित्य का पहला काव्य उपन्यास माना जाता है। बट्टूमूर्ति उर्फ रामराजाभूषणुडु ने काव्यालंकरसंग्रहमु, वसुचरित्र, नरसाभूपालियम् और हरिश्चंद्रनालोपाख्यानमु को लिखा। हरिश्चंद्रनालोपाख्यानमु भी दोहरे अर्थ की रचना है जो राजा हरिश्चंद्र और नल-दमयंती की कहानी एक साथ बताती है। कृष्णदेव राय के दरबारी तेनाली रामकृष्ण ने पहले एक शैव कृति उद्भताराध्य चरित्रमु लिखा। बाद में उन्होंने वैष्णव ग्रंथ पांडुरंग महात्म्यमु, और घटिकाचल महात्म्यमु की रचना की। पांडुरंग महात्म्यमु की गणना तेलगू भाषा के पाँच महाकाव्यों में की जाती है।

इनके अलावा, संकुशला नृसिंह (कविकर्ण रसायन), चिंतालपुडी इलया (राधामाधवविलास और विष्णुमायाविलास), मोल्ला (रामायण), कंसाली रुद्राय (निरंकुशोपाख्यान) और अडांकी गंगाधर ( बसवपुराण) आदि अन्य प्रसिद्ध कवि थे। मनुमंची भट्ट ने हयालक्षण शास्त्र नामक एक वैज्ञानिक ग्रंथ का लेखन किया था।

कृष्णदेव राय ने तमिल साहित्य के विकास में भी योगदान दिया और तमिल कवि हरिदास को संरक्षण दिया। संस्कृत में व्यासतीर्थ ने भेदोज्जीवन, तात्पर्य चंद्रिका, न्यायामृत और तारका तांडव लिखा। कृष्णदेव राय स्वयं एक विद्वान् थे जिन्होंने प्रसिद्ध तेलगु ग्रंथ आमुक्तमाल्याद (राजनीतिक ग्रंथ) की रचना की जिसे विष्णुचित्तीय कहा जाता है। इसके अलावा, मदालसा चरित, सत्यवदु परिनय, रसमंजरी और जाम्बवती कल्याण भी कृष्णदेव राय की रचनाएँ हैं।

एक महान निर्माता के रूप में कृष्णदेव राय ने माँ नागला के नाम पर राजधानी के दक्षिणी सीमांत पर नागलपुर नामक नया उपनगर बसाया और हजार स्तंभोंवाले मंडपों एवं गोपुरों का निर्माण करवाया। उन्होंने श्रीशैलम मंदिर परिसर के कुछ हिस्सों के निर्माण में भी योगदान दिया। कृष्णदेव राय के समय में कृष्णास्वामी मंदिर के पास चट्टान काटकर बनाई गई नृसिंह की प्रतिमा क्षतिग्रस्त होने के बावजूद विशेष महत्वपूर्ण है।

कृष्णदेव राय को तथाचार्य ने वैष्णव संप्रदाय में दीक्षित किया था जो उनके राजगुरु भी थे। किंतु वह अन्य धर्मों के प्रति भी उदार थे। उनके काल में जैनों, बौद्वों, शैवों, लिंगायतों को ही नहीं, ईसाइयों, यहूदियों और मुसलमानों धर्मों को भी पूरी धार्मिक स्वतंत्रता प्राप्त थी।

कृष्णदेव राय की 1529 ई. में मृत्यु हो गई, किंतु अपनी मृत्यु से पूर्व उन्होंने अपने चचेरे भाई अच्युतदेव को चंद्रगिरि की जेल से मुक्त कर अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था।

अच्युतदेव राय (1529-1542 ई.)

कृष्णदेव राय ने अपने चचेरे भाई (वैमात्रेय) अच्युतदेव को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। लेकिन इसका राज्यरोहण शांतिपूर्ण वातावरण में संपन्न नहीं हो सका। कृष्णदेव राय के दामाद (आलिय) रामराय ने रंगराय के पुत्र सदाशिव को राजपद दिलाने के लिए उसके शिशुपुत्र को राजा घोषित कर दिया, जबकि अच्युत का साले सलकराजु तिरूमल ने अच्युत का समर्थन किया।

कृष्णदेव राय के प्रधानमंत्री सालुव नरसिंह ने आलिय रामराय के सत्ता हड़पने के षड्यंत्र को विफल कर दिया और जब तक अच्युतदेव चंद्रगिरि से राजधानी नहीं पहुँच गया, उसने सिंहासन को खाली रखा। विजयनगर पहुँचने के पहले मार्ग में ही अच्युतदेव ने अपना दो बार अपना राज्याभिषेक करवाया- एक तिरूपति में और दूसरा कालाहस्ती में। किंतु राजधानी पहुँचकर अच्युत ने रामराय से समझौता कर उसे शासन में भागीदार बना लिया। कुछ दिन बाद शिशुपुत्र के काल-कवलित हो जाने से राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता समाप्त हो गई।

अच्युतदेव राय के राज्यग्रहण के समय उत्पन्न राजनीतिक अराजकता का लाभ उठाकर विद्रोही शक्तियाँ एक बार पुनः सक्रिय हो गईं। उड़ीसा के गजपति प्रतापरुद्र और बीजापुर के इस्माइल आदिलशाह ने विजयनगर पर आक्रमण कर दिया। अच्युतदेव ने विजयनगर के पूर्वोत्तर सीमा पर किये गये गजपति प्रतापरुद्र के आक्रमण को तो विफल कर दिया, लेकिन इस्माइल आदिलशाह ने रायचूर तथा मुद्गल पर अधिकार कर लिया।

अच्युतदेव को गोलकुंडा से भी निपटना पड़ा। गोलकुंडा के सुल्तान कुली कुतुबशाह ने कोंडवीडु पर आक्रमण किया। लेकिन विजयनगर की सेनाओं ने गोलकुंडा की सेनाओं को बुरी तरह पराजित कर खदेड़ दिया।

रायचूर तथा मुद्गल पर इस्माइल आदिलशाह के अधिकार से अच्युतदेव राय बहुत चिंतित था। अंततः उसने बीजापुर की आंतरिक गड़बड़ी का लाभ उठाते हुए 1534 ई. में रायचूर तथा मुद्गल पर पुनः अधिकार कर लिया।

अच्युतदेव तथा रामराय के समझौते से क्षुब्ध होकर सालुव नरसिंह राजधानी छोड़कर दक्षिण चला गया था। उसने उम्मत्तूर एवं दक्षिणी ट्रावनकोर के तिरुवाडि राज्य के सामंतों के साथ मिलकर विद्रोह कर दिया और पांड्य शासक को अपदस्थ कर दिया।

अच्युतदेव ने अपने साले सलकुराज तिरुमल की सहायता से विद्रोह का दमन कर सालुव नरसिंह को कैद कर लिया और अपदस्थ पांड्य शासक को पुनः गद्दी पर बैठाया। इस सहायता के बदले पांड्य शासक ने अपनी पुत्री का विवाह अच्युतदेव के साथ कर दिया।

इस प्रकार अच्युतदेव को प्रायः अपने सभी दुश्मनों के विरूद्ध सफलता प्राप्त की। लेकिन 1530 के दशक के अंत 1536-37 ई. के आसपास आलिय रामराय ने उसे बंदी बनाकर स्वयं को राजा घोषित कर दिया। जब सामंतों ने रामराय का कड़ा विरोध किया तो उसने अच्युतदेव राय के भतीजे सदाशिव को राजा बनाकर संपूर्ण शक्ति अपने हाथ में ले ली। अच्युतदेव को पुनुकोंडा के किले में बंद कर दिया गया।

इसी समय सुदूर दक्षिण में अचानक विद्रोह हो गया और रामराय को दक्षिण जाना पड़ा। उसकी अनुपस्थिति का लाभ उठाकर रामराय के सेवक ने अच्युतदेव को कैद से मुक्त कर दिया और स्वयं उसका प्रधानमंत्री बन गया। लेकिन सलकराजु तिरुमल ने सेवक की हत्या कर दी और राजसत्ता अपने हाथ में ले ली। सदाशिव को गुट्टी के किले में बंद कर दिया गया।

रामराय बड़ी शीघ्रता से दक्षिण से विजयनगर वापस आया। तभी बीजापुर के नये सुल्तान इब्राहीम आदिलशाह ने विजयनगर पर आक्रमण कर नागलापुर को ध्वस्त कर दिया। संयोग से इसी दौरान बुरहान निजाम खाँ ने बीजापुर पर आक्रमण कर दिया और इब्राहीम आदिलशाह को तत्काल विजयनगर से हटना पड़ा। लेकिन जाते-जाते उसने अच्युतदेव और रामराय के बीच समझौता करा दिया। समझौते में यह तय हुआ कि अच्युतदेव नाममात्र का राजा रहेगा और रामराय बिना किसी हस्तक्षेप के राज्य का संचालन करेगा। इस प्रकार अच्युतदेव ने नाममात्र का शासक बने रहने के लिए अपनी संप्रभुता को अपने संरक्षक को सौंप दिया।

अच्युतदेव का संपूर्ण शासनकाल आंतरिक विद्रोहों, विदेशी आक्रमणों और राजनीतिक कुचक्रों के कारण संघर्षों में व्यतीत हुआ जिससे वाणिज्य-व्यापार की बड़ी हानि हुई। सलकराजु तिरुमल के अल्पकालीन संरक्षणकाल में दक्षिण में मदुरै, जिंजी तथा संजवर जैसे राज्य स्वतंत्र होने लगे थे। पुर्तगालियों ने तूतीकोरिन के मोती उत्पादक क्षेत्रों पर अपना अधिकार बढ़ा लिया।

अच्युतदेव राय ने प्रशासन को नियंत्रित करने के लिए ‘महामंडलेश्वर’ नामक एक नये अधिकारी की नियक्ति की। इसके दरबारी कवि राजनाथ डिंडिम ने इसके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर आधारित ‘अच्युतरायाभ्युदय’ नामक संस्कृत काव्य की रचना की। इसके शासनकाल में 1535 ई. में पुर्तगाली यात्री फर्नाओ नुनिज ने विजयनगर की यात्रा की थी।

अच्युतदेव राय की 1542 ई. में मृत्यु हो गई और उसका नाबालिग पुत्र वेंकेट प्रथम उसके साले सलकराजु तिरुमल के संरक्षण में राजा बना।

वेंकट प्रथम (1542 ई.)

अच्युतदेव के अवयस्क पुत्र वेंकट प्रथम (1542 ई.) के राजा बनने पर शासन की वास्तविक शक्ति उसके मामा सलकराजु तिरूमल हाथों में रही। राजमाता वरदंबिका (वारदादेवी) ने अपने पुत्र वेंकट को भाई सलकराजु तिरूमल के चंगुल से छुडाने के लिए बीजापुर के सुल्तान इब्राहीम आदिलशाह से मदद माँगी। इब्राहीम आदिलशाह राजमाता की सहायता के लिए चला, किंतु रास्ते में ही तिरुमल ने धन देकर उसे वापस कर दिया। आलिय रामराय ने तिरुमल की चाल को विफल करने के लिए गुट्टी में कैद सदाशिव को राजा घोषित कर दिया और इब्राहीम आदिलशाह से मदद की अपील की। आदिलशाह ने विजयनगर पर आक्रमण तो किया, लेकिन सलकराजु तिरुमल ने उसे विफल कर दिया। इसके बाद सलकराजु ने वेंकट प्रथम सहित सिंहासन के सभी दावेदारों की हत्या कर दी और संपूर्ण शाही शक्तियों पर अधिकार कर लिया। केवल अच्युत का भतीजा सदाशिव (रंगराय का पुत्र) बच गया, जो गुट्टी के किले में कैद था।

अंततः आलिय रामराय ने अपने भाइयों (तिरुमाल और वेकटांद्रि) और गंडिकोटा किले के नायक एरा तिम्मनायुडु जैसे समर्थकों की मदद से पेनुकोंडा पर आक्रमण कर सलकराजु तिरुमल को मौत के घाट उतार दिया और रंगराय के पुत्र सदाशिव को गुट्टी के किले से लाकर 1543 ई. में विजयनगर की राजगद्दी पर बैठा दिया।

सदाशिव राय (1542-1570 ई.)

सदाशिव राय तुलुव राजवंश का अंतिम ज्ञात शासक है। यह नाममात्र का शासक था और शासन की वास्तविक सत्ता अरवीडुवंशीय आलिय रामराय के ही हाथों में केंद्रित रही।

आलिय रामराय (1542-1565 ई.)

अरवीडुवंशीय रामराय की गणना विजयनगर साम्राज्य के कुशल शासकों में की जाती है। रामराय पहले गोलकुंडा के शाही दरबार में सेवा कर चुका था। इसने कठपुतली सदाशिव राय (1542-1570 ई.) को कड़े पहरे में रखकर वास्तविक शासक के रूप में शासन किया, शाही उपाधियाँ धारण की और विजयनगर साम्राज्य के खोये हुए गौरव को पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया।

प्रशासनिक सुधार

सदाशिव के राज्यारोहण के बाद रामराय ने सर्वप्रथम प्रचलित शासन प्रणाली में कई महत्वपूर्ण परिवर्तन किया और सभी महत्वपूर्ण पदों पर अपने विश्वासपात्रों की नियुक्ति की। इसने राज्य की सेना में बड़ी संख्या में मुसलमान सैनिकों की भर्ती कर अपनी सैनिक शक्ति को सुदृढ़ किया।

दक्षिण के विद्रोह

सदाशिव के राज्यारोहण के कुछ दिन बाद ही रामराय को संघर्षों में उलझना पड़ा। दक्षिण में बावनकोर के शासकों ने विद्रोह कर राज्य के पांड्य सामंत कायत्तार प्रमुख को भगा दिया। इसी समय संत फ्रांसिस क्जबियर के नेतृत्व में ईसाई धर्म प्रचारक मन्नार की खाड़ी के तटवर्ती निवासियों को ईसाई धर्म में दीक्षित कर रहे थे और उनके अनुयायी तटीय भाग के मंदिरों को ध्वस्त करके गिरिजाघरों का निर्माण करने लगे थे।

रामराय ने अपने चचेरे भाई चिन तिम्म को एक बड़ी सेना के साथ दक्षिण के उपद्रवों पर काबू पाने के लिए भेजा। चंद्रगिरि पर अधिकार करने के बाद चिन तिम्म ने चोल देश के भुवनगिरि किल पर आक्रमण किया। फिर वह समुद्र के किनारे-किनारे कावेरी नदी पार कर नागोर बंदरगाह पहुँचा। वहाँ उसने ईसाइयों द्वारा ध्वस्त किये गये रंगनाथ मंदिर का पुनरूद्धार करवाया और तंजोर तथा पुडुक्कोट्टै प्रदेश के स्थानीय सामंतों को अपने अधीन किया।

विजयनगर के सैनिकों ने अपदस्थ पांड्य शासक को पुनर्स्थापित किया और बावनकोर के विद्रोही सामंतों का दमन किया। इसके बाद विजयनगर की सेनाओं ने त्रावनकोर के राजा को अपने अधीन कर कुमारी अंतरीप में अपना विजय-स्तंभ स्थापित किया। अपने भाई विठ्ठल को विजित प्रांतों का प्रभारी बनाकर चिन तिम्म विजयनगर वापस लौट आया।

रामराय और पुर्तगाली

पुर्तगालियों के साथ रामराय के संबंध सदैव अच्छे नहीं रहे। जब 1542 ई. में मार्टिन अल्फोंसी डी सौजा के गोवा का गवर्नर नियुक्त हुआ तो संबंधों में और कड़ुवाहट आई। उसके उत्तराधिकारी जोओ डी कास्ट्रो के समय (1546) रामराय ने पुर्तगालियों से एक संधि की, जिसके अनुसार उसे घोड़ों के व्यापार का एकाधिकार मिल गया। लेकिन यह संधि अधिक दिन तक कायम न रह सकी और 1558 ई. में रामराय ने अचानक सेंट थोमे पर आक्रमण कर दिया। लगभग इसी समय इसके भाई विठ्ठल ने गोवा पर आक्रमण कर दिया। दोनों अभियानों में विजयनगर के सैनिकों को सफलता मिली।

रामराय और दकन की सल्तनतें

विजयनगर का प्रतिद्वंद्वी बहमनी राज्य 1518 ई. में पाँच राज्यों- गोलकुंडा, बीजापुर, बीदर, बरार और अहमदनगर में बँट चुका था, जिन्हें ‘दकन सल्तनत’ कहा जाता था। रामराय ने विजयनगर की पारंपरिक तटस्थता की नीति का परित्याग कर दकन सल्तनत की अंदरूनी राजनीति में दखलंदाजी शुरू कर दी और ‘लोहे से लोहा काटने’ की नीति अपनाई।

1542 ई. मे बीजापुर तथा अहमदनगर के राजाओं ने आपसी मतभेद भुलाकर अदोनि के दुर्ग पर आक्रमण कर दिया और रामराय को आदिलशाह से समझौता करना पड़ा। 1542-43 ई. में बीजापुर के आदिलशाह ने पुनः अहमदनगर के बुरहान निजामशाह के साथ मिलकर विजयनगर के कुछ प्रदेशों पर अधिकार कर लिया।

रामराय ने कूटनीति से अहमदनगर तथा बीजापुर में फूट पैदा कर दिया और बुरहान निजामशाह को अपनी ओर मिलाकर 1552 ई. में रायचूर और मुद्गल पर अधिकार कर लिया। रामराय ने 1553 ई. में बीजापुर के विरुद्ध अहमदनगर और गोलकुंडा से संधि कर ली। किंतु जब अहमदनगर के हुसैन निजामशाह प्रथम (1553-1565 ई.) ने 1558 ई. में बीजापुर पर आक्रमण कर गुलबर्गा को घेर लिया, तो सुल्तान आदिलशाह ने रामराय से सहायता माँगी।

रामराय ने अपने पुराने शत्रु बीजापुर की सहायता की और अहमदनगर का विध्वंस कर उसे अपमानजनक संधि करने पर विवश किया। इस प्रकार रामराय की कूटनीति के कारण 1560 ई. तक विजयनगर दक्षिण की सर्वोच्च शक्ति बन गया। अब अहमदनगर, गोलकुंडा तथा बीदर की शक्ति समाप्त हो गई और बीजापुर विजयनगर की दया पर आश्रित था।

अंततः आलिय रामराय की दक्षिणी नीति और अहमदनगर के विध्वंस से भयभीत दक्षिण की सल्तनतों ने आपसी मतभेदों को भूलकर दक्कनी महासंघ का गठन किया और विजयनगर साम्राज्य के अस्तित्व को चुनौती दिया।

तालीकोटा (रक्षसी-तंगडी) का युद्ध (1565 ई.)

तालीकोटा का युद्ध 1565 ई. में विजयनगर और दक्कन की सल्तनतों के बीच हुआ था। इस युद्ध को ‘राक्षसी तंगड़ी का युद्ध’ और ‘बन्नीहट्टी का युद्ध’ के नाम से भी जाना जाता है। फरिश्ता के अनुसार इस युद्ध का कारण रामराय द्वारा अहमदनगर पर आक्रमण के दौरान मुस्लिम स्त्रियों तथा इस्लाम धर्म को अपमानित करना और मस्जिदों का ध्वस्त किया जाना था।

किंतु असल कारण यह था कि विजयनगर की उभरती शक्ति से दक्षिण के मुस्लिम शासक भयभीत थे। उन्हें आभास हो गया कि यदि विजयनगर की वर्द्धमान शक्ति को तत्काल कुचला नहीं गया, तो वह दिन दूर नहीं जब दक्षिण की सारी सल्तनतें मटियामेट हो जायेगी। फलतः पुराने आपसी मतभेदों को भुलाकर दक्षिण की चार सल्तनतों- बीजापुर, अहमदनगर, गोलकुंडा तथा बीदर ने विजयनगर के विरूद्ध आदिलशाह के नेतृत्व में एक दक्कनी महासंघ का निर्माण किया। केवल बरार इस महासंघ में शामिल नहीं हुआ था। तालीकोटा के युद्ध के लिए दक्षिण की सल्तनतें जितना जिम्मेदार थीं, उतना ही रामराय की नीतियाँ भी उत्तरदायी थीं। यदि उसने दक्षिणी राज्यों के आंतरिक मामलों में अनावश्यक हस्तक्षेप न किया होता, तो शायद इस युद्ध की नौबत न आती।

तालीकोटा युद्ध के तात्कालिक कारण के संबंध में पता चलता है कि दक्कन संयुक्त संघ के अगुआ अली आदिलशाह ने रामराय से रायचूर, मुद्गल आदि दुर्गों की माँग की। जब रामराय ने इस माँग को ठुकरा दिया तो दक्षिण के सुल्तानों की संयुक्त सेना ने विजयनगर पर आक्रमण कर दिया। 26 दिसंबर 1564 ई. को दक्कनी महासंघ की सेनाएँ तालीकोटा पहुँच गईं। यद्यपि इस समय विजयनगर का शासक सदाशिव राय था, किंतु विजयनगर की सेना का नेतृत्व रामराय कर रहा था। लगभग एक माह के छिटपुट आक्रमण-प्रत्याक्रमण के बाद 23 जनवरी 1565 ई. को तालीकोटा के समीप रक्षसी-तंगडी नामक स्थान पर दोनों पक्षों की सेनाओं में भयंकर युद्ध हुआ।

यद्यपि रामराय की अगुआई में विजयनगर की सेना ने अपनी पूरी शक्ति से आक्रमणकारियों का सामना करने का प्रयास किया। किंतु दक्कनी महासंघ के हमले इतने तीव्र और घातक थे कि विजयनगर के सैनिक भयभीत होकर युद्ध-क्षेत्र से भाग खड़े हुए। हुसैन निजामशाह ने रामराय का सिर धड़ से अलग कर दिया। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि विजयनगर की सेना युद्ध जीत रही थी, लेकिन अंतिम समय में उसकी सेना के दो मुसलमान सेनानायकों ने पक्ष बदल लिया जिससे विजयनगर की सेना तितर-बितर होकर पराजित हो गई।

रामराय की पराजय और उसकी मौत के बाद आक्रमणकारियों ने विजयनगर के शानदार और खुशहाल नगर को निर्मतापूर्वक लूटा, नष्ट किया और फिर उसे खाक में मिला दिया। ‘ए फारगॉटेन एंपायर’ में सेवेल लिखते हैं कि ‘‘संसार के इतिहास में कभी भी इतने वैभवशाली नगर का इस प्रकार सहसा सर्वनाश नहीं किया गया, जैसा विजयनगर का हुआ।’’ इस युद्ध ने विजयनगर राज्य की सैनिक शक्ति और उसकी समृद्धि को पूरी तरह नष्ट कर दिया। रामराय का भाई तिरुमाल बंदी राजा सदाशिव और राजकीय खजाने को लेकर पेनुकोंडा भाग गया।

यद्यपि रामराय के शासन की समाप्ति ऐसी महान सैनिक विपदा के साथ हुई जिसने विजयनगर को पूरी तरह बर्बाद कर दिया, किंतु उसका शासन निःसंदेह अभूतपूर्व ऐश्वर्य से संपन्न था।

रामराय महान् योद्धा और कूटनीतिज्ञ होने के साथ-साथ विद्याप्रेमी तथा विद्वानों संरक्षक था। इसके समय में संस्कृत तथा तेलुगु साहित्य की पर्याप्त उन्नति हुई। व्यक्तिगत रूप से वैष्णव होते हुए भी वह परम धर्मसहिष्णु था। युद्धों में व्यस्त होते हुए भी इसने सदा प्रजा-हित को सर्वोपरि रखा। इसीलिए रामराय को ‘महान रामराय’ कहा जाता था।

बाबर के आक्रमण के समय भारत की राजनैतिक दशा (Political Condition of India at the Time of Babur’s Invasion)

अराविदु राजवंश(1570–1646 ई.)

विजयनगर साम्राज्य का उत्थान और पतन (Rise and Fall of Vijayanagara Empire)
अराविदु राजवंश के शासक

तालीकोटा का युद्ध विजयनगर साम्राज्य के जीवन का संकटकाल था, किंतु अंतिम संकटकाल नहीं। तालीकोटा के प्रतिकूल परिणामों के बावजूद विजयनगर साम्राज्य लगभग सौ वर्षों तक अस्तित्व में बना रहा। तिरुमाल के सहयोग से सदाशिव ने पेनुकोंडा को राजधानी बनाकर नये सिरे से शासन प्रारंभ किया। किंतु प्रशासन की संपूर्ण शक्ति रामराय के भाई तिरुमालदेव के हाथ में केंद्रित थी।

अंततः तिरुमालदेव ने 1570 ई. के आसपास सदाशिव को अपदस्थ कर पेनुकोंडा पर अधिकार कर लिया और स्वयं को विजयनगर का शासक घोषित कर दिया। इस प्रकार तुलुव वंश का अंत हो गया और विजयनगर के चतुर्थ राजवंश अराविदु वंश की स्थापना हुई।

तिरुमालदेव राय (1570-1572 ई.)

अराविदु राजवंश के संस्थापक आलिय रामराय के भाई तिरुमालदेव राय की राजधानी पेनुकोंडा थी। इसने विजयनगर की सीमा का विस्तार करना आरंभ किया। तालीकोटा के युद्ध के बाद दक्कनी सल्तनतों में पुनः आपसी मदभेद पैदा हो गया जिससे विजयनगर साम्राज्य को पुनः शक्ति प्राप्त करने का अवसर मिल गया। सल्तनतों के मतभेद का लाभ उठाकर तिरुमालदेव ने विजयनगर राज्य के अधिकांश हिस्से पर अधिकार कर लिया।

चूंकि तिरुमालदेव ने विषम परिस्थितियों में गद्दी हासिल की थी, इसलिए इसने अपने तीनों पुत्रों- श्रीरंग प्रथम, राम तथा वेंकट द्वितीय (वेंकटपति) को क्रमशः तेलुगु क्षेत्र, कलड़ योज तथा तमिल क्षेत्र का प्रशासन सौंप दिया, जिनकी राजधानियाँ क्रमशः पेनुकोंडा, श्रीरंगपत्तन तथा चंद्रगिरि थीं।

तिरुमालदेव कुछ विद्रोहों को दबाने तथा पेनुकोंडा पर मुसलमानों के आक्रमण को रोकने में सफल रहा, इसलिए उसने ‘पतनशील कर्नाटक राज्य का उद्धारक’ की उपाधि धारण की थी। भट्टमूर्ति ने अपना ग्रंथ ‘वसुचरितम’ तिरुमालदेव को ही समर्पित किया है। 1570 ई. के आसपास तिरुमाल ने अपने ज्येष्ठ पुत्र श्रीरंग प्रथम को राजगद्दी पर सौंप कर शासन से अवकाश ले लिया।

श्रीरंग प्रथम (1572-1585 ई.)

श्रीरंग प्रथम का शासनकाल (1572-1585 ई.) अत्यंत संकटपूर्ण रहा। यद्यपि इसने विजयनगर साम्राज्य के पुनरुद्धार की कोशिश की और उदंड मावरों का दमन किया तथा मुस्लिमों से अहोवलम जिला पुनः जीत लिया। किंतु पड़ोसी बीजापुर तथा गोलकुंडा के सुल्तानों की सैनिक कार्रवाइयों के कारण इसे अपने राज्य के कुछ क्षेत्रों को खोना पड़ा और विजयनगर साम्राज्य और संकुचित हो गया। 1585 ई. में श्रीरंग प्रथम की मृत्यु हो गई।

वेंकट द्वितीय (1585-1614 ई.)

श्रीरंग प्रथम निःसंतान था, इसलिए उसकी मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई वेंकट द्वितीय (1585-1614 ई.) जग्गदेव राय की सहायता से शासक बना। वेंकट द्वितीय अराविदु वंश का अंतिम योग्य शासक था। आरंभ में इसका मुख्यालय चंद्रागिरि रहा, किंतु बाद में इसने अपना मुख्यालय पेनुकोंडा स्थानांतरित कर दिया।

यद्यपि वेंकट का अधिकांश समय अपने पूर्वी और दक्षिणी विद्रोही सरदारों और सामंतों के विरूद्ध संघर्ष में व्यतीत हुआ। फिर भी, उसने अपनी योगयता और निरंतर सक्रियता से विजयनगर साम्राज्य की खोई शक्ति और प्रतिष्ठा को पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया और कुछ हद तक अपने प्रयास में सफल भी रहा।

वेंकट द्वितीय ने दकन के मुस्लिम शासकों का दृढ़तापूर्वक सामना किया। 1580 ई. और 1589 ई. के बीच युद्धों की एक श्रृंखला के परिणामस्वरूप पूर्व में गोलकुंडा के कुछ क्षेत्र पुनः जीत लिये गये और कृष्णा नदी विजयनगर की उत्तरी सीमा मान ली गई। उसने 1601 ई. में वेल्लोर के लिंगमा नायक सहित मदुरा, तंजौर और जिंजी के नायकों के विद्रोह का दमन किया और बाद में वेल्लोर को अपनी राजधानी बनाया। लेकिन वह सुदूर दक्षिण के विद्रोहों का दमन करने में असफल रहा।

वेंकट ने पुर्तगालियों के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध बनाये जिन्होंने 1607 ई. में जेसुइट मिशन की स्थापना की। इसने पुतगाली विरोध के बावजूद डचों को देवपट्टन में एक कारखाना और पुलिकट में एक किला बनाने की अनुमति दी। वेंकट द्वितीय की अनुमति से 1612 ई. में राजा बोडयार ने एक नये राज्य मैसूर की स्थापना की। किंतु 1614 ई. में वेंकट की मृत्यु से अराविदु वंश और विजयनगर साम्राज्य दोनों पतन की प्रक्रिया तेज हो गई।r

विजयनगर साम्राज्य का अंत

वेंकट द्वितीय का भतीजा और उत्तराधिकारी श्रीरंग द्वितीय (1614 ई.) केवल चार महीने शासन कर सका। इस समय विजयनगर में उत्तराधिकार को लेकर गृहयुद्ध आरंभ हो गया। इस गृहयुद्ध में राजपरिवार के एक सदस्य को छोड़कर शेष सभी की हत्या कर दी गई। अंततः राजवंश का एकमात्र जीवित सदस्य रामदेव राय (1617-1630 ई.) विजयनगर का राजा हुआ। इसके शासन में भी निरंतर संघर्ष चलता रहा।

रामदेव का उत्तराधिकारी वेंकट तृतीय (1630-1642 ई.) नितांत अयोग्य और दुर्बल था। इसके काल में शासन की वास्तविक शक्ति सरदारों और सामंतों के हाथ में चली गई। वेंकट के ही समय में अंग्रेजों ने मद्रास में अपना कारखाना खोला था। 1642 ई. में गोलकुंडा के एक अभियान के कारण वेंकट तृतीय को अपनी राजधानी छोड़कर वेल्लोर भागना पड़ा। इसी समय उसके भतीजे श्रीरंग ने बीजापुर से वापस आकर सिंहासन पर अधिकार कर लिया।

विजयनगर साम्राज्य का अंतिम शासक श्रीरंग तृतीय (1642-1646 ई.) था। श्रीरंग न तो विद्रोही सामंतों से निपट सका और न ही गोलकुंडा एवं बीजापुर के सुल्तानों से। अंततः 1646 ई. में बीजापुर और गोलकुंडा की संयुक्त सेना ने उसे निर्णायक रूप से पराजित कर दिया। श्रीरंग मैसूर चला गया, जहाँ 1672 ई. तक बिना राज्य के राजा के रूप में जीवित रहा। मुस्लिम सुल्तानों ने 1652 ई. तक कर्नाटक पर अपनी विजय पूरी कर ली। इस प्रकार अपनी स्थापना से लगभग तीन शताब्दी बाद कर्नाटक के वैभवशाली विजयनगर साम्राज्य का अंत हो गया।

विजयनगर साम्राज्य के पतन के कारण

यद्यपि विजयनगर शहर के विध्वंस के लिए सुल्तानों की सेनाएँ उत्तरदायी थीं, फिर भी धार्मिक भिन्नताएँ होने पर भी सुल्तानों और रायों के संबंध सदैव शत्रुतापूर्ण नहीं रहते थे। उदाहरण के लिए कृष्णदेव राय ने सल्तनतों में कई दावेदारों का समर्थन किया और स्वयं ‘यवनराज्यस्थापनाचार्य’ का विरुद धारण किया। इसी प्रकार बीजापुर के सुल्तान ने कृष्णदेव राय की मृत्यु के पश्चात् विजयनगर में उत्तराधिकार के विवाद को सुलझाने के लिए हस्तक्षेप किया। वास्तव में विजयनगर शासक और सल्तनतें दोनों ही एक-दूसरे के स्थायित्व को निश्चित करने की इच्छुक थीं।

दरअसल यह आलिय रामराय की ‘एक सुलतान को दूसरे के विरुद्ध खड़ा करने’ की हस्तक्षेपवादी नीति की विफलता थी, जिसके कारण दक्षिण के सभी सुल्तानों ने एकजुट होकर एक दक्कनी महासंघ का गठन किया और उसे निर्णायक रूप से पराजित कर किया। इसके अलावा, विजयनगर सम्राज्य का अपने पड़ोसी राज्यों से निरंतर संघर्ष, विजयनगर के कुछ शासकों की निरकुशता, विजयनगर की सेना सामंतशाही स्वरूप, कृष्णदेव राय के उत्तराधिकारियों की अयोग्यता, पुर्तगालियों का आगमन, रामराय की सक्रिय हस्तक्षेप की नीति, दक्कनी महासंघ का निर्माण और अंततः तालकीकोटा के युद्ध के कारण विजयनगर साम्राज्य का पतन हो गया।

विजयनगर साम्राज्य: प्रशासन, अर्थव्यवस्था, सामाजिक  एवं सांस्कृतिक विकास

वास्तव में विजयनगर साम्राज्य के उत्थान और पतन का इतिहास मुख्य रूप से निरंतर युद्धों और संघर्षों का इतिहास रहा है, इसलिए विजयनगर के शासकों ने अपने विस्तृत साम्राज्य के स्वरूप तथा राज्य की समसामयिक आर्थिक एवं सामाजिक आवश्यकताओं के अनुरूप एक नई प्रशासनिक व्यवस्था का प्रवर्तन किया। कहा जाता है कि इस सुव्यवस्थित प्रशासनिक व्यवस्था के कारण ही राज्य में सर्वांगीण समृद्धि थी। कई विदेशी यात्रियों, जैसे निकोलो कोंटी अब्दुल रज्जाक और डोमिंगो पायस आदि ने इस राज्य की समृद्धि की प्रशंसा की है। विजयनगर साम्राज्य के प्रशासन के स्वरूप की जानकारी विजयनगरकालीन अभिलेखों, साहित्यिक ग्रंथों तथा समय-समय पर विजयनगर साम्राज्य की यात्रा करने वाले विदेशी यात्रियों के विवरणों से मिलती है।

प्रशासनिक व्यवस्था

केंद्रीय प्रशासन
राय (राजा)

विजयनगर साम्राज्य की शासन-पद्धति सिद्धांततः राजतंत्रात्मक थी। प्रशासन का केंद्र-बिंदु राजा होता था, जिसे ‘राय’ कहा जाता था। राजपद कुछ अंश तक दैवी माना गया था, क्योंकि विजयनगर का राजा देवता विरूपाक्ष के नाम पर शासन करता था। यद्यपि शासक राज्य का सर्वोच्च सैनिक, असैनिक तथा न्यायिक अधिकारी था, किंतु उसकी सत्ता निरंकुश नहीं, अपितु नियंत्रित थी। वह न केवल धर्मानुसार शासन संचालित करता था, बल्कि प्राचीन स्मृतियों एवं धर्मशास्त्रों में विहित नियमों का कड़ाई से पालन भी करता था।

राजा की निरंकुशता पर ‘राजपरिषद’ नामक संस्था भी नियंत्रण रखती थी। इसके अलावा, व्यापारिक निगमें, धार्मिक संस्थाएँ, केंद्रीय मंत्री तथा ग्रामीण संस्थाएँ भी राजा पर कुछ नियंत्रण रखती थीं। राजा के चुनाव में राज्य के मंत्री एवं अमर-नायक महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते थे। विजयनगर में संयुक्त शासन के भी दर्शन होते हैं, जैसे हरिहर और बुक्का ने एक साथ शासन किया था।

राजा का आदर्श

विजयनगर के राजा धर्म के अनुरूप शासन को आदर्श शासन मानते थे। एक आदर्श राजा को किस तरह का व्यवहार करना चाहिए, इसका उल्लेख कृष्णदेव राय की पुस्तक ‘आमुक्तमाल्यद’ में मिल़ता है। आमुक्तमाल्यद के अनुसार एक मूर्धाभिषिक्त राजा को सदैव धर्म को दृष्टि में रखकर शासन करना चाहिए और सदैव अपने प्रजा के सुख और कल्याण का ध्यान रखना चाहिए। जब राजा प्रजा का कल्याण करेगा, तभी प्रजा भी राजा के कल्याण की कामना करेगी और तभी देश प्रगतिशील एवं समृद्धशील होगा। अपनी प्रजा की सुरक्षा तथा कल्याण के उद्देश्य को सदा आगे रखने पर ही देश के लोग राजा के कल्याण की कामना करेंगे और राजा का कल्याण तभी होगा, जब देश प्रगतिशील तथा समृद्धशाली होगा।’

विजयनगर के राजाओं के राजनीतिक आदर्श धर्मनिरपेक्ष थे। उनका व्यक्तिगत धर्म चाहे जो भी रहा हो, उन्होंने सभी धर्मावलंबियों को समान रूप से संरक्षण एवं प्रश्रय दिया। साम्राज्य-विस्तार के साथ-साथ वे देश की आर्थिक प्रगति के प्रति भी पूर्णतया सजग थे। विजयनगर के शासक किसानों और खेतिहर लोगों के शोषण तथा दमन के प्रति सचेष्ट थे। उन्होंने कृषि एवं व्यापार की उन्नति को विशेष महत्व दिया। कृषि-योग्य भूमि के विस्तार, सिंचाई के साधनों के विकास, विदेशी व्यापार की उन्नति तथा औद्योगिक प्रगति के प्रति वे सतत प्रयत्नशील रहे।

वंशानुगत राजपद

राजपद सामान्यतः वंशानुगत था और पिता के बाद पुत्र अथवा उसके अभाव में निकटतम् उत्तराधिकारी को मिल जाता था, किंतु यह अनिवार्य नियम नहीं था। कभी-कभी निकटतम उत्तराधिकारियों के अवयस्क या अयोग्य होने पर राय अपना उत्तराधिकारी घोषित कर देता था। कृष्णदेव राय ने अपने डेढ़ वर्ष के शिशुपुत्र को उत्तराधिकारी न बनाकर अपने चचेरा भाई अच्युतदेव राय को उत्तराधिकारी घोषित किया था। कभी-कभी सेनानायक अथवा राजकुल के अन्य सदस्य राजा या वैध उत्तराधिकारी को अपदस्थ कर सत्ता अपहृत कर लेते थे। कभी-कभार राजगद्दी के लिए लड़ाइयाँ भी होती थीं।

राज्याभिषेक

राजा के राज्यारोहण के अवसर पर प्रायः राज्याभिषेक संस्कार संपन्न किया जाता था। इस अवसर पर दरबार में अत्यंत भव्य आयोजन होता था, जिसमें अमर-नायक, अधिकारी तथा जनता के प्रतिनिधि सम्मिलित होते थे। अच्युतदेव राय ने अपना राज्याभिषेक तिरुपति वेंकटेश्वर मंदिर में संपन्न कराया था। राज्याभिषेक के समय राजा को प्रजापालन एवं निष्ठा की शपथ लेनी पड़ती थी।

युवराज

विजयनगर प्रशासन में राजा के बाद युवराज का पद था। सामान्यतः राजा के बडे पुत्र को युवराज बनाने की परंपरा थी, किंतु पुत्र के न होने पर राजपरिवार के किसी योग्य सदस्य को युवराज नियुक्त किया जा सकता था। युवराज के राज्याभिषेक को ‘युवराज पट्टाभिषेक’ कहते थे। विजयनगर के अधिकांश शासकों ने अपने जीवनकाल में ही युवराजों की घोषणा कर उत्तराधिकार-संबंधी संघर्ष की संभावना समाप्त करने का प्रयास किया था, फिर भी उत्तराधिकार के लिए संघर्ष की सूचना मिलती है। युवराज की शिक्षा-दीक्षा की समुचित व्यवस्था होती थी और उसे साहित्य, ललितकला, युद्धकला तथा नीति की शिक्षा दी जाती थी।

संरक्षक अथवा प्रतिशासक की प्रथा

कभी-कभी शासक अथवा युवराज के अवयस्क होने की स्थिति में राजा अपने जीवनकाल में ही स्वयं अपने किसी मंत्री या अमर-नायक को उसका संरक्षक अथवा प्रतिशासक (रोजेंट) नियुक्त कर देता था। सालुव नरसिंह ने अपने पुत्रों की देखभाल के लिए अपने सेनानायक तुलुव नरसा नायक को नियुक्त किया था। अच्युतदेव राय के बाद उसके बेटे प्रथम वेंकट के अल्पवयस्क होने के कारण उसके मामा सलकराजु तिरुमल को संरक्षक नियुक्त किया गया था। संरक्षक की नियुक्ति के विरोध के भी उदाहरण मिलते हैं। बाद में यह संरक्षक व्यवस्था विजयनगर के लिए हानिकर सिद्ध हुई।

राजपरिषद्

यद्यपि विजयनगर साम्राज्य में राजा ही राज्य का सर्वप्रभुतासंपन्न एवं सर्वाेच्च अधिकारी होता था, किंतु उसकी सहायता के लिए कई परिषदें गठित की गई थीं। इनमें राजपरिषद् भी एक थी जो राजा की स्वेच्छाचारिता पर एक निश्चित सीमा तक नियंत्रण रखती थी। राजा स्वयं इस राजपरिषद् का सदस्य होता था। वह राजपरिषद् की सलाह से राजाज्ञाएँ जारी करता था। राजा के चयन, अभिषेक तथा राज्य-प्रशासन के सुचारु रूप से संचालन में यह राजपरिषद् महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थी।

मंत्रिपरिषद्

राजा को प्रशासनिक कार्यों में सलाह एवं सहयोग देने के लिए एक ‘मंत्रिपरिषद्’ (कौंसिल ऑफ मिनिस्टर्स) होती थी। विजयनगर में मंत्रिपरिषद् में ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य वर्ग के कुल बीस सदस्य होते थे, जिनकी आयु 50 से 70 वर्ष के बीच होती थी। विजयनगरकालीन मंत्रिपरिषद् की तुलना कौटिल्य के मंत्रिपरिषद् के साथ की जा सकती है।

मंत्रियों की बैठक एक सभाभवन में होती थी, जिसे वेंकटविलासमानप कहा जाता था। मंत्रिपरिषद् का मुख्य अधिकारी ‘महाप्रधानअथवा प्रधान होता था, लेकिन इसकी अध्यक्षता ‘सभानायक’ करता था। मंत्रिपरिषद् में महाप्रधान अथवा प्रधान के अलावा मंत्री, उपमंत्री, विभागों के अध्यक्ष तथा राज्य के विशेष निकट-संबंधी सम्मिलित होते थे। मंत्रियों का चयन नहीं होता था, बल्कि उन्हें राजा द्वारा नामित किया जाता था। कभी-कभार मंत्री पद आनुवंशिक भी होता था, लेकिन यह सामान्य नियम नहीं था। यद्यपि शासकीय कार्यों के संचालन में मंत्रिपरिषद् की महत्वपूर्ण भूमिका होती थी, किंतु राजा मंत्रिपरिषद् की सलाह को मानने के लिए बाध्य नहीं था।

प्रधान या महाप्रधानी

मंत्रिपरिषद् का प्रमुख अधिकारी ‘प्रधान’ या ‘महाप्रधान’ होता था। इसकी स्थिति प्रधानमंत्री जैसी थी। इसकी तुलना मराठाकालीन पेशवा से की जा सकती है। कभी-कभी महाप्रधान भी मंत्रिपरिषद् की अध्यक्षता करता था।

केंद्रीय सचिवालय

शासकीय कार्यों के सफल संचालन के लिए केंद्र में एक संगठित सचिवालय की व्यवस्था थी, जिसमें विभिन्न कार्यों के लिए अलग-अलग विभागों का वर्गीकरण किया गया था। अब्दुर रज्जाक तथा नुनिज दोनों ने सचिवालय की ओर संकेत किया है। अब्दुर रज्जाक ने सचिवालय का वर्णन दीवानखाना के रूप में किया है। यह सचिवालय संभवतः तेलुगु नामक ब्राह्मणों की एक नई उपजाति से नियंत्रित होता था। सचिवालय में रायसम् तथा कर्णिकम् (लेखाकार) जैसे मुख्य अधिकारी थे। रायसम (सचिव) राजा के मौखिक आदेशों को लिपिबद्ध करता था, जबकि ‘कर्णिकम’ (एकाउंटेंट) सचिवालय से संबद्ध केंद्रीय कोषागार का अधिकारी होता था।

दंडनायक

केंद्र में ‘दंडनायक’ नामक उच्च अधिकारी होता था। किंतु यह पद पद-बोधक न होकर विभिन्न अधिकारियों की विशेष श्रेणी को इंगित करता था। दंडनायक का अर्थ ‘प्रशासन का प्रमुख’ और ‘सेनाओं का नायक’ होता था। कहीं-कहीं मंत्रियों को भी दंडनायक की उपाधि दी जाती थी। दंडनायक को न्यायाधीश, सेनापति, गर्वनर या प्रशासकीय अधिकारी का कार्यभार सौंपा जा सकता था।

कुछ अन्य महत्वपूर्ण अधिकारियों को ‘कार्यकर्ता’ कहा जाता था जो संभवतः प्रशासनिक अधिकारियों की ही एक श्रेणी होती थी। शाही मुद्रा रखने वाला अधिकारी ‘मुद्राकर्ता’ कहा जाता था। रत्नों की रक्षा करने वाले अधिकारी, व्यापार का निरीक्षण करने वाले अधिकारी, पुलिस अध्यक्ष, राजा के स्तुति-गायक भाट, तांबूलवाहिनी, दिनपत्री प्रस्तुत करने वाले, नक्काशी करने वाले तथा अभिलेखों के रचयिता आदि कुछ अन्य अधिकारी भी यहाँ नियुक्त होते थे।

विजयनगर के शासक अपनी राजधानी में भव्य दरबार का आयोजन करते थे, जिसमें मंत्री, नायक, प्रांतपति, पुरोहित, साहित्यक, ज्योतिषी, भाट, तांबूलवाहिनी तथा गायक आदि सभी उपस्थित रहते थे। राजदरबार में नवरात्र और महारामनवमी जैसे त्यौहार बड़ी शानो-शौकत से मनाये जाते थे।

विजयनगर का वैभव

विजयनगर की यात्रा करने वाले प्रायः सभी विदेशी यात्रियों जैसे- निकोलो कोंटी, अब्दुर रज्जाक, डेमिंगो पायस, फर्नाओ नुनिज ने विजयनगर शहर की समृद्धि की प्रशंसा की है। यद्यपि 1565 ई. में तालीकोटा युद्ध के बाद इस नगर की शान-शौकत को काफी कुछ नष्ट कर दिया गया था, फिर भी बचे-खुचे अवशेष विजयनगर के अतीत के वैभव की कहानी कहते हैं।

वास्तव में पंद्रहवीं तथा सोलहवीं सदियों में विजयनगर शहर विशाल दुगों से घिरा एक बृहदाकार नगर था। इटली के यात्री निकोली कोंटी ने लिखा है कि नगर की परिधि साठ मील है। इसकी दीवारें पहाड़ों तक चली गई हैं तथा उनके अधोभाग में घाटियों को परिवेष्टित करती हैं, जिससे इसका विस्तार बढ़ जाता है। अनुमान है कि इस नगर में अस्त्र धारण करने योग्य नब्बे हजार सैनिक हैं। राजा भारत के सभी अन्य राजाओं से अधिक शक्तिशाली है। फ़रिश्ता भी लिखता है कि ‘बहमनी वंश के राजकुमार सिर्फ़ दिलेरी के बल पर अपनी श्रेष्ठता बनाये हुए हैं, अन्यथा शक्ति, समृद्धि और क्षेत्रफल में बीजानगर (विजयनगर) के राजा उनसे कहीं बढ़कर हैं।’

फ़ारस के यात्री अब्दुर रज्जाक (1442-1443 ई.) ने देवराय द्वितीय के समय में विजयनगर की यात्रा की थी। अब्दुर रज्जाक ने विजयनगर के संबंध में लिखा है कि यह नगर संसार के देखे और सुने नगरों में सबसे भव्य है। नगर का घेरा लगभग 165,75 किमी (64 मील) था। इसमें सात किले बने थे और सभी सुदृढ़ रक्षा-प्राचीरों से घिरे हुए थे। इनमें तीन आहातों में कृषि-योग्य जमीनें थीं। अंदर के चार आहातों में मुख्य नगर बसा हुआ था। राजकीय प्रासाद मध्य में स्थित था। प्रासाद के पास ही चार बाज़ार हैं जो बहुत ही लंबे-चौड़े थे। रज्जाक के अनुसार राजा के कोष में गड्ढेयुक्त प्रकोष्ठ थे, जो पिघले हुऐ सोने की सिल्लियों से भरे थे। देश के सभी निवासी चाहे ऊँच हों अथवा नीच, यहाँ तक कि बाजार के शिल्पकार भी अपने कानों, गलों, बाँहों, कलाइयों तथा अंगुलियों में जवाहरात एवं सोने के आभूषण पहनते थे। पुर्तगाल के डोमिंगो पायस ने इस नगर के सुदृढ़ दुर्गीकरण, द्वारों, गलियों एवं राजमार्गों, सिंचाई के साधनों, उपवनों, बाजारों तथा मंदिरों की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। पायस के अनुसार ‘यह नगर रोम नगर के समान था तथा राजा का प्रासाद लिस्बोन के सभी महलों से बड़ा था।’ उसने लिखा है कि इसके राजा के पास भारी खजाना है। उसके पास बहुत सैनिक एवं बहुत हाथी हैं, क्योंकि ये इस देश में बहुतायत से मिलते हैं। इस नगर में आपको प्रत्येक राष्ट्र एवं जाति के लोग मिलेंगे, क्योंकि यहाँ बहुत व्यापार होता है और बहुत-से बहुमूल्य पत्थर मुख्यतः हीरे पाये जाते हैं। यह संसार का सबसे संपन्न नगर है। ……..गलियाँ तथा बाजार अनगिनत लदे हुए बैलों से भरे रहते हैं।

प्रांतीय प्रशासन

प्रशासनिक सुविधा के लिए विजयनगर साम्राज्य कई प्रांतों में विभाजित था, जिन्हें ‘राज्यया मंडलया चावडीया पिर्थिक’ (कर्नाटक में) कहा जाता था। बड़े राज्यों को महाराज्य कहा जाता था। प्रंतों के भी छोटे-छोटे भाग थे, जिन्हें तमिल प्रदेशों में कोट्टम’ (कुर्रम), ‘नाडु’ या ‘वलनाडु’ ‘मेलाग्राम’ (ग्राम समूह) कहा जाता था। कर्नाटक प्रांत में प्रांत के प्रशासकीय खंडों और उपखंडों के नाम तमिल प्रदेशों से भिन्न थे। वहाँ प्रांत को ‘वेथ’, ‘सीमा’, ‘स्थलऔर वलित में विभाजित किया गया था। कुछ विद्वानों का विचार है कि मंडल प्रांत से बड़ी इकाई थे।

विजयनगर साम्राज्य में प्रशासन की सबसे बड़ी इकाई प्रांत (मंडल) थे। प्रांतों की संख्या सदैव एक नहीं रहती थी। किंतु कृष्णदेव राय के शासनकाल में प्रांतों की संख्या सर्वाधिक छः थी, जबकि डेमिंगो पायस ने 200 प्रांतों का उल्लेख किया है। संभवतः पायस ने कर या उपहार आदि देने वाले सभी जागीरदारों, अमर-नायकों और प्रशासकों को प्रांतीय शासक मान लिया है। प्रांतों के विभाजन में सैनिक दृष्टिकोण को विशेष महत्व दिया जाता था। सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण और सुदृढ़ दुर्ग से युक्त प्रदेश को प्रांत बनाया जाता था। प्रांतो का सीमाएँ तात्कालिक प्रशासनिक आवश्यकताओं के अनुसार परिवर्तित होती रहती थीं। ऐसा साम्राज्य के उत्तरी प्रांतों के साथ अकसर होता रहता था क्योंकि ये प्रदेश विजयनगर और मुस्लिम सुल्तानों के अधिकार में आते-जाते रहते थे।

सामान्यतः प्रांतों में राजपरिवार के किसी सदस्य (कुमार या राजकुमार) या प्रभावशाली दंडनायक को ही प्रशासक नियुक्त किया जाता था, जिन्हें मंडलेश्वर, नाडा, नायक तथा महामंडेलश्वर कहा जाता था। प्रांतीय प्रशासकों को अपने-अपने प्रांतों के भीतर प्रशासनिक मामले में पर्याप्त स्वायत्तता प्राप्त थी। उन्हें प्रांत में अधिकारियों की नियुक्ति करने, आवश्यकतानुसार नये कानून बनाने, मुद्रा प्रवर्तित करने, कर वसूल करने, नये कर लगाने, पुराने कर को समाप्त करने एवं भूमिदान देने आदि की स्वतंत्रता प्राप्त थी। प्रांतपतियों का मुख्य दायित्व प्रांत की जनता का हित तथा कानून-व्यवस्था को सुदृढ़ बनाये रखना था। प्रांत के गर्वनर को भू-राजस्व का एक निश्चित अंश केंद्रीय सरकार को देना होता था और आवश्यकता पड़ने पर केंद्रीय सरकार को सैनिक सहायता भी देनी हो़ती थी। यदि वह अपनी आय का तिहाई भाग राज्य (केंद्र) के पास नहीं भेजता था, तो राज्य (केंद्र) उसकी संपत्ति जब्त कर सकता था।

प्रांतीय प्रशासकों का कार्यकाल उनकी सामरिक दक्षता, केंद्रीय शासक के प्रति स्वामिभक्ति तथा प्रशासनिक योग्यता पर निर्भर करता था, किंतु उसके विश्वासघाती सिद्ध होने अथवा प्रजा का शोषण एवं उत्पीड़न की शिकायत मिलने पर राजा प्रांतपति को पदच्युत् कर सकता था। सामान्यतः प्रांतपति शक्तिशाली राजाओं के शासनकाल में केंद्रीय सत्ता के प्रति स्वामिभक्त बने रहते थे, किंतु केंद्रीय शक्ति के क्षीण होते ही वे अपनी स्वतंत्रता घोषित करने से भी नहीं चूकते नहीं थे।

अमर-नायक (नायंकर प्रणाली)

विजयनगर साम्राज्य की प्रांतीय व्यवस्था का सबसे महत्वपूर्ण विशेषता अमर-नायक प्रणाली थी, जिसे ‘नायंकर प्रणाली कहा गया है। यद्यपि अमर-नायक प्रणाली विजयनगर साम्राज्य की एक प्रमुख राजनीतिक खोज मानी जाती है, कितु ऐसा लगता है कि इस प्रणाली के कई तत्व दिल्ली सल्तनत की इक्ता प्रणाली से लिये गये थे। इसकी उत्पत्ति के संबंध में कुछ इतिहासकारों का मानना है कि विजयनगर साम्राज्य में सेना-प्रमुख को ही ‘नायक’ कहा जाता था जो सामान्यतः किलों पर नियंत्रण रखते थे और जिनके पास सशस्त्र सैनिक होते थे। कुछ दूसरे इतिहासकारों का मानना है कि नायक वास्तव में भू-सामंत होते थे, जिन्हें वेतन और सेना के रख-रखाव के लिए एक विशेष भू-खंड, जिसे अमरम्’ (अमरमकारा या अमरमहली) कहा जाता था, दिया जाता था।

डी.सी. सरकार का विचार है कि यह एक प्रकार की जमींदारी प्रथा थी, जिसमें राजा की सैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अमर-नायकों को जमीन दी जाती थी। नीलकंठ शास्त्री के अनुसार विजयनगर साम्राज्य में नायंकरों के इतिहास में एक विभाजक रेखा है। 1565 ई. के पहले के नायंकर एक प्रकार के सैनिक मुखिया थे, जबकि 1565 ई. के बाद के नायंकर एक प्रकार से अर्ध-स्वतंत्र हो गये।

वस्तुतः नायक सैनिक होते थे जिन्हें सैनिक सेवा के बदले पद दिया जाता था और ‘अमर-नायक’ ऐसे सैनिक कमांडर होते थे, जिनके अधीन निश्चित संख्या में सैनिक रहते थे और जिन्हें राय द्वारा वेतन के बदले एक प्रकार का राज्य-क्षेत्र दिया जाता था, जिसे ‘अमरम्’ कहा जाता था। अमर-नायक अपने राज्य-क्षेत्र के किसानों, शिल्पकर्मियों तथा व्यापारियों से भू-राजस्व तथा अन्य कर वसूल करते थे और राजस्व का कुछ भाग व्यक्तिगत उपयोग तथा अपनी निर्धारित सेना के रख-रखाव के लिए अपने पास रखकर शेष हिस्सा केंद्रीय सरकार को भेज देते थे। सामान्यतः नायकों की सेना की संख्या तथा केंद्र को भेजे जाने वाले राजस्व के अंश का निर्धारण अमरम् भूमि के आकार (क्षेत्रफल) के आधार पर किया जाता था। फर्नाओ नुनिज के अनुसार भू-सामंतों को 120 लाख की आमदनी होती थी और इसमें से वह 60 लाख राजा को देता था। सोलहवीं शती ई. के मध्य में ऐसे अमरनायकों की संख्या लगभग 200 तक पहुँच गई थी।

अमर-नायक को अमरम् राज्य-क्षेत्र में शांति, सुरक्षा एवं अपराधों को रोकने के दायित्व का भी निर्वाह करना होता था। इसके अतिरिक्त, उन्हें जंगलों को साफ़ करवाना एवं कृषि-योग्य भूमि का विस्तार भी करना होता था। अमर-नायकों (नायंकारों) के आंतरिक मामलों में राजा हस्तक्षेप नहीं करता था। केंद्रीय राजधानी में नायक का प्रतिनिधित्व करने के लिए दो अधिकारी होते थे- एक तो नायक की सेना का सेनापति और दूसरा संबंधित नायक का एक प्रशासनिक अभिकर्ता, जिसे ‘स्थानपति’ कहा जाता था। अमर-नायक वर्ष में एक बार राजा को भेंट भेजा करते थे और अपनी स्वामिभक्ति प्रकट करने के लिए समय-समय पर राजकीय दरबार में उपहारों के साथ स्वयं उपस्थित हुआ करते थे।

राजा कभी-कभी नायंकारों को एक से दूसरे स्थान पर स्थानांतरित कर उन पर अपना नियंत्रण दर्शाता था। अच्युतदेव राय ने अमर-नायकों की उदंडता पर नियंत्रण रखने के लिए एक विशेष अधिकारी महामंडलेश्वर (विशेष कमिश्नर) की नियुक्त की थी। किंतु इन नायकों के पद धीरे-धीरे आनुवांशिक होते गये और सत्रहवीं शताब्दी में इनमें से कई नायकों ने अपने स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिये। कालांतर में वित्तीय और सैनिक साधनों की दृष्टि से सुदृढ़ अमर नायक केंद्रीय नेतृत्व के अक्षम होने पर स्वतंत्र होने तथा अपने शासित क्षेत्रों के विस्तार के लिए आपस में ही लड़ने लगे। इसका परिणाम यह हुआ कि जो तेलुगु नायक विजयनगर साम्राज्य की सैनिक शक्ति के मूल आधार थे, वहीं उसके प्रतिद्वंद्वी बन गये। इस प्रकार नायंकर प्रणाली प्रशासनिक दृष्टि से चाहे जितनी भी उपयोगी रही हो, आगे चलकर केंद्रीय ढाँचे के विघटन का एक प्रमुख कारण सिद्ध हुई।

कुछ इतिहासकार प्रांतीय व्यवस्था और नायंकर-व्यवस्था में कोई भेद नहीं मानते। किंतु जहाँ प्रांतीय शासक या गवर्नर अपने प्रांत में राजा प्रतिनिधि होता था और राजा के नाम पर शासन करता था। वहीं इसके विपरीत अमर-नायक मात्र एक सैनिक सामंत होता था और वित्तीय दायित्वों के निर्वहन के लिए उसे विशेष भू-क्षेत्र अमरम् दिया जाता था। प्रांतपतियों की अपेक्षा नायंकरों को अपने अमरम् में अधिक स्वायत्तता प्राप्त थी और सामान्यतः राजा इनके आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करता था। प्रांतीय गवर्नरों की अपेक्षा नायंकरों के दायित्व भी अधिक थे। जंगलों को साफ करना, कृषि-योग्य भूमि का विस्तार करना और कृषि की रक्षा करना इनका प्रमुख दायित्व था। प्रांतीय गवर्नर प्रायः ब्राह्मण होते थे, लेकिन ब्राह्मण नायकों के उदाहरण बहुत कम मिलते हैं। सिद्धांततः अमर-नायकों की जागीरें उनके वंशजों को नहीं मिलती थी, लेकिन व्यवहारतः धीरे-धीरे यह पद भी आनुवंशिक हो गया। प्रांतीय गवर्नरों के पदों को आनुवंशिक होने के प्रमाण नहीं मिलते हैं।

स्थानीय प्रशासन

विजयनगर साम्राज्य में प्रशासकीय सुविधा के लिए राज्य का विभाजन किया गया था। प्रायः तमिल प्रदेशों में प्रांत अथवा ‘मंडल’ का विभाजन जिलों में किया गया था, जिन्हें ‘कोट्टम’ (कुर्रम) कहा जाता था। कोट्टम को तालुकों या परगनों में बाँटा गया था, जिन्हें जिन्हें ‘नाडुया वलनाडु कहते थे। नाडुओं का विभाजन ‘एैयमबद मेलाग्राम’ (ग्राम समूह) में किया गया था। प्रत्येक मेलाग्राम में 50-50 ‘उर’ या गाँव होते थे। कर्नाटक प्रांत में प्रांत के प्रशासकीय खंडों और उपखंडों के नाम तमिल प्रदेशों से भिन्न थे। वहाँ प्रांत को ‘वेथमें, वेथ को सीमामें, सीमा को स्थलमें और स्थल को वलित’ में विभाजित किया गया था। प्रशासन की सबसे छोटी इकाई उरअथवा गाँव थे, जो आत्मनिर्भर थे।

ग्राम सभाएँ

चोल-चालुक्य काल के समान विजयनगर साम्राज्य युग में भी ऊर, सभा तथा नाडु नामक स्वायत्तशासी संस्थाएँ प्रचलित थीं। विजयनगरकालीन स्थानीय प्रशासन के संदर्भ में भी इन सभाओं का उल्लेख मिलता है, जिन्हें कहीं-कहीं महासभा, ऊर तथा महाजन सभा कहा जाता था। उदाहरण के लिए कावेरीपत्तम की सभा को महासभा और आगरमपुत्तूर की ग्रामसभा को महाजन सभा कहा गया है।

गाँव की सभा (ग्राम पंचायत) में स्थानीय समस्याओं पर विचार-विमर्श के लिए गाँव या क्षेत्र-विशेष के लोग भाग लेते थे। नई भूमि या अन्य प्रकार की संपत्ति उपलब्ध कराने, गाँव की सार्वजनिक भूमि को बेचने, गाँव की भूमि को दान में देने के लिए ग्राम सभा को सामूहिक निर्णय लेने का अधिकार था। राजकीय कर संग्रह करना तथा भू-आलेखों को तैयार रखना भी इनका कर्तव्य था। ग्रामसभा के पास दीवानी एवं फ़ौजदारी के छोटे-छोटे मामलों में निर्णय करने का अधिकार भी था। यदि कोई भूस्वामी लंबे समय तक लगान नहीं दे पाता था, तो ग्राम सभाएँ उसकी ज़मीन जब्त कर सकती थीं। सार्वजनिक दानों और ट्रस्टों (न्यासों) की व्यवस्था भी यही ग्राम सभाएँ देखती थीं।

ग्राम अधिकारी

यद्यपि गाँव के प्रशासन के लिए ग्रामसभा (पंचायत) उत्तरदायी थी, किंतु समकालीन अभिलेखों में अनेक ग्राम अधिकारियों का उल्लेख मिलता है। ‘परुपत्यागर’ नामक अधिकारी किसी स्थान विशेष पर राजा या गवर्नर का प्रतिनिधि होता था। ‘अधिकारी’ नामक एक अन्य सम्मानित अधिकारी प्रायः सभी गाँवों और नगरों में नियुक्त किया जाता था। ‘अत्रिमार’ नामक अधिकारी ग्रामसभाओं और अन्य स्थानीय संगठनों की गतिविधियों पर नियंत्रण रखता था। ‘नत्तुनायकर’ संभवतः नाडुओं का अधीक्षक होता था। ‘स्थल गौडिक’ नामक अधिकारी किलों के निर्माण-संबंधी कार्यों की देखभाल करता था। ‘मध्यस्थ’ भूमि के क्रय-विक्रय से संबंधित अधिकारी था। ‘सेनतेओवा’ गाँव का हिसाब-किताब रखता था, जबकि ‘तलर’ गाँव का पहरेदार अथवा कोतवाल था। ‘बेगरा’ नामक कर्मचारी गाँव में बेगार एवं मज़दूरी आदि की देखभाल करता था और ‘निरानिक्कर’ (वाटरमैन) सिंचाई चैनलों की देखरेख करता था। गाँव के इन अधिकारियों का वेतन भूमि के रूप में अथवा कृषि की उपज के एक अंश के रूप में मिलता था। गाँव के इन अधिकारियों का वेतन भूमि के रूप में अथवा कृषि की उपज के एक अंश के रूप में मिलता था।

आयंगार व्यवस्था

विजयनगर प्रशासन की एक अन्य प्रमुख विशेषता उसकी आयंगार व्यवस्था थी। आयंगार व्यवस्था मूलतः गाँवों के प्रशासन से संबंधित थी। यह व्यवस्था भी नायंकर व्यवस्था की भांति संभवतः विजयनगर के शासकों की अपनी खोज थी। आयंगार व्यवस्था के अंतर्गत प्रत्येक ग्राम एक स्वतंत्र इकाई के रूप में संगठित किया गया था और इन संगठित ग्रामीण इकाइयों के प्रशासनिक संचालन के लिए बारह प्रशासकीय अधिकारियों का एक समूह नियुक्त किया गया था, जिन्हें सामूहिक रूप से ‘आयंगार’ कहा जाता था। आयंगारों एक प्रकार के ‘ग्राम-सेवक’ माना जा सकता है जिसमें समाज के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व होता था। यद्यपि आयंगारों की नियुक्ति केंद्रीय सरकार करती थी और ये अवैतनिक होते थे, किंतु इनकी सेवाओं के बदले इन्हे गाँव में लगान-मुक्त भूमि दी जाती थी। बाद में आयंगार का पद अनुवांशिक हो गया था जिससे वे अपने पदों को गिरवी रख सकते थे अथवा बेच सकते थे।

आयंगारों का प्रमुख कार्य लगान की वसूली, गाँव की जमीन की खरीद-फरोख्त, दान एवं हस्तांतरण आदि पर नियंत्रण रखना था। इन अधिकारियों (आयंगारों) की अनुमति के बगैर ग्राम स्तर की कोई भी संपत्ति या भूमि न तो बेची जा सकती थी, और न ही दान दी जा सकती थी। ज़मीन के क्रय-विक्रय से संबंधित समस्त दस्तावेज आयंगर के पास ही रहते थे। अपने अधिकार क्षेत्र में शांति एवं सुरक्षा बनाये रखने की जिम्मेदारी इन्हीं आयंगारों पर थी। ‘कर्णिक’ (लेखाकार) नामक अधिकारी जमीन की खरीद-फरोख्त की लिखा-पढ़ी करता था। विजयनगर के राजा ‘महानायकाचार्य’ नामक अधिकारी द्वारा गाँव के प्रशासन से अपना संबंध बनाये रखते थे। वस्तुतः विजयनगर के शासकों ने आयंगार व्यवस्था की स्थापना कर एक प्रकार से स्थानीय स्वशासन का गला घोंट दिया था।

अर्थव्यवस्था और आर्थिक जीवन

प्रायः सभी स्रोतों से पता चलता है कि विजयनगर साम्राज्य में असीम समृद्धि थी। इस साम्राज्य की यात्रा करने वाले विभिन्न विदेशी यात्रियो, जैसे-इटली के निकोली कोंटी, पुर्तगाल के डोमिंगो पायस तथा फारस के अब्दुर रज्जाक ने विजयनगर की समृद्धि की बड़ी प्रशंसा की है। प्रायः सभी विदेशी यात्रियों के विवरणों से ज्ञात होता है कि उच्च वर्ग के लोगों के रहन-सहन का स्तर बहुत ऊँचा था। वास्तव में विजयनगर की समृद्धि का मूल कारण समुन्नत कृषि, व्यापार-वाणिज्य और उद्योग था।

कृषि-व्यवस्था और भू-स्वामित्व

विजयनगर की समृद्धि का मुख्य आधार कृषि-व्यवस्था थी। नुनिज के अनुसार समस्त भूमि पर राजा का अधिकार होता था, जिन्हें वह अपने नायकों व सरदारों को दे देता था। नायक व सरदार इस भूमि को कृषकों को दे देते थे। किंतु विभिन्न स्रोतों से पता चलता है कि विजयनगर में भू-उपयोग के आधार पर कई प्रकार के भू-स्वामित्व का प्रचलन था। ‘भंडारवाड ग्राम ऐसे गाँव थे, जिनकी भूमि राज्य के सीधे नियंत्रण में होती थी। इन गाँवों के किसान नियत भू-राजस्व देते थे। ‘मान्य भूमिभूमि ब्राह्मणों, मंदिरों या मठों को दान में दी जाती थी जो पूरी तरह करमुक्त होती थी। ब्राह्मणों को दान में दी गई भूमि ‘ब्रह्मदेय’ तथा मंदिरों को दान में दी गई भूमि ‘देवदेय’ कहलाती थी। मंदिरों पास सुरक्षित भूमि को देवदान अनुदान कहा जाता था। मठों को दान में दी गई करमुक्त भूमि ‘मठीपुर’ कहलाती थी।

नायकों को उनके वेतन और उनकी सेना के रख-रखाव के लिए दी गई भूमि ‘अमरम’ कहलाती थी। गाँव को कुछ विशेष सेवाओं के बदले दी जाने वाल करमुक्त भूमि को ‘उंबलि’ कहते थे। युद्ध में शौर्य-प्रदर्शन करनेवालों को दी जानेवाली भूमि को ‘रक्त (खत्त) कौड़गै’ कहा जाता था। ब्राह्मणों अथवा बड़े भू-स्वामियों द्वारा खेती के लिए किसानों को पट्टे पर दी जाने वाली भूमि कुट्टगि कही जाती थी। कुट्टगि लेने वाले पट्टेदारों को कुछ विशेष शर्तों का निर्वाह करना पड़ता था। उदाहरणार्थ इसे उपज का निश्चित अंश नकद या जिंस के रूप में कुट्टगि-भूस्वामी को देना पड़ता था और उसकी इच्छानुसार फसल की बुआई करनी पड़ती थी। पट्टेदार और भूस्वामी के बीच उपज की हिस्सेदारी को ‘वारम व्यवस्था कहते थे। कृषि-मजदूरों को ‘कुदि’ कहा जाता था। वास्तव में ‘कुदि’ ऐसे खेत मज़दूर होते थे, जो भूमि के क्रय-विक्रय के साथ ही हस्तांतरित हो जाते थे, किंतु उन्हें इच्छापूर्वक कार्य से विलग नहीं किया जा सकता था।

जलापूर्ति एवं सिंचाई

विजयनगर साम्राज्य में न तो सिंचाई का कोई विभाग था, न ही राज्य की ओर से इस दिशा में कोई विशेष प्रयास किया जाता था। फिर भी, सिंचाई के मुख्य साधन तालाब, बाँध तथा नहर थे। विदेशी यात्रियों के विवरणों और समकालीन अभिलेखों से ज्ञात होता है कि सिंचाई की सुविधा के लिए साम्राज्य के विभिन्न हिस्सों में नये तालाबों का निर्माण और पुराने तालाबों के विवर्द्धन व जीर्णोद्धार करवाया गया था। तुंगभद्रा नदी के पास उपजाऊ कृषि क्षेत्रों की सिंचाई के लिए नदी के पानी को टैंकों तक ले जाने के लिए बड़े-बड़े बाँध बनाकर नहरें खोदी गई थीं। विजयनगर प्रशासन कुंओं की खुदाई को भी प्रोत्साहित करता था, जिसकी निगरानी प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा की जाती थी।

सिंचाई के साधनों के विकास में मंदिर, मठ तथा व्यक्तिगत लोग तथा संस्था का ही योगदान था। इस समय सिंचाई के साधन उपलब्ध कराना धर्मकार्य समझा जाता था और ऐसा करने वाले को राज्य की ओर से करमुक्त भूमि दी जाती थी। सिंचाई के साधनों की रक्षा तथा व्यवस्था की जिम्मेदारी सामुदायिक थी। उत्खनन में प्राप्त जल-वितरण प्रणाली के अवशेषों से पता चलता है कि राजधानी शहर में जल की आपूर्ति और उसके संरक्षण के लिए एक विकसित जल-आपूर्ति प्रणाली थी। राजधानी शहर में बड़े टैंकों का निर्माण राज्य की ओर से किया गया था, जबकि छोटे टैंकों का निर्माण सामाजिक और धार्मिक लोगों द्वारा ही करवाया गया था।

प्रमुख उपजें

साम्राज्य की अर्थव्यवस्था काफी हद तक कृषि पर निर्भर थी। समय-समय पर राज्य की ओर से भूमि की पैमाइश कराई जाती थी, लेकिन पूरे साम्राज्य में यह समान व्यवस्था न थी। संपूर्ण भूमि मुख्यतः दो वर्गों में विभाजित थी-(1) सिंचित तथा (2) असिंचित या शुष्क। गीली भूमि को ‘नन्जाई’ कहा जाता था। सिंचित भूमि में दो या तीन फसलें ली जाती थीं। अनाजों में चावल, दालें, चना तथा तिलहन मुख्य रूप से उगाये जाते थे। चावल मुख्य उपज थी, जो दो प्रकार का होता था- सफेद और काला। कुरवाईभी एक प्रकार का चावल था। सुपारी, (चबाने के लिए) और नारियल प्रमुख नकदी फसलें थीं। कपास का उत्पादन बड़े पैमाने पर होता था जिससे कपड़ा उद्योग के लिए धागे की आपूर्ति आसानी से हो जाती थी। नारियल तो तटवर्ती प्रदेशों की प्रमुख उपज थी। नील तथा ईख की भी खेती होती थी। इसके अतिरिक्त, हल्दी, काली मिर्च, इलायची और अदरक जैसे मसाले सुदूर मलनाड पहाड़ी क्षेत्र में उगाये जाते थे। फल-फूल और बागवानी की खेती भी बड़े पैमाने पर होती थी। अब्दुर रज्जाक ने विजयनगर में बड़ी संख्या में गुलाब के व्यापारियों को देखा था।

किसानों की स्थिति

विजयनगर साम्राज्य में किसानों की आर्थिक स्थिति पर इतिहासकार एक मत नहीं है। किंतु माना जाता है कि सामान्य नागरिक की आर्थिक स्थिति लगभग पहले जैसी ही रही। उनके मकान मिट्टी और फूस के थे, जिनके दरवाज़े भी छोटे थे। वे अक्सर नंगे पाँव चलते थे और कमर के ऊपर कुछ भी नहीं पहनते थे। सोलहवीं शताब्दी का यात्री निकितिन कहता है कि ‘देश में जनसंख्या बहुत अधिक है, लेकिन ग्रामीण बहुत ग़रीब हैं, जबकि सामंत समृद्ध हैं और ऐश्वर्यपूर्ण जीवन का आनंद उठाते हैं।’

राजस्व-व्यवस्था

विजयनगर के शासक राज्य के सात अंगों में कोष को ही प्रधान समझते थे। इसका एक प्रमुख कारण तत्कालीन राजनैतिक परिस्थिति थी क्योंकि विजयनगर को बार-बार बहमनी के सुलतानों और उड़ीसा के गजपतियों के आक्रमणों का सामना करना पड़ता था। फलतः विजयनगर के शासकों ने हरसंभव स्रोत से राजकीय कोष को समृद्ध करने का प्रयास किया।

भूमिकर

विजयनगर की राजकीय आय का प्रधान स्रोत भूमिकर था, जिसे ‘शिष्ट’ कहा जाता था। भू-राजस्व से संबंधित विभाग को ‘अथवन’ (अस्थवन) कहा जाता था। राज्य के राजस्व की वसूली उपज (जिंस) एवं नकद दोनों रूपों में की जाती थी। नगद राजस्व को ‘सिद्धदाय’ (सद्दम) कहा जाता था।

विजयनगर के शासकों ने विभेदकारी कर-पद्धति (भूमि की सापेक्ष उर्वरता के अनुसार कर) अपनाई और संपूर्ण भूमि की पैमाइश करवाई। विजयनगर में संपूर्ण भूमि को चार श्रेणियों में विभाजित किया गया था, जैसे- सिंचित भूमि, असिंचित भूमि, वन और जंगल। यद्यपि भू-उपयोग की स्थिति, भूमि की उर्वरता तथा उस पर उगाई जाने वाली फसल के आधार पर जमीन का वर्गीकरण करके भू-राजस्व की दर निर्धारित की जाती थी, किंतु भू-राजस्व के निर्धारण में भूमि में होने वाली उपज और उसकी किस्म का सर्वाधिक महत्व था।

यद्यपि भू-राजस्व की दर भूमि की उत्पादकता एवं उसके भू-उपयोग के अनुसार तय की जाती थी, किंतु अनाज, भूमि, सिंचाई के साधनों के अनुसार लगान की दर अलग-अलग होती थी। नूनिज का यह कहना सही नहीं है कि किसानों को अपनी उपज का दसवाँ भाग कर के रूप में देना पड़ता था। एक आलेख के अनुसार करों की दर संभवतः इस प्रकार थी-सर्दियों में चावल की एक किस्म ‘कुरुबाई का 1/3 भाग, सीसम, रागी और चने आदि का 1/4 भाग, ज्वार और शुष्क भूमि पर उत्पन्न होने वाले अन्य अनाजों का 1/6 भाग भूराजस्व लिया जाता था। नीलकंठ शास्त्री भी मानते हैं कि आमतौर पर राजस्व परंपरागत षष्टांश (1/6) से सकल उपज के आधे (1/2) भाग तक होता था। किंतु कुछ इतिहासकारों का विचार है कि विजयनगर शासकों को बहमनी सुल्तानों और गजपतियों की शत्रुता के कारण एक विशाल सेना रखनी पड़ती थी, इसलिए सैनिक आवश्यकता के कारण यहाँ भूमिकर की दर कुछ अधिक थी। सैन्य खर्चों को पूरा करने के लिए ब्राह्मणों तथा मंदिरों के स्वामित्व वाली भूमि पर उपज का क्रमशः मात्र बीसवाँ (1/20) तथा तीसवाँ भाग (1/30) ही ‘शिष्ट’ (लगान) वसूल किया जाता था। तेलुगु जिलों में मंदिर कर को ‘श्रोत्रिय’ कहा जाता था, तमिल भाषी जिलों में इसे ‘जोड़ी’ कहा जाता था। संभवतः कभी-कभार सैनिकों के रख-रखाव के लिए सैनिक कर भी वसूल किया जाता था।

सिंचाई कर: राजकीय आय का एक अन्य प्रमुख स्रोत था- सिंचाई कर। सिंचाई कर उन किसानों से लिया जाता था, जो सिंचाई के साधनों का उपयोग करते थे। सामान्यतः राज्य की ओर से सिंचाई का कोई अलग विभाग नहीं था, किंतु कृष्णदेव राय जैसे कुछ शासकों ने सिंचाई के लिए बाँध बनवाकर नहरें निकलवाई थी। तमिल प्रदेश में सिंचाई कर को दासबंद’ (दसावंद) एवं आंध्र प्रदेश व कर्नाटक में ‘कट्टकोडेज’ (कटट्कोडर्गे) कहा जाता था।

भू-राजस्व एवं सिंचाई कर के साथ-साथ विजयनगर की जनता को अन्य अनेक प्रकार के करों, जैसे- चुंगी तथा सीमा-शुल्क, औद्योगिक शुल्क, लाइसेंस शुल्क, पंजीयन शुल्क, बिक्री कर, संपत्ति शुल्क, उद्यान शुल्क का भी भुगतान करना पड़ता था। जिन जमीनों पर खेती नहीं होती थी, उस पर चारागाह कर ‘जीवधनम्’ की वसूली की जाती थी। आवासीय संपत्ति से संबंधित करों को ‘इलारी’ कहा जाता था। डकैती और आक्रमण से चल और अचल संपत्ति की सुरक्षा के लिए दुर्गावर्तन, दन्नयवर्द्धन और कवाली कनिके जैसे कर वसूल किये जाते थे। पुलिस कर को ‘अरसुस्वतंत्रम्’ कहा जाता था।

सामाजिक तथा सामुदायिक करों में विजयनगर साम्राज्य में प्रचलित विवाह कर अत्यंत रोचक है जो वर तथा कन्या दोनों पक्षों से लिया जाता था। कृष्णदेव राय ने विवाह कर को माफ कर दिया था। किंतु विधवा विवाह कर से मुक्त था। इससे लगता है कि विजयनगर के शासक विधवाओं की स्थिति में सुधार करने के लिए प्रयासरत थे।

वास्तव में समकालीन अर्थव्यवस्था से जुड़ा ऐसा कोई वर्ग नहीं था, जिससे कुछ न कुछ कर न लिया जाता रहा हो। यहाँ तक कि बढ़इयों, नाइयों, धोबियों, चर्मकारों, कुम्हारों, भिखारियों, मंदिरों, वेश्याओं तक को भी कर देना पड़ता था। बढ़इयों पर लगने वाले कर को ‘कसामी गुप्त’ कहा जाता था। सदाशिव राय के शासनकाल में रामराय ने नाइयों को कर से मुक्त कर दिया था। कहा जाता है कि कौडोंजा नामक एक नाई की सेवा से प्रसन्न होकर रामराय ने संपूर्ण नाई जाति को बेगार और कर से मुक्त कर दिया था। लोकप्रिय मंदिरों से ‘पेरायम’ नामक आगंतुक शुल्क लिया जाता था। विजयनगर साम्राज्य द्वारा वसूल किये जाने वाले कुछ अन्य कर भी थे, जैसे- ‘कदमाई’, ‘मगमाई’, ‘कनिक्कई’, ‘कत्तनम’, ‘कणम’, ‘वरम’, ‘भोगम’, ‘वारिपत्तम’, ‘इराईऔर कत्तायम आदि।

सामान्यतः कर-संग्रह का कार्य प्रांतीय सरकारें तथा स्वायत्त संस्थाएँ करती थीं, लेकिन उच्चतम् बोली बोलने वाले को लगान वसूल करने का ठेका देने की पद्धति भी चलन में थी। ठेकेदारी अथवा नीलामी की यह पद्धति कृषिभूमि तक ही सीमित नहीं थी। व्यापारिक महत्व के स्थानों को भी इसी तरह नीलाम किया जाता था। इस दृष्टि से विजयनगर के नगरद्वार के समीपवर्ती क्षेत्र का, जहाँ वणिक एकत्र होते थे, विशेष रूप से उल्लेख किया जा सकता है। नुनिज के अनुसार यह द्वार प्रतिवर्ष 1200 परदान पर नीलाम किया जाता था और इस द्वार से कोई भी स्थानीय या विदेशी व्यक्ति उस समय तक प्रवेश नहीं कर सकता था, जब तक वह उतनी राशि नहीं अदा कर देता था, जितनी ठेकेदार माँगता था।

कोषागार

राजस्व के संग्रह के लिए राजप्रासाद से संबद्ध दो कोषागार थे। दैनिक वसूली और व्यय के लिए एक छोटा कोषागार था। बड़े कोषागार में सामंतों तथा महामंडलेश्वरों से प्राप्त बड़े एवं बहुमूल्य उपहारों को जमा किया जाता था। पायस के अनुसार इसे तालों में बंद कर मुहर लगा कर रखा जाता था, केवल विशेष परिस्थितियों और दैवी आपदाओं के समय ही इसे खोला जाता था।

राजकीय व्यय के मद

राज्य की आमदनी मुख्यतः राजप्रासाद के रख-रखाव, सैनिक व्यवस्था तथा दातव्य (धर्मस्व) निधि के मद में खर्च की जाती थी। कृष्णदेव राय ने ‘आमुक्तमाल्यद’ में यह सिद्धांत प्रतिपादित किया है कि राज्य की आय चार हिस्सों में बाँटी जानी चाहिए। एक हिस्सा राजप्रासाद एवं धर्मस्व के मदों पर, दो हिस्सा सेना के रख-रखाव पर और शेष को एक संचित कोषागार में जमा किया जाना चाहिए।

विजयनगर साम्राज्य की कराधान व्यवस्था के संबंध में कुछ विद्वानों मानते हैं कि यहाँ कर की दर अधिक थी और जनता कर के बोझ से दबी थी। वास्तव में समकालीन परिस्थितियों में सैन्यीकरण की आवश्यकता के अनुरूप साम्राज्य में करों का अधिक होना स्वाभाविक था। संभवतः विजयनगर में करों की दर बहुत अधिक नहीं थी और आपात स्थिति में राज्य द्वारा करों को माफ भी कर दिया जाता था या कम कर दिया जाता था।

उद्योग एवं व्यापार

विजयनगर साम्राज्य में व्यापार मुख्यतः चेट्टियों के हाथों में केंद्रित था। इस समय के प्रमुख व्यवसायों में कपड़ा बुनाई, खानों की खुदाई, धातु-शोधन आदि शामिल थे। इतालवी यात्री बार्थेमा (1505 ई.) के अनुसार कैम्बे के निकट बड़ी मात्रा में सूती वस्त्रों का निर्माण होता था। छोटे व्यवसायों में गंधी का पेशा (इत्र) पेशा सबसे महत्वपूर्ण था। दस्तकार वर्ग के व्यापारियों को ‘वीर पांचाल’ कहा जाता था, किंतु स्वर्णकार, लौहकार तथा वर्धकि (बढ़ई) का सामाजिक स्तर जुलाहों, कुम्हारों, चर्मकारों, कलालों तथा तेलियों की तुलना में ऊँचा था। विविध उद्योगों में लगे शिल्पी और व्यापारी श्रेणियों में संगठित थे। अब्दुर रज्जाक लिखता है कि प्रत्येक पृथक् संघ अथवा शिल्प के व्यापारियों की दुकानें एक दूसरे के निकट हैं। पायस भी कहता है कि प्रत्येक गली में मंदिर है, क्योंकि ये (मंदिर) सभी शिल्पियों तथा व्यापारियों की संस्थाओं के होते हैं।

किंतु शिल्प-श्रेणियाँ चेट्टियों की वणिक श्रेणियों की तुलना में कम शक्तिशाली थीं और एक प्रकार से उन्हीं के नियंत्रण में तथा उन्हीं के लिए कार्य करती थीं। इसका कारा यह था कि आर्थिक दृष्टि से वणिक श्रेणियाँ ज्यादा शक्तिशाली थीं। व्यापारिक वस्तुओं में पूँजी लगाने के साथ-साथ वितरण का नियंत्रण भी उन्हीं के हाथ में था।

आंतरिक व्यापार

 विजयनगर साम्राज्य की अर्थव्यवस्था की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता थी- देश का आंतरिक एवं बाह्य व्यापार। व्यापार जल तथा स्थल दोनों मार्गों से होता था। देश के आंतरिक व्यापार के लिए यातायात के सस्ते साधन के रूप में कावड़ी, सिर पर बोझ ढोने वाले, लद्दू घोडे, लद्दू बैल, गाड़ियाँ एवं गधे आदि का प्रयोग होता था। स्थानीय व्यापार में बाजारों तथा मेलों का बड़ा महत्व था। उत्सव के समय मंदिरों की ओर जाने वाले मुख्य मार्गों पर नियतकालीन मेले लगते थे, जिनकी देखभाल व्यापारिक संघ का अध्यक्ष (पट्टनस्वामी) करता था। नगरीय व्यापार को प्रोत्साहित करने के लिए नाडु के मुखियों के आदेशों पर मेले लगाये जाते थे। इसके अतिरिक्त नगरों में अलग से बाजार होते थे, जहाँ व्यापारी अपना व्यवसाय करते थे। विशेष वस्तुएँ विशेष बाजारों में ही बिकती थीं। साम्राज्य की राजधानी शहर एक संपन्न व्यापारिक केंद्र था जहाँ बड़ी मात्रा में कीमती रत्नों और सोने का बाजार था। कृषि उत्पादनों तथा गैर-कृषि उत्पादनों के बाजार भी अलग-अलग होते थे। कृषि उत्पादनों का व्यापार ज्यादातर दायें हाथ की जातियों के द्वारा होता था। गैर-कृषि उत्पादनों के व्यापार तथा चल-शिल्पों पर बायें हाथ की जातियों का अधिकार था।

विदेश व्यापार

विजयनगर के राजे विदेशी व्यापार को अत्यधिक प्रोत्साहन तथा संरक्षण देते थे। विजयनगर राज्य के संपन्न व्यापार से आकर्षित होकर कई राष्ट्रीयताओं के व्यापारी (अरब, फारसी, गुजरात, खोरासानियन) कालीकट में बस गये थे। इस विदेश व्यापार में समुद्रतटीय बंदरगाहों की अहम भूमिका थी। अब्दुर रज्जाक के अनुसार संपूर्ण साम्राज्य में 300 बंदरगाह थे। इस समय कालीकट, मैंगलोर, होनावर, भटकल, बरकुर, कोचीन, कन्नानोर, मछलीपट्टनम और धर्मदाम के बंदरगाह सबसे महत्वपूर्ण थे। मालाबार तट पर सर्वाधिक प्रसिद्ध बंदरगाह कालीकट था। विजयनगर के विदेशी व्यापार में भारतीयों की भूमिका कम, विदेशियों की भूमिका अधिक थी। बारबोसा के अनुसार भारतीय समुद्री व्यापार पर मुस्लिम सौदागरों का पूर्ण नियंत्रण था।

विजयनगर का विदेश व्यापार मलय द्वीपसमूह, बर्मा, चीन, अरब, ईरान, फारस, दक्षिण अफ्रीका, अबीसीनिया तथा पुर्तग़ाल आदि देशों से होता था। अब्दुर रज्जाक के अनुसार चुंगीघरों के अधिकारी व्यापारिक सामानों की जाँच-पड़ताल करते थे और बिक्री पर 40वाँ हिस्सा कर के रूप में वसूल करते थे। विजयनगर से चावल, काली मिर्च, अदरक, दालचीनी, इलायची, हरड़, नारियल, ज्वार, रंग, चंदन की लकड़ी, सागौन की लकड़ी, इमली की लकड़ी, लौंग, अदरक, दालचीनी, सूती कपड़े, लोहे, इस्पात, सोना, चाँदी, हीरे, इत्र, शोरा, चीनी, ताड़-गुड़ आदि आदि का बड़े पैमाने पर निर्यात किया जाता था। इतालवी यात्री बार्थेमा (1505 ई.) के अनुसार कैम्बे से प्रति वर्ष सूती एवं सिल्क वस्त्रों से लादे हुए 40 या 50 जहाज विभिन्न देशों में भेजे जाते थे। देशी तकनीक द्वारा तैयार किये गये रंगीन मुद्रित कपड़े जावा और सुदूर पूर्व में निर्यात किये जाते थे। सूती धागे को बर्मा और नील को फारस भेजा जाता था। मलक्का के साथ कालीमिर्च का अच्छा व्यापार होता था। विजयनगर में हीरे की खानें अधिक थीं। नुनिज ने हीरों के ऐसे बंदरगाह की चर्चा की है, जहाँ की हीरों की खाने दुनिया में सबसे बड़ी थीं। मछलीपट्टनम का समृद्ध खनिज क्षेत्र उच्च गुणवत्ता वाले लौह और इस्पात निर्यात के लिए प्रवेश द्वार था।

विजयनगर साम्राज्य में आयात की जाने वाली वस्तुओं में घोड़े का महत्व सर्वाधिक था। अश्व व्यापार पर पहले अरबों का नियंत्रण था, किंतु बाद में इस पर पुर्तगालियों ने नियंत्रण कर लिया। घोड़े अरब, सीरिया तथा तुर्की के पश्चिमी सामुदायिक बंदरगाहों से लाये जाते थे। बहमनी सुल्तानों और उड़ीसा के गजपतियों से लगातार लड़ते रहने के कारण सैन्य दृष्टि से विजयनगर को घोड़े की आवश्यक था। नुनिज ने लिखा है कि विरूपाक्ष के शासनकाल में सालुव नरसिंह ओरमुज तथा अदन से घोड़े मँगाता था तथा उन्हें मुँहमाँगी कीमत अदा करता था। विजयनगर राज्य पहले मध्य एशिया से आयातित अच्छी नस्ल के घोड़े उत्तर भारत से मँगाता था। लेकिन बहमनी राज्यों के साथ संघर्ष से जब इसमें बाधा उपस्थित हुई, तो विजयनगर ने पुर्तगालियों से मधुर संबंध बनाने की पहल की। कृष्णदेवराय आमुक्तमाल्यद में कहता है कि राजा को अपने देश के बंदरगाहों का सुधार करना चाहिए, जिससे व्यापार में सुधार हो तथा घोड़े, हाथी, कीमती रत्न, चंदन, मोती तथा अन्य सामग्रियों का देश में मुक्त रूप से आयात हो।

घोड़े के अलावा विजयनगर में आयात की जाने वाली अन्य प्रमुख वस्तुएँ थीं- मदिरा, हाथीदाँत, मोती, ताँबा, सिंदूर, मूँगा, केसर, बहुमूल्य पत्थर, पारा, रेशम, रंगीन मखमल, गुलाब जल, चाकू, रंगीन ऊंटसोना, चाँदी, पॉम, मसाले, नमक आदि। मखमल मक्का से तथा साटन व रेशमी जरीदार एवं बूटेदार कपड़ा चीन, जिद्दा तथा अदन से आयात किया जाता था। रेशम चीन से आता था और चीनी बंगाल से। मोती फ़ारस की खाड़ी से तथा बहुमूल्य पत्थर पेगु से मँगाये जाते थे। मसाले दक्षिण-पूर्व एशिया से आते थे। सोना-चाँदी तथा हाथी श्रीलंका तथा पेगु से मँगाये जाते थे।

तटवर्ती एवं सामुद्रिक व्यापार के लिए जहाजों का प्रयोग किया जाता था। अभिलेखीय प्रमाणों से लगता है कि विजयनगर के शासक जहाजी बेड़े रखते थे तथा पुर्तगालियों के आगमन के पहले वहाँ के लोग जहाज-निर्माण कला से परिचित थे। बारबोसा के लेखानुसार दक्षिण भारत के जहाज मालदीप द्वीपों में बनते थे। कोंटी के अनुसार भारतीय जहाज इटली के जहाज से बड़े, किंतु चीन के जहाज से छोटे थे। भारत के बंदरगाहों पर आने वाले जहाजों में चीनी जहाज सर्वश्रेष्ठ थे। इनसे प्रतिदिन लगभग 64 किमी. की यात्राएँ हो जाती थीं। बारबोसा के अनुसार लालसागर से लौटने पर सौदागरों की स्थानीय लेन-देन में एक नायक अंगरक्षक, एक चेट्टि लेखाकार तथा एक दलाल सहायता प्रदान करते थे।

मुद्रा प्रणाली

विजयनगर साम्राज्य में विदेश व्यापार उन्नत अवस्था में था, इसलिए वस्तु-विनिमय की अपेक्षा मुद्रा की अधिक आवश्यकता थी। मुद्रा-निर्माण के संदर्भ में अब्दुर रज्जाक ने राजकीय टकसाल का उल्लेख किया है। वास्तव में विजयनगर साम्राज्य में केंद्रीय टकसाल के साथ-साथ प्रत्येक प्रांत की राजधानी में भी प्रांतीय टकसालें होती थीं।

विजयनगर में मुख्यतः स्वर्ण एवं ताँबें के मुद्राएँ ही प्रचलित थीं और चाँदी की मुद्राओं का प्रचलन बहुत कम था। यद्यपि सोने की मुद्राएँ वराह और पेरदा कहलाती थीं, लेकिन विजयनगर की सर्वाधिक प्रसिद्ध मुद्रा सोने का ‘वराह’ थी, जिसका वज़न 52 ग्रेन होता था। ‘वराह’ को विदेशी यात्रियों ने हूण, परदौस या पगोड़ा के रूप में उल्लेख किया है। सोने की छोटी मुद्राओं या आधे वराह को (26 ग्रेन) को ‘प्रताप’ (परताब) तथा प्रताप के आधे को ‘फणम’ (फनम) कहा जाता था। मिश्रित मुद्राओं में फणम सबसे ज्यादा उपयोगी था। चाँदी की छोटी मद्राओं को ‘तार’ (फनम का छठां हिस्सा) कहा जाता था। ताँबे का सिक्का डिजटेल कहलाता था, जो तार के एक तिहाई मूल्य के बराबर होता था। विजयनगर के तटीय क्षेत्रों में स्थानीय मुद्राओं के साथ-साथ पुर्तगाली कुज्रेडा, फारसी मुदा दीनार, इटली के प्लोरीन तथा दुकत डुकटे जैसी विदेशी मुद्राएँ भी प्रचलित थीं।

विजयनगर के शासकों की मुद्राओं पर विभिन्न देवताओं एवं पशुओं के प्रतीक टंकित होते थे, जो शासकों के धार्मिक विश्वास के अनुसार बदलते रहते थे। इस साम्राज्य के संस्थापक हरिहर प्रथम के सोने की मुद्राओं (वराह) पर हनुमान एवं गरुड़ की आकृतियाँ मिलती हैं। तुलुव वंश के शासकों की मुद्राओं पर बैल, गरुड़, शिव, पार्वती और कृष्ण की आकृतियों तथा सदाशिव राय की मुद्राओं पर लक्ष्मी एवं नारायण की आकृतियों का अंकन है। अराविदु वंश के शासक वैष्णव धर्मानुयायी थे, इसलिए उनकी मद्राओं पर वेंकटेश, शंख एवं चक्र अंकित हैं।

अर्थव्यवस्था में मंदिरों की भूमिका

विजयनगर के आर्थिक जीवन में मंदिरों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती थी। बड़े पैमाने पर मंदिर-निर्माण से हजारों राजमिस्त्रियों, मूर्तिकारों और अन्य कुशल कारीगरों को रोजगार मिला। बड़े-बड़े मंदिरों को सैकड़ों गाँवों का अनुदान दिया जाता था जिसे देवदान कहा जाता था। मंदिरों के अपने व्यापारिक संघ थे, जो अपनी निधि का उपयोग विभिन्न कार्यों में करते थे। मंदिर बंजर भूमि खरीद कर और उस पर जुलाहों को बसा कर अथवा सिंचाई योजनाओं का निरीक्षण कर ग्राम विकास को प्रोत्साहन देते थे। मंदिर राज्य की सिंचाई व्यवस्था में भी सहयोग करते थे। पायस लिखता है कि प्रत्येक गली में मंदिर थे और वे किसी न किसी शिल्प से संबंधित हैं।

मंदिर बैंकिंग गतिविधियों में भी सक्रिय भागीदारी निभाते थे और कृषि और व्यापार के अतिरिक्त आपदा के समय ब्याज पर ऋण देते थे। ऋण पर ब्याज की दर 12 प्रतिशत से 30 प्रतिशत तक वार्षिक होता था। यदि ऋणी ऋण नहीं चुका पाता था, तो उसकी भूमि मंदिर की हो जाती थी। बड़े-बड़े मंदिरों को सैकड़ों गाँवों का अनुदान दिया जाता था जिसे ‘देवदान’ कहा जाता था। इस प्रकार प्राचीन राज्यों के समान विजयनगर राज्य में भी भू-स्वामी तथा श्रमिकों के सेवा-नियोजक के रूप में मंदिरों की सार्वजनिक अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका थी।

सैन्य-संगठन

विजयनगर साम्राज्य के सैनिक विभाग को ‘कंदाचार’ कहा जाता था। यद्यपि इस विभाग का उच्च अधिकारी ‘महादंडनायक’ या ‘सेनापति’ होता था, किंतु राजा स्वयं भारतीय युद्ध-नीति एवं परंपरा के अनुसार युद्ध-भूमि में अग्रिम पंक्ति में रहकर सेना का संचालन करता था। विजयनगर में दो प्रकार की सेनाओं के अस्तित्व की सूचना मिलती है- केंद्रीय सेना, जो सीधे साम्राज्य द्वारा भर्ती की जाती थी और प्रत्येक दंडनायक तथा प्रांतीय शासक की सेना।

साम्राज्य की विशाल एवं कार्यक्षम सेना में मुख्यतया पैदल, घुड़सवार, हाथी और ऊँट शामिल होते थे। पैदल सेना में भिन्न-भिन्न वर्गों एवं धर्मों के लोग (यहाँ तक कि मुसलमान भी) सम्मिलित किये जाते थे। विदेशी यात्री डोमिंगो पायस के अनुसार कृष्णदेव राय की सेना में 3600 अश्वारोही, सात लाख पदाति तथा 651 हाथी थे। भारत में अच्छे नस्ल के घोड़ों की कमी थी, इसलिए विजयनगर की घुड़सवार सेना के लिए पुर्तगाली व्यापारियों से उत्तम कोटि के अरबी तथा ईरानी घोड़े खरीदे जाते थे। जब पुर्तगालियों ने अरब तथा फारस के व्यापारियों को हटा कर घोड़े के व्यापार पर एकाधिकार कर लिया था, तो कृष्णदेवराय ने अरबी घोड़े प्राप्त करने के लिए पुर्तगालियों से मैत्री-संबंध स्थापित किया।

तत्कालीन लेखों के अनुसार विजयनगर के राजाओं के पास एक तोपखना भी था, किंतु उनके संगठन के संबंध में कोई विशेष सूचना नहीं है। तोपखाने का संचालन प्रायः विदेशी बंदूकधारियों द्वारा ही किया जाता था। निकोलो कोंटी के अनुसार क्विलन, श्रीलंका, पूलीकट, पेगू और तेनसिरिम के राजा देवराय द्वितीय को कर देते थे। इससे संकेत मिलता है कि विजयनगर के राजाओं के पास एक शक्तिशाली नौसेना भी थी, जिसके बलबूते उन्होंने कई बंदरगाहों और श्रीलंका पर अधिकार किया और पेगू और तेनसिरिम से निरंतर करों की वसूली की। किंतु यह नौसेना चोलों के समान सशक्त नहीं थी। सैनिकों तथा अधिकारियों को नकद वेतन दिया जाता था।

केंद्रीय बल के अलावा संपूर्ण साम्राज्य में सैनिक जागीरें (मिलिटरी फीफ्स) फैली हुई थीं। प्रत्येक जागीर का स्वामी एक नायक या सैनिक प्रमुख होता था। इन्हें एक निश्चित भूखंड पर, जिसे ‘अमरम्’ कहा जाता था, राजस्व-वसूली और शासन करने का अधिकार था। प्रत्येक नायक राज्य द्वारा निर्धारित संख्या में हाथी, घोड़े, ऊँट, घुड़सवार तथा पैदल सैनिक रखता था और युद्ध के समय अपनी सेना के साथ केंद्रीय सेना की सहायता करता था। किंतु विजयनगर की सेना अनुशासन और शक्ति में दक्कन के मुस्लिम राज्यों की सेनाओं से कमतर थी।

भर्ती, प्रशिक्षण और युद्धोपकरण

विजयनगर काल में सैनिकों के भर्ती, प्रशिक्षण और अन्य युद्धोपयोगी साजो-समान की व्यवस्था की जाती थी। सैनिकों के प्रशिक्षण के लिए नियमित विद्यालय होते थे, जहाँ उन्हें धनुष-बाण और तलवार चलाने का प्रशिक्षण दिया जाता था। सेना के साजो-सामान की चर्चा करते हुए नुनिज ने लिखा है कि ये धनुष, बंदूक, ढाल तथा कवच से सुसज्जित रहते थे। धनुर्धारी तथा बंदूकधारी सैनिक कवच के रूप में रुई भरी छोटी कोट का प्रयोग करते थे, जबकि तलवारबाज सैनिक ढाल लिये होते थे। भालाधारी कमरबंद बाँधे रहते थे। हाथियों के ऊपर हौदा रखा जाता था जिस पर चार सैनिक बैठकर चारों ओर से युद्ध करते थे। हाथियों के सूड़ पर तेज धार वाले बड़े-बड़े छुरे बँधे रहते थे जिनकी सहायता से वे दुश्मनों का भारी नुकसान करते थे। आग्नेयास्त्रों का प्रबंध मुख्यतया विदेशियों के हाथ में था। आरंभ में विजयनगर की सेना में केवल भारतीय सैनिक ही होते थे। किंतु बाद में मुसलमानों और पुर्तगालियों को भी बड़ी संख्या में सेना में सम्मिलित किया जाने लगा था। कृष्णदेव राय को रायचूर में क्रिस्टोमाओं डी फिगिरेडी के अधीन पुर्तगाली सैनिकों की सहायता से ही सफलता मिली थी।

विजयनगर साम्राज्य की प्रतिरक्षा में दुर्गों (किलों) की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका थी। इन किलों के प्रभारी प्रायः बाह्मण होते थे। विजयनगर के सैनिक किसी भी दुर्ग को घेरने और उसे तोड़ने में पारंगत थे। गुट्टी के किले को ‘प्रभुसत्ता के चक्र की धुरी’ कहा गया है। नवविजित क्षेत्र के किलों को पदाईपर्रू कहा जाता था।

न्याय व्यवस्था

न्याय व्यवस्था हिंदू धर्म पर आधारित थी। राज्य का प्रधान न्यायाधीश ‘राय’ (राजा) होता था और और सभी मामलों में उसका निर्णय अंतिम माना जाता था। जिन लोगों को शिकायत थी, वे राजा या प्रधानमंत्री को याचिकाएँ प्रस्तुत करते थे। मुकदमों का निर्णय प्रायः हिंदू धर्मशास्त्रों, खासकर याज्ञवल्क्य स्मृति तथा पराशरसंहिता पर माधवकृत टीका में विहित कानूनों के आधार पर किया जाता था।

राजा के केंद्रीय न्यायालय के साथ-साथ संपूर्ण साम्राज्य में भी नियमित न्यायालयों का गठन किया गया था। प्रांतों में प्रांतपति तथा गाँवों में ग्राम पंचायतें, जाति पंचायतें, श्रेणी संगठन और आयंगार न्यायिक कार्यों का निष्पादन करते थे। अपराध सिद्ध करने के लिए अग्निपरीक्षा जैसी प्रथाएँ भी प्रचलित थी। दंड व्यवस्था अत्यंत कठोर थी। व्यभिचार एवं राजद्रोह जैसे भयंकर अपराध के लिए अंग-विच्छेदन, मृत्युदंड तथा कभी-कभी हाथियों से कुचलवा कर मारने की सजा दी जाती थी। सामाजिक अपराध का दोषी पाये जाने पर अपराधी की संपत्ति या जमीन जब्त कर ली जाती थी। इसी प्रकार मंदिरों की जमीन पर बलात कब्जा करने, दान दी हुई वस्तु पर अधिकार करने, धर्मार्थ किये गये निर्माण कार्यों को क्षतिग्रस्त करने, प्रतिबंधित विवाह करने, गुरुपत्नी या ब्राह्मण की हत्या करने तथा देवप्रसाद (भोग) में विष मिलाने के लिए राज्य की ओर से कठोर दंड की व्यवस्था की गई थी। लेकिन ब्राह्मणों को किसी भी अपराध के लिए दंडित नहीं किया जाता था।

पुलिस एवं गुप्तचर व्यवस्था

राज्य में शांति और सुव्यवस्था बनाये रखने तथा अपराधों पर नियंत्रण के लिए एक सुव्यवस्थित पुलिस विभाग था। पुलिस अधिकारियों को ‘कवलगर’ ( अरसुकवलकार) कहा जाता था, जो प्रायः सामाजिक एवं धार्मिक विषयों पर निर्णय देते थे। यही राजमहल की सुरक्षा से संबंधित अधिकारी भी थे, जो नायकों के अधीन कार्य करते थे। स्थानीय चोरी और अपराधों की जिम्मेदारी उसी प्रकार पुलिस अधिकारियों पर थी, जैसे शेरशाह सूरी के समय थी अर्थात् चोरी होने पर पुलिस या तो माल की बरामदी करती थी, नहीं तो उसे स्वयं चोरी का माल वापस करना पड़ता था। शहरों में रात को सड़कों पर नियमित रूप से पुलिस के पहरे और गश्त (भ्रमण) की व्यवस्था थी। पुलिस विभाग का खर्च वेश्याओं (गणिकाओं) से वसूल किये गये कर (टैक्स) से चलता था। कभी-कभी पुलिस के अधिकारों को बेच दिया जाता था, जिसे ‘पदिकावल’ कहा जाता था। संपूर्ण राज्य में एक सुव्यवस्थित गुप्तचर व्यवस्था थी, जिससे राजा को राज्य की घटनाओं की सूचना मिलती रहती थी। गुप्तचर व्यवस्था निश्चित रूप से प्रांतीय गवर्नरों तथा मनबढ़ सामंतों के षड्यंत्र, दुरभि-संधि और विद्रोह पर नियंत्रण रखने में मददगार सिद्ध हुई होगी।

प्रशासनिक कमजोरियाँ

विजयनगर साम्राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था में कई कमियाँ थीं जो बाद में साम्राज्य की स्थिरता के लिए घातक साबित हुईं। एक तो, प्रांतीय शासकों को बहुत स्वतंत्रता थी, जिससे केंद्रीय शक्ति कमजोर हुई और अंत में साम्राज्य का पतन हो गया। दूसरे, अनेक सुविधाओं के बावजूद साम्राज्य स्थिरता से व्यापार का विकास करने में असफल रहा। यह असफलता विजयनगर के साम्राज्यीय जीवन में एक बड़ा दोष सिद्ध हुई और इसने एक स्थायी हिंदू साम्राज्य को असंभव बना दिया। तीसरे अल्पकालीन व्यापारिक लाभ के लिए विजयनगर सम्राटों ने पुर्तगालियों को पश्चिमी तट पर बसने दिया और इस प्रकार लाभ का सिद्धांत साम्राज्य की स्थिरता के लिए नुकसानदेह साबित हुआ।

विजयनगर का सामाजिक जीवन

विजयनगरकालीन समाज चार वर्गों में विभाजित था- विप्रुल (ब्राह्मण), राजुलु (क्षत्रिय), मोतिकिरतलु (वैश्य) और नलवजटिव (शूद्र) अर्थात् विजयनगर साम्राज्य में सिद्धांतः चातुर्वर्ण-व्यवस्था का प्रचलन था। विजयनगर के समकालीन साहित्यिक ग्रंथों एवं अभिलेखों में ‘वर्णाश्रमधर्म मंगलानुपालिनम् एवं ‘सकलवर्णाश्रममंगलानुपातिसुत’ नामक शब्दों का प्रयोग मिलता है। इससे लगता है कि विजयनगर के शासक किसी वर्ण विशेष के नहीं, बल्कि सभी वर्णों के मंगल की कामना करते थे।

सामाजिक वर्ग भेद

विप्रलु (ब्राह्मण)

विजयनगरकालीन समाज में ब्राह्मणों (विप्रलु) को सर्वोच्च स्थान प्राप्त था। सामान्यतः इनका कार्य धार्मिक कार्य एवं अध्ययन-अध्यापन करना था, किंतु दंडनायक, मंत्री तथा राजदूत जैसे अनेक महत्वपूर्ण पदों पर भी अधिकांशतः इन्हीं की नियुक्ति होती थी। इस काल के अभिलेखों तथा साहित्य ग्रंथों में अनेक श्रेष्ठ ब्राह्मण सेनानायकों के उल्लेख मिलते हैं। डोमिंगो पायस ने लिखा है कि ब्राह्मणों में केवल पुरोहित तथा साहित्यकार ही नहीं थे, बल्कि बहुत से राज्याधीन नगरों तथा कस्बों के अधिकारी भी थे।

ब्राह्मण प्रायः शाकाहारी होते थे और अधिकांश ब्राह्मण जीव-हत्या करने तथा मांस खाने से परहेज करते थे। इनकी आजीविका का मुख्य साधन जनता और राजा द्वारा दिया गया दान होता था, लेकिन कुछ ब्राह्मण ऐसे भी थे जो व्यापार और कृषि से भी अपनी जीविका चलाते थे। इन्हें किसी भी अपराध के लिए मृत्युदंड नहीं दिया जाता था।

राजुल (क्षत्रिय)

समाज में ब्राह्मणों के बाद दूसरा स्थान क्षत्रियों (राजुल) का था। यद्यपि इस काल के अभिलेखों तथा साहित्यिक ग्रंथों में इनसे संबंधित कोई विशेष जानकारी नहीं है, किंतु इतना निश्चित है कि इनका संबंध ज्यादातर राजकुलों से था और ये मुख्यतः प्रशासकीय कार्यों तथा सेना से संबद्ध थे। बारबोसा ने लिखा भी है कि राजा क्षत्रिय परिवार से आते थे जो धनाढ्य तथा युद्धप्रिय होते थे। ज्यादातर उच्च सरकारी पदों तथा प्रमुखों की नियुक्ति इसी वर्ग से की जाती थी।

मोतिकिरतलु (वैश्य)

समाज में तीसरा वर्ग वैश्यों (मोतिकिरतलु) का था जिनका कार्य मुख्यतः व्यापार करना था। इस वर्ग में शेट्टियों अथवा चेट्टियों का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान था। इनकी सामाजिक स्थिति पर्याप्त अच्छी थी। विजयनगर का अधिकांश व्यापार इसी वर्ग के हाथों में केंद्रित था। बरबोसा के अनुसार इस वर्ग के लोग बहुत धनी तथा सम्मानित थे और साफ-सुथरा जीवन व्यतीत करते थे। व्यापार के अतिरिक्त यह लिपिक एवं लेखा-कार्यों में भी निपुण होता था।

वीर पांचाल

तीसरे वर्ग में ही चेट्टियों के ही समतुल्य एक समूह दस्तकार व्यापारियों का था, जिन्हें ‘वीर पांचाल’ कहा जाता था। इस दस्तकार वर्ग में संभवतः लोहार, स्वर्णकार, कांस्यकार, तक्षक (मूर्तिकार), शस्त्रवाहक, वर्धकि (बढ़ई), कैकोल्लार (जुलाहे), कंबलत्तर (चपरासी), नाई, रेड्डि (कृषक) जैसे व्यावसायिक समुदाय भी शामिल थे। वास्तव में वीर पंचालों में स्वर्णकारों, लुहारों तथा बढ़इयों की सामाजिक स्थिति ऊँची थी। समाज में नाइयों की भी पर्याप्त प्रतिष्ठा थी, जिन्हें रामराय के समय में कर से मुक्त कर दिया गया थे। कैकोल्लार अथवा जुलाहे मंदिरों के आस-पास रहते थे और मंदिर के प्रशासन तथा स्थानीय करारोपण में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती थी। तोट्टियन चरवाहे थे, जिन्होंने बाद में सीमांत शासक (पोलिगार) का दर्जा हासिल कर लिया, सौराष्ट्र व्यापारी थे जो गुजरात से आये थे और ब्राह्मणों को टक्कर देते थे, रेड्डी किसान थे और उप्पिलिया नमक निर्माता थे। विभिन्न समुदाय विवादों और झगड़ों से बचने के लिए शहर के अलग-अलग हिस्सों में रहते थे।

बड़वा

विजयनगर काल में उत्तर से बहुत से लोग दक्षिण में आकर बस गये थे, जिन्हें ‘बड़वा’ कहा जाता था। इस नवागंतुक उत्तर भारतीय बड़वा वर्ग ने अपनी कार्य-कुशलता तथा बुद्धि के बल पर दक्षिण के व्यापार पर एकाधिकार कर लिया था। इससे एक ओर दक्षिण के परंपरागत व्यापारिक समुदायों का पतन हुआ तो दूसरी ओर विजयनगरकालीन समाज में विद्वेष की भावना विकसित हुई।

नलवजटिव (शूद्र)

समाज में शूद्र वर्ग की सामाजिक स्थिति अच्छी नहीं थी और सबसे बड़ी विडंबना यह थी कि समाज में हेय दृष्टि से देखा जाता था। इनका मुख्य कार्य उच्च और समृद्ध वर्गों की सेवा करना था। इस वर्ग के अपनी जीविका के लिए छोटे-मोटे व्यवसाय करते थे। श्रमिक वर्ग ज्यादातर इसी समुदाय से संबंधित था। इन्हें काम के बदले फसली मजदूरी दी जाती थी। इस वर्ग को काम के लिए एक गाँव से दूसरे गाँव भी जाना पड़ता था। डोम, जोगी, मछुआरे, परय्यन, कलाल, चमार आदि इसी वर्ग में आते थे।

दासप्रथा

विजयनगर में दासप्रथा का भी प्रचलन था, जिसका उल्लेख निकालो कोंटी ने किया है। महिला एवं पुरुष दोनों वर्ग के लोग दास बनाये जाते थे क्योंकि अभिलेखों में दासियों को उपहार में देने का उल्लेख मिलता है। पुर्तगाली यात्री पायस ने लिखा है कि विजयनगर की रानियों की सेवा में बहुसंख्यक दासियाँ रहती थीं। इसी प्रकार राजप्रासाद में रहने वाली बहुसंख्यक महिलाओं में बहुत-सी युद्ध बंदी महिला दासियाँ रहती थीं। ऋण न चुका पाने एवं दिवालिया होने की स्थिति में ऋण लेने वालों को दास या दासी बनना पड़ता था। दास-दासियों के क्रय-विक्रय की प्रथा भी थी, जिसे ‘बेसवेग’ कहा जाता था।

स्त्रियों की स्थिति

विजयनगर में स्त्रियों की दशा सामान्यतः निम्न थी, परंतु उत्तर भारत की अपेक्षा अच्छी थी। इस समय स्त्रियाँ प्रशासन, व्यवसाय, व्यापार और ललित कला जैसे क्षेत्रों में सक्रिय रूप से शामिल थीं, जिन पर पुरुषों का एकाधिकार माना जाता था। विजयनगर में कन्याओं को लोकभाषा, संस्कृत, साहित्य, संगीत, ललितकला तथा नृत्य जैसे लौकिक व्यवहार के विषयों के साथ-साथ इन्हें कुश्ती (मल्लयुद्ध) तथा अस्त्र-शस्त्र संधान की शिक्षा दी जाती थी। ‘वरदंबिका परिनयमकी लेखिका तिरुमलंबा देवी और ‘मधुरविजयम’ की लेखिका गंगादेवी संस्कृत भाषा की महिला कवियित्री थीं। तेलुगु महिला रचनाकारों में तल्लापका तिम्मक्का और अतुकुरी मोल्ला बहुत प्रसिद्ध थीं। बारबोसा भी बताता है कि स्त्रियों को गायन, क्रीड़ा एवं नृत्य की शिक्षा दी जाती थी।

वास्तव में संपूर्ण भारतीय इतिहास में विजयनगर ही ऐसा एकमात्र साम्राज्य था, जिसमें बड़ी संख्या में स्त्रियों को राजकीय पदों पर नियुक्त किया था। राजा राजमहल के खर्च के हिसाब-किताब की जाँच के लिए महिलाओं को नियोजित करता था। राजा की अंगरक्षिकाओं के रूप में भी स्त्रियों की नियुक्ति होती थी। नुनिज ने लिखा है कि राजप्रासादों में बहुसंख्यक स्त्रियाँ ज्योतिषी, भविष्यवक्ता, संगीत और नृत्य में प्रवीण नर्तकी, घरेलू नौकरानी, पालकी वाहक और राज्य की अंगरक्षिकाओं आदि रूप में नियुक्त होती थीं। डेमिंगो पायस के अनुसार राजप्रासाद की परिचारिकाएँ महानवमी के महोत्सव में भाग लेती थीं।

किंतु विजयनगर साम्राज्य में अभिजात वर्ग तथा सर्वसाधारण वर्ग की स्त्रियों के जीवन में पर्याप्त विषमताएँ थीं। अभिजात वर्ग की तथा शहरी स्त्रियों की जिंदगी शान-शौकत से बीतती थी जो प्रायः राजाप्रासादों और घरों की चारदीवारी के भीतर सुविधापूर्ण जीवन व्यतीत करती थीं। इनके पहनावे, आभूषण आदि महँगे होते थे। इसके विपरीत सर्वहारा वर्ग की महिलाएँ गाँव में रहते हुए विभिन्न व्यवसायों से अपनी जीविका चलाती हुई सामान्य रूप से जीवन-यापन करती थीं।

सती प्रथा

विजयनगर साम्राज्य के सामाजिक जीवन में सतीप्रथा के प्रचलन था, जिसका उल्लेख बारबोसा और निकोलो कोंटी ने किया है। नुनिज ने लिखा है कि स्त्रियाँ अपने मृत पति के साथ जलकर मर जाती थीं और इसमें वे अपना सम्मान समझती थीं। सती होनेवाली स्त्री की स्मृति में पाषाण स्मारक लगाये जाते थे, जिसे ‘सतीकल’ कहा जाता था। 1534 ई. के एक अभिलेख में मालगौड़ा नामक एक महिला के सती होने का प्रमाण मिलता है। नुनिज के अनुसार यह प्रथा तेलुगुओं को छोड़कर प्रायः सभी में प्रचलित थी, किंतु आभिलेखिक साक्ष्यों से लगता है कि विजयनगर समाज में सतीप्रथा ज्यादातर राजपरिवारों तथा नायकों में ही प्रचलित थी और सर्वसाधारण में इसका प्रचलन कम था। बारबोसा के विवरण से भी पता चलता है कि सती प्रथा शासक वर्ग में प्रचलित थी, लेकिन उच्च वर्गों जैसे लिंगायतों, चेट्टियों और ब्राह्मणों में इस प्रथा का प्रचलन नहीं थी।

दहेज प्रथा

विजयनगरकालीन समाज में दहेज प्रथा हिंदुओं और मुसलमानों दोनों में प्रचलित थी। बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह ने अपनी बहन की शादी में अहमदनगर के निजामशाह को शोलापुर शहर दिया था। इसी प्रकार जब कलिंग के गजपति नरेश ने विजयी राजा कृष्णदेव राय के साथ अपनी पुत्री का विवाह किया, तो उन्होंने कई गँवों को दहेज में दिया था। कुछ इतिहासकार इस प्रथा को इस्लामी मेहर प्रणाली का एक प्रभाव मानते है। किंतु 1553 ई. के एक लेख में दहेज को अवैधानिक बताते हुए यह घोषणा की गई है कि दहेज देने वाले और लेने वाले दोनों दंड के भागी होंगे। कन्यादान लेने वाले यदि धन या सुवर्ण लेंगे तो उन्हें जाति से बहिष्कृत कर दिया जायेगा। वास्तव में कभी-कभी सामाजिक अपराध करने वालों तथा जाति के नियम तोड़ने वालों को जाति से निष्कासित कर दिया जाता था।

विधवा विवाह

सामान्यतः समाज में विधवाओं की स्थिति दयनीय थी, परंतु समाज में विधवा विवाह को मान्यता प्राप्त थी। विधवा विवाह को विवाह कर से मुक्त करके विजयनगर के राजाओं ने विधवाओं की दशा को सुधारने का प्रयास किया था।

पर्दा प्रथा

विजयनगरकालीन समाज में सामान्यतया पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था, किंतु कुछ उच्च एवं अभिजात वर्ग में यह प्रथा प्रचलित थी। सर्वसाधारण वर्ग की कामकाजी महिलाएँ, देवदासियाँ, गणिकाएँ आदि इससे मुक्त थीं।

देवदासी प्रथा

विजयनगर में देवदासी की प्रथा प्रचलित थी। मंदिरों में देवताओं की देवपूजा के लिए देवदासियाँ होती थीं, जो आजीवन कुँवारी रहती थीं। डोमिंगो पायस ने इन देवदासियों की संपन्नता का वर्णन किया है। इन देवदासियों की आजीविका या तो भूमिदानों से चलती थी या नियमित वेतन से।

इसके अलावा, विजयनगरकालीन समाज में बालविवाह और बहुपत्नी प्रथा जैसी अनेक कुप्रथाएँ भी प्रचलित मान थीं। अभिजात वर्ग की कन्याओं का अल्पायु में ही विवाह करने का प्रचलन था। सामान्य वर्गों में एक पत्नीत्व का रिवाज था, किंतु अभिजात वर्ग तथा राजकुल के सदस्य न केवल अनेक विवाह करते थे, बल्कि बड़ी संख्या में रखैल और दासियाँ भी रखते थे।

खान-पान

विजयनगर समाज के लोग माँसाहारी भी थे और शाकाहारी भी। बरबोसा लिखता है कि ब्राह्मणों तथा लिंगायतों को छोड़कर सामान्यतः शासक तथा अभिजात वर्ग के लोग मांसाहारी थे और गाय-बैल को छोड़कर प्रायः सभी पशुओं का माँस खाते थे। नूनिज के अनुसार ‘‘विसनग (विजयनगर) के राजा हर प्रकार की वस्तु खाते हैं, किंतु बैलों अथवा गायों का मांस नहीं। इन्हें वे कभी नहीं मारते क्योंकि वे इनकी पूजा करते हैं। वे भेड़ का मांस, सूअर का मांस, हरिण का मांस, तीतर, खरगोश, पंडुक, बटेरें तथा सब तरह की चिड़ियाँ- यहाँ तक कि गौरैया, चूहे, बिल्लियाँ तथा छिपकलियाँ भी खाते हैं। ये सभी चीजें, विसनग (विजयनगर) शहर के बाजार में बिकती है। हर चीज को जीवित बेचना पड़ता है, ताकि हरेक आदमी यह जान सके कि वह क्या खरीद रहा है। ….नदियों से मछलियाँ भी अधिक परिमाण में आती हैं।’’ पायस के अनुसार कतिपय त्योहारों पर राजा 24 भैसों तथा 150 भेड़ों की बलि देता था। उसके अनुसार महानवमी पर्व के अंतिम दिन 250 भैंसे तथा 4500 भेड़ों की बलि चढ़ाई जाती थी। निश्चित ही इनकी बलि देने के बाद इनके मांस का खाने में उपयोग किया जाता रहा होगा।

वस्त्राभूषण

विजयनगर साम्राज्य में अभिजात तथा सर्वसाधारण के वस्त्राभूषण में पर्याप्त विषमताएँ थीं। सामान्य वर्ग की स्त्रियाँ पतली सूती तथा सिल्क की साड़ी, चोली तथा दुपट्टा धारण करती थीं। इनमें पेटीकोट पहनने का प्रचलन नहीं था। राजपरिवार और उच्च वर्ग की स्त्रियाँ कीमती एवं कढ़े हुए पावड़ (एक प्रकार का पेटीकोट) पहनती थीं। बार्थेम के अनुसार संपन्न व्यक्ति एक छोटी कमीज तथा सिर पर सुनहले रंग का वस्त्र धारण करते थे। सामान्य वर्ग के पुरुष धोती और सफेद कुर्ता पहनते थे। पगड़ी पहनने की प्रथा भी प्रचलित थी, परंतु जूते केवल अभिजात वर्ग के लोग ही पहनते थे। इन जूतों की बनावट रोमन जूतों के समान होती थी।

विजयनगर साम्राज्य के स्त्री एवं पुरुष दोनों आभूषणप्रेमी थे। और उनमें इत्रों के प्रति लगाव था। स्त्री-पुरुष दोनों गले में हार, भुजबंध तथा कुंडल, बेसर या नथिया (नाक में पहनने का आभूषण) पहनते थे, लेकिन दोनों के आभूषणों की बनावट में अंतर होता था। युद्ध में वीरता दिखानेवाले पुरुष अपने पैर में एक प्रकार का कड़ा पहनते थे, जिसे ‘गंडपेंद्र’ कहा जाता था। प्रारंभ में इसे शौर्य का प्रतीक माना जाता था, किंतु बाद में इसे सम्मान का प्रतीक मानकर मंत्रियों, विद्धानों सैनिकों एवं अन्य सम्मानीय व्यक्तियों को भी दिया जाने लगा।

स्त्री एवं पुरुष दोनों आभूषण प्रिय थे और उनमें इत्रों के प्रति लगाव था। विजयनगर के धनी-मानी तथा कुलीन वर्ग के लोग सुगंधित द्रव्यों (इत्र) का भी प्रयोग करते थे। वे शरीर तथा वस्त्रों को सुवासित करने के लिए चंदन, केशर, अगर, कस्तूरी आदि का प्रयोग करते थे। मिश्रित सुगंधों तथा सुगंधित पुष्पों का प्रयोग खूब किया जाता था। विजयनगर में गुलाब के व्यापारियों को देखकर अब्दुर्रज्जाक आश्चर्य हो गया था क्योंकि नगर के निवासियों के लिए भोजन की तरह गुलाब का फूल भी आवश्यक था।

आमोद-प्रमोद और मनोरंजन

विजयनगर समाज में मनोरंजन के साधन प्रचलित थे। इस समय नाटक तथा अभिनय (यक्षगान) बहुत लोकप्रिय थे। यक्षगान में मंच पर संगीत तथा वाद्यों की सहायता से अभिनय किया जाता था, जिसमें स्त्री-पुरुष दोनों सम्मिलित होते थे। ‘वोमलाट’ एक प्रकार का छाया नाटक था जो विजयनगर में विशेष रूप से प्रसिद्ध था। विजयनगर में शतरंज और पासा विशेष लोकप्रिय थे और कृष्णदेव राय स्वयं शतरंज के प्रसिद्ध खिलाड़ी थे। पायस के अनुसार कुश्ती भी मनोविनोद का प्रमुख साधन था, जो पुरुषों और महिलाओं में समान रूप से प्रचलित था। इसके अलावा, चित्रकारी, जुआ खेलना (द्यूतक्रीड़ा), तलवारबाजी, बाजीगरी, तमाशा दिखाना, मछली पकड़ना भी विजयनगर के निवासियों के मनोरंजन के साधन थे।

गणिकाएँ

प्राचीन काल से ही भारतीय समाज में गणिकाओं की महत्ता स्वीकार की गई थी। विजयनगरकालीन समाज में भी गणिकाओं का महत्त्वपूर्ण स्थान था। इनकी दो श्रेणियाँ थीं- पहली श्रेणी की गणिकाएँ मंदिरों से संबद्ध थीं, जबकि दूसरी श्रेणी की गणिकाएँ अपना स्वतंत्र व्यवसाय कर अपना जीवन-यापन करती थीं। गणिकाएँ प्रायः सुशिक्षित तथा नृत्य, संगीत आदि में दक्ष और विशेषाधिकार-संपन्न होती थीं जो अपने यौवन, नृत्य, संगीत तथा कामोद्दीपक हाव-भाव से लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर लेती थीं गणिकाएँ सार्वजनिक उत्सवों में खुलकर भाग लेती थीं और राजपरिवार तथा अभिजात वर्ग के लोग बिना किसी आपत्ति के इनसे संबंध बनाते थे। गणिकाओं से प्राप्त होने वाले कर से पुलिस एवं सैन्य विभाग का खर्च चलता था।

शिक्षा-व्यवस्था

विजयनगर में न तो शिक्षा का कोई विभाग था और न ही विजयनगर के राजाओं ने किसी विद्यालय की स्थापना की थी। शिक्षा मूलतः मंदिरों, मठों और अग्रहारों में दी जाती थी जहाँ वेद पुराण, इतिहास, काव्य, नाटक, दर्शन, भाषा, गणित, आयुर्वेद आदि का अध्ययन-अध्यापन होता था। अग्रहारों में मुख्यतः वेदों की शिक्षा दी जाती थी। तुलुव वंश के शासकों ने शिक्षा को कुछ प्रोत्साहन दिया था। विजयनगर के शासक इन मठों, मंदिरों तथा विद्वान ब्राह्मणों को करमुक्त भूमिदान देते थे। इस प्रकार विजयनगर शासकों ने भले ही नियमित विद्यालयों की स्थापना नहीं की थी, लेकिन मठों, मंदिरों तथा ब्राह्मणों को करमुक्त भूमिदान देकर एक प्रकार से शिक्षा एवं साहित्य की उन्नति में योगदान दिया।

संभवतः विजयनगरकालीन समाज में वर्ग-भेद के कारण कभी-कभार सामाजिक विवाद भी होते रहते थे। यही कारण है कि 1379 ई. के एक लेख में नायकों तथा नगर प्रशासकों को यह निर्देश दिया गया है कि यदि जातियों में कोई जातीय विवाद उत्पन्न हो, तो वे विवादग्रस्त जातियों को अपने समक्ष बुलाकर उनके विवाद का निस्तारण करें। इसी तरह श्रीरंग के शासनकाल के 1632 ई. के एक लेख में कुछ गाँवों के निवासियों को आदेशित किया गया है कि वे दस्तकार समुदायों- बढ़ई, लुहार तथा सुनार के साथ न तो दुर्व्यवहार करें और न ही उनके विशेषाधिकारों का हनन करें। इस आदेश का उल्लंघन करने वाले को 12 पण का दंड देने की व्यवस्था की गई थी। इस प्रकार विजयनगर के शासक तत्कालीन समाज में समरसता और सामंजस्य बनाये रखने के लिए सतत प्रयत्नशील रहे।

धर्म एवं धार्मिक जीवन

विजयनगर साम्राज्य: प्रशासन, अर्थव्यवस्था, सामाजिक  एवं सांस्कृतिक विकास (Vijayanagara Empire: Administration, Economy, Social and Cultural Development)
उग्र नरसिम्हा की मूर्ति (हम्पी)

अभिलेखीय तथा साहित्यिक प्रमाणों से पता चलता है कि विजयनगर के शासक धार्मिक प्रवृत्ति के थे और अधिकांश इतिहासकारों के अनुसार हिंदू धर्म तथा संस्कृति के संरक्षक थे। किंतु विदेशी यात्रियों के लेखन से स्पष्ट पता चलता है कि वे सभी धर्मों और संप्रदायों के प्रति सहिष्णु और धर्मनिरपेक्षता के पक्षधर थे। हालांकि विजयनगर के राजाओं ने ‘गोब्राह्मण प्रतिपालनाचार्य जैसे उपाधियाँ धारण की थीं, लेकिन उन्होंने इस्लामी अदालत, समारोह, पोशाक और राजनीतिक भाषा को भी अपनाया था। वास्तव में विजयनगर के प्रायः सभी शासकों ने तत्कालीन संप्रदायों-शैव, बौद्ध, वैष्णव, जैन, ईसाई, यहूदी और यहाँ तक कि इस्लाम के प्रति भी उनका दृष्टिकोण सदैव उदारतापूर्ण नीति अपनाई। विजयनगर का एक महान् शासक ‘यवनस्थापनाचार्य’ की उपाधि धारण करके गौरवान्वित होता था। वेंकट द्वितीय ने पुर्तगालियों को बेल्लोर में एक चर्च बनवाने की अनुमति दी थी।

सोलहवीं शती ई. के प्रारंभ तक मालाबार तट की आबादी में (मोपलों) की संख्या बीस प्रतिशत पहुँच गई थी। लेकिन इस्लाम ने दक्षिण भारत की विचारधारा को प्रभावित किया, यह कहना कठिन है। पुर्तगालियों के आगमन से दक्षिण भारत में ईसाई धर्म के प्रचार में सक्रियता बढ़ी। लेकिन इनके धार्मिक प्रचार-कार्य को जब राजनीतिक रूप दिया गया, तो विजयनगर के सहिष्णु शासकों का असंतुष्ट होना स्वाभाविक था।

शैव धर्म

विजयनगर साम्राज्य के उदय से दक्षिण भारत में शैव धर्म की उन्नति हुई। विजयनगर के प्रारंभिक शासक शैव थे तथा अपने संरक्षक देव विरूपाक्ष के प्रतिनिधि रूप में शासन करते थे। अभिलेखों में हरिहर प्रथम तथा बुक्का प्रथम को काशिविलास क्रियाशक्ति, जो एक पाशुपत आचार्य थे, का शिष्य बताया गया है। किंतु काशिविलास कट्टर पाशुपत नहीं थे। कहा जाता है इन्होंने एक स्थानीय विष्णु मंदिर के लिए भूमिदान किया था और स्वयं हरिहर प्रथम ने काशिविलास की आज्ञा से विद्याशंकर मंदिर के लिए दान दिया था। शैवों में लिंगायत संप्रदाय के अनुयायी अधिक थे। लिंगायत संप्रदाय का बायें हाथ की जातियों में, जो गैर-कृषि उत्पादनों में लगी थीं, ज्यादा प्रचलन था।

वैष्णव धर्म

पंद्रहवीं शती ई. के दौरान विजयनगर राजाओं के धार्मिक मान्यताओं में क्रमिक परिवर्तन हुआ और शासकों का वैष्णव धर्म के प्रति झुकाव अधिक हो गया। वैष्णवों में रामानुज के द्वैतवादी अनुयायी अधिक थे। सालुव शासक वैष्णव धर्मानुयायी थे और अहोबिल के नृसिंह एवं तिरुपति के वेंकटेश की पूजा करते थे। फिर भी, सालुव नरेश हम्पी में भगवान विरुपाक्ष (शिव) के साथ-साथ तिरुपति में भगवान वेंकटेश्वर (विष्णु) के चरणों में पूजा करते थे। कृष्णदेव राय ने वैष्णव संप्रदाय से संबद्ध बिठोवा की पूजा पर बल दिया था, किंतु वैष्णव धर्म के साथ-साथ शैव धर्म में भी उसकी गहरी आस्था थी जो उसके विरूपाक्ष मंदिर में स्थित अभिलेख से प्रमाणित है। इस लेख के शीर्ष पर लिंग, नंदी तथा सूर्य तथा अर्धचंद्र प्रतीक तक्षित हैं। इसकी राजसभा में रहने वाले अनेक विद्वान शैव थे। इसी प्रकार सदाशिव विष्णु के साथ-साथ शिव और गणेश की पूजा करता था। रामराय के अनुरोध पर इसने पेरुंबदूर स्थित रामानुज के मंदिर के लिए दान दिया गया था। इस प्रकार विजयनगर शासकों के व्यक्तिगत धर्म समयानुसार बदलते रहे, किंतु वे अंत तक धर्मसहिष्णु बने रहे।

वैदिक धर्म

शैव एवं वैष्णव धर्मों के साथ-साथ इस समय वैदिक धर्म का भी प्रचार-प्रसार था। विद्यारण्य संप्रदाय से संबद्ध सायण तथा माधव ने वेदों पर भाष्य लिखकर इस धर्म के प्रचार-प्रसार में सहायता की। पुराण तथा महाकाव्य शिक्षा के मुख्य विषयों में थे। विजयनगर के शासकों के संरक्षण में अनेक वैदिक संस्थाएँ वैदिक शिक्षा एवं धर्म के प्रचार-प्रसार में संलग्न थीं। राजाओं के संरक्षण के कारण इस काल में दक्षिण भारत के प्रसिद्ध मंदिरों का विस्तार हुआ, इनमें बड़े-बड़े गोपुरम् अथवा प्रवेश स्तंभ, गलियारे तथा मंडप जोड़े गये। वैदिक धर्म में देवी-देवताओं की नैमित्तिक पूजा-उपासना के साथ-साथ विशिष्ट अवसरों पर पशु बलि की प्रथा भी प्रचलित थी। इनमें भैसें, भेड़ तथा सुअरों की बलि दी जाती थी। महानवमी के अवसर पर तो 250 भैसें तथा 4500 भेड़ें काटी जाती थीं। विजयनगर के प्रतिभाशाली शासकों द्वारा इस क्रूर एवं अमानवीय प्रथा को प्रश्रय देना आश्चर्यजनक लगता है। विजयनगर में जैन धर्म को भी पूर्ण संरक्षण मिला था। वणिक निगमों की सदस्य मंडली में जैन भी होते थे।

इस प्रकार विजयनगर राज्य में विभिन्न धर्मों के विद्यमान होते हुए तथा राजाओं के व्यक्तिगत धर्मों के अनुयायी होने के बावजूद भी यहाँ समान रूप से सभी धर्मों का विकास हुआ। विजयनगर राज्य का कोई राजकीय धर्म नहीं था। सभी को अपनी इच्छानुसार धार्मिक आचरण की छूट थी। बारबोसा सही लिखता है कि ‘‘राजा ऐसी स्वतंत्रता देता है कि प्रत्येक मुनष्य बिना किसी खीझ और जाँच-पड़ताल के, कि वह ईसाई, यहूदी, मूर (मुस्लिम) अथवा हिंदू है, अपने धर्म के अनुसार कहीं भी आ-जा और रह सकता है।’’

किंतु विजयनगर के शासकों के धर्म-सहिष्णुता और सभी धर्मों को समान रूप से संरक्षण देने की नीति बावजूद यहाँ आपस में विवाद होते रहते थे। धार्मिक विवादों के मामलों में भी राज्य का हस्तक्षेप होता था। बुक्का प्रथम के शासनकाल में वैष्णवों तथा जैनों के बीच धार्मिक विवाद हुआ। जैनों ने बुक्का प्रथम से वैष्णवों द्वारा प्रताड़ित किये जाने की शिकायत की। बुक्का प्रथम ने निर्णय दिया कि दोनों संप्रदाय के अनुयायी समान स्वतंत्रता के साथ बिना एक दूसरे के हस्तक्षेप के अपने-अपने धर्म का पालन करें। वैष्णवों तथा शैवों के बीच मतभेद का अप्रत्यक्ष संकेत उत्तरी कन्नड़ के सामंत प्रमुख कृष्णप्प नायक के 1561 ई. के एक लेख में मिलता है। इस लेख में गणपति की वंदना के बाद विवृत है कि ‘कुछ लोग कहते हैं कि विष्णु (हरि) के अतिरिक्त विश्व में कोई दूसरा देवता नहीं है। कुछ लोग कहते हैं कि शिव (हर) के समान कोई दूसरा देवता विश्व में नहीं है। इस संदेह को दूर करने के लिए हरि तथा हर हरिहर रूप हैं।’ इससे पता चलता है कि विभिन्न संप्रदायों में उत्पन्न विवाद को सुलझाने की दिशा में भी विजयनगर के शासक सदैव यत्नशील रहते थे।

विजयनगर में साहित्यिक विकास

विजयनगर के शासकों ने साहित्य के विकास में विशेष रुचि ली और उनके प्रोत्साहनपूर्ण संरक्षण में दक्षिण भारतीय भाषाओं के साथ-साथ संस्कृत भाषा का भी अप्रतिम विकास हुआ। यद्यपि समग्र दक्षिण भारत में अभिजात वर्ग की भाषा संस्कृत थी, किंतु जनसाधारण में स्थानीय तेलुगु, कन्नड़ एवं तमिल भाषा का अधिक प्रचलन था। विजयनगर राज्य में भी संस्कृत, तेलुगु, तमिल तथा कन्नड़ का अत्यधिक प्रचलन था। विजयनगर के सम्राटों ने इन भाषाओं को संरक्षण दिया, जिसके फलस्वरूप इनकी आशातीत उन्नति हुई और विभिन्न भाषाओं में अनेक ग्रंथों की रचना की गई। साम्राज्य की प्रशासनिक और अदालती भाषाएँ क्रमशः कन्नड़ और तेलुगु थीं। दक्षिण भारत के साहित्यिक इतिहास में कृष्णदेव राय का राज्यकाल एक नये युग का उषाकाल था।

संस्कृत साहित्य

विजयनगर के प्रारंभिक शासकों, विशेषरूप से बुक्का प्रथम के समय वैदिक साहित्य के अध्ययन-अध्यापन में विशेष प्रगति हुई। उसकी ‘वेदमार्गप्रतिष्ठापक’ उपाधि इसका ज्वलंत प्रमाण है कि वह वैदिक साहित्य के उन्नयन के लिए प्रयत्नशील था। इस काल की अधिकांश संस्कृत रचनाएँ या तो वेदों पर या रामायण और महाभारत महाकाव्यों पर भाष्य थीं। जैसे कि सायणाचार्य ने ‘वेदार्थ प्रकाश’ नामक वेदों पर एक ग्रंथ लिखा था। विद्यारण्य ने ‘राजकालनिर्णय’, ‘माधवीयधातुवृत्ति’, ‘पराशरमाधवीय विवरणप्रमेयसंग्रह’, ‘सर्वदर्शन संग्रह’, ‘जीवनमुक्तिविवेक’, ‘पंचदशी’, ‘संगीतसार’, ‘शंकरदिग्विजय की रचना की। विजयनगर के माधव ने मीमांसा एवं धर्मशास्त्र संबंधी क्रमशः जैमिनीय न्यायमालातथा पराशरमाधव नामक ग्रंथों की रचना की थी। उसी के भाई सायण ने भारतीय संस्कृति के आदिग्रंथ वेद पर ‘वेदार्थ प्रकाश नामक भाष्य लिखा। कहा जाता है कि कुमार कंपन के आग्रह पर सायण ने ‘सुभाषितसुधानिधि’ की रचना 84 पद्धतियों में की थी। सायण की अन्य कृतियाँ ‘यज्ञतंत्रतथा पुरुषार्थहैं। बुक्का प्रथम के काल में उसकी पुत्रवधू गंगादेवी (कुमार कंपन की रानी) ने ‘मधुराविजयम्’ नामक काव्य की रचना की। इसमें कुमारकंपन की कांची के पंप तथा मदुरै के मुसलमान सरदारों के विरुद्ध सैनिक अभियान का वर्णन किया गया है। हरिहर द्वितीय के पुत्र विरूपाक्ष ने ‘नारायणविलास’ की रचना पाँच अंकों में तथा ‘उनपत्तराघव’ की रचना एक अंक में की थी। हरिहर द्वितीय के शासनकाल में ही भास्कर (इरुपण दंडाधिनाथ) ने ‘नानाथरत्नाकर’ नामक संस्कृत-कोश की रचना की थी। पंद्रहवीं शती ई. के उत्तरार्द्ध में सालुव नरसिंह के आश्रित द्वितीय राजनाथ ने ‘साल्वाभ्युदय’ की लिख था। मल्लिकार्जुन के संरक्षण में कल्लिनाथ ने संगीतशास्त्र पर और कल्लिनाथ के पौत्र राम अमात्य ने रामराय के संरक्षण में ‘स्वरमेलकलानिधि’ नामक ग्रंथ की रचना की थी।

विजयनगर राज्य के महानतम् सम्राट कृष्णदेव राय के समय संस्कृत साहित्य उन्नति की पराकाष्ठा पर पहुँच गया। इनके समय अनेक संस्कृत ग्रंथों की रचना की गई। कवि के रूप में कृष्णदेव राय ने संस्कृत में ‘जाम्बुवतीपरिणयम्’ नामक नाटक की रचना की थी। तिम्मन के अनुसार कृष्णदेवराय महान रसज्ञ और ‘कविताप्रवीण्य फणीश (काव्य रचना में दक्ष) थे। उसकी ‘साहितिसमरांगणसार्वभौम’ उपाधि भी उसे साहित्य एवं युद्ध में समान रूप से कुशल बताती है। इनके समकालीन काँची के निवासी गोविंदराज ने ‘भूषण’ का प्रणयन किया।

विजयनगर साम्राज्य: प्रशासन, अर्थव्यवस्था, सामाजिक  एवं सांस्कृतिक विकास (Vijayanagara Empire: Administration, Economy, Social and Cultural Development)
विजयनगरकालीन संस्कृत रचनाएँ

कृष्णदेव राय के ही संरक्षण में ईश्वर दीक्षित ने 1517 ई. में रामायण महाकाव्य पर लघु तथा बृहविवरण नामक टीकाएँ प्रणीत की। दिवाकर ने कृष्णदेव राय के दरबार में ‘परिजातहरण’, ‘देवीस्तुति’, ‘रसमंजरी’ तथा भारतामृत नामक काव्यों की रचना महाभारत की कथाओं के आधार पर की। कृष्णदेव राय के मंत्री सालुव तिम्म ने अगस्त्य (विद्यानाथ) की कृति ‘बालभारत’ पर एक टीका लिखी थी। इसी के समय व्यासराय ने ‘तात्पर्यचंद्रिकातथा भेदोज्जीवन की रचना की। इसकी अन्य रचनाएँ ‘न्यायामृत’ तथा ‘तर्कतांडव’ हैं। कृष्णदेव राय के दरबारी संगीतज्ञ लक्ष्मीनारायण ने ‘संगीतसूर्योदय’ नामक ग्रंथ की रचना की थी।

विजयनगर की संस्कृत साहित्यिक कृतियों में अच्युतराय के समकालीन राजनाथ (सालुव नरसिंह के समकालीन राजनाथ से भिन्न) द्वारा विरचित भागवतचंपतथा अच्युतरायाभ्युदय विशेषरूप महत्वपूर्ण हैं। इस प्रकार विजयनगर राजाओं के शासन में संस्कृत भाषा एवं साहित्य की पर्याप्त उन्नति हुई और साहित्य की प्रायः सभी विधाओं जैसे-महाकाव्य, नाटक, गद्य, चंपू, दर्शन, व्याकरण, हेतुविद्या तथा संगीत में ग्रंथों की रचना की गई।

तेलुगु साहित्य

विजयनगर राजाओं का शासनकाल तेलुगु साहित्य की उन्नति का काल था। तेलुगु भाषा के सर्वश्रेष्ठ कवि श्रीनाथ (1365-1440 ई) के नाम पर 1350 ई. के बाद के लगभग डेढ़ सौ वर्षों के काल को श्रीनाथ युगकहा जाता है। इनकी कृतियों में श्रृंगारनैषध’ (श्रीहर्ष के नैषधचरित का अनुवाद), ‘परुत्राटचरित’ तथा शालिवाहन सप्तशति का अनुवाद, ‘पंडिताराध्य-चरित’, ‘शिवरात्रि-माहात्म्य’, ‘हरविलास पीपखंडतथा काशिखंड’ हैं। इनमें केवल अंतिम चार ही उपलब्ध हैं। इन्होंने ‘क्रीड़ाधिरापम्’ नामक एक नाटक रचना भी की थी। इसके अतिरिक्त श्रृंगारदीपिकातथा पलनति-वीरचरित्रम् की रचना का श्रेय भी इन्हें दिया जाता है। सालुव नरसिंह का समकालीन तेलुगु का प्रसिद्ध विद्वान् पिल्लमडि पिनवीरभद्र था। इसने महाभारत के अश्वमेध पर्व का जैमिनिभारत नाम से तेलुगु में अनुवाद कर सालुव नरसिंह को समर्पित किया था। इसकी दूसरी कृति ‘श्रृंगारशाकुंतल’ है, जो कालिदास की प्रसिद्ध कृति अभिज्ञानशाकुंतलम् का अनुवाद है।

विजयनगर साम्राज्य: प्रशासन, अर्थव्यवस्था, सामाजिक  एवं सांस्कृतिक विकास (Vijayanagara Empire: Administration, Economy, Social and Cultural Development)
विजयनगरकालीन तेलुगु रचनाएँ

कृष्णदेव राय के काल को ‘तेलुगु साहित्य का क्लासिकी युग’ माना जाता है। उसने ‘आंध्र भोज’, ‘अभिनव भोज’, ‘आंध्र पितामह आदि उपाधियाँ धारण की थी। उसके काल में तेलुगु साहित्य में एक नये तत्त्व का आगमन हुआ और संस्कृत ग्रंथों के तेलुगु अनुवाद के स्थान पर स्वतंत्र रूप से पौराणिक अथवा कल्पित कथा के आधार पर प्रबंधों की रचना प्रारंभ हुई। इस परंपरा में रचे गये महाकाव्यों में स्वयं कृष्णदेव राय की रचना ‘आमुक्तमाल्यदअथवा विष्णुचित्तीय प्रथम उदाहरण है। इसमें अलवार विष्णुचित्त (पेरियालवार) के जीवन, वैष्णव दर्शन पर उनके मत तथा उनकी दत्तक पुत्री गोदा एवं भगवान रंगनाथ के बीच प्रेम का वर्णन है। इसे तेलुगु के पंचमहाकाव्यों में एक माना जाता है। तेलुगु के पाँच महाकाव्य हैं- कृष्णदेव राय रचित ‘आमुक्तमाल्यद’, अल्लसानि पेद्दन रचित ‘मनुचरित’, भट्टमूर्ति रचित ‘वसुचरित’, पिंगलि सूरन विरचित ‘राघवपांडवीयमु’ तथा तेनालि रामकृष्ण विरचित ‘पांडुरंगमाहात्म्यमु’ हैं। कहते हैं कि कृष्णदेव राय की राजसभा में अल्लसानि पेद्दन, नंदि तिम्मन, भट्टमूर्ति, धूर्जटि, माडय्यगरि मल्लन, अय्यलराजु, रामभद्र, पिंगलि सूरन तथा तेनालि रामकृष्ण नामक आठ कवि रहते थे। इन्हें ‘अष्टदिग्गज’ कहा जाता था।

राजकवि अल्लसानि पेद्दन को कृष्णदेवराय ने ‘आंध्रकवितापितामह’ की उपाधि दी थी। इसकी प्रसिद्ध रचना ‘मनुचरितया स्वारोचिश संभव है। इसकी कथा मार्कंडेयपुराण से ली गई है। इस ग्रंथ को अल्लसानि पेद्दन ने कृष्णदेव राय को समर्पित किया था। पेद्दन ने ‘हरिकथासार शरणम्’ नामक एक अन्य ग्रंथ की भी रचना भी की थी, जो अप्राप्त है। कृष्णदेवराय के दूसरे तेलुगु कवि नंदि तिम्मन ने ‘पारिजातापहरण’ प्रबंध नामक काव्य की रचना की। भट्टमूर्ति, जो बाद में रामराज भूषण नाम से प्रसिद्ध हुआ, ने विद्यानाथ के प्रतापरुद्रीय की अनुकृति पर ‘नरसभूपालियम्’ नाम से अलंकार शास्त्र पर एक ग्रंथ की रचना कर तोरगंति नरसराजु को समर्पित किया था। इसकी अन्य कृतियाँ ‘हरिश्चंद्रनलोपाख्यानम्तथा वसुचरित्र हैं। हरिश्चंद्रनलोपाख्यानम् में हरिश्चंद्र और नल-दमयंती की कथा का साथ-साथ वर्णन किया गया है। वसुचरित्र में सुक्तिमती नदी तथा कोलाहल पर्वत की पुत्री गिरिका एवं राजकुमार वसु के विवाह का वर्णन है, जो महाभारत की छोटी-सी कथा है। कालहस्ति के शैव कवि धूर्जटि ने ‘कालहस्ति माहात्म्य’ तथा इसके पौत्र कुमार धूर्जटि ने ‘कृष्णदेवरायविजय’ की रचना की थी। पाँचवे कवि मादय्यगरि मल्लन ने ‘राजशेखरचरित’ की रचना कर ख्याति प्राप्त की थी। ‘सफलकथा सारसंग्रह’ एवं ‘रामाभ्युदयम्’ छठें कवि अच्चलराजु रामचंद्र की रचनाएँ है। कृष्णदेव राय के अष्ट दिग्गजों में सातवें कवि पिंगलि सूरन ने राघवपांडवीयमु में रामायण तथा महाभारत की कथाओं का एक साथ वर्णन किया है। कृष्णदेवराय तथा वेंकट के समकालीन तेनालि रामकृष्ण विरचित ‘पांडुरंग माहात्म्यमु’ की गणना तेलुगु के पाँच महान महाकाव्यों में की जाती है। इसमें एक दुराचारी ब्राह्मण की दिवंगत आत्मा का विष्णु के गणों द्वारा यमराज के चंगुल से छुड़ाये जाने का वर्णन किया गया है। इसकी एक अन्य कृति ‘उद्भटाचार्यचरित’ है। कृष्णदेव राय के समय का एक अन्य तेलुगु कवि संकुसाल नृसिंह है, जिसकी प्रस्तावना में कवियों और राजाओं की निंदा की गई है। पिडुपति सोमनाथ की शैव रचना ‘बासवपुराण’ में वैष्णव धर्म की कटु आलोचना की गई है। कृष्णदेव राय के समय की दो अन्य रचनाएँ मनुमंचिभट्टविरचित ‘हयलक्षणशास्त्रतथा वल्लभाचार्यकृत लीलावती गणित’ हैं। हयलक्षणशास्त्र में घोड़े तथा इसके प्रशिक्षण से संबंधित विषय निरूपित है। लीलावती गणित प्रसिद्ध लीलावती का पद्यानुवाद है।

कन्नड़ साहित्य

तुंगभद्रा की घाटी में ब्राह्मण, जैन तथा शैव धर्म प्रचारकों ने कन्नड भाषा को अपनाया, जिसमें रामायण, महाभारत तथा भागवत की रचना की गई। इसी युग में कुमार व्यास का आविर्भाव हुआ। कुमार व्यास का ‘कन्नड़-भारत कृष्णदेव राय को ही समर्पित है। कन्नड भाषा के संवर्धन में प्रारंभ में जैनों की बड़ी भूमिका रही। किंतु बाद में शैवों और वैष्णवों के बढ़ते प्रभाव के कारण जैनों की स्थिति कमजोर हो गई। हरिहर द्वितीय तथा देवराय प्रथम के काल में मधुर ने पंद्रहवें तीर्थंकर के आधार पर ‘धर्मनाथपुराण’ की रचना की। वृत्तविलास ने ‘धर्मपरीक्षा’ (अमितगति विरचित संस्कृत ‘धर्मपरीक्षा’ का कन्नड़ अनुवाद) तथा ‘शास्त्रसार’ की रचना की। इस युग की एक अन्य रचना ‘काव्यसार’ है, जिसका प्रणयन विद्यानंद ने किया था।

जैनों के बाद कन्नड़ साहित्य के संवर्द्धन में सर्वाधिक योगदान वीरशैवों ने किया। इस काल की कन्नड़ कृतियों में अराध्य ब्राह्मण भीमकविरचित ‘बासवपुराण’ अत्यंत प्रसिद्ध लिंगायत धर्मग्रंथ है। (प्रौढ़) देवराय द्वितीय के दरबारी कवि चामरस ने ‘प्रभुलिंग-लीले’ की रचना की। कहा जाता है कि (प्रौढ़) देवराय द्वितीय ने इसका तेलुगु तथा मलयालम् में अनुवाद भी कराया था। (प्रौढ़) देवराय के मंत्री लक्कना दंडेश ने ‘शिवतत्त्वचिंतामणि’ तथा जक्कनार्य ने ‘नुरोंदुस्थल’ की रचना की।

विजयनगर साम्राज्य: प्रशासन, अर्थव्यवस्था, सामाजिक  एवं सांस्कृतिक विकास (Vijayanagara Empire: Administration, Economy, Social and Cultural Development)
विजयनगरकालीनकन्नड़ रचनाएँ

विरूपाक्ष के शासनकाल में तोंटड सिद्धेश्वर अथवा सिद्धलिंगयति ने 700 वचनों में षट्स्थल-ज्ञानामृत’ नामक एक गद्य ग्रंथ की रचना की। इसके शिष्य विरक्त तोंटदार्य ने ‘सिद्धेश्वर-पुराणलिखा, जिसमें उसने अपने गुरु का जीवनवृत्त निरूपित किया है। गुब्बि के मल्लनार्य ने कृष्णदेव राय के शासनकाल में ‘भावचिंतारत्न’, ‘सत्येंद्रचोल कथेतथा वीरशैवामृत’ की रचना की।

वैष्णव रचनाओं में कृष्णदेव राय के समय ब्रह्मण नारणप्प लिखित ‘गडुगिन भारत’ अत्यंत प्रसिद्ध है। इसमें महाभारत के प्रथम दश पर्वों का कन्नड़ में अनुवाद किया गया है। तिम्मन्नकृत ‘कृष्णराय भारत में महाभारत के ग्यारहवें पर्व से लेकर अठारहवें पर्व तक के कन्नड़ अनुवाद हैं। इसी काल में चाटुविठ्ठलनाथ ने भागवत का कन्नड़ अनुवाद किया। अच्युतदेव राय के शासनकाल में पुरंदरदास ने लोकप्रिय भक्ति गीतों की रचना की। कृष्णदेव राय के शासनकाल में इसके विदूषक ने हास्यरस में रामकृष्ण-कथे की रचना की थी।

विजयनगर में कला एवं स्थापत्य का विकास

विजयनगर के शासकों ने कला एवं स्थापत्य के विकास में भी विशेष रुचि का प्रदर्शन किया। कहा जाता है कि बुक्का प्रथम ने संपूर्ण भारत के विद्वानों, शिल्पकारों और कारीगरों को विजयनगर साम्राज्य में आमंत्रित किया था। इस साम्राज्य की पुरानी राजधानी के पुरावशेष इस बात के सबूत हैं कि अपने गौरवकाल में भारतीय कलाकारों ने यहाँ वास्तुकला, मूर्तिकला एवं चित्रकला की एक पृथक् शैली का विकास किया था। यद्यपि विजयनगर साम्राज्य का राजनीतिक इतिहास उसका दक्कन सल्तनत के साथ चल रहे संघर्ष पर केंद्रित है, किंतु उसकी वास्तुकला का एक पक्ष दक्कन सल्तनत की इस्लामी विशेषताओं के साथ कई धर्मनिरपेक्ष संरचनाओं को समेटे हुए है। कई मेहराब, गुंबद और तहखाने हैं जो इन इस्लामी प्रभावों के सूचक हैं।

विजयनगर साम्राज्य में स्थापत्य कला के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई। कृष्णदेव राय ने अपनी माता की स्मृति में विजयनगर के पास ‘नागलपुर’ नामक एक नया नगर स्थापित करवाया और एक बड़ा तालाब खुदवाया, जो सिंचाई के काम भी आता था। विजयनगर के शासकों के संरक्षण में विजयनगर को विविध प्रकार भवनों, मंदिरों तथा मूर्तियों से अलंकृत किया गया। दुर्भाग्य से इनमें से अधिकांश नष्ट हो गये हैं, किंतु जो अवशिष्ट हैं, उनमें राजा का सभाभवन (आडियन्स हाल) और राजसिंहासन मंच (थ्रोन प्लेटफार्म) विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं।

सभाभवन

सभाभवन का निर्माण मूल रूप से स्तंभों के आधार पर कई मंजिलों में किया गया था। सबसे अंत में पिरामिडनुमा छत थी। अब्दुर रज्जाक के अनुसार सभाभवन दुर्ग में स्थित सभी भवनों से ऊँचा था। इसका निर्माण दस-दस स्तंभों की दस पंक्तियों और इस प्रकार कुल सौ स्तंभों से किया गया था। यह शत-स्तंभ कक्ष (हाल ऑफ हंड्रेड पिलर्स) कहलाता था। स्तंभों के आधार वर्गाकार, दंड बेलनाकार तथा स्तंभशीर्ष दीवारगीर (ब्रैकेट युक्त) थे। निचला भाग आकर्षक सीढ़ियों के डंडों तथा किनारे के साथ एक के ऊपर एक विस्तीर्ण क्रमशः कम होते हुए चबूतरों के रूप में समस्त संरचना के ऐतिहासिक स्वरूप के अनुरूप चौड़े उभरे तथा गढ़े हुए रद्दों से अलंकृत है। वास्तुविद् पर्सी ब्राउन के अनुसार यह सभाभवन फारस तथा मुगलों के अनुकरण पर बनाया गया था।

राजसिंहासन मंच

कहा जाता है कि राजसिंहासन मंच का निर्माण कृष्णदेव राय ने उड़ीसा विजय के उपलक्ष्य में करवाया था। यह भी क्रमशः घटते हुए एक के ऊपर एक तीन चबूतरों से वर्गाकार रूप में बनाया गया था। इसमें सबसे निचले चबूतरे का एक किनारा 40.234 मीटर तथा सबसे ऊपरी चबूतरे का एक किनारा 23,774 मीटर है। ऊपरी चबूतरे की उर्ध्वाधार दीवारें आकर्षक प्रस्तर संचकणों से अलंकृत हैं। निचले दोनों चबूतरों की उर्ध्वाधार दीवारें पशुओं तथा मनुष्यों की कम उभरी हुई आकृतियों से कलात्मक ढंग से अलंकृत की गई हैं। इसकी समता यूरोप के गोथिक शैली के परवर्ती शिल्प से की जा सकती है।

विजयनगर की अन्य अवशिष्ट कलाकृतियों में लोटस महल, हस्तिशाला तथा मीनारद्वय (वाच टॉवर) विशेष महत्वपूर्ण हैं। प्रायः लोटस महल को भारतीय इस्लामी शैली का मिश्रित रूप माना जाता है, किंतु मेहराबों तथा स्तंभों को छोड़कर शेष रचना पर भारतीय शैली का प्रभाव परिलक्षित होता है। इस महल का निर्माण 1575 ई. में किया गया था। दक्षिण भारतीय मंदिरों के शिखरों के ढंग पर निर्मित यह एक वर्गागार मंडप है जिसका निर्माण दोहरे आलों वाले कोनों के साथ दो मंजिलों में किया गया है। ऊपरी मंजिल में बने कक्षों की छत पिरामिडाकार है। हस्तिशाला पर इस्लामी कला का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है।

विजयनगर साम्राज्य: प्रशासन, अर्थव्यवस्था, सामाजिक  एवं सांस्कृतिक विकास (Vijayanagara Empire: Administration, Economy, Social and Cultural Development)
विट्ठल मंदिर का पत्थर का रथ (हम्पी)
मंदिर-वास्तु

विजयनगर स्थापत्य शैली का पूर्ण विकास मंदिर-वास्तु में परिलक्षित होता है। दक्षिण भारत के विभिन्न संप्रदायों तथा भाषाओं के घुलने-मिलने के कारण एक नई प्रकार की मंदिर निर्माण की वास्तुकला को प्रेरणा मिली। विजयनगर साम्राज्य के मंदिर-वास्तु की प्रमुख विशेषताएँ थी-मंडप के अतिरिक्त कल्याण-मंडप का प्रयोग, अलंकृत स्तंभों और पायों का प्रयोग, एक ही चट्टान को काटकर स्तंभ और जानवर की आकृति का निर्माण। इस समय कर्मकांडीय जरूरतों को पूरा करने के लिए मंदिर के विशाल प्रांगण में मुख्य मंदिर के साथ-साथ अन्य देवी-देवताओं के मंदिर और अलंकृत स्तंभों का निर्माण आरंभ हुआ। किंतु इन दोनों निर्माणों से भी अधिक जीवंत तथा आकर्षक रचना अलंकृत कल्याण मंडप है, जहाँ देवता के विवाह का प्रतीकात्मक समारोह आयोजित किया जाता था।

विजयनगर के मंदिरों की एक प्रमुख विशेषता है- इनके स्तंभों तथा पायों का विधिवत अलंकरण। यह अलंकरण जटिल मूर्ति समूहों से किये गये हैं। स्तंभों तथा स्थूणों को अत्यंत निपुणता से तराश कर इन पर मनुष्य, देवी-देवता तथा पैर उठाये पशुओं की रमणीय मूर्तियाँ तक्षित की गई हैं। सभी स्तंभ तथा मूर्तियाँ एक ही ठोस पत्थर को अच्छी तरह तराश कर बनाई गई हैं, जिनमें दो पैरों पर खड़े घोड़े की आकृति सर्वाधिक आकर्षक है। इन मुख्य स्तंभों से अलग मध्यवर्ती स्तंभों के चारों ओर लघु स्तंभों का समुदाय है। इनका मुख्य दंड कई भागों में बँटा है और प्रत्येक भाग में मंदिर के प्रतिरूप बने हैं, जो बुर्ज के समान एक दूसरे के ऊपर हैं। सभी स्तंभों में स्तंभ-शीर्ष के अंश के रूप में अलंकृत ब्रैकेट तथा ब्रैकेट के नीचे पुष्पों की लटकन है, जो अधोमुख कमल की कली के रूप में दिखते हैं।

विजयनगर शैली का एक अन्य तत्व हम्पी में ससिवकालु (सरसों) गणेश और कदलेकालु (मूंगफली) गणेश, करकला और वेनूर में गोम्मटेश्वर (बाहुबली) मोनोलिथ और लेपाक्षी में नंदी बैल जैसे बड़े मोनोलिथ की नक्काशी और अभिषेक है। कोलार, कनकगिरी, श्रृंगेरी और कर्नाटक के अन्य शहरों के विजयनगर मंदिर; आंध्र प्रदेश में तड़पत्री, लेपाक्षी, अहोबिलम, तिरुमाला वेंकटेश्वर मंदिर और श्रीकालहस्ती के मंदिर; और तमिलनाडु में वेल्लोर, कुंभकोणम, कांची और श्रीरंगम के मंदिर इस शैली के उदाहरण हैं।

विजयनगर मंदिर वास्तु शैली के समस्त मंदिर तुंगभद्रा के दक्षिण समस्त दक्षिण भारत में, जहाँ द्रविड़ शैली के मंदिर पाये जाते हैं, फैले हुए हैं। मंदिर-स्थापत्य के सर्वोत्कृष्ट उदाहरण के रूप में विजयनगर की विध्वंस राजधानी हम्पी में स्थित विट्ठलस्वामी मंदिर तथा हजार राम मंदिर का उल्लेख किया जा सकता है, जिनका निर्माण कृष्णदेव राय द्वारा करवाया गया था।

विट्ठलस्वामी मंदिर

विजयनगर के सभी मंदिरों में विट्ठलस्वामी मंदिर सर्वश्रेष्ठ तथा सर्वोत्तम अलंकृत मंदिर है। इसमें विष्णु (विठोवा-पंढरपुर के प्रसिद्ध देवता) की प्रतिमा स्थापित है। संभवतः इस मंदिर का निर्माण कृष्णदेव राय के शासनकाल में 1513 ई. में प्रारंभ हुआ था और उसके उत्तराधिकारी के शासनकाल में भी चलता रहा। यह मंदिर एक मिश्रित भवन है, जो 152ग्94 मीटर लंबे-चौड़े आँगन में खड़ा है। आहाता स्तंभों की तिहरी कतार से घिरा है। इसमें पूरब, दक्षिण तथा उत्तर में तीन प्रवेशद्वार हैं और इनके ऊपर गोपुरम् बनाये गये हैं।

इस मंदिर के मुख्य तीन अंग हैं- गर्भगृह, मध्यमंडप या सभाभवन और अर्द्धमंडप (सामने स्तंभोंवाली खुली ड्योढ़ी), जो 41,148ग्20.422 मीटर आयताकार क्षेत्र में विस्तृत हैं। अर्द्धमंडप 1.5 मीटर ऊँची कुर्सी पर बना है। इसमें कुल 56 अलंकृत स्तंभ हैं और प्रत्येक 3.7 मीटर ऊँचा है। इन्हें ग्रेनाइट के ठोस खंडों को काटकर बनाया गया है। इनमें चालीस स्तंभ हाल के बाहरी किनारे के चारों ओर मार्ग निर्माण की दृष्टि से नियमित अंतर पर खड़े किये गये हैं, शेष सोलह मध्य भाग में आयताकार मार्ग बनाने का काम करते हैं। स्तंभ के बल्ल तथा शीर्ष की खुदाई पृथक् ढंग से की गई है। स्तंभ की पीठिका अत्यंत सुंदर ढंग से खुदी है। स्तंभों के ऊपर ब्रैकेट बने हैं जिनके ऊपर छत टिकी है। किंतु सभी स्तंभ एक समान तक्षित नहीं हैं। इस द्वार-मंडप की उत्कृष्ट कला ने आगे चलकर चिदंबरम्, वेल्लोर तथा मदुरै की द्रविड़ शैली के मंदिरों को स्थायी रूप से प्रभावित किया।

मंदिर का भीतरी भाग वर्गाकार है, जिसकी एक ओर की लंबाई 16,764 मीटर है। इसके मध्य में एक वर्गाकार मंच तथा प्रत्येक कोने पर एक-एक स्तंभ है। विमान 22.86 मीटर लंबा और 21.946 मीटर चौड़ा है। इसके अंदर बाहरी आंगन की सतह पर एक प्रदक्षिणा-पथ है। मंदिर का एक भाग कल्याण-मंडप है, जो मुख्य मंदिर से अलग उत्कृष्ट तथा भव्य कारीगरी से युक्त है। इसमें भी एक खुला मंडप है, जिसकी वास्तु-रचना मंदिर के सामने वाले द्वार-मंडप से मिलती-जुलती है। इसमें कुल अड़तालीस स्तंभ हैं और सभी अलंकृत हैं। कल्याण-मंडप के पास तथा महामंडप के प्रवेश द्वार के सामने एक अन्य अत्यंत आकर्षक भवन है जिसमें गमनशील पत्थर के पहिये लगे हैं, जो घूमते थे और यथार्थ लगते हैं। संपूर्ण रथ विजयनगर की शिल्पकला का उत्कृष्ट नमूना है।

हजार राम मंदिर

विजयनगर साम्राज्य के मंदिर वास्तुकला का एक उत्कृष्ट नमूना हजार राम मंदिर है। संभवतः इस मंदिर का निर्माण भी कृष्णदेव राय ने 1513 ई. में प्रारंभ किया था। कुछ विद्वानों के अनुसार इसे विरूपाक्ष द्वितीय ने बनवाया था। इस मंदिर के मुख्य तथा सहायक मंदिरों की रचना विट्ठलस्वामी मंदिर की शैली पर ही की गई थी। यहाँ एक आँगन में मुख्य मंदिर के अतिरिक्त देवी के लिए अलग देवस्थान, कल्याण-मंडप तथा अन्य सहायक मंदिर हैं। आंगन को 7.315 मीटर ऊँची दीवार से घेरा गया है। आँगन में जाने के लिए पूरब की तरफ चौरस छतवाला द्वार-मंडप है, जो सभाभवन की ओर जाता है। सभाभवन में चारों ओर काले पत्थर के चार बड़े स्तंभ हैं, जिन पर उत्कृष्ट नक्काशी की गई है। अहाते के मध्य स्थित मुख्य भवन के ऊपर असाधारण विमान अथवा बुर्ज है। इसकी निचली मंजिल पत्थर की है और शुंडाकार बुर्ज ईंट का बना है। मंदिर की भीतरी दीवारों पर रामायण के दृश्य अंकित किये गये हैं।

चित्रकला

विजयनगर काल में चित्रकला उत्तमता की ऊँची सीढ़ी पर पहुँच गई थी जिसे लिपाक्षी कला कहा जाता है। इसके विषय रामायण एवं महाभारत से लिये गये हैं। हम्पी के विरुपाक्ष मंदिर में दशावतार और गिरिजाकल्याण (पार्वती, शिव की पत्नी का विवाह), लेपाक्षी के वीरभद्र मंदिर में शिवपुराण भित्तिचित्र (शिव की कथाएँ) और कामाक्षी और वरदराज मंदिरों में दीवार-चित्रकला शामिल हैं। संगीतकला का शीघ्रता से विकास हुआ। संगीत के विषय पर कुछ नई पुस्तकें लिखी गईं। कृष्णदेव राय और रामराय संगीत में प्रवीण थे। नाट्यशालाओं में यक्षणी शैली सबसे प्रसिद्ध था। इस प्रकार विजयनगर के प्रतिभाशाली शासकों के संरक्षण में विजयनगर की चतुर्दिक उन्नति हुई।

इन्हें भी पढ़ सकते हैं-

सिंधु घाटी सभ्यता के प्रमुख तत्त्व 

शाकम्भरी का चाहमान (चौहान) राजवंश 

अठारहवीं शताब्दी में भारत

बाबर के आक्रमण के समय भारत की राजनैतिक दशा 

विजयनगर साम्राज्य का उत्थान और पतन

भारत में सांप्रदायिकता के उदय के कारण 

भारत पर ईरानी और यूनानी आक्रमण 

आंग्ल-सिख युद्ध और पंजाब की विजय 

नेपोलियन बोनापार्ट 

प्रथम विश्वयुद्ध, 1914-1918 ई. 

पेरिस शांति-सम्मेलन और वर्साय की संधि 

द्वितीय विश्वयुद्ध : कारण, प्रारंभ, विस्तार और परिणाम 

यूरोप में पुनर्जागरण पर बहुविकल्पीय प्रश्न-1 

प्राचीन भारतीय इतिहास पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-1 

जैन धर्म पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-1 

बौद्ध धर्म पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-1

आधुनिक भारत और राष्ट्रीय आंदोलन पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-1

भारत के प्राचीन इतिहास पर आधारित क्विज-1 

भारत के मध्यकालीन इतिहास पर आधारित क्विज-1

सिंधुघाटी की सभ्यता पर आधारित क्विज 

Print Friendly, PDF & Email