जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर (Zaheeruddin Muhammad Babur)

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जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर

जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर भारतीय इतिहास में बाबर के नाम से प्रसिद्ध है। मुगल व॔श के स॔स्थापक बाबर का जन्म ट्रांस-आक्सियाना की एक छोटी-सी रियासत फरगना में 14 फरवरी, 1483 ई. को हुआ था। तुर्की भाषा में बाबर का अर्थ होता है ‘बाघ’। उसका पिता उमरशेख मिर्जा फरगाना का शासक था और तैमूर की चौथी पीढ़ी से संबंधित था। बाबर की माँ कुतलुगनिगार खानम मंगोल शासक युनुस खाँ की पुत्री थी जो चंगेज खाँ का वंशज था। इस प्रकार बाबर की रगों में दो वीर योद्धाओं चंगेज खाँ और तैमूर का का खून दौड़ता था। हालाँकि बाबर मूलरूप से मंगोलिया के बर्लास कबीले से संबंधित था, किंतु उस कबीले के लोगों पर फारसी तथा तुर्क जनजीवन का बहुत असर रहा था। बाल्यकाल में बाबर की शिक्षा-दीक्षा का समुचित प्रबंध किया गया जिसके फलस्वरूप वह अपनी मातृभाषा चगताई के अलावा तुर्की तथा फारसी भाषाओं में भी पारंगत हो गया था। बाबर ने अपनी मातृभाषा चगताई में ‘बाबरनामा’ के नाम से अपनी जीवनी लिखी।

जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर (Zaheeruddin Muhammad Babur)
जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर

बाबर का पिता मिर्जा उमरशेख अपने छोटे-से राज्य फरगना, जिसकी राजधानी अन्दिजा थी, से संतुष्ट नहीं था। इसलिए उसका अपने बड़े भाई अहमद मिर्जा से, जो समरकंद का शासक था, विवाद होता रहता था क्योंकि उसे सबसे बड़ा भाग समरकंद और बुखारा मिला था। इसी प्रकार का झगड़ा उसके तथा मंगोल शासक महमूद खाँ के बीच होता रहता था जो उमरशेख का साला था और फरगना के पूरब में मंगोल राज्य का शासक था। फिर भी, फरगना का राज्य सुरक्षित रहा। इसका कारण यह था कि मंगोल शासक युनुस खाँ ने, जो उमरशेख का ससुर था, सदैव फरगना को संरक्षण प्रदान किया। 1486-87 ई. में युनुस खाँ की मृत्यु के बाद उसके पुत्र अहमद खाँ ने फरगना की रक्षा की। लेकिन 1494 ई. में उसकी मृत्यु के बाद उसका भाई महमूद खाँ मंगोल शासक बना जो फरगना के पूर्वी भाग को अपने राज्य में मिलाना चाहता था।

तैमूरलंग का आक्रमण, 1398 ई.

बाबर की समस्याएँ

8 जून, 1494 ई. को मिर्जा उमरशेख की मृत्यु हो गई और बाबर ग्यारह वर्ष की आयु में फरगना का उत्तराधिकारी बना और अपनी दादी ‘ऐसानदौलत बेगम’ के सहयोग से अपना राज्याभिषेक करवाया। जिस समय बाबर फरगना के सिंहासन पर आरूढ़ हुआ, उसके चाचा अहमद मिर्जा तथा मामा महमूद खाँ ने फरगना पर दो ओर से आक्रमण कर दिया। बाबर ने बड़े धैर्य और साहस के साहस के साथ उनका सामना करने की तैयारी की। किंतु अस्वस्थता के कारण अहमद मिर्जा को वापस लौटना पड़ा और इस बदली परिस्थिति में महमूद मिर्जा ने भी वापस जाना श्रेयस्कर समझा। इस प्रकार बाबर आक्रमणकारियों से फरगना की रक्षा करने में सफल हो गया। इसके बाद उसने फरगना के शासक के रूप में अपनी शक्ति को सुदृढ़ करने का प्रयास किया।

समरकंद विजय की महत्त्वाकांक्षा

बाबर एक महत्वाकांक्षी शासक था। वह फरगना जैसे छोटे राज्य से संतुष्ट होने वाला नहीं था। वह तैमूर राज्य की राजधानी समरकंद पर अधिकार करना चाहता था जिस पर उसके चाचा मिर्जा अहमद का शासन था। 1494 ई. में चाचा अहमद मिर्जा की मृत्यु हो गई और उसके पुत्रों के बीच गृहयुद्ध आरंभ हो गया।

बाबर ने इस स्थिति से लाभ उठाकर 1496 ई. में समरकंद को अधिकृत करने का प्रयास किया, लेकिन सफलता नहीं मिल सकी। अपने दूसरे प्रयास में 1497 ई. में वह समरकंद को जीतने में सफल हो गया। किंतु बाबर की यह सफलता अस्थायी सिद्ध हुई और सौ दिनों के शासन के बाद ही उसे समरकंद छोड़ना पड़ गया। जब बाबर समरकंद पर आक्रमण कर रहा था, तब उसके एक सैनिक सरगना ने उसकी अनुपस्थिति का लाभ उठाकर फरगना पर अधिकार कर लिया। बाबर फरगना पर अधिकार करने के लिए वापस आ रहा था तो उसकी सेना ने समरकंद में उसका साथ छोड़ दिया और उजबेक सरदार शैबानी खाँ ने समरकंद पर अधिकार कर लिया। बाबर अपनी आत्मकथा ‘बाबरनामा’ में लिखता है: ‘‘मैंने फरगना के लिए समरकंद खो दिया और अब फरगना भी मेरे हाथ से निकल गया।’’ इस प्रकार समरकंद और फरगना, दोनों बाबर के हाथ से निकल गये, किंतु बाबर हार मानने वाला नहीं था। भाग्यवश 1898 ई. में वह फरगना पर पुनः अधिकार करने में सफल हुआ, किंतु 1500 ई. में वह फिर उसके हाथ से निकल गया। इस प्रकार बाबर पुनः एक निर्वासित की भाँति भटकने लगा।

बाबर ने 1501 ई. में उजबेक शासक शैबानी खाँ को पराजित कर समरकंद पर पुनः अधिकार कर लिया, किंतु इस बार भी बाबर की सफलता अस्थायी सिद्ध हुई और मात्र आठ महीने बाद ही 1502 ई. में शैबानी खाँ ने उसे सर-ए-पुल के युद्ध में निर्णायक रूप से पराजित कर समरकंद छोड़ने पर विवश कर दिया। इस तरह समरकंद, जो बाबर के जीवन की एक बड़ी ख्वाहिश थी, उसके हाथों से फिर निकल गया। इसके बाद अगले तीन वर्षों (1502 ई से 1504 ई.) तक बाबर पुनः एक निर्वासित और हारे हुए जुआरी की भाँति इधर-उधर भटकता रहा। लेकिन इस स्थिति में भी वह निराश नहीं हुआ।

काबुल पर अधिकार (1504 ई.)

बाबर लिखता है: मुझमें विजय और विस्तृत राज्य प्राप्त करने की इच्छा थी, इसलिए मैं एक-दो पराजय से परास्त होकर बैठने वाला नहीं था।’’ समरकंद पर अधिकार करने के बाद उजबेक सरदार शैबानी खाँ ने अधिकांश ट्रांस-आक्सियाना क्षेत्र पर भी अधिकार कर लिया। इससे मध्य एशिया के तैमूरी राज्य समाप्त हो गये और वहाँ के अनेक सैनिक बाबर के पास एकत्रित होने लगे। इनकी संख्या लगभग चार हजार हो गई थी। बाबर इस समय ताशकंद में था। अब उसके समक्ष दो विकल्प थे-एक तो हेरात की रक्षा के लिए जाना जिस पर शैबानी खाँ ने आक्रमण कर दिया था, दूसरे, काबुल पर आक्रमण करना, जहाँ के तैमूर शासक अब्दुर्रज्जाक को मुकीम अरधुन ने निकाल दिया था। अंततः बाबर ने 1504 ई. में काबुल की ओर बढ़कर हिंदुकुश की बर्फीली चोटियों को पारकर काबुल तथा गजनी पर अधिकार कर लिया और मुकीम को निकाल दिया। वह स्वयं काबुल के सिंहासन पर बैठा और अपने चचेरे भाई अब्दुर्रज्जाक को एक जागीर दे दी। काबुल-विजय के बाद बाबर ने अपने पूर्वजों द्वारा धारण की गई उपाधि ‘मिर्जा’ को त्यागकर नई उपाधि ‘पादशाह’ धारण की।

काबुल में रहते हुए बाबर समरकंद को कभी भूला नहीं था। उसने समरकंद पर पुनः अधिकार करने के लिए हेरात के एक तैमूरवंशी हुसैन बैकरह, जो कि उसका दूर का चाचा भी था, के साथ शैबानी के विरुद्ध सहयोग की संधि की। किंतु 1506 ई. में हुसैन की मृत्यु हो गई और शैबानी खाँ ने अंततः हेरात पर भी अधिकार कर लिया।

बाबर ने अपनी जीवनी में हेरात को ‘बुद्धिजीवियों से भरे शहर’ के रूप में वर्णित किया है। शायद बाबर को अपनी जीवनी चागताई भाषा में लिखने की प्रेरणा हेरात के कवि मीरअली शाह नवाई की रचनाओं से ही मिली थी।

समरकंद जीतने का पुनः प्रयास

1508 ई. और 1509 ई. में बाबर काबुल में शांतिपूर्वक रहा। लेकिन 1510 ई. में ट्रांस-आक्सियाना में एक महत्वपूर्ण राजनीतिक परिवर्तन हुआ जिससे बाबर को समरकंद फतह करने आशा पुनर्जीवित हो गई। सफवी वंश के शासक शाह इस्माइल प्रथम ने 1510 ई. में मर्व की प्रसिद्ध लड़ाई में उजबेक शासक शैबानी खाँ को हराकर मार डाला।

शैबानी खाँ की मृत्यु से उत्साहित बाबर ने बाबर ने समरकंद जीतने के लिए शाह इस्माइल प्रथम के साथ एक समझौता कर लिया। अक्टूबर, 1511 में बाबर ने समरकंद पर चढ़ाई की और एक बार फिर उसे अपने अधीन कर लिया। लेकिन इस बार भी बाबर की सफलता अस्थायी सिद्ध हुई। शाह इस्माइल के वापस लौटते ही शैबानी खाँ के उत्तराधिकारी उबैदुल्ला खाँ ने ट्रांस-आक्सियाना पर अधिकार लिया और बाबर को पराजित कर समरकंद से निकाल दिया। ईरानी सेना की सहायता से बाबर का उजबेकों के साथ निर्णायक युद्ध 1513 ई. में गजदावान में हुआ जिसमें पराजित और निराश होकर बाबर को काबुल लौटना पड़ा।

वास्तव में उजबेक बहुत शक्तिशाली थे और बाबर उन्हें पराजित नहीं कर सकता था। चूंकि बाबर ने शाह की सहायता के बदले कुछ समय के लिए शिया मत स्वीकार कर लिया था और ईरानी शियाओं की सहायता प्राप्त की थी, इसलिए ट्रांस-आक्सियाना के निवासी उसके विरोधी हो गये थे क्योंकि वे सुन्नी थे। इस प्रकार जब बाबर को उत्तर-पश्चिम में सफलता की कोई उम्मीद नहीं दिखी तो उसने दक्षिण-पूर्व में भारत की ओर अपना ध्यान केंद्रित किया।

तुगलक वंश 1320-1412 ई.

भारत पर बाबर के आक्रमण

बाबर के आक्रमण के कारण

बाबर ने लिखा है कि “काबुल जीतने (1504 ई.) से लेकर पानीपत की लड़ाई तक उसने हिंदुस्तान जीतने का विचार कभी नहीं त्यागा।” वास्तव में मध्य एशिया के कई अन्य आक्रमणकारियों की तरह बाबर भी भारत की अपार धन-संपदा के कारण इसकी ओर आकर्षित हुआ था। बाबर लिखता है कि “विस्तृत राज्य प्राप्त करने के अतिरिक्त भारत विजय का लाभ यह है कि यहाँ सोने की शिलाओं तथा सिक्कों का बाहुल्य है।” बाबर का पूर्वज तैमूर यहाँ से अपार धन-दौलत और बड़ी संख्या में कुशल शिल्पी ही नहीं ले गया था, बल्कि पंजाब के कुछ हिस्सों पर अधिकार भी कर लिया था। इन क्षेत्रों पर कई पीढ़ियों तक तैमूर के वंशज शासन करते रहे थे। बाबर ने जब अफगानिस्तान की विजय की, तो उसे लगा कि पंजाब के इन क्षेत्रों पर भी उसका कानूनी अधिकार है।

काबुल की सीमित आय भी पंजाब परगना को विजित करने का एक कारण थी। उसका (बाबर) राज्य बदख्शाँ, कंधार और काबुल पर था, जिनसे सेना की अनिवार्यताएँ भी पूरी नहीं हो पाती थीं। उसे काबुल पर उजबेक आक्रमण का भी भय लगा रहता था। बाबर उजबेकों के आक्रमण के विरुद्ध भारत को बढ़िया शरण-स्थली समझता था।

इसके अलावा, उत्तर-पश्चिम भारत की राजनीतिक स्थिति ने भी बाबर को भारत आने का अवसर प्रदान किया। दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी के एक केंद्रभिमुखी साम्राज्य स्थापित करने के प्रयास ने अफगानों और राजपूतों दोनों को सावधान कर दिया था। अफगान सरदार दौलत खाँ लोदी पंजाब का गवर्नर था, लेकिन वास्तव में लगभग स्वतंत्र था। वह भीरा का सीमांत प्रदेश को जीतकर अपनी स्थिति को भी मजबूत करना चाहता था। सुल्तान इब्राहिम लोदी का चाचा आलम खाँ लोदी की नजर भी दिल्ली के सिंहासन पर लगी थी।

काबुल विजय के पश्चात् रसद प्राप्त करने के लिए बाबर दो बार भारत की ओर आया था। पहली बार 1504 ई. में वह पेशावर को पार करके सिंध नदी तक आया था और दूसरी बार 1507 ई. में जलालाबाद तक। 1513 ई. में गजदावान की निर्णायक पराजय के बाद बाबर ने काबुल में चार वर्षों तक भारतीय अभियान के लिए सैनिक तैयारी की। उसने एक तुर्क तोपची उस्तादअली कुली को अपने तोपखाने का अध्यक्ष नियुक्त किया जिसने तोपखाने को शक्तिशाली बनाने में अपनी महत्पूर्ण सेवाएँ प्रदान की। 1518 ई. में उसने पहली बार पूरी गंभीरता के साथ भारत पर आक्रमण किया।

भारत पर बाबर के आरंभिक आक्रमण
पहला भारतीय अभियान

अपने पहले भारतीय अभियान में बाबर ने 1519 ई. में युसुफजई जाति का दमन किया और उसे राजस्व देने पर विवश किया। इसके बाद, उसने बाजौर पर आक्रमण करके दुर्ग को घेर लिया। इस भीषण संघर्ष में तोपखाने के कारण उसे सफलता मिली। इसके बाद उसने झेलम नदी के तट पर स्थित भेरा पर आक्रमण किया। भेरा के निवासियों ने बिना कोई प्रतिरोध किये आत्मसमर्पण कर दिया। इस अभियान में बाबर ने अपने सैनिकों को आदेश दिया था कि वे वहाँ के लोगों, पशुओं, एवं कृषि को किसी प्रकार की क्षति न पहुँचायें। इसका कारण यह था कि बाबर वहाँ के लोगों की सहानुभूति प्राप्त कर वहाँ शासन करना चाहता था। इसी समय बाबर ने अपने राजदूत मुल्ला मुर्शीद को दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी के पास यह संदेश लेकर भेजा कि जो प्रदेश शताब्दियों से तुर्कों के हैं, वे उसे लौटा दिये जायें। किंतु पंजाब के लोदी सूबेदार दौलत खाँ ने बाबर के राजदूत को लाहौर में रोक लिया जिससे बाबर को अपने संदेश का कोई उत्तर नहीं मिल सका। बाबर भीरा की व्यवस्था हिंदूबेग को सौंपकर काबुल लौट गया।

दूसरा भारतीय अभियान

बाबर के वापस जाते ही युसुफजाइयों ने विद्रोह कर दिया और भेरा से हिंदूबेग को खदेड़ दिया। फलतः सितंबर 1519 ई. में बाबर ने खैबर के दर्रे की ओर से आगे बढ़कर युसुफजाइयों का दमन किया। उसने पेशावर पहुँच कर रसद-संग्रह की ताकि आगामी सैनिक कार्यवाहियों की तैयारी की जा सके। इसी समय उसे सूचना मिली सुल्तान सैदखान बदख्शाँ की ओर बढ़ रहा है। इसलिए बदख्शाँ की रक्षा के लिए बाबर को तुरंत काबुल लौटना पड़ा।

तीसरा भारतीय अभियान

बदख्शाँ में शांति स्थापित करने के बाद बाबर ने 1520-21 ई. में सिंधु नदी पार कर आसानी से बाजौर और भीरा को पुनः जीत लिया। इसके बाद उसने भारत के मुगल-द्वार स्यालकोट एवं सैय्यदपुर पर भी अधिकार कर लिया। बाबर संभवतः और आगे बढ़ता, लेकिन तभी उसे सूचना मिली कि कंधार के शासक शाहबेग अरधुन ने काबुल की सीमा पर आक्रमण कर दिया है। इस स्थिति में बाबर ने कंधार जाने का निर्णय किया। दरअसल बाबर का उद्देश्य कंधार को जीतकर काबुल को सुरक्षित करना था ताकि वह निश्चिंत होकर भारतीय अभियान में अपनी पूरी शक्ति लगा सके। बाबर डेढ़ साल तक शाहबेग अरधुन के विरूद्ध कार्यवाही में व्यस्त रहा और अंततः 1522 ई. में कंधार के किलेदार मौलाना अब्दुल बकी के विश्वासघात के कारण दुर्ग को जीतने में सफल रहा। कंधार विजय के बाद बाबर ने अपने पुत्र कामरान को कंधार का किलेदार नियुक्त कर दिया।

चौथा भारतीय अभियान

बाबर ने 1524 ई. में चौथी बार भारत की ओर रुख किया। इस समय बाबर कंधार की विजय से काबुल की सुरक्षा की चिंता से मुक्त हो गया था। पश्चिम में ईरानियों, रूस में उस्मानियों तथा ट्रांस-आक्सियाना के उजबेकों के मध्य शक्ति-संतुलन स्थापित हो गया था और अफगानिस्तान पर भी आक्रमण की कोई संभावना नहीं थी। इसी समय बाबर को पंजाब के सूबेदार दौलतखाँ लोदी का भारत पर आक्रमण करने का निमंत्रण मिला। दौलत खाँ लोदी को भय था कि सुल्तान इब्राहिम लोदी उसे पंजाब के सूबेदार पद से हटा सकता है। इसलिए उसने बाबर से आग्रह किया कि वह सुल्तान इब्राहिम लोदी को दिल्ली के सिंहासन से अपदस्थ पर उसके स्थान पर उसके चाचा आलम खाँ की सहायता करे। आलम खाँ लोदी भी इस समय काबुल में था और वह बाबर की सहायता से दिल्ली का सिंहासन हथियाना चाहता था। बाबर के लिए यह सुनहरा अवसर था क्योंकि उसे मेवाड़ के राणा सांगा का निमंत्रण भी मिल चुका था। इससे बाबर को लगा कि यदि हिंदुस्तान को नहीं, तो सारे पंजाब को जीतने का समय आ गया है।

अपने चौथे अभियान में बाबर ने बड़ी सरलता से लाहौर एवं दिपालपुर पर अधिकार कर लिया। इसके बाद बाबर दिल्ली की ओर बढ़ा। दौलत खाँ लोदी दिपालपुर में बाबर से मिला। बाबर ने उसे लाहौर के स्थान पर केवल जालंधर और मुल्तान की जागीरें दी। इससे दौलत खाँ को बड़ी निराशा हुई क्योंकि वह तो संपूर्ण पंजाब का सपने देख रहा था। उसने बाबर के वापस लौटते ही सुल्तानपुर तथा दिपालपुर पर अधिकार कर लिया। किंतु बाबर के सैनिकों ने दौलतखाँ को लाहौर में पराजित कर दिया। इसके बाद बाबर ने काबुल लौटने का निर्णय लिया। बाबर के काबुल लौटने के कई कारण थे-एक तो, अफगान अमीरों से उसे यथोवित सहायता नहीं मिली थी। दूसरे, उसके अपने अमीर लंबी और कठोर लड़ाइयों के लिए तैयार नहीं थे। तीसरे, सुल्तान इबाहिम उतना दुर्बल नहीं था जितना उसे बताया गया था और चौथे, बदख्शाँ पर उजबेकों के आक्रमण होने लगे थे।

पाँचवाँ भारतीय अभियान

काबुल वापस लौटते समय बाबर ने आलम खाँ को दिपालपुर प्रदान किया था। लेकिन आलम खाँ दिल्ली का सिंहासन प्राप्त करना चाहता था। उसने बाबर से प्रस्ताव किया कि यदि वह दिल्ली के सिंहासन की प्राप्ति में उसकी सहायता करे तो वह उसके बदले औपचारिक रूप से लाहौर बाबर को दे देगा। वापस जाते समय बाबर ने लाहौर में अपने अधिकारियों को आदेश दिया कि वे दिल्ली आक्रमण में आलमखाँ की सहायता करें। लेकिन दौलत खाँ ने आलम खाँ को बहकाकर अपनी ओर मिला लिया और फिर दोनों ने लाहौर की मुगल सेना के बिना ही दिल्ली पर आक्रमण कर दिया, किंतु इब्राहिम लोदी की सेना ने उन्हें पराजित कर दिया।

दिसंबर 1525 ई. में फिर बाबर 12,000 सैनिकों के साथ भारत के लिए चला। बदख्शाँ से हुमायूँ भी अपनी सेना के साथ उससे मिल गया। लाहौर की सेना भी उसके साथ हो गई। किंतु ऐसा नहीं लगता कि वह लोदी सल्तनत को समाप्त करके मुगल राज्य की स्थापना के उद्देश्य से आया था। अभी भी उसका उद्देश्य केवल पंजाब को प्राप्त करना था।

बाबर के आने की सूचना पर दौलत खाँ मिलवट के किले में छिप गया। बाबर ने इस किले को घेर लिया और दौलत खाँ लोदी को आत्म-समर्पण करना पड़ा। बाबर ने उसे बंदी बनाकर भेरा किले में रखने का आदेश दिया, लेकिन वह रास्ते में ही मर गया। आलम खाँ पुनः बाबर की सेवा में उपस्थित हुआ। अनेक लोदी अमीरों ने भी बाबर के प्रति निष्ठा प्रकट की, जिससे बाबर को दिल्ली की ओर बढ़ने का प्रोत्साहन मिला।

दिल्ली सल्तनत की प्रशासनिक व्यवस्था

पानीपत का प्रथम युद्ध (1526 ई.)

बाबर के अभियान की सूचना पाकर सुल्तान इब्राहिम लोदी ने हिसार-फिरोजा की ओर से दो अग्रिम सैनिक दस्ते भेजे और स्वयं एक विशाल सेना के साथ दिल्ली के उत्तर की ओर कूच किया। हिसार-फिरोजा की ओर से दो अग्रिम सैनिक दस्ते भेजे। शिकदार हमीद खाँ के पहले अग्रिम दस्ते को हुमायूँ ने और हातिम खाँ के दूसरे अग्रिम दस्ते को जुनैद बरलास ने पराजित कर दिया। बाबर सरहिंद से अंबाला होते हुए यमुना नदी के किनारे-किनारे 12 अप्रैल 1526 ई. को पानीपत के मैदान में पहुँच गया और अपना शिविर डाल दिया।

पानीपत का प्रथम युद्ध दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी (अफगान) एवं बाबर के मध्य 21 अप्रैल 1526 ई. को लड़ा गया। किंतु दोनो पक्षों की सैनिक शक्ति के बारे में इतिहासकारों में मतभेद है। फरिश्ता और अबुल फजल के अनुसार बाबर की सेना में बारह हजार और इब्राहिम की सेना में एक लाख सैनिक थे। बाबर ने अपनी आत्मकथा ‘बाबरनामा’ में भी लिखा है कि उसने केवल 12,000 सैनिकों की सहायता से इब्राहिम लोदी को पराजित किया था। वास्तव में बाबर की सेना में 25,000 हजार से अधिक सैनिक रहे होंगे क्योंकि 12,000 सैनिक उसके साथ काबुल से ही आये थे। इसके बाद गजनी, लाहौर और बदख्शाँ की सेनाएँ भी आकर उससे मिल गई थीं। फिर भी, बाबर की सेना संख्या की दृष्टि से कम थी। इब्राहिम लोदी एक लाख सैनिकों और एक हजार हाथियों को लेकर बाबर का सामना करने के लिए तैयार था।

बाबर की युद्ध-नीति

पानीपत में बाबर ने जिस युद्ध-नीति को अपनाया वह मूल रूप में रक्षात्मक थी, किंतु आवश्यकता पड़ने पर उसे आक्रामक बनाया जा सकता था। बाबर ने अपनी सेना के दायें भाग को शहर में टिका दिया जहाँ काफी मकान थे, फिर बायें भाग की सुरक्षा के लिए उसने खाई खोदकर उस पर पेड़ों की डालियाँ डाल दी। उसने सेना के आगे सात सौ गतिशील गाड़ियों की सुरक्षात्मक दीवार ‘अराबा’ का निर्माण किया। उसने दो गाड़ियों के बीच तोपचियों के लिए ‘टूरा’ या बचाव स्थान बनाये, जिस पर सिपाही अपनी तोपें रखकर गोले चला सकते थे। तोपों के पीछे अचानक आक्रमण करने के लिए घुड़सवार सेना थी। बाबर इस विधि को आटोमन (रूमी) विधि कहता था क्योंकि इसका प्रयोग आटोमनों ने ईरान के शाह इस्माइल के विरुद्ध हुई प्रसिद्ध लड़ाई में किया था। बाबर को दो अच्छे निशानेबाज तोपचियों उस्ताद अली और मुस्तफा की सेवाएँ भी प्राप्त थीं।

दूसरी ओर, इब्राहिम लोदी की सेना में परंपरागत चार भाग थे-अग्रगामी दल, केंद्रीय दल, वामदल और दक्षिण दल। मुख्य आक्रामक शक्ति केंद्रीय दल में थी। इब्राहिम के पास तोपों या बंदूकों का अभाव था। हालांकि इब्राहिम स्वयं साहसी तथा वीर सैनिक था, लेकिन उसमें उत्तम सेनानायक के गुण नहीं थे। उसे बाबर की सुदृढ़ रक्षा-पंक्ति का कोई आभास नहीं था। उसने सोचा कि अन्य मध्य एशियाई लड़ाकों की तरह बाबर भी दौड़-भागकर युद्ध लड़ेगा और आवश्यकतानुसार तेजी से आगे बढ़ेगा या पीछे हटेगा। इस प्रकार एक ओर निराशाजनित साहस और वैज्ञानिक युद्ध प्रणाली के कुछ साधन थे, दूसरी ओर मध्यकालीन ढंग के सैनिकों की अव्यवस्थित भीड़ थी जो भालों और धनुष-बाणों से सुसज्जित थी।

एक सप्ताह तक दोनों सेनाएँ एक-दूसरे के सामने पड़ी रहीं। इब्राहिम लोदी ने न तो शत्रु पर आक्रमण किया और न तो शत्रु की सैन्य-व्यवस्था को जानने का प्रयास किया। इसके अलावा उसने राणा सांगा या पूर्वी प्रदेशों के अफगानों से किसी प्रकार की सहायता लेने की भी कोई कोशिश नहीं की। 21 अप्रैल 1526 ई. को बाबर के उकसाने पर इब्राहिम लोदी की सेना ने आक्रमण कर दिया। बाबर इसी अवसर की तलाश में था। अराबा के कारण इब्राहिम की सेना आगे नहीं बढ सक़ी। बाबर की सेना ने लोदी की सेना को घेर लिया और उस पर बाणों की वर्षा करने लगी। इसी समय सामने से उस्ताद अली कुली तथा मुस्तफा की तोपों ने शत्रु पर प्रहार करना आरंभ कर दिया जबकि तुलगमा युद्ध नीति के अनुसार मुगल अश्वारोही सैनिकों ने लोदी सेना के पृष्ठ भाग पर आक्रमण कर दिया। इब्राहिम अपने 5,000-6,000 हजार सैनिकों के साथ अंत तक लड़ता रहा। किंतु दोपहर तक लोदी सेना पूर्ण रूप से पराजित हो गई। अनुमान है कि इब्राहिम के साथ उसके 15,000 से अधिक सैनिक इस युद्ध में मारे गये।

पानीपत की विजय के उपरांत बाबर ने हुमायूँ को आगरा पर तथा अपने बहनोई मेंहदी ख्वाजा को दिल्ली पर अधिकार करने के लिए भेज दिया। 27 अप्रैल को दिल्ली की जामा मस्जिद में बाबर के नाम का खुतबा पढ़ा गया। दिल्ली होता हुआ बाबर 10 मई को आगरा आया। यहाँ उसे इब्राहिम लोदी द्वारा एकत्र शाही खजाना मिला जिसमें ग्वालियर नरेश राजा विक्रमाजीत से छीना गया सुप्रसिद्ध कोहेनूर हीरा भी था। भारत विजय के उपलक्ष्य में बाबर ने लूटे गये धन को अपने सैनिक अधिकारियों, नौकरों एवं सगे संबंधियों में बाँट दिया और फरगना, खुरासान, काशगर, ईरान में सोना-चाँदी तथा रत्नों का उपहार भेजा। उसने प्रत्येक काबुल निवासी को एक-एक चाँदी का सिक्का भेंट किया जिसके कारण उसे ‘कलंदर’ की उपाधि दी गई थी।

बाबर की पानीपत-विजय के कारण

पानीपत के युद्ध में दोनों पक्षों के युद्ध-कौशल, सेनापतित्व, अस्त्र-शस्त्रों, अनुशासन, आत्मविश्वास का परीक्षण हुआ था। अफगान भी मुगलों के समान दुर्धर्ष लड़ाकू थे और इब्राहिम भी बाबर के समान साहसी और दृढ़-संकल्पी था लेकिन युद्ध में बाबर की विजय हुई और इब्राहिम की पराजय हुई। यह परिणाम अनपेक्षित नहीं था और कई कारणों से बाबर की जीत सुनिश्चित थी।

वास्तव में बाबर एक श्रेष्ठ सेनापति था। वह मध्य एशिया में अनेक भीषण रक्षात्मक युद्ध लड़ चुका था और उसके दुर्दिनों तथा संकटों ने उसे एक श्रेष्ठ सैनिक बना दिया था। उसने उजबेकों, तुर्कों, मंगोलों, ईरानियों तथा उस्मानी तुर्कों से विभिन्न युद्ध चालों तथा रणकौशलों को सीखा था। घोर विपत्ति में भी वह शांत व स्थिर भाव से अपनी सेना पुनर्गठित कर सकता था। इसके विपरीत, इब्राहिम का युद्ध-कौशल निम्नकोटि का था और उसमें योग्य सेनापति के गुणों का पूर्णतया अभाव था।

बाबर के तोपखाने तथा बंदूकों की युद्ध में मुख्य भूमिका थी। इस युद्ध में बाबर ने तोपों को सजाने में ‘उस्मानी विधि’ (रूमी विधि) का प्रयोग किया था और तोपखाने के भयंकर विनाश के कारण ही इब्राहिम की सेना में भगदड़ मची थी। यद्यपि अफगान तोपखाने से परिचित थे, लेकिन उन्होंने तोपखाने को संगठित करने का कोई प्रयास नहीं किया। वस्तुतः तोपखाने के कारण ही बाबर को विजय प्राप्त हुई थी। इसके अलावा, इस युद्ध में बाबर ने पहली बार प्रसिद्ध ‘तुलगमा युद्ध नीति’ का प्रयोग किया, जिसे उसने उजबेकों से सीखा था।

इब्राहिम राजनीतिक और सैनिक दृष्टि से दुर्बल स्थिति में था। उसे अफगान अमीरों का सहयोग नहीं मिला। उसकी संदेही प्रकृति तथा अमीरों के प्रति कठोर नीति ने अफगानों को विभाजित कर दिया था और वे एकजुट होकर युद्ध नहीं कर सके।

नासिरुद्दीन मुहम्मद हुमायूँ 

पानीपत के प्रथम युद्ध के परिणाम

भारत के मध्यकालीन इतिहास में पानीपत का युद्ध एक युगांतरकारी घटना मानी जाती है। एक, यह युद्ध अफगानों के लिए विनाशकारी सिद्ध हुआ और हिंदुस्तान की सर्वोच्च सत्ता कुछ काल के लिए अफगानों के हाथ से निकलकर मुगलों के हाथों में चली गई। दूसरे, इस युद्ध के परिणामस्वरूप मुगल राजवंश की स्थापना हुई जिसने दो सौ वर्षों के समय में श्रेष्ठ एवं कुशल प्रशासक दिये और इस काल में भारतीय-इस्लामिक संस्कृति का विकास हुआ। तीसरे, पानीपत की विजय के बाद बाबर के दुर्दिनों का अंत हो गया। अब वह भारत में मुगल राज्य को सुदृढ़ और सुरक्षित कर सकता था।

वास्तव में पानीपत की विजय से बाबर के अधिकार में केवल दिल्ली और आगरा ही आये थे, जबकि बिहार में अफगान पुनर्गठित हो रहे थे और राजपूत राणा सांगा के नेतृत्व में दिल्ली पर अपना दावा ठोंक रहे थे। इस दृष्टिकोण से देखा जाए तो पानीपत की लड़ाई राजनीतिक क्षेत्र में उतनी निर्णायक नहीं थी, जितनी समझी जाती है। इसका वास्तविक महत्त्व इस बात में है कि इसने उत्तर भारत पर आधिपत्य के लिए संघर्ष का एक नया युग प्रारंभ किया।

बाबर की कठिनाइयाँ

 पानीपत की विजय के बाद बाबर के सामने बहुत-सी कठिनाइयाँ आईं। उसके बहुत से बेग भारत में लंबे अभियान के लिए तैयार नहीं थे। गर्मी का मौसम आते ही उनके संदेह बढ़ गये। वे अपने घरों से दूर तक अनजाने और शत्रु देश में थे। बाबर कहता है कि भारत के लोगों ने अच्छी शत्रुता निभाई, उन्होंने मुगल सेनाओं के आने पर गाँव खाली कर दिये। निःसंदेह, तैमूर द्वारा नगरों और गाँवों की लूटपाट और कत्लेआम उनकी याद में ताजा थे। बाबर यह बात जानता था कि भारतीय साधन ही उसे एक सुदृढ़ साम्राज्य बनाने में मदद दे सकते हैं और उसके बेगों को भी संतुष्ट कर सकते हैं। उसने दृढ़ता से काम लिया और भारत में रहने की अपनी इच्छा जाहिर कर दी और उन बेगों को छुट्टी दे दी जो काबुल लौटना चाहते थे। इससे उसका रास्ता साफ हो गया। लेकिन इससे राणा साँगा से उसकी शत्रुता हो गई, जिसने उससे दो-दो हाथ करने के लिए तैयारियाँ शुरू कर दी थीं।

खानवा का युद्ध (1527 ई.)

खानवा का युद्ध बाबर तथा मेवाड़ के राजा राणा सांगा के बीच हुआ था। राणा सांगा उत्तर भारत का एक शक्तिशाली शासक था। उसने अपने शौर्य और शक्ति के बल पर गुजरात और मालवा के सुल्तानों को पराजित करके मेवाड़ को एक शक्तिशाली राज्य बना दिया था। संभवतः उसने दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी को भी पराजित किया था। उसका राज्य मध्य भारत में चंदेरी और कालपी तक विस्तृत था। कुछ अफगान सरदार, जिनमें हसन खाँ मेवाती और महमूदखाँ लोदी प्रमुख थे, राणा से मिल गये थे जिससे राणा की शक्ति बढ़ गई थी। यह राजपूत-अफगान मैत्री बाबर के लिए एक बड़ा खतरा साबित हो सकती थी, इसलिए राणा सांगा की शक्ति को नष्ट करना आवश्यक था।

खानवा के युद्ध के कारण

खानवा के युद्ध के कारणों के विषय में इतिहासकारों के अनेक मत हैं। बाबर के अपनी आत्मकथा में राणा सांगा पर संधि तोड़ने का आरोप लगाया है। वह कहता है कि राणा साँगा ने मुझे हिंदुस्तान आने का न्योता दिया और इब्राहिम लोदी के खिलाफ मेरा साथ देने का वादा किया, लेकिन जब मैं दिल्ली और आगरा फतह कर रहा था, तो उसने पाँव भी नहीं हिलाये। यह भी कहा गया है कि खानवा युद्ध के पूर्व राणा ने बाबर के संधि प्रस्ताव को ठुकरा दिया था जिससे क्रोधित होकर बाबर ने जेहाद की घोषणा की और सांगा पर विश्वासघात का आरोप लगाया। वास्तव में इस बात की कोई जानकारी नहीं है कि राणा साँगा ने बाबर के साथ क्या समझौता किया था। संभवतः सांगा ने एक लंबी लड़ाई की कल्पना की थी और आशा की थी कि बाबर तैमूर की भाँति दिल्ली को रौंदकर लोदियों की शक्ति को क्षीण करके वापस लौट जायेगा, तब उसे दिल्ली में हिंदू राज्य स्थापित करने का सुयोग प्राप्त होगा। किंतु लगता है कि बाबर के भारत में रुकने के निर्णय ने परिस्थिति को पूरी तरह से बदल दिया। जब राणा सांगा ने देखा कि बाबर भारत में मुगल राज्य की स्थापना का आयोजन कर रहा है, तब उसने बाबर को भारत से खदेड़ने, कम-से-कम उसे पंजाब तक सीमित रखने के लिए तैयारियाँ शुरू कीं। उधर बाबर ने भी समझ लिया कि राणा साँगा के रहते भारत में मुगल राज्य की स्थापना करना संभव नहीं है, इसलिए उसने भी अपनी सेना के साथ राणा से दो-दो हाथ करने का निश्चय किया।

वास्तव में खानवा का युद्ध बाबर एवं राणा साँगा की महत्त्वाकांक्षी योजनाओं का परिणाम था। बाबर भारत में मुगल साम्राज्य की स्थापना करना चाहता था और राणा साँगा तुर्क-अफगान राज्य के खंडहरों के अवशेष पर एक हिंदू राज्य की स्थापना करना चाहता था। बाबर से निपटने के लिए राणा सांगा ने एक संयुक्त मोर्चे का गठन किया जिसमें कई राजपूत और अफगान सरदार शामिल थे।

जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर (Zaheeruddin Muhammad Babur)
खानवा का युद्ध (1527 ई.)

राणा साँगा के संयुक्त मोर्चे की खबर से बाबर के सैनिकों का मनोबल गिरने लगा। बाबर ने अपने सैनिकों का मनोबल ऊँचा करने के लिए राणा के विरुद्ध ‘जेहाद’ का नारा दिया। युद्ध से पहले की शाम उसने अपने-आपको सच्चा मुसलमान सिद्ध करने के लिए शराब न पीने की कसम खाई और शराब के सभी सोने-चाँदी के पात्रों को तुड़वाकर फकीरों में बँटवा दिया। उसने मुसलमानों से ‘तमगा’ (व्यापारिक कर) न लेने की भी घोषणा की। बाबर लिखता है कि सेना के साहस को बढ़ाने की लिए कुछ काफिरों के सिर काट दिये गये और सैनिकों ने कुरान की शपथ ली।

बाबर अपनी रणनीति के अनुसार आगरा से चालीस किलोमीटर दूर फतेहपुर सीकरी के पास खानवा नामक स्थान पर पहुँच गया। उसने पानीपत की तरह बाहरी पंक्ति में गाड़ियाँ लगवाकर और उसके साथ खाई खोदकर दुहरी सुरक्षा की पद्धति अपनाई। इन तीन पहियोंवाली गाड़ियों की पंक्ति में बीच-बीच में बंदूकचियों के आगे बढ़ने और गोलियाँ चलाने के लिए स्थान छोड़ दिया गया। 16 मार्च, 1527 ई. को खानवा के मैदान में भयंकर संघर्ष हुआ। बाबर के अनुसार साँगा की सेना में 2,00,000 से भी अधिक सैनिक थे। इनमें 10,000 अफगान घुड़सवार और इतनी संख्या में हसन खाँ मेवाती के सिपाही थे। यह संख्या बढ़ा-चढ़ाकर कही गई हो सकती है, लेकिन बाबर की सेना निःसंदेह छोटी थी। साँगा ने बाबर की दाहिनी सेना पर जबरदस्त आक्रमण किया। राजपूतों से युद्ध करते हुए तुर्कों के पैर उखड़ गये, जिससे राजपूतों की विजय और तुर्कों की पराजय दिखाई देने लगी, किंतु जब बाबर के तोपखाने ने आग बरसाई, तब साँगा की जीती बाजी हार में बदल गई। साँगा और उसके वीर जवान अंतिम दम तक लड़ते रहे। बाबर ने राजपूतों के बारे में लिखा है कि ‘वे मरना-मारना तो जानते हैं, किंतु युद्ध करना नहीं जानते।’ अंत में साँगा की पराजय हुई और वह घायल हो गया, लेकिन किसी तरह अपने सहयोगियों द्वारा बचा लिया गया। राजस्थान के ऐतिहासिक काव्य ‘वीर विनोद’ में साँगा और बाबर के इस युद्ध का विस्तारपूर्वक वर्णन मिलता है। खानवा का युद्ध जीतने के बाद बाबर ने ‘गाजी’ की उपाधि धारण की।

शेरशाह सूरी और सूर साम्राज्य 

खानवा के युद्ध का महत्व

खानवा का युद्ध भी पानीपत के युद्ध की तरह महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ। एक तो, खानवा की पराजय से राणा साँगा के नेतृत्व में निर्मित राजपूत संघ नष्ट हो गया और 1528 ई. में राणा साँगा की मृत्यु के बाद राजपूतों के पुनर्गठन की आशा भी समाप्त हो गई। दूसरे, इस युद्ध ने बाबर की शक्ति और मुगल साम्राज्य की स्थापना को सुनिश्चित कर दिया। यद्यपि इसके बाद भी बाबर को युद्ध करने पड़े लेकिन ये सब साम्राज्य के विस्तार तथा अपनी शक्ति में वृद्धि के लिए थे। तीसरे, अब बाबर की शक्ति का केंद्र काबुल से हटकर हिंदुस्तान में आ गया और वह अपना शेष जीवन यहाँ साम्राज्य-निर्माण में लगा सकता था। चतुर्थ, यह अफगानों के लिए भी एक आघात था क्योंकि खानवा में राजपूत और अफगान साथ-साथ लड़े थे और उनका उद्देश्य आक्रमणकारी मुगल को भारत से बाहर निकालना था। लेकिन खानवा की पराजय के बाद अधिकांश अफगान अमीरों ने या तो बाबर की अधीनता स्वीकार कर ली या बिहार में एकत्रित होने लगे थे।

चंदेरी का युद्ध (1528 ई.)

खानवा के युद्ध के उपरांत बाबर ने मालवा स्थित चंदेरी के मेदिनी राय के विरुद्ध अभियान किया। वास्तव में चंदेरी का राजपूत शासक मेदिनीराय खानवा में राणा सांगा की ओर से लड़ा था और अब चंदेरी में राजपूत शक्ति का पुनर्गठन कर रहा था। इसलिए बाबर ने अफगानों से पहले राजपूत शक्ति को नष्ट करना अधिक जरूरी समझा। इसके अलावा, चंदेरी का व्यापारिक तथा सैनिक महत्व था और वह मालवा तथा राजपूताने का प्रवेशद्वार था। बाबर ने एक सेना अरगूनखाँ के नेतृत्व में चंदेरी पर अधिकार करने के लिए भेजी जिसे राजपूतों ने पराजित कर दिया। बाबर को जब मुगल सैनिकों की पराजय का समाचार मिला तो वह स्वयं 9 दिसंबर 1527 ई. को आगरा से चंदेरी चल पड़ा। 21 जनवरी, 1528 ई. को उसने चंदेरी का घेरा डाल दिया और ‘जेहाद’ की घोषणा की।

बाबर ने मेदिनीराय के पास संदेश भेजा कि यदि वह शांतिपूर्वक चंदेरी सौंप दे तो उसे शमसाबाद की जागीर दी जा सकती है। मोदिनीराय ने यह प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। फलतः 29 जनवरी 1528 ई. को बाबर ने दुर्ग पर धावा बोल दिया। राजपूतों ने भयंकर युद्ध किया, किंतु अंत में बाबर अपने तोपखाने की मदद से चंदेरी पर अधिकार करने में सफल हो गया। चंदेरी के उत्तर-पश्चिम में विजय-प्रतीक के रूप में राजपूतों के सिरों का एक मीनार बनाया गया। चंदेरी का राज्य मालवा के सुल्तान के वंशज अहमदशाह को इस शर्त पर दे दिया गया कि वह 20 लाख दाम प्रतिवर्ष शाहीकोष में जमा करेगा। मेदिनी राय की दो पुत्रियों का विवाह कामरान एवं हुमायूँ से कर दिया गया। किंतु बाबर को इस क्षेत्र में अपने अभियान को सीमित करना पड़ा क्योंकि उसे पूर्वी उत्तर प्रदेश में अफगानों के हलचल की खबर मिलने लगी थी।

घाघरा का युद्ध (1529 ई.)

बाबर ने पानीपत में अफगानों को पराजित किया था, किंतु उनका साहस समाप्त नहीं हुआ था। खानवा के युद्ध में बाबर की विजय के बाद इब्राहिम लोदी के भाई महमूद खाँ लोदी ने बिहार में जाकर शरण ली। उसने कुछ ही समय में एक लाख अफगान सैनिकों को एकत्र कर चुनार के दुर्ग का घेरा डाल दिया। वास्तव में इस समय अफगान सरदारों की पीठ पर बंगाल के सुल्तान नुसरत शाह का हाथ था, जो इब्राहिम लोदी का दामाद था। बाबर ने अफगान खतरे को नजरअंदाज करना मुनासिब नहीं समझा और अफगान शक्ति को अंतिम रूप से नष्ट करने के लिए जनवरी, 1529 ई. में आगरा से पूर्व की ओर बढ़ा। अनेक अफगान सरदारों ने उसकी पुनः अधीनता स्वीकार कर ली। लेकिन मुख्य अफगान सेना, जिसे बंगाल के शासक नुसरतशाह का समर्थन प्राप्त था, गंडक नदी के पूर्वी तट पर थी। बाबर ने गंगा पार करके 6 मई, 1529 ई. को घाघरा नदी के तट पर अफगानों और बंगाल की सम्मिलित सेना का सामना किया। हालांकि बाबर ने अफगान तथा बंगाली सेनाओं को लौटने पर मजबूर कर दिया, किंतु वह निर्णायक रूप से युद्ध नहीं जीत सका। अंततः बीमार बाबर ने नुसरतशाह से संधि कर ली, जिसके अनुसार नुसरतशाह ने बाबर के शत्रुओं को अपने साम्राज्य में शरण न देने का वादा किया। अफगान जलालखाँ को बिहार का शासक नियुक्त कर बाबर आगरा लौट गया।

बाबर भारत पर केवल चार वर्ष ही राज्य कर सका। उसका स्वास्थ्य 1528 ई के बाद से ही बिगड़ने लगा था। भारत की उष्ण जलवायु, निरंतर युद्धों में व्यस्तता के अलावा भाँग, मदिरा और अफीम के अत्यधिक सेवन से उसका शरीर जर्जर हो चुका था। फलतः लगभग 48 वर्ष की आयु में 26 दिसंबर, 1530 ई. को आगरे में बाबर की मृत्यु हो गई। बाबर के शव को उसकी इच्छानुसार काबुल में दफनाया गया।

बाबर का महत्त्व एवं मूल्यांकन

बाबर का भारत-आगमन अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण था। कुषाण साम्राज्य के पतन के बाद संभवतः बाबर ऐसा पहला शासक था, जिसके उत्तर-भारतीय साम्राज्य में काबुल और कंधार सम्मिलित थे। बाबर ने संयुक्त राजपूत-अफगान शक्ति को समाप्तकर भारत में मुगल साम्राज्य की स्थापना की और आगरे को अपनी राजधानी बनाया। उससे पहले सुल्तानों की राजधानी दिल्ली थी। प्रशासन और सुरक्षा दोनों दृष्टियों से बाबर को दिल्ली के मुकाबले आगरा अधिक उपयुक्त लगा। दिल्ली के तुर्क शासक ‘सुल्तान’ कहलाते थे, किंतु बाबर ने अपना पद ‘बादशाह’ (शाहों का शाह) घोषित किया और उसके बाद सभी मुगल सम्राट ‘बादशाह’ कहलाये।

आर्थिक दृष्टि से काबुल और कंधार पर अधिकार से भारत का विदेश-व्यापार और मजबूत हुआ क्योंकि ये दोनों स्थान चीन और भूमध्य सागर के बंदरगाहों के मार्गों के प्रारंभिक बिंदु थे। अब एशिया के आर-पार के विशाल व्यापार में भारत बड़ा हिस्सा ले सकता था।

बाबर ने भारत में एक नई युद्धनीति का प्रचलन किया। यद्यपि बाबर से पहले भी भारतीय गोला-बारूद से परिचित थे, लेकिन वह बाबर ही था जिसने भारत में बारूद और तोपखाने को शीघ्र ही लोकप्रिय बना दिया।

कहा जाता है कि बाबर में प्रशासनिक प्रतिभा नहीं थीं और उसने उस समय की प्रचलित प्रशासन व्यवस्था को ही बनाये रखा। वास्तव में बाबर को कभी इतना समय ही नहीं मिला कि वह साम्राज्य में नई प्रशासनिक व्यवस्था स्थापित कर सके। बाबर ने स्वयं इस तथ्य को स्वीकार किया था। यह सही है कि उसमें अकबर या शेरशाह जैसी प्रशासनिक प्रतिभा नहीं थी, किंतु उसने लुटेरों का दमन करके जनता के जानमाल की रक्षा की, सड़कों को सुरक्षित किया और संभवतः चौकियों की स्थापना करके संचार व्यवस्था को कुशल बनाया था। उसने सड़कों की माप के लिए गज-ए-बाबरी का प्रयोग का शुभारंभ किया।

वास्तव में बाबर जन्मजात सैनिक था। ग्यारह वर्ष की आयु से मृत्युपर्यंत उसका जीवन युद्धभूमि में ही बीता था। उसमें सैनिक की दृढ़ता, साहस और संकटों का सामना करने की अपूर्व क्षमता थी। वह एक कुशल घुड़सवार, पक्का निशानेबाज तथा तलवारबाजी में प्रवीण था। वह पराजय से निरुत्साहित नहीं होता था और खतरों तथा संकटों से भागता नहीं था। वह सुख-दुःख में अपने सैनिकों के साथ ही रहता था। लेकिन आवश्यक पड़ने पर कठोरता से अपने आदेशों का पालन कराता था। बाबर का चचेरा भाई मिर्जा हैदर ‘तारीख-ए-रशीदी’ में लिखता है कि “बाबर अनेक गुणों से विभूषित था, अगणित विशिष्टताओं से संपन्न था, उसमें शूरत्व तथा मानवता सर्वोपरि थी। वास्तव में उससे पहले उसके परिवार में इतना प्रतिभा-संपन्न अन्य कोई व्यक्ति नहीं हुआ और न उसकी जात के किसी व्यक्ति ने ऐसे विस्मय तथा वीरतापूर्ण कार्य किये थे और और न ऐसे विचित्र साहस तथा संकटमय जीवन का ही अनुभव किया था।’’

एक व्यक्ति के रूप में बाबर का सबसे बड़ा गुण मानवीयता तथा उसकी स्वाभाविक दयालुता थी। वह अपने बेगों का बहुत ध्यान रखता था और अगर वे विद्रोही न हों तो उनकी कई गलतियाँ माफ कर देता था। अफगान और भारतीय सरदारों के प्रति भी उसका यही दृष्टिकोण था। यद्यपि बाबर ने कई अवसरों पर क्रूरता की हदें पार कर अपने विरोधियों के सिरों के अंबार लगवा दिये थे। किंतु ऐसी घटनाओं को बाबर की कठिन परिस्थतियों के संदर्भ में ही देखा जाना चाहिए।

बाबर पुरातनपंथी सुन्नी था, लेकिन वह धर्मांध नहीं था और न ही धार्मिक भावना से काम लेता था। समरकंद प्राप्त करने में उसने ईरान के शिया शासक से सहायता लेने में कोई बुराई नहीं देखी और शिया शासक के आग्रह पर उसने शिया रिवाजों को भी अपना लिया था। भारत में भी उसने सामान्य रूप से धार्मिक उदारता की ही नीति का पालन किया। इसमें संदेह नहीं कि उसने साँगा के विरुद्ध ‘जेहाद’ की घोषणा की थी और जीत के बाद ‘गाजी’ की उपाधि भी धारण की थी, किंतु उसका कारण स्पष्टतः राजनीतिक था।

बाबर एक कुशल सैनिक होने के साथ ही तुर्की भाषा का विद्वान् था, लेकिन अरबी तथा फारसी का भी अच्छा ज्ञाता था। उसने तुर्की भाषा में अपनी आत्मकथा ‘तुजुक-ए-बाबरी’ (बाबरनामा) की रचना की, कालांतर में जिसका फारसी अनुवाद अब्दुर्रहीम खानखाना ने किया। बाबर शायर भी था और उसने रुबाइयों का एक दीवान भी तैयार किया था। बाबर को ‘मुबइयान’ नामक पद्य शैली का जन्मदाता और ‘खत-ए-बाबरी’ नामक एक लिपि का आविष्कारक भी माना जाता है। बाबर की साहित्यिक प्रतिभा की प्रशंसा करते हुए आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव लिखते हैं कि यदि बाबर को हिंदुस्तान पर विजय प्राप्त करने में सफलता नहीं मिली होती तो भी साहित्य में उसकी स्मृति सदैव जीवित रहती।

बाबर महान प्रकृति-प्रेमी था। उसने अपनी आत्मकथा में पशु-पक्षियों, बाग-बगीचों और प्रकृति का काफी विस्तार से वर्णन किया है। नदियाँ, पहाड़, वृक्ष, पुष्प उसे अत्यधिक आकर्षित करते थे। भारत में राज्य स्थापित करने के बाद भी वह मध्य एशिया के रमणीय बागों, वृक्षों, फलों को याद करता रहा। कहा जाता है कि उसके प्रयोगों से भारतीय खरबूजों तथा अंगूरों में सुधार हुआ था।

इस प्रकार बाबर ने राज्य का एक नया स्वरूप हमारे सामने रखा, जो शासक के सम्मान और शक्ति पर आधारित था, जिसमें धार्मिक और सांप्रदायिक मदांधता नहीं थी, जिसमें संस्कृति और ललित कलाओं का बड़े ध्यानपूर्वक पोषण किया जाता था। इलियट ने सही कहा है कि यदि बाबर का पालन-पोषण एवं प्रशिक्षण इंग्लैंड में होता तो अवश्य ही वह ‘हेनरी चतुर्थ’ होता।

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