उन्नीसवीं सदी में भारतीय पुनर्जागरण (Indian Renaissance in the Nineteenth Century)

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उन्नीसवीं सदी में भारतीय पुनर्जागरण

अठारहवीं शताब्दी में यूरोप में एक नवीन बौद्धिक लहर चली, जिसके फलस्वरूप जागृति के एक नये युग का सूत्रपात हुआ। तर्कवाद, अन्वेषणा की भावना, विज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के कारण यूरोपीय सभ्यता सामाजिक और सांस्कृतिक रूप में अधिक उन्नत और प्रगतिशील हो चुकी थी। उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में जब कंपनी प्रशासन ने अपने औद्योगिक हितों एवं व्यापारिक लाभ के लिए भारतीय सामाजिक संस्थाओं में सीमित हस्तक्षेप की नीति अपनाई, तो नये-नये उभर रहे मध्यम वर्ग और शिक्षित भारतीयों ने तर्कवाद व नवचेतना के आधार पर भारत के धार्मिक और सामाजिक जीवन में सुधार की जो प्रक्रिया प्रारंभ की, उसे ‘सांस्कृतिक जागरण’ की संज्ञा दी गई है। सांस्कृतिक जागरण की प्रक्रिया में पुरातन मान्यताओं एवं विश्वासों पर प्रहार किये गये और विभिन्न कुरीतियों का परित्याग कर नवज्ञान एवं नवीन मान्यताओं को अपनाने पर बल दिया गया।

यूरोप में पुनर्जागरण

भारतीय पुनर्जागरण के कारण

अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार से शिक्षित भारतीयों ने भारत की सामाजिक संरचना, धर्म, रीति-रिवाज व परंपराओं को तर्क की कसौटी पर कसना आरंभ कर दिया। अंग्रेजी शिक्षा ने भारतीय युवकों को विचारों की ऐसी समष्टि के संपर्क में ला दिया, जो खुलकर ऐसी अनेक बुनियादी मान्यताओं को चुनौती देती थी, जिन पर परंपरागत जीवन-मूल्यों का ताना-बना टिका हुआ था। अब एक ऐसा नागरिक समाज जन्म ले चुका था जो था तो बहुत सीमित, किंतु अपनी पहचान को एक भारतीय परंपरा के दायरे में स्थापित करते हुए अपने अधिकारों की रक्षा के प्रति बहुत मुखर था।

सांस्कृतिक जागरण के कारण एक नई धर्म निरपेक्षता की प्रवृत्ति ने जन्म लिया और धर्म को तर्क के दंड से मापा जाने लगा, जिसके परिणामस्वरूप धर्म की विसंगतियों को या तो छोड़ा जाने लगा या उनके लिए तर्कसंगत आधार की खोज की जाने लगी। तर्क और विवेक के आधार पर राममोहन राय जैसे सुधारकों ने भारतीय धर्म और समाज को सुधारने का प्रयास किया और यह भी स्वीकार किया कि हमें पूरब तथा पश्चिम के उत्तम विचारों को स्वीकार कर लेना चाहिए।

भारत में एक ऐसा वर्ग भी था जो किसी भी कीमत पर पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति को स्वीकार करने को तैयार नहीं था और भारत की प्राचीन परंपरा और संस्कृति से आधुनिक राष्ट्रवाद की प्रेरणा लेना चाहता था। इस वर्ग के सुधारक राममोहन राय की तरह तर्क, विवेक एवं वैज्ञानिकता के स्थान पर प्राचीन भारत को स्वर्णयुग मानकर धर्म पर आधारित न्यायसम्मत समाज की स्थापना करना चाहते थे। इस परंपरा के प्रतिनिधि केशवचंद्र सेन, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, दयानंद सरस्वती और रामकृष्ण परमहंस जैसे सुधारक थे।

जेम्स प्रिंसेप ने 1784 में बंगाल में ‘एशियाटिक सोसायटी की स्थापना की। मैक्समूलर और विलियम जोन्स जैसे विद्वानों ने न केवल प्राचीन भारतीय धार्मिक ग्रंथों विशेषकर वेदों और उपनिषदों का अध्ययन किया, वरन् उनका अंग्रेजी अनुवाद भी प्रकाशित किया। पश्चिमी विद्वानों ने भारत की अनेक कलाकृतियों और संस्कृति-केंद्रों को खोजकर प्राचीन भारतीय संस्कृति की विशिष्टता को भी उद्घाटित किया।

1813 के बाद बड़ी संख्या में ईसाई धर्म-प्रचारक भारत आये और बड़े स्तर पर भारत में लोकोपकारी कार्यों की आड़ में ईसाई धर्म का प्रचार करना आरंभ कर दिये। कंपनी बहादुर ने भी इस कार्य में धर्म-प्रचारकों की बड़ी सहायता की। हिंदू समाज का निचला तबका अंशतः सामाजिक विसंगतियों और अंशतः धन के लोभ में ईसाई धर्म को स्वीकार करने लगा, तो प्रबुद्ध भारतीयों ने धर्म-परिवर्तन को रोकने के लिए भारतीय धर्मों, विशेषकर हिंदू धर्म और समाज-व्यवस्था में सुधार का प्रयास किया

संस्कृत के अध्ययन और छापाखाने के प्रसार के कारण भारतवासियों ने नवीन पुस्तकों और उनके विश्लेषणों का अध्ययन किया, जिससे उन्हें अपनी सभ्यता और संस्कृति की अच्छाइयों के साथ-साथ कुप्रथाओं का भी ज्ञान हुआ।

प्रेस की स्थापना और अनेक पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन से भी सांस्कृतिक जागरण को बल मिला। इन समाचार-पत्रों और पत्र-पत्रिकाओं में न केवल अंग्रेजों के दुर्व्यवहार की घटनाएँ छपती थीं, बल्कि भारतीय राष्ट्रवादियों के विचारों के साथ-साथ भारतीय धर्म और समाज की कुरीतियों के विरुद्ध लेख भी छपते थे

शहरीकरण, आधुनिकीकरण तथा रेलों के प्रचलन के कारण भी लोगों के रहने, खाने-पीने और छुआछूत आदि के विचारों पर प्रभाव पड़ा। इन नवीन विचारों के विक्षोभ ने भारतीय सभ्यता और संस्कृति में प्रसार की भावना उत्पन्न की।

इस प्रकार विज्ञान, जनतंत्र तथा राष्ट्रवाद की आधुनिक दुनिया की आवश्यकताओं के अनुसार अपने समाज को ढ़ालने की इच्छा और संकल्प लेकर विचारशील भारतीयों ने अपने पारंपरिक धर्म और समाज के सुधार का कार्य आरंभ किया।

प्रमुख सुधारक और संस्थाएँ

19वी सदी में कई बुद्धिजीवियों तथा चिंतकों ने धर्म एवं संस्कृति के परंपरागत स्वरूप को बदलने की पहल की और सत्यता, प्रासंगिकता एवं तर्कवाद के आधार पर उसे पुनर्व्याख्यायित करने पर बल दिया। सामाजिक प्रासंगिकता को तर्कवाद के रूप में मान्यता दी। सुधारकों ने ऐसे धार्मिक कर्मकांडों और सामाजिक मान्यताओं को अनावश्यक बताया, जो मानव कल्याण और प्रगति में बाधक थे। सुधारकों ने अपनी अवधारणाओं को विभिन्न वैज्ञानिक अन्वेषणों एवं वैज्ञानिक तर्कों के आधार पर पुष्ट किया।

बह्म समाज और राममोहन रॉय

बंगाल के बर्दवान जिले के राधानगर नामक गाँव के एक कट्टर ब्राह्मण परिवार में 22 मई 1774 को जन्मे राममोहन रॉय प्राच्य और पाश्चात्य चिंतन के संश्लिष्ट रूप के प्रतिनिधि थे। वे विद्वान् थे और संस्कृत, अरबी, फारसी, अंग्रेजी, फ्रांसीसी, ग्रीक और हिब्रू सहित एक दर्जन से अधिक भाषाएँ जानते थे। उन्होंने मूल बाइबिल का अध्ययन करने के लिए ग्रीक और हिब्रू भाषाएँ सीखीं और 1809 में फारसी में अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘गिफ्ट टू मोनोथेसिस्ट’ (एकेश्वरवादियों का उपहार) में अनेक देवताओं में विश्वास के विरुद्ध और एकेश्वरवाद के पक्ष में वजनदार तर्क दिये।

राममोहन राय ने 1803-1814 तक ईस्ट इंडिया कंपनी में भी काम किया जहाँ वे जान डिग्वी के अधीन राजस्व पदाधिकारी के रूप में दस वर्षों तक रहे। राममोहन राय 1814 में ईस्ट इंडिया कंपनी की नौकरी छोड़कर कलकत्ता में बस गये और 1815 में आत्मीय सभा आरंभ किये। उन्होंने बंगला में पाँच प्रमुख उपनिषदों का अनुवाद यह दिखाने के लिए किया कि प्राचीन हिंदू ग्रंथ स्वयं भी एकेश्वरवाद के प्रचारक थे।

राममोहन राय ने प्राचीन विशेषज्ञों को उद्धृत किया, तथापि उन्होंने मानवीय तर्कशक्ति का सहारा लिया। उनकी धारणा थी कि वेदांत दर्शन मानवीय तर्कशक्ति पर आधारित है। किसी भी स्थिति में आदमी को तब पवित्र ग्रंथों, शास्त्रों और विरासत में मिली परंपराओं से हट जाने में नहीं हिचकिचाना चाहिए, जब मानवीय तर्कशक्ति का वैसा तकाजा हो और वे परंपराएँ समाज के लिए हानिकारक सिद्ध हो रही हों। राममोहन राय ने 1820 मे ‘प्रीसेप्ट्स आफ जीसस’ नामक पुस्तक प्रकाशित की।

राममोहन ने अमानवीय सतीप्रथा के विरुद्ध 1818 में जनमत खड़ा करने का कार्य आरंभ किया और प्राचीन धर्मग्रंथों का प्रमाण देकर सिद्ध किया कि हिंदू धर्म सतीप्रथा के विरुद्ध है। राधाकांत देव तथा महाराजा बालकृष्ण बहादुर जैसे रूढ़िवादी हिंदुओं के विरोध के बावजूद राममोहन राय के प्रयास से 1828 में लार्ड विलियम बैंटिक ने सतीप्रथा को गैरकानूनी घोषित किया।

रामामोहन राय ने 20 अगस्त 1829 में ‘बह्म समाज’ नामक एक नई धार्मिक संस्था की स्थापना की जिसका उद्देश्य हिंदू धर्म को स्वच्छ बनाना और एकेश्वरवाद की शिक्षा देना था। मुगल सम्राट अकबर द्वितीय ने राममोहन राय को ‘राजा’ की उपाधि से सम्मानित किया था। 1830 में राममोहन राय ब्रिटेन चले गये और 27 सितंबर 1833 को ब्रिस्टल नगर (इंग्लैंड) में उनकी मृत्यु हो गई। राममोहन को ‘विधर्मी’ और ‘जाति-बहिष्कृत’ कहकर उनका सामाजिक बहिष्कार किया।

राममोहन राय और उनके प्रगतिशील सुधारों का विरोध करने के लिए राधाकांत देव ने 1830 में एक विरोधी समाज ‘धर्म सभा’ की स्थापना की थी। ब्रह्म समाज ने ‘संवाद-कौमुदी’ नामक पत्रिका निकाली, तो धर्म सभा ने ‘समाचार-चंद्रिका’ का प्रकाशन किया।

राममोहन राय के सहयोग से 1817 में एक घड़ीसाज डेविड हेयर ने कलकत्ता में हिंदू कालेज की स्थापना की। राममोहन ने अपने खर्च से कलकत्ता में 1817 से एक अंग्रेजी स्कूल चलाया। उन्होंने 1825 में एक ‘वेदांत कालेज’ की भी स्थापना की। राममोहन राय ने बंगला-व्याकरण पर एक पुस्तक लिखी। ‘बंगदूत’ एक अनोखा पत्र था, जिसमें बंगला, हिंदी और फारसी भाषा का प्रयोग एक साथ किया जाता था।

राममोहन ने महिलाओं की परवशता की निंदा की। महिलाओं की स्थिति को सुधारने के लिए उन्होंने माँग की कि उन्हें विरासत और संपत्ति-संबंधी अधिकार दिये जायें। राममोहन राय ने जातिप्रथा की कट्टरता का विरोध किया, जो उनके अनुसार ‘‘हमारे बीच एकता के अभाव का स्रोत रहा है।’’ राममोहन का कहना था कि ‘‘जातिप्रथा दोहरी कुरीति है, उसने असमानता पैदा की है और जनता को विभाजित कर उसे देशभक्ति की भावनाओं से वंचित रखा है।’’

राममोहन राय भारतीय पत्रकारिता के अग्रदूत थे। उन्होंने ‘ब्रह्ममैनिकल मैग्जीन’, ‘संवाद कौमुदी’, ‘मिरात-उल-अखबार’, ‘बंगदूत’ जैसे स्तरीय पत्रों का संपादन-प्रकाशन किया। 1821 में जब एक अंग्रेज जज द्वारा एक भारतीय प्रतापनारायण दास को कोड़े लगाने की सजा दी गई जिससे उसकी मृत्यु हो गई, तो राममोहन ने इस बर्बरता के खिलाफ एक लेख लिखा था।

राममोहन राय राजनीतिक ने माँग की कि वास्तविक किसानों द्वारा दिये जानेवाले अधिकतम् लगान को सदैव के लिए निश्चित कर दिया जाये जिससे वे भी 1793 के स्थायी बंदोबस्त का लाभ उठा सकें। उन्होंने ‘लखिराज’ (टैक्स फ्री) जमीन पर लगान लगाने की सरकारी नीति का विरोध किया। उन्होंने उच्च सेवाओं के भारतीयकरण, कार्यपालिका और न्यायपालिका को एक-दूसरे से अलग करने, जूरी के द्वारा मुकदमों की सुनवाई और भारतीयों तथा यूरोपवासियों के बीच न्यायिक समानता की भी माँग की।

राममोहन ने 1821 की नेपल्स क्रांति की विफलता से इतने दुःखी हुये कि उन्होंने अपने सारे सामाजिक कार्यक्रमों को स्थगित कर दिया था। स्पेनिश अमरीका में 1823 की क्रांति की सफलता पर उन्होंने भोज देकर अपनी प्रसन्नता व्यक्त की थी और आयरलैंड के उत्पीड़क जमींदारों की निंदा की थी।

राममोहन राय के बाद 1833 में ब्रह्मसमाज आंदोलन का नेतृत्व महर्षि देवेंद्रनाथ ठाकुर (1818-1905) ने सँभाला। देवेंद्रनाथ ने राममोहन राय के विचारों के प्रचार के लिए 1839 में ‘तत्त्वबोधिनी सभा’ की स्थापना की।

केशवचंद्र सेन

ब्रह्म समाज आंदोलन को कलकत्ता के पढ़े-लिखे लोगों के सीमित कुलीन वर्गों से बाहर निकालकर उसे पूर्वी बंगाल के कस्बों तक ले जाने का काम 1860 के दशक में विजयकृष्ण गोस्वामी और केशवचंद्र सेन (1838-1884) ने किया। केशवचंद सेन 1857 में ब्रह्म समाज के सदस्य बने थे। 1866 में केशवचंद्र ने ब्रह्म समाज से अलग अपना ‘भारतीय ब्रह्म समाज’ (ब्रह्म समाज आफ इंडिया) बनाया, देवेंद्रनाथ के अनुयायियों ने आदि (मूल) ब्रह्म समाज के नाम से अपनी पहचान बनाये रखने की कोशिश की। केशवचंद्र सेन के नेतृत्व में 1866 में बंगाल में ब्रह्म समाज की पचास, उत्तर प्रदेश में दो एवं पंजाब व मद्रास में एक-एक शाखाएँ स्थापित हो चुकी थीं। इस समाज के सिद्धांतों के प्रसार हेतु विभिन्न भाषाओं में सैंतीस पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित होती थीं।

केशवचंद्र सेन ने 1870 में ‘भारतीय सुधार संघ’ की स्थापना की और ‘सुलभ’ नामक समाचार-पत्र का प्रकाशन किया। सरकार ने 1872 में ‘ब्रह्म-विवाह कानून’ (ब्रह्मो मैरिज ऐक्ट) बनाया। सेन ने अपनी नाबालिग पुत्री का विवाह कूचबिहार के नाबालिग राजकुमार से कर दिया, तो उनके विरोधियों ने 1878 में अपना एक अलग समाज स्थापित कर लिया। जनवरी 1881 में केशवचंद्र सेन ने अपना ‘नबो बिधान’ (नया विधान) बनाया।

1878 में आनंदमोहन बोस, शिवनाथ शास्त्री, विजयकृष्ण गोस्वामी आदि ने ‘साधारण ब्रह्म समाज’ की स्थापना की। इस संस्था ने कलकत्ता में 1880 में ‘ब्रह्म बालिका’ नामक स्कूल की स्थापना की और ‘तत्त्व-कौमुदी’ नामक बंगला एवं ‘ब्रह्म पब्लिक ओपिनियन’ नामक अंग्रेजी समाचार-पत्र के साथ 1884 में ‘संजीवनी’ नामक साप्ताहिक-पत्र का भी प्रकाशन किया।

ईश्वरचंद्र विद्यासागर

बंगाल के एक गरीब परिवार में पैदा होनेवाले समाज सुधारक ईश्वरचंद्र विद्यासागर (1820-1891) अपनी कर्मठता और विद्वता के बल पर 1851 में संस्कृत कालेज के प्रिंसिपल बने थे। ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने 1855 में विधवा पुनर्विवाह के पक्ष में शक्तिशाली आंदोलन किया। विद्यासागर की प्रेरणा से ही भारत की उच्च जातियों में पहला कानूनी हिंदू विधवा पुनर्विवाह कलकत्ता में 7 सितंबर 1856 को उन्हीं की देखरेख में संपन्न हुआ। विद्यासागर के प्रयासों से 1855 और 1860 के बीच 25 विधवा पुनर्विवाह संपन्न हुए। विद्यासागर नारी शिक्षा के अग्रदूतों में से थे। स्कूलों के सरकारी निरीक्षक की हैसियत से विद्यासागर ने 35 बालिका विद्यालयों की स्थापना की। बेथुन स्कूल की स्थापना 1849 में कलकत्ता में हुई।

विद्यासागर द्वारा लिखी गई बंगला वर्णमाला बंगाल में आज भी प्रयोग की जाती है। उन्होंने संस्कृत कालेज के दरवाजे गैर-ब्राह्मण विद्यार्थियों के लिए खोल दिया।

यंग बंगाल आंदोलन और हेनरी विवियन डेरोजियो

यंग बंगाल आंदोलन’ का प्रवर्तक एंग्लो इंडियन हेनरी विवियन डेरोजियो (1809-1831) था जो 1826 से 1831 तक कलकत्ता के हिंदू कालेज में प्राध्यापक रहा। डेरोजियो ने 1828 में ‘एकेडमिक एसोसिएशन’ का गठन किया। डेरोजियो को 1831 में हिंदू कालेज से निकाल दिया गया। डेरोजियो ने यूरेशियनों के मुखपत्र ‘ईस्ट इंडिया’ नामक दैनिक का संपादन किया। 26 दिसंबर को लगभग 22 वर्ष की आयु में हैजे से उसकी मौत हो गई। डेरोजियो के प्रमुख शिष्यों में कृष्णमोहन बनर्जी, रामगोपाल घोष एवं महेशचंद्र घोष थे। डेरोजियो को आधुनिक भारत का ‘प्रथम राष्ट्रवादी कवि’ माना जाता है। 1838 में ‘सोसायटी फार द एक्वीजीशन आफ जनरल नालेज’ के साथ-साथ ‘एंग्लो-इंडियन हिंदू एसोसिएशन’, ‘बंगहित सभा’, ‘डिबेटिंग क्लब’ जैसे संगठनों की स्थापना की थी।

युवा बंगाल आंदोलन ने कंपनी के चार्टर में संशोधन, प्रेस की स्वतंत्रता, विदेश स्थित ब्रिटिश उपनिवेशों में भारतीय मजदूरों के साथ अच्छा व्यवहार, जूरी द्वारा मुकदमों की सुनवाई, जमींदारों द्वारा किये जा रहे अत्याचारों से रैयतों की सुरक्षा और सरकारी नौकरियों में उच्चतर वेतनमानों के अंतर्गत भारतीयों को रोजगार देने जैसे सामान्य हित के सार्वजनिक प्रश्नों पर सार्वजनिक आंदोलन चलाये। यंग बंगाल आंदोलन की तरह बंबई और मद्रास में भी क्रमशः ‘यंग बाम्बे’ और ‘यंग मद्रास’ जैसे आंदोलनों की शुरूआत हुई।

पश्चिमी में सुधार

पश्चिमी भारत में सुधारों की शुरूआत दो अलग-अलग तरीकों से हुई। एक तरीका तो प्राचीन संस्कृत ग्रंथों की छानबीन व अनुवाद का था जिसमें के.टी. तेलंग, बी.एन. मांडलिक और सबसे बढ़कर प्रोफेसर आर.जी. भंडारकर आदि थे। दूसरा तरीका समाज सुधार की और अधिक प्रत्यक्ष विधिवाला था, जो जातिप्रथा जैसी सामाजिक संस्थाओं पर और विधवा पुनर्विवाह पर लगे प्रतिबंध पर हमले करता था। गुजरात के मेहताजी दुर्गाराम मंचाराम (1809-1876) ने हिंदू विधवाओं के प्रति दुर्व्यवहार के विरुद्ध लिखे। दुर्गाराम मंचाराम ने 1844 मं ‘मानव धर्मसभा’ और ‘यूनीवर्सल रिलिजंस सोसायटी’ का गठन किया

अधिकांश गुजराती सुधारक ‘गुजरात वर्नाक्यूलर सोसायटी’ (अहमदाबाद) से जुड़े थे। करसोनदास मलजी ने 1852 में उन्होंने गुजराती भाषा में विधवा-विवाह के समर्थन में ‘सत्यप्रकाश’ नामक पत्रिका निकाली। 1850 में विष्णुशास्त्री पंडित ने ‘विधवा विवाह समाज’ स्थापित किया।

1848 में छात्रों की एक साहित्यिक और वैज्ञानिक संस्था बनी। इसकी दो शाखाएँ थीं- गुजराती और मराठी ध्यान मंडलियाँ। यह मंडलियाँ सामाजिक प्रश्नों और आम वैज्ञानिक विषयों पर व्याख्यान आयोजित करती थीं।

परमहंस सभा

महाराष्ट्र में 1849 मेंपरमहंस सभा’ की स्थापना की गई। इस सभा के प्रमुख नेताओं में बालशास्त्री जाबेकर (1812-1846), दादोबा पांडुरंग तारखड़कर (1814-1842), भाष्कर पांडुरंग तारखड़कर (1816-1843), गोपालहरि देशमुख (1823-1882) एवं आजीवन ब्रह्मचारी विष्णुबाबा उर्फ विष्णु भीखाजी गोखले (1825-1873) थे। बंबई के बालशास्त्री जाबेकर ने र्ब्राह्मणवादी कट्टरता की आलोचना की और 1832 में उन्होंने ‘दर्पण’ नामक एक साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन आरंभ किया।

गोपालहरि देशमुख

गोपालहरि देशमुख (1823-1892) ‘लोकहितवादी’ उपनाम से विख्यात हैं। 1840 के दशक में लोकहितवादी ने लिखा था : ‘‘पुरोहित बहुत ही अपवित्र हैं क्योंकि कुछ बातों को बिना अर्थ समझे दुहराते हैं और ज्ञान को इसी रटंत तक भौंड़े ढ़ंग से सीमित करके रख देते हैं। पंडित तो पुरोहितों से भी बुरे हैं क्योंकि वे और भी अज्ञानी हैं तथा अहंकारी भी परमहंस मंडली बंगाल के डेरोजियोवादियों की मूर्तिभंजक क्रांतिकारी परंपरा का अनुसरण करता था।

प्रार्थना समाज

1864 में केशवचंद्र सेन ने बंबई में ब्रह्म समाज की शाखा को ‘प्रार्थना समाज’ के नाम से आरंभ किया। प्रार्थना समाज एक प्रकार से ब्रह्म समाज का मराठी संस्करण था। आत्माराम पांडुरंग (1823-98) ने 31 मार्च 1867 को बंबई में प्रार्थना समाज को पुनगर्ठित किया। महादेव गोविंद रानाडे (1842-1901), वासुदेव बाबाजी नौरंगे, रामकृष्ण गोपाल भंडारकर (1837-1925) और नारायण गणेश चंद्रावरकर (1855-1923) इसके नेता थे। के.टी. तेलंग, जो नियमित रूप से प्रार्थना समाज की बैठकों में आते थे, कभी उसके सदस्य नहीं बने। महादेव गोविंद रानाडे महाराष्ट्र में 1861 में ‘विधवा पुनर्विवाह संघ’ (विडो रीमैरेज एसोसिएशन) की स्थापना की थी। उन्होंने ‘दक्षिण शिक्षा समाज’ नामक संस्था का गठन किया। समाज ने 1882 में ‘आर्य महिला समाज’ की स्थापना की। लालशंकर उमाशंकर के प्रयास से 1875 में पंढ़रपुर में स्थापित ‘वासुदेव बाबाजी नौरंगे बालकाश्रम’ भी प्रार्थना समाज के संरक्षण में आया। प्रार्थना समाज ने 1917 में ‘राममोहन अंग्रेजी विद्यालय’ की स्थापना की।

ज्योतिबा फुले

महाराष्ट्र के पुणे में माली (पिछड़ी) जाति में जन्म लेनेवाले ज्योतिबा (1827-1890) एक महान् शिक्षाविद्, सामाजिक सुधारों के पुरोधा, अस्पृश्यता और जातिवाद के कलंक को धोनेवाले परिवर्तनकारी युगद्रष्टा थे। ज्योतिबा ने अगस्त 1848 में बुधवार पेठ मुहल्ले में भिंडे के मकान में निचली जाति की लड़कियों के लिए पहला विद्यालय खोला। 1851 में फुले ने अपनी पत्नी सावित्रीबाई के साथ गंजपेठ में निचली जाति की लड़कियों के लिए दूसरा स्कूल खोला। ज्योतिबा ने 1855 में प्रौढ़ स्त्री-पुरुषों के लिए पहली बार रात्रि-पाठशाला खोली। मुंबई के सरकारी शिक्षा-अभिलेखों के अनुसार ज्योतिबा ने लगभग अठारह पाठशालाएँ खोली थीं। ज्योतिबा को ‘स्त्री उद्धारकर्त्ता’ की उपाधि दी गई थी।

उन्नीसवीं सदी में भारतीय पुनर्जागरण (Indian Renaissance in the Nineteenth Century)
ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले

ज्योतिबा फुले ने 24 सितंबर 1873 को ‘सत्यशोधक समाज की स्थापना की। उन्होंने अपव्ययता, जाति-पाँति, ऊँच-नीच, मूर्तिपूजा और देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना का विरोध किया। ज्योतिबा फुले ने धर्म तृतीय रत्न (पुराणों का भंडाफोड़), इशारा (1885), शिवाजी की जवानी, किसान का कोड़ा, गुलामगीरी (1873) जैसी क्रांतिकारी पुस्तकों की रचना की। ज्योतिबा ने ‘सतसार’ नामक पत्रिका के भी दो अंक निकाले। ज्योतिबा ने एक पुस्तिका ‘कैफियत’ में पात्रों के माध्यम से महारानी से यह प्रार्थना की थी कि वह दलितों को उनके अधिकार दिलवायें। ज्योतिबा की रचना गुलामगीरी को गैर-ब्राह्मणों और अछूतों की ‘मुक्ति का घोषणा-पत्र’ माना जाता है। ज्योतिबा को 1888 में मुंबई की एक विशाल सभा ने उन्हें ‘महात्मा’ की उपाधि दी थी। 28 नवंबर 1890 को फुले इस संसार से विदा हो गये।

फुले के विचारों से प्रभावित गोपाल गणेश अगरकर (1856-1895) ने भी बाल-विवाह, वृद्ध-विवाह और सामाजिक कुरीतियों का डटकर विरोध किया। अगरकर ने तिलक के दकियानूसी और संकीर्ण विचारों, जैसे- वर्ण-व्यवस्था, जाति-पाँति और धर्मग्रंथों में उनकी आस्था का विरोध किया।

सावित्रीबाई फुले

ज्योतिबा की पत्नी सावित्रीबाई फुले (1831-1897) ने खुद पढ़कर निचली जाति की लड़कियों का पढाया। सावित्रीबाई फुले ने 1852 में ‘महिला मंडल’ का गठनकर भारतीय महिला आंदोलन की शुरूआत की और विधवाओं की सुरक्षा के लिए उन्होंने भारत का पहला ‘बाल-हत्या प्रतिबंधक गृह’ खोला। उन्होंने एक विधवा ब्राह्मणी काशीबाई को आत्महत्या करने से रोककर अपने घर में प्रसूति करवाया और उसके बच्चे यशवंत को गोद लिया। 10 मार्च 1897 को उनका परिनिर्वाण हो गया। सावित्री फुले के जन्मदिन 3 जनवरी को ‘भारतीय शिक्षा दिवस’ और परिनिर्वाण के दिन 10 मार्च को ‘भारतीय महिला दिवस’ के रुप में मनाता है।

महर्षि धोंडो केशव कर्वे

डा. डी.के. कर्वे (1858-1962) ने अपनी पहली पत्नी राधाबाई के निधन के बाद 1893 में अपने मित्र की विधवा बहन गोपूबाई से विवाह किया। 1896 में कर्वे ने पूना के हिंगले नामक स्थान पर दान में मिली एक कुटिया में एक विधवा आश्रम और अनाथ बालिका आश्रम की स्थापना की। महिलाओं के लिए महर्षि कर्वे ने 1907 में एक महिला विद्यालय और 1916 में एक महिला विश्वविद्यालय की नींव डाली। भारत सरकार ने 1958 में कर्वे की जन्म-शताब्दी के अवसर पर उन्हें ‘भारत-रत्न’ की उपाधि से सम्मानित किया।

उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभ में दक्षिण में आधुनिक शिक्षा का अभाव इसका एक प्रमुख कारण था। वहाँ बहुसंख्यक निम्न वर्गों पर ब्राह्मणों की स्पष्ट प्रमुखता थी। मिशनरी गतिविधियों और धर्म-परिवर्तन के विरुद्ध 1820 के दशक में मद्रास में ‘विभूति संगम’ (सेक्रेड एशेज सोसायटी) बना था, जो अतिवादी शनार ईसाइयों को फिर से हिंदू बनाये जाने का उपदेश देता था। 1840 के दशक में ‘धर्मसभा’ बनी।

वीरेशलिंगम पांटुलू

वीरेशलिंगम् (1848-1919) स्त्री-शिक्षा और सहशिक्षा के समर्थक थे। वीरेशलिंगम् ने 1874 में धवलेश्वरम् में और 1884 में इन्निसपेटा में कन्या पाठशालाओं को स्थापित किया। वीरेशलिंगम् ने राजमुंदड़ी से ‘विवेकवर्धनी’ (1874) नामक पत्रिका और ‘ब्रह्मविवाहम्’ जैसे नाटकों के माध्यम से उन्होंने बाल-विवाह, दहेज-प्रथा जैसी सामाजिक कुरीतियों का मजाक उड़ाया। वीरेशलिंगम् ने 1878 में ‘सोसायटी फार सोशल रिफॉर्म’ (संघ-संस्कारन-समाजम्) एवं ‘राजमुंदड़ी सोशल रिफॉर्म एसोसिएशन’ नामक संगठन का गठन किया। मद्रास प्रेसीडेंसी में विधवा पुनर्विवाह आंदोलन का आरंभ वीरेशलिंगम पांतुलु ने किया। वीरेशलिंगम् ने 1879 में विधवा-विवाह के समर्थन में ‘विधवा-विवाह-समुदाय’ का गठन किया।

एक विधवा-विवाह-समुदाय मद्रास में 1774 भी स्थापित हुआ था। वीरेशलिंगम् ने 1881 में राजमुंदरी में एक सवर्ण विधवा का विवाह करवाया। 1883 में वीरेशलिंगम् ने महिला हितों को समर्पित मासिक-पत्रिका ‘साथहितबोधिनी’ शुरू किया और 1891 में एक ‘विधवा पुनर्विवाह संगठन’ (विडो रिमैरिज एसोसिएशन) की स्थापना की। वीरेशलिंगम् ने विधवाओं के लिए 1897 में मद्रास में और 1905 में राजमुंदड़ी में निवासगृह बनवाया। सरकार ने 1893 में वीरेशलिंगम् को ‘राय बहादुर’ की पदवी दी। वीरेशलिंगम् 1898 में अखिल भारतीय समाज-सुधार कांग्रेस के सभापति चुने गये। वीरेशलिंगम् 1899 में वे मद्रास प्रेसीडेंसी कालेज में तेलगू के अध्यापक बने। अध्यापक पद पर नियुक्त होनेवाले वे आंर्ध्र र्प्रदेश के पहले व्यक्ति थे। 1905 में वीरेशलिंगम् ने ‘हितकारिणी-समाजम्’ स्थापित किया।

रानाडे ने वीरेशलिंगम् को दक्षिण भारत का ‘ईश्वरचंद्र विद्यासागर’ कहा था। वीरेशलिंगम् आधुनिक तेलगु गद्य साहित्य के प्रवर्तक, प्रथम उपन्यासकार, प्रथम नाटककार और आधुनिक पत्रकारिता के प्रवर्तक माने जाते हैं। मद्रास में 1867 में श्रीघरलू नायडू ने ‘वेद समाज’ की स्थापना की, जिसे 1871 में ‘ब्रह्म समाज आफ साउथ इंडिया’ के दिया गया। एम. बुचीआह और आर. वेंकटरत्नम इस समाज के प्रमुख नेता थे। दक्षिण भारत में 1877 में माधवाचार्य के दर्शन पर आधारित ‘माधव सिद्धांत उन्नयिनी सभा’ तथा 1886 में तिनवेल्ली में ‘शैव सिद्धांत सभा’ का गठन हुआ।

आर्य समाज दयानंद सरस्वती

आर्य समाज के प्रवर्तक दयानंद सरस्वती का जन्म 12 फरवरी, 1824 में गुजरात के छोटी-सी रियासत मोरवी के टंकारा नामक गाँव में एक धनी, किंतु रूढ़िवादी ब्राह्मण अंबाशंकर के घर हुआ था। मूल नक्षत्र में पैदा होने के कारण दयानंद का नाम ‘मूलशंकर’ रखा गया।

मूलशंकर ने 1845 में गृह-त्याग कर गेरुआ वस्त्र धारण किया। प्रथमतः दयानंद वेदांत के प्रभाव में आये और अद्वैत मत में दीक्षित हुए, जहाँ इनका नाम शुद्ध चैतन्य पड़ा। इसके पश्चात् दयानंद स्वामी परमानंद से संन्यासियों की चतुर्थ श्रेणी में दीक्षित हुए जहां इनकी प्रचलित उपाधि ‘दयानंद सरस्वती’ हुई।

उन्नीसवीं सदी में भारतीय पुनर्जागरण (Indian Renaissance in the Nineteenth Century)
दयानंद सरस्वती

दयानंद सरस्वती ने 1860 में वैदिक साहित्य के प्रख्यात विद्वान् मथुरा के प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानंद को अपना गुरु बनाया। विरजानंद ने दयानंद से कहा था: ‘‘मैं चाहता हूँ कि तुम संसार में जाओ और मनुष्यों में ज्ञान की ज्योति फैलाओ।’’ महर्षि दयानंद ने 1863 में हरिद्वार जाकर पाखंडखंडिनी पताका फहराई और मूर्ति-पूजा का विरोध किया। दयानंद का कहना था कि, ‘‘यदि गंगा नहाने, सिर मुँड़ाने और भभूत मलने से स्वर्ग मिलता, तो मछली, भेड़ और गधा स्वर्ग के पहले अधिकारी होते।’’ दयानंद ने 1872 में कलकत्ता गये और केशवचंद्र सेन के परामर्श से संस्कृत के स्थान पर हिंदी में अपने विचारों का प्रचार करना शुरू किया।

स्वामी दयानंद ने ‘पाखंड-खंडन’ (1866), ‘अद्वैतमत का खंडन’ (1873), ‘वेद-भाष्य भूमिका’ (1876), ‘ऋग्वेद भाष्य’ (1877), ‘सत्यार्थ प्रकाश’ (1874), ‘पंचमहायज्ञ विधि’ (1875), ‘वल्लभाचार्य मत का खंडन’ (1875) आदि पुस्तकें लिखी।

दयानंद ने 10 अप्रैल 1875 को बंबई में ‘आर्य समाज की स्थापना की। दयानंद का दावा था कि ‘‘वैज्ञानिक सत्य’ केवल वेदों में थे और इसलिए इन ग्रंथों पर आधारित धर्म ईसाइयत और इस्लाम से श्रेष्ठ था।’’ दयानंद सरस्वती ने हिंदू धर्म में व्याप्त मूर्तिपूजा, बहुदेववाद, बलि प्रथा, प्रचलित मत-मतांतर, अवतारवाद, आडंबर, अंधविश्वास आदि की आलोचना की। उनका मानना था कि स्वार्थी और अज्ञानी पुरोहितों ने पुराणों जैसे ग्रंथों के सहारे हिंदू धर्म को भ्रष्ट कर दिया है। वेद ईश्वर-प्रेरित हैं, किंतु उनकी व्याख्या मानव-विवेक द्वारा होनी चाहिए। मृतकों के श्राद्ध का विरोध करते हुए दयानंद ने कहा कि परलोक में मृतक की आत्मा की शांति हेतु यहाँ दान देना एवं भोजन करवाना मूर्खता है। अभिवादन के लिए प्रचलित ‘नमस्ते’ शब्द आर्य समाज की ही देन है।

दयानंद सरस्वती ने समाज सुधार के क्षेत्र में बाल-विवाह, बहुविवाह, पर्दाप्रथा, सतीप्रथा, अशिक्षा आदि की निंदा की। दयानंद ने स्त्री-शिक्षा तथा स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार दिये जाने की वकालत की और विधवा-विवाह, अंतर्जातीय विवाह और स्त्री-शिक्षा का समर्थन किया। दयानंद का मानना था कि स्त्रियों को भी वेदों का अध्ययन करने तथा यज्ञोपवीत धारण करने का अधिकार है।

स्वामी का मानना था कि लड़कों का पच्चीस वर्ष तथा लड़कियों का सोलह वर्ष की आयु से पहले विवाह नहीं करना चाहिए। दयानंद नियोग प्रथा के भी समर्थक थे। नियोग प्रथा के अनुसार विधवा स्त्री अपने पति के छोटे भाई अथवा छोटा भाई न होने पर परिवार के किसी अन्य सदस्य के साथ मिलकर नियोग द्वारा संतान उत्पन्न कर सकती है।

दयानंद ने ब्राह्मणों के प्रभुत्व का विरोध करते हुए सभी जातियों को वेदों के अध्ययन का अधिकार दिया। किंतु स्वामी दयानंद के बाद शिक्षा के प्रश्न को लेकर आर्य समाज दो भागों में बँट गया। एक के नेता लाला हंसराज तथा दूसरे के नेता स्वामी श्रद्धानंद (मुंशीराम) थे।

लाला हंसराज के प्रयत्न से 1886 में लाहौर में दयानंद एंग्लो-वैदिक स्कूल की स्थापना की गई, जो 1889 में दयानंद एंग्लो कालेज में बदल गया। स्वामी श्रद्धानंद (मुशीराम) के प्रयत्नों से 1900 में गुरुकुल कांगड़ी नामक संस्था की स्थापना हुई। 1893 के बाद आर्य समाज के एक जुझारू गुट ने पंडित गुरुदत्त और पं. लेखराम के नेतृत्व में एक शुद्धि-आंदोलन आरंभ किया।

1890 के दशक में आर्य समाज जोर-शोर से ‘गोरक्षा आंदोलन’ में लगा। 1857 में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच जो सद्भाव उपस्थित था, उसकी नींव यहीं से हिलनी आरंभ हो गई। स्वामी दयानंद सरस्वती का मानना था कि अच्छा से अच्छा विदेशी राज्य भी स्वराज्य का मुकाबला नहीं कर सकता है। स्वामी जी पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार और स्वदेशी के उपयोग पर बल दिया। स्वामी का नारा था : ‘भारत भारतीयों का है’ और ‘वेदों की ओर लौटो’। बाल गंगाधर तिलक ने स्वामी को ‘स्वराज्य का प्रथम संदेश वाहक’ और सावरकर ने ‘स्वाधीनता संग्राम का प्रथम योद्धा’ कहा है।

रामकृष्ण आंदोलन

रामकृष्ण परमहंस

रामकृष्ण का जन्म 1836 में पश्चिमी बंगाल के हुगली जिले के कमारप्रकुर नामक गाँव में एक निर्धन ब्राह्मण परिवार में हुआ था।

रामकृष्ण का मूल नाम गदाधर चट्टोपाध्याय था। रामकृष्ण कलकत्ता के समीप दक्षिणेश्वर में रासमणि द्वारा स्थापित काली के मंदिर में पुजारी बने। चौबीस वर्ष की आयु में रामकृष्ण का विवाह पांच वर्षीया शारदामणी (श्रद्धामनी) से हुआ। रामकृष्ण ने भैरवी नामक संन्यासिनी से दो वर्ष तक तांत्रिक साधना एवं तोतापुरी नामक साधु से वेदांत-साधना सीखी। वैष्णव धर्म की साधना से रामकृष्ण को कृष्ण का साक्षात् दर्शन हुआ था। उन्होंने इस्लाम तथा ईसाई धर्म की भी साधना की। रामकृष्ण अपनी पत्नी शारदामणी को भी ‘माँ’ कहकर बुलाते थे। 16 अगस्त 1886 को कैंसर से उनका देहांत हो गया।

रामकृष्ण परमहंस का मानना था कि गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी व्यक्ति संसारिकता से दूर रहकर उपासना द्वारा ईश्वर को प्राप्त कर सकता है। रामकृष्ण ने कहा कि ‘‘कामिनी, कंचन की आसक्ति यदि पूर्णरूप से नष्ट हो जाए, तो शरीर और आत्मा का पृथकत्व स्पष्ट दीखने लगता है। मूर्तिपूजा का समर्थन करते हुए रामकृष्ण ने कहा कि ‘‘जैसे वकील को देखते ही अदालत की याद आती है, वैसे ही प्रतिमा को देखते ही ईश्वर की याद आती है।’’

रामकृष्ण की सबसे बड़ी देन अध्यात्मवाद है। रामकृष्ण मानव-मात्र की सेवा एवं भलाई के समर्थक थे। उन्होंने मानव जाति को यह संदेश दिया कि वह धर्म और संस्कृति के विभेदों को भूलकर, मानव-मात्र की भलाई का प्रयत्न करे। उनका मानना था कि प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में ईश्वर निवास करता है, अतः मानव-सेवा ही ईश्वर की सेवा है। इसी आधार पर उनके शिष्य विवेकानंद ने आजीवन दरिद्र नारायण की सेवा की। रामकृष्ण के अनुसार विविध धर्म ईश्वर की प्राप्ति के अलग-अलग मार्ग हैं और सभी में सत्य है। ईश्वर एक है, लेकिन उसके विभिन्न स्वरूप हैं। रामकृष्ण ने भौतिकवाद, संघर्ष और घृणा के युग में विश्व को अध्यात्मवाद का उपदेश देकर संसार को एकता, प्रेम और सहयोग का मार्ग दिखाया।

स्वामी विवेकानंद

युवा संन्यासी स्वामी विवेकानंद (मूलनाम नरेंद्रनाथ दत्त) का जन्म 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता में खत्रिय विश्वनाथदत्त के कुलीन परिवार में हुआ था। नरेंद्रनाथ दत्त जान स्टुअर्ट मिल, ह्यूम, हर्बर्ट स्पेंसर एवं रूसो के दार्शनिक विचारों से बहुत प्रभावित थे। स्नातक उपाधि प्राप्त करने के बाद वे ब्रह्म समाज में शामिल हो गये। नरेंद्र 1881 में पहली बार रामकृष्ण परमहंस के संपर्क में आये और उन्होंने रामकृष्ण को अपना गुरु बनाया। नरेंद्रनाथ ने 1887 में काशीपुर के निकट बारानगर में अपने गुरु के सम्मान में रामकृष्ण मठ स्थापना की और संन्यास धारण कर विवेकानंद हो गये।

स्वामी विवेकानंद 1893 में शिकागो सर्वधर्म-सम्मेलन भाग लेने के लिए अमेरिका गये। 11 सितंबर 1893 के दिन उन्होंने अपने भाषण से अमेरिका में भारतीय धर्म तथा संस्कृति की धाक जमा दी। विवेकानंद इतिहास के पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने पूर्व की आध्यात्मिक संस्कृति के मित्रतापूर्ण प्रत्युत्तर का आरंभ किया।

विवेकानंद ने 1 मई 1897 में कलकत्ता में ‘रामकृष्ण मिशन’ और 9 दिसंबर 1898 को कलकत्ता के निकट गंगा नदी के तट पर बेलूर में प्राचीन रामकृष्ण मठ को पुनर्स्थापित किया। अंग्रेज अनुयायी कैप्टन सर्वियर और उनकी पत्नी ने हिमालय में 1899 में ‘मायावती अद्वैत आश्रम’ खोला। विवेकानंद ने बेलूर में एक दृश्य-प्रतीक के रूप में रामकृष्ण मंदिर के भावी आकार की रूपरेखा भी बनाई, जो 1937 में पूरा हुआ। 1899 में विवेकानंद पुनः अमेरिका गये। उन्होंने न्यूयार्क, लांस एंजिल्स, सैन फ्रांसिस्को तथा कैलीफोर्निया आदि स्थानों पर वेदांत समाज की स्थापना की। विवेकानंद ने ‘योग’, ‘राजयोग’ तथा ‘ज्ञानयोग’ जैसे ग्रंथों की रचना की। उन्होंने अंग्रेजी में ‘प्रबुद्ध भारत’ और बंगाली में ‘प्रबोधनी’ का संपादन भी किया। जीवन के अंतिम दिन विवेकानंद ने ‘शुक्ल यजुर्वेद’ की व्याख्या की। विवेकानंद 4 जुलाई 1902 को बेलूर में रामकृष्ण मठ में ध्यानमग्न अवस्था में महासमाधि धारण किये।

विवेकानंद ने कहा था: ‘‘धर्म मनुष्य के भीतर निहित देवतत्त्व का विकास है। धर्म न तो पुस्तकों में है, न धार्मिक सिद्धांतों में। यह केवल अनुभूति में निवास करता है।’’ विवेकानंद ने 1998 में लिखा था: ‘‘हमारी अपनी मातृभूमि के लिए दो महान् धर्मों- हिंदुत्व और इस्लाम का संयोग ही एकमात्र आशा है।’’ विवेकानंनद ने लिखा है : ‘‘दुनिया के सभी दूसरे राष्ट्रों से हमारे अलगाव ही हमारे पतन का कारण हैं और शेष दुनिया की धारा में समा जाना ही इसका एकमात्र समाधान है। गति जीवन का चिन्ह है।’’ स्वामीजी ने जातिप्रथा तथा कर्मकांड, पूजापाठ और अंधविश्वास की निंदा की। विवेकानंद की टिप्पणी थी : ‘‘हमारे सामने खतरा यह है कि हमारा धर्म रसोईघर में न बंद हो जाये; हम, अर्थात् हममें से अधिकांश न वेदांती हैं, न पौराणिक और न तांत्रिक। हम केवल ‘हमें मत छुओ’ के समर्थक हैं। हमारा ईश्वर भोजन के बर्तन में है और हमारा धर्म यह है कि हम पवित्र हैं, हमें छूना मत। अगर यह सब कुछ एक शताब्दी और चलता रहा, तो हममें से हर एक व्यक्ति पागलखाने में होगा।’’

विवेकानंद अपने गुरु रामकृष्ण की तरह मानवतावादी थे। उनका कहना था : ‘‘मैं एक ही ईश्वर को मानता हूँ………..मेरा ईश्वर दुःखी मानव है, मेरा ईश्वर पीड़ित मानव है, मेरा ईश्वर हर जाति का निर्धन मनुष्य है।’’ ‘‘मैं उस ईश्वर में विश्वास नहीं करता, जो मुझे इस जीवन में तो रोटी न दे सके और परलोक में जाने पर स्वर्गिक सुख की गारंटी दे।’’ विवेकानंद शिक्षित भारतीयों से कहते हैं कि ‘‘जब तक करोड़ों व्यक्ति भूखे और अज्ञान हैं, तब तक मैं हर उस व्यक्ति को देशद्रोही मानता हूँ, जो उन्हीं के खर्चे पर शिक्षा प्राप्त करता है और उनकी कतई परवाह नहीं करता।’’ वे प्रायः कहा करते थे : ‘‘मैं कोई तत्ववेत्ता नहीं हूँ, न तो संत या दार्शनिक ही हूँ। उनका मानना था : ‘‘जब पड़ोसी भूख से मरता हो, तो मंदिर में भोग चढ़ाना पुण्य नहीं, पाप है। जब मनुष्य दुर्बल और क्षीण हो, तब हवन में घृत मिलाना अमानुषिक कर्म है।’’

स्वामी विवेकानंद ने नारी-उत्थान के संबंध में कहा कि ‘‘यदि तुमने नारियों को ऊपर नहीं उठाया, तो यह मत सोचो कि तुम्हारी अपनी उन्नति का कोई मार्ग है? …. जो जाति नारियों का सम्मान करना नहीं जानती, वह न तो अतीत में उन्नति कर सकी है और न कर सकेगी।’’ विवेकानंद को युवा तूफानी साधु (साइक्लोनिक मंक आफ इंडिया) कहा जाता है।

प. शिवनारायण अग्निहोत्री ने 1887 में देव समाज की स्थापना की। देव समाज की शिक्षाओं को ‘देव शास्त्र’ नामक पुस्तक में संकलित किया गया।

आगरा (उत्तर प्रदेश) में एक बैंकर तुलसीराम ने, जिन्हें शिवदयाल के नाम से भी जाना जाता था, 1861 में राधास्वामी समाज की नींव रखी।

थियोसोफिकल सोसायटी

थियोसोफिकल सोसायटी की स्थापना 7 सितंबर 1875 को अमेरिका के न्यूयार्क नगर में रुसी महिला मैडम एच.पी. ब्लावात्सकी एवं अमेरिकन कर्नल एच.एस. आल्काट ने की थी। थियोसोफी शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग तीसरी शताब्दी में अलेक्जेंड्रिया के ग्रीक विद्वान् इंबीकस ने ईश्वरीय ज्ञान के लिए किया था। थियोसोफी को ब्रह्म-विद्या भी कहते हैं। थियोसोफिकल सोसाइटी के दो आधार स्तंभ हैं- एक बंधुत्व और दूसरा स्वतंत्रता। थियोसोफिकल सोसायटी के प्रतीक-चिन्ह पर लिखा है, ‘सत्यानास्ति परोधर्मः’ अर्थात् ‘सत्य से बड़ा कोई धर्म नहीं है। ’1879 में मैडम ब्लावात्सकी तथा आल्काट महर्षि दयानंद के निमंत्रण पर भारत आये और मुंबई में अपना मुख्यालय स्थापित किया। थियोसोफिकल सोसायटी ने 1879 से 1881 तक दयानंद सरस्वती के साथ मिलकर काम करने का प्रयास किया। 1886 में सोसायटी का मुख्यालय मुंबई से हटाकर मद्रास के समीप अडयार (चेन्नई) में स्थापित किया गया।

मिसेज एनी बेसेंट

थियोसोफिकल आंदोलन की गतिविधियों को व्यापक रूप से फैलाने का श्रेय मिसेज एनी बेसेंट (1847-1933) को है। एनी बेसेंट 1847 में आयरलैंड के एक निर्धन परिवार में जन्मी थीं। एनी बेसेंट 1882 में थियोसोफिकल सोसायटी के संपर्क में आईं और 10 मई 1889 को उसकी औपचारिक सदस्य बन गईं। एनी बेसेंट 16 नवंबर 1893 में मैडम ब्लावात्सकी की मृत्यु पर भारत आईं और कर्नल एच.एस. आल्काट की मृत्यु के बाद 1907 में सोसायटी की अध्यक्ष बनीं। बेसेंट ने प्राचीन हिंदू भावना ‘कृण्वंतो विश्वमार्यम्’ को साकार करने का प्रयास किया। एनी बेसेंट ने बहुदेववाद, यज्ञ, मूर्तिपूजा, तीर्थ, व्रत, कर्मवाद, पुनर्जन्म तथा धार्मिक अनुष्ठान आदि हिंदुओं के विश्वासों एवं कर्मकांडों का प्रबल समर्थन किया। एनी बेसेंट के प्रमुख कार्यों में एक था 1898 में बनारस में ‘केंद्रीय हिंदू कालेज’ की स्थापना, जिसे बाद में मदनमोहन मालवीय ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (1916) के रूप में विकसित किया।

एनी बेसेंट ने 1914 में भारत की राजनीति में प्रवेश किया और ‘कामनवीलव ‘न्यू इंडिया’ नामक समाचार-पत्रों का प्रकाशन किया। एनी बेसेंट ने 1916 में तिलक के साथ मिलकर स्वशासन के लिए ‘होमरूल आंदोलन’ चलाया। 1917 में एनी बेसेंट को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया। 20 सितंबर 1933 को अडयार में एनी बेसेंट की मृत्यु हो गई।

मुस्लिम सुधार आंदोलन

1860 के दशक में धार्मिक सुधार की दो सुस्पष्ट धाराएँ विकसित हुईं। एक ओर अब्दुल लतीफ खाँ और उनकी ‘मोहम्मडन लिटरेरी सोसायटी’ (1863) ने इस्लामी शिक्षा की परंपरागत व्यवस्था के अंदर आधुनिक विचारों के आलोक में धार्मिक, सामाजिक तथा राजनीतिक प्रश्नों पर विचार-विमर्श को बढ़ावा दिया और पश्चिमी शिक्षा अपनाने के लिए उच्च तथा मध्य वर्गों के मुसलमानों को प्रेरित किया, तो दूसरी ओर सैयद अमीरअली (1877-1878) और उनके ‘सेंट्रल नेशनल मुहम्मडन एसोसिएशन’ ने पश्चिमी और धर्मनिरपेक्ष तर्ज पर मुस्लिम शिक्षा के पूर्ण पुनर्गठन की या मुस्लिम शिक्षा के पूर्ण आंग्लीकरण का समर्थन किया। इस प्रकार अब धार्मिक कट्टरता के स्थान पर मुसलामानों ने आधुनिकीकरण पर बल दिया।

मोहम्मडन लिटरेरी सोसाइटी

‘मोहम्मडन लिटरेरी सोसायटी’ की स्थापना कलकत्ता में 1863 में नवाब अब्दुल लतीफ (1828-1893) ने की थी। इसका प्रमुख उद्देश्य शोषित, वंचित एवं पिछड़े मुसलमानों में शिक्षा का प्रचार करना और उन्हें समाज में एक सम्मानजनक स्थान दिलाना था। अब्दुल लतीफ ने शिक्षा के प्रसार, विशेष रूप से बंगाल के मुस्लिमों के बीच, के साथ साथ हिंदू-मुस्लिम एकता को भी बढावा दिया। यही कारण है कि लतीफ को ‘बंगाल के मुस्लिम पुनर्जागरण का पिता’ कहा जाता है।

सर सैयद अहमद खाँ और अलीगढ़ आंदोलन

सैयद अहमद खाँ (1817-1898) कंपनी की न्यायिक सेवा में थे। और कंपनी के प्रति पूर्ण वफादार बने रहे। सैयद अहमद ने मुसलमानों की बेहतरी के लिए जो आंदोलन आरंभ किया, उसे ‘अलीगढ आंदोलन’ कहते हैं। अलीगढ़ समूह में चिराग अली, उर्दू शायर अल्ताफ हुसैन हाली तथा नजीर अहमद जैसे कुछ अन्य प्रमुख नेता भी थे।

उन्नीसवीं सदी में भारतीय पुनर्जागरण (Indian Renaissance in the Nineteenth Century)
सर सैयद अहमद खाँ

सैयद अहमद का महत्त्वपूर्ण कार्य कुरान पर उनकी लिखी टीका है। सैयद अहमद ने अपने विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए एक पत्रिका ‘तहजीब-उल-अखलाक’ (सभ्यता और नैतिकता) प्रकाशित किया। उन्होंने 1875 में अलीगढ़ में ‘मुहम्मडन आंग्लो-ओरियंटल कॉलेज’ की स्थापना की। 1898 में अलीगढ कालेज में 64 हिंदू और 285 मुसलमान छात्र थे। सात भारतीय अध्यापकों में दो हिंदू थे और इनमें एक संस्कृत का प्रोफेसर था। बाद में 1920 में यही कॉलेज अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के रूप में विकसित हुआ। सैयद अहमद खाँ ने 1883 में हिंदुओं और मुसलमानों से एकता का आग्रह करते हुए कहा था : ‘हम दोनों भारत की हवा में साँस लेते हैं और गंगा-यमुना का पवित्र जल पीते हैं।’

सैयद अहमद ने समाज में महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए पर्दाप्रथा खत्म करने तथा स्त्रियों में शिक्षा का प्रसार करने का समर्थन किया। वे बहुविवाह प्रथा और छोटी-छोटी बातों पर तलाक के भी विरुद्ध थे। सैयद अहमद खाँ चाहते थे कि मुसलमान अंग्रेजी सत्ता को स्वीकार करें और उसके अधीन सेवा करना आरंभ करें। उन्होंने ‘मुहम्मडन एजुकेशजनल कॉन्फ्रेंस’ (1890 तक कांग्रेस), ‘इंडियन पैट्रियाटिक एसोसिएशन’ (1888) और ‘मुहम्मडन एंग्लो-ओरियंटल डिफेंस एसोसिएशन’ (1893) जैसे संगठनों के माध्यम से कांग्रेस का विरोध किया। 1880 के दशक के अंत तक उत्तर भारत के अनेक मुसलमान कांग्रेस की ओर झुकने लगे थे। 1887 में बंबई के बदरूद्दीन तैय्यब जी कांग्रेस के पहले मुस्लिम अध्यक्ष बने।

देवबंद स्कूल (नदवा) आंदोलन

देवबंद स्कूल आंदोलन एक पुनर्जागरणवादी आंदोलन था। देवबंद स्कूल की आधारशिला 30 मई 1866 को मुहम्मद कासिम नानौत्वी, हाजी आबिद हुसैन व रशीद अहमद गंगोही द्वारा देवबंद (सहारनपुर, उ.प्र.) में रखी थी। देवबंद स्कूल आंदोलन के मुख्यतः दो उद्देश्य थे- एक तो मुसलमानों में कुरान तथा हदीस की शुद्ध शिक्षा का प्रसार करना और दूसरे विदेशी शासकों के विरुद्ध जेहाद की भावना को जीवित रखा।

देवबंद स्कूल के समर्थकों में शिबली नूमानी फारसी और अरबी के लब्धप्रतिष्ठित विद्वान् और लेखक थे। शिबली ने 1874-75 में लखनऊ में ‘नदवतल उलमा’ और ‘दारूल उलूम’ की स्थापना की।

1888 में देवबंद स्कूल के उलेमाओं ने सर सैयद अहमद खाँ की संयुक्त भारतीय राजभक्त सभा एवं ऐंग्लो-ओरिएंटल सभा के खिलाफ फतवा जारी किया था। इस संस्था के मौलाना महमूद-उल-हसन को ‘शैखुल हिंद’ (भारतीय विद्वान्) की उपाधि मिली।

अहमदिया आंदोलन

मिर्जा गुलाम अहमद (1838-1908) ने कादियान (गुरदासपुर, पंजाब) नामक स्थान पर 23 मार्च 1889 को ‘अहमदिया आंदोलन’ आरंभ किया। मिर्जा गुलाम अहमद ने ‘बराहीन-ए-अहमदिया’ नामक पुस्तक में अपने सिद्धांतों की व्याख्या की। मिर्जा गुलाम ने 1891 में अपने-आपको इस्लाम का ‘मसीहा’ घोषित किया। बाद में मिर्जा गुलाम अपने को कृष्ण और विष्णु का आखिरी अवतार भी कहने लगे।

पारसियों में पुनर्जागरण

1851 में अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त नौरोजी फरदूनजी, दादाभाई नौरोजी, एस.एस. बंगाली तथा कुछ अन्य लोगों ने बंबई में ‘रहनुमाए मज्दायासन सभा (रिलीजस रिफॉर्म एसोसिएशन) का गठन किया। ‘रहनुमाए मज्दायासन सभा’ के संदेशों को प्रसारित करने के लिए गुजराती भाषा में एक पत्रिका ‘रास्त गोफ्तार’ (सत्यवादी) शुरू की गई। दादाभाई नौरोजी (1825-1917) पारसी कानून संघ के जन्मदाताओं में भी थे। दादाभाई नौरोजी ने स्त्री-शिक्षा के प्रसार के लिए ‘ज्ञान प्रसारक मंडली’ नामक एक महिला हाईस्कूल की स्थापनाकी।

सिखों में पुनर्जागरण

सिख सुधा आंदोलन के अगुआ दयालदास थे जिन्होंने निरंकारी आंदोलन आरंभ किया था। पंजाब में पहला सामाजिक-धार्मिक आंदोलन कूका आंदोलन था, जिसकी शुरूआत 1840 में भगत जवाहर मल (सियेन साहब) ने की। नामधारी आंदोलन के संस्थापक बालकसिंह (1799-1862) माने जाते हैं। बालकसिंह के एक कारीगर (शिल्पकार) जाति के शिष्य रामसिंह ने इस आंदोलन को नई दिशा दी। ब्रिटिश सरकार ने रामसिंह गिरफ्तार कर देशद्रोह के आरोप में अंडमान (कालापानी) भेज दिया। 19वीं शताब्दी के अंत में अमृतसर में ‘सिंह सभा’ द्वारा खालसा कालेज की हुई। ‘मुख्य खालसा दीवान’ के नाम से प्रसिद्ध इस संस्था ने पंजाब में अनेक गुरुद्वारों एवं स्कूल-कालेजों की स्थापना की। पंजाब में 1920 के बाद ‘अकाली आंदोलन’ आरंभ हुआ। अकालियों का मुख्य उद्देश्य गुरुद्वारों के प्रबंध का शुद्धिकरण करना था। 1921 में अकालियों के नेतृत्व में सिख जनता ने भ्रष्ट महंतों और सरकार के विरुद्ध एक शक्तिशाली सत्याग्रह आंदोलन छेड़ दिया। 1922 में सिख गुरुद्वारा अधिनियम पारित हुआ, जिसे 1925 में संशोधित किया गया।

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