ई.पू. छठी शताब्दी में बौद्धिक आंदोलन (Intellectual Movement in the Sixth Century BC)

ई.पू. छठी शताब्दी में बौद्धिक आंदोलन

ई.पू. छठी शताब्दी प्राचीन भारत के इतिहास में एक सीमा-चिन्ह है क्योंकि इस काल में एक ओर उत्तर भारत में विशाल साम्राज्यों की नींव पड़ रही थी तो दूसरी ओर उत्तर-पूर्वी भारत के मध्य गंगा क्षेत्र में पुरातन जीवन-दर्शन के विरोध में अनेक नवीन धार्मिक संप्रदायों और दर्शनों का प्रादुर्भाव हुआ। जैन एवं बौद्ध ग्रंथों से पता चलता है कि इस काल में लगभग बासठ मतों एवं संप्रदायों के संन्यासी और बौद्धिक घूम-घूम कर अपने जीवन-दर्शन का जन-समुदाय में प्रचार तथा एक-दूसरे के दर्शन का मंडन-खंडन कर रहे थे। इस बौद्धिक आंदोलन का केंद्र मगध था। इस आंदोलन की तीव्रता का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि अनेक संप्रदायों ने तो ईश्वर की सत्ता को ही अस्वीकार कर दिया था। एक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि इस काल में प्राचीन संसार के अन्य कई देशों में भी इस प्रकार के बौद्धिक आंदोलन हुए। इसी समय चीन में कन्फयूशियस और लाओत्से, ईरान में जरथुस्त्र, जूडिया में जेरेमिया तथा यूनान में पाइथागोरस जैसे पुरातन मान्यताओं को चुनौती देनेवाले विचारकों का आर्विभाव हुआ।

बौद्धिक आंदोलन के कारण

भारत में इस धार्मिक आंदोलन के अनेक प्रत्यक्ष एवं परोक्ष कारण थे, जो तत्कालीन आर्थिक, धार्मिक, सामाजिक एवं राजनैतिक परिवर्तनों में निहित थे। इस समय कई कारणों से प्रवृत्तिमूलक वैदिक संस्कृति की धार्मिक तथा सामाजिक मान्यताएँ और जीवन-प्रणाली के अनेक तत्त्व सामाजिक व आर्थिक विकास में बाधक सिद्ध होने लगे थे। जब प्रवृत्तिमूलक कर्मकांड-प्रधान वैदिक संस्कृति का गणों और श्रमणों के पूर्वी प्रदेशों में प्रसार हुआ, तो निवृत्तिमूलक अनार्य सभ्यता के पक्षधर अनेक धर्मों एवं संप्रदायों का आविर्भाव हुआ। इन धार्मिक संप्रदायों, विशेषकर जैन और बौद्ध संप्रदायों ने पुरातन वैदिक-ब्राह्मण धर्म की बुराइयों पर प्रहार किया, इसलिए कभी-कभी इस आंदोलन को ,सुधारवादी आंदोलन, भी कहा जाता है, किंतु उत्तर-पूर्वी भारत में धार्मिक आंदोलन वैदिक धर्म का आंतरिक सुधार-आंदोलन न होकर वस्तुतः श्रमणों के प्रभाव का विस्तार था जिसमें प्रादेशिक, सामाजिक, सांस्कृतिक कारण सहकारी बन गये, जबकि पश्चिम में वैदिक धर्म के अंतर्गत सुधार की प्रवृत्तियाँ अनेक रूपों में विकसित हुईं।

लौह-तकनीक एवं कृषिमूलक अर्थव्यवस्था

पूर्वोत्तर भारत में नई कृषि-अर्थव्यवस्था का विकास बौद्धिक आंदोलन का एक प्रमुख कारण था। छठी शताब्दी ई.पू. में यज्ञ-प्रधान वैदिक धर्म अपने मूल कुरु-पांचाल क्षेत्र से उत्तर-पूरब की ओर फैलने लगा था। यह मात्रा धर्म का प्रसार नहीं था, वरन् एक नई उत्पादन-तकनीक का भी प्रसार एवं विकास था।

शतपथ ब्राह्म में विदेध माधव एवं अग्नि वैश्वानर (यज्ञ-अग्नि) की कथा से पता चलता है कि अरण्यानी का साम्राज्य दग्ध करते हुए वैदिक लोग आगे बढ़े। यह वस्तुतः जंगल को जलाकर तथा पेड़ों को काटकर भूमि को कृषि-योग्य बनाने की प्रक्रिया थी। इस कार्य में लोहे के प्रयोग ने ऐतिहासिक भूमिका निभाई। उत्तरी भारत में लौह-युग का आगमन हो चुका था और तकनीकी विकास की दृष्टि से यह सदी ‘लोहे के उपकरणों के कृषि में प्रयोग होने की सदी थी। यद्यपि इसके पूर्व लोहे का ज्ञान हो चुका था, किंतु उसका प्रयोग अधिकांशतः युद्धास्त्रों के लिए होता था। लौह-तकनीक ने आर्थिक क्रियाकलापों में चमत्कारी परिवर्तन किया। अब लोहे का प्रयोग युद्वास्त्रों के अलावा, खेती के उपकरणों के रूप में भी किया जाने लगा था जिससे जंगलों को साफ कर कृषि-योग्य बनाना और आसान हो गया। युद्ध एवं कृषि दोनों क्षेत्रों में इस कठोर धातु के प्रयोग से कुछ मूलभूत परिवर्तन हुए। अब शक्तिशाली क्षत्रिय वर्ग अपेक्षाकृत कमजोर वर्गों को अपने अधीन कर युद्ध और खेती जैसे कार्यों में लगा सकता था, तो दूसरी ओर लोहे के फाल से गहरी जुताई होने लगी जिससे उत्पादन की क्षमता बढ़ी। इस ऐतिहासिक घटनाक्रम ने बड़े पैमाने पर सामाजिक परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त कर दिया। अब उत्पादक वैश्य वर्ग को खाद्य-सामग्री की चिंता से मुक्ति मिली और वह वर्ग व्यापार-वाणिज्य और शिल्पकलाओं में लग गया।

लोहे के फाल और नवीन कृषि-प्रणाली के कारण उत्पादन-अधिशेष बड़ी बस्तियों के उदय और विकास में सहायक सिद्ध हुआ। उत्तर-पूर्व भारत की प्राचीन जनजातीय (कबायली) लोगों की उत्पादन-प्रणाली एवं जीवन-पद्धति वैदिक आर्यों की अपेक्षा बहुत पिछड़े ढ़ंग की थी। इस क्षेत्र के जनजातीय लोग छिटपुट आबादी वाले ऊँची भूमि पर कुदाल से खेती करते थे और चावल तथा छोटे दानोंवाली फसलों का उत्पादन करते थे। वे पशुपालन केवल मांसाहार के लिए करते थे, दूध या खेती में प्रयोग करने के लिए नहीं। नवीन उत्पादन-तकनीक ने उनकी जीवन-प्रणाली में क्रांतिकारी परिवर्तन कर दिया।

नवीन कृषि-प्रणाली में कृषि कार्य के लिए अधिकाधिक पशुओं की आवश्यकता पड़ने लगी। पशुवध चाहे वैदिक यज्ञों में हो या उत्तर-पूरब के जनजातीय लोगों में, यह एक अनावश्यक रूढ़ि बन गई थी। कृषि-कार्य में पशुओं की उपयोगिता के कारण पशुधन को संरक्षित करना आवश्यक हो गया था। यही कारण है कि इस समय के प्रायः सभी धार्मिक संप्रदायों ने पशुवध एवं हिंसा का विरोध किया, जिसमें जैनों और बौद्धों का स्वर सबसे अधिक तीव्र था। यद्यपि उपनिषदों में भी पशुवध की निंदा और अहिंसा का उपदेश है, किंतु बौद्ध ग्रंथों के उपदेश अधिक सबल और प्रभावशाली हैं जिनमें पशुओं को सुख देने वाला (सुखदा) और अन्न देनेवाला (अन्नदा) कहा गया है।

नगरीकरण की प्रक्रिया

इस काल में नवीन कृषि-प्रणाली एवं लौह-प्रौद्योगिकी के कारण अनेक शिल्पों तथा उद्योग-धंधों में प्रगति हुई जिससे व्यापार-वाणिज्य को प्रोत्साहन मिला और व्यवस्थापनों के विकास से नगरीकरण की युगांतकारी प्रक्रिया प्रारंभ हुई। पालि ग्रंथों में उस समय मध्य गंगा घाटी में विकसित अनेक नगरों का वर्णन मिलता है जिनमें चंपा, राजगृह, वैशाली, वाराणसी, कोशांबी, कुशीनगर, श्रावस्ती तथा पाटलिपुत्र विशेष महत्त्वपूर्ण थे। ई.पू. 600 से 300 के बीच भारत में 60 नगरों के अस्तित्व का प्रमाण मिलता है। विविध व्यवसायों में कुशलकर्मी एवं शिल्पी धीरे-धीरे गाँवों से आकर इन नगरों में बसने लगे।

विनिमय के साधन के रूप में ‘मुद्रा’ (आहत मुद्राओं) का अविर्भाव इस काल की एक नई और महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी जिसके कारण व्यापारिक गतिविधियों का व्यापक विस्तार हुआ और लोगों में धन-संग्रह की प्रवृत्ति बढ़ी। विभिन्न कलाओं तथा शिल्पों ने व्यापार को मौद्रिक-अर्थव्यवस्था से पूरी तरह जोड़ दिया। इसी समय शिल्पी तथा व्यापारी अपने हित-साधन के लिए संघों और श्रेणियों में संगठित हुए। सुदूर विस्तृत स्थल और जलपथों पर सार्थवाहों के परिश्रम ने नगरों को समृद्धि प्रदान की। व्यक्तिगत संपत्ति की धारणा दृढ़ हुई और इसे सामाजिक मान्यता प्राप्त हुई, जिससे गंगाघाटी में नवीन वर्गों का उदय हुआ। नगरों में मेंडक (अंग), अनाथपिंडक (कोशल) और घोषित (कोशांबी) जैसे श्रेष्ठियों तथा गाँवों में ‘गहपति’ नामक भू-संपन्न कृषकों का एक नया सामाजिक वर्ग उत्पन्न हुआ।

उन्नत कृषि, शिल्प-व्यवसाय एवं व्यापार के कारण प्राचीन जनजातीय सामाजिक संरचना में भी विघटन हुआ और कबायली जीवन की अनेक मान्यताएँ टूटने लगीं। अब पशुओं की अपेक्षा कृषि-भूमि ही लोगों के धन-संपत्ति तथा सामाजिक प्रतिष्ठा की इकाई बनी। इनके विपरीत समाज में भूमिहीन तथा श्रमिक वर्गों का भी अस्तित्व था, इसलिए बुद्ध का उपदेश था कि ‘कृषकों को बीज, श्रमिकों को उपयुक्त पारिश्रमिक और व्यवसायियों को धन देना चाहिए।’ वैश्य वर्ग ने व्यापार से अकूत संपत्ति अर्जित कर लिया था और यह समृद्ध वर्ग समाज में ब्राह्मणों की सर्वोच्चता को स्वीकार करने को तैयार नहीं था।

वैदिक कर्मकांड

धार्मिक आंदोलन का एक प्रमुख कारण वैदिककालीन धार्मिक कर्मकांड और जटिल यज्ञीय विधि-विधान भी थे। वेदों को ईश्वरप्रदत्त अथवा स्वयंभू के निःश्वास से उद्भूत माना जाता था। वैदिक धर्म में अनेक देवी-देवताओं की कल्पना की गई थी और माना जाता था कि मानव की भौतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति के लिए देवी-देवताओं की कृपा आवश्यक है। इन देवी-देवताओं को जटिल मंत्रों और खर्चीले यज्ञों के द्वारा ही प्रसन्न किया जा सकता था। वैदिक मंत्र देववाक्य माने जाते थे और उन्हें कोई परिवर्तित नहीं कर सकता था। लोगों में यह विश्वास प्रचलित था कि किसी यज्ञ या अनुष्ठान में मंत्रोच्चार में थोड़ी त्रुटि होने पर भयंकर परिणाम होंगे। ऐसे सांस्कृतिक परिवेश में पुरोहितों का महत्त्व बढ़ना स्वाभाविक था। माना जाता था कि यज्ञ स्वर्ग में ले जाने वाली नौका के समान है। यज्ञों के साथ कई प्रकार के होम, तर्पण और अन्य धार्मिक क्रियाएं जुड़ी थीं। अश्वमेध, राजसूय जैसे प्रायः वर्ष-पर्यन्त चलनेवाले कर्मकांडीय-यज्ञों में पशुवध तथा पुरोहितों को दी जानेवाली बहुमूल्य दक्षिणा के कारण धन व पशु की हानि हो रही थी। दक्षिणा की उगाही अब सिर्फ बड़े-बड़े राजकीय यज्ञों तक ही सीमित नहीं रह गई थी, वरन् सामान्य जन को भी कर्मकांड की परिधि में लाने की कोशिश की गई।

शतपथ ब्राह्मण से पता चलता है कि वैदिक यज्ञ-विधान का उत्तर-पूर्वी भारत में प्रचार होने लगा था, किंतु यज्ञमूलक वैदिक संस्कृति इस क्षेत्र में स्वीकृत नहीं हो सकी क्योंकि कर्मप्रधान वैदिक संस्कृति का प्रवृत्तिमार्गी धर्म, उपनिषद् के ज्ञान मार्ग तथा श्रमण परंपरा के निवृत्तिमार्गी संन्यास प्रधान धर्म के विपरीत था।

इस प्रकार वेदवाद, यज्ञवाद और पुरोहितवाद जैसी वैदिक मान्यताएँ सामाजिक-आर्थिक विकास में बाधक सिद्ध हो रही थीं। यही कारण है कि छठी शताब्दी ई.पू. के प्रायः सभी नास्तिक संप्रदायों ने इन कर्मकांडों का सदैव विरोध किया। भारत सरकार के एक प्रकाशन के अनुसार ब्राह्मणों द्वारा प्रतिपादित धर्म के विरुद्ध जो आवाज उठाई गई, वह आगे चलकर जैन और बौद्ध धर्म के रूप में फलीभूत हुई।

सामाजिक असमानता

वैदिक संस्कृति में समाज का वर्गीकरण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में हुआ था। प्रारंभ में वर्ण का निर्धारण कर्म के अनुसार होता था, किंतु इस समय जन्म से ही वर्ण का निर्धारण होने लगा था। ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों गैर-उत्पादक वर्ग थे और वैश्य व शूद्र उत्पादन के लिए उत्तरदायी थे। समाज में ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों अनुत्पादी वर्णों की श्रेष्ठता स्थापित हो चुकी थी। अपने निर्धारित कर्मों से च्युत् होने पर भी इन वर्णों के लोग समाज में सम्मान की अपेक्षा करते थे। यही नहीं, समाज के इन अनुत्पादक वर्गों को अनेक प्रकार के विशेषाधिकार भी मिले हुए थे। उत्पादक होने के बावजूद वैश्यों एवं शूद्रों को समाज में उचित सम्मान नहीं मिलता था जिससे वर्णों में असंतोष व्याप्त था। शूद्रों की स्थिति तो और भी चिंतनीय थी। गौतम, आपस्तंब आदि सूत्रकारों ने ब्राह्मण द्वारा घोर अपराध करने पर भी सबसे कम दंड का विधान किया था। शूद्र-वध जैसे अपराध के लिए ब्राह्मण को वही दंड दिया जाता था जो कौवे, ऊल्लू आदि की हत्या के लिए दिया जाता था। मातंग जातक एवं चित्तसंभूत जातकों में दी हुई कथाएं शूद्रों पर होने वाले अत्याचारों का वर्णन करती हैं। समाज में स्त्रियाँ भी अधिकारविहीन थी। नास्तिक संप्रदायों ने इन सामाजिक विषमताओं का प्रबल विरोध किया और वैश्यों को ऋण, महाजनी एवं दास-संबंधी अधिकारों की मान्यता प्रदान कर अपने धर्म का दरवाजा सभी वर्णों के लिए खोल दिया।

इस काल में कई कारणों से वर्ण-संबंधी अव्यवस्था भी फैल रही थी। उत्तर-पूर्व के जनजातीय क्षेत्रों में वर्णव्यवस्था और नई उत्पादन-प्रणाली के प्रसार से जनजातीय वर्ग के लोग अपनी क्षमता के अनुसार किसी न किसी वर्ण में सामाजिक स्थान प्राप्त करने लगे थे। नवीन उत्पादन-तकनीक के कारण जनसंख्या में वृद्धि हुई जिससे वर्ण के आधार पर सामाजिक स्तरीकरण की प्रक्रिया और तीव्र हो गई। समाज में ब्राह्मणों की महत्ता इतनी अधिक बढ़ गई थी कि वे देवतुल्य समझे जाने लगे थे। कहा गया है कि ब्राह्मण बिना राजा के रह सकता है, किंतु राजा बिना ब्राह्मण के नहीं रह सकता। अब क्षत्रिय वर्ग को ही शस्त्र धारण करने का अधिकारी माना जाने लगा। इसी नये क्षत्रिय वर्ग पर ही राज्य की नींव टिकी थी, यही वर्ग कर और अधिशेष भी वसूलता था। शासकों तथा नये क्षत्रिय वर्ग का अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा के प्रति सजग होना स्वाभाविक था।

राजनैतिक परिस्थितियाँ

इस धार्मिक आंदोलन के उदय में राजनीतिक कारणों ने दो तरह से सकारात्मक सहयोग किया- एक तो ब्राह्मण-राजन्य द्वंद्व और दूसरे गणराज्यों का स्वतंत्र वातावरण। अनेक इतिहासकारों ने क्षत्रियों को इस युग के ब्राह्मण-विरोधी धार्मिक आंदोलन का अगुआ ठहराया है। वैदिककालीन सामाजिक व्यवस्था में ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों उच्चवर्ण अधिशेष-उत्पादन पर निर्भर थे। विजय, कृषि और व्यापार-वाणिज्य के कारण उत्पादन-अधिशेष पर अधिकार करने के लिए ब्राह्मणों और क्षत्रियों में द्वंद्व होना स्वाभाविक था। इन दोनों वर्गों के बीच अपसी प्रतिद्वंद्विता के संकेत उत्तर वैदिक काल से ही मिलने लगते हैं। क्षत्रिय विश्वामित्र और ब्राह्मण वशिष्ठ की शत्राता तथा जामदग्न्य (जमदग्नि) द्वारा किये गये क्षत्रिय-संहार की कथा से लगता है कि क्षत्रिय ब्राह्मणों की सर्वोच्चता का विरोध कर रहे थे संभवतः यही कारण है कि शतपथ ब्राह्मण में सामाजिक स्थिति के क्रम में पहले क्षत्रिय को रखा गया है।

यद्यपि वैदिक साहित्य में इन दोनों अनुत्पादी वर्गों के बीच आपसी सहयोग और एकता के अनेक दृष्टांत मिलते हैं, किंतु क्षत्रिय स्वयं याज्ञिक कृत्य और पौरोहित्य-संबंधी कार्यों की ओर अग्रसर होने लगे थे। समर्थ राजन्य ने अपने साधनहीन दरिद्र प्रतिस्पर्धी के ऊपर दार्शनिक विजय पाई और उपनिषदों की रचना की। पांचालराज प्रवाहण जाबालि, विदेह शासक जनक, अश्वपति कैकय और काशिराज अजातशत्रु जैसे कुछ क्षत्रिय शासकों ने ब्राह्मणों के आचार्यत्व को चुनौती दी और ब्राह्मणों को दीक्षा भी दी। यही कारण है कि उत्तर-पूर्वी भारत में जहाँ लिच्छवि, शाक्यादि क्षत्रिय-प्रधान गणों की अधिकता थी, वहीं जैन और बौद्ध जैसे बुद्धिवादी संप्रदायों का विकास हुआ।

इस प्रकार आर्थिक लाभ, सामाजिक प्रतिष्ठा अथवा राजकीय शक्ति के लिए ब्राह्मणों और क्षत्रियों में प्रतिद्वंद्विता भी इस बौद्धिक आंदोलन में सहायक हुई।

दरअसल छठी शताब्दी ई.पू. तक जनों के संचार और सन्निवेश का युग बीत चुका था और जन जनपदों में रुपांतरित हो चुके थे जिनमें से कुछ गणाधीन थे तो कुछ राज्याधीन। इस समय शासन-सत्ता पर क्षत्रियों का अधिकार था। राज्य के संगठन में साजात्य की अपेक्षा देश-तत्त्व अधिक शक्तिशाली हो चुका था। प्राचीन बौद्ध और जैन साहित्य से पता चलता है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के जनपदों में क्षत्रियप्रधान शाक्यादि गणों और निर्ग्रंथादि श्रमणों का प्राचुर्य था और यही बुद्धिवादी धार्मिक आंदोलन के उदय की भूमि भी थी। गणराज्यों का जनतांत्रिक वातावरण भी नवीन संप्रदायों के उदय में सहायक सिद्ध हुआ।

संशय एवं व्याकुलता का वातावरण

वैदिक यज्ञवाद तथा कर्मप्रधान प्रवृत्ति मार्ग का श्रमण-संस्कृति के निवृत्ति मार्ग से टकराव होना स्वाभाविक था। इस काल में वैदिक धर्म का विरोध करने वाले अनेक पाराजिक, वैरागी, तपस्वी तथा संन्यासी घूम-घूम कर जनसाधारण में अपने मतों का प्रचार कर रहे थे और समस्त नैतिक मूल्यों की प्रासंगिकता पर प्रश्नचिन्ह लगा रहे थे। इससे समाज में एक प्रकार की धार्मिक अराजकता फैल गई थी। जैन-बौद्ध ग्रंथों में इस समय के लगभग 62 नास्तिक दार्शनिक संप्रदायों का उल्लेख मिलता है। इनमें आजीवक, निर्ग्रंथ, मुंडश्राव, जटिलक, पाराजिक, मार्गांधक, त्रैदंडिक, अविरुद्धक, गौतमक, देवधार्मिक, उच्छेद्वादी, पुब्वेकतावादी, खग्विज्जवादी, इस्सरकारणवादी, अहेतुवादी, विनयवादी, क्रियावादी, अक्रियावादी आदि थे। इन अनेक संप्रदायों में छः विशेषरूप से महत्त्वपूर्ण थे- घोर अक्रियावादी ब्राह्मण पूरन कश्यप, आजीवक संप्रदाय का प्रवर्तक मख्खलि गोशाल, नितांत भौतिकवादी अजित केशकंबलिन्, अन्योन्यवाद का प्रवर्तक पकुधकच्चायन, विक्षेपवादी संजय वेलट्ठपुत्त तथा निगंठनाथपुत्त महावीर।

पूरण कश्यप

ब्राह्मण पूरन कश्यप घोर अक्रियावादी था। उसका मत था कि कर्मों का कोई फल नहीं होता है। उसने अक्रियावाद का प्रवर्तन कर सामाजिक जीवन में पाप एवं पुण्य की सभी रेखाएँ मिटाकर अनाचार एवं हिंसा के बीजों का वपन किया। इसका तर्क था कि आत्मा एवं शरीर भिन्न हैं। आत्मा क्रिया नहीं करती, शरीर करता है। इसी कारण किसी भी प्रकार की क्रिया करने में न पाप होता है न पुण्य; ‘अगर कोई कुछ करे या कराये, काटे या कटवाये, कष्ट दे या दिलाये, शोक करे या करो, प्राणियों को मार डाले, चोरी करे, घर में सेंध लगाये, डाका डाले, पर-दार गमन करे या असत्य बोले तो भी उसे पाप नहीं लगता। दान, धर्म, संयम और सत्य-भाषण से पुण्य की प्राप्ति नहीं होती।’

मख्खलि गोशाल

महावीर के समकालीन मख्खलि गोशाल ने नियतिवाद का प्रवर्तन कर आजीवक संप्रदाय की स्थापना की थी। इसका उल्लेख अशोक के सातवें स्तंभ लेख में मिलता है। आरंभ में गोशाल अपने पिता का धंधा (मंख अर्थात् तस्वीरों का लेनदेन करनेवाला) करता था और इस कारण यह नाम दिया गया। गोशाला में जन्म होने के कारण इसे गोशाल कहा गया। भगवतीसूत्र से ज्ञात होता है कि यह कुछ समय के लिए महावीर का शिष्य रहा था।

कट्टर नियतिवादी गोशाल ने नियति को ब्रह्मांड के लिए अभिप्रेरक तत्त्व और समस्त तात्त्विक परिवर्तन का एकमात्र अभिकर्त्ता निरूपित किया। इसका मानना था कि समस्त प्राणी नियति के अधीन हैं। न उनमें बल है और न ही पराक्रम। वे अपनी शक्ति से कुछ नहीं कर सकते। वे भाग्य और संयोग (नियति) के चक्कर में पड़कर उत्पन्न होते और सुख-दुःख भोगते रहते हैं। ‘मज्झिम निकाय’ में इनकी जीवन-दृष्टि को ‘अकिरियादिट्ठि’ कहा गया है।‘ अपने सामर्थ्य या पुरुषार्थ से कुछ नहीं होता, होना होकर ही रहता है। सर्वसत्व, सर्वप्राणी, सर्वभूत, सर्वजीव तो अवश, दुर्बल और निर्वीर्य हैं। वे नियति और स्वभाव के कारण परिणत होते हैं और सुख-दुःख का उपभोग करते हैं। बौद्ध और जैन दोनों ही आजीवकों को अनैतिक मानते थे।

अजित केशकंबलिन्

अजित केशकंबलिन् ‘भारतीय भौतिकवाद का ऐतिहासिक संस्थापक’ माना जाता है। वह मनुष्य के केशों का बना कंबल पहनता था, इसीलिए वह केशकंबलिन् के नाम से पुकारा जाता था। उच्छेदवाद का प्रवर्तन कर इसने प्रतिपादित किया कि शरीर की समाप्ति के साथ उसमें विद्यमान- पृथ्वी, जल, वायु, और अग्नि इन चारां भूतों का शरीर से उच्छेद (विघटन) हो जाता है। इसके पश्चात् कुछ भी शेष नहीं रह जाता। आत्मा की कोई सत्ता नहीं है। ‘मनुष्य चार भूतों का बना हुआ है। जब वह मरता है, तब उसमें समाहित पृथ्वी धातु पृथ्वी में, आपा (जल) धातु जल में, तेजो धातु तेज में और वायु धातु वायु में जा मिलते हैं तथा इंद्रियाँ आकाश में चली जाती हैं। मृत्यु के अनंतर कुछ भी शेष नहीं रहता’। इसलिए संसार में न कोई माता है न कोई पिता। पाप-पुण्य, सत्य-असत्य, यज्ञ, होम, दान, आदि सभी झूठे हैं।

अजित अपने सिद्धांत के नकारात्मक पक्ष में एपिक्युरस से साम्य रखता है तथा अपने विचारों के निश्चयात्मक दृष्टिकोण में एपिक्युरियन की अपेक्षा स्टोइक की तरफ अधिक झुका जान पड़ता है। इस प्रकार अजित केशकंबलिन् नितांत भौतिकवादी था और उसका चिंतन लोकायत परंपरा को पुष्ट करता है, यद्यपि इस दर्शन के संस्थापक बृहस्पति माने जाते हैं।

प्रकुद्ध कात्यायन

प्रकुद्ध कात्यायन बुद्ध का समकालीन अग्रणी था। घोर अक्रियावादी प्रकुद्ध ने ‘अन्योन्यवाद’ का प्रवर्तन कर यह मत प्रतिपादित किया कि सात पदार्थ- पृथ्वी, जल, तेज, वायु, सुख, दुःख और जीवन- अकृत, अनिर्मित, अचल, कूटस्थ और अबध्य होते हैं, इसलिए एक दूसरे को सुख-दुःख उत्पन्न करने में असमर्थ हैं। इस स्थापना के आधार पर इसका मानना था कि संसार में न कोई मरता है, न कोई मारता है। यदि तीक्ष्ण शस्त्र द्वारा किसी को काट भी दिया जाये तो उसे किसी को प्राण से मारना नहीं कहा जा सकता। यहाँ न कोई सुननेवाला है और न कोई सुनाने वाला। कुल मिलाकर यह पुनर्जन्म और कर्मफल को नकारता था।

कात्यायन ने सात प्राथमिक पदार्थों को स्थायी और नित्य रूप से स्वीकार किया जो न तो उत्पन्न हुए और न उत्पन्न कराये गये। यह सत्तकार्यवाद का एक उदाहरण प्रस्तुत करता है, जिसे ‘बौद्ध सस्सतवाद’ के नाम से पुकारते हैं। इसका पदार्थों का बहुत्त्ववादी सिद्धांत वैशेषिक दर्शन की याद दिलाता है।

संजय वेलट्ठिपुत्र

संजय वेलट्ठिपुत्र एक पर्यटक था और राजगृह में धार्मिक संघ और एक विचारधारा का संस्थापक था। इसकी पहचान सारिपुत्र और मौदग्ल्यायन के आचार्य परिव्राजक संजय से की जाती है। संजय का सिद्धांत न तो स्वीकृति का है और न अस्वीकृति का। इसके विचारों में अनिश्चयात्मकता, भ्रांतियाँ, प्रश्नाकुलता है। इस कारण इसे ‘विक्षेपवाद’ या ‘अनिश्चयवाद’ अथवा ‘अज्ञेयवाद’ का प्रवर्तक माना जाता है। इसका मत था कि लोक, परलोक, पुनर्जन्म, आत्मा, कर्मफल आदि के संबंध में कुछ निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। मानव जीवन के सभी प्रश्नों पर इसका दृष्टिकोण अनिश्चित था। इसके अनुयायी ‘अमराविक्खेपिक’ के रूप में जाने जाते थे।

संजय को महावीर का पूर्ववर्त्ती माना जा सकता है जिसने स्याद्वाद के सिद्धांत को प्रतिपादित किया और बुद्ध का भी, जिसने ‘विभाज्यवाद’ (खोज की समीक्षात्मक-पद्धति) को प्रस्तुत किया। बुद्ध और महावीर दोनों सहमत हैं कि सृष्टि-विज्ञान, सत्ता-मीमांसा, धर्म-दर्शन और परलोक-विद्या से संबंधित अनेक ऐसे प्रश्न हैं जिनके बारे में अंतिम रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता।

निगंठ नाथपुत्त

निगंठ नाथपुत्त स्वामी महावीर जैन आंदोलन के जनक थे। ये बंधन मुक्त होने के कारण ‘निगंठ’ कहलाये।

इन छः अचार्यों के अतिरिक्त अन्य आचार्यों का भी वर्णन मिलता है। गोदावरी के अश्मक जनपद के निवासी ब्राह्मण रावरी के 16 शिष्य थे। ‘पटतपाद’ नामक परिव्राजक अपने 300 शिष्यों के साथ ‘मल्लिकाराम विहार’ में निवास करता था। उसने बुद्ध से भेंट की थी। संदूक अपने शिष्यों के साथ कोशांबी में रहता था तथा वह बुद्ध की लोकप्रियता से चिढ़ता था। सरभ एक बौद्ध भिक्षु था, किंतु राजगृह में वह बौद्ध धर्म को त्याग कर परिव्राजक बन गया था। सभिय क्षत्रिय परिव्राजक का पुत्र था जो आश्रम में राजकुमारों को शिल्प की शिक्षा देता था, बाद में उसने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था। इसके अलावा अलार कलाम तथा उद्दक रामपुत्त जैसे दार्शनिक भी थे।

वस्तुतः इस युग में एक ओर वैदिक धर्म की विकृतियों से समाज गतिहीन हो गया था तो दूसरी ओर अनेक अतिवादी चिंतक अनात्मवाद की तार्किक स्थापना कर रहे थे और नैतिक मूल्यों का निषेध कर रहे थे। इस अतिवादी, नैतिकताविहीन चिंतन के मूल में ‘कार्य-कारण संबंधी प्रकृति का नियम’ था। इन नियमों को न ईश्वर बदल सकता है और न कर्मकांड, न पुरोहित और न यज्ञ आदि। वैदिक काल के अंतिम चरण में रचे गये उपनिषदों में भी कर्मकांडों और यज्ञों को टूटी नौका बताया गया है जिनसे संसार-सागर को पार नहीं किया जा सकता है। उपनिषदों के परिवेश में उद्भूत यह चिंतनधारा ई.पू. छठी शताब्दी में विकसित होकर नास्तिकवादी सिद्धांतों के लिए प्रेरणास्रोत बन गई थी।

बौद्धिक आंदोलन का स्वरूप

छठी शताब्दी ईसा पूर्व के विष-पवित वातावरण में भगवान् महावीर एवं गौतम बुद्ध जैसे मानवतावादी महापुरुषों का उदय हुआ। महावीर और बुद्ध के समक्ष जितनी बड़ी चुनौती वैदिक धर्म की कुरीतियों पर प्रहार करने की थी उतनी ही तत्युगीन अतिवादी सिद्धांतों पर आधारित उपदेशों का विरोध करने की भी थी। समाज को वैदिक धर्म की जीर्ण-परंपराओं एवं विभिन्न परिव्राजकों के अतिवादी तथा अव्यवस्थामूलक उपदेशों के बीच एक समाधान की आवश्यकता थी। ‘जैन एवं बौद्ध धर्म ने नवीन कृषि-प्रणाली में बाधक वैदिक यज्ञों का विरोध किया….अपने समकालीन परिव्राजक संप्रदायों के अतिवादी तथा अव्यवस्थाजनक मतों का खंडन किया। साथ ही नई उत्पादन तकनीक पर विकसित हो रहे समाज को वैचारिक तथा धार्मिक समर्थन भी दिया।’

ई.पू. छठी शताब्दी में बौद्धिक आंदोलन (Intellectual Movement in the Sixth Century BC)
गौतम बुद्ध और वर्द्धमान् महावीर

बुद्ध और महावीर दोनों बुद्धिवादी चिंतकों ने वेदवाद का विरोध किया, ब्राह्मणों की सर्वोच्चता को चुनौती दिया, जातिप्रथा पर प्रहार किया तथा अहिंसा पर बल दिया। इन्होंने वैदिक यज्ञवाद के विरुद्ध त्याग तथा संन्यास-प्रधान जीवन को स्थापित किया। दोनों बुद्धिवादी विचारकों ने वेदों को देव-वाक्य मानने से इंकार कर दिया और कहा कि ‘वेदमंत्र केवल जलविहीन मरुस्थल और पंथहीन जंगल हैं।’ बुद्ध ने मुख्यतया पुरोहित वर्ग पर प्रहार किया जो यज्ञ कराने तथा पशुवध के लिए उत्तरदायी थे। बौद्ध ग्रंथों में पुरोहितों के दक्षिणा-विषयक लालच की निंदा की गई है। बुद्ध का उद्घोष था कि ‘जीवहत्या करने वाले, अनैतिक कर्म में रत तथा बुरे आचरणवाले व्यक्ति मरने के बाद नरक के भागी होंगे।’

जैन और बौद्ध ग्रंथों में जन्म पर आधारित जातिप्रथा का घोर विरोध किया गया है। कहा गया है कि जन्म से कोई ब्राह्मण या अब्राह्मण नहीं होता, वरन् कर्म से ही जाति का निर्धारण होता है। जिस प्रकार अग्नि सभी प्रकार की लकड़ियाँं से प्रज्वलित हो सकती है, उसी प्रकार सभी जाति के लोग संन्यासी होकर जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। महावीर और गौतम बुद्ध दोनों ने सभी जाति और वर्ण के लोगों के लिए अपने धर्म और संघ का द्वार खोल दिया। यहाँ तक कि स्त्रियाँ भी धर्मानुकूल आचरण कर मुक्ति प्राप्त कर सकती थीं।

बौद्धिक आंदोलन का परिणाम

इस बौद्धिक आंदोलन ने भारतीय इतिहास को दीर्घकाल तक प्रभावित किया। भारतीय चिंतन एवं संस्कृति के विकास में इस बुद्धिवादी आंदोलन के अहिंसावादी, शांतिप्रिय सिद्धांतों ने महत्त्वपूर्ण योगदान किया। इस काल के स्वतंत्र विचारकों ने न केवल समाज के उच्च वर्गों के एकाधिकार, सामाजिक कुप्रथाओं, उसकी गतिहीनता, असमानता तथा अन्याय का प्रबल विरोध कर एक ऐसे समतावादी युग का सूत्रपात किया जिसमें भेदभाव और कर्मकांडों की कट्टरता के स्थान पर अहिंसा, दया, करुणा, शांति व सेवा-भावना थी। इन्होंने मनुष्य की बुद्धि, विवेक की स्वतंत्रता और पवित्रता का प्रतिपादन किया। यही नहीं, इन विचारकों ने ईश्वर के अस्तित्व को ही अस्वीकार कर दिया और यह स्वीकार किया कि उचित आचार-विचार ही संसार और कर्म की भूल-भूलैया से निकलने का एकमात्र साधन है। वैदिक व्यवस्था के वर्ण-विभाजन या जातीय स्तरीकरण के कारण उत्पीड़ित एवं उपेक्षित कृषक, शिल्पकार तथा व्यापारी सभी इन धर्मों की ओर आकर्षित हुए।

धार्मिक आंदोलन के परिणामस्वरूप ब्राह्मण-क्षत्रिय प्रतिद्वंद्विता ने भारतीय इतिहास को लंबे काल तक प्रभावित किया। भागवत धर्म और भक्ति संप्रदाय के उदय ने ब्राह्मण-क्षत्रिय संघर्ष को दोतरफा कर दिया। एक ओर तो ब्राह्मण-क्षत्रिय संघर्ष चल ही रहा था, अब भागवत धर्म के आ जाने के कारण ब्राह्मणों का निम्नवर्गीयों के साथ भी संघर्ष चल पड़ा, किंतु निम्नवर्गीयों के विरुद्ध ब्राह्मण-क्षत्रिय संयुक्त रूप से एक हो जाते थे।

प्रायः सभी कालों में ब्राह्मण-क्षत्रिय अपने-अपने स्वार्थवश निम्नवर्गीयों के विरुद्ध अद्भुत एकता का परिचय देते रहें हैं, किंतु जब नीचे से चुनौती मिलनी बंद हो जाती है तो ब्राह्मण-क्षत्रिय प्रभुत्व का अंतर्विरोध सामने आ जाता है।

बौद्ध ग्रंथों में ब्राह्मणों को ‘अपेत’, ‘पथभ्रष्ट’ तथा ‘धिक्जाति का कहा गया है जिससे लगता है कि ब्राह्मण वर्ग सत्कर्म और साधनाशील जीवन से विमुख होकर बहुमुखी सांसारिकता और भौतिकता में संलग्न हो गया था। संभवतः सामाजिक तथा आर्थिक परिवर्तनों की प्रक्रिया एवं नवीन बौद्धिक आंदोलनों की तीव्रता के कारण ब्राह्मणों को जीवन-निर्वाह के लिए वैदिक परंपरा में मान्य साधन मिलना कठिन हो गया था, इसलिए अनेक ब्राह्मण वैद्य, कृषक, व्यापारी, फेरी लगा कर सामान बेचने, लकड़ी काटने, ग्वाला, कसाई, शिकारी आदि का पेशा अपना लिए थे। इस प्रकार के अनेक संदर्भ जातकों में मिलते हैं।

इस काल के संन्यासियों ने लोकभाषाओं को अपने उपदेश और रचना का माध्यम बनाया, जिसके परिणामस्वरूप पालि और प्राकृत में सर्वश्रेष्ठ धर्मग्रंथों की रचना संभव हो सकी।

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