सोलह महाजनपद (Sixteen Mahajanapadas)

छठी शताब्दी ईसापूर्व में भारत

आरंभिक भारतीय इतिहास में छठी शताब्दी ई.पू. को एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तनकारी काल माना जाता है। यह काल प्रायः आरंभिक राज्यों, नगरों, लोहे के बढ़ते प्रयोग और सिक्कों के विकास के साथ जुड़ा हुआ है। लौह-तकनीक और मुद्राओं के प्रयोग से भौतिक जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन आया और स्थायी जीवन की प्रवृत्ति और अधिक सुदृढ़ हुई। इसी काल में बौद्ध तथा जैन सहित विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं का विकास हुआ। उत्तर वैदिक काल में राज्यों या प्रशासनिक इकाइयों के रूप में जनपदों का उल्लेख मिलता है। वस्तुतः कृषि, उद्योग, व्यापार, वाणिज्य आदि के विकास के कारण ग्रामीण जीवन से नागरिक जीवन की ओर खिसकाव हुआ और ई.पू. छठी सदी तक आते-आते यही जनपद महाजनपदों के रूप में विकसित हो गये।

छठी शताब्दी ई.पू. की राजनीतिक दशा का स्पष्ट विवरण किसी ग्रंथ में नहीं मिलता है, किंतु बौद्ध और जैन धर्म के कुछ प्रारंभिक ग्रंथों में कुल सोलह महाजनपदों का नामोल्लेख हुआ है। इनका नामकरण अलग-अलग ग्रंथों में भिन्न-भिन्न है जिसका कारण संभवतः भिन्न-भिन्न समय पर होनेवाला राजनीतिक परिवर्तन और सूची-निर्माताओं का भौगोलिक ज्ञान है। वैयाकरण पाणिनि ने 22 महाजनपदों का उल्लेख किया है, जिनमें से तीन- मगध, कोसल तथा वत्स को महत्त्वपूर्ण बताया है।

सोलह महाजनपद

भारत के सोलह महाजनपदों का उल्लेख ई.पू. छठी शताब्दी से भी पहले का है। बौद्ध ग्रंथ अंगुत्तर निकाय में 16 महाजनपदों का उल्लेख मिलता है, जिससे लगता है कि बुद्ध के उदय के कुछ समय पहले समस्त उत्तरी भारत सोलह बड़े राज्यों में विभक्त था। अंगुत्तर निकाय की सूची के सोलह महाजनपदों के नाम इस प्रकार हैं- काशी, कोशल, अंग, मगध, वज्जि, मल्ल, चेदि, वत्स, कुरु, पांचाल, मत्स्य, शूरसेन, अश्मक, अवंति, गंधार और कंबोज। जनवसभसुत्त में केवल बारह राज्यों के ही नाम मिलते हैं। चुल्लनिद्देश में सोलह महाजनपदों की सूची में कलिंग को जोड़ दिया गया है तथा गंधार के स्थान पर योन का उल्लेख है। महावस्तु में गंधार और कंबोज के स्थान पर क्रमशः शिवि तथा दशार्ण का उल्लेख मिलता है। किंतु इन समस्त सूचियों में अंगुत्तरनिकाय की सूची ही प्रमाणिक मानी जाती है।

सोलह महाजनपद (Sixteen Mahajanapadas)
सोलह महाजनपदों की स्थिति

जैन ग्रंथ भगवतीसूत्र में भी महाजनपदों की एक सूची प्राप्त होती है, किंतु इस सूची में नाम कुछ भिन्न हैं, जैसे- अंग, बंग, मगह (मगध), मलय, मालव, अच्छ, वच्छ (वत्स), कोच्छ, पाढ्य, लाढ़, वज्जि, मोलि (मल्ल), काशी, कोशल, अवध और सम्भुत्तर। हेमचंद्र रायचौधरी का अनुमान है कि भगवतीसूत्र में जिन राज्यों का उल्लेख है, वे सुदूर-पूर्व और सुदूर-दक्षिण भारत की राजनैतिक स्थिति के सूचक हैं। इन महाजनपदों के विस्तार से लगता है कि वे अंगुत्तरनिकाय में उल्लिखित राज्यों के बाद के हैं। अंगुत्तरनिकाय के सोलह महाजनपद बुद्ध के पूर्व विद्यमान थे क्योंकि गौतम बुद्ध के समय काशी का राज्य कोशल में और अंग का राज्य मगध में सम्मिलित कर लिया गया था। संभवतः अश्मक भी अवंति द्वारा विजित कर लिया गया था।

ई.पू. छठी शताब्दी में बौद्धिक आंदोलन 

राजतंत्र और गणतंत्र  ; महाजनपद काल में जिन सोलह महाजनपदों का उल्लेख मिलता है, उनमें दो प्रकार की शासन प्रणाली प्रचलित थी। अंग, मगध, काशी, कोशल, चेदि, वत्स, कुरु, पांचाल, मत्स्य, शूरसेन, अश्मक, अवंति, गंधार, कंबोज जैसे महाजनपदों में राजतंत्रीय व्यवस्था थी, तो वज्जि एवं मल्ल जैसे कुछ महाजनपद गण या संघ के अधीन थे। राजतंत्रीय महाजनपदों का शासन राजा द्वारा ही संचालित होता था, परंतु गण और संघ के राज्यों में विशिष्ट लोगों का एक समूह शासन करता था, इस समूह का प्रत्येक व्यक्ति ‘राजा’ कहलाता था।

काशी

यह महाजनपद प्राचीन काल में वर्तमान वाराणसी एवं उसके समीपवर्ती क्षेत्रों में फैला हुआ था। इसकी राजधानी वाराणसी थी जो उत्तर में वरुणा और दक्षिण में असी नदियों से घिरी हुई थी। इसकी पुष्टि पांँचवीं शताब्दी में भारत आनेवाले चीनी यात्री फाह्यान के यात्रा विवरण से भी होती है। वायु, ब्रह्मांड, मत्स्य, मारकंडेय तथा पद्म पुराणों में काशी की गणना मध्यदेशीय जनपदों में की गई है। पुराणों के अनुसार काशी को बसानेवाले पुरुरवा के वंशज राजा ‘काश’ थे, इसलिए उनके वंशज ‘काशि’ कहलाये। संभवतः यही कारण है कि इस जनपद का नाम ‘काशी’ पड़ गया। कहते हैं कि काशी भगवान् शंकर के त्रिशूल पर स्थित है, इसलिए इसे पृथ्वी से बाहर का क्षेत्र माना जाता है।

जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ के पिता अश्वसेन यहाँ के प्रसिद्ध राजाओं में से एक थे। बौद्ध ग्रंथों से पता चलता है कि काशी तथा कोशल के बीच लंबे समय तक संघर्ष चला और एक समय काशी के राजा ब्रह्मदत्त ने कोशल को जीत लिया था। किंतु अंत में कोशल नरेश कंस ने काशी को जीत कर अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया। हेमचंद्र रायचौधरी ने वाराणसी की तुलना प्राचीन बेबीलोन तथा मध्यकालीन रोम से किया है।

कोशल

अंगुत्तरनिकाय के अनुसार बुद्धकाल से पहले कोशल की गणना उत्तर भारत के प्रमुख महाजनपदों में होती थी जिसकी राजधानी अयोध्या व साकेत थी। यह जनपद सरयू के तटवर्ती प्रदेश में बसा हुआ था जिसमें उत्तर प्रदेश के फैजाबाद, अंबेडकरनगर, गोंडा, बहराइच एवं जौनपुर के कुछ क्षेत्र शामिल थे। पालि ग्रंथों में इसे ‘सुंदरिका’ कहा गया है। अयोध्या, साकेत और श्रावस्ती इस महाजनपद के मुख्य नगर थे। अयोध्या को कोशल की प्राचीनतम् राजधानी होने का श्रेय प्राप्त है। साकेत इसकी दूसरी राजधानी थी। बुद्ध के समय में साकेत और श्रावस्ती की गणना भी छः महानगरों में की जाती थी।

ई.पू. छठी शताब्दी में कोशल की राजधानी श्रावस्ती में थी जिसके भग्नावशेष गोंडा के समीप सहेत-महेत से मिले हैं। जातकों में कोशल के एक अन्य नगर सेतव्या का भी उल्लेख है। महावग्ग जातक में काशिराज ब्रह्मदत्त द्वारा कोशल पर आक्रमण की चर्चा है। कालांतर में कोशल की शक्ति बढ़ी और इसने काशी पर अधिकार कर लिया। इसका श्रेय कोशल नरेश कंस को है। बुद्ध के पूर्व कोशल का शासक महाकोशल था जिसने अपनी पुत्री महाकोशला या कोशलदेवी का विवाह मगध-नरेश बिंबिसार के साथ किया था। बुद्ध का समकालीन कोशल का राजा प्रसेनजित् था। छठी और पाँचवी शती ई.पू. में कोशल मगध के समान ही शक्तिशाली राज्य था।

अंग

प्राचीन भारत के अंग महाजनपद में आधुनिक भागलपुर, मुंगेर और उससे लगे हुए बिहार और बंगाल के क्षेत्र सम्मिलित थे। रामायण में अंग की स्थापना का श्रेय अनंग को दिया गया है। महाभारत तथा मत्स्य पुराण में इसकी स्थापना का श्रेय अंग को दिया गया है। इस महाजनपद की राजधानी चंपा नगरी, चंपा नदी के तट पर स्थित थी। चंपा का सर्वप्रथम उल्लेख अथर्ववेद में मिलता है। महाभारत तथा पुराणों में चंपा का प्राचीन नाम ‘मालिनी’ प्राप्त होता है। दीघनिकाय से ज्ञात होता है कि चंपा नगर की योजना प्रसिद्ध वास्तुकार महागोविंद ने बनाई थी। बुद्धकाल में चंपा की गणना छः प्रसिद्ध नगरों में की गई है। मगध का पड़ोसी महाजनपद होने के कारण अंग और मगध के बीच दीर्घकाल तक आपसी प्रतिद्वंद्विता चलती रही। प्रारंभ में इस जनपद के राजा ब्रह्मदत्त ने मगध के राजा भट्टिय को पराजित कर मगध के कुछ क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया था। विधुरपंडित जातक के अनुसार राजगृह अंग राज्य का नगर था। कालांतर में अंग की शक्ति क्षीण हो गई और इस महाजनपद को मगध में मिला लिया गया।

मगध

यह महाजनपद बिहार प्रांत के पटना, गया और शाहाबाद के क्षेत्रों में फैला हुआ था। मगध महाजनपद की सीमा उत्तर में गंगा से दक्षिण में विंध्य पर्वत तक, पूर्व में चंपा और पश्चिम में सोन नदी तक विस्तृत थी। बौद्ध काल तथा परवर्ती काल में उत्तरी भारत का सबसे अधिक शक्तिशाली जनपद मगध ही था। जैन साहित्य प्रज्ञापणसूत्र में अनेक स्थलों पर मगध तथा उसकी राजधानी राजगृह का उल्लेख है। रामायण में इसकी स्थापना का श्रेय ब्रह्मा के पुत्र वसु को दिया गया है और इस आधार पर इसे वसुमती कहा गया है। पौराणिक वर्णनों से पता चलता है कि इसकी स्थापना कुशाग्र ने की थी। मगध तथा अंग पड़ोसी राज्य थे और चंपा नदी इन दोनों के बीच विभाजक रेखा थी। उत्तर वैदिक काल तक मगध आर्य सभ्यता के प्रभाव क्षेत्र के बाहर था। अभिधान चिंतामणि में मगध को ‘कीकट’ कहा गया है। विश्वस्फटिक नामक राजा ने मगध में पहली बार वर्णों की परंपरा प्रचलित करके आर्य सभ्यता का प्रचार किया था। बुद्ध के समय मगध एक शक्तिशाली व संगठित राजतंत्र था। इस समय मगध में बिंबिसार और तत्पश्चात् उसके पुत्र अजातशत्रु का शासन था। बिंबिसार ने गिरिव्रज (राजगीर) को अपनी राजधानी बनाई। कालांतर में मगध की राजधानी पाटलिपुत्र में स्थापित हुई। परवर्ती शताब्दियों में इस जनपद की शक्ति बराबर बढ़ती रही और मगध का इतिहास संपूर्ण भारतवर्ष का इतिहास बन गया।

मगध का उत्कर्ष : हर्यंक, शिशुनाग और नंद वंश का योगदान 

वज्जि

वज्जि गणराज्य प्राचीन भारत के एक राज्य-संघ का अंग था। यह महाजनपद गंगा एवं नेपाल तराई के बीच आधुनिक मुजफ्फरपुर में विस्तृत था। इस राज्य-संघ के आठ सदस्य (अट्ठकुल) थे जिनमें मिथिला के विदेह, वैशाली के लिच्छवि तथा कुंडपुर के ज्ञातृक अधिक प्रसिद्ध थे। मिथिला का समीकरण नेपाल सीमा पर स्थित जनकपुर से किया जाता है। प्रारंभ में विदेह में राजतंत्र था, किंतु बाद में वह संघ में सम्मिलित हो गया। वैशाली की पहचान उत्तरी बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के आधुनिक बसाढ़ से की जाती है। कुंडग्राम वैशाली के निकट ही था, जिसकी पहचान क्षत्रियकुंड से की जाती है। जैन तीर्थंकर महावीर कुंडग्राम के ज्ञातृकगण के प्रधान सिद्वार्थ के पुत्र थे और इनकी माता त्रिशला वैशाली के लिच्छविगण की राजकुमारी थी। अन्य राज्यों में संभवतः उग्र, भोग, ईक्ष्वाकु तथा कौरव थे। बुद्ध के काल में वज्जि गणराज्य एक शक्तिशाली संघ था।

मल्ल

यह गणसंघ पूर्वी उत्तर प्रदेश के वर्तमान देवरिया एवं गोरखपुर जनपद में फैला हुआ था। वज्जियों के समान मल्ल भी एक संघ (गण) राज्य था। वाल्मीकि रामायण से पता चलता है कि रामचंद्र ने लक्ष्मण-पुत्र चंद्रकेतु के लिए इस दिव्य पुरी को बसाया था। बौद्ध साहित्य के अनुसार मल्लों की दो शाखाएँ थीं- कुशीनारा (कुशावती) और पावा (पडरौना)। कुशीनारा का समीकरण देवरिया से लगभग 34 कि.मी. उत्तर कसया के अनुरुधवा गाँव के टीले से किया जाता है। मल्लों की दूसरी राजधानी पावा का समीकरण देवरिया जिले के पडरौना से किया जाता है। यद्यपि कुछ विद्वान् इसका तादात्म्य कसया के दक्षिण-पूर्व स्थित फाजिल नगर से करते हैं। विदेह की भाँति यहाँ भी प्रारंभ में राजतंत्रात्मक शासन था, किंतु बाद में गणतंत्र की स्थापना हो गई। बौद्ध तथा जैन साहित्य में मल्लों और लिच्छवियों की प्रतिद्वंद्विता का उल्लेख है। बुद्धकाल तक मल्लों का स्वतंत्र अस्तित्त्व बना रहा, किंतु कालांतर में यह मगध की विस्तारवादी नीति का शिकार हो गया।

चेदि

चेदि राज्य आधुनिक बुंदेलखंड में यमुना के दक्षिण में चंबल और केन नदियों के बीच में फैला हुआ था। चेतिय जातक में इसकी राजधानी सोत्थिवती (शुक्तिमती) बताई गई है। अंगुत्तर निकाय में चेदि प्रदेश में स्थित ‘सहजाति’ नामक नगर का समीकरण महाभारत के शुक्तिमती से किया जाता है। विष्णु पुराण में चेदिराज शिशुपाल का उल्लेख है जिसे महाभारतकालीन कृष्ण का प्रतिद्वंद्वी बताया गया है। चेतिय जातक में यहाँ के एक राजा का नाम उपरिचर मिलता है। महाभारत में उपरिचर का उल्लेख चेदिराज के रूप में किया गया है। संभवतः कलिंगराज खारवेल इसी वंश का राजा था। मुद्राराक्षस में मलयकेतु की सेना में खस, मगध, यवन, शक, हूण के साथ चेदि लोगों का भी नाम मिलता है।

सोलह महाजनपद (Sixteen Mahajanapadas)
सोलह महाजनपदों की स्थिति
वत्स

वत्स महाजनपद आधुनिक इलाहाबाद एवं बाँदा के आसपास फैला हुआ था। पालि ग्रंथों में इसे ‘वंस’ तथा जैन साहित्य में ‘वच्छ’ कहा गया है। इसकी राजधानी कोशांबी का समीकरण इलाहाबाद से लगभग 48 कि.मी. पश्चिम यमुना के बायें तट पर स्थित वर्तमान कोसम से किया जाता है। रामायण तथा महाभारत में कोशांबी की स्थापना का श्रेय कुशांब को दिया गया है। विष्णुपुराण से पता चलता है कि हस्तिनापुर के राजा निचक्षु ने हस्तिनापुर के गंगा की बाढ़ में बह जाने के बाद कोशांबी को अपनी राजधानी बनाई थी। गौतम बुद्ध के समय वत्स देश का शासक पौरववंशी उदयन था जिसने अवंति-नरेश चंडप्रद्योत की पुत्री वासवदत्ता से विवाह किया था। कोशांबी में किये गये उत्खनन में श्रेष्ठि घोषित द्वारा निर्मित विहार, परिखा और उदयन के राजप्रासाद के अवशेष मिले हैं।

कुरु

कुरु महाजनपद में थानेश्वर, मेरठ और दिल्ली के क्षेत्र सम्मिलित थे। इसकी राजधानी इंद्रप्रस्थ (आधुनिक दिल्ली) थी। महाभारतकाल में कुरु जनपद की राजधानी हस्तिनापुर (मेरठ, उ.प्र.) थी। कुरु का निकटवर्ती जनपद पंचाल था, इसलिए दोनों को अनेक स्थानों पर साथ-साथ उल्लिखित किया गया है। कुरु शासकों के राजनीतिक एवं वैवाहिक संबंध यादवों, भोजों तथा पांचालों से थे। बुद्धकाल में यहाँ का राजा कोरव्य था। प्रारंभ में कुरु एक राजतंत्रात्मक राज्य था, किंतु बाद में यहाँ गणतंत्र की स्थापना हुई।

पांचाल

पांचाल महाजनपद पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बरेली, बदायूँ, एटा, मैनपुरी और फर्रुखाबाद जिलों में फैला हुआ था। पांचाल पाँच प्राचीन कुलों- क्रीवि, केशी, सृंजय, तुर्वस तथा सोमक का सामूहिक नाम था। महाभारत तथा बौद्ध ग्रंथों से पता चलता है कि इसकी भी दो शाखाएँ थीं- उत्तरी पांचाल तथा दक्षिणी पांचाल और गंगा नदी दोनों के बीच की विभाजक रेखा थी। उत्तरी पांचाल हिमालय से लेकर गंगा के उत्तरी तट तक विस्तृत था जिसकी राजधानी अहिछत्र या छत्रवती अथवा टाल्मी द्वारा उल्लिखित अदिसद्र थी। इसके अवशेष रामनगर (बरेली, उ.प्र.) से मिले हैं। दक्षिणी पांचाल गंगा के दक्षिणी तट से लेकर चर्मनवती तक था और उसकी राजधानी काम्पिल्य थी। काम्पिल्य की पहचान फर्रुखाबाद जिले में फतेहगढ़ के निकट स्थित कंपिल से की गई है। ब्राह्मण, बौद्ध तथा जैन ग्रंथों में पांचाल के शासक चूलिन ब्रह्मदत्त का उल्लेख है। शतपथ ब्राह्मण में पांचाल की ‘परिचका’ नामक नगरी का उल्लेख है, जिसकी पहचान महाभारत की ‘एकचका’ से की जा सकती है। ई.पू. छठी शताब्दी में कुरु तथा पांचाल का एक संघ राज्य था।

मत्स्य (मच्छ)

मत्स्य महाजनपद आधुनिक राजस्थान के अलवर, भरतपुर तथा जयपुर जिले में विस्तृत था। इसकी राजधानी विराटनगर (आधुनिक बैराट) की स्थापना विराट नामक राजा ने की थी। भागवत तथा विष्णु पुराण में मत्स्य का उल्लेख वसु के पाँच पुत्रों में किया गया है। महाभारत में सहज को मत्स्य एवं चेदि दोनों राज्यों पर शासन करते हुए वर्णित किया गया है। दीघनिकाय में मत्स्य जनपद का उल्लेख शूरसेन के साथ मिलता है। पांडवों ने मत्स्य देश में विराट के यहाँ रहकर अपने अज्ञातवास का एक वर्ष व्यातीत किया था। बुद्धकाल में इस महाजनपद का कोई विशेष महत्त्व नहीं था।

शूरसेन

शूरसेन उत्तरी भारत का प्रसिद्ध महाजनपद था जो आधुनिक ब्रजमंडल में फैला हुआ था। इसकी राजधानी मथुरा थी। प्राचीन यूनानी लेखकों ने इस राज्य को ‘शूरसेनोई’ तथा इसकी राजधानी को ‘मेथोरा’ कहा है। महाभारत तथा पुराणों के अनुसार यहाँ यदु (यादव) वंश का शासन था और कृष्ण यहाँ के राजा थे। यदुवंश वीतिहोत्र, सात्वत इत्यादि कुलों में विभक्त था। बुद्ध के समय यहाँ का शासक अवंतिपुत्र था, जिसकी सहायता से मथुरा में बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार संभव हुआ। मज्झिमनिकाय के अनुसार अवंतिपुत्र का जन्म अवंति नरेश प्रद्योत की कन्या से हुआ था। मेगस्थनीज के समय मथुरा कृष्णोपासना का प्रमुख केंद्र था। प्रारंभ में यहाँ गणतंत्र था, किंतु बाद में राजतंत्र की स्थापना की गई।

अश्मक

प्राचीन भारत के 16 महाजनपदों में अश्मक एक मात्र महाजनपद था जो विंध्य पर्वत के दक्षिण में स्थित था। बौद्ध साहित्य सुत्तनिपात में अश्मक को गोदावरी-तट पर बताया गया है। वायु पुराण और महाभारत में अश्मक नामक राजा का उल्लेख मिलता है। संभवतः इसी राजा के नाम से यह जनपद अश्मक कहलाया। प्रारंभ में अश्मक गोदावरी के तट पर बसे हुए थे और पोतलि अथवा पैठान (प्रतिष्ठानपुर) इनकी राजधानी थी। पुराणों के अनुसार इक्ष्वाकुवंशीय राजाओं ने अश्मक में राजतंत्र की स्थापना किया था। ग्रीक लेखकों ने अस्सकेनोई (अश्वकों) लोगों का उल्लेख उत्तर-पश्चिमी भारत में किया है। अस्सक जातक में पोतलि नगर की गणना काशी के अंतर्गत की गई है। बुद्ध के पूर्व अश्मक का अवंति के साथ निरंतर संघर्ष चल रहा था और बुद्ध के समय में अवंति ने इसे जीतकर अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया था।

भारत पर ईरानी और यूनानी आक्रमण 

अवंति

अवंति महाजनपद को जैन ग्रंथ भगवतीसूत्र में ‘मालव’ कहा गया है। जैन ग्रंथ विविधतीर्थकल्प में मालवा प्रदेश का नाम अवंति मिलता है। इस महाजनपद में स्थूल रूप से वर्तमान मालवा, निमाड़ और मध्य प्रदेश के बीच का भाग सम्मिलित था। पुराणों के अनुसार अवंति की स्थापना यदुवंशी क्षत्रियों द्वारा की गई थी। संभवतः अवंति जनपद दो भागों में बँटा था- उत्तरी अवंति और दक्षिणी अवंति। उत्तरी अवंति की राजधानी उज्जयिनी तथा दक्षिणी अवंति की राजधानी महिष्मती थी। अवंतिका या उज्जयिनी की गणना मुक्तिदायक सात नगरों में की गई है। पुराणों से पता चलता है कि पुलिक अथवा पुणिक ने अपने स्वामी की हत्या करके अपने पुत्र प्रद्योत को अभिषिक्त किया था। बुद्ध के समय में अवंति का राजा चंडप्रद्योत था। भास रचित ‘स्वप्नवासवदत्ता’ से पता चलता है कि प्रद्योत की पुत्री वासवदत्ता से वत्सराज उदयन ने विवाह किया था। जैन ग्रंथ परिशिष्टपर्वन् से पता चलता है कि मगध और अवंति का संघर्ष लंबे समय तक चलता रहा था।

गांधार

गांधार महाजनपद पाकिस्तान के पश्चिमी तथा अफगानिस्तान के पूर्वी क्षेत्रों में विस्तृत था। इस प्रदेश का मुख्य केंद्र आधुनिक पेशावर के आसपास था। इसकी राजधानी तक्षशिला का समीकरण रावलपिंडी से लगभग 19 कि.मी. उत्तर-पश्चिम स्थित शाह की ढ़ेरी से किया जाता है। केकय-नरेश युधाजित् के कहने पर रामचंद्र के भाई भरत ने गंधर्व देश को जीतकर यहाँ तक्षशिला और पुष्कलावती नामक नगरों को बसाया था। तक्षशिला प्राचीन काल से ही शैक्षिक एवं व्यापारिक गतिविधियों का प्रमुख केंद्र था। धम्मपदट्ठकथा से पता चलता है कि प्रसेनजित की शिक्षा तक्षशिला में हुई थी। यहाँ क शासक पुष्करसारिन मगध के शासक बिंबिसार का समकालीन था जिसने एक दूत-मंडल मगध नरेश के दरबार में भेजा था।

कंबोज

बौद्ध ग्रंथ अंगुत्तरनिकाय एवं पाणिनी के अष्टाध्यायी में कंबोज की गणना पंद्रह शक्तिशाली जनपदों में की गई है। बौद्ध ग्रंथ अस्सलायणसुत्तंत तथा अशोक के शिलालेखों में ‘योनकंबोजेसु’ ‘योनकंबोजगंधारयेसु’ (धौली) ‘योनकंबोजगंधराणाम्’ (गिरनार) का उल्लेख मिलता है। इससे लगता है कि कंबोज गांधार के निकट ही उससे संलग्न था। प्राचीन वैदिक साहित्य से ज्ञात होता है कि कंबोज देश का विस्तार उत्तर में कश्मीर से हिंदुकुश तक था। राजपुर, द्वारका तथा कपिशी इसके प्रमुख नगर थे। कंबोजाल्लुक सूत्र से ज्ञात होता है कि वैयाकरण पाणिनि स्वयं कंबोज के सहवर्ती प्रदेश के निवासी थे। चतुर्थ शताब्दी ई.पू. में कंबोज में संघ या गणराज्य की स्थापना भी की गई थी क्योंकि अर्थशास्त्र में कंबोजों को ‘वार्ताशस्त्रोपजीवी संघ’ अर्थात् कृषि और शस्त्र से जीविका अर्जन करनेवाले संघ की संज्ञा दी गई है।

इस प्रकार छठी शताब्दी ई.पू. के सभी महाजनपद आज के उत्तरी अफगानिस्तान से बिहार तक और हिंदुकुश से गोदावरी नदी तक में फैले हुए थे। बौद्ध निकायों में भारत को पाँच भागों में विभाजित किया गया है- उत्तरापथ (पश्चिमोत्तर भाग), मध्यदेश, प्राची (पूर्वी भाग), दक्षिणापथ तथा अपरांत (पश्चिमी भाग)। इससे लगता है कि भारत की भौगोलिक एकता ई.पू. छठी सदी से ही परिकल्पित है। जैन ग्रंथ भगवतीसूत्र और सूत्रकृतांग, पाणिनी की अष्टाध्यायी, बौधायन धर्मसूत्र और महाभारत में उपलब्ध जनपद-सूची पर दृष्टिपात करने पर पता चलता है कि उत्तर में हिमालय से कन्याकुमारी तक तथा पश्चिम में गांधार प्रदेश से लेकर पूर्व में असम तक का प्रदेश इन महाजनपदों से आच्छादित था।

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