सिंधु घाटी सभ्यता के प्रमुख तत्त्व (The Main Elements of the Indus Valley Civilization)

सिंधु घाटी सभ्यता के प्रमुख तत्त्व

प्राचीनतम् विश्व की नदी घाटी सभ्यताओं में से एक हड़प्पा सभ्यता का विकास सिंधु और घग्घर (प्राचीन सरस्वती) नदियों के किनारे हुआ था। प्रागैतिहासिक युग के पश्चात् मानव ने अपने अनुभव, विवेक और शक्ति के प्रयोग के द्वारा प्रकृति तथा तत्कालीन वातावरण पर विजय प्राप्त किया, जिसके परिणामस्वरूप उसे नूतन आविष्कारों द्वारा अपने जीवन को सुखद, सुरक्षित एवं सुविधाजनक बनाने में सफलता मिली। इसी क्रम में ताम्रपाषाणिक पृष्ठिभूमि पर सिंधु नदी की उपत्यका में इस पूर्ण विकसित नागर सभ्यता का प्रादुर्भाव हुआ। सबसे पहले चार्ल्स मैसन ने 1826 ई. में इस पुरानी सभ्यता को खोजा था।

1872 ई. में कनिंघम ने इस सभ्यता के संबंध में सर्वेक्षण किया और फ्लीट ने इसके बारे में एक लेख लिखा। किंतु भारतीय इतिहास के इस प्राचीनतम् वैभव की परिकल्पना को जोरदार समर्थन तब मिला जब 1921 ई. में दयाराम साहनी ने हड़प्पा की और 1922 ई. में राखालदास बनर्जी ने मोहनजोदड़ो की खुदाई की। इन दोनों पुरास्थलों की खुदाई से भारत के उत्तरी पश्चिमी भाग में 2500 ई.पू. के लगभग विकसित एक ऐसी नगरीय सभ्यता का पता चला, जिसकी तुलना में तत्कालीन विश्व की मिस्र, मेसोपोटामिया जैसी अन्य विकसित सभ्यताएँ अपने विकास के क्रम में बहुत पीछे छूट गईं। इस सभ्यता के ज्ञान से भारतीय इतिहास का आद्यैतिहासिक काल बहुत पहले चला जाता है। यह भारतीय प्रायद्वीप का गौरव रहा है कि पश्चिमी विश्व जब आदिम सभ्यता के आँचल में ढ़का था तो एशिया महाद्वीप के इस प्रायद्वीप में अत्यंत विकासमान सभ्य लोग निवास करते थे। विभिन्न अनुसंधानों से अब यह भी सिद्ध हो गया है कि भारत की सामाजिक, धार्मिक एवं भौतिक प्रवृत्तियों का मूल इसी विकसित सभ्यता में है।

नगर-निर्माण योजना

सैंधव सभ्यता की सबसे प्रमुख विशेषता थी यहाँ की विकसित नगर-निर्माण योजना। हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, चांहूदड़ो, लोथल, कालीबंगा और बनावली जैसे छः हड़प्पाई स्थल हैं जिनकी पहचान नगरों के रूप में हुई है। इस सभ्यता के महत्त्वपूर्ण स्थलों के नगरों के निर्माण में आश्चर्यजनक समरूपता थी। इन नगरों के भवन जाल की तरह विन्यस्त थे। नगर-नियोजन और भवन-विन्यास की दृष्टि से हड़प्पा और मोहनजोदड़ो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं। इन दोनों नगरों की रूपरेखा एक जैसी है। प्राप्त नगरों के अवशेषों से पूर्व और पश्चिम दिशा में दो टीले मिले हैं। पूर्व दिशा में स्थित टीले पर नगर या फिर आवास क्षेत्र के साक्ष्य मिलते हैं। पश्चिम के टीले पर गढ़ी अथवा दुर्ग के साक्ष्य मिले हैं। लोथल एवं सुरकोटदा के दुर्ग और नगर क्षेत्र दोनों एक ही रक्षा-प्राचीर से घिरे हैं।

हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो दोनों नगरों के अपने दुर्ग थे जहाँ शासक वर्ग का परिवार रहता था। नगरों के दुर्ग ऊँची और चौड़ी रक्षा-प्राचीरों से घिरे थे। प्राचीरों में बुर्ज तथा मुख्य दिशाओं में द्वार बनाये गये थे। वासुदेवशरण अग्रवाल इन दुर्गों की पहचान ऋग्वेद में वर्णित असुरों के पुरों से करते हैं। प्रत्येक नगर में दुर्ग के बाहर एक-एक उससे निम्न स्तर का शहर था, जहाँ ईंटों के मकानों में सामान्य जन रहते थे। इन नगर भवनों के बारे में विशेष बात यह थी कि सड़कें एकदम सीधी हैं और एक दूसरे को समकोण पर काटती थीं जिससे नगर अनेक आयताकार खंडों में विभक्त था। छोटी-बड़ी लगभग सभी हड़प्पाई बस्तियाँ इसी ग्रिड शैली में बसी हुई हैं। मुख्य सड़कें, जो कि तीस फीट तक चौड़ी हैं, जालीदार व्यवस्था में फैली हुई हैं। यह आयताकार जालीदार नगर-योजना हड़प्पा सभ्यता की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता है।

हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो के भवन बड़े होते थे। वहाँ के स्मारक इस बात के प्रमाण हैं कि वहाँ के शासक मजदूर जुटाने और कर-संग्रह करने में कुशल थे। यहाँ प्राप्त मकानों के अवशेषों से स्पष्ट होता है कि प्रत्येक मकान के बीच में एक आँगन होता था, आँगन के चारों ओर चार-पाँच बड़े कमरे, रसोईघर एवं स्नानागार के साथ बने होते थे। स्नानागार गली की ओर बने थे। कुछ बड़े आकार के भवन मिले हैं जिनमें तीस कमरे तक होते थे एवं दो मंजिले भवन का भी अवशेष मिला है। घरों के दरवाजे एवं खिड़कियाँ सड़क की ओर न खुलकर पिछवाड़े की ओर गली में खुलती थीं। भवन-निर्माण में तीन आकार की ईंटें प्रयुक्त की गई हैं जिसमें बड़ी ईंट 51.43×26.27×6.35 से.मी., मध्यम आकार की 36.83×18.41×10.16 से.मी. तथा छोटे आकार र्की ईंट 24.13×11.05×5.08 से.मी. की होती थीं। सामान्यतया मध्यम आकार की ईंटों का प्रयोग अधिक किया गया है। ईंटों के निर्माण का निश्चित अनुपात 4:2:1 था। यहाँ पर मिले भवन अलंकरणरहित हैं, मात्र कालीबंगा में एक फर्श के निर्माण में परिच्छेदी वृत्त अलंकृत ईंट का प्रयोग किया गया है।

सड़कें

सिंधु सभ्यता में सड़कों का जाल नगर को कई भागों में विभाजित करता था। सड़कें पूर्व से पश्चिम एवं उत्तर से दक्षिण की ओर जाती हुई एक दूसरे को समकोण पर काटती थीं। मोहनजोदड़ो का मुख्य मार्ग लगभग 9.15 मी. चैड़ा था जिसे पुरातत्त्वविदों ने ‘राजपथ’ की संज्ञा दी है। अन्य सड़कों की चौड़ाई 2.75 मी. से लेकर 3.66 मी. तक थी। गलियों की चौड़ाई 1.80 मी. तक होती थी। सड़कों का निर्माण मिट्टी से किया गया था, किंतु सड़कों के दोनों ओर पक्की ईंटों द्वारा नालियों का निर्माण किया गया था। सड़कों की साफ-सफाई बनाये रखने के लिए जगह-जगह गड्ढे खोदे गये थे अथवा कूड़ादान रखे गये थे।

जल निकास प्रणाली

मोहनजोदड़ो की जल निकास प्रणाली आश्चर्यजनक थी। प्रायः सभी नगरों के छोटे या बड़े समस्त भवनों में प्रांगण और स्नानागार होता था। कालीबंगा के अनेक घरों में अपने-अपने कुएं थे। प्रत्येक भवन में नालियाँ होती थीं जिनसे घरों का पानी सड़कों के नीचे बनी बड़ी नालियों में गिरता था। सड़कों की इन नालियों में नरमोखे (मेनहोल) भी होते थे जो अकसर ईंटों और पत्थर की सिल्लियों से ढके रहते थे और जिनको खोलकर समय-समय पर नाली की सफाई की जाती थी। सड़कों और नालियों के अवशेष बनावली में भी मिले हैं। नालियों के जल-निकास का इतना उत्तम प्रबंध समकालीन विश्व की किसी अन्य सभ्यता में नहीं था। हड़प्पा की इस अद्भुत जल-निकास प्रणाली से पता चलता है कि हड़प्पाई लोग स्वास्थ्य और सफाई के प्रति विशेष जागरूक थे।

सार्वजनिक स्नानागार

सैंधव सभ्यता का अब तक का सबसे प्रसिद्ध स्थल है- मोहनजोदड़ो का विशाल सार्वजनिक स्नानागार (महाजलकुंड), जिसका जलाशय दुर्ग के टीले में है। यह ईंटों के स्थापत्य का एक सुंदर नमूना है। यह स्नानागार 11.88 मीटर लंबा, 7.01 मीटर चौड़ा और 2.43 मीटर गहरा है। दोनों छोरों पर तल तक जाने के लिए सीढि़याँ बनी हैं। बगल में कपड़े बदलने के कमरे हैं। स्नानागार का फर्श पकी ईंटों का बना है। फर्श तथा दीवार की जुड़ाई जिप्सम से की गई है। बाहरी दीवार पर बिटूमेन का एक इंच मोटा (2.54 से.मी.) प्लास्टर है। निकट के कमरे में एक बड़ा-सा कुआं है जिसका पानी निकालकर हौज में डाला जाता था। हौज के कोने में एक निर्गम (आउटलेट) है जिससे पानी बहकर नाले में जाता था। इस विशाल स्नानागार की तुलना संस्कृत ग्रंथों में वर्णित पुष्कर या कमलताल से की गई है जो धार्मिक संस्कार से संबंधित स्नान तथा शुद्धिकरण के अलावा राजाओं और पुरोहितों के अभिषेक के लिए आवश्यक माना जाता था। संभवतः यह बृहत्स्नानागार धर्मानुष्ठान-संबंधी स्नान के लिए बना रहा होगा जो भारत में पारम्परिक रूप से धार्मिक कार्यों के लिए आवश्यक माना जाता है।

सिंधुघाटी की सभ्यता (Indus Valley Civilization)
मोहनजोदड़ो का सार्वजनिक स्नानागार
विशाल अन्नागार (कोठार)

मोहनजोदड़ो की सबसे बड़ी संरचना है अनाज रखने का कोठार, जो पूरब से पश्चिम 45.71 मी. लंबा और उत्तर से दक्षिण 22.86 मी. चौड़ा है। हड़प्पा के दुर्ग में छः कोठार मिले हैं जो 1.52 मी. ऊँचे ईंटों के चबूतरे पर दो पंक्तियाँ में खड़े हैं। प्रत्येक कोठार 15.23 मी. लंबा तथा 6.09 मी. चौड़ा है और नदी के किनारे से कुछेक मीटर की दूरी पर है। इन बारह इकाइयों का तलक्षेत्र लगभग 838.125 वर्ग मी. है जो लगभग उतना ही होता है जितना मोहनजोदड़ो के कोठार का। इतिहासकारों का अनुमान है कि यह राजकीय भंडारागार था जिसमें जनता से कर के रूप में वसूल किये गये अनाज को रखा जाता था। हड़प्पा के कोठारों के दक्षिण में खुला फर्श है और इस पर दो कतारों र्में ईंट के वृत्ताकार चबूतरे बने हुए हैं। फर्श की दरारों में गेहूँ और जौ के दाने मिले हैं। इससे लगता है कि इन चबूतरों पर फसल की मड़ाई (दवनी) होती थी। हड़प्पा में दो कमरोंवाले बैरक भी मिले हैं जो संभवतः श्रमिक आवास थे। कालीबंगा में भी नगर के दक्षिण भाग र्में ईंटों के चबूतरे बने हैं जो कोठारों के लिए ही रहे होंगे। इस प्रकार अन्नागार हड़प्पा सभ्यता के अभिन्न अंग थे। इसी तरह के अन्नागार मिस्र तथा मेसोपोटामिया की सभ्यता में भी पाये गये हैं।

हड़प्पा संस्कृति के नगरों में भवनों, नालियों व स्नानगृहों के निर्माण में बड़े पैमाने पर पकी हुई ईंटों का प्रयोग विशेष महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि समकालीन मिस्र के भवनों में धूप में सूखी हुई ईंटों का ही प्रयोग किया गया था। मेसोपेटामिया में पर्की ईंटों का प्रयोग अवश्य मिलता है, किंतु उतने बड़े पैमाने पर नहीं, जितना कि हड़प्पा सभ्यता में।

राजनैतिक जीवन

हड़प्पा सभ्यता की व्यापकता एवं विकास से अनुमान किया जा सकता है कि यह सभ्यता किसी केंद्रीय शक्ति द्वारा अवश्य संचालित होती थी। यद्यपि यह प्रश्न अभी अनिर्णीत है कि यहाँ किस प्रकार की शासन व्यवस्था थी और शासन प्रणाली का स्वरूप क्या था, किंतु इतना स्पष्ट है कि इस सुनियोजित नगर व्यवस्था और विदेशों से सुदृढ़ व्यापारिक-संबंध के पीछे कोई बड़ी राजनैतिक सत्ता अवश्य रही होगी। ह्वीलर ने सिंधु प्रदेश के लोगों के शासन को ‘मध्यम वर्गीय जनतंत्रात्मक शासन’ बताया और उसमें धर्म की महत्ता को स्वीकार किया। इनके अनुसार मोहनजोदड़ो की शासन-व्यवस्था धर्मगुरुओं और पुरोहितों के हाथों में केंद्रित थी जो जन-प्रतिनिधियों के रूप में प्रशासनिक कार्य करते थे। मैके के अनुसार मोहनजोदड़ो का शासन एक प्रतिनिधि शासक के द्वारा संचालित होता था। संभवतः सैंधव साम्राज्य में एक शासक होता था जो पुरोहित होता था और देवता के प्रतिनिधि के रूप में शासन संचालित करता था। स्टुअर्ट पिग्गट के अनुसार मोहनजोदड़ो का शासन राजतंत्रात्मक न होकर जनतंत्रात्मक था। शासन की अपरिवर्तनशीलता एक धर्मनिरपेक्ष शासन के स्थान पर एक धर्मप्रधान शासन की ओर संकेत करती है। अस्त्र-शस्त्रों की अत्यंत कम संख्या से स्पष्ट है कि हड़प्पाई शासक शांतिप्रिय थे।

प्रशासनिक दृष्टि से सैंधव नगर केंद्रीय राजधानी, प्रांतीय राजधानियों, व्यापारिक एवं आवासीय नगरों में विभक्त रहे होंगे। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा को स्टुअर्ट पिग्गट ने इस विस्तृत साम्राज्य की जुड़वां राजधानी बताया है। कुछ विद्वान् कालीबंगा को सैंधव साम्राज्य की तीसरी राजधानी मानते हैं। नगरों का प्रशासन संभवतः सुदृढ़ दुर्गों से संचालित होता था जहाँ अधिकांश केंद्रीय अधिकारी निवास करते थे। नगरों की सुनियोजित व्यवस्था को देखकर लगता है कि यहाँ नगर निगम जैसी कोई स्थानीय संस्था भी कार्य करती थी। जनता से कर के रूप में अनाज लिया जाता था जिसे राजकीय अन्नागारों में रखा जाता था। चूंकि हड़प्पावासी व्यापार-वाणिज्य की ओर अधिक आकर्षित थे, इसलिए कुछ विद्वानों का अनुमान है कि हड़प्पा सभ्यता का शासन वणिक वर्ग के हाथों में था।

सामाजिक जीवन

सैंधव समाज

सैंधव सभ्यता के विभिन्न स्थलों से पाये गये पुरावशेषों के आधार पर इस सभ्यता के सामाजिक जीवन, रहन-सहन आदि के बारे में कुछ अनुमान लगाया जा सकता है। भवनों के आकार-प्रकार एवं आर्थिक विषमता के आधार पर लगता है कि विश्व की अन्य सभ्यताओं की भाँति हड़प्पाई समाज भी वर्ग-विभेद पर आधारित था। उच्च वर्ग के लोग मूल्यवान् धातु-पत्थरों के आभूषण प्रयोग करते थे, जबकि निम्नवर्गीय लोगों के आभूषण मिट्टी, सीप एवं घोंघे के होते थे। विशाल भवनों के निकट मिलने वाले छोटे आवासों से स्पष्ट है कि समाज में वर्ग-विभाजन विद्यमान था। प्राप्त पुरावशेषों से हड़प्पाई समाज में शासक, कुलीन वर्ग, विद्वान्, व्यापारी तथा शिल्पकार, कृषक और श्रमिक जैसे विभिन्न वर्गों के अस्तित्व की सूचना मिलती है। दुर्ग के निकट श्रमिकों की झोपड़ियाँ मिली हैं। इन हड़प्पाई श्रमिक-बस्तियों के आधार पर ह्वीलर ने समाज में दास प्रथा के अस्तित्व का अनुमान किया है, यद्यपि कुछ पुराविद् इससे सहमत नहीं हैं। इस सभ्यता के लोग युद्धप्रिय कम, शांतिप्रिय अधिक थे। संभवतः समाज की इकाई परिवार था। उत्खनन में प्राप्त विशाल भवनों के आधार पर अनुमान है कि बड़े परिवारों में अनेक व्यक्ति रहते होंगे। खुदाई में प्राप्त बहुसंख्यक नारी-मूर्तियों से लगता है कि प्राक्-आर्य संस्कृतियों की भाँति सैंधव समाज भी मातृसत्तात्मक था।

भोजन और वस्त्र

इस सभ्यता के लोग सामिष और निरामिष दोनों प्रकार का भोजन करते थे। वे भोजन के रूप में गेहूँ, जौ, खजूर एवं भेड़, सुअर, मछली के माँस खाते थे और मिट्टी एवं धातु के बने कलश, थाली, कटोरे, तश्तरी, गिलास एवं चम्मच का प्रयोग करते थे। हड़प्पाई सूती एवं ऊनी दोनों प्रकार के वस्त्रों का प्रयोग करते थे। पुरुष ऊपरी कपड़े को चादर की तरह ओढ़ते थे। उच्च वर्ग के लोग रंगीन और कलात्मक वस्त्रों का प्रयोग करते थे। मोहनजोदड़ो से प्राप्त योगी की मूर्ति तिपतिया चादर ओढ़े हुए है। वस्त्रों की सिलाई भी की जाती थी। स्त्रियाँ कमर में घाघरा (स्कर्ट) की तरह का वस्त्र पहनती थीं। वे सिर पर विशेष प्रकार का वस्त्र धारण करती थीं जो पंख की तरह उठा होता था।

सौंदर्य-प्रसाधन

पुरुष वर्ग दाढ़ी एवं मूँछों का शौकीन था। खुदाई में ताँबे के निर्मित दर्पण, हाथीदाँत का कंघा, उस्तरे, अंजन शलाकाएँ और श्रृंगारदान मिले हैं। इससे लगता है कि स्त्रियाँ आँखों में काजल लगाती थीं और होठों तथा नाखूनों को रंगती थीं। वे लिपिस्टिक के प्रयोग से परिचित थीं और बालों में पिन लगाती थीं। पुरुष और स्त्री दोनों ही आभूषणों के शौकीन थे। निम्न वर्ग के लोग मिट्टी, घोंघे, हड्डी या काँसे के आभूषणों का प्रयोग करते थे, तो उच्च वर्ग के लोग सोने, चाँदी, हाथीदाँत तथा बहुमूल्य पत्थरों से निर्मित आभूषण पहनते थे। खुदाई में कंठहार, भुजबंध, कर्णफूल, छल्ले, चूडियाँ (कालीबंगा से प्राप्त), करधनी, पायजेब, बाली जैसे आभूषण मिले हैं, जिन्हें स्त्री और पुरुष दोनों पहनते थे।

आमोद-प्रमोद या मनोरंजन

सैंधव सभ्यता के निवासी जीवन में आमोद-प्रमोद को भी महत्त्व देते थे। वे मनोरंजन के विभिन्न साधनों का प्रयोग करते थे, जिनमें मछली पकड़ना, शिकार करना, पशु-पक्षियों को आपस में लड़ाना, चौपड़, पासा खेलना आदि सम्मिलित थे। एक मुहर पर दो जंगली मुर्गों के लड़ने का चित्र अंकित है। काँसे की नर्तकी की मूर्ति एवं मुहरों पर विभिन्न वाद्य-यंत्रों के अंकन से स्पष्ट है कि वे नृत्य व संगीत में रुचि रखते थे। हड़प्पा, मोहनजोदड़ो से प्राप्त पासों से लगता है कि चौपड़ और शतरंज का खेल भी पर्याप्त लोकप्रिय था। बच्चों के मनोरंजन के लिए मिट्टी के बने असंख्य खिलौना-गाड़ी, सीटी, झुनझुने आदि खुदाइयों में प्राप्त हुए हैं।

शव-विसर्जन

शव-विसर्जन प्रणाली के संबंध में उत्खननों से पता चलता है कि हड़प्पाई लोग अपने मृतकों को भूमि में गाड़ते या जलाते थे। इस सभ्यता में तीन प्रकार से अंत्येष्टि संस्कार किये जाने के प्रमाण मिले हैं- एक तो पूर्ण समाधिकरण, जिसमें संपूर्ण शव को भूमि में दफना दिया जाता था। मृतकों के साथ उनकी प्रिय वस्तुएँ भी गाड़ दी जाती थीं। यही प्रथा प्राचीन मिस्र के पिरामिडों में भी दिखाई देती है। पूर्ण समाधिकरण का सर्वोत्तम उदाहरण हड़प्पा का ‘आर-37’ का कब्रिस्तान है। दूसरे, आंशिक समाधिकरण में शव को किसी खुले स्थान पर रख दिया जाता था और पशु-पक्षियों के खाने के बाद शव के अवशेष भाग को भूमि में गाड़ दिया जाता था। तीसरे, दाह-संस्कार की प्रथा में शव को जलाने के बाद भस्मावशेषों को किसी बर्तन में रखकर नदी में प्रवाहित कर दिया जाता था। कभी-कभी उसकी राख को भूमि में भी गाड़ दिया जाता था। संभवतः कुछ लोग मृतकों का प्रवाह भी करते रहे होंगे। हड़प्पा दुर्ग के दक्षिण-पश्चिम में स्थित कब्रिस्तान को ‘एच.कब्रिस्तान’ का नाम दिया गया है। लोथल में प्राप्त एक कब्र में शव का सिर पूर्व एवं पश्चिम की ओर करवट लिये हुए लिटाया गया है। यहीं से एक कब्र में दो शव आपस में लिपटे हुए मिले हैं। सुरकोटदा से अंडाकार शवाधान के अवशेष पाये गये हैं।

रूपनगर (रोपड़) की एक कब्र में मनुष्य के साथ कुत्ते का भी अवशेष मिला है। मोहनजोदड़ो के अंतिम स्तर से प्राप्त कुछ सामूहिक नर-कंकालों एवं कुएं की सीढि़यों पर पड़े स्त्री के बाल से मार्टीमर व्हीलर ने अनुमान लगाया है कि ये नरकंकाल किसी बाहरी आक्रमण के शिकार हुए लोगों के हैं।

आर्थिक जीवन

सैंधव सभ्यता के समृद्ध आर्थिक जीवन में कृषि, पशुपालन, विभिन्न प्रकार के उद्योग-धंधों तथा व्यापार-वाणिज्य का प्रमुख योगदान था। कृषकों के अतिरिक्त उत्पादन और व्यापार-वाणिज्य के विकास के कारण ही इस नगरीय सभ्यता का विकास हुआ था।

कृषि

आज की अपेक्षा सिंधु प्रदेश की भूमि पहले बहुत ऊपजाऊ थी। ई.पू. चौथी सदी में सिकंदर के एक इतिहासकार ने कहा था कि सिंधु की गणना इस देश के ऊपजाऊ क्षेत्रों में की जाती थी। पूर्व काल में प्राकृतिक वनस्पतियाँ बहुत अधिक थीं जिसके कारण यहाँ अच्छी वर्षा होती थी। पर्की ईंटों की सुरक्षा-प्राचीरों से संकेत मिलता है कि नदियों में बाढ़ प्रतिवर्ष आती थी। सिंधु तथा उसकी सहायक नदियों द्वारा प्रति वर्ष लाई गई उपजाऊ जलोढ़ मिट्टी इस क्षेत्र की उर्वरता को बहुत बढ़ा देती थी जो कृषि के लिए महत्त्वपूर्ण थी। यहाँ के लोग बाढ़ के उतर जाने के बाद नवंबर के महीने में बाढ़वाले मैदानों में बुआई कर देते थे और अगली बाढ़ के आने से पहले अप्रैल के महीने में गेहूँ तथा जौ की फसल काट लेते थे।

सिंधु नदी घाटी के उपजाऊ मैदानों में मुख्यतः गेहूँ और जौ का उत्पादन किया जाता था। अभी तक नौ फसलों की पहचान की गई है। गेहूँ बहुतायत में उगाया जाता था। जौ की दो और गेहूँ की तीन किस्में उपजाई जाती थीं। गेहूँ के बीज की दो किस्में- स्परोकोकम तथा कम्पेस्टस उत्खनन में प्राप्त हुई हैं। बनावली में मिला जौ उन्नत किस्म का है। चावल की खेती केवल गुजरात (लोथल) और संभवतः राजस्थान में की जाती थी। लोथल से धान तथा बाजरे की खेती के अवशेष मिले हैं। इसके अलावा राई, खजूर, सरसो, तिल एवं कपास की भी खेती होती थी। संभवतः सबसे पहले कपास यहीं पैदा की गई, इसीलिए यूनानी इस प्रदेश को ‘सिंडन’ कहते थे। यही नहीं, वे अनेक प्रकार के फल व सब्जियाँ भी उपजाते थे। हड़प्पाई पुरास्थलों के उत्खनन में पीपल, खजूर, नीम, नीबू, अनार एवं केला आदि के प्रमाण मिले हैं।

इस समय खेती के कार्यों में प्रस्तर एवं काँसे के बने औजार प्रयुक्त होते थे। यहाँ कोई फावड़ा या हल का फाल तो नहीं मिला है, किंतु कालीबंगा की प्राक्-हड़प्पा सभ्यता के स्तर से जो कूंट (हलरेखा) मिले हैं, उनसे स्पष्ट है कि राजस्थान में इस काल में हलों द्वारा खेतों की जुताई की जाती थी। संभवतः हड़प्पाई लकड़ी के हल का प्रयोग करते थे। बनावली में मिट्टी का बना हुआ हल जैसा एक खिलौना मिला है। सिंचाई के लिए नदियों के जल का प्रयोग किया जाता था। फसलों की कटाई के लिए संभवतः पत्थर या काँसे की हंसिया का प्रयोग होता था। अनाज रखने की टोकरियों के भी साक्ष्य मिले हैं। अतिरिक्त उत्पादन को राज्य द्वारा नियंत्रित भंडार-गृहों (कोठारों या अन्नागारों) में रखा जाता था तथा अनाज को चूहों से बचाने के लिए मिट्टी की चूहेदानियों का प्रयोग किया जाता था। अनाज कूटने के लिए ओखली और मूसल का प्रयोग होता था। लोथल से आटा पीसने की पत्थर की चक्की (जाँता) के दो पाट मिले हैं।

पशुपालन

सैंधव सभ्यता में कृषि के साथ-साथ पशुपालन का भी महत्त्वपूर्ण स्थान था। मृद्भांडों तथा मुहरों पर बने चित्रों एवं अस्थि-अवशेषों से लगता है कि मुख्य पालतू पशुओं में डीलदार एवं बिना डीलवाले बैल, भैंस, गाय, भेड़-बकरी, कुत्ते, गधे, खच्चर और सुअर आदि थे। हड़प्पाई लोग संभवतः बाघ, हाथी तथा गैंडे से भी परिचित थे, किंतु हाथी व घोड़ा पालने के साक्ष्य प्रमाणित नहीं हो सके हैं। एस.आर. राव को लोथल एवं रंगपुर से गाय एवं घोड़े के पुरातात्विक प्रमाण मिले हैं। सुरकोटदा से सैंधवकालीन घोड़े का अस्थिपंजर मिला है। बंदर, खरगोश, हिरन, मुर्गा, मोर, तोता, उल्लू जैसे कुछ पशु-पक्षियों के अवशेष खिलौनों और मृर्तियों के रूप में मिले हैं।

शिल्प एवं उद्योग-धंधे

विभिन्न प्रकार के शिल्प एवं उद्योग-धंधे सिंधु सभ्यता के निवासियों के विकसित नागरिक जीवन के मूलाधार थे। इस समय मुद्रा एवं मूर्ति निर्माण, वस्त्र उद्योग, मृद्भांड निर्माण, मनका उद्योग जैसे अनेक शिल्प और उद्योग पर्याप्त विकसित थे।

सिंधु घाटी सभ्यता के प्रमुख तत्त्व (The Main Elements of the Indus Valley Civilization)
मोहनजोदड़ो के पुजारी की मूर्ति
मुद्रा एवं मूर्ति निर्माण

हड़प्पा सभ्यता में मुहरों (मुद्राओं) का विशिष्ट स्थान था। अब तक विभिन्न स्थानों से लगभग 2,000 मुहरें प्राप्त की जा चुकी हैं। इसमें लगभग 1,398 अकेले मोहनजोदड़ो से मिली हैं। मुहरों का निर्माण अधिकतर सेलखड़ी से हुआ है, परन्तु कुछ मुहरें काँचली मिट्टी, गोमेद, चर्ट और मिट्टी की बनी हुई भी प्राप्त हुई हैं। ये मुहरें आयताकार, वर्गाकार, गोल, घनाकार, वृत्ताकार एवं कुछ बेलनाकार भी हैं। मुहरों पर ठप्पे द्वारा विभिन्न चित्र उत्कीर्ण किये जाते थे। अधिकांश मुहरों पर संक्षिप्त लेख, एकश्रृंगी सांड़, भैंस, बाघ, गैंडा, हिरन, बकरी एवं हाथी के चित्र उकेरे गये हैं। इनमें से सर्वाधिक आकृतियाँ एकश्रृंगी सांड़ की हैं। लोथल और देसलपुर से ताँबे की मुहरें मिली हैं। मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, लोथल, कालीबंगा आदि स्थानों से पत्थर, धातु और पकी मिट्टी की स्त्रियों, पुरुषों एवं पशु-पक्षियों की तमाम मूर्तियाँ मिली हैं, जिससे पता चलता है कि इस सभ्यता में बड़े पैमाने पर मूर्तियों का निर्माण भी होता था।

वस्त्र उद्योग

सैंधव क्षेत्र में कपास की खेती बड़े पैमाने पर की जाती थी, जिससे वस्त्र उद्योग को प्रोत्साहन मिला। यहाँ सूती एवं ऊनी दोनों प्रकार के वस्त्र तैयार किये जाते थे। आलमगीरपुर से प्राप्त मिट्टी की एक नाँद पर बुने हुए वस्त्र के निशान मिले हैं। मोहनजोदड़ो से मजीठा से लाल रंग में रंगे हुए कपड़े के अवशेष चाँदी के बर्तन में पाये गये थे। ताँबे के दो उपकरणों में लिपटा हुआ सूती कपड़ा एवं सूती धागा भी मोहनजोदड़ो से प्राप्त हुआ था। मोहनजोदड़ो, लोथल, रंगपुर व कालीबंगा से सूती कपड़े की छाप मिली है। मोहनजोदड़ो से प्राप्त पुरोहित की प्रस्तर-मूर्ति तिपतिया अलंकरण-युक्त शाल ओढ़े हुए है। इससे लगता है कि इस समय सूती वस्त्र एवं कताई-बुनाई उद्योग विकसित अवस्था में था। कताई-बुनाई में प्रयुक्त होनेवाली तकलियों एवं चरखियों के भी प्रमाण मिले हैं।

धातु उद्योग

यद्यपि सैंधव स भ्यता के लोग पत्थरों के औजारों एवं उपकरणों का प्रयोग करते थे, किंतु वे धातुकर्म से भी भली-भाँति परिचित थे। वे धातु को गलाना, ढालना तथा साँचे के द्वारा निर्माण करना जानते थे। टिन और ताँबा के 1:9 के मिश्रण से काँसा तैयार किया जाता था। उन्हें ताँबा राजस्थान के खेतड़ी की खानों से और टिन अफगानिस्तान से मँगाना पड़ता था क्योंकि इन दोनो में से कोई भी खनिज यहाँ पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं था।

संभवतः कसेरों (काँस्य-शिल्पियों) का समाज में महत्त्वपूर्ण स्थान था। खुदाई में ताँबे व काँसे के उपकरण अधिक मात्रा में मिले हैं। इनमें काँसे की बनी सुराही, कटोरा, तवा, लंबी एवं छोटी कुल्हाड़ियाँ, आरा, मछली पकड़ने की कँटिया और ताँबे की बनी तलवारें व छुरे प्रमुख हैं।

कसेरों के अतिरिक्त हड़प्पाई समाज में राजगीरों एवं आभूषण-निर्माताओं का समुदाय भी सक्रिय था। आभूषणों के लिए सोना-चाँदी संभवतः अफगानिस्तान से एवं रत्न दक्षिण भारत से मँगाया जाता था। लोथल से प्राप्त एक कंठहार, जो अनेक स्वर्ण मनकों से बना है, कारीगरी का अनूठा नमूना है। धातु की बनी कुछ मूर्तियाँ भी मिली हैं, जिनमें मोहनजोदड़ो से प्राप्त काँसे की नर्तकी की मूर्ति सर्वाधिक प्रसिद्ध है। लोथल से प्राप्त ताँबे का कुत्ता कला की दृष्टि से बेजोड़ है। इसके अलावा हड़प्पा से मिली ताँबे की इक्कागाड़ी तथा चांहूदड़ो से मिली ताँबे की दो गाड़ियों की अनुकृतियाँ भी महत्त्वपूर्ण हैं। हड़प्पाई लोग सीसा से भी परिचित थे।

मृद्भांड उद्योग

हड़प्पा सभ्यता में कुम्हारी कला भी पर्याप्त विकसित थी। इस सभ्यता के कुम्हार भवनों के लिए ईंट तो बनाते ही थे, मिट्टी के बर्तन, खिलौनों और आभूषणों का भी निर्माण करते थे। इस समय चाक से निर्मित मृद्भांड काफी प्रचलित थे, यद्यपि हस्तनिर्मित मृद्भांड भी पाये गये हैं। हड़प्पाई बर्तनों में घड़े, प्याले, सुराहियाँ और नांद प्रमुख थे जो विधिवत् पके हुए हैं और चित्रकारीयुक्त हैं। मिट्टी की बनी कुछ खानेदार थालियाँ और चूहेदानियाँ भी खुदाई में मिली हैं। पशु-पक्षियों की आकृतिवाले मिट्टी के खिलौने, खिलौना-गाड़ियाँ एवं मिट्टी की बनी मूर्तियाँ भी बड़ी संख्या में पाई गई हैं।

सिंधु घाटी सभ्यता के प्रमुख तत्त्व (The Main Elements of the Indus Valley Civilization)
चांहूदड़ो
मनका उद्योग

काँस्ययुगीन सभ्यता होने के बावजूद हड़प्पाई शिल्पी पत्थर एवं धातु के मनके, मूर्तियाँ, आभूषण आदि बनाते थे। चांहूदड़ो तथा लोथल में मनका बनाने का कारखाना प्रकाश में आया है। सेलखड़ी, सीप, हाथीदाँत, घोंघा एवं मिट्टी आदि से बने मनकों का उपयोग खिलौनों और आभूषणों के रूप में होता था। इस सभ्यता के स्थलों से पत्थर के बाट-बटखरे बड़ी संख्या में मिले हैं। चांहूदड़ो में सेलखड़ी की मुहर और चर्ट के बाट भी बनाये जाते थे। बालाकोट तथा लोथल में सीप उद्योग विकसित अवस्था में था। हाथीदाँत से भी अनेक उपकरण और प्रसाधन-सामग्री का निर्माण किया जाता था। मोहनजोदड़ो की मुहर पर नाव के चित्र तथा लोथल से प्राप्त गोदीवाड़ा से लगता है कि यहाँ नाव और जलयान निर्माण भी प्रमुख उद्योग था। इसके अलावा चिकित्सकों, राजगीरों एवं मछुआरों का व्यवसाय भी विकसित अवस्था में था।

उद्योग-धंधों एवं शिल्पकार्यों के लिए कच्चा माल गुजरात, सिंधु, राजस्थान, दक्षिणी भारत, बलूचिस्तान आदि क्षेत्रों से मँगाया जाता था। इसके अतिरिक्त अफगानिस्तान, सोवियत तुर्कमानिया तथा मेसोपाटामिया (सुमेर) आदि से भी कच्चा माल आयात किया जाता था। मनके बनाने के लिए गोमेद गुजरात से आता था। फ्लिण्ट तथा चर्ट के प्रस्तर-खंड पाकिस्तान के सिंधु क्षेत्र में स्थित रोड़ी तथा सुक्कुर की खदानों से आते थे। ताँबा राजस्थान के झुनझुन जिले में स्थित खेतड़ी (खेत्री) की खानों से मँगाया जाता था। सोना संभवतः कर्नाटक के कोलार की खानों से मिलता था।

व्यापार एवं वाणिज्य

सैंधव सभ्यता की आर्थिक समृद्धि का एक प्रमुख आधार विकसित व्यापार-वाणिज्य था। उनका आंतरिक एवं बाह्य व्यापार पर्याप्त उन्नत था। व्यापारिक गतिविधियों से संबंधित नगर मुख्यतः दो प्रकार के थे- मोहनजोदड़ो, चांहूदड़ो, हड़प्पा, कोटदीजी जैसे नगर उत्पादन से जुड़े हुए थे, जबकि लोथल, सुरकोटदा और बालासोर जैसे नगर विपणन से संबद्ध थे। हड़प्पाई लोग सिंधु सभ्यता के क्षेत्र के भीतर पत्थर, धातु शल्क आदि का व्यापार करते थे, लेकिन वे जो वस्तुएँ बनाते थे उसके लिए अपेक्षित कच्चा माल उनके नगरों में उपलब्ध नहीं था। इसलिए उन्हें बाह्य देशों से व्यापारिक संपर्क स्थापित करना पड़ता था। उन्होंने उत्तरी अफगानिस्तान में एक वाणिज्यिक उपनिवेश स्थापित किया जिससे उन्हें व्यापारिक गतिविधियों में सहायता मिलती थी। तैयार माल को खपाने की आवश्यकता ने व्यापारिक संबंधों को प्रगाढ़ बनाया।

इस सभ्यता के लोगों का मेसोपोटामिया, मिस्र, बहरीन, क्रीट आदि देशों से घनिष्ठ व्यापारिक संबंध था। मेसोपोटामिया में प्रवेश के लिए ‘उर’ एक महत्त्वपूर्ण बंदरगाह था। मेसोपोटामिया के अभिलेखों में ‘मेलुहा’ के साथ व्यापार के प्रमाण मिले हैं, साथ ही दो मध्यवर्ती व्यापार- केंद्रों- ‘दिल्मुन’ और ‘मकन’ का भी उल्लेख मिलता है। मेलुहा सिंधु क्षेत्र का ही प्राचीन भाग है। यहाँ से उर के व्यापारी सोना, चाँदी, लाल पत्थर, लाजवर्दमणि, हाथीदाँत की वस्तुएँ, खजूर, विविध प्रकार की लकड़ियाँ, खासकर काली लकड़ी (आबनूस), मोर पक्षी आदि प्राप्त करते थे। दिल्मुन की पहचान फारस की खाड़ी के बहरीन द्वीप से और मकन (मगन) की पहचान बलूचिस्तान के मकरान तट से किया गया है। गुजरात के लोथल से फारस की मुहरें प्राप्त हुई हैं, जिससे लगता है कि लोथल बंदरगाह से समुद्री मार्ग द्वारा विभिन्न देशों के साथ व्यापार होता था। गोरिल्ला और ममी की आकृति से मिलते-जुलते कुछ पुरातात्त्विक प्रमाण एस.आर. राव को प्राप्त हुए हैं जो मिस्र के साथ व्यापारिक संबंधों के द्योतक माने जा सकते हैं। इसी प्रकार क्रीट से प्राप्त मुद्राओं पर मातृदेवी, सिंह-मानव युद्ध आदि के चित्रांकन से व्यापारिक संबंधों का अनुमान किया जा सकता है।

आयात-निर्यात की वस्तुएँ

सैंधव सभ्यता के लोगों का व्यापारिक संबंध राजस्थान, अफगानिस्तान, ईरान एवं मध्य एशिया के साथ था। लाजवर्द एवं चाँदी अफगानिस्तान से आयात की जाती थी। ईरान से फिरोजा, टिन एवं चाँदी आयात की जाती थी। सोना दक्षिण भारत (मैसूर) से, ताँबा राजस्थान, बलूचिस्तान तथा अरब देश से, टीन अफगानिस्तान, ईरान तथा राजस्थान से, अर्द्धबहुमूल्य पत्थर, जैसे- लाजवर्द, गोमेद, पन्ना, मूंगा इत्यादि अफगानिस्तान, ईरान, महाराष्ट्र, सौराष्ट्र, राजस्थान और कश्मीर से मँगाते थे।

सिंधु से मेसोपोटामिया को निर्यात की जानेवाली वस्तुओं में सूती वस्त्र, इमारती लकड़ी, मसाले, हाथीदाँत, ताँबा, सोना, चाँदी एवं पशु-पक्षी रहे होगें। उर के उत्खनन में हड़प्पा निर्मित ताँबे का श्रृंगारदान मिला है। मेसोपोटामिया से हड़प्पाई नगर मनकें, धातुएँ, औषधियाँ एवं विलासिता की वस्तुएँ मँगाते थे। अभिलेखीय साक्ष्यों से पता चलता है कि दिल्मुन (बहरीन) से सोना, चाँदी, लाजवर्द, माणिक्य के मनके, हाथीदाँत की कंघी, पशु-पक्षी, आभूषण आदि आयात किया जाता था। सुमेर, उर, किश, लगश, निप्पुर, टेल अस्मर, टेपे, गावरा, उम्मा, असुर आदि मेसोपोटामियाई नगरों से हड़प्पा सभ्यता की लगभग एक दर्जन मुहरें मिली हैं। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि मेसोपोटामिया में सैंधव व्यापारियों की कोई बस्ती अवश्य रही होगी।

इस सभ्यता के लोग व्यापार में धातु के सिक्कों का प्रयोग नहीं करते थे, बल्कि उनका व्यापार वस्तु-विनिमय प्रणाली पर ही आधारित था। व्यापारिक वस्तुओं की गाँठों पर शिल्पियों एवं व्यापारियों द्वारा एक ओर अपनी मुहर (मुद्रा) की छाप डाली जाती थी और दूसरी ओर भेजे जानेवाली वस्तु का निशान अंकित किया जाता था। व्यापार मुख्यतः जलीय मार्गों से होता था, किंतु थल मार्ग का भी उपयोग किया जाता था। इस सभ्यता के लोग पहिये से परिचित थे और यातायात के रूप में दो पहियों एवं चार पहियोंवाली बैलगाड़ी अथवा भैसागाड़ी का उपयोग करते थे। उनकी बैलगाड़ी में प्रयुक्त पहिये ठोस आकार के होते थे। मोहनजोदड़ो की एक मुहर पर नाव का चित्र तथा लोथल से मिट्टी का नाव जैसा खिलौना मिला है, जिससे लगता है कि इस सभ्यता के लोग आंतरिक एवं बाह्य व्यापार में मस्तूलवाली नावों का उपयोग करते थे।

व्यापार में नाप-तौल के लिए बाट-माप का प्रयोग किया जाता था। मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, लोथल एवं कालीबंगा से बाट जैसी वस्तुएँ बड़ी संख्या में प्राप्त हुई हैं। बाट घनाकार, वर्तुलाकार, बेलनाकार, शंक्वाकार एवं ढोलाकार होते थे जो पहले दुगुने क्रम (द्विचर प्रणाली) में हैं, किंतु बाद में 16 के गुणन में, जैसे-1, 2, 4, 8, 16, 32, 64, 160, 320, 1600 तथा 3200। इस प्रकार मापतौल में 16 या उसके आवर्तकों का प्रयोग होता था। अभी कुछ समय पहले तक भारत में एक रुपया 16 आने का होता था। सबसे बड़ी तौल 10790 ग्राम की और सबसे छोटी तौल 8565 ग्राम की है। मोहनजोदड़ो से सीप तथा लोथल से हाथीदाँत का एक-एक पैमाना भी प्राप्त हुआ है।

बौद्धिक प्रगति

लिपि और लेखन-कला

प्राचीन मेसोपोटामिया की तरह हड़प्पा सभ्यता के लोग भी लिपि और लेखन-कला से परिचित थे। संभवतः सिंधुवासी भोजपत्रों पर लिखते थे, जो काल के प्रवाह में नष्ट हो गये हैं। हड़प्पाई पुरास्थलों के उत्खनन में असंख्य लिपिबद्ध मुहरें (मुद्राएँ), ताम्रपत्र व मृद्भांड प्राप्त हुए हैं। हड़प्पाई लिपि के मिलनेवाले नमूने बहुत संक्षिप्त हैं और सबसे लंबे लेख में भी मात्र 17 अक्षर ही मिलते हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार यह लिपि संस्कृत भाषा पर आधारित है, जबकि कुछ इसे ब्रह्मी पर आधारित बताते हैं। 1934 ई. में हंटर ने बताया कि यह एक विशिष्ट लिपि है जो एलम और सुमेर की लिपियों से समानता रखती है। फादर हेरास के अनुसार यह लिपि द्रविड़ भाषा पर आधृत है। रूसी विद्वानों और फिनलैंड की चार सदस्यीय टीम (अस्कोर्पोला, पी. आल्टो, सिमो पार्पोला एवं एस. कोस्केन्नेमि) ने भी इसे द्रविड़ भाषा से संबंधित माना है। अधिकांश विद्वानों के अनुसार यह चित्राक्षर लिपि है जो संभवतः दाएं से बायें लिखी जाती थी। यह लिपि गोमूत्रिका प्रकार की है जिसमें ऊपरी पंक्ति का नैरंतर्य होता रहता है। इस विधि को ‘बूस्ट्रोफेडन’ पद्धति कहा जाता है। तमाम सरकारी और गैर-सरकारी प्रयासों के बावजूद सैंधव लिपि को अभी तक संतोषजनक और सर्वमान्य ढ़ंग से पढ़ा नहीं जा सका है।

सिंधु घाटी सभ्यता के प्रमुख तत्त्व (The Main Elements of the Indus Valley Civilization)
हड़प्पा का कूबड़वाला बैल
वैज्ञानिक प्रगति

सिंधुवासी यद्यपि सुमेर या मिस्र जैसी वैज्ञानिक प्रगति तो नहीं कर सके थे, किंतु वे रसायन-विद्या, धातु-कर्म, औषधि-निर्माण एवं शल्यक्रिया से परिचित थे। वे टिन और ताँबे को मिलाकर काँसा तैयार करना जानते थे। उन्हें धातु गलाने की कला तथा रंगों के प्रयोग की जानकारी थी। मिट्टी के बर्तनों तथा ईंटों को वे एक निश्चित ताप पर पकाते थे। हड़प्पाई नगरों के नियोजन से स्पष्ट है कि वे ज्यामिति के सिद्धांतों से परिचित थे। संभवतः उन्हें दशमलव प्रणाली का भी ज्ञान था। खगोल और ज्योतिष-विद्या के क्षेत्र में भी उन्होंने कुछ प्रगति की थी। ग्रहों और नक्षत्रों की गतिविधियों के आधार पर वे बाढ़ और वर्षा का अनुमान कर लेते थे जिससे कृषिकार्य में सहायता मिलती थी।

औषधियों का निर्माण

इस सभ्यता के लोग विभिन्न रोगों की पहचानकर उससे छुटकारा पाने के लिए औषधियों का निर्माण करना भी जानते थे। वे शिलाजीत तथा बारहसिंगा के सींग से भस्म तैयार करके औषधि के रूप में प्रयोग करते थे। समुद्र-फेन का भी दवा के रूप में प्रयोग होता था। हड़प्पाई लोग शल्य-क्रिया से भी परिचित थे क्योंकि कालीबंगा और लोथल से मानव-मस्तिष्क की शल्य-चिकित्सा के प्रमाण मिले हैं।

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