बौद्ध धर्म और गौतम बुद्ध (Buddhism and Gautama Buddha)

बौद्ध धर्म और गौतम बुद्ध

गौतम बुद्ध का जन्म और आरंभिक जीवन

नवीन बौद्धिक आंदोलन के रूप में बौद्ध धर्म का उदय ई.पू. छठी शताब्दी की सर्वाधिक युगांतकारी घटना थी। बौद्ध धर्म के प्रवर्तक एवं संस्थापक गौतम बुद्ध का जन्म लगभग 563 ई.पू. में रानी महामाया के गर्भ से बैशाख पूर्णिमा के दिन शाक्यों की राजधानी कपिलवस्तु के निकट लुंबिनी नामक वन में, जिसकी पहचान भारत-नेपाल सीमा पर स्थित रुमिंदेई से की जाती है, हुआ था। यहाँ से मौर्य सम्राट अशोक का एक अभिलेख-युक्त स्तंभ 1895 ई. में प्रप्त हुआ है जिस पर उत्कीर्ण है, ‘हिद बुधे जाते साक्यमुनिति हिद भगवा जातेति’ अर्थात् यहाँ शाक्यमुनि बुद्ध उत्पन्न हुए थे, यहाँ भगवान् उत्पन्न हुए थे। इनके पिता का नाम शुद्धोधन था, जो हिमालय के तटवर्ती कपिलवस्तु गणराज्य के शाक्यवंशी शासक थे तथा कोसल के अधीन थे। बोधिसत्व के जन्म के उपरान्त कालदेवल और कौडिन्य ने यह मत प्रतिपादित किया कि वे या तो चक्रवर्ती सम्राट होंगे अथवा संसार का त्यागकर एक विख्यात ज्ञानी बनेंगे। पाँचवे दिन नामकरण संस्कार में बालक को एक अर्थपूर्ण नाम दिया गया ‘सिद्धार्थ’। जन्म के सातवें दिन ही कोलिय माता महामाया का देहान्त हो गया जिसके कारण इनका पालन-पोषण इनकी मातृवसा (मौसी) महाप्रजापति गौतमी ने किया जिसके कारण इन्हें ‘गौतम’ कहा गया।

बालक सिद्धार्थ को नाना शिल्प, अस्त्रविद्या एवं कलाओं के साथ-साथ पुस्तकीय और क्षत्रियोचित सामरिक शिक्षा दी गई। ज्योतिषियों की भविष्यवाणी से चिंतित राजा शुद्धोधन ने सिद्धार्थ को अत्यंत भोग-विलास में रखा ताकि वे संसार के मोह और आकर्षण से विरक्त न हों तथा दुःख और कष्ट का अनुभव न करें। उन्होंने गौतम को सांसारिकता से आबद्ध करने के लिए सोलह वर्ष की अवस्था में ही शाक्यवंश की रूपवती कन्या यशोधरा से उनका विवाह कर दिया। कुछ ही वर्षों में सिद्धार्थ एक कांतिमान पुत्र के पिता भी बन गये, किंतु पुत्र-जन्म से गौतम को कोई प्रसन्नता नहीं हुई और उनके मुख से निकल पड़ा कि ‘राहु’ (बंधन) उत्पन्न हुआ है। इसी से नवजात शिशु का नाम ‘राहुल’ पड़ा।

बौद्ध-ग्रंथों के अनुसार सिद्धार्थ का मन न भिन्न-भिन्न ऋतुओं के लिए निर्मित प्र्रासाद में ही रमता था और न ही पत्नी के आकर्षण में। वे सदैव जगत् के क्लेश, दुःख से निवृत्ति के विषय पर चिंतन किया करते थे तथा सांसारिक मोह-माया से मुक्ति पाना चाहते थे। परवर्ती बौद्ध-साहित्य में चार कष्ट-संकलित घटनाओं का उल्लेख मिलता है- जर्जर शरीर लिए वृद्ध, पीड़ित रोगी, मृतक तथा वीतराग संन्यासी। देवदूतों द्वारा प्रदर्शित इन चार घटनाओं की श्रृंखला ने वह कर दिया जिसे बचाने के लिए शाक्य शासक शुद्धोधन ने अपनी सारी बुद्धि और शक्ति लगा दी थी। एक बार पुनः प्रमाणित हुआ कि भविष्य घटकर ही रहता है, उससे बचकर निकलना संभव नहीं है। अंततः सिद्धार्थ ने सबके सुख, स्वास्थ्य और आनंद के लिए अपना सब कुछ त्यागने का निर्णय कर लिया।

कहा जाता है कि एक रात अनेक रमणीय गणिकाओं का नृत्य देखते-देखते गौतम सो गये। गणिकाएं भी निद्रामग्न हो गईं। राजकुमार गौतम की नींद सहसा टूटी तो गणिकाएं निद्रावस्था में उन्हें बड़ी विद्रूप और भयानक दिखाई दीं। किसी के बाल बिखरे थे, कुछ लगभग निर्वस्त्रा थीं और उनमें से कुछ भयावह खर्राटें भर रही थीं। गौतम में संसार-त्याग की भावना दृढ़ हो चुकी थी। अंत में पत्नी यशोधरा तथा शिशु राहुल को सोता छोड़कर उन्होंने गृह-त्याग कर दिया।

प्राचीन भारत में गणराज्य

गृह-त्याग (महाभिनिष्क्रमण)

सिद्धार्थ ने 29 वर्ष की आयु में सांसारिक दुःख के उन्मूलन के लिए ज्ञान की खोज में घर-बार छोड़ दिया। यह घटना ‘महाभिनिष्क्रमण’ कहलाती है। यह सत्य नहीं है कि बोधिसत्व घर के लोगों को बताये बिना छन्न के साथ कन्थक पर बैठकर भाग गये। मज्झिमनिकाय में गौतम स्वयं कहते हैं कि ‘बोधि प्राप्त करने की पूर्व की दशा में मेरे मन में यह विचार उठा कि यह गृहस्थी का जीवन पूर्ण शुद्ध, धर्ममय जीवन के अभ्यास में अत्यंत बाधक है। जब मैं किशोर अवस्था में जीवन के उठान पर कृष्ण केशों से युक्त था, अपने माता-पिता की अनिच्छा तथा अश्रुपूरित नेत्रों से रुदन करने के बावजूद, मैंने अपने केशष्मश्रु काट डाले तथा काषाय वस्त्रा पहनकर गृह का त्याग कर अनिकेत जीवन अपना लिया।’ इससे यह स्पष्ट है कि ‘बोधिसत्व परिव्राजक होनेवाले हैं’, यह बात शुद्धोधन और गौतमी को बहुत दिनों से पता थी और उनकी इच्छा के विरुद्ध एवं उनके समक्ष ही उन्होंने प्रव्रज्या ग्रहण की थी।

गौतम के गृह-त्याग के कारणों के संबंध में भी विद्वानों में मतैक्य नहीं है। परवर्ती विश्वास के अनुसार यह परिवर्तन अचानक घटा, किंतु मात्र चार दृश्य उनके गृह-त्याग के एकमात्र कारण नहीं रहे होंगे। कोसम्बी के अनुसार रोहिणी नदी के जल के बँटवारे को लेकर शाक्यों का पड़ोसी कोलियों से प्रायः होनेवाले युद्धों के संकट से अपने परिवार की रक्षा करने के हेतु गौतम ने स्वयं गृह-त्याग किया था। जो भी हो, गौतम दुःख से जलते हुए संसार की संरक्षा का उपाय खोज कर संपूर्ण मानवता को दुःखों से मुक्ति दिलाना चाहते थे, इसलिए उन्होंने आर्य-ज्ञान की खोज में गार्हस्थिक तथा सांसारिक मोह-माया का त्याग कर निवृत्ति-मार्ग का अनुसरण किया।

ज्ञान की खोज (आर्यपर्येषणा)

संन्यास धारण करने के पश्चात् सिद्धार्थ शांति, सत्य तथा ज्ञान की खोज में भ्रमण करते हुए वैशाली में आलार कालाम नामक तपस्वी के आश्रम में पहुँचे। यहाँ गौतम ने अनेक प्रकार के कठिन योगाभ्यास सीखे, किंतु उन्हें संतोष नहीं हुआ। मज्झिमनिकाय के आधार पर धर्मानंद कोसम्बी का मानना है कि बोधिसत्व ने घर पर ही माँ-बाप के समक्ष प्रव्रज्या ग्रहण की थी। आलार कालाम के एक शिष्य भरण्डु का आश्रम कपिलवस्तु में था और उद्रक रामपुत्र के शिष्य पड़ोस के कोलियों के देश में रहते थे। बोधिसत्व ने प्रथम ध्यान की पद्धति इन्हीं परिव्राजकों से सीखी थी और इन्हीं लोगों ने उन्हें संन्यास-दीक्षा दी होगी। बोधिसत्व को शाक्य या कोलिय देश के किसी आश्रम में समय बिताना उचित नहीं लगा। उन्होंने स्वयं आलार कालाम से भेंट की, किंतु संतुष्ट न होने पर वे सच्चे ज्ञान की खोज में वैशाली छोड़कर राजगृह की ओर चले गये।

राजगृह में बोधिसत्व गौतम का मगध नरेश बिंबिसार से साक्षात्कार हुआ जिसका उल्लेख सुत्तनिपात्त के पब्बज्ज-सुत्त और ललितविस्तर में है। ललितविस्तर के अनुसार इसके बाद बोधिसत्व राजगृह के उपकंठ में रुद्रक रामपुत्र नामक ज्ञानी के आश्रम में ठहरे। गौतम ने अपेक्षाकृत कम समय में और अल्प-परिश्रम के द्वारा ही ‘नैवसंज्ञानासंज्ञायतन’ की भूमिका प्राप्त कर लिया, किंतु इस सिद्धि से भी गौतम को आत्म-संतुष्टि नहीं हुई। बोधिसत्व से प्रभावित होकर रुद्रक के पांँच भद्रवर्गीय ब्राह्मण-भिक्षु भी उनके साथ हो गये। अब वे भ्रमण करते हुए मगध जनपद के सैनिक सन्निवेश उरुवेला पहुँचे।

सिद्धार्थ ने उरुविल्व के निकट सेनानी ग्राम में नेरंजर (निरंजना) नदी के रमणीय तट पर वटवृक्ष के नीचे बैठकर उस समय के श्रमण-व्यवहार के अनुसार तपश्चर्या करने का निश्चय किया। मज्झिमनिकाय तथा ललितविस्तर में उनकी कठिन तपश्चर्या का उल्लेख है। किंतु कठिन तपस्या से भी उन्हें उद्दिष्ट ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई और उनका शरीर दुर्बल होकर कंकाल-मात्रा रह गया। मज्झिमनिकाय में गौतम स्वयं कहते हैं- ‘मेरा कूल्हा ऐसा हो गया जैसे ऊँट का पैर, मेरी पसलियां ऐसी हो गईं जैसे पुराने कोठे की टेढ़ी-मेढ़ी कड़ियाँ, मेरी आँखें ऐसे धँस गईं जैसे गहरे कुएँ में तारा, मेरे सिर की खाल चिचुक कर ऐसी हो गई जैसे धूप में मुरझाया हुआ लौका। यदि मैं पेट को पकड़ता तो पसलियाँ हाथ में आ जाती, यदि मैं शरीर पर हाथ फेरता तो रोएँ झड़ जाते, यदि मैं मल-मूत्र के लिए उठता तो चकराकर गिर जाता, लेकिन मैंने इस दुष्कर कार्य से भी उत्तम मनुष्य धर्म न पाया।’

अब सिद्धार्थ ने अनुभव किया कि केवल तपस्या के द्वारा सम्यक् ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती। इसी समय उन्हें कृषिग्राम में हुए अपने समाधि के अनुभवों का स्मरण हुआ। बुद्ध के शब्दों में ‘तब मुझे अपने पिता शाक्य के कर्मांत में जामुन की ठंडी छाँव में प्रथम ध्यान की प्राप्ति का स्मरण आया, कदाचित् वही बोधि का मार्ग हो।’

बोधिसत्त्व ने सुजाता के हाथ से खीर खाकर अनाहार का त्याग कर दिया तथा अपने शरीर को दृढ़ बनाकर साधना के मार्ग को बदल देने का निश्चय किया। बोधिसत्व के पाँचों ब्राह्मण साथी उन्हें साधन से भ्रष्ट जानकर, उनका साथ छोड़कर वाराणसी के निकट मृगदाँव (सारनाथ) को चले गये।

संबोधि-प्राप्ति

सिद्धार्थ फल्गु नदी को पार कर अब गया आ गये। उन्होंने स्वस्तिक (श्रोत्रिय) नामक घसियारे से आसन हेतु कुछ घास माँग कर बोधिवृक्ष के नीचे आसन लगाया और यह दृढ़ निश्चय किया कि ‘बोधि प्राप्त किये बिना आसन नहीं छोड़ूंगा।’ मार (कामदेव) के नेतृत्व में अनेक पैशाचिक तृष्णाओं ने ध्यान-संलग्न बोधिसत्त्व की समाधि भंग करने का प्रयत्न किया, किंतु वे गौतम की समाधि को भंग नहीं कर सके। सात दिन तक गौतम तपस्या में लीन रहे और आठवें दिन वैशाख पूर्णिमा को उन्हें ज्ञान (बोधि) प्राप्त हुआ। अब वे पूर्ण ज्ञानी, बुद्ध अथवा प्रबुद्ध हो गये। बुद्धत्त्व-प्राप्ति के बाद बुद्ध ने सर्वप्रथम तपुस्स तथा भल्लिक नामक दो शूद्र व्यापारियों को उपदेश देकर बौद्ध धर्म का प्रथम अनुयायी बनाया।

धर्म-चक्र-प्रवर्त्तन

संसार के हित के लिए बुद्ध ने धर्म प्रचार करने का निश्चय किया। सर्वप्रथम वे अपने पुराने पंचवर्गीय ब्राह्मण भिक्षुओं- कौडिन्य, वप्प (वाप्प), भद्दिय (भद्रिक), महानाम और अश्वजित् को सत्य-धर्म का उपदेश देने सारनाथ (ऋषिपत्तन) पहुँचे। धर्मचक्रप्रवर्तनसूत्र के अनुसार बुद्ध के प्रथम उपदेश थे : परिव्राजक को अति काया-क्लेश और अति काम-सुख से बचना चाहिए। उसे मज्झिम पदिवा (मध्यम मार्ग) का अनुगमन करते हुए सत्य-चतुष्ट्य (दुःख का सत्य, दुःख-समुदाय का सत्य, दुःख से निवृत्ति का सत्य और आर्य अष्टांगिक मार्ग) का पालन करना चाहिए। इस प्रकार वाराणसी के सारनाथ में बुद्ध ने अपना पहला धर्मोपदेश कर ‘धर्मचक्रप्रवर्तन’ किया।

बौद्ध धर्म और गौतम बुद्ध (Buddhism and Gautama Buddha)
धर्म-चक्र-प्रवर्त्तन

बौद्ध संघ की स्थापना

सारनाथ में ही बुद्ध ने संघ की स्थापना की। काशी के पाँचों ब्राह्मण तपस्वी और श्रेष्ठि-पुत्र यश के साथ काशी का श्रेष्ठि-वर्ग बुद्ध संघ का सदस्य बना। बुद्ध ने इन बौद्ध भिक्षुओं को नाना-दिशाओं में धर्म-प्रचार और लोक-कल्याण के लिए भेजते हुए कहा, ‘भिक्षुओं आप लोग बहुजनों के हित के लिए, सुख के लिए, लोगों पर अनुकम्पा करने के लिए, देवों तथा मनुष्यों के कल्याण के लिए धर्मोपदेश देने में प्रवृत्त हो जाइए।’

वाराणसी से बुद्ध मगध आये जो अनेक धर्म प्रचारकों की कर्मभूमि थी। मगध में गया के तीन जटिल काश्यपों- उरुवेल, नादि एवं गया काश्यप और उनके एक सहस्त्र अनुयायी बौद्ध भिक्षु बने और राजगृह में संजय नाम के परिव्राजक आचार्य के दो शिष्यों- कोलित और उपतिष्य ने बुद्ध का शिष्यत्व ग्रहण किया, जो बाद में शारिपुत्र और मौद्गल्यायन के नाम से प्रसिद्ध हुए।

मगध के राजा बिंबिसार ने बुद्ध में श्रद्धालु होकर संघ को ‘वेणुवन’ नामक विहार उपहार में दिया। राजगृह में बुद्ध ने द्वितीय, तृतीय एवं चतुर्थ वर्षाकाल व्यतीत किया। अजातशत्रु प्रारंभ में बुद्ध की ओर अनुकूल नहीं था, किंतु बाद में श्रामण्यफलसूत्र सुनकर उसका मन बदल गया था। बुद्ध ने गया, नालंदा, पाटलिपुत्र आदि की भी यात्रा की तथा अनेक लोगों को अपना अनुयायी बनाया।

राजगृह में रहते हुए उन्होंने एक बार अपने गृह-नगर कपिलवस्तु की भी यात्रा की। शाक्यगण पहले बुद्ध के प्रति अनुकूल नहीं थे, किंतु बाद में प्रतिहार्य-दर्शन से उनकी दृष्टि बदली। शाक्यों ने उनसे अपने नवनिर्मित संस्थागार का उद्घाटन करवाया था। राहुल की प्रव्रज्या का उल्लेख विनय में प्राप्त होता है। कोलियों में सुप्पावासा बुद्ध की प्रसिद्ध उपासिका थी।

राजगृह से चलकर बुद्ध लिच्छवियों की राजधानी वैशाली पहुँचे। यहाँ उन्होंने पांँचवाँ वर्षाकाल व्यतीत किया। लिच्छवियों ने उनके निवास के लिए महावन में प्रसिद्ध कूटागारशाला का निर्माण करवाया। निर्ग्रंथ उपासक लिच्छवि सेनापति सिंह को अपना अनुयायी बनाना बुद्ध-शासन की बड़ी उपलब्धि थी।

बौद्ध धर्म और गौतम बुद्ध (Buddhism and Gautama Buddha)
गौतम बुद्ध

वैशाली की प्रसिद्ध नगरवधू आम्रपाली ने बुद्ध की शिष्यता स्वीकार की और भिक्षुओं के निवास के लिए अपनी आम्रवाटिका प्रदान की। इसी स्थान पर बुद्ध ने पहली बार स्त्रियों को संघ में प्रवेश करने की अनुमति प्रदान की और भिक्षुणी-संघ स्थापित किया। संघ में प्रवेश पानेवाली प्रथम महिला बुद्ध की सौतेली माता महाप्रजापती गौतमी थी जो शुद्धोधन की मृत्यु के बाद कपिलवस्तु से चलकर वहाँ पहुँची थी।

कपिलवस्तु से राजगृह जाते समय बुद्ध ने अनुपिय नामक स्थान पर कुछ समय विश्राम किया। इसी स्थान पर शाक्य राजा भद्रिक, अनुरुद्ध, उपालि, आनंद, देवदत्त को साथ लेकर बुद्ध से मिला था। बुद्ध ने इन सभी को सद्धर्म में दीक्षित किया और आनंद को अपना व्यक्तिगत सेवक बना लिया।

वैशाली से बुद्ध भगों की राजधानी सुमसुमारगिरि गये और वहाँ आठवां वर्षाकाल व्यतीत किया। यहाँ अभय राजकुमार और नकुल के माता-पिता ने सद्धर्म को ग्रहण किया। यहीं से बुद्ध कोशांबी गये और वहाँ नवां विश्राम किया। उदयन प्रारंभ में बौद्ध मत में रुचि नहीं रखता था, किंतु भिक्षु पिंडोला भारद्वाज के प्रभाव से वह बुद्ध का अनुयायी हो गया। कोशांबी में बुद्ध ने घोषित, कुब्जोत्तरा तथा अन्य महिलाओं तथा पुरुषों को दीक्षित किया। यहाँ के विख्यात श्रेष्ठी घोषित ने बुद्ध के निवास के लिए घोषिताराम नाम का एक सुंदर उद्यान बनवाया। यहीं से भगवान् बुद्ध मथुरा होते हुए वेरंजा गये और वहाँ बारहवाँ वर्षावास किया।

अवंति नरेश प्रद्योत ने भी बुद्ध को आमंत्रित किया था, किंतु बुद्ध वहाँ स्वयं नहीं जा सके और अपने शिष्य महाकच्चायन को उपदेश देने के लिए वहाँ भेजा था। बुद्ध ने चंपा और कजंगल की भी यात्रा की और वहाँ के लागों को अपने धर्म में दीक्षित किया।

सद्धर्म का सबसे अधिक प्रचार कोशल राज्य में हुआ जहाँ बुद्ध ने इक्कीस बार वास किया। प्रसिद्ध श्रेष्ठि अनाथपिंडिक ने बुद्ध की शिष्यता गहण की और श्रावस्ती में भिक्षु-संघ के लिए ‘जेतवन’ विहार अठारह करोड़ स्वर्णमुद्राओं में राजकुमार जेत से खरीद कर दान किया। इस दान का अंकन भरहुत के एक शिल्प पर मिलता है- जेतवन अनाथपिंडको देति कोटिसम्थतेनकता।

कोशल में राजा प्रसेजनजित् बुद्ध के अनुग थे और उनसे अधिक रानी मल्लिका बुद्ध में श्रद्धा रखती थी। बुद्ध की एक अनुयायी विशाखा ने संघ के लिए पुब्बाराम-मिगारमातुपासाद (पूर्वाराम मृगारमातु प्रासाद) का निर्माण करवाया। बुद्ध जेतवन और पूर्वाराम में बारी-बारी निवास करते थे।

श्रावस्ती निवास के दौरान ही बुद्ध ने प्रसिद्ध क्रूर डाकू अंगुलिमाल को अपना अनुयायी बनाया। कोशल के अनेक प्रभावशाली और समृद्ध ब्राह्मणों- झीनक (अग्निक) भारद्वाज, पुष्कर सादी, धानजनि आदि ने भी बौद्ध धर्म स्वीकार किया।

पावा के मल्लों में दर्व (दब्ब) और चुन्द सुविदित अनुयायी थे। इस प्रकार बुद्ध ने धर्म की देशना कोशल, मगध और उनके पड़ोसी गणराज्यों में की और समाज के सभी वर्गों और जातियों से उनके अनुयायियों की संख्या बढ़़ी।

महापरिनिर्वाण

महापरिनिब्बानसुत्त में बुद्ध की अंतिम पदयात्रा का मार्मिक विवरण मिलता है। बुद्ध राजगृह में थे जब अजातशत्रु वज्जियों पर अभियान करना चाहता था। मगध के महामात्य ब्राह्मण वर्षकार (वस्सकार) ने बुद्ध से इस विषय पर पूछा। बुद्ध ने वज्जियों के सात अपरिहारणीय धर्म बताये, जिनके रहते वे अपराजेय थे।

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महापरिनिर्वाण

राजगृह से बुद्ध पाटलिग्राम होते हुए गंगा पार कर वैशाली पहुँचे, जहाँ गणिका आम्रपाली ने उनको भिक्षु-संघ के साथ भोजन कराया। इस समय परिनिर्वाण के तीन मास शेष थे। भगवान् ने वर्षावास समीप के ‘वेलुवग्राम’ में व्यतीत किया। यहाँ वे अत्यधिक रुग्ण हो गये और आनंद की इस आशंका पर कि कहीं भिक्षु-संघ से बिना कुछ कहे ही भगवान् का परिनिर्वाण न हो जाये, उन्होंने स्वयं कहा, ‘मैं अब जीर्ण वृद्ध हूँ। अस्सी वर्ष की मेरी आयु है…, जैसे जर्जर शकट हो। अतएव आनंद! आत्मदीप बनकर आत्मशरण, अनन्यशरण, धर्मदीप, धर्मशरण बनकर तुम लोग बिहरो।’’

वैशाली से बुद्ध भंडग्राम और भोगनगर होते हुए पावा पहुँचे, जहाँ उन्होंने चुंद कम्मारपुत्त का आतिथ्य स्वीकार किया और ‘सूकरमद्यव’ (जंगली कंद भड़फोड़) खाने से उन्हें यंत्रणामय रक्तातिसार हो गया। रुग्णावस्था में ही उन्होंने कुशीनगर को प्रस्थान किया और हिरण्यवती नदी पारकर वे शालवन में दो साल वृक्षों के बीच लेट गये।

सुभद्र नामक परिव्राजक को उन्होंने अंतिम उपदेश किया और भिक्षुओं से कहा कि उनके बाद धर्म ही शास्ता रहेगा। पालि परंपरा के अनुसार तथागत ने बैशाखी पूर्णिमा के दिन यह कहकर कि, ‘‘हे भिक्षुओं! इस समय आज तुमसे इतना ही कहता हूँ कि जितने भी संस्कार हैं, सब नाश होने वाले हैं, प्रमादरहित होकर अपना कल्याण करो’’ महापरिनिर्वाण को प्राप्त किया।

तथागत की मृत-देह का नगर के पूरब मल्लों के मुकुट-बंधन चैत्य पर जाकर अग्निदाह किया गया और अस्थि-अवशेषों का आठ भागकर कुशीनगर के मल्लों, मगध नरेश अजातशत्रु , वैशाली के लिच्छवियों, कपिलवस्तु के शाक्यों, अलकप्प के बुलियों, रामग्राम के कोलियों, बेट्ठद्वीप के ब्राह्मणों तथा पावा के मल्लों में बाँट दिया गया। इन सभी ने भगवान् बुद्ध के अस्थि-स्तूप बनवाये।

इन आठ अस्थि-स्तूपों के अलावा दो और स्तूप बने- द्रोण ब्राह्मण ने कुंभ-स्तूप और पिप्पलिवन के मोरियों ने अंगारों का स्तूप बनवाया। महावंश के अनुसार अजातशत्रु ने एक विशाल स्तूप का निर्माण करवाया और रामगाम के स्तूप को छोड़कर अन्य सात स्तूपों से सात द्रोण अस्थियों का संग्रहकर उसमें स्थापित किया। कालांतर में इसी स्तूप के अस्थियों का वितरण अशोक ने अपने द्वारा निर्मित स्तूपों में किया।

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