औद्योगिक क्रांति (Industrial Revolution)

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औद्योगिक क्रांति

अठारहवीं शताब्दी में फ्रांस की क्रांति से पूर्व इंग्लैंड में उत्पादन के क्षेत्रों में यांत्रिक आविष्कार और वाष्प की शक्ति के उपयोग से जो व्यापक परिवर्तन हुए और इन परिवर्तनों के फलस्वरुप लोगों की जीवन-पद्धति और उनके विचारों में जो आमूल-चूल मौलिक बदलाव आये, उसे ही इतिहास में ‘औद्योगिक क्रांति’ कहते हैं। इस औद्योगिक क्रांति ने मनुष्य के आर्थिक, तकनीकी, सामाजिक और सांस्कृतिक स्वरूप में परिवर्तन कर मानव एवं पशु श्रम पर आधारित कृषि समाज को मशीनों पर आधारित औद्योगिक समाज में बदल दिया जिसके फलस्वरूप आधुनिक उद्योगवाद का जन्म हुआ।

‘औद्योगिक क्रांति’ शब्द का प्रयोग सबसे पहले 1837 ई. में एक फ्रांसीसी अर्थशास्त्री अगस्टे ब्लांक्वी ने किय था, लेकिन इस शब्द को लोकप्रियता तब मिली जब अर्नाल्ड टायनबी ने 1882 ई. में इंग्लैंड में औद्योगिक ढ़ंग से होनेवाले आर्थिक परिवर्तनों के संबंध में ‘क्रांति’ शब्द का प्रयोग किया।

औद्योगिक क्रांति अचानक नहीं हुई थी, बल्कि धीरे-धीरे उत्पादन के स्वरूप में परिवर्तन हुआ था। निर्मित माल की माँग बढ़ने लगी और बढ़ी हुई माँग को पूरा करने के लिए यंत्रों तथा वाष्प-शक्ति का प्रयोग हुआ। अतः उत्पादन का यंत्रीकरण तथा बड़े पैमाने पर उत्पादन एक क्रमिक विकास था, जो आधी शताब्दी से भी अधिक काल तक चलता रहा। इस आधार पर कुछ इतिहासकार मानते हैं कि उत्पादन के इन परिवर्तनों के लिए ‘विकास’ शब्द का प्रयोग किया जाना चाहिए, ‘क्रांति’ शब्द का नहीं।

किंतु अर्नाल्ड टायनबी का कहना था कि अठारहवी शताब्दी के ये परिवर्तन इतने पूर्ण और तीव्रगामी थे कि उनके लिए ‘क्रांति’ शब्द का प्रयोग ही उचित है क्योंकि इन परिवर्तनों ने मानव जीवन तथा संस्कृति में आमूल परिवर्तन कर दिया था।

औद्योगिक क्रांति के अंतर्गत जो परिवर्तन हुए उनमें प्रमुख रूप से तकनीक का विकास, लोहे का निर्माण, वाष्प और जल शक्ति का प्रयोग, रसायन उद्योग का विकास, खनन उद्योग और संचार तथा परिवहन का विकास सम्मिलित हैं। इन परिवर्तनों के कारण ही मशीनी युग का आरंभ हुआ और औद्योगिक क्रांति संभव हो सकी।

औद्योगिक क्रांति की पृष्ठभूमि

मध्य युग की समाप्ति के समय सामंतवाद का पतन आर्थिक विकास के लिए उपयोगी सिद्ध हुआ था। नव-जागृति के उत्थान के साथ पश्चिमी यूरोप में जो आर्थिक व्यवस्था का निर्माण होने लगा था, उसे ‘पूँजीवाद’ कहा गया है। इस व्यवस्था की विशेषता यह थी कि पूँजीपति वस्तुओं का उत्पादन करके बाजारों में बेचा करते थे। उनका उद्देश्य मुख्य रूप से लाभ कमाना होता था। पूँजीवाद की प्रवृत्ति यह थी कि वस्तुओं का उत्पादन अधिक से अधिक किया जाये, नये-नये बाजारों को तलाश किया जाये और अधिक से अधिक लाभ कमाया जाये। नये बाजारों की तलाश तथा अधिक लाभ कमाने के लिए पश्चिमी यूरोप के देशों ने सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी में उपनिवेशों की खोज की। इसके साथ ही पूँजीपतियों ने पूँजी का संचय किया और नवीन क्षेत्रों में पूँजी का निवेश किया। इसके लिए उपनिवेशों को बाजार बनाने तथा उन्हें कच्चा माल प्राप्त करने का स्रोत बनाया गया। इस क्षेत्र में इंग्लैंड सबसे आगे था। विश्व के विभिन्न भागों में उसने उपनिवेश स्थापित कर लिये जहाँ वह अपना माल बेचता था। इससे इंग्लैंड के निर्मित माल की माँग बढ़ गई और उत्पादन बढ़ाने के लिए जो कार्य अठारहवीं शताब्दी में किये गये उनसे ही ‘औद्योगिक क्रांति’ हुई।

घरेलू उत्पादन प्रणाली

औद्योगिक क्रांति की मुख्य देन यह थी कि मशीनों के द्वारा बड़े पैमाने पर कम मूल्य पर वस्तुओं का उत्पादन होने लगा। सामान्यतः अठारहवीं शताब्दी के मध्य से उत्पादन में मशीनों का प्रयोग आरंभ हुआ। नगरों में बड़े-बड़े कारखाने स्थापित होने लगे जिनमें वाष्पचालित यंत्रों द्वारा विशाल पैमाने पर उत्पादन किया जाने लगा। इसके पहले इंग्लैंड में कुटीर उद्योग-धंधों के रूप में वस्तुओं का उत्पादन होता था। शिल्पकार सामान्यतः हाथों से काम करते थे और हल, पंप, छापाखाना आदि में ही कुछ साधारण मशीनों का प्रयोग होता था। किंतु व्यापार का विस्तार होने पर व्यापारी शिल्पकारों को स्वयं कच्चा माल तथा आकस्मिक व्यय के लिए अग्रिम धन देने लगे। इस प्रकार नवीन आर्थिक विकास में श्रेणियाँ समाप्त होने लगीं और शिल्पकार स्वतंत्र रूप से व्यापारियों को अपना माल बेचने लगे। सामान्यतः कारीगर अपने परिवार की सहायता से औजारों द्वारा वस्तुओं का उत्पादन करते थे और व्यापारी उनकी निर्मित वस्तुओं को बाजार ले जाते थे। इस उत्पादन की प्रणाली को ‘घरेलू उत्पादन प्रणाली’ कहा जाता था। धीरे-धीरे माँग बढ़ती गई और घरेलू उत्पादन प्रणाली द्वारा इसे पूरा करना असंभव हो गया। फलतः 1750 ई. के बाद से घरेलू पद्धति के स्थान पर यंत्रों तथा नवीन प्रकार के औजारों का प्रयोग आरंभ हुआ ताकि उत्पादन में वृद्धि की जा सके। इस नवीन प्रणाली के विकास से ‘कारखाना प्रणाली’ स्थापित हुई। अब कारखानों में मशीनें लगाई जाने लगीं और शिल्पकार उनमें श्रमिकों के रूप में काम करने लगे। कारखानों के केंद्र बड़े-बड़े नगरों के रूप में विकसित हो गये।

कृषि क्रांति

इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति होने से पहले सोलहवीं शताब्दी में कृषि क्रांति हुई थी। कृषि क्रांति ने ही औद्योगिक क्रांति के लिए श्रमिकों की आपूर्ति की थी। अठारहवीं शताब्दी के आरंभ तक इंग्लैंड एक कृषि प्रधान देश था और वहाँ पुराने ढंग पर ही खेती होती थी। पैदावार केवल इतनी ही होती थी कि किसी तरह देश की आवश्यकता पूरी हो जाए।

किंतु अठारहवीं शताब्दी की शुरूआत में कुछ सुधारकों के प्रयत्न से नये वैज्ञानिक तरीकों का आविष्कार हुआ। सबसे पहले वर्कशायर के धनी किसान जेथ्रो टुल्ल (1674-1741 ई.) ने 1701 ई. ड्रिल मशीन का आविष्कार किया जिसकी सहायता से निश्चित पंक्तियों में बीज बोने का कार्य शीघ्रता और सरलता से होने लगा। जेथ्रो को ‘वैज्ञानिक कृषि का जनक’ कहा जाता है। एक अन्य धनी किसान विस्काउंट टाउनशेंड (1674-1738 ई.) ने अपनी भूमि को ‘कृषि प्रयोगशाला’ में बदल दिया। टाउनशेंड नवाचार के संस्थापक थे जिन्होंने पता लगाया कि विभिन्न प्रकार की फसलों को बारी-बारी (रोटेशन) से पैदा करने से भूमि की उर्वरता बनी रहती थी। उन्होंने ‘शलजम’ नामक एक नये पौधे की वृद्धि को लोकप्रिय बनाया, इसलिए टाउनशेंड को ‘शलजम’ टाउनशेंड का उपनाम मिला। इस खोज का लाभ यह हुआ कि अब भूमि को उर्वरता प्राप्त करने के लिए परती छोड़ना आवश्यक नहीं रह गया। लिस्टरशायर के एक कृषक रॉबर्ट बैकवेल ने 1770 ई. में वैज्ञानिक प्रजनन विधि द्वारा गायों तथा भेड़ों की नस्लों में सुधार किया। उसने अपने प्रयोगों द्वारा एक ऐसी नई भेड़ को उत्पन्न किया जिसका औसत भार 21 पौंड था। इसका परिणाम यह हुआ कि सस्ती दर पर अधिक मांस मानव उपभोग के लिए उपलब्ध हो गया। उसके बाद चार्ल्स कॉलिंग ने नई नस्ल के बैलो को जन्म दिया। वास्तव में कृषि क्रांति में सहायता देनेवाला सबसे बड़ा सुधारक आर्थर यंग था, जिसे इतिहासकार ट्रिवेलियन ने ‘नई खेती का अवतार’ कहा है। आर्थर ने अपने भाषणों और अपनी पुस्तक ‘कृषि का इतिहास’ के द्वारा वैज्ञानिक ढंग की खेती का समर्थन किया।

कृषि संबंधी आंदोलन तथा उन्नति की संभावना से प्रभावित होकर सरकार ने भी कृषकों में खेती के नये तरीकों का प्रचार करने के लिए एक कृषि-विभाग खोला। नये तरीके को काम में लाने के लिए बिखरे हुए छोटे-छोटे खेतों का एकत्र करने के लिए इंग्लैंड की सरकार ने खेतों की चकबंदी की जिससे किसानों को अपनी समस्त भूमि एक ही स्थान पर प्राप्त हो गई।

कृषि के क्षेत्र में नवीन आविष्कार और सरकार द्वारा उसको प्रोत्साहित करने की नीति के फलस्वरूप इंग्लैंड की कृषि की उपज में बहुत वृद्धि हुई। किंतु छोटे-छोटे किसानों के लिए यह क्रांति अनिष्टकारी सिद्ध हुई। बड़े-बड़े जमींदार अपनी जमींदारी में खेत बढ़ाते गये और छोटी जोत के किसान भूमिहीन मजदूरों की श्रेणी में आ गये। इससे इंग्लैंड के ग्राम्य जीवन में अब एक महान परिवर्तन हो गया। छोटे-छोटे किसान बेरोजगार होकर आजीविका की तलाश में गाँव छोड़कर नगरों की ओर जाने लगे जहाँ यांत्रिक क्रांति के फलस्वरूप नये-नये कारखाने बन रहे थे जिसमें अपना श्रम बेचकर वे अपनी आजीविका कमा सकते थे। इस प्रकार कृषि क्रांति ने औद्योगिक क्रांति का मार्ग प्रशस्त किया।

दूसरे, कृषि क्रांति के कारण कृषि के उद्देश्य में भी परिवर्तन हुआ। इंग्लैंड में कपास एवं खाद्यान्नों की माँग बढ़ रही थी, इसलिए अब किसान निर्वाह-कृषि के स्थान पर लाभ अर्जित करने के लिए कृषि की जाने लगी। अधिक लाभ कमाने के लिए कृषि में पूँजी निवेश किया जाने लगा और उत्तम औजारों का प्रयोग होने लगा। इस प्रकार खेती में तकनीक के प्रयोग के कारण बेरोजगार हुए किसानों के रूप में उद्योगों के लिए सस्ते मजदूर मिल गये तथा कृषि उत्पादन में वृद्धि होने से नगरीय जनसंख्या के लिए खाद्यान्न तथा उद्योगों के लिए कच्चा माल उपलब्ध हो गया।

इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति के कारण

विश्व में सबसे पहले औद्योगिक क्रांति इंग्लैंड में हुई। इसका कारण यह था कि औद्योगिक क्रांति के लिए जिन साधनों की आवश्यकता थी, वे सभी इंग्लैंड में उपस्थित थे। इंग्लैंड के बाद ही यह क्रांति यूरोप, अमेरिका और जापान में फैली थी। औद्योगिक क्रांति की शुरुआत इंग्लैंड से इसलिए हुई, क्योंकि इंग्लैंड के पास अधिक उपनिवेशों के कारण पर्याप्त कच्चे माल और पूँजी की अधिकता थी।

वास्तव में सोलहवीं शताब्दी से ही सामुद्रिक लूटमार, दास-व्यापार, अमेरिका तथा भारत से व्यापार और अन्य कई प्रकार से इंग्लैंड में धन एकत्र हो रहा था जो औद्योगिक उत्पादन में लगाया जा सकता था। इंग्लैंड में मध्ययुग से चली आनेवाली बँधुआ प्रथा, श्रेणी-व्यवस्था बहुत पहले समाप्त हो गई थी, जिससे इंग्लैंड के मजदूर कारखानों में भर्ती होने में अधिक स्वतंत्र थे और वहाँ पर माल तैयार करनेवालों पर कोई प्रतिबंध नहीं था। इस समय इंग्लैंड की सरकार आर्थिक विकास के लिए बड़े पैमाने पर उत्पादन करने वालों की तरह-तरह की सहायता करती थी। इस प्रकार इंग्लैंड में अठारहवीं शताब्दी के मध्य में ऐसी परिस्थितियों का निर्माण हो गया था जिनके कारण औद्योगिक क्रांति सबसे पहले इंग्लैंड में हुई-

व्यक्तिगत स्वतंत्रता

सबसे पहला कारण इंग्लैंड का स्वतंत्र समाज था। इंग्लैंड में अन्य यूरोपीय देशों की अपेक्षा प्रत्येक व्यक्ति को विचार, अभिव्यक्ति और कार्य करने की स्वतंत्रता थी। सरकार किसी व्यक्ति के आर्थिक जीवन में हस्तक्षेप नहीं करती थी। शिल्पकारों को कार्य करने और प्रयोग करने की स्वतंत्रता थी। इस स्थिति के कारण ही मशीनों का आविष्कार हुआ जिससे उत्पादन विधियों में सुधार तथा विकास संभव हो सका। 1688 ई. की क्रांति के पश्चात् इंग्लैंड में निरंकुश राजतंत्र समाप्त हो चुका था और प्रथम प्रधानमंत्री वालपोल की आर्थिक मामलों में अहस्तक्षेप की नीति से इंग्लैंड के लोगों को स्वतंत्रतापूर्वक अपने व्यवसायों तथा कार्यों को करने का अवसर प्राप्त हुआ।

आर्थिक विचारों में परिवर्तन

इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति के पहले वैचारिक क्रांति हुई थी। अभी तक वाणिज्यवाद का गहरा प्रभाव था और समझा जाता था कि विदेशी व्यापार धन प्राप्त करने का स्रोत था। अधिक से अधिक निर्यात करना और कम से कम आयात करना इस वाणिज्यवाद का आधारभूत सिद्धांत था। लेकिन इंग्लैंड में एडम स्मिथ तथा अन्य अर्थशास्त्रियों ने यह सिद्धांत स्थापित किया कि व्यापार उन्मुक्त होना चाहिए और देश की उत्पादन क्षमता में वृद्धि होनी चाहिए। इस वैचारिक क्रांति से इंग्लैंड के लोगों के दृष्टिकोण में परिवर्तन हो गया।

कृषि क्रांति

इंलैंड में औद्योगिक क्रांति के पूर्व कृषि क्रांति हो चुकी थी। इसके फलस्वरूप बहुत से कृषि मजदूर बेकार हो गये थे जो सस्ती मजदूरी पर कारखानों में काम के लिए उपलब्ध थे। कृषि क्षेत्र में उत्पादन की वृद्धि से समृद्धि आई और इससे औद्योगिक क्रांति संभव हुई। घेराबंदी के कारण भेड़ों के पालन में वृद्धि हुई जिससे इंग्लैंड के ऊनी वस्त्र उद्योग में अभूतपूर्व वृद्धि हुई।

पूँजी की उपलब्धता

अठारहवी शताब्दी में इंग्लैंड का व्यापार बढ़ जाने से देश में पर्याप्त अतिरिक्त पूँजी एकत्र हो चुकी थी। इस अतिरिक्त पूँजी को उत्पादन के विस्तार और कारखानों के निर्माण में लगाया जा सकता था। इंग्लैंड को यह पूँजी अपने विस्तृत विदेशी व्यापार से प्राप्त हुई थी, विशेषकर भारत से अपरिमित पूँजी इंग्लैंड गई थी। सच तो यह है कि भारत की पूँजी से ही इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति हुई थी। इंग्लैंड में बैंकिंग प्रणाली स्थापित हो गई थी जो व्यापार और उत्पादन जैसे कार्यों के लिए उद्योगपतियों को पूँजी उपलब्ध कराने को तैयार थी। इंग्लैंड की असीमित पूँजी और संयुक्त पूँजी कंपनियों की स्थापना ने वैश्विक व्यापार पर इंग्लैंड का एकाधिकार स्थापित कर दिया था।

औपनिवेशिक विस्तार

इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति का एक प्रमुख कारण उसका औपनिवेशिक विस्तार था। इंग्लैंड के इन उपनिवेशों से उसे कच्चा माल मिलता था और इनके बाजारों में वह अपना निर्मित माल बेचता था। अमेरिका के पूर्वी तट पर उसके विशाल उपनिवेश थे जहाँ से उसे कपास, तंबाकू, चावल, शक्कर प्राप्त होती थी। 1757 ई. के प्लासी के युद्ध के बाद इंग्लैंड को भारत से करोड़ों रुपये की संपत्ति के साथ सस्ते मूल्यों पर कच्चे माल का एक स्रोत और तैयार माल के लिए एक विस्तृत बाजार भी मिल गया। 1763 ई. में उत्तरी अमेरिका में कनाडा का विशाल प्रदेश भी प्राप्त हो गया। ब्रिटेन के पक्ष में इन उपनिवेशों का निर्दयतापूर्वक दोहन किया गया और इंग्लैंड के औद्योगिक हितों की रक्षा की गई।

जनसंख्या में वृद्धि

यूरोप में 1700 ई. से 1800 ई. के मध्य जनसंख्या में लगभग 45 प्रतिशत वृद्धि हुई थी। इंग्लैंड में 1751 ई. से 1821 ई. के मध्य जनसंख्या लगभग दुगनी हो गई थी। इस बढ़ती जनसंख्या के कारण वस्तुओं की माँग बढ़ी, जिससे उत्पादन बढ़ाने के लिए प्रयोग करने की प्रेरणा मिली। जनसंख्या में वृद्धि के कारण उद्योगों के लिए पर्याप्त संख्या में सस्ते मजदूर भी उपलब्ध हुए जिससे औद्योगिक क्रांति संभव हुई ।

व्यापार में वृद्धि

इस काल में इंग्लैंड के व्यापार में अभूतपूर्व वृद्धि हो गई थी। इसका एक कारण यह भी था कि उसके पास भारत, अमेरिका और यूरोप के विस्तृत बाजार थे और उसके निर्मित माल की माँग हमेशा बनी रहती थी। इससे इंग्लैंड में उत्पादकों को नवीन आविष्कारों द्वारा उत्पादन बढ़ाने के लिए प्रोत्साहन मिलता था। फ्रांस की क्रांति के समय इंग्लैंड ही यूरोप की सैनिक तथा नागरिक माँगों को पूरा करने वाला मुख्य स्रोत था। यद्यपि स्पेन और पुर्तगाल के पास भी उपनिवेश थे, लेकिन इन देशों में आर्थिक क्रांति नहीं हुई। इसका कारण यह था कि इन देशों में उद्योग तथा व्यापार के विकास के लिए उपयुक्त वातावरण नहीं था।

दास प्रथा की समाप्ति

यूरोप में इंग्लैंड पहला देश था जिसने दास प्रथा और श्रेणी प्रथा को समाप्त किया था। दास प्रथा और श्रेणी प्रणाली आर्थिक विकास में बाधक थीं। इनके स्थान पर ठेकों के आधार पर घरेलू उत्पादन प्रणाली तथा स्वतंत्र व्यापार प्रणाली स्थापित की गई। इन नवीन प्रणालियों में व्यापारी तथा कारीगर दोनों को अधिकतम उत्पादन करने का प्रोत्साहन मिला। अब लोग स्वेच्छा से एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाकर अपनी पसंद का कार्य स्वेच्छा से कर सकते थे।

संयुक्त व्यापारिक कंपनियों की स्थापना

दास प्रथा तथा श्रेणी प्रथा समाप्त हो जाने से व्यापारी तथा कारीगर दोनों स्वतंत्र हो गये। व्यापारियों के पास पूँजी थी तथा उन्हें बाजारों की माँग का ज्ञान था। फलतः इंग्लैंड में ज्वाइंट स्टॉक कंपनियों के संगठन आरंभ हुए। चूंकि व्यक्तिगत व्यापार में आर्थिक विकास की संभावनाएँ बहुत कम थीं, इसलिए संयुक्त व्यापारिक कंपनियों के द्वारा व्यापार का विस्तार हुआ और इससे औद्योगिक क्रांति हुई। इन कंपनियों को बैंक ऑफ इंग्लैंड तथा ब्रिटिश सरकार से सहायता भी मिलती थी। 1600 ई. में इसी प्रकार ईस्ट इंडिया कंपनी स्थापित की गई थी जिसका पूर्व के देशों पर व्यापारिक एकाधिकार था। इसी प्रकार ईस्ट लैंड कंपनी को बाल्टिक क्षेत्र से व्यापार करने का एकाधिकार मिला था। उत्तरी अमेरिका से व्यापार करने का एकाधिकार साउथ-सी कंपनी का था। इस संगठित व्यापार के कारण माँग में अत्यधिक वृद्धि हुई जिसके कारण औद्योगिक क्रांति हुई ।

इंग्लैंड की सामुद्रिक शक्ति

इंग्लैंड के शक्तिशाली जहाजी बेड़े ने इंग्लैंड के विदेशी व्यापार को सुरक्षा प्रदान की। युद्ध काल में भी अंग्रेजों का व्यापार चलता रहता था। इस जहाजी बेड़े की मदद से इंग्लैंड अपने तैयार माल को विदेशों में भेजता था तथा विदेशों व उपनिवेशों से कच्चा माल मँगाता था। यूरोप के किसी अन्य देश के पास शक्तिशाली जहाजी बेड़ा नहीं था। अतः जहाजी बेड़े के कारण इंग्लैंड ने समुद्री व्यापार पर एकाधिकार स्थापित कर लिया था। देश की राजनीतिक शांति और व्यवस्था ने भी कारखानों के स्वामियों को अपने उद्योग की उन्नति करने में सहायता दी, क्योंकि वे अपनी पूँजी बिना किसी भय और शंका के कारखानों में लगा सकते थे।

इंग्लैंड की भौगोलिक स्थिति

इंग्लैंड में सबसे पहले औद्योगिक क्रांति होने का एक महत्वपूर्ण कारण यह था कि इंग्लैंड के उत्तर-पश्चिम में लोहे और कोयले की खानें साथ-साथ ही मौजूद थीं। इन दोनों वस्तुओं के साथ-साथ होने से देश के औद्योगिक विकास में बड़ी सहायता मिली। कोयले के व्यापक प्रयोग से लोहा गलाने में आसानी हुई और शेरफील्ड में प्रथम इस्पात का कारखाना स्थापित हुआ। लोहे के उत्पादन से बड़े पैमाने पर मशीनों और औजारों का निर्माण हुआ।

इसके अतिरिक्त, इंग्लैंड चारों ओर से समुद्र से घिरा होने के कारण न केवल बाहरी आक्रमणों से सुरक्षित रहा बल्कि उसके कटे-फटे समुद्रतटों पर अनेक बंदरगाहों का विकास हुआ। खुला समुद्र होने के कारण इंग्लैंड के व्यापारिक जहाज आसानी से दूसरे देशों में आ-जा सकते थे। इस प्रकार इंग्लैंड में वे सभी संसाधन साधन उपलब्ध थे जो औद्योगिक क्रांति के लिए आवश्यक थे।

औद्योगिक क्रांति के क्षेत्र

औद्योगिक क्रांति मुख्य रूप से कपास उद्योग, खनन और परिवहन के क्षेत्र में विकास तक ही सीमित थी। कृषि कार्यों में यंत्रों का प्रयोग करके पहले ही कृषि क्रांति हो चुकी थी। इससे प्रेरित होकर औद्योगिक उत्पादन बढ़ाने के लिए अनेक व्यक्तियों ने नवीन यंत्रों का आविष्कार कर मशीनों का निर्माण किया, जिससे इंग्लैंड ‘विश्व की उद्योगशाला’ कहा जाने लगा। वस्त्र उद्योग से प्रारंभ होकर इन यंत्रों और मशीनों का प्रयोग धीरे-धीरे अन्य उद्योगों में भी किया गया।

जैसे-जैसे औद्योगिक क्रांति का विकास हुआ, मशीनरी अधिक जटिल और महँगी होती गई। यह कारखानों को स्थापित करने के लिए एकल व्यक्ति के वित्तीय संसाधनों से संभव नहीं था। इसलिए सहकारी प्रयास के लिए निगमों और सीमित कंपनियों का प्रसार हुआ जिसमें हजारों लोगों ने अच्छा लाभांश प्राप्त करने की आशा में अपना पैसा निवेश किया। व्यक्तिगत औद्योगिक स्वामित्व की प्रणाली ने संयुक्त स्टॉक कंपनियों और प्रबंध निदेशकों को जगह दी।

यांत्रिक आविष्कार

वस्त्र उद्योग

इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति वस्त्र उद्योग से आरंभ हुई थी। 1760 ई. तक इंग्लैंड में वस्त्रों का निर्माण अर्थात् सूत कातना और करघे पर वस्त्र बुनना मध्ययुगीन प्रणाली के अनुसार ही था। 1757 ई. में प्लासी के युद्ध के बाद अंग्रेजों ने बंगाल की जो लूट-खसोट आरंभ की, उसका प्रभाव जल्दी ही लंदन में दिखाई देने लगा क्योंकि औद्योगिक क्रांति 1770 ई. के साथ ही शुरू हुई थी। भारतीय पूँजी के साथ इंग्लैंड को भारत में विशाल बाजार भी प्राप्त मिला। इससे सबसे पहले वस्त्र उद्योग में विस्तार तथा आविष्कार हुए।

सबसे पहले 1733 ई. में जॉन कोने ने ‘फ्लाइंग शटल’ का आविष्कार किया जिससे कपड़ा बुनने की गति दुगनी हो गई। 1764 ई. में ब्लेकबर्न के एक लुहार जेम्स हारग्रीब्ज ने ‘स्पनिंग जेनी’ नामक यंत्र बनाया जिसमें एक पहिये को घुमाने से आठ तकुए घूम सकते थे और इस प्रकार बड़ी मात्रा में सूत काता जाने लगा। 1769 ई. में बोल्टन में रिचर्ड आर्कराइट (1732-1792 ई.) ने स्पनिंग जेनी में कुछ सुधार करके ‘वाटरफ्रेम’ का आविष्कार किया। इस मशीन में कई रोलर लगे थे और इसे पानी की शक्ति या घोड़े की शक्ति द्वारा चलाया जाता था। आर्कराइट की मशीन के आने से ही कारखानों का युग आरंभ हुआ, इसलिए उसे ‘कारखाना प्रणाली का जनक’ कहा जाता है। 1779 ई. में सैमुअल क्राम्पटन (1763-1827 ई.) ने स्पनिंग जेनी और वाटरफ्रेम को मिलाकर एक मशीन ‘क्यूल’ या ‘मसलिन ह्वील’ का आविष्कार किया। इस मशीन से बारीक और पक्का धागा तैयार होता था। मशीन से उत्तम मलमल बनाना संभव हुआ। 1784 ई. में एडमंड कार्टराइट ने एक नई मशीन ‘पावरलूम’ (करघा) का आविष्कार किया, जो जल-शक्ति से चलता था। इससे वस्त्रों की बुनाई का कार्य शीघ्रता से होने लगा। 1785 ई. में वस्त्रों पर छपाई के लिए रोलर प्रणाली का आविष्कार हुआ जिससे कपड़ों की प्रिंटिंग का काम अच्छा और तेजी से होने लगा। 1793 ई. में एक अमेरिकन ह्विटने ने एक मशीन का आविष्कार किया जो बिनौले को कपास से अलग करती थी। यह मशीन पचास मजदूरों के बराबर काम अकेले कर सकती थी। 1800 ई. में वस्त्रों को ब्लीचिंग करने की प्रणाली आरंभ हुई। 1825 ई. में रिचर्ड रॉबर्ट्स ने पहली स्वचालित बुनाई मशीन बनाई। इन यांत्रिक मशीनों के कारण इंग्लैंड के वस्त्र उद्योग ने बड़ी आश्चर्यजनक प्रगति की और लंकाशायर कपड़े के व्यवसाय का एक महान केंद्र बन गया। जहाँ 1764 ई. में इंग्लैंड ने केवल चालीस लाख पौंड रुई बाहर से मँगाई थी, वहीं 1841 ई. में पाँच हजार लाख पौंड रुई बाहर से मँगाई गई।

भाप की शक्ति का आविष्कार

औद्योगिक क्रांति के सभी परिवर्तन अधूरे रह जाते यदि भाप की शक्ति का आविष्कार नहीं होता। पहले यंत्रों को चलाने के लिए जल-शक्ति और पवन-शक्ति का प्रयोग किया जाता था। किंतु नवीन यंत्रों को संचालित करने के लिए शक्ति के नये स्रोत की आवश्यकता थी ओैर इस क्षेत्र में भाप के इंजन का आविष्कार एक क्रांतिकारी कदम था।

यद्यपि 1712 ई. मे न्यूकोमेन (1663-1729 ई.) ने खानों से पानी बाहर निकालने एक वाष्प से चलने वाले इंजन को बनाया था, किंतु यह इंजन भारी-भरकम, महँगा और खर्चीला था। 1769 ई. में जेम्स वाट (1736-1819 ई.) ने न्यूकोमेन के इंजन के दोषों को दूर करके एक नया भाप का इंजन बनाया। उसने 1775 में एक उद्योगपति बौल्टन के साथ मिलकर इंजन बनाने का कारखाना भी खोला 1776 ई. में विलकिंसन ने लोहे के कारखानों की भट्टियों को तेज रखने के लिए इस इंजन का प्रयोग किया। इसके बाद इस इंजन का प्रयोग आटे की चक्की चलाने और सूती कारखानों की मशीनों को चलाने के लिए किया जाने लगा। 1814 ई. में जेम्स वाट के इंजन का सुधरा हुआ रूप छापेखाने की मशीनों को चलाने के लिए काम आने लगा जिससे छपाई का काम बड़ी तेजी से होने लगा।

लोहा तथा कोयला उद्योग

मशीनों को बनाने के लिए लोहे की माँग बढ़ रही थी, लेकिन लोहे को पिघलाने और साफ करने की तकनीक पुरानी, महँगी और कठिन थी। लकड़ी का कोयला, जो लोहा पिघलाने में प्रयोग किया जाता था, भी कम होता जा रहा था। अतः ईंधन के अन्य साधनों की खोज की गई। 1750 के लगभग पत्थर का कोयला प्रकाश में आया और पत्थर के कोयले को प्राप्त करने के लिए खनन-कार्य का विकास हुआ। अब्राहम डर्बी तथा जॉन रोबक ने पत्थर के कोयले से बने कोक से लोहा गलाने की पद्धति का आविष्कार किया। 1760 ई. में जान स्टीमन ने कोक की अग्नि को तेज करने तथा इस तेजी को बनाये रखने के लिए एक पंप का आविष्कार किया जो जल-शक्ति से चलता था। 1784 ई. में हेनरी कार्ट (1740-1800 ई.) ने लोहे को पिघलाकर उसको भाँति-भाँति की आकृतियों में ढालने का तरीका ईजाद किया। 1790 ई. में सीमेन्स मॉर्टिन ने इस्पात बनाने की विधि ज्ञात की। इसी समय हंट्समेन ने स्टील को मोड़ने की विधि ज्ञात की।1815 ई. में हम्फ्री डेवी ने ‘सेफ्टी लैंप’ का आविष्कार किया, जिससे खानों से कोयला निकालने में सुविधा हुई। बाद में हेनरी बैसमेर (1813-1898 ई.) ने 1856 ई. में शीघ्रता से और सस्ते में इस्पात तैयार करने की तकनीक खोजी। इस प्रकार कोयले और लोहे के युग का आरंभ हुआ जिससे आगे चलकर मानव-जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए।

यांत्रिक इंजीनियरिंग

मशीनों के वृहद् उत्पादन के लिए अच्छे औजारों और यंत्रों की आवश्यकता थी। इसलिए यांत्रिक इंजीनियरिंग में सुधार हुए और यह एक पृथक् उद्योग बन गया। 1800 ई. में हेनरी माउडस्ले ने एक लेथ मशीन ‘स्लाइड-रेस्ट’ का और जॉन विल्किन्सन ने लोहे में छेद करने का यंत्र बनाया। 1816 ई. से 1830 ई. के वर्षों में खराद और प्लेटिंग के मशीनों में भी कई सुधार किये गये। जोशिया बेजवुड ने यांत्रिक उपायों से घर-गृहस्थी के लिए अच्छे चीनी के बर्तनों का निर्माण किया।

यातायात, परिवहन और संचार

कच्चे माल के लाने और तैयार माल को गंतव्य तक पहुँने के लिए यातायात एवं परिवहन के साधनों का विकास हुआ। औद्योगिक क्रांति से पहले इंग्लैंड की सडकों की हालत बहुत बुरी थी, किंतु अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में स्कॉटलैंड के एक इंजीनियर मैकेडम (1756-1836 ई.)ने पत्थर के छोटे-छोटे टुकड़ों तथा मिट्टी का प्रयोग से मजबूत और उत्तम सडक बनाने का तरीका खोजा। इसके बाद टेलफोर्ड ने तारकोल का प्रयोग करके इसमें सुधार किया और थोड़े ही समय में इंग्लैंड में हजारों मील लंबी मैकैडेमाइज्ड सड़कें तैयार हो गई। इन सड़कों ने देश की आर्थिक संपन्नता को बहुत सीमा तक बढ़ाया।

सड़कों द्वारा कोयले और लोहे-जैसी वस्तुओं को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने में काफी कठिनाइयाँ होती थीं। इस समस्या से निपटने के लिए सबसे पहले डयूक ऑफ ब्रिजवाटर (1736-1803 ई.) ने नहरों को आवागमन का साधन बनाने का प्रयत्न किया और जेम्स ब्रिंडले (1716-1772 ई.) नामक इंजीनियर को नहर बनाने के लिए प्रोत्साहित किया गया। 1761 ई. में वर्सले से मानचेस्टर तक ‘ब्रिजवाटर’ नहर बनी जिससे माल लाने-ले जाने का खर्चा पहले से आधा रह गया। 1830 ई. तक इंग्लैंड में यातायात के लिए 40 हजार मील लंबी नहरों का निर्माण हो चुका था जिनमें मर्सी और कोल्डर की नहरें बहुत प्रसिद्ध थीं।

1807 ई. में एक अमेरिकन रूजवेल्ट ने भाप से चलने वाली नाव (स्टीम बोट) का निर्माण किया। इसके बाद बड़े-बड़े जहाजों का निर्माण किया गया जो वाष्प-शक्ति से चलते थे। किंतु ग्रेट ब्रिटेन में स्टीमबोट का उद्घाटन 1812 ई. में ग्लासगो और ग्रीनॉक के बीच क्लाइड पर धूमकेतु नामक नाव द्वारा किया गया था। 1819 ई. में पहली स्टीमर ‘सवाना’ पाल की मदद से संयुक्त राज्य अमेरिका से अटलांटिक पार किया। प्रारंभिक स्टीमशिप लकड़ी के बने होते थे। 1843 ई. में पहली लोहे की स्टीमशिप ने अटलांटिक को पार किया।

1814 में जॉर्ज स्टीफेंसन (1781-1848 ई.) ने ट्रेवेथिक के इंजन में संशोधन करके रेल इंजन का अविष्कार किया, जो भाप की शक्ति से लोहे की पटरियों पर चलकर माल से लदी गाडियों को खींच सकता था। इसलिए स्टीफेंसन को ‘स्टीम लोकोमोटिव का जनक’ कहा जाता है। 1823 ई. में न्यूकैसल में एक लोकोमोटिव कारखाना स्थापित किया गया। 1830 ई. में मेनचेस्टर से लिवरपूल तक पहली रेलवे लाइन बनाई गई। इसके बाद थोड़े ही दिनों में सारे इंग्लैंड में रेल लाइनों का जाल बिछ गया जिससे कोयला, लोहा आदि को एक स्थान से लाने और ले जाने का काम कम खर्च और कम समय में होने लगा।

संचार साधन: यातायात के साथ-साथ संचार के साधनों का भी विकास हुआ। 1840 ई. में इंग्लैंड में पेनी पोस्टेज के द्वारा डाक व्यवस्था आरंभ हुई जिससे देश में कहीं भी पत्र भेजा जा सकता था। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में 1844 ई. में दो अमेरिकी सैमुअल मोर्स (1791-1872 ई.) और अल्फ्रेड वेल के सहयोग से चार्ल्स व्हीट स्टोन ने इलेक्ट्रिक टेलीग्राफ का आविष्कार किया। 1866 ई. में यूरोप और अमेरिका में बीच अटलांटिक महासागर में टेलीग्राफिक केबिल बिछाये गये। 1876 ई. में ग्राहम बेल ने टेलीफोन का आविष्कार किया।

अन्य आविष्कार

औद्योगिक क्षेत्र में होने वाले परिवर्तनों से वैज्ञानिक खोजों को प्रोत्साहन मिला और विज्ञान के हर क्षेत्र में नये-नये प्रयोग होने लगे। माइकल फैराडे (1791-1867 ई.) ने 1831 ई. में इलेक्ट्रो-मैग्नेटिक इंडक्शन का आविष्कार किया था। 1836 में इंजीनियर जॉन एरिक्सन (1803-1889 ई.) ने मॉनिटर, स्क्रू-प्रोपेलर का निर्माण किया। 1844 ई. में चार्ल्स गुडइयर (1800-1860 ई.) ने रबर वल्केनाइजेशन का आविष्कार किया। इसके अलावा अन्य अनेक वैज्ञानिकों और इंजीनियरों ने अपने आविष्कारों और खेजों से औद्योगिक क्रांति के नवीन क्षेत्रों का विकास किया। इन खोजों के फलस्वरूप ताँबा, सीसा, पारा, अल्यूमीनियम, मैंगनीज, पेट्रोलियम आदि का खनन और उपयोग होने लगा। बिजली के आविष्कार से शक्ति का एक नया स्रोत प्राप्त हुआ।

औद्योगिक क्रांति की प्रगति और प्रसार

इस प्रकार इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति का सूत्रपात हुआ। उसके फलस्वरूप कपड़े, कायले और लोहे के व्यवसाय में महान परिवर्तन हुए। हाथ के औजारों की जगह मशीनों ने ले ली। भाप एक महत्त्वपूर्ण चालक शक्ति बन गई और उसकी शक्ति से चलने वाली मशीनों, रेलों तथा जहाजों ने मानव जीवन में आमूल-चूल परिवर्तन कर दिया। 1830 ई. तक आते-आते औद्योगिक क्रांति का यह प्रारंभिक रूप समाप्त हो गया और अगले चालीस वर्षों में इस क्रांति ने अन्य व्यवसायों को भी प्रभावित किया जिससे उत्पादन कई गुना बढ़ गया।

यद्यपि औद्योगिक क्रांति का आरंभ इंग्लैंड में हुआ था, किंतु शीघ्र ही इसका प्रसार यूरोप के अन्य देशों में भी हुआ। मुख्य रूप से इसका प्रभाव फ्रांस, बेल्जियम और जर्मनी में हुआ जहाँ खनिज साधन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थे।

फ्रांस

1789 ई. की क्रांति के कारण फ्रांस में जो राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक परिवर्तन हुए, उनसे औद्योगिक क्रांति के लिए उपयुक्त वातावरण निर्मित हो गया था। फ्रांस में 1785 ई. में वस्त्र उद्योग का पहला बड़ा कारखाना स्थापित किया गया था। इसके लिए मशीनें इंग्लैंड से मँगाई गई थीं। नेपोलियन ने वस्त्र उद्योग को विशेष रूप से प्रोत्साहित किया था। उसने राष्ट्रीय मुद्रा स्थापित की, आर्थिक गतिविधियों पर सरकार का नियंत्रण स्थापित किया और राष्ट्रीय बैंक की व्यवस्था की। फ्रांसीसी उद्योगों को संरक्षण देने के लिए ब्रिटिश आयात पर प्रतिबंध लगाया गया।

यद्यपि फ्रांस में कई समस्याएँ भी थीं-पूँजीवाद का पूरा विकास नहीं हुआ था, प्रभावशाली मध्यम वर्ग नहीं भी था, शिल्प-श्रेणियाँ अभी भी कार्य कर रही थीं और श्रमिक वर्ग में औद्योगीकरण के प्रति कोई उत्साह नहीं था। इसके अतिरिक्त, फ्रांस में कोयले का भी अभाव था। फिर भी, फ्रांस ने औद्योगिक क्रांति में सफलता प्राप्त की। 1815 ई. के पश्चात् इंग्लैंड और फ्रांस के मध्य व्यापार पुनः स्थापित हुआ। इंग्लैंड से बड़ी संख्या में मशीनें मँगाई गईं और अल्सास में वस्त्र-निर्माण के बड़े-बड़े कारखाने लगाये गये। 1830-1841 ई. के काल में फ्रांसीसियों ने स्वयं मशीनों का निर्माण आरंभ कर दिया। 1831 ई. में फ्रांस के वस्त्र उद्योग में ढाई लाख श्रमिक कार्य कर रहे थे और सोलह लाख मन रुई का आयात हो रहा था। रेशम वस्त्र-उद्योग तथा लौह-उत्पादन में भी फ्रांस ने तेजी से प्रगति की। 1848 ई. में औद्योगिक उत्पादन के मामले में यूरोप में इंग्लैंड के बाद फ्रांस का ही स्थान था।

बेल्जियम

बेल्जियम में औद्योगिक विकास की सुविधा थी क्योंकि वहाँ महत्वपूर्ण कोयला की खोज की गई थी। वहाँ इंग्लैंड से मशीनें मँगाकर कारखाने स्थापित किये गये जिससे वस्त्र उद्योग, लोहा-उत्पादन, रेलमार्ग के निर्माण में तेजी से प्रगति हुई और 1850 ई तक वह एक उद्योग प्रधान देश बन गया। उसने हॉलैंड, जर्मनी और यहाँ तक कि रूस में भी मशीनों का निर्यात किया।

जर्मनी

जर्मनी का एकीकरण 1870 ई. में हुआ, किंतु प्रशा ने 1 जनवरी, 1834 ई. को ज़ोलवरीन या सीमा शुल्क संघ की स्थापना करके जर्मनी के आर्थिक एकीकरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम उठाया जिसमें 8 राज्य शामिल थे। इस आर्थिक संगठन के द्वारा जर्मन राज्यों के व्यापार-वाणिज्य में वृद्धि हुई। 1839 ई. में इंग्लैंड की सहायता से ड्रेसडेन से लिपजिंग तक रेलमार्ग का निर्माण किया गया। रूर क्षेत्र में कोयला और लोहे की खानें मिलने से प्रशा की औद्योगिक प्रगति तेज हो गई। 1848 ई. तक बर्लिन, हेम्बर्ग, प्राग, क्रेकाओ, और वियेना को रेलमार्गों से जोड़ दिया गया। साइलेशिया तथा वेस्टफेलिया में सूती वस्त्र उद्योग का विकास हुआ। 1850 ई. के बाद ज़ोलवरीन औद्योगिक विकास के लिए एक वरदान साबित हुआ जब जर्मनी में कच्चे कपास की खपत 1851 ई. में 28,000 टन से बढ़कर 1865 ई. में लगभग 50,000 टन हो गई। 1871 ई. में जर्मनी के एकीकरण के बाद औद्योगिक क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति हुई और शीघ्र ही वह लौह-उत्पादन व मशीनों के निर्माण में फ्रांस और इंग्लैंड से आगे निकल गया।

यूरोप के अन्य देशों- डेनमार्क, स्वीडेन, हॉलैंड, इटली और आस्ट्रिया में औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में प्रारंभ हुई। रूस में औद्योगिक क्रांति सबसे बाद में शुरू हुई। इसका कारण वहाँ का सामंतवादी सामाजिक संगठन था। 1861 ई. में कृषि अर्द्ध-दासों की मुक्ति के बाद रूस में औद्योगीकरण आरंभ हुआ। वस्त्र उद्योग के क्षेत्र में अनेक स्थानों पर कारखाने स्थापित किये गये। रूस में रेल निर्माण का कार्य 1880 ई. से आरंभ किया गया। इस विशाल निर्माण कार्य के लिए रूस ने फ्रांस और इंग्लैंड से बड़े पैमाने पर ऋण लिया था। 1917 की क्रांति के पूर्व रूस ने उद्योग, संचार और परिवहन के क्षेत्र में पर्याप्त प्रगति कर ली थी।

औद्योगिक क्रांति के प्रभाव

औद्योगिक क्रांति कोई आकस्मिक घटना नहीं थी, अपितु विकास की निरंतर प्रक्रिया थी। यह इंग्लैंड में आरंभ होकर धीरे-धीरे सारे यूरोप में फैल गई। मशीनों के आविष्कार ने मानव जीवन के स्वरूप को पूरी तरह परिवर्तित कर दिया जिससे मानव को असीम शक्ति के साथ-साथ अभूतपूर्व समृद्धि भी प्राप्त हुई। सच बात है कि औद्योगिक क्रांति से मानव समाज जितना प्रभावित हुआ, उतना शायद ही किसी अन्य परिवर्तन से प्रभावित हुआ हो। रेमजे म्योर अनुसार ‘आर्थिक समाज में ऐसे परिवर्तन हुए जो इंग्लैंड से आरंभ होकर निकट भविष्य में समस्त पश्चिमी विश्व के आर्थिक और राजनीतिक ढाँचे में गहन परिवर्तन करने वाले थे जिससे ऐसी नवीन जटिल समस्याओं का जन्म हुआ जिनमें विश्व का मानव समाज उन्नीसवीं सदी से लेकर आज तक उलझा हुआ है।’

आर्थिक प्रभाव
उत्पादन में असाधारण वृद्धि

औद्योगिक क्रांति के कारण कारखानों में वस्तुओं का उत्पादन शीघ्र एवं अधिक कुशलता से भारी मात्रा में होने लगा। इन औद्योगिक उत्पादों को आंतरिक और विदेशी बाजारों में पहुँचाने के लिए व्यापारिक गतिविधियों में तेजी आई जिससे औद्योगिक एवं व्यापारिक निगमों का विस्तार हुआ और इंग्लैंड की अर्थव्यवस्था उद्योग प्रधान हो गई।

औद्योगिक नगरों का विकास

औद्योगिक क्रांति के कारण बडे-बड़े औद्योगिक नगरों का विकास हुआ जो कारखानों के केंद्र थे। कारखानों में काम करने के लिए गाँवों से बेरोजगार लोग आ-आकर कारखानों के पास ही बसने लगे। इन नगरों का विकास मुख्यतया उन स्थानों पर हुआ, जहाँ लोहे और कोयले की खानें थीं और पानी की पर्याप्त उपलब्धता थी। इन नगरों के विकास से नई समस्याएँ उठ खड़ी हुईं। इन नगरों का विकास अनियंत्रित ढंग से बहुत तेजी से हुआ था। इंग्लैंड में बरमिंघम, लीड्स, शेफील्ड, मेनचेस्टर आदि विशाल औद्योगिक नगर थे जहाँ इंग्लैंड में बरमिंघम, लीड्स, शेफील्ड, मेनचेस्टर जैसे विशाल औद्योगिक नगरों में हजारों श्रमिक रहते थे। यहाँ उनके रहने, खाने, साफ-सफाई, स्वास्थ्य, मनोरंजन आदि बुनियादी सुविधाओं की कोई व्यवस्था नहीं थी और श्रमिक वर्ग इन गंदी बस्तियों में उपेक्षित, उत्पीड़ित तथा नरकीय जीवन व्यतीत करने के लिए अभिशप्त था।

आर्थिक समृद्धि में वृद्धि

औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप वस्तुओं के निर्माण, व्यापार तथा उससे लाभ में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। इसका परिणाम यह हुआ कि इंग्लैंड विश्व का सबसे धनी देश बन गया। इंग्लैंड में धनी पूँजीपति वर्ग का उदय हुआ। इस वर्ग का राजनीति पर भी प्रभाव तथा नियंत्रण था। इस पूँजीवादी तथा कारखाना प्रणाली का स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि धन कुछ व्यक्तियों के हाथों में केंद्रित होने लगा। फिर भी, सस्ती और बड़े पैमाने पर वस्तुओं के उत्पादन का लाभ निर्धन लोगों को भी मिला और उनके सामान्य रहन-सहन का स्तर ऊँचा हुआ।

पूँजीवाद का विकास

औद्योगिक क्रांति की सबसे बड़ी देन पूँजीवाद है। यद्यपि यूरोप में पूँजीवाद का विकास मध्ययुग में ही हो चुका था, किंतु औद्योगिक विकास के कारण पूँजीवाद के विस्तार और उसके स्वरूप परिवर्तन हो गया। बड़े स्तर पर उत्पादन, असमान वितरण और एकाधिकार की प्रवृत्ति के कारण औद्योगिक पूँजीवाद का जन्म हुआ।

बैकिंग एवं मुद्रा प्रणाली का विकास

औद्योगिक क्रांति ने संपूर्ण आर्थिक परिदृश्य को बदल दिया। उद्योग एवं व्यापार में बैंक एवं मुद्रा की भूमिका महत्वपूर्ण हो गई। बैंकों के माध्यम से लेन-देन आसान हो गया, चेक और ड्राफ्ट का प्रयोग अधिक किया जाने लगा। मुद्रा के क्षेत्र में धातु के स्थान पर कागजी मुद्रा का प्रचलन हुआ।

आर्थिक असंतुलन

औद्योगिक क्रांति के कारण आर्थिक असंतुलन एक राष्ट्रीय समस्या बन गई। विकसित और पिछड़े देशों के बीच आर्थिक असमानता की खाई चौड़ी होती चली गई। इस क्रांति से आर्थिक साम्राज्यवाद के युग का आरंभ हुआ और औद्योगिक राष्ट्र पिछड़े देशों का शोषण करने लगे।

कुटीर उद्योगों का विनाश

औद्योगिक क्रांति का सबसे नकारात्मक प्रभाव घरेलू उद्योग-धंधों पर पड़ा। इसके पूर्व प्रत्येक कारीगर अपने घर पर अपने परिवार के सदस्यों के साथ अपनी सीमित पूँजी से, अपने ही औजारों से तथा अपने इच्छानुसार काम करता था और जो चाहता था, बनाता था। इस प्रकार वह पूरी तरह स्वतंत्र था। औद्योगिक क्रांति के कारण जब हाथ के बजाय मशीनों से काम होने लगा, तो घरेलू उद्योग-धंधों का तरीका नष्ट हो गया। गाँवों तथा नगरों के कारीगर और शिल्पकार कारखानों द्वारा निर्मित सस्ती वस्तुओं की प्रतियोगिता में कैसे ठहर पाते? फलतः धीरे-धीरे उनके व्यवसाय बंद होते गये और वे भूमिहीन कृषक मजदूरों की तरह श्रमिक वर्ग में सम्मिलित हो गये। इस प्रकार घरेलू उद्योग-धंधों का स्थान कारखानों ने ले लिया और स्वतंत्र कारीगर वेतनभोगी मजदूर बन गया।

बेकारी की समस्या

घरेलू कुटीर धंधों में बड़ी संख्या में कारीगर और शिल्पकार उत्पादन कार्य में लगे हुए थे, किंतु मशीनों से उत्पादन होने पर अब कम संख्या में श्रमिकों की आवश्यकता होती थी। इससे बेरोजगारी की समस्या उत्पन्न हो गई। अनेक मजदूर जीविका की खोज में नगरों में आकर बस गये। यह सर्वहारा वर्ग था जिसके पास श्रम के अलावा और कुछ नहीं था। कारखानों के स्वामी कारखानों में छंटनी और तालाबंदी करते रहते थे जिससे श्रमिकों में बेकारी बनी रहती थी।

राजनीतिक प्रभाव
राज्य के कार्यों में वृद्धि

औद्योगिक क्रांति के कारण राष्ट्रों के राजनीतिक जीवन में अनेक परिवर्तन हुए। आरंभ में कारखाना प्रणाली में श्रमिकों की दुर्दशा की ओर सरकारों ने कोई ध्यान नहीं दिया था। इसका कारण यह था कि सरकारें अहस्तक्षेप की नीति पर चल रही थीं। लेकिन धीरे-धीरे मजदूरों की दुर्दशा के कारण सरकारों को मजदूरों की दशा सुधारने के लिए हस्तक्षेप करना पड़ा। इंग्लैंड की सरकार ने कई कारखाना कानून बनाये, जिससे काम के घंटों पर नियंत्रण किया गया और मजदूरों को सुरक्षा प्रदान की गई। कारखानों के लिए निरीक्षक नियुक्त किये गये। इस प्रकार राज्य के कार्य-क्षेत्र में वृद्धि हुई।

समाजवादी विचारधारा का उदय

औद्योगिक क्रांति से कामगारों और मजदूरों की दशा जहाँ बदतर होती गई, वहीं पूँजीपतियों की आर्थिक समृद्धि बढ़ती गई। पूँजीपति अपना मुनाफा और बढ़ाने के लिए श्रमिकों का शोषण करने लगे। फलतः श्रमिकों की दशा और भी बिगड़ती गई। फलतः कुछ विचारकों ने मजदूरों की दशा सुधारने के लिए एक नवीन विचारधारा का प्रतिपादन किया, जिसे ‘समाजवादी विचारधारा’ कहते हैं। उनके अनुसार उत्पादन के साधनों पर एक व्यक्ति का अधिकार नही होना चाहिए बल्कि पूरे समाज का अधिकार होना चाहिए। इंग्लैंड में राबर्ट ओवेन ने सहकारिता आंदोलन आरंभ किया। इसके साथ ही समाजवादी, समूहवादी और साम्यवादी विचारधाराओं का जन्म हुआ। इनका उद्देश्य नवीन राजनीतिक तथा आर्थिक व्यवस्था स्थापित करना था।

श्रमिकों द्वारा सत्ता प्राप्त करने के प्रयत्न

श्रमिक वर्ग ने सत्ता प्राप्त करने का भी प्रयत्न किया। उनका उद्देश्य नई राजनीतिक व्यवस्था स्थापित करना था जिनमें श्रमिकों के हितों को सुरक्षा प्रदान की जाये। श्रमिकों को विश्वास हो गया था कि जब तक सत्ता उनके हाथों में नहीं होगी, उन्हें सुरक्षा प्राप्त नहीं होगी। इंग्लैंड में चार्टिस्ट आंदोलन, फ्रांस में 1830 ई. व 1848 ई. के श्रमिक आंदोलन, जर्मनी में मजदूरों द्वारा अलग दल का निर्माण इसी राजनीतिक चेतना के परिणाम थे।

साम्राज्यवाद का विकास

आवागमन के नये साधनों के विकास के कारण यूरोप के औद्योगिक देशों को कच्चा माल प्राप्त करने तथा निर्मित माल को बेचने के लिए बाजारों के रूप में उपनिवेशों की आवश्यकता थी। इसलिए अधिक से अधिक उपनिवेशों को प्राप्त करना उद्योग-प्रधान देशों का मुख्य उद्देश्य हो गया। इससे एक नवीन साम्राज्यवाद का विकास हुआ जिसने राष्ट्रों के मध्य प्रतिस्पर्द्धा को जन्म दिया। इस स्पर्धा के कारण यूरोप के देशों ने अमेरिका, अफ्रीका तथा एशिया के विभिन्न भागों पर अपने उपनिवेश बनाये। बाद में इन उपनिवेशों की छीना-झपटी के कारण यूरोप का अंतर्राष्ट्रीय वातावरण अत्यंत अशांत एवं क्षुब्ध हो गया।

अंतर्राष्ट्रीय सहयोग का सूत्रपात

औद्योगिक क्रांति ने पूँजीवाद, वर्ग-संघर्ष एवं साम्राज्यवाद को जन्म दिया जिनके कारण अंतर्राष्ट्रीय विषाक्त हो गया। फिर भी, यातायात और परिवहन के साधनों ने विविध देशों की भौगोलिक दूरी कम कर दी। व्यापारिक प्रतिस्पर्धा के साथ-साथ व्यापारिक सहयोग की भावना का भी विकास हुआ। अंतर्राष्ट्रीय बाजार का संगठन हुआ और एक देश के निवासी दूसरे देश की आवश्यकताओं को पुरा करने की चेष्टा करने लगे। इस प्रकार प्रतिस्पर्धा और विद्वेष के मध्य भी अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की भावना परिलक्षित हुई।

वियेना कांग्रेस

सामाजिक प्रभाव
जनसंख्या में वृद्धि

औद्योगिक क्रांति ने जनसंख्या वृद्धि को संभव बनाया। वस्तुतः कृषि क्षेत्र में तकनीकी प्रयोग ने खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाकर भोजन आवश्यकता की पूर्ति की। दूसरी तरफ यातायात के उन्नत साधनों के माध्यम से माँग के क्षेत्रों में खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाकर तथा उनकी पूर्ति कराकर भोजन की आवश्यकता को पूरा किया गया। बेहतर पोषण एवं विकसित स्वास्थ्य तथा औषधि विज्ञान के कारण मानव जीवन की औसत आयु में वृद्धि हुई और मृत्यु दर में कमी आई।

नये सामाजिक वर्गों का उदय

औद्योगिक क्रांति ने मुख्य रूप से तीन नये वर्गों को जन्म दिया। पहला, पूँजीवादी वर्ग, जिसमें व्यापारी और पूँजीपति सम्मिलित थे। दूसरा, मध्यम वर्ग, जिसमें कारखानों के निरीक्षक, दलाल, ठेकेदार, इंजीनियर, वैज्ञानिक आदि शामिल थे। तीसरा श्रमिक वगर्, जो अपने श्रम और कौशल से उत्पादन करते थे।

इन नवीन वर्गों के उदय से सामाजिक असंतुलन की स्थिति पैदा हुई और समाज में नया वर्ग-भेद पैदा हुआ। पूँजीपति वर्ग आर्थिक क्षेत्र में ही नहीं, बल्कि राजनीतिक क्षेत्र में भी प्रभावी हो गया। मध्यम वर्ग अत्यंत महात्वाकांक्षी था और बहुआयामी गतिविधियों में संलग्न रहता था। यह वर्ग ने अपने हितों के लिए श्रमिकों को साथ लेकर उच्च वर्ग को नियंत्रित करने का प्रयास करता रहता था। 1832 ई के ऐक्ट से इस बुर्जुआ वर्ग की समृद्धि का मार्ग प्रशस्त हुआ। संभवतः इसीलिए उन्नीसवीं सदी को बुर्जुआ युग के नाम से जाना जाता है।

मजदूरों की दुर्दशा

औद्योगिक क्रांति का सबसे दुखद पक्ष मजदूरों की दुर्दशा थी। कारखानों में काम करने वाले मजदूर कारखाना मालिकों की कृपा पर आश्रित थे और उन्हें कारखानों के पास अस्वास्थ्यकर गंदी बस्तियों में छोटे-छोटे तंग मकानों में रहना पड़ता था जिनमें हवा, प्रकाश तथा पानी की कोई समुचित व्यवस्था नहीं थी। कारखाने भी गंदे और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक थे। उनकी दशा सुधारने के लिए कारखाना मालिक या सरकार कोई उत्तरदायी नहीं थे। उनका वेतन बहुत कम था और उन्हें एक दिन में 16-16 घंटे काम करना पड़ता था। दुर्घटना या मृत्यु हो जाने पर उन्हें कोई सुरक्षा प्राप्त नहीं थी। स्त्रियों तथा बाल श्रमिकों को भी 12 घंटों तक काम करना पड़ता था। कारखानों के मालिकों को केवल अधिक-से-अधिक मुनाफा कमाने की चिंता थी और मजदूरों के दुःख-सुख की उन्हें कोई परवाह न थी। मजदूरों की इसी दुर्दशा के कारण समाजवादी विचारधारा का जन्म हुआ।

मानवीय संबंधों में गिरावट

परंपरागत भावनात्मक मानवीय संबंधों का स्थान आर्थिक संबंधों ने ले लिया। जिन श्रमिकों के श्रम और कौशल पर उद्योगपति समृद्ध हो रहे थे उनसे मालिक न तो परिचित था और न ही परिचित होना चाहता था। उद्योगों में प्रयुक्त होने वाली मशीन और तकनीकी ने मानव को भी मशीन का एक हिस्सा बना दिया। मानव-मानव का संबंध टूट गया और वह अब मशीन से जुड़ गया। फलतः संवेदनशीलता प्रभावित हुई।

सांस्कृतिक परिवर्तन

औद्योगिक क्रांति से पुराने रहन-सहन के तरीकों, वेश-भूषा, रीति-रिवाज, धार्मिक मान्यता, कला-साहित्य, मनोरंजन के साधनों में परिवर्तन हुआ। परम्परागत शिक्षा पद्धति के स्थान पर रोजगारपरक तकनीकी एवं प्रबन्धकीय शिक्षा का विकास हुआ।

पारिवारिक जीवन पर प्रभाव

औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप संयुक्त परिवार को आघात पहुँचा। वस्तुतः कृषि अर्थव्यवस्था में संयुक्त परिवार प्रथा का बहुत महत्व था। किंतु औद्योगीकरण के बाद व्यक्ति का महत्व बढ़ने लगा और व्यक्ति अब घर से दूर जाकर कारखानों में काम करने लगा जहाँ उसे परिवार रखने की सुविधा नहीं थी। इस तरह एकल परिवार को बढ़ावा मिला। दूषित कारखानों में बालकों तथा स्त्रियों को श्रमिकों के काम करने भी अनेक नई सामाजिक समस्याएँ पैदा हुईं।

समष्टिवादी सिद्धांतों का महत्त्व

अब सामाजिक जीवन में व्यक्तिवादी सिद्धांतों की अपेक्षा समष्टिवादी सिद्धांतों का महत्व बढ़ने लगा। इसका उद्देश्य यह था कि प्रतिस्पर्द्धात्मक पूँजीवादी समाज के स्थान पर सहयोगात्मक आधार पर नवीन समाज का गठन किया जाए।

इस प्रकार औद्योगिक क्रांति ने मानव समाज को गहरे रूप से प्रभावित किया। इसके परिणामस्वरूप नई अर्थव्यवस्था ने एक नवीन समाज की रचना की। इसका असर यूरोपीय जीवन के विभिन्न क्षेत्रों पर पड़ा। इसके गुण और अवगुण दोनों थे। इसने यूरोपीय लोगों के जीवन स्तर को बढ़ाया, लेकिन उन्हें मनोवैज्ञानिक रूप से अस्थिर बना दिया।

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