खिलाफत और असहयोग आंदोलन (Khilafat and Non-Cooperation Movement)

खिलाफत और असहयोग आंदोलन

1919 से 1922 के मध्य अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध दो सशक्त जन-आंदोलन चलाये गये- खिलाफत और असहयोग आंदोलन। खिलाफत और असहयोग दोनों आंदोलन पृथक्-पृथक् मुद्दों को लेकर प्रारंभ हुए थे और दोनों का प्रत्यक्ष रूप से कोई संबंध नहीं था, फिर भी, दोनों ने ही भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को प्रोत्साहित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

आंदोलनों की पृष्ठभूमि

खिलाफत और असहयोग आंदोलनों की पृष्ठभूमि उन घटनाओं की शृंखला में निहित है, जो प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान और उसके के बाद अंग्रेजी हुकुमत द्वारा भारतीय संदर्भ में उठाये गये कदमों के कारण घटित हुई थीं।

प्रथम विश्वयुद्ध के कारण खाद्यान्नों की भारी कमी हो गई, मुद्रास्फीति बढ़ने लगी, औद्योगिक उत्पादन कम हो गया और लोग भारी करों के बोझ से दब गये। गाँवों, कस्बों और नगरों में रहनेवाले मध्यम एवं निम्न मध्यवर्ग के किसान, दस्तकार, मजदूर सभी महँगाई और बेराजगारी से परेशान थे। समाज का लगभग हर वर्ग आर्थिक परेशानियों से जूझ रहा था और इन परेशानियों को सूखों, महँगाई और महामारियों ने और भी बढ़ा दिया था। विश्वयुद्ध ने भारतीय जनता के लगभग सभी वर्गों के लिए सामाजिक और आर्थिक अफरा-तफरी पैदा की और जनाक्रोश के एक आसन्न उभार के लिए आवश्यक सामाजिक लामबंदी की दशा उत्पन्न कर दी थी।

रौलट ऐक्ट, जालियांवाला बाग हत्याकांड और पंजाब में मार्शल ला ने जनता की सारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया था। जनता समझ गई कि अंग्रेजी हुकूमत दमन के सिवा उसे और कुछ नहीं दे सकती है। आठ सदस्योंवाली हंटर समिति जिस तरह जाँच के नाम पर संपूर्ण प्रकरण पर लीपापोती कर रही थी, उससे गांधीजी और उनके जैसे तमाम लोग बहुत क्षुब्ध थे। ब्रिटिश संसद, विशेषकर हाउस आफ लार्ड्स ने जनरल डायर के कारनामों को उचित करार दिया था और ‘मार्निंग पोस्ट’ ने डायर के लिए 26 हजार पौंड की धनराशि एकत्रित की थी। मदनमोहन मालवीय के नेतृत्व में गठित कांग्रेस-जाँच समिति ने सरकार से दोषी लोगों के खिलाफ कार्यवाही करने एवं मृतकों के परिवारों को आर्थिक सहायता देने की माँग की, किंतु सरकार ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया।

1919 के मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों का वास्तविक मकसद द्वैध शासन-प्रणाली लागू करना था, जनता को राहत पहुँचाना नहीं। रौलट ऐक्ट-विरोधी राष्ट्रीय आंदोलन से समूची भारतीय जनता समान रूप से प्रभावित हुई थी और अन्य वर्गों के साथ ही हिंदू तथा मुसलमान भी एक-दूसरे के करीब आ गये थे।

हिंदू-मुसलमान एकता को प्रदर्शित करने के लिए मुसलमानों ने कट्टर आर्यसमाजी नेता स्वामी श्रद्धानंद को दिल्ली की जामा मस्जिद के मिंबर से अपना उपदेश देने के लिए आमंत्रित किया था। अमृतसर में सिखों ने अपने पवित्र स्थान स्वर्ण मंदिर की चाभियां एक मुसलमान नेता डा. किचलू को सौंप दी थी। अमृतसर में यह राजनीतिक एकता सरकार के निर्मम दमन के कारण थी।

खिलाफत आंदोलन

बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षों से ही एक नया शिक्षित मुस्लिम नेतृत्व उभरने लगा था, जो सर सैयद अहमद खाँ की वफादारी की राजनीति और पुरानी पीढ़ी के कुलीनवाद से दूर होकर पूरे समुदाय का समर्थन पाने का प्रयास कर रहा था। मुहम्मद अली के ‘कामरेड’ (कलकत्ता), अबुल कलाम आजाद के ‘अल-हिलाल’ (कलकत्ता) या जफर अली खान के ‘जमींदार’ (लाहौर) जैसी मुस्लिम पत्र-पत्रिकाओं के अखिल-इस्लामी और ब्रिटिश-विरोधी स्वर ने मुस्लिम युवकों को आकृष्ट किया।

मुस्लिम समुदाय की लामबंदी के लिए 1910 में ‘जीयतुल अंसार’ (भूतपूर्व छात्र सभा) और 1913 में दिल्ली में एक कुरान मदरसा शुरू किया गया था। नये शिक्षित मुस्लिम नेतृत्व के साथ-साथ उलेमा भी एक नई राजनीतिक शक्ति के रूप में भारत के विभिन्न मुस्लिम समूहों के बीच एक अहम् कड़ी के रूप में उभर रहे थे।

प्रथम विश्वयुद्ध के पहले और उसके दौरान तीन राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं जैसे 1911-12 में इटली और बाल्कन के युद्धों में इंग्लैंड द्वारा तुर्की को सहायता न देना, अगस्त 1912 में अलीगढ़ में मुस्लिम विश्वविद्यालय बनाने के प्रस्ताव को हार्डिंग्स द्वारा अस्वीकार किया जाना, और 1913 में कानपुर में एक मस्जिद के साथ लगे चबूतरे को तोड़ने के परिणामस्वरूप होने वाला दंगा, के कारण हिंदू-मुस्लिम राजनीतिक एकीकरण के लिए एक व्यापक पृष्ठभूमि तैयार हुई।

1912 में तथाकथित ‘यंग पार्टी’ ने मुस्लिम लीग पर कब्जा कर लिया और वे इसे अधिक आक्रामक बनाने की ओर ओर बढे़; साथ ही राष्ट्रवादी हिंदुओं के साथ एक प्रकार के समझौते और अखिल-इस्लामवाद के प्रयास भी करने लगे थे। कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग के बीच होनेवाले ‘लखनऊ समझौता’ (1916) से ‘फूट डालो और राज करो’ की ब्रिटिश नीति भी असफल हो चुकी थी। तुर्की का सुल्तान ‘खलीफा’ अर्थात् धार्मिक-राजनीतिक क्षेत्र में मुसलमानों के प्रमुख के रूप में प्रतिष्ठित था। मुसलमानों का मानना था कि तुर्की की स्थिति पर आँच नहीं आनी चाहिए।

1911-12 में ट्राईपोलिटन और बाल्कन युद्धों के समय तुर्की की सहायता के लिए भारत में एक ‘तुर्की राहतकोष’ बनाया गया था और मार्च 1912 में एक चिकित्सा दल (रेड क्रेसेंट मेडिकल मिशन) भेजा गया था। अब्दुल बारी के लखनऊ स्थित फिरंगीमहल उलमा संप्रदाय के समर्थन से अली बंधुओं ने मुसलमानों के पवित्र जगहों की सुरक्षा के लिए धन जुटाने के उद्देश्य से 1913 में ‘कुल-हिंद अंजुमने-खुद्दामे-काबा’ (अखिल भारतीय काबा सेवक सभा) का संगठन किया था।

प्रथम विश्वयुद्ध में मुसलमानों का सहयोग लेने के लिए इंग्लैंड के प्रधानमंत्री लार्ड जार्ज ने भारतीय मुसलमानों से वादा किया था कि ‘‘यदि भारतीय मुसलमान इस महायुद्ध में अंग्रेजों का साथ देंगे, तो विजय के बाद अंग्रेज तुर्की की अखंडता को बनाये रखेंगे और अरब तथा मेसोपोटामिया के इस्लामिक धार्मिक स्थलों की रक्षा करेंगे।’’ जार्ज ने कहा था कि ‘‘हम इसलिए नहीं लड़ रहे हैं कि एशिया माइनर और थ्रैंस के समृद्ध और प्रसिद्ध भू-भागों को, जहाँ अधिकतर तुर्क जाति के लोग निवास करते हैं, तुर्की से छीन लें।’’

प्रथम विश्वयुद्ध में मित्र-राष्ट्रों की विजय हुई और 15 मई 1920 को तुर्की व मित्र-राष्ट्रों के बीच सेवर्स की संधि हुई। सेवर्स संधि के उपरांत 10 अगस्त 1920 को मित्र-राष्ट्रों ने तुर्की के पुराने आटोमान साम्राज्य को विघटित कर दिया और उसके कुछ प्रदेशों को स्वतंत्र कर दिया गया और कुछ पर इंग्लैंड तथा फ्रांस ने कब्जा कर लिया। तुर्की के सुल्तान के समस्त अधिकार छीन लिये गये, जिससे सुल्तान की स्थिति एक कैदी जैसी हो गई।

मुसलमानों ने भारत के वायसराय को अपनी पीड़ा बताई तो वायसराय ने दो-टूक जवाब दिया: ‘‘तुर्की उससे अधिक और किसी व्यवहार की आशा नहीं करता, जिसकी आशा जर्मनी के पक्ष में तलवार उठानेवाले अन्य देश करते हैं। उसे युद्ध में शामिल होने (अंग्रेजों के विरुद्ध) के परिणाम तो भुगतने ही होंगे।’’ अंग्रेजों के विश्वासघात से क्षुब्ध होकर खिलाफत की पुनस्र्थापना के लिए भारतीय मुसलमानों ने खिलाफत की पुनस्र्थापना के लिए जो आंदोलन चलाया, उसे ‘खिलाफत आंदोलन’ कहते हैं।

भारतीय मुसलमानों को 1918 से ही अंग्रेजों की नीयत पर शक होने लगा था, क्योंकि अंग्रेजों के ही भड़काने पर अरबों ने अपने खलीफा के विरुद्ध विद्रोह किया था। दिसंबर 1918 में लीग के दिल्ली सत्र ने उलेमा को आमंत्रित किया और मक्का के शरीफ हुसैन की कटु आलोचना की और माँग की कि मुस्लिम राष्ट्रों की अखंडता को अक्षुण्ण रखा जाए और इस्लाम के पवित्र एवं धार्मिक स्थलों को खलीफा को लौटाया जाये। खिलाफत आंदोलन की जमीन तैयार हुई थी, जो भारत के विभाजित मुस्लिम समुदाय में राजनीतिक एकता लाने के लिए चलाया गया पहला जन-आंदोलन था।

खिलाफत आंदोलन का आरंभ

17 अगस्त 1919 को राष्ट्रीय स्तर पर ‘अखिल भारतीय खिलाफत दिवस’ मनाया गया और सितंबर 1919 में एक खिलाफत कमेटी का गठन किया गया। खिलाफत आंदोलनकारियों की मुख्यतः तीन माँगें थीं- एक, मुसलमानों के धार्मिक स्थलों पर खलीफा के प्रभुत्व को पुनस्र्थापित किया जाए; दूसरे, उसके युद्ध के पहले के इलाकों को उसी के पास रहने दिया जाए ताकि वह इस्लामी जगत के प्रमुख के रूप में अपनी स्थिति को बनाये रख सके और इस्लाम की रक्षा कर सके और तीसरे, जजीरतुल-अरब (अरब, सीरिया, इराक और फिलीस्तीन) पर मुसलमानों की संप्रभुता बनी रहे।

खिलाफत और असहयोग आंदोलन (Khilafat and Non-Cooperation Movement)
खिलाफत आंदोलन

खिलाफत के अखिल इस्लामी प्रतीक ने अखिल भारतीय इस्लामी लामबंदी का मार्ग प्रशस्त किया। खिलाफत आंदोलन अंग्रेज-विरोधी भी था और इसने गांधीजी को इस ध्येय के समर्थन के लिए प्रेरित किया, ताकि मुसलमानों को भारतीय राजनीति की मुख्यधारा में लाया जा सके।

नवंबर 1919 में मुस्लिम लीग ने अपने दिल्ली सम्मेलन में राजनैतिक प्रश्न के मुद्दे पर आंदोलन चलाने के लिए कांग्रेस को पूर्ण समर्थन देने का निश्चय किया। खिलाफत आंदोलन में नरमलीय और जुझारू दो धाराएँ विकसित हुईं। पहली धारा का केंद्र सेंट्रल खिलाफत कमेटी थी, जिसका संगठन बंबई के चोटानी जैसे समृद्ध व्यापारियों ने किया था।

दूसरी धारा में निम्न मध्य वर्ग के पत्रकार और उल्मा सम्मिलित थे जिनका संयुक्त प्रांत, बंगाल, सिंध और मलाबार के छोटे कस्बों और गाँवों में पर्याप्त प्रभाव था। बंबई के नरमदलीय नेता आंदोलन को संयत सभाओं, ज्ञापनों और प्रतिनिधिमंडलों को लंदन और पेरिस भेजने तक ही सीमित रखना चाहते थ। गांधीजी ने नरमपंथियों और जुझारू तत्वों, दोनों के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभा करके अपने-आपको महत्त्वपूर्ण बना लिया।

खिलाफत नेताओं के लिए गांधीजी हिंदू राजनीतिज्ञों से संपर्क की अनिवार्य कड़ी थे। खिलाफत नेता हिंदू-मुसलमान एकता के लिए बहुत उत्सुक थे क्योंकि असहयोग आंदोलन के लिए सेवाओं और परिषदों का बहिष्कार करना आवश्यक था जो हिंदुओं के सहयोग के बिना संभव नहीं था। हिंदुओं का सहयोग लेने के लिए दिसंबर 1919 में मुस्लिम लीग ने बकरीद पर गोकशी न करने का आह्वान किया।

गांधीजी ने ‘खिलाफत आंदोलन को हिंदुओं और मुसलमानों में एकता स्थापित करने का ऐसा अवसर जाना जो कि अगले सौ वर्षों तक नहीं मिलेगा।’ गांधीजी खिलाफत के प्रति पूर्ण समर्थित थे और इस मुद्दे को लेकर सरकार के विरुद्ध सत्याग्रह तथा असहयोग आंदोलन शुरू करना चाहते थे। तिलक धार्मिक मुद्दों पर मुस्लिम नेताओं के साथ संधि करने के पक्ष में नहीं थे, साथ ही वे ‘सत्याग्रह’ को एक राजनीतिक हथियार के रूप में प्रयोग किये जाने के प्रति भी आशंकित थे।

गांधीजी के दबाव में कांग्रेस ने हिंदू-मुस्लिम एकता स्थापित करने और मुस्लिम समुदाय को राष्ट्रीय आंदोलन की मुख्यधारा में लाने के लिए खिलाफत आंदोलन में मुसलमानों की सहायता करने के लिए गांधीजी के राजनैतिक कार्यक्रम को स्वीकृति प्रदान कर दी।

संघर्ष के संवैधानिक तरीकों पर से कांग्रेस का विश्वास धीरे-धीरे कम होता जा रहा था, विशेष रूप से पंजाब की घटनाओं के संबंध में हंटर कमीशन की भेदभावपूर्ण व दमनकारी सिफारिशों के कारण। गांधीजी ने कहा: ‘‘यह ठीक मेरी नैतिक जिम्मेदारी की भावना है जिसने मुझे खिलाफत के प्रश्न को हाथ में लेने तथा मुसलमानों के सुख-दुःख में उनका साथ देने के लिए प्रेरित किया है। यह पूरी तरह सत्य है कि मैं हिंदू-मुस्लिम एकता में सहयोग दे रहा हूँ और उसे प्रोत्साहित कर रहा हूँ।’’

गांधीजी मई 1920 तक नरमपंथी बंबई समूह के ही पक्षधर बने रहे। दिल्ली में 22-23 नवंबर 1919 को अखिल भारतीय खिलाफत कांग्रेस में जुझारू समूह के हसरत मोहानी ने पहली बार अंग्रेजी माल का बहिष्कार करने का आह्वान किया, किंतु 24 नवंबर को गांधीजी ने हसरत मोहानी के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया।

दिसंबर 1919 में गांधीजी व खिलाफत नेताओं से विचार-विमर्श के बाद हिंदुओं और मुसलमानों का एक संयुक्त प्रतिनिधिमंडल डा. अंसारी की अध्यक्षता में 19 जनवरी 1920 को वायसराय चेम्सफोर्ड से खिलाफत के प्रश्न को हल करने की माँग की। एक प्रतिनिधिमंडल मुहम्मदअली जिन्ना के नेतृत्व में इंग्लैंड भेजा गया।

20 फरवरी 1920 को कलकत्ता में मौलाना अबुलकलाम आजाद की अध्यक्षता में खिलाफत सम्मेलन का आयोजन हुआ। 10 मार्च 1920 को संपूर्ण भारत में ‘काला दिवस’ के रूप में मनाया गया और उसी दिन गांधीजी ने घोषणा की कि खिलाफत का प्रश्न सांविधानिक सुधारों तथा पंजाब के अत्याचारों से अधिक महत्त्वपूर्ण है। गांधीजी ने ब्रिटिश सरकार को स्पष्ट चेतावनी दी कि अगर तुर्की के साथ शांति-संधि की शर्तें भारतीय मुसलमानों को संतुष्ट नहीं करतीं, तो वे असहयोग आंदोलन शुरू कर देंगे।

24 मई 1920 को तुर्की के साथ सेब्र की संधि की कड़ी शर्तें प्रकाशित हुईं और उसी माह 28 मई को पंजाब के उपद्रवों से संबंधित हंटर आयोग की बहुमतवाली रिपोर्ट भी आई। हाउस आफ लार्ड्स ने डायर की निंदा के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था और ‘मार्निंग पोस्ट’ ने जालियांवाला बाग के हत्यारे के लिए 26,000 पाउंड की राशि एकत्र की थी।

केंद्रीय खिलाफत समिति की इलाहाबाद की सभा (1-3 जून 1920) में जुझारू तत्वों की विजय हुई जिन्हें अब गांधीजी का समर्थन प्राप्त था। असहयोग का एक चार चरणोंवाला कार्यक्रम घोषित किया गया- उपाधियों का त्याग, सिविल सेवाओं, सेना और पुलिस का बहिष्कार और अंततः करों की नाअदायगी। गांधीजी ने कांग्रेस पर पंजाब के अत्याचार’, ‘खिलाफत के अत्याचार और स्वराज के तीन मुद्दों पर केंद्रित कार्यक्रम बनाने के लिए जोर डाला। 9 जून 1920 को इलाहाबाद में एक सर्वदलीय सम्मेलन में सर्वसम्मति से स्कूलों, कालेजों और अदालतों के बहिष्कार का एक कार्यक्रम बनाया गया और गांधीजी को इस आंदोलन की अगुआई करने का अधिकार दिया गया।

गांधीजी ने 22 जून को वायसराय को एक नोटिस दिया कि, ‘‘कुशासन करनेवाले शासक को सहयोग देने से इनकार करने का अधिकार हर व्यक्ति को है। सम्राट की सरकार ने खिलाफत के मामले में कपट, अनैतिकता और अन्यायपूर्ण कार्य किया है।….ऐसी सरकार के लिए मेरे मन में न आदर रह सकता है और न ही सद्भाव।’’

असहयोग आंदोलन

गांधीजी ने 1 अगस्त 1920 को असहयोग आंदोलन आरंभ किया और यहीं से ‘गांधी युग’ की शुरुआत हुई। कांग्रेस का एक विशेष अधिवेशन 4-9 सितंबर 1920 को कलकत्ता में बुलाया गया, जिसकी अध्यक्षता लाला लाजपत राय ने की और इसमें गांधीजी तथा मोतीलाल नेहरू के साथ खिलाफत नेता अलीबंधु भी उपस्थित थे।

कलकत्ता के विशेष अधिवेशन में कांग्रेस ने पहली बार भारत में विदेशी शासन के विरुद्ध कार्यवाही करने, विधान परिषदों का बहिष्कार करने और असहयोग तथा सविनय अवज्ञा आंदोलन प्रारंभ करने का फैसला किया।

असहयोग के कार्यक्रम पर प्रस्ताव रखते हुए गांधीजी ने कहा ‘‘अंग्रेज सरकार शैतान है, जिसके साथ सहयोग संभव नहीं है। अंग्रेजी सरकार को अपनी भूलों पर कोई दुःख नहीं है, अतः हम कैसे मान लें कि नवीन व्यवस्थापिकाएँ हमारे ‘स्वराज्य’ का मार्ग प्रशस्त करेंगी। स्वराज्य की प्राप्ति के लिए हमारे द्वारा प्रगतिशील अहिंसात्मक असहयोग की नीति अपनाई जानी चाहिए।’’ गांधीजी के प्रस्ताव को बंगाल के विपिनचंद्र पाल के एक निरूपक संशोधन के साथ और चितरंजनदास, जिन्ना या पाल जैसे पुराने नेताओं के विरोध के बावजूद स्वीकार कर लिया गया।

अधिवेशन में घोषणा की गई कि गांधीजी ने जो उत्तरोत्तर बढ़ानेवाला अहिंसात्मक असहयोग आंदोलन आरंभ किया है, वह तब तक जारी रहेगा, जब तक उपरोक्त अन्याय की बातों का निराकरण नहीं हो जाता और ‘स्वराज्य’ नहीं मिल जाता।

असहयोग आंदोलन के कार्यक्रम

दिसंबर, 1920 में कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में लाला लाजपत राय एवं चितरंजनदास ने असहयोग प्रस्ताव से संबंधित अपना विरोध इस शर्त पर वापस ले लिया कि अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के निर्देशानुसार असहयोग कार्यक्रम चरणों में लागू किया जायेगा।

बंगाल से एक विशाल विरोधी-प्रतिनिधिमंडल तैयार करने के लिए 36,000 रुपया खर्च करनेवाले चितरंजन दास जैसे वरिष्ठ नेता ने गांधीजी और उनके जन-आंदोलन के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। चितरंजनदास ने नागपुर अधिवेशन में असहयोग से संबद्ध प्रस्ताव रखा, जो काफी लंबा-चैड़ा था। इसमें एक ओर सरकार से स्वैच्छिक संबंध तोड़ने का विचार शामिल था, तो दूसरी ओर करों को देने से इनकार किया जाना था और इसके लिए समय का निर्धारण भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कमेटी को करना था। असहयोग आंदोलन के कार्यक्रम के अंतर्गत लोगों से आग्रह किया गया कि वे सरकारी शिक्षा संस्थाओं, अदालतों और विधानमंडलों का बहिष्कार करें, विदेशी वस्त्रों का त्याग करें और सरकार से प्राप्त उपाधियां और सम्मान वापस करें।

लाला लाजपत राय स्कूलों के बहिष्कार के विरोधी थे, किंतु मोतीलाल नेहरू के प्रयास से समझौते द्वारा यह तय हुआ कि स्कूलों एवं अदालतों का बहिष्कार धीरे-धीरे किया जाये। असहयोग प्रस्ताव में यह भी कहा गया था कि बाद में जनता को सरकारी नौकरियों से इस्तीफा देने और कानून की अवज्ञा, जिसमें कर अदायगी न करना भी शामिल हो, के लिए भी कहा जा सकता है। प्रस्ताव में राष्ट्रीय विद्यालयों की स्थापना और स्थानीय विवादों के निपटारे के लिए पंचायतों के गठन की भी बात कही गई थी।

आंदोलन की सफलता के लिए रचनात्मक कार्यों के अंतर्गत शराब का बहिष्कार करने, हाथ से कताई-बुनाई को प्रोत्साहन देने तथा हिंदू-मुस्लिम एकता को बढ़ावा देने पर विशेष जोर दिया गया था। छुआछूत को मिटाने और हर हाल में अहिंसा का पालन करने का सख्त निर्देश था।

गांधीजी ने आश्वासन दिया कि यदि इन कार्यक्रमों पर पूरी तरह अमल हुआ, तो एक वर्ष के भीतर ही ‘स्वराज’ मिल जायेगा। 22 सितंबर 1920 को ‘यंग इंडिया’ के एक लेख में गांधीजी ने ‘एक वर्ष के भीतर स्वराज’ दिलाने वादा किया था। गांधीजी की सलाह पर कांग्रेस का नेतृत्व पंद्रह सदस्यों की एक कार्यकारिणी समिति (वर्किंग कमेटी) को सौंप दिया गया।

स्थानीय स्तर पर प्रादेशिक कांग्रेस समितियों का गठन किया गया और गाँवों-कस्बों तक पहुंचने के लिए गाँवों तथा कस्बों में भी कांग्रेस समितियों का गठन किया। कांग्रेस का सदस्यता शुल्क चार आना (25 पैसा) वार्षिक कर दिया गया, ताकि गरीब लोग भी कांग्रेस के सदस्य बन सकें। कांग्रेस ने यह भी तय किया कि जहाँ तक संभव हो, हिंदी को ही संपर्क भाषा के रूप में प्रयोग किया जाये। गांधीजी ने यह घोषणा की कि ‘‘ब्रिटिश जनता यह बात जान ले कि अगर वह न्याय नहीं करना चाहती तो साम्राज्य को नष्ट करना प्रत्येक भारतीय का परम कत्र्तव्य होगा।’’

नागपुर अधिवेशन का ऐतिहासिक महत्त्व इसलिए है क्योंकि कांग्रेस के इस अधिवेशन में वैधानिक साधनों के अंतर्गत स्वराज्य प्राप्ति के लक्ष्य को त्यागकर सरकार के सक्रिय विरोध करने की नीति को स्वीकार किया गया। इस तरह गांधीजी का उद्देश्य विभिन्न वर्गों और समुदायों का एक महागठबंधन तैयार करना था और इस अर्थ में कांग्रेस का नागपुर अधिवेशन राजनीतिक भारत के एक बहुलवादी ढांचे में एक केंद्रवादी नेतृत्व के उदय का सूचक थी। सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने कांग्रेस से अलग होकर ‘इंडियन नेशनल लिबरल फेडरेशन’ का गठन किया।

असहयोग आंदोलन का आरंभ और विस्तार

अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के आह्वान से प्रेरित और खिलाफत कमेटी द्वारा समर्थित इस मान्यताप्राप्त अखिल भारतीय आंदोलन की घोषणा से भारतवासियों में नई ऊर्जा का संचार हुआ। आंदोलन शुरू करने से पहले गांधीजी ने ‘कैसर-ए-हिंद’ पुरस्कार को लौटा दिया था। अन्य सैकड़ों लोगों ने भी गांधीजी के पदचिन्हों पर चलते हुए अपनी पदवियों एवं उपाधियों का त्याग कर दिया। जमनालाल बजाज ने ‘राय बहादुर’ की उपाधि वापस कर दी। गांधीजी ने खिलाफत नेता- अली बंधुओं के साथ पूरे देश का दौरा किया, सैकड़ों सभाओं में भाषण दिये और राजनीतिक कार्यकत्ताओं से भेंट किये।

असहयोग आंदोलन के प्रथम चरण में जनवरी से मार्च 1821 तक इस बात पर जोर दिया गया कि विद्यार्थी सरकारी नियंत्रणवाले विद्यालयों और महाविद्यालयों को और वकील वकालत को छोड़ दें। राष्ट्रीय विद्यालयों और महाविद्यालयों की पर्याप्त संख्या में स्थापना की गई- बिहार और उड़ीसा में 142, बंगाल में 190, बंबई में 189 और संयुक्त प्रांत में 137। अलीगढ़ में जामिया मिलिया इस्लामिया (राष्ट्रीय मुस्लिम विश्वविद्यालय), बिहार विद्यापीठ, काशी विद्यापीठ और गुजरात विद्यापीठ जैसी अनेक शिक्षण संस्थाओं का जन्म हुआ। राष्ट्रीय कालेजों एवं विश्वविद्यालयों में आचार्य नरेंद्रदेव, डा. जाकिर हुसैन और लाल लाजपत राय जैसे विख्यात लोग शिक्षक का कार्य किये। हजारों की संख्या में छात्रों ने सरकारी स्कूल-कालेज छोड़कर राष्ट्रीय स्कूलों और कालेजों में प्रवेश लिया।

पश्चिम बंगाल मे अप्रैल 1921 तक प्रतिमाह लगभग 20 प्रधानाध्यापक त्यागपत्र दे रहे थे और सरकारी अथवा गैर-सरकारी सहायताप्राप्त विद्यालयों के 1,03,107 विद्यार्थियों में से 11,157 विद्यालय छोड़ चुके थे। कलकत्ता के विद्यार्थियों ने राष्ट्रव्यापी हड़ताल की और माँग की कि स्कूलों के प्रबंधक सरकार से अपना रिश्ता तोड़ लें। सुभाषचंद्र बोस नेशनल कालेज कलकत्ता के प्रधानाचार्य बन गये। पंजाब में लाला लाजपत राय के नेतृत्व में विद्यार्थियों ने बड़े पैमाने पर शिक्षा का बहिष्कार किया। बंबई, उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा, असम में भी यह कार्यक्रम बहुत सफल रहा, किंतु मद्रास में इसे अधिक सफलता नहीं मिल सकी।

बंगाल के ‘देशबंधु’ चितरंजनदास, उत्तर प्रदेश के मोतीलाल नेहरू एवं जवाहरलाल नेहरू, गुजरात के विट्ठलभाई पटेल एवं वल्लभभाई पटेल, बिहार के राजेंद्र प्रसाद, मद्रास के चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, टी. प्रकाशम् और दिल्ली के आसफअली जैसे सैकड़ों वकीलों ने अपनी वकालतें छोड़ दी।

1920 के ऐतिहासिक प्रस्ताव में गांधीजी ने छुआछूत के कलंक से हिंदू धर्म को मुक्त कराने की एक अपील जोड़ी थी। शराब-विरोधी अभियान के कारण पंजाब, मद्रास, बिहार और उड़ीसा में आबकारी की आमदनी में काफी गिरावट आई। ताड़ी की दुकानों पर धरने से सरकार को बहुत आर्थिक नुकसान हुआ और वह मजबूर होकर इसके प्रचार में जुट गई।

विद्याथिर्यों, विशेषकर बुद्धिजीवियों को स्वेच्छा से चरखा कातने के लिए प्रेरित किया गया क्योंकि चरखा शहरी शिक्षित लोगों और ग्रामीण जन-सामान्य के बीच समरूपता का प्रतीक और स्वदेशी का त्वरित मार्ग था। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के विजयवाड़ा अधिवेशन (मार्च 1921 में) में कार्यकर्ताओं से कहा गया कि देश अभी सविनय अवज्ञा के लिए ‘पर्याप्त अनुशासित, संगठित और तैयार नहीं है’, और निर्णय लिया गया कि 30 जून तक ‘तिलक स्वराज्य कोष’ (1920) के लिए एक करोड़ की राशि एकत्रित की जाए, कांग्रेस में एक करोड़ सदस्यों की भरती की जाए और 20 लाख चरखे लगाये जाएं। महिलाओं ने तिलक स्वराज्य कोष के लिए बड़े उत्साह के साथ अपने गहनों और जेवरों का खुलकर दान किया।

बंबई में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की 28-30 जुलाई 1921 की बैठक में कांग्रेस ने विदेशी कपड़ों के बहिष्कार और प्रिंस आफ वेल्स के भावी आगमन के बहिष्कार का निर्णय किया। बहिष्कार कार्यक्रम के अंतर्गत पूरे देश में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई गई और खादी स्वतंत्रता का प्रतीक बन गई। 1920-21 में जहाँ एक अरब दो करोड़ रुपये मूल्य के विदेशी कपड़ों का आयात हुआ था, वहीं 1921-22 में यह घटकर 57 करोड़ हो गया। ब्रिटिश राज के तैयार सूती कपड़ों का आयात भी इस काल में 129.2 करोड़ गज से गिरकर 95.5 करोड़ गज रह गया।

अली बंधुओं ने 8 जुलाई 1921 को कराची खिलाफत कांग्रेस में मुसलमानों को सेना छोड़ देने का आह्वान किया था, जिसके कारण सितंबर में वे गिरफ्तार कर लिये गये। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के 47 वरिष्ठ नेताओं ने 4 अक्टूबर 1921 को एक बयान जारी किया, कि जो सरकार सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से भारत का उत्पीड़न कर रही है, उसकी सेवा कोई भारतीय न करे।

कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने 16 अक्टूबर 1921 को पूरे देश में विभिन्न कांग्रेस समितियों को अनुमति दे दी कि जब भी उन्हें लगे कि जनता कानून की अवज्ञा के लिए तैयार है, वे आंदोलन प्रारंभ कर सकती हैं और इसमें ‘करों का भुगतान न करने’ का आंदोलन भी शामिल किया जा सकता है।

1919 के सुधार अधिनियम के उद्घाटन के लिए 17 नवंबर 1921 को जब प्रिंस आफ वेल्स का बंबई में आगमन हुआ। 17 नवंबर को गांधीजी ने बंबई में एलफिंस्टन मिल के अहाते में मजदूरों की सभा में भाषण दिया और विदेशी कपड़ों की होली जलाई गांधीजी की सभा से लौटनेवालों और प्रिंस के स्वागत समारोह में भाग लेनेवालों में हिंसक टकराव में 58 लोग मारे गये। गांधीजी तीन दिन तक अनशन पर बैठे, तब हिंसा की आग ठंडी हुई।

असम में चाय बागान के श्रमिकों, स्टीमर पर काम करने वाले मजदूरों और असम-बंगाल रेलवे के कर्मचारियों ने भी हड़ताल की। सरकारी आंकड़ों के अनुसार 1921 में 396 हड़तालें हुईं, जिनमें नौ लाख मजदूर शामिल थे और इससे 70 लाख कार्य-दिवसों का नुकसान हुआ।

मिदनापुर (बंगाल) तथा गुंटूर (आंध्र) के चिराला-पिराला तथा पेडानंदीपाडू तालुका में यूनियन बोर्ड टैक्सेज के खिलाफ ‘कर अदा न करने’ का आंदोलन पहले से ही चल रहा था। संयुक्त प्रांत में अवध (उत्तर प्रदेश) के गाँवों और कस्बों में किसान आंदोलन 1918 से ही जोर पकड़ चुका था। बिहार के छोटानागपुर क्षेत्र में जनजातीय लोगों ने तानाभगत आंदोलन को जारी रखा। आंध्र के डेल्टा क्षेत्र और बंगाल के वन-सत्यागहों के रूप में शक्तिशाली आदिवासी आंदोलन उठे।

संयुक्त प्रांत की कुमायूँ और गढ़वाल पहाडि़यों में बद्रीदत्त पांडे के नेतृत्व में पहाड़ी जनजातियों ने राजा के विरुद्ध परंपरागत प्रतिरोध अर्थात् ‘ढंडक’ की परंपरा को जारी रखते हुए ‘उतार’ (बेगार) और दमनकारी वन्य-कानूनों के विरुद्ध एक जुझारू आंदोलन किये। बद्रीदत्त पांडे के अनुसार ‘‘अंग्रेजों के ‘बनियाराज’ पर अंकुश लगाने के लिए भगवान् ने एक और बनिया के रूप में एक रक्षक भेजा है।’’

असहयोग और खिलाफत आंदोलन ने केरल के मलाबार में खेतिहर मुसलमानों को उनके हिंदू भूस्वामियों (जेनमियों) के विरुद्ध संघर्ष छेड़ने के लिए प्रेरित किया। हिंदू जेनमियों द्वारा मुसलमान काश्तकारों और पट्टाधारियों के शोषण के सामाजिक संदर्भ और मुसलमानों की धार्मिक संघर्षशीलता की दीर्घ परंपरा को देखते हुए इस उपद्रव का ‘सांप्रदायिक’ होना अपरिहार्य था।

भारत में सांप्रदायिकता के उदय के कारण 

सरकार की प्रतिक्रिया

सरकार ने दिसंबर 1921 में आंदोलनकारियों के विरुद्ध दमनचक्र और तेज किया। स्वयंसेवी संगठनों को गैर-कानूनी घोषित कर दिया गया, उनकी बैठकों, सभाओं पर प्रतिबंध लगा दिया गया और अखबारों की आवाज बंद कर दी गई।

सरकार ने बंबई में एक प्रदर्शन को कुचलने का प्रयास किया, जिसमें 53 लोग मारे गये और लगभग 400 लोग घायल हो गये। आंदोलनकारियों को गिरफ्तार किया जाने लगा। सबसे पहले चितरंजनदास को गिरफ्तार किया गया और बाद में उनकी पत्नी बासंती देवी को।

1921 के अंत तक गांधीजी को छोड़कर सभी महत्त्वपूर्ण राष्ट्रवादी नेता और लगभग 30,000 अन्य लोग गिरफ्तार किये जा चुके थे। दिसंबर 1921 के अहमदाबाद कांग्रेस अधिवेशन में भावी रणनीति तय करने की पूरी जिम्मेदारी गांधीजी को सौंप दी गई। जनवरी 1922 में सर्वदलीय सम्मेलन की अपील और वायसराय के नाम गांधीजी के पत्र का भी सरकार पर कोई असर नहीं हुआ।

1 फरवरी 1922 को गांधीजी ने घोषणा की: ‘‘यदि सरकार राजनीतिक बंदियों को रिहाकर नागरिक स्वतंत्रता बहाल नहीं करती है और प्रेस पर से नियंत्रण नहीं हटाती है, तो वे देशव्यापी सविनय अवज्ञा आंदोलन छेड़ने के लिए बाध्य हो जायेंगे।’’ फरवरी 1922 में बारदोली (गुजरात) में प्रयोग के तौर पर मालगुजारी की ‘गैर-अदायगी’ का एक अभियान शुरू करने का निर्णय हुआ।

बारदोली का चुनाव संभवतः इसलिए किया गया कि वह रैयतवारी का क्षेत्र था, जहाँ कोई जमींदार नहीं था और इसलिए वहाँ यह खतरा नहीं था कि मालगुजारी की गैर-अदायगी का अभियान बढ़कर लगान की गैर-अदायगी का अभियान बन जायेगा और वर्गों के नाजुक गठबंधन को भंग कर देगा। गांधीजी ने देश की जनता से अपील की कि वह पूरी तरह अनुशासित और शांत रहे, ताकि सारा ध्यान बारदोली पर केंद्रित किया जा सके।

चौरीचौरा की घटना, 4 फरवरी 1922 

चौरीचौरा (गोरखपुर) में 4 फरवरी 1922 को पुलिस दमन, अनाज की बढ़ती हुई कीमतों और शराबखोरी के विरुद्ध कांग्रेस और खिलाफत के स्वयंसेवकों का एक संयुक्त जुलूस निकला, जिसमें 3,000 किसान भी शामिल थे।

खिलाफत और असहयोग आंदोलन (Khilafat and Non-Cooperation Movement)
चौरीचौरा की घटना का एक काल्पनिक चित्र

चौरीचौरा थाने की पुलिस ने स्वयंसेवकों के नेता भगवान अहीर की पिटाई कर दी और थाने के सामने विरोध प्रकट करने आई भीड़ पर गोलियाँ चलाई। स्वयंसेवकों की भीड़ बाजार की ओर बढ़ी, तो पुलिसवालों झड़प् हुई जिसमें पुलिस की गोली से खेलावन भर मारे गये। स्वयंसेवकों की भीड़ ने चौरीचौरा थाने में आग लगा दी, जिसमें थानेदार गुप्तेश्वर सिंह सहित 22 पुलिसकर्मी मारे गये।

सेशन कोर्ट ने चौरीचौरा कांड के 222 अभियुक्तों में से 172 को मृत्युदंड दिया था (अंततः 19 को फाँसी और शेष को देशनिकाला की सजा मिली)। बड़े दुख की बात है कि 22 पुलिसकर्मियों की जान के बदले 172 जानें लेने के प्रयास का राष्ट्रीय स्तर कोई विरोध नही हुआ। चौरीचौरा की घटना की सूचना मिलते ही गांधीजी ने आंदोलन को वापस लेने की घोषणा कर दी।

चौरीचौरा कांड की विसतृत जानकारी के लिए पढ़ें-

आंदोलन के स्थगन पर सुभाषचंद्र बोस का कहना था: ‘‘जिस समय जनता का उत्साह अपने चरमोत्कर्ष पर था, उस समय पीछे हटने का आदेश देना राष्ट्रीय दुर्भाग्य से कम नहीं था।’’ आंदोलन के अचानक स्थगन पर जवाहरलाल नेहरू ने कहा कि ‘‘यदि कन्याकुमारी के एक गाँव ने अहिंसा का पालन नहीं किया, तो इसकी सजा हिमालय के एक गाँव को क्यों मिलनी चाहिए?’’ गांधीजी को भय था कि जन-उत्साह और जोश के इस वातावरण में आंदोलन हिंसक मोड़ ले सकता है और देश में हिंसा का दौर प्रारंभ हो सकता है। गांधीजी की अहिंसा अंग्रेजी शासन के असीम ताकत के विरुद्ध एक कारगर शस्त्र के समान थी। इस शस्त्र (अहिंसा) के हाथ से निकलने का अर्थ था आंदोलन में हिंसा का आगमन। सरकार की सशस्त्र सेना हिंसक आंदोलन को आसानी से कुचल देती और इसके बाद वर्षों तक अंग्रेजी राज से लड़ पाना संभव नहीं रह जाता।

16 फरवरी 1922 के ‘यंग इंडिया’ में गांधीजी ने अहिंसा में अपनी दृढ़ निष्ठा को भावपूर्ण ढ़ंग से दोहराया था: ‘आंदोलन को हिंसक होने से बचाने के लिए मैं हर एक अपमान, हर एक यंत्रणा, पूर्ण बहिष्कार, यहाँ तक की मौत भी सहने को तैयार हूँ।’’ कांग्रेस कार्यकारिणी समिति की 12 फरवरी 1922 की बैठक ने आंदोलन की वापसी की पुष्टि की और तत्काल प्रत्येक प्रकार के आंदोलन को समाप्त कर देने की घोषणा की।

कांग्रेस कार्यकारिणी समिति ने कांग्रेसजनों से आग्रह किया कि अब वे अपना समय चरखे और खादी को लोकप्रिय बनाने, राष्ट्रीय विद्यालय चलाने, छुआछूत मिटाने, शराबबंदी के समर्थन में अभियान चलाने तथा हिंदू-मुस्लिम एकता को प्रोत्साहित करने जैसे रचनात्मक कार्यों में लगायें। कांग्रेस कार्यकारिणी समिति ने इस बात पर भी जोर दिया था कि ‘‘जमींदारों का लगान रोकना कांग्रेस के प्रस्तावों के विरुद्ध है’’ और जमींदारों को आश्वासन दिया गया कि ‘‘कांग्रेसी आंदोलन का इरादा किसी भी प्रकार उनके वैध अधिकारों का अतिक्रमण करना नहीं है।’’

कांग्रेसी नेतृत्ववाले असहयोग आंदोलन की आधिकारिक वापसी के बाद भी बंगाल, बिहार और उड़ीसा के कुछ भागों में आंदोलन जारी रहे। खेड़ा के अनेक गाँवों में ‘मालगुजारी रोको आंदोलन’ चलता रहा, जबकि संयुक्त प्रांत में मदारी पासी के नेतृत्व में एका आंदोलन चला। गांधीजी ने बारंबार चेतावनी दी थी कि वे केवल एक विशिष्ट प्रकार के और नियंत्रित जन-आंदोलन का ही नेतृत्व करने के लिए तैयार हैं, और वर्ग-संघर्ष या सामाजिक क्रांति में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है।

मुस्लिम जनता को जिस प्रतीक ‘खिलाफत’ (खलीफा का पद) के आधार पर लामबंद किया गया था, वह मुस्तफा कमाल पाशा की राष्ट्रवादी क्रांति (1924) और खिलाफत की समाप्ति के बाद महत्त्वहीन हो गया। मांटेग्यू और बिरकनहेड ने चुनौती दी कि भारत दुनिया की सबसे शक्तिशाली सत्ता को चुनौती नहीं दे सकता और अगर चुनौती दी गई, तो इसका उत्तर पूरी ताकत से दिया जायेगा।

गांधीजी ने 23 फरवरी को ‘यंग इंडिया’ में मांटेग्यू और बिरकनहेड की चुनौती का उत्तर दिया: ‘‘अंग्रेजों को यह जान लेना चाहिए कि 1920 में छिड़ा संघर्ष अंतिम संघर्ष है, निर्णायक संघर्ष है; फैसला होकर रहेगा, चाहे एक महीना लग जाए या एक साल लग जाए, कई महीने लग जायें या कई साल लग जायें, ब्रिटिश सरकार चाहे उतना ही दमन करे, जितना 1857 के विद्रोह के समय किया था, फैसला होकर रहेगा।’’

असहयोग आंदोलन की प्रकृति और सीमाएँ

असहयोग आंदोलन ने भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग रूप धारण किया। आंदोलन आरंभ में शहरों और कस्बों तक सीमित रहा और मुख्यतः उच्च एवं मध्यवर्ग की भागीदारी पर निर्भर था।

आरंभ में उच्च एवं मध्य वर्ग से आत्म-बलिदान की अपील का विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। 5,186 उपाधि-धारकों में से केवल 24 ने ही उनका परित्याग किया। मार्च 1921 तक वकालत छोड़नेवाले वकीलों की संख्या केवल 180 थी। मद्रास में बहुत कम उम्मीदवारों ने नामांकन वापस लिये और जस्टिस पार्टी को विधायिका में बहुमत मिला।

मद्रास में ब्राह्मणों और गैर-ब्रह्मणों में टकराव के कारण जस्टिस पार्टी, कांग्रेस और उसके असहयोग आंदोलन के खिलाफ तथा मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों के पक्ष में खड़ी रही। शिक्षा के बहिष्कार का आह्वान बंगाल में अधिक सफल रहा। किंतु राष्ट्रीय स्कूलों, पंचायती अदालतों और खादी के विचार को भी हर जगह सफलता नहीं मिली।

अधिकांश क्षेत्रों में खादी मिल के कपड़े से 30-40 प्रतिशत अधिक महंगी होती थी, जिसके कारण यह गरीब जनता में लोकप्रिय नहीं हुई। 1905-08 की तुलना में आर्थिक बहिष्कार कहीं अधिक तीव्र और सफल हुआ। 1920 में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के कोष में केवल 43,000 रुपये ही थे, किंतु 1921-22 की अवधि में 130 लाख रुपये जुटाने में सफल रही। तिलक स्वराज कोष की निर्धारित 1 करोड़ रुपये की राशि में 37.5 लाख रु. की उगाही बंबई शहर से ही हुई थी।

बड़े भारतीय पूँजीपति आरंभ से ही असहयोग आंदोलन के विरोध में थे और 1920 में पुरुषोत्तमदास ठाकुरदास, जमनादास द्वारकादास, कावसजी जहांगीर, फीरोज सेठना और सीतलवाड़ जैसे पूँजीपतियों ने एक असहयोग आंदोलन-विरोधी सभा की स्थापना की थी। 1921 के दौरान 376 हड़तालें हुईं जिनमें 6,00,351 मजदूर शामिल हुए और 69,94,426 कार्य-दिवसों की हानि हुई। गांधीजी ने 16 फरवरी 1921 को ‘यंग इंडिया’ में लिखा था कि ‘अहिंसक असहयोग आंदोलन की योजना में हड़तालों के लिए कोई स्थान नहीं है।’’

बंगाल जैसे क्षेत्रों में लामबंदी एक सीमा तक स्थानीय नेताओं, जैसे चितरंजनदास के निजी प्रभाव पर निर्भर रही। असहयोग आंदोलन सर्वाधिक प्रभावशाली वहीं रहा, जहाँ किसान पहले से संगठित थे, जैसे अवध के जिलों में ताल्लुकदारों के विरुद्ध 1918-19 से ही एक गरम आंदोलन चल रहा था। अवध में जून 1919 तक किसान सभा की 450 शाखाएँ थीं और संयुक्त प्रांत में कांग्रेस ने इस आंदोलन को असहयोग आंदोलन से जोड़ने का प्रयास किया। बिहार में कांग्रेस का आंदोलन उन्हीं क्षेत्रों में शक्तिशाली था, जहाँ पहले निलहे-विरोधी आंदोलन, स्वामी विश्वानंद का अभियान और किसान सभा के कार्यकलाप चल चुके थे। बंगाल के मेदिनीपुर में महिष्य किसान स्थानीय नेता बी.एन. ससमाल द्वारा 1919 में यूनियन बोर्ड के करों के विरुद्ध संगठित किये गये थे। उड़ीसा के कुछ क्षेत्रों में, जैसे कणिका में, किसान ‘मेलियो’ अर्थात् सामंत-विरोधी प्रदर्शनों की परंपरा उन्नीसवीं सदी से ही चलती आ रही थी। गुजरात के खेड़ा जिले में पाटीदार किसान 1918 में ही एक ‘मालगुजारी रोको’ अभियान’ चला चुके थे। दक्षिण भारत में आंध्र्र डेल्टा के गोदावरी, कृष्णा और गुंटूर जिले में दिसंबर 1921 और फरवरी 1922 के बीच एक ‘संक्षिप्त और स्फूर्त’ मालगुजारी रोको अभियान चला। अवध क्षेत्र में 1921-22 की सर्दियों में जब ताल्लुकदारों की संपत्तियों पर हमले बढ़े, तो गांधीजी ने संयुक्त प्रांत का दौरा किया और किसानों की आलोचना की ।

गोरखपुर के किसानों की नजरों में गांधीजी रोजमर्रा के दमन से मुक्ति के प्रतीक थे। किसानों के लिए ‘स्वराज्य’ का मतलब एक स्वर्गलोक था, जहाँ कोई लगान, कोई मालगुजारी, कर्जों की अदायगी, जमींदार और ताल्लुकदार नहीं होंगे। बंगाल के मेदिनीपुर जिले में शैलजानंद सेन जैसे स्थानीय नेताओं ने यूरोपीय जमींदारों और उपनिवेशी राजसत्ता के विरुद्ध आदिवासियों को 1921 में दोबारा संगठित किया। आंध्र की गुडेम पहाडि़यों में गांधीजी से प्रभावित एक नेता सीताराम राजू ‘अल्लूरी’ ने आदिवासियों के बीच संयम और खादी के संदेश का प्रचार किया और ‘फितूरी’ की परंपरा को आधार बनाकर जनवरी 1922 में छापामार युद्ध शुरू कर दिया।

बंगाल के आदिवासियों में यह अफवाह थी कि यदि वे गांधी टोपी पहनेंगे या गांधीजी का नाम लेंगे तो पुलिस की गोलियाँ उनका कुछ नहीं बिगाड़ पायेंगी। उत्तरी बिहार में निचली जातियों के जुझारू किसानों ने बाजार लूटने की अनेक घटनाओं को अंजाम दिया।

सरकार ने 10 मार्च 1922 को गांधीजी को गिरफ्तार कर लिया और ‘यंग इंडिया’ में प्रकाशित उनके लेखों में से तीन को छांटकर उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया। गांधीजी ने मुकदमे के दौरान समस्त आरोपों को स्वीकार करते हुए एक लंबा ऐतिहासिक बयान दिया: ‘‘अतः मैं यहाँ आया हूँ और अपने-आपको प्रसन्नतापूर्वक उस कठोरतम दंड के लिए प्रस्तुत करता हूँ जो कानून की दृष्टि में सायास अपराध किये जाने पर दी जाती है, किंतु जो मेरी दृष्टि में एक नागरिक का सर्वाच्च कर्तव्य है।’’ न्यायाधीश ब्लूमफील्ड ने गांधीजी छः साल की कैद की सजा सुनाई।

असहयोग आंदोलन में खिलाफत का औचित्य

गांधी ने एक ऐसे आंदोलन द्वारा राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए मुसलमानों का सहयोग चाहा, जो संभवतः भारत की स्वतंत्रता आंदोलन के लिए उचित नहीं था। कांग्रेस-खिलाफत गठबंधन केवल सुविधा पर आधारित था, दोनों पक्षों ने भारत को बहुराष्ट्रीय देश माना और यदि गांधी ने सर्व-इस्लामियत को अखिल भारतीय उद्देश्यों के लिए प्रयोग करने का प्रयास किया, तो अलीबंधुओं ने अखिल भारतीयता को सर्व-इस्लामी उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल किया। भारतीय मुसलमानों का विचार था कि वे तुर्की के मुसलमानों के हित में ऐसा कर रहे हैं, जबकि तुर्की के मुसलमान इसका उपहास करते हुए इसे ‘मध्ययुगीन भौंड़ापन’ कहते थे।

गांधीजी की दृष्टि में हिंदू-मुस्लिम एकता के बिना स्वराज्य प्राप्त करना असंभव था। उन्होंने ‘यंग इंडिया’ में स्वयं कहा था: ‘‘मैं जिन्ना के विचार से सहमत हूँ कि हिंदू-मुसलमान एकता का अर्थ स्वराज्य है।’’ धार्मिक चेतना के राजनीति में समावेश से अंततः सांप्रदायिक शक्तियाँ मतबूत हुईं, लेकिन राष्ट्रवादी आंदोलन द्वारा मुसलमानों की एक माँग उठाना कोई गलत नहीं था। यह राष्ट्रवादी नेतृत्व की असफलता थी कि वह मुसलमानों की धार्मिक राजनीतिक चेतना को धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक चेतना में बदल नहीं सका।

ब्रिटिश सरकार ‘फूट डालो और राज करो’ की अलगाववादी घृणित नीति का अनुसरण कर रही थी। सरकार चाहती थी कि हिंदू और मुसलमान, दोनों संप्रदाय एक-दूसरे से अलग-थलग बने रहें, ताकि अंग्रेजी साम्राज्य निष्कंटक चलता रहे।

खिलाफत के प्रश्न ने गांधीजी के समक्ष हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए एक उचित अवसर प्रदान किया और इसका उपयोग उन्होंने भारतीय राष्ट्रवाद को सशक्त बनाने के लिए किया। गांधीजी ने यह आशा की थी कि असहयोग को खिलाफत के साथ मिलाने से हिंदू और मुसलमान मिलकर औपनिवेशिक शासन का अंत कर देंगे। जिन्ना का मानना था कि ‘‘स्वराज्य प्राप्त करने की एक आवश्यक शर्त है हिंदू व मुसलमानों की राजनीतिक एकता। मैं कह सकता हूँ कि जिस दिन हिंदू-मुस्लिम एकता स्थापित हो जायेगी, उस दिन उत्तरदायी सरकार सहित डोमिनियन स्टेट्स मिल जायेगा।’’

असहयोग आंदोलन में खिलाफत के कारण नगरों के मुसलमान राष्ट्रीय आंदोलन में सम्मिलित हुए और देश में राष्ट्रवादी उल्लास और उत्साह का वातावरण बना। खिलाफत आंदोलन ने मुसलमानों में साम्राज्यवाद-विरोधी भावनाओं के प्रसार का प्रसार किया।

असहयोग आंदोलन का महत्त्व

असहयोग आंदोलन शांति की दृष्टि से नकारात्मक, किंतु प्रभाव की दृष्टि से सकारात्मक था। असहयोग आंदोलन उपनिवेशी शासन के विरुद्ध पहला राष्ट्रव्यापी जन-आंदोलन था। इस राष्ट्रव्यापी आंदोलन में देश के दूर-दराज के क्षेत्रों के हजारों स्त्री-पुरुष, शहरी और ग्रामीण शामिल हुए और भारतीय समाज के प्रायः सभी वर्गों का राजनीतिकरण हुआ।

असहयोग आंदोलन में किसान, मजदूर, आदिवासी और कुछ क्षेत्रों में अछूत भी शामिल हुए। पूरे देश की जनता के व्यापकतर राजनीतिकरण और उनकी सक्रियता ने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को क्रांतिकारी चरित्र प्रदान किया। असहयोग आंदोलन ने अंग्रेजों की इस धारणा को तोड़ दिया कि भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना का अभाव है और दासता की त्रासदी को वे अपने भाग्य की नियति मानते हैं। वस्तुतः 1857 के बाद पहली बार असहयोग आंदोलन ने अंग्रेजी राज की नींव को हिला दिया।

भारत में ब्रिटिश शासन दो धारणाओं पर आधारित था- एक तो अंग्रेज भारतीयों के हित में भारत पर शासन कर रहे हैं, और दूसरे यह कि ब्रिटिश सत्ता अजेय है और इसे उखाड़ फेंकना संभव नहीं है। पहली धारणा को नरमपंथी राष्ट्रवादियों ने औपनिवेशिक शासन की अर्थशास्त्रीय आलोचना करके तोड़ दिया था।

राष्ट्रीय आंदोलन के इस सामूहिक चरण में आंदोलनकारियों ने इस आलोचना को भाषणों, पर्चों गीतों, प्रभात-फेरियों और समाचार-पत्रों के द्वारा दूर-दूर तक पहुँचा दिया। ब्रिटिश शासन की अजेयता की धारणा को सत्याग्रह और जन-संघर्ष ने चुनौती दिया। असहयोग आंदोलन के कारण भारतीय जनता के मन से भय की भावना दूर हो गई। अंग्रेजों के सर्वव्यापी भय के विरुद्ध गांधीजी की शांत और दृढ़वाणी गूँज उठी, ‘‘भय न करो।’’

मलाबार की घटनाओं के बावजूद इस आंदोलन में बड़े पैमाने पर मुसलमानों की भागीदारी और सांप्रदायिक एकता कोई छोटी उपलब्धि नहीं थी। खिलाफत और असहयोग आंदोलनों नेएक लोकप्रिय कार्यवाही के बहाव को उन्मुक्त किया जो औपनिवेशिक शासन के लिए पूर्णतया अभूतपूर्व था।

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