राष्ट्रीय आंदोलन में गांधीजी का आगमन (Gandhiji’s Arrival in the National Movement)

राष्ट्रीय आंदोलन में गांधीजी का आगमन

भारत के राष्ट्रीय आंदोलन में मोहनदास करमचंद गांधी के प्रवेश के साथ ही भारतीय राष्ट्रवाद के जनाधार और लोकप्रियता में अपार वृद्धि हुई, जिससे जन-राष्ट्रवाद का उदय हुआ। गांधीवादी राष्ट्रवाद मात्र भारत की राजनैतिक आजादी तक ही सीमित नहीं रहा। इस विशिष्ट राष्ट्रवाद ने भारत की आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक तथा सामाजिक क्रांति का एक नवीन दर्शन भी निरूपित किया। भारत की राजनैतिक आजादी मात्र इसकी पहली सीढ़ी थी। इस सर्वांगीण क्रांति के दर्शन को गांधी ने ‘अहिंसा’ के चरखे पर ‘सत्य’ के धागों से बुना था। गांधीजी के इस क्रांतिकारी खादीवादी समाज में औद्योगिक, राजनैतिक तथा धार्मिक पूँजीवाद के लिए कोई स्थान नहीं था। इस समाज तक पहुँचने का एक मात्र गांधीवादी मार्ग ‘सत्याग्रह’ था।

महात्मा गांधी यद्यपि गोखले को अपना राजनीतिक गुरु मानते थे, पर वह तिलक से भी दूर नहीं थे। गांधीजी गोखले की भांति नरमपंथी भी नहीं थे, परंतु तिलक की भांति वह समाज सुधार की भावनाओं से अलग भी नहीं थे। उन्होंने गोखले और तिलक दोनों की परंपराओं में सामंजस्य स्थापित कर दोनों का एक साथ संतुलित विकास किया। लेकिन गांधी यहीं पर नहीं रुके, बल्कि इसके आगे बढ़कर उन्होंने कुछ ऐसे मौलिक सिद्धांतों तथा राजनीतिक प्रयोगों की नींव भी रखी, जिन्होंने गांधी को ‘महात्मा’ और ‘युग-पुरुष’ बना दिया। उनके सत्य और अहिंसा के सिद्धांतों ने भारत की धार्मिक जनता को एक ऐसा अस्त्र दे दिया, जो उनकी परंपरावादी भावनाओं को संतुष्ट रखते हुए भी, उन्हें पूर्ण राजनैतिक व्यक्ति में परिवर्तित कर देते थे। शीघ्र ही गांधी के विचारों ने एक विचारधारा का रूप ले लिया, जो धार्मिक न होते हुए भी धर्म के समान ही प्रभावशाली था।

राष्ट्रीय आंदोलन में गांधीजी का आगमन (Gandhiji's Arrival in the National Movement)
मोहनदास करमचंद गांधी और कस्तूरबा गांधी

गांधी के आगमन की पृष्ठभूमि

विश्वयुद्ध की परिस्थितियाँ

भारतीय राष्ट्रवाद के एक निर्विवाद नेता के रूप में गांधी के उदय के लिए प्रथम विश्वयुद्ध नेे अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न की। प्रथम महायुद्ध के दौरान (1914-18) एक नई स्थिति विकसित हो रही थी। भारतीय राष्ट्रवाद परिवक्व होकर और शक्तिशाली हो चुका था। राष्ट्रवादियों को युद्ध के बाद बड़े राजनीतिक लाभ मिलने की आशाएँ थीं और वे आशाएँ पूरी न होने पर लड़ने को भी तैयार थे। महायुद्ध के बाद के वर्षों में आर्थिक स्थिति और बिगड़ गई। पहले कीमतें बढ़ीं और फिर आर्थिक गतिविधियाँ मंद पड़ने लगीं। युद्ध के दौरान विदेशी आयात रुक जाने के कारण भारतीय उद्योग फले-फूले थे, किंतु अब उनको घाटे होने लगे और वे बंद होने लगे। इसके अलावा, भारत में अब विदेशी पूँजी बड़े पैमाने पर लगाई जाने लगी। भारतीय उद्योगपति चाहते थे कि सरकार आयातों पर भारी शुल्क लगाकर तथा भारतीय उद्योगों को संरक्षण देकर उनकी सहायता करे। लेकिन अब उन्हें यह महसूस होने लगा था कि एक स्वाधीन भारतीय सरकार के द्वारा ही ये लक्ष्य प्राप्त किये जा सकते हैं। नगरों के शिक्षित भारतीय भी बढ़ती बेरोजगारी से त्रस्त थे। महँगाई और बेरोजगारी की मार से मजदूर एवं दस्तकार भी पीडि़त थे। बढ़ती गरीबी और भारी करों के बोझ से कराहते किसान भी किसी कुशल नेतृत्व की प्रतीक्षा में थे। इस प्रकार भारतीय समाज के सभी वर्ग आर्थिक कठिनाइयाँ महसूस कर रहे थे और इन कठिनाइयों को सूखों, महँगाई और महामारियों ने और बढ़ा दिया था। 1921 की जनगणना के अनुसार 1918-19 में अकाल और महामारी के कारण 12 लाख से 1 करोड़ 30 लाख लोग मारे गये, जिससे देश की स्वाभाविक जनसंख्या वृद्धि रुक गई।

अंग्रेजों की सैन्य-श्रेष्ठता के मिथक का खंडन

महायुद्ध के कारण अंग्रेजों की सांस्कृतिक तथा सैन्य-श्रेष्ठता का मिथक टूट गया था। यूरोपीय शक्तियाँ साम्राज्यवाद के आरंभ से ही अपनी सत्ता बनाये रखने के लिए जातीय-सांस्कृतिक श्रेष्ठता का दंभ भर रही थीं। युद्ध के दौरान दोनों पक्षों ने एक-दूसरे के विरुद्ध धुआँधार प्रचार किया और अपने विरोधियों द्वारा उपनिवेशों में बर्बर और असभ्य व्यवहार का पर्दाफाश किया। इससे जनता के मन से गोरों की श्रेष्ठता का भय जाने लगा था।

एशिया और अफ्रीका में राष्ट्रवाद का उदय

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रथम महायुद्ध ने संपूर्ण एशिया और अफ्रीका में भी राष्ट्रवाद का अलख जला दिया था। मित्र-राष्ट्रों ने जन-समर्थन पाने के लिए दुनिया के सभी राष्ट्रों के लिए जनतंत्र तथा राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के एक नये युग को आरंभ करने का वादा किया था, किंतु युद्ध-समाप्ति के बाद साम्राज्यवादियों ने पेरिस शांति-सम्मेलन और दूसरी संधियों के द्वारा न केवल युद्धकालीन वचनों को विस्मृत कर दिया, वरन् उन्हें तोड़ा भी। पराजित शक्तियों अर्थात् जर्मनी और तुर्की के सारे उपनिवेशों को विजेताओं ने आपस में बाँट लिया। इससे एशिया तथा अफ्रीका में हर जगह साम्राज्यवाद-विरोधी जुझारू और भयमुक्त राष्ट्रवाद उठ खड़ा होने लगा था।

रूस की अक्टूबर क्रांति

रूसी क्रांति के प्रभाव से भी राष्ट्रीय आंदोलनों को बड़ा बल मिला। रूस में बोल्शेविक पार्टी ने ब्लादिमीर इल्यिच लेनिन के नेतृत्व में 7 नवंबर, 1917 (अक्टूबर क्रांति) को जार का तख्ता पलट दिया और वहाँ दुनिया के पहले समाजवादी राज्य ‘सोवियत संघ’ की स्थापना की घोषणा की। चीन और एशिया के दूसरे भागों में अपने साम्राज्यवादी अधिकारों को एकतरफा तौर पर छोड़कर, एशिया में जार के पुराने उपनिवेशों को आत्मनिर्णय का अधिकार देकर, नई सोवियत सत्ता ने उपनिवेशों की जनता में बिजली की लहर दौड़ा दी। रूस की क्रांति ने उपनिवेशों की जनता में एक नई जान फूँकी। इसने उपनिवेशों की जनता को यह महान् पाठ पढ़ाया कि साधारण जनता में बेपनाह शक्ति निहित होती है। अगर निहत्थे किसान और मजदूर अपने यहाँ के अत्याचारियों के खिलाफ एक क्रांति कर सकते हैं तो गुलाम राष्ट्रों की जनता भी अपनी आजादी के लिए लड़ सकती है, बशर्ते कि वह भी उतनी ही एकताबद्ध, संगठित और आजादी के लिए लड़ने पर दृढ़ हो।

एशिया और अफ्रीका के दूसरे भागों में हो रहे राष्ट्रवादी आंदोलनों ने भी भारत के राष्ट्रवादी आंदोलन को प्रभावित किया। इस समय भारत में ही नहीं, आयरलैंड, तुर्की, मिस्र तथा अफ्रीका और पश्चिम एशिया के दूसरे अरब देशों- ईरान, अफगानिस्तान, बर्मा, मलाया, इंडोनेशिया, हिंदचीन, फिलीपीन, चीन और कोरिया में भी राष्ट्रवाद की लहर चल रही थी।

सरकार-विरोधी भावनाओं का उभार

विश्व के अन्य पराधीन देशों की भांति भारत में भी राष्ट्रवादी और सरकार-विरोधी भावनाएँ उभार पर थीं और भारत सरकार भारतीयों को संतुष्ट करने के साथ-साथ दमन के लिए भी तैयार थी। पूरे विश्वयुद्ध के दौरान राष्ट्रवादियों का दमन जारी रहा था। क्रांतिकारियों को खोज-खोजकर फाँसी पर लटकाया या जेलों में बंद किया गया था। अबुलकलाम जैसे दूसरे अनेक राष्ट्रवादी जेलों में बंद कर दिये गयेे थे। 1918 में ब्रिटिश सरकार ने मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड के माध्यम से सुधारों की जो योजना रखी थी, भारतीय राष्ट्रवादीं उसे ‘निराशाजनक और असंतोषजनक’ बताकर उसकी जगह प्रभावी स्वशासन की माँग कर रहे थे। सरकार को लग रहा था कि स्थिति किसी भी समय विस्फोटक हो सकती है। इसलिए सरकार ने राष्ट्रवादियों को कुचलने के लिए स्वयं को रौलट ऐक्ट के माध्यम से ऐसी भयानक शक्तियों से लैस करने का फैसला किया, जो कानून के शासन के स्वीकृत सिद्धांतों के प्रतिकूल थी।

रौलट ऐक्ट के विरुद्ध असंतोष

विश्वयुद्ध के दौरान सरकार ने जनतंत्र का विस्तार करने का वादा किया था, लेकिन रौलट कानून तो एक बेरहम मजाक था, जैसे कि किसी भूखे आदमी को भोजन की आशा हो, और उसे कंकड़ परोस दिया जाए। रौलट ऐक्ट के विरुद्ध सारे देश में असंतोष फैल गया और इस कानून के खिलाफ एक शक्तिशाली आंदोलन उठ खड़ा हुआ। इस आंदोलन के दौरान मोहनदास करमचंद गांधी ने राष्ट्रीय आंदोलन की बागडोर सँभाल ली। दक्षिण अफ्रीका में नस्लवाद से लड़ते हुए उन्होंने संघर्ष का एक नया रूप ‘असहयोग’ और एक नई तकनीक ‘सत्यागह’ का विकास किया था, जिसे अब भारत में अंग्रेजों के खिलाफ आजमाया जा सकता था। गांधी को भारत की बहुलवादी संस्कृति की बुनियादी समझ थी, इसलिए वे अपने लोक-चेतना अभियान में भारतीय जनता के सभी वर्गों- किसानों, मजदूरों और महिलाओं में राजनीतिक चेतना को उभारकर और उनमें एका कायम करके उन्हें राष्ट्रीय आंदोलन की मुख्यधारा में लाने में सफल रहे।

महात्मा गांधी का आरंभिक जीवन

गुजरात के पोरबंदर नामक नगर के एक समृद्ध वैश्य परिवार के सदस्य करमचंद गांधी तथा उनकी पत्नी पुतलीबाई ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि 2 अक्टूबर 1869 को जन्म लेनेवाला उनका पुत्र अल्फ्रेड, वाशिंगटन तथा लैफ्टे की तरह एक महानतम् व्यक्ति होगा। पोरबंदर के प्रधानमंत्री करमचंद के परिवार में जैन, हिंदू और मुस्लिम संस्कृतियों का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता था। भारत के इस दूरस्थ प्रांत पर अरब व्यापारियों तथा मुस्लिम शासकों के लंबे संबंधों ने स्थायी प्रभाव छोड़ा था। विष्णुभक्त करमचंद की पत्नी पुतलीबाई स्वयं ‘प्रणामी संप्रदाय’ से थीं, जिसमें हिंदू और मुस्लिम आस्थाओं का अभूतपूर्व संमिश्रण था। इनके मूर्तिरहित मंदिरों में वैष्णव-ग्रंथों के साथ कुरान को भी समान सम्मान और आस्था के साथ रखा जाता था। करमचंद का परिवार काठियावाड़ के बहुसंख्यक जैनों के संपर्क में भी था, जिनके धर्म का मुख्य आधार अहिंसा रहा है। किंतु गांधीजी शायद ही धार्मिक व्यक्ति के रूप में विकसित हुए थे, क्योंकि घर में माता के पास सदैव रहनेवाली ‘भगवद्गीता’ भी उन्होंने पहली बार लंदन प्रवास के दौरान ही पढी़ थी।

भारत में अपनी प्रारंभिक शिक्षा समाप्त कर मोहनदास बैरिस्टर बनने के लिए इंग्लैंड गये, जहाँ उनके सामान्य व्यक्तित्व में एक असाधारण मानव का बीज आरोपित हुआ। सबसे पहले वह थियोसोफिस्टों के संपर्क में आये, जिनके परामर्श पर उन्होंने सर एडविन आर्नल्ड द्वारा अनुवादित ‘भगवद्गीता’ का अध्ययन किया। गीता के ‘कर्म-सिद्धांत’ ने उनके अंदर एक आधुनिक कर्मयोगी की नींव डाल दी। आर्नल्ड की कविता ‘दि लाइट आॅफ एशिया’ को पढ़कर वे पहली बार बुद्ध की शिक्षाओं से परिचित हुए। बुद्ध की अहिंसा, कृष्ण के कर्मयोग से मिलकर गांधी के राजनैतिक दर्शन में बदल गई। फिर वह बाईबिल के ‘न्यू टेस्टामेंट’ तथा माईकल कारलाइल द्वारा लिखित ‘हीरोज, हरोइक एंड हीरो वर्शिप’ में वर्णित मुहम्मद साहब के जीवन से मानव-प्रेम तथा संन्यास की ओर प्रेरित हुए। ‘सरमन आन दि माउंट’ की ईसाई नैतिकता ने उनके दर्शन और गतिविधियों को आजीवन प्रभावित किया।

इंग्लैंड से बैरिस्टरी की पढ़ाई समाप्त कर गांधीजी भारत आये और यहाँ दक्षिण अफ्रीका के प्रवासी भारतीयों के मध्य काम करने के दौरान टालस्टाय की ‘किंगडम आफ गाड इज विदिन यू’, रस्किन की ‘अनटू दिस लास्ट’ तथा हेनरी डेविड थोरो की ‘सिविल डिसआबिडियेंस’ पढ़ी। इन तीनों ने गांधीजी के जीवन और दर्शन को बहुत गहराई से प्रभावित किया।

गांधीजी के आरंभिक आंदोलन और जालियांवाला बाग हत्याकांड 

दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी

गांधीजी की विचारधारा को आधार प्रदान करने में उनके दक्षिण अफ्रीका (1893-1914) के अनुभवों का अनेक रूपों में योगदान था। मोहनदास करमचंद गांधी 24 वर्ष की उम्र में 1893 में गुजरात के एक व्यापारी दादा अब्दुल्ला का मुकदमा लड़ने दक्षिण अफ्रीका (डरबन) गये। दक्षिण अफ्रीका की धरती पर पैर रखनेवाले वह पहले भारतीय बैरिस्टर थे, जिन्हें उच्च शिक्षा प्राप्त थी।

राष्ट्रीय आंदोलन में गांधीजी का आगमन (Gandhiji's Arrival in the National Movement)
दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी

भारतीयों का पहला दल दक्षिण अफ्रीका में 1860 में पहुँचा था। वहाँ के गोरे, गन्ने की खेती करने के लिए इकरारनामे के तहत भारतीय मजदूरों को अपने साथ ले गये थे। इसके बाद दक्षिण अफ्रीका में भारतीय मजदूरों और व्यापारियों के बसने का सिलसिला आरंभ हो गया था।

दक्षिण अफ्रीका में एशियाई मजदूर प्रजातीय उत्पीड़न तथा भेदभाव के शिकार थे। गांधीजी दो बार स्वयं नस्लीय भेदभाव के शिकार हुए। एक बार डरबन के न्यायालय में, जब यूरोपियन मजिस्ट्रेट ने उन्हें साफा उतारकर आने के लिए कहा और एक बार तब, जब उन्हें डरबन-प्रिटोरिया रेल-यात्रा में आधी रात को एक यूरोपियन यात्री ने प्रथम श्रेणी के डिब्बे से निकाल दिया। यद्यपि इन दोनों अवसरों पर गांधीजी ने स्वामिभान के साथ अन्याय का विरोध किया, किंतु दक्षिण अफ्रीका में 75,000 भारतीय कुलियों ‘सामीयों’ के लिए ऐसा स्वाभिमान दिखाना तो दूर, सोचना भी सपनों से बाहर की बात थी। ट्रांसवाल, स्वतंत्र आरेंज राज्य, प्रिटोरिया तथा नटाल, हर जगह का वातावरण भारतीयों के लिए विषाक्त हो गया था। तेईस वर्षीय गांधी ने प्रिटोरिया पहुँच कर भारतीयों की एक सभा आयोजित कर उनको अपनी आदतें सुधारने, अंग्रेजी सीखने और अपने अधिकारों की सुरक्षा के लिए गोरों के अत्याचार का विरोध करने की अपील की। उन्होंने प्रेस के माध्यम से भी अपना विरोध दर्ज कराया। ‘नटाल एडवरटाईजर’ को एक चिट्ठी में उन्होंने लिखा: ‘‘क्या यही ईसाइयत है, यही मानवता है, यही न्याय है, इसी को सभ्यता कहते हैं?’’ उन्होंने प्रिटोरिया में भारतीयों को ‘रंगभेद की नीति’ के खिलाफ अपने अधिकारों के लिए संगठित होकर संघर्ष करने की प्रेरणा दी। गांधीजी के प्रोत्साहन से ही एक भारतीय द्वारा मुकदमा किये जाने के बाद ट्रेनों में पक्षपातपूर्ण व्यवहार करनेवाला कानून बंद किया गया।

मुकदमा समाप्त होने पर गांधीजी भारत लौटने की तैयारी में थे, तभी उन्हें पता चला कि भारतीयों को मताधिकार से वंचित करनेवाला एक विधयेक नटाल विधानमंडल में पारित होनेवाला है। दक्षिण अफ्रीका में बसे भारतीयों की प्रार्थना पर विधेयक के खिलाफ आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए गांधीजी महीने भर रुकने के लिए तैयार हो गये, किंतु ‘रंगभेद’ के खिलाफ आंदोलन का लड़ने के लिए उन्हें पूरे 20 वर्ष तक रुकना पड़ा।

1894 से 1906 तक एक उदीयमान वकील एवं राजनीतिज्ञ के रूप में गांधीजी नेटाल में भारतीयो को प्रभावित करनेवाले नस्लीय भेदभाव के विरुद्ध प्रार्थना एवं याचना की सामान्य नरमदलीय तकनीकों का ही प्रयोग करते रहे थे। उन्होंने 1894 में ‘नटाल भारतीय कांग्रेस’ का गठन किया, 1904 में ‘इंडियन ओपिनियन’ नामक पत्र निकालना शुरू किया और ‘फिनिक्स फार्म’ की स्थापना की। गांधीजी समझते थे कि जब ब्रिटिश सरकार को सच्चाई का पता चल जायेगा, तो वह भारतीयों के हित में जरूर कुछ न कुछ करेगी, क्योंकि भारतीय भी ब्रिटिश साम्राज्य के ही वाशिंदे है। किंतु 1906 के आते-आते गांधीजी को लगने लगा कि संघर्ष के इन नरमपंथी तरीकों से कुछ मिलनेवाला नहीं है।

दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह का प्रयोग

गांधीजी ने 1907-08 के अहिंसक आंदोलन में पहली बार ‘सत्याग्रह’ (अवज्ञा आंदोलन) नामक अस्त्र का प्रयोग किया। सत्याग्रह का यह अस्त्र ‘पैंसिव रेरिस्टेंस’ नकरात्मक निर्बलों का अस्त्र न होकर एक सकारात्मक-सत्य की शक्ति का अस्त्र था। इस अस्त्र का प्रयोग सबसे पहले 1906 के ट्रांसवाल अध्यादेश (एशियाटिक रजिस्ट्रेशन अधिनियम) के विरुद्ध किया गया, जिसके अनुसार प्रत्येक भारतीय को सरकारी दफ्तरों में अपने अंगूठे का निशान लगाकर पंजीयन करवाना एवं पास ;परवानाद्ध रखना अनिवार्य था।

गांधीजी ने 11 सितंबर, 1906 को जोहांसबर्ग के एंपायर थियेटर में भारतीयों की एक विशाल सभा कर इस कानून के उल्लंघन का आंदोलन शुरू किया। जब पंजीकरण की अंतिम तारीख के बाद गांधीजी प्रमुख नेताओं के साथ गिरफ्तार कर लिये गये तो कानून का विरोध और तेज हो गया।

प्रधानमंत्री स्मट्स के मौखिक आश्वासन पर भरोसा करके गांधीजी ने अपना पंजीकरण करा लिया। इससे गांधीजी को भारतीयों के विरोध का सामना करना पड़ा, किंतु गांधी का दर्शन प्रारंभ से ही अविश्वासों की परिधि से बाहर निर्मित हो रहा था, इसलिए उन पर अविश्वास का कोई कारण नहीं था। किंतु जब जनरल स्मट्स ने अपना वादा पूरा नहीं किया, तो गांधीजी के नेतृत्व में भारतीयों ने पंजीकरण-प्रपत्रें (परवानों) को इकट्ठा कर उनकी होली जलाई।

इस बीच सरकार ने नटाल में प्रवासी भारतीयों के प्रवेश को रोकने के लिए एक कानून बना दिया। अनेक भारतीय इस कानून का विरोध करने के लिए नटाल से ट्रांसवाल गये, जहाँ उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। इससे ट्रांसवाल के अन्य तमाम भारतीय भी आंदोलनकारियों के साथ हो गये। 1908 में गांधीजी और तमाम आंदोलनकारी जेल में डाल दिये गयेे, जहाँ उन्हें तरह-तरह की यातनाएँ दी गईं। इसी समय गांधीजी ने सत्याग्रहियों के परिवारों के पुनर्वास और रोजी-रोटी के लिए अपने जर्मन शिल्पकार मित्र कालेनबाख की मदद से जोहांसबर्ग के निकट ‘टालस्टाय फाॅर्म’ स्थापित किया, जो बाद में ‘गांधी आश्रम’ बना। इस फार्म के लिए भारत से भी पैसा भेजा गया। रतन टाटा ने 25,000 रुपये भेजे थे, कांग्रेस, मुस्लिम लीग और हैदराबाद के निजाम ने भी सहायता की।

1913 में आव्रजन-संबंधी प्रतिबंध, नवागंतुकों के मामले निपटाते समय गैर-ईसाई भारतीयों के विवाह को अमान्य करने, और भूतपूर्व अनुबंधित श्रमिकों पर तीन पौंड का कर लगाने के विरोध में एक बार फिर व्यापक पैमाने पर सत्याग्रह आंदोलन शुरू हुआ।

दक्षिण अफ्रीका की विभिन्न परिस्थितियों के कारण विभिन्न धर्मों, समुदायों और वर्गों के लोग इन आंदोलनों में एकजुट होकर खड़े हुए। इनमें हिंदू भी थे, मुसलमान थे, पारसी, गुजराती, और दक्षिण भारतीय भी, उच्च वर्ग के व्यापारी और वकील भी, महिलाएँ भी और न्यू कैसल के खान-मजदूर भी।

28 अक्टूबर, 1913 को गांधीजी ने एक हड़ताल एवं देशव्यापी मार्च में 2,000 मजदूरों, 122 स्त्रियों और 50 बच्चों का नेतृत्व किया। अंततः इस आंदोलन में गांधीजी की जीत हुई और दक्षिण अफ्रीका की सरकार ने भारतीयों की मुख्य माँगों को मान लिया। तीन पौंड के कर व पंजीकरण प्रमाण-पत्र से संबद्ध कानून समाप्त कर दिये गये और भारतीयों को अपने रीति-रिवाज के अनुसार विवाह करने की छूट मिल गई।

अप्रैल 1993 में अफ्रीका जाने और जुलाई, 1914 में अंतिम रूप से भारत आने तक गांधीजी 1896 तथा 1901 में दो बार भारत आये थे, किंतु वे दोनों बार शीघ्र ही अफ्रीका बुला लिये गये थे।

इस प्रकार दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी को विरोधी राजनीतिक धाराओं से उन्मुक्त वातावरण में एक विशिष्ट राजनीतिक शैली, नेतृत्व के विशिष्ट अंदाज और संघर्ष के नये तरीकों को विकसित करने का मौका मिला। वहाँ उन्होंने अनुशासित कार्यकताओं को बड़ी सावधानी से प्रशिक्षण देकर विशिष्ट कानूनों के शांतिपूर्ण उल्लंघन करने, सामूहिक गिरफ्तारियाँ देने, कभी-कभार हड़ताल करने और शानदार मार्च निकालने जैसे कार्यक्रमों के माध्यम से सफलता पाई थी।

वार्ताओं और समझौतों के लिए कभी-कभी आंदोलन को अचानक ही एकतरफा ढ़ंग से वापस ले लिया जाता था जिसे लोग पसंद नहीं करते थे, जैसे 1908 में स्मट्स के मौखिक वादे पर जब पहला सत्याग्रह वापस लिया था तो इस अप्रत्याशित वापसी से क्षुब्ध होकर एक पठान ने गांधीजी को पीटा भी था।

गांधीजी आजीवन जिस हिंदू-मुस्लिम एकता की आवश्यकता और संभावना को मानते रहे, उसका आधार भी दक्षिण अफ्रीका के उन आंदोलनों में था जिनमें मुसलमान व्यापारी अधिक सक्रिय रहे थे। अपनी रणनीति और संघर्ष के तरीकों से गांधीजी को विश्वास हो गया था कि ‘सत्यागह’ शत्रु को अपनी माँगें मनवाने का सबसे बेहतर अस्त्र है। भारत लौटकर गांधीजी ने अपनी इस रणनीति को भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में प्रयोग किया।

गांधीजी के राजनीतिक विचार और दर्शन

गांधी के अहिंसा और सत्याग्रह संबंधी राजनीतिक विचार हेनरी डेविड थोरो, जान रस्किन, राल्फ वाल्डो इमर्सन और लियो टालस्टाय से प्रेरित थे, किंतु इसमें पर्याप्त मौलिकता भी थी। उनका विचार था कि मानव जीवन का लक्ष्य सत्य की खोज है और चूंकि कोई भी अंतिम सत्य को पा लेने का दावा नहीं कर सकता, इसलिए किसी व्यक्ति का सत्य की अपनी अनिवार्यतः आंशिक समझ को हिंसा द्वारा दूसरों पर लादना पापपूर्ण है। एक राजनीतिज्ञ के रूप मे गांधीजी कभी-कभी इस मामले में समझौता भी कर लेते थे और पूर्ण अहिंसा पर बल नहीं देते थे जैसेकि 1918 में उन्होंने इस आशा से सैनिक भरती का समर्थन किया कि युद्ध के बाद अंग्रेज सरकार विशेष राजनीतिक रियायतें देगी। किंतु उनका बार-बार इस बात पर बल देना कि अन्याय के समक्ष कायरतापूर्ण समर्पण करने से हिंसा का मार्ग अपनाना कहीं अच्छा है, उनके सिद्धांत की व्याख्या करने में कठिनाई उत्पन्न होती है।

अपने पूर्ववर्ती भारतीय राष्ट्रवादियों के राजनीतिक दर्शन से भिन्न गांधीजी पश्चिम के एक प्रति-आधुनिक आलोचक थे, जो समझते थे कि अपनी असामान्य शक्ति और प्रसार के कारण पश्चिम रोगग्रस्त हो चुका है। उन्होंने आधुनिक सभ्यता की वैचारिक समालोचना प्रस्तुत कर ब्रिटिश राज की नैतिक वैधता को जोरदार चुनौती दी, जो पश्चिम की श्रेष्ठता की कथित मान्यता पर आधारित था। ‘हिंद स्वराज्य’ (1909) में, जिसे गांधीजी की विचारधारा का प्रामाणिक वक्तव्य माना जाता है, गांधी ने भारतीय राष्ट्र की एक सभ्यतामुखी धारणा प्रस्तुत की है। कहा जाता है कि इस्लाम-पूर्व भारत में भारतीय एक कौम या प्रजा थे। ‘प्राचीन भारतीय सभ्यता, जो असंदिग्ध रूप से श्रेष्ठ थी, भारतीय राष्ट्रीयता की स्रोत थी क्योंकि इसमें विभिन्न पंथोंवाले विदेशियों को आत्मसात् करने की असीमित क्षमता है। इस सभ्यता को, जिसकी बुनियाद ठोस है और जिसने हमेशा नैतिक प्राणी को उदात्त बनाया, इस ‘ईश्वरहीन’ आधुनिक सभ्यता से कुछ भी नहीं सीखना है, जो केवल अनैतिकता का प्रचार करती है। औद्योगिक पूँजीवाद, जो इस आधुनिक सभ्यता का सारतत्त्व है, हितों के सारे टकरावों के लिए जिम्मेदार है, क्योंकि उसने नैतिक सरोकारों से आर्थिक कार्यकलापों का नाता तोड़ दिया है और इस तरह साम्राज्यिक आक्रामकता को प्रोत्साहन दिया है।

गांधीजी का कहना था कि भारतवासी अपनी गुलामी के लिए स्वयं जिम्मेदार हैं, क्योंकि उन्होंने पूँजीवाद को और उससे जुड़े कानूनी और राजनीतिक ढाँचे को अपनाया है, भारत को अंग्रेजों ने नहीं छीना है, इसे हमने उनको दिया है। भारत का वास्तविक शत्रु अंग्रेजी राज नहीं है, अपितु समग्र औद्योगिक सभ्यता है। उनका कहना था कि केवल राजनीतिक स्वराज पा लेने का तात्पर्य होगा-अंग्रेजों के बिना अंग्रेजी राज। भारतवासियों को चाहिए कि वे लोभ और उपभोग का मोह त्यागकर प्राचीनकाल की ग्राम-केंद्रित आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था की ओर वापस लौटें: ‘‘यह मानना भूल होगी कि भारतीय राॅकफेलर अमरीकी राकफेलर से अच्छा होगा। रेलों, वकीलों और डाक्टरों ने देश को कंगाल बना दिया है।’’

गांधीजी का कहना था कि भारत का उद्धार तभी हो सकता है जब वह सब कुछ भुला दिया जाये जो उसने पिछले पचास वर्षों में सीखा है। रेल, तार, अस्पतालों, डाक्टरों जैसी वस्तुओें और लोगों को जाना होगा, और तथाकथित उच्च वर्ग के लोगों को सायास और नियमपूर्वक किसानों का-सा सादा जीवन बिताना होगा।’’

गांधीजी के दर्शन की सीमाएँ केवल भारत की आजादी के प्रश्नों को हल करने तक सीमित नहीं थीं, बल्कि भारत की तत्कालीन ज्वलंत सामाजिक अंतर्विरोधों को परिभाषित करने और उनको सुलझाने के साथ-साथ आजादी के बाद एक सपनों का देश बनाने तक के रास्तों का अन्वेषण करने में भी सक्षम थीं।

गांधीजी का मानना था कि स्वतंत्रता पा लेना और फिर ‘अंग्रेजों से रहित अंग्रेजी राज’ को स्थायी बनाना काफी नहीं है, बल्कि पश्चिम के उदारपंथी राजनीतिक ढ़ाँचों के एक भारतीय विकल्प का विकास करना भी आवश्यक है। उनका विकल्प जनता की प्रभुसत्ता का विचार था, जिसमें हर व्यक्ति अपनी स्वतंत्रता को नियंत्रण या संयम में रखे और यही स्वशासन और होमरूल के बीच गांधीजी का सूक्ष्म अंतर था।

गांधीजी का कहना था: ‘‘हर व्यक्ति को ऐसे स्वराज्य का स्वयं अनुभव होना चाहिए।’’ इस स्वराज्य की प्राप्ति के लिए उनकी तकनीक थी ‘सत्याग्रह’, जिसे उन्होंने सत्य या आत्मा की शक्ति के रूप में परिभाषित किया। इसका और व्यावहारिक अर्थ ‘सविनय अवज्ञा’ था, बल्कि उससे भी श्रेष्ठतर कोई चीज। यह प्रतिरोधियों के श्रेष्ठतर नैतिक बल की मान्यता पर आधारित था, जो नैतिक बल का प्रदर्शन करके उत्पीड़कों के दिल को भी बदल दे। उनके संदेश का मूल सिद्धांत था अहिंसा, जो सभी परिस्थितियों में समझौतों से परे थी। गांधीजी की इस नई विचारधारा ने कुछ को पूरी तरह, लेकिन बहुतों को अंशतः आकर्षित किया, क्योंकि हरेक को इसमें ऐसी कोई बात नजर आई जिससे वह स्वयं को जोड़ सके।

यद्यपि ‘हिंद स्वराज’ में प्रस्तुत गांधीवादी सामाजिक कल्पनालोक अयथार्थवादी और पोंगापंथी है और भारत या संसार के कष्टों को दूर करने के उपाय के रूप में यह कभी परिष्कृत, शहरी लोगों को आकर्षित नहीं कर सका। लेकिन कारखानों से बरबाद हुए कारीगर, किसान, जिनके लिए न्यायालय खतरनाक फंदे थे, और शहरी अस्पतालों में जाना प्रायः महँगा मृत्युदंड होता था, साथ ही ग्रामीण एवं कस्बाई बुद्धिजीवी जिन्हें शिक्षा से कोई लाभ नहीं मिला, इन सबके लिए कुछ समय के लिए ही सही, उद्योग-विरोधी विचार वस्तुतः आकर्षक थे। यद्यपि इनमें से कोई भी कार्यक्रम सामाजिक अथवा आर्थिक संबंधों में परिवर्तन लाकर समस्याओं का कोई वास्तविक समाधान नहीं कर सका, लेकिन निष्ठावान एवं समर्पित गांधीवादी रचनात्मक कार्यकताओं के लगन और धैर्य के कारण उससे ग्रामीण लोगों की स्थिति को कुछ सीमा तक सुधार अवश्य हुआ, जिससे स्वदेशी आंदोलन के आत्मनिर्भरता और स्वावलंबन के संदेश को एक विस्तृत आयाम प्राप्त हुआ।

यद्यपि गांधीजी एक धर्मपरायण हिंदू थे, किंतु उनकी सर्व-समावेश की अनोखी राजनीतिक शैली भारत में विविधताओं की स्वीकृति पर आधारित थी। उन्होंने लिखा है कि ‘‘भारतीय संस्कृति न तो पूरी तरह हिंदू हैं, न ही इस्लामी और न ही कोई और संस्कृति। यह सबका समन्वय है।’’ वे चाहते थे कि भारतीय अपनी संस्कृति में पूरी तरह लीन हों, किंतु साथ ही दूसरी विश्व संस्कृतियों से जो कुछ अच्छे तत्त्व मिलते हों, उन्हें स्वीकार करें।

गांधीजी की लोकप्रियता के कारण

गांधीजी दक्षिण अफ्रीका के अपने अनुभवों के कारण भारत में अपने राजनीतिक जीवन के आरंभ में ही उन अन्य राजनीतिज्ञों (लाल-बाल-पाल) की अपेक्षा अखिल-भारतीय स्तर पर अधिक मान्य हुए। इसके कई कारण थे, जैसे दक्षिण अफ्रीका में रह रहे जिन भारतीयों के संबंध अभी तक भारत के विभिन्न भागों में स्थित अपने घरों से बने हुए थे, वे समस्त भारत में गांधीजी का नाम फैलाने में सहायक हुए। साबरमती आश्रम के प्रथम 25 वासियों में 13 तमिलनाडु के थे। यह एक ऐसी बात थी जो तब किसी भी अन्य नेता के संबध में सोची भी नहीं जा सकती थी।

गांधीजी के पूर्ववर्ती भारतीय राजनीतिज्ञ नरमदलीय भिखमंगी नीति और व्यक्तिगत आतंकवाद के बीच ढुलमुलाते रहते थे और अनियंत्रित जन-आंदोलनों के प्रति वे सामाजिक रूप से भयभीत रहते थे। उनकी अहिंसावादी पद्धति व्यापारी वर्गों और कृषकों के अपेक्षतः समृद्ध अथवा स्थानीय प्रभुतासंपन्न भागों को भी स्वीकार्य थी क्योंकि ये लोग राजनीतिक संघर्ष के उच्छृंखल एवं हिंसक सामाजिक क्रांति में परिवर्तित होने से डरते थे।

किसानों के बीच गांधीजी की लोकप्रियता बढ़ाने में उनकी राजनीतिक शैली भी पर्याप्त सहायक हुई, जैसे तीसरे दर्जे में यात्रा करना, आसान हिंदुस्तानी में बोलना, 1921 के बाद केवल लंगोटी पहनकर रहना, और तुलसीदास के ‘रामचरितमानस’ के बिंब-विधान को प्रयुक्त करना, जो उत्तरी भारत के हिंदू जनमानस में गहन रूप से बैठा हुआ था।

गांधीवादी आंदोलनों के विस्तार का एक कारण उनके संबंध में फैलनेवाली अफवाहें भी थीं। भारतीय समाज मुख्यतः निरक्षर था और औपनिवेशिक शासन की विभिन्न जन-विरोधी नीतियों के कारण तीव्र तनाव के दौर से गुजर रहा था।

भारत के विभिन्न वर्गों के लोगों ने अपनी दीनता और आशा के कारण अपने मन में गांधीजी की अपनी-अपनी छवियाँ बसा ली थी, विशेष रूप से आरंभ में जब बहुतों ने दूर से उनकी एक झलक-भर देखी थी या उनकी आवाज-भर सुनी थी। किसानो को विश्वास था कि गांधीजी जमींदारी समाप्त कर देंगे, संयुक्त प्रांत के खेत-मजदूर समझते थे कि गांधीजी उन्हें जोत दे देंगे। इलाहाबाद जिले में जनवरी 1921 में होनेवाले किसान आंदोलन के संबंध में गुप्तचर विभाग की रिपोर्ट थी कि, ‘‘सुदूर गाँवों में भी मि. गांधी के नाम का जैसा प्रचलन हो गया है वह आश्चर्यजनक है। इनमें कोई ठीक से यह नहीं जानता कि वे कौन हैं, या क्या हैं, किंतु यह तय है कि जो वे कहते हैं, वह सत्य माना जाता है और उनके आदेशों का पालन अनिवार्य है।…..उनके नाम की वास्तविक शक्ति शायद लोगों के इस विश्वास में है कि प्रतापगढ़ में बेदखली बंद करानेवाले गांधीजी ही थे…..आमतौर पर गांधीजी को सरकार-विरोधी नहीं, बल्कि केवल जमींदार-विरोधी माना जाता है। हम गांधीजी और सरकार के पक्ष में हैं’’। मई 1921 में असम के चाय-बागानों के कुली सामूहिक रूप से यह कहते हुए बागान छोड़कर निकल पड़े कि गांधीजी ने उन्हें ऐसा करने का आदेश दिया था।

प्रबल धार्मिक स्वर लिये हुए गांधीजी जैसा नेतृत्व शायद उस काल की ऐतिहासिक आवश्यकता थी। 1920 के दशक के आरंभ में इस प्रकार के अनेक स्थानीय नेताओं का उदय हुआ, जैसे बंगाल और बिहार में खान-मजदूरों के बीच स्वामी विश्वानंद एवं स्वामी दर्शनानंद, उत्तरी बिहार में स्वामी विद्यानंद, प्रतापगढ़ में बाबा रामचंद्र, राजस्थान में स्वामी कुमारानंद, महाराष्ट्र में आनंदस्वामी, आंध्र की रंपा जनजाति में अल्लूरी सीताराम राजू।

गांधीजी केवल जनता को उभारना नहीं चाहते थे, बल्कि वे एक नियंत्रित जन-आंदोलन चाहते थे, जो उनके निर्धारित किये हुए मार्ग पर कठोरता से चले। यद्यपि जनता ने गांधीवादी राजनीति की सीमाओं का बार-बार उल्लंघन किया और गांधी के आदर्शों से पीछे हटी, किंतु वह यह विश्वास भी करती रही कि वह अपने मसीहा के पीछे-पीछे चलकर ही गांधीराज के एक नये स्वर्गलोक में पहुँचेगी। गांधीजी ने अपने अनुयायियों के तौर-तरीकों को नियंत्रित करने की कोशिश की और जब कभी असफल रहे, तो उसकी निंदा उसे ‘भीड़-राज’ कहकर की।

गांधीजी के आरंभिक आंदोलन और जालियांवाला बाग हत्याकांड 

कांग्रेस की आरंभिक राजनीति की दशा और दिशा

गांधीजी के भारत वापस आने के पहले भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में भागीदारी पश्चिमी शिक्षाप्राप्त पेशेवर लोगों के एक सीमित समूह की ही थी, जो अधिकतर तीन प्रेसीडेंसी नगरों (कलकत्ता, बंबई और मद्रास) में रहते थे और ब्रिटिश कुलीन वर्ग या मध्यवर्गों के विचारों और आदर्शों से प्रेरित थे।

बंगाल के भद्रलोक, बंबई के चितपावन ब्राह्मणों या मद्रास के तमिल ब्राह्मणों जैसे इन समूहों के अलावा समाज के दूसरे हिस्से, जैसे निचली जातियों के हिंदू या मुसलमान, जमींदार, धनी और भूमिहीन दोनों तरह के किसान और हर तरह के उद्योगपति, कांग्रेस की राजनीति में भाग लेने से हिचकते थे। ये लोग बिहार, उड़ीसा, मध्य प्रांत और बरार में तथा संयुक्त प्रांत और गुजरात में भी रहते थे, जिनको कांग्रेसी राजनीति में ‘पिछड़े प्रांत’ कहा जाता था। औपनिवेशिक सरकार भी चैन की साँस लेती रही, क्योंकि एक ‘अतिलघु अल्पमत’ कांग्रेस को एक पिटी हुई दुकान की तरह चला रहा था।

कांग्रेस की इस आरंभिक राजनीति के लक्ष्य भी सीमित थे और उसकी उपलब्धियाँ भी अपेक्षाकृत मामूली थीं। 1907 के सूरत विभाजन के बाद नरमपंथी उपनिवेशी स्वशासन की और गरमपंथी पूर्ण स्वाधीनता की माँग कर रहे थे। किंतु दोनों समूह अपने-अपने घोषित उद्देश्यों को पाने में असफल रहे। 1915-17 तक राजनीति की ये दोनों धाराएँ एक अंधी गली में फँस चुकी थीं। ऐसे नैतिक शून्य और भौतिक हताशा के काल में गांधीजी नरमपंथियों और गरमपंथियों को एक साथ एक साझे राजनीतिक मंच पर लाने में सफल रहे। उन्होंने उग्रपंथियों के स्वराज्य के लक्ष्य को अपनाया, लेकिन उसकी परिभाषा को नेहरू के शब्दों में ‘सुखद सीमा तक’ अस्पष्ट रखा, जिसकी व्याख्या हर समूह अपने-अपने ढंग से कर सकता था। उनका सत्याग्रह का तरीका, बहुत कुछ उग्रपंथियों के सविनय अवज्ञा जैसा लगता था, लेकिन अहिंसा पर उनका आग्रह उदारवादियों और दूसरे संपत्तिशाली वर्गों को भी आश्वस्त करता था। उन्होंने जनता की लामबंदी करने के लिए बड़ी सजगता और कुशलता से धार्मिक प्रतीकों और मुहावरों का प्रयोग किया और अपने बरगदाकार नेतृत्व में विभिन्न समुदायों को एकजुट किया। अपनी सादी वेशभूषा, ग्रामीण हिंदी के प्रयोग और ‘रामराज्य’ के लोकप्रिय रूप के उल्लेख के कारण जल्दी ही वे आम जनता के साथ एकाकार हो गये। गांधीजी की व्याख्या जनता ने अपने ढंग से की, अपने स्वयं के भोगे हुए अनुभवों से अर्थ निकाले और उनको निर्बल के बल का प्रतीक बना दिया।

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