गांधीजी के आरंभिक आंदोलन और जालियांवाला बाग हत्याकांड (Gandhi’s Early Movement and Jallianwala Bagh Massacre)

गांधीजी की दक्षिण अफ्रीका से वापसी (Gandhiji’s Return from South Africa)

गांधीजी के आरंभिक आंदोलन और जालियांवाला बाग हत्याकांड (Gandhi's Early Movement and Jallianwala Bagh Massacre)
गांधीजी के आरंभिक आंदोलन

गांधीजी 46 वर्ष की आयु में जनवरी 1915 में भारत वापस आये। उन्होंने पूरे एक वर्ष तक देश का भ्रमण किया और भारतीयों को भारतीय सेना में शामिल होकर विश्वयुद्ध में अंग्रेजों की मदद करने की अपील की, जिसके कारण उन्हें ‘सेना में भरती करनेवाला सार्जेंट’ भी कहा जाता था। अभी गांधीजी को भी अंग्रेजों की न्यायाप्रियता पर भरोसा था। फिर उन्होंने 1916 में अहमदाबाद के पास साबरमती आश्रम की स्थापना की, जहाँ उनके मित्रों और अनुयायियों को रहकर सत्य-अहिंसा को समझना और व्यवहार करना पड़ता था। उन्होंने संघर्ष की अपनी नई विधि के साथ यहाँ प्रयोग भी करना आरंभ कर दिया। अगले तीन वर्षों में गांधीजी चंपारन के नील उगानेवालों, अहमदाबाद के कपड़ा मिल-कामगारों और खेड़ा के किसानों के साथ होनेवाले अन्यायों के मामलों को अपने हाथ में लेकर जनता के बीच ऐसे व्यक्ति के रूप में प्रसिद्ध हो गये जो हर मामलों में कुछ न कुछ ठोस कार्य कर ही लेते हैं।

चंपारन सत्याग्रह, 1917 (Champaran Satyagraha, 1917)

गांधीजी ने सत्याग्रह का अपना पहला बड़ा प्रयोग चंपारन में किसानों पर किये जा रहे अत्याचार के खिलाफ किया। उत्तर बिहार के चंपारन जिले के किसानों से अंग्रेज बागान मालिकों ने एक अनुबंध करा लिया था, जिसके अंतर्गत किसानों को जमीन के 3/20वें हिस्से पर नील की खेती करना अनिवार्य था। इसे ‘तिनकठिया पद्धति’ कहते थे। 19वीं शताब्दी के अंत में रासायनिक रंगों की खोज और उनके प्रचलन से नील के बाजार में गिरावट आने लगी, जिससे नील बागान के मालिक अपने कारखाने बंद करने लगे। किसान भी नील की खेती से छुटकारा पाना चाहते थे। किंतु यदि किसान नील गरमाने से छुटकारा पाना चाहते थे, तो उन्हें ‘शरहबेशी’ या तवन के रूप में अतिरिक्त कर देना पड़ता था। शोषण से तंग आकर किसानों ने नील की खेती करने और गैर-कानूनी कर देने से इनकार कर दिया।

दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी के संघर्ष की कहानी सुनकर चंपारन (बिहार) के अनेक किसानों ने रामचंद्र शुक्ल के नेतृत्व में गांधीजी को बिहार आकर आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए तैयार किया। गांधीजी बाबू राजेंद्रप्रसाद, मजहरूल-हक, जे.बी. कृपलानी, नरहरि पारिख और महादेव देसाई के साथ 1917 में चंपारन पहुँचे। जिले के अधिकारियों ने उन्हें चंपारन छोड़ने का आदेश दिया, मगर उन्होंने आदेश का उल्लंघन किया और इसके लिए वे किसी भी दंड को भुगतने के लिए तैयार हो गये। किसी अनुचित आदेश की अवज्ञा और उसका शांतिपूर्ण तरीके से प्रतिरोध, वास्तव में एक नई चीज थी। चूंकि भारत सरकार अभी तक गांधी को विद्रोही नहीं मानती थी, इसलिए उसने स्थानीय प्रशासन को अपना आदेश वापस लेने तथा गांधीजी को चंपारन के गाँवों में जाने की छूट देने के निर्देश दिये।

गांधीजी ने अपने सहयोगियों के साथ किसानों के हालत की विस्तृत जाँच-पड़ताल की और चंपारन के नील-उत्पादकों की शिकायतों से सारे देश को अवगत कराया। इस बीच सरकार ने भी जाँच-आयोग गठित किया, जिसके एक सदस्य गांधीजी स्वयं थे। इसी जाँच और प्रचार के फलस्वरूप तिनकठिया प्रथा की समाप्ति हुई। लेकिन इसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव इस ठोस गतिविधि से ज्यादा पड़ा। बेतिया के एस.डी.ओ. ने 29 अप्रैल 1917 को अपनी रिपोर्ट में लिखा कि गांधी ‘‘प्रतिदिन अज्ञानी जनसमुदाय की कल्पना को आसन्न स्वर्णयुग के स्वप्न दिखाकर रूपांतरित कर रहे हैं।’’ एक रैयत ने गांधीजी की तुलना रामचंद्र से की और जाँच समिति के समक्ष कहा कि ‘‘अब गांधीजी आ गये हैं तो काश्तकारों को राक्षस निलहों का कोई भय नहीं है।’’ अफवाह तो यह भी फैली थी कि सभी स्थानीय अधिकारियों एवं निलहों को काबू में करने के लिए वायसराय या सम्राट ने गांधी को भेजा है, यह भी कि कुछ ही महीनों में अंग्रेज चंपारन छोड़कर चले जायेंगे।

गांधीजी चंपारन आंदोलन को उसके सीमित लक्ष्य से आगे नहीं ले गये और बाद में नवंबर 1918 में ‘चंपारन कृषि कानून’ (चंपारन एग्रीकल्चरल ऐक्ट) के पारित होने के साथ यह लक्ष्य पूरा हुआ। फिर भी, इस कानून ने न तो निलहों के दमन को पूरी तरह रोका, न यह किसान प्रतिरोध को ठंडा कर सका। स्थानीय किसान नेता गांधीजी का नाम लेकर समर्थन जुटाते रहे और उन्होंने इस क्षेत्र को भावी गांधीवादी आंदोलनों का एक ठोस आधार बना दिया। इस तरह चंपारन राष्ट्रवाद की एक दंतकथा बन गया, यद्यपि प्रतिरोध करनेवाले किसानों के साथ स्थानीय कांग्रेस नेताओं की कोई विशेष सहानुभूति नहीं थी, खासकर तब जब वे देसी जमींदारों के विरुद्ध खड़े होते थे।

खेड़ा सत्याग्रह, 1918 (Kheda Satyagraha, 1918)

गांधीजी के आरंभिक आंदोलन और जालियांवाला बाग हत्याकांड (Gandhi's Early Movement and Jallianwala Bagh Massacre)
खेड़ा सत्याग्रह

गुजरात के खेड़ा जिले में गांधीजी ने अपने प्रथम वास्तविक किसान सत्याग्रह की शुरुआत की जहाँ उनके हस्तक्षेप को अधिक स्थायी सफलता मिली। 1917-1918 में जब फसलें नष्ट हो गईं तो खेड़ा के कुनबी-पाटीदार किसानों ने सरकार से लगान में छूट की माँग की। यद्यपि भूमिकर नियमों में यह स्पष्ट कहा गया था कि यदि फसल 25 प्रतिशत नष्ट हो जाए, तो भूमिकर में पूर्णतया छूट मिलेगी, किंतु सरकार किसानों को कोई छूट देने को तैयार नहीं थी। वस्तुतः नवंबर 1917 में मालगुजारी की नाअदायगी की पहल करने वाले गांधीजी या अहमदाबाद के राजनीतिज्ञ नहीं थे, अपितु मोहनलाल पांड्या और शंकरलाल पारिख खेड़ा के कापड़गंज ताल्लुके (कठलाल कस्बा) के दो स्थानीय ग्रामीण नेता थे।

गांधीजी ने पर्याप्त सोच-विचार के बाद ‘गुजरात सभा’ के माध्यम से खेड़ा आंदोलन की बागडोर सँभाली। सर्वेंट्स आफ इंडिया सोसायटी के सदस्यों, विट्ठलभाई पटेल और गांधीजी ने पूरी जाँच-पड़ताल के बाद निष्कर्ष निकाला कि किसानों की माँग जायज है और राजस्व संहिता के तहत उनका पूरा लगान माफ किया जाना चाहिए। लेकिन जब अपील और याचिकाओं का कोई असर नहीं हुआ, तो गांधीजी ने 22 मार्च 1918 को नाडियाड में एक आम सभा में किसानों को सलाह दी कि जब तक लगान में छूट नहीं मिलती, वे लगान न दें। जो किसान लगान देने की स्थिति में थे, उन्हें भी लगान देने से रोक दिया गया। गांधीजी की अपील पर बड़ी संख्या में किसान सत्याग्रह में भाग लेने लगे और जेल जाने लगे। इस बीच गांधीजी को पता चला कि सरकार ने अधिकारियों को गुप्त आदेश दिया है कि लगान उन्हीं से वसूला जाए, जो देने की स्थिति में हैं। इससे गांधीजी का उद्देश्य पूरा हो गया और जून में संघर्ष वापस ले लिया गया। फिर भी, सरकार ने संभवतः 39 प्रतिशत कर वसूल ही लिया था और 559 गाँवों में से केवल 70 गाँवों पर ही इसका प्रभाव पड़ा था।

अहमदाबाद मिल-मजदूर हड़ताल,1918 (Ahmedabad Mill-Labor Strike, 1918)

चंपारन और खेड़ा के विपरीत जहाँ आंदोलन गोरे निलहों एवं राजस्व अधिकारियों के विरुद्ध थे, फरवरी-मार्च 1918 में अहमदाबाद में गांधीजी ने गुजरात के मिल-मालिकों और उनके मजदूरों के बीच शुद्ध आंतरिक संघर्ष में मध्यस्थता की। मिल-मजदूरों तथा मिल-मालिकों के बीच औद्योगिक विवाद का तत्कालीन कारण ‘प्लेग बोनस’ की समाप्ति थी, जो प्लेग से हो रही अधिकाधिक मौतों के भय से मजदूरों को शहर छोड़ने से रोकने के लिए 1917 से दिया जाता था। मजदूर प्लेग बोनस के बदले मजदूरी में 50 प्रतिशत वृद्धि की माँग कर रहे थे और मिल-मालिक 20 प्रतिशत से अधिक वृद्धि करने को तैयार नहीं थे। सामाजिक कार्यकर्ताअनुसूया बेन और उनके भाई व अहमदाबाद मिल-मालिक सभा (अहमदाबाद मिल ओनर्स एसोसिएशन) के अध्यक्ष अंबालाल साराभाई ने गांधी को मध्यस्थता करके विवाद को हल करने के लिए आमंत्रित किया। पहले गांधीजी ने मिल-मालिकों और मजदूरों को इस सारे मामले को एक ट्रिब्यूनल को सौंप देने पर राजी किया, किंतु बाद में मिल-मालिक अपने वादे से मुकर गये और हड़ताल पर पूरी पाबंदी की माँग की। उत्पादन-लागत, मुनाफा और मजदूरों के जीवन-निर्वाह खर्च का गहराई से अध्ययन करने के बाद गांधीजी ने मजदूरों को राजी किया कि वे अपनी मजदूरी में बढ़ोत्तरी की माँग को 50 प्रतिशत से घटाकर 35 प्रतिशत कर दें। किंतु स्थिति तब बिगड़ गई जब अडियल मिल-मालिकों ने 22 फरवरी को मिलों में ताले लगाकर बुनकरों को बाहर कर दिया। इससे क्षुब्ध होकर मार्च 1918 में गांधीजी के नेतृत्व में अहमदाबाद में मिल-मजदूरों ने हड़ताल कर दी।

इसी हड़ताल के दौरान गांधीजी ने सर्वप्रथम ‘भूख-हड़ताल’ (15 मार्च से) के हथियार का प्रयोग किया। गांधीजी के भूख-हड़ताल का लक्ष्य जो भी रहा हो-मजदूरों को उत्साहित करना या मजदूरों की तानाजनी, उनके उपवास का अक्खड़ मिल-मालिकों पर असर हुआ और वे सारे मामले को ट्रिब्यूनल (मध्यस्थता बोर्ड) में भेजने को राजी हो गये। हड़ताल खत्म हो गई, क्योंकि जिस मुदृदे को लेकर हड़ताल हुई थी, अब वह खत्म हो चुका था। अंततः ट्रिब्यूनल ने 35 प्रतिशत बोनस का फैसला सुनाया। यह आंदोलन अहमदाबाद के मजदूरों को संगठित करने में काफी सफल रहा और इसने फरवरी 1920 में कपड़ा मजदूर सभा (टेक्सटाइल लेबर एसोसिएशन) के गठन का रास्ता तैयार किया।

चंपारण, अहमदाबाद तथा खेड़ा के स्थानीय लक्ष्यों को उठाकर गांधीजी ने राष्ट्रव्यापी लोकप्रियता प्राप्त की। यद्यपि इन सभी आंदोलनों में गांधी को नेतृत्व के लिए तब आमंत्रित किया गया, जब स्थानीय पहल से जनता की अच्छी-खासी लामबंदी पहले ही हो चुकी थी। फिर भी, इन आंदोलनों से गांधीजी को संघर्ष के गांधीवादी तरीके सत्याग्रह को आजमाने, देश की जनता के करीब आने और उसकी समस्याओं को समझने का अवसर मिला। उनको जनता की शक्ति और कमजोरी का भी ज्ञान हुआ। इन आंदोलनों में गांधीजी को समाज के विभिन्न वर्गों, विशेषकर युवा पीढ़ी का भरपूर समर्थन मिला। जल्दी ही वे गरीब भारत, राष्ट्रवादी भारत और विद्रोही भारत के प्रतीक बन गये।

रौलट सत्याग्रह (Rowlatt Satyagraha)

गांधीजी के आरंभिक आंदोलन और जालियांवाला बाग हत्याकांड (Gandhi's Early Movement and Jallianwala Bagh Massacre)
रौलट सत्याग्रह

1919 के आरंभ तक अखिल भारतीय राजनीति में गांधीजी का हस्तक्षेप अपेक्षाकृत कम रहा और वे अंग्रेजों की नीयत पर भरोसा करते रहे। लेकिन फरवरी 1919 में प्रस्तावित रौलट कानून के पारित होने के फलस्वरूप जो उत्तेजना फैली, उसके चलते गांधी ने पहली बार ब्रिटिश शासन का विरोध करने के लिए एक अखिल-भारतीय सत्याग्रह आंदोलन आरंभ किया। 1918 में जस्टिस न्यायाधीश सर सिडनी रौलट की अध्यक्षता में स्थापित सेडीसन समिति ने रौलट ऐक्ट की कुछेक सिफारिशों को 6 फरवरी और मार्च 1919 के बीच तमाम गैर-सरकारी भारतीय सदस्यों के एकजुट विरोध के बावजूद केंद्रीय विधानमंडल में तुरंत पारित कर दिया गया। इस ऐक्ट से ब्रिटिश सरकार को यह अधिकार प्राप्त हो गया कि वह किसी भी भारतीय पर अदालत में बिना मुकदमा चलाये और बिना दंड दिये जेल में बंद कर सके। कैदी को अदालत में प्रत्यक्ष उपस्थित करने अर्थात् बंदी प्रत्यक्षीकरण का जो कानून ब्रिटेन में नागरिक स्वाधीनताओं की बुनियाद था, उसे भी निलंबित करने का अधिकार सरकार ने रौलट कानून से प्राप्त कर लिया। इस प्रकार यह कानून किसी को बिना मुकदमा चलाये दो वर्षों तक बंदी रखने की व्यास्था के द्वारा युद्ध-काल में नागरिक अधिकारों पर लगाये गये प्रतिबंधों को स्थायी बनाने का एक प्रयास था।

भारत में क्रांतिकारी आंदोलन का उदय और विकास (The Rise and Development of the Revolutionary Movement in India)

सत्याग्रह सभा का गठन (Formation of Satyagraha Sabha)

भारतीय राजनीतिक जनमत के सभी स्तरों पर रौलट ऐक्ट के प्रति गहरा असंतोष था, किंतु अखिल भारतीय स्तर पर इसका सार्वजनिक विरोध करने का एक अनूठा और व्यावहारिक ढंग गांधीजी ने सुझाया। इसमें प्रार्थना-याचना के ढंग को तो छोड़ दिया गया था, लेकिन इसका लक्ष्य अनियंत्रित अथवा हिंसक होना नहीं था। आरंभ में गांधीजी का कार्यक्रम बहुत मामूली था, किंतु जब संवैधानिक प्रतिरोध का सरकार पर कोई असर नहीं हुआ, तो कुछ घनिष्ठ सहयोगियों के साथ उन्होंने 24 फरवरी को एक ‘सत्याग्रह सभा’ का गठन किया। इस सभा के स्वयंसेवकों ने रौलट कानून का पालन न करने, निषिद्ध वस्तुओं की सार्वजनिक रूप से बिक्री करके अपने-आपको गिरफ्तार करवाने और जेल जाने की शपथ ली। संघर्ष का यह एक नया रूप था। राष्ट्रवादी आंदोलन, चाहे उदारवादियों के नेतृत्व में हुआ हो या उग्र राष्ट्रवादियों के, अभी तक केवल आंदोलनों तक ही सीमित था। किंतु इस सत्याग्रह ने भारतीयों में एक नया उमंग और उत्साह भर दिया। गांधीजी ने राष्ट्रवादी कार्यकर्ताओं को गाँवों में जाने का आग्रह किया ताकि राष्ट्रवाद को किसानों, दस्तकारों और शहरी गरीबों की ओर मोड़ा जा सके। खादी इस रूपांतरण का प्रतीक थी, जो जल्दी ही सभी राष्ट्रवादियों की पहचान बन गई।

1919 के मार्च और अप्रैल महीनों में देश में अभूतपूर्व राजनीतिक जागरण आया और पूरा देश एक नई शक्ति से भर उठा। गांधीजी ने 6 अप्रैल (पहले 30 मार्च 1919 की तिथि निश्चित की गई थी) को एक देशव्यापी आंदोलन करने का आह्वान किया, जिसमें हड़ताल, उपवास और प्रार्थना-सभाएँ आयोजित करने के साथ ही साथ कुछ खास-खास कानूनों की अवज्ञा करना भी शामिल था। हड़ताल जानबूझकर रविवार को रखी गई थी, और गांधीजी ने स्पष्ट कह दिया था कि जिन कर्मचारियों को रविवार को भी कार्य करना पड़ता है वे अपने मालिकों से पूर्व-अनुमति लेकर ही कार्य बंद करें। उन्होंने आर्यसमाजी नेता स्वामी श्रद्धानंद का लगान की नाअदायगी के आहवान का सुझाव भी अस्वीकार कर दिया और पुराने नरमदलीय नेता दिनशा वाचा से अपना कर्यक्रम स्वीकृत कराने के लिए तर्क दिया कि ‘‘उदयमान पीढ़ी याचनाओं इत्यादि से संतुष्ट नहीं होगी।… मुझे लगता है कि सत्याग्रह ही आतंकवाद को रोकने का एकमात्र उपाय है।’’

अपने रौलट सत्याग्रह के आयोजन में गांधीजी को तीन प्रकार के राजनीतिक संगठनों की सहायता मिली- दोनों होमरूल लीगों का, कुछ अखिल-इस्लामी समूहों का और 24 फरवरी को गठित सत्याग्रह सभा का। जमनादास द्वारकादास, शंकरलाल बैंकर और बी.जी. हार्नीमन जैसे बंबई शहर के होमरूल कार्यकर्ताओं ने गांधीजी की सत्याग्रह के लिए अधिकांश धन और जन का इंतजाम किया। इस समय तक गांधीजी का संपर्क कुछ अच्छे मुसलमान नेताओं से भी हो चुका था, विशेषकर लखनऊ के फिरंगीमहल के उल्मा समूह के अब्दुल बारी से, जो अभी तक नजरबंद अली बंधुओं के धार्मिक गुरु थे। इस बीच उस्मानी तुर्की की हार हो चुकी थी और मुसलमानों के बीच अफवाह थी कि विजेता मित्र-देश शांति के लिए बहुत कड़ी शर्तें तैयार कर रहे हैं और सुलतान खलीफा के भविष्य को लेकर भारतीय मुसलमानों में गहरी चिंता व्याप्त थी। दिसंबर 1918 के मुस्लिम लीग के दिल्ली अधिवेशन में अधिक जुझारू राजनीतिज्ञों ने यंग पार्टी के नरमदलीय नेताओं जैसे वजीर हसन, राजा महमूदाबाद जो मांटफोर्ड सुधारें को स्वीकार करना चाहते थे, उखाड़ फेंका। अंसारी ने नेतृत्व सँभाला और उनके साथ अब्दुल बारी द्वारा लाये गये उल्मा समूह का एक बड़ा समूह था। इस अधिवेशन में बारी ने गांधीजी को ‘हिंदुस्तान का दिलेर नेता बताया… जो मुसलमानों को उतना ही प्यारा है जितना कि हिंदुओं को।’ मार्च 1919 के मध्य में गांधीजी के साथ विचार-विमर्श करने के पश्चात् बारी ने गांधीजी के सत्याग्रह का समर्थन करने का फैसला किया।

चूंकि अंग्रेज-विरोधी रौलट सत्याग्रह की संगठनात्मक तैयारी बहुत सीमित, छिटपुट और अत्यंत अपर्याप्त थी, इसलिए आंदोलन के लिए गठित सत्याग्रह समिति ने अपना समस्त ध्यान प्रचार-साहित्य छापने और सत्याग्रह की शपथ के लिए हस्ताक्षर एकत्रित करने में लगाया। गांधीजी ने स्वयं भारत का तूफानी दौरा किया, लेकिन इसमें कांग्रेस का हाथ नहीं था। मार्च के मध्य तक सत्याग्रह की शपथ के लिए हस्ताक्षर करनेवालों की कुल संख्या 982 हो गई थी- बंबई शहर में 397, गुजरात में 400, सिंध में 101 और बंबई प्रेसीडेंसी के बाहर केवल 84। रौलट सत्याग्रह के दौरान सबसे अधिक विस्फोटक घटनाएँ पंजाब में हुईं, जबकि वहाँ होमरूल संगठन भी सबसे कमजोर था और गांधीजी को भी विस्फोट के पहले पंजाब की यात्रा करने समय नहीं मिला था।

भारत के बाहर क्रांतिकारी गतिविधियाँ (Revolutionary Activities Outside India)

रौलट-विरोधी सत्याग्रह का विस्तार (Expansion of Anti-Rowlatt Satyagraha)

पंजाब

हंटर आयोग और कांग्रेस की पंजाब जाँच-समिति की रिर्पोटों से पता चलता है कि सरकार की भड़कानेवाली एवं दमनकारी पाशविक गतिविधियों, जैसे भारी संख्या में सैनिकों की जबरन भरती, करों एवं युद्ध-ऋणों का बोझ, और मूल्यों में अत्यधिक वृद्धि, गांधीजी से संबंधित अफवाहों और विश्वयुद्ध के बाद की आर्थिक शिकायतों के कारण पंजाब में एक स्वतःसफूर्त विद्रोह हुआ।

वास्तव में 1917-19 के बीच खाद्यान्नों की कीमतों में 100 प्रतिशत की वृद्धि से जनता के विभिन्न वर्गों में असंतोष था। इसके अलावा मुकुंदलाल गिरि और गोकुलचंद नारंग जैसे आर्यसमाजी बैरिस्टर, पत्रकार जफरअली खान तथा मु. इकबाल ब्रिटिश-विरोधी विचारों का प्रचार कर जनता को जाग्रत कर रहे थे।

30 मार्च और 6 अप्रैल को भारत के अधिकांश नगरों में हड़ताल रही। ब्रिटिश हुकूमत इस आंदोलन का दमन करने के लिए कृत-संकल्प थी, किंतु उसे ऐसे व्यापक जन-आंदोलन से निपटने का कोई पूर्व-अनुभव नहीं था।

9 अप्रैल 1919 को गांधीजी दिल्ली में प्रवेश करते समय पलवल (हरियाणा) में गिरफ्तार कर बंबई भेज दिये गये। गांधीजी की गिरफ्तारी से आंदोलन हिंसा के भंवर में फँस गया, जिसके परिणामस्वरूप पंजाब के अमृतसर, लाहौर, गुजरांवाला और अनेक छोटे नगरों में, गुजरात के वीरमगाम, अहमदाबाद एवं नडियाड में, दिल्ली में, बंबई और कुछ सीमा तक कलकत्ता में उपद्रव हुए।

अमृतसर

जनरल ओ‘डायर और ब्रिटिश अधिकारी 1919 में पंजाब जैसे प्रांत में हिंदू-मुसलमान-सिख की अभूतपूर्व एकता से अत्यधिक डरे हुए थे क्योंकि यह एक ऐसा प्रांत था जो इसके पहले और बाद में सांप्रदायिक अलगाव के लिए जाना जाता था। अमृतसर में 30 मार्च और 6 अप्रैल को हुई हड़तालें शांतिपूर्ण किंतु जबरदस्त थीं। 9 अप्रैल 1919 को अमृतसर के स्थानीय नेताओं- डाक्टर सत्यपाल एवं डाक्टर सैफुद्दीन किचलू के नेतृत्व में रामनवमी के जुलूस में मुसलमानों ने बहुत बड़ी संख्या में भाग लिया और उसी शाम सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू शहर से बाहर निकाल दिये गये। अपने नेताओं की गिरफ्तारी के विरोध में अमृतसर में 10 अप्रैल को लगभग 30,000 प्रदर्शनकारियों का एक जुलूस निकला। हाल ब्रिज के पास शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाये जाने की प्रतिक्रिया में ब्रिटिश शासन के प्रतीकों अर्थात् डाकखाने, बैंकों, रेलवे स्टेशन और टाउनहाल पर हमले हुए। पुलिस ने आंदोलनकारियों पर गोली चलाई, जिसमें 20 लोग मारे गये।

जालियाँवाला बाग हत्याकांड, 13 अप्रैल 1919

गांधीजी के आरंभिक आंदोलन और जालियांवाला बाग हत्याकांड (Gandhi's Early Movement and Jallianwala Bagh Massacre)
जालियाँवाला बाग हत्याकांड

पंजाब के अमृतसर के जलियाँवाला बाग में 13 अप्रैल 1919 को वैशाखी के दिन शाम को साढ़े चार बजे अपने लोकप्रिय नेताओं डा. सत्यपाल एवं डा. किचलू की गिरफ्तारी एवं रौलट ऐक्ट के विरोध में सभा करने के लिए निहत्थी, मगर भारी भीड़ जमा थी जिसे पता ही नहीं था कि सभाओं पर निषेघज्ञा लागू है। पंजाब के ले. गवर्नर माइकल ओ’डायर ने उस दिन साढ़े नौ बजे सभा को अवैधानिक घोषित किया था। डायर को लगा कि उसके आदेश की अवहेलना करके यह सभा की जा रही है। उसने सभास्थल के निकासद्वार पर एक फौजी दस्ता खड़ा कर दिया और बिना कोई चेतावनी दिये अपने सैनिकों को राइफलों और मशीनगनों से अंदर जमा भीड़ पर गोली चलाने का आदेश दिया। 10,000 से भी अधिक निहत्थी भीड़ पर 1,650 गोलियाँ चलाई गईं, जिसमें सरकारी आकलन के अनुसार 379 लोग मारे गये, जबकि गैर-सरकारी अनुमानों के अनुसार मरनेवालों की संख्या लगभग 1,000 थी। हद तो तब हो गई जब हंटर आयोग के सामने डायर ने कहा कि उसे केवल इस बात का दुःख था कि उसका गोला-बारूद खत्म हो गया था और संकरी गलियों के कारण बाग में बख्तरबंद गाड़ी नहीं लाई जा सकी थी-क्योंकि अब सवाल केवल भीड़ तितर-बितर करने का नहीं रह गया था, बल्कि ‘नैतिक प्रभाव’ उत्पन्न करना आवश्यक था।

जलियाँवाला बाग के निर्मम हत्याकांड के बाद पूरे पंजाब में मार्शल ला लागू कर दिया गया और जनता पर जंगली किस्म के अत्याचार किये गये, जैसे अंधाधुंध गिरफ्तारियाँ, यातनाएँ, विशेष न्यायालय, सार्वजनिक रूप से कोड़े लगाना, वकीलों को सिपाहियों का मामूली काम करने के लिए बाध्य करना, और भारतीयों को सभी साहबों को सलाम करने के लिए बाध्य करना, तथा कूचा कौचियावाला, जहाँ एक ब्रिटिश मेम की बेइज्जती हुई थी, से गुजरनेवाले प्रत्येक भारतीय को रेंगकर जाने के लिए मजबूर करना आदि।

लाहौर

लाहौर में 6 और 9 अप्रैल को शांतिपूर्ण हड़तालों एवं प्रदर्शनों में अनूठी हिंदू-मुस्लिम एकता देखने को मिली थी। किंतु जब पंजाब में गांधीजी के प्रवेश-निषेध एवं अमृतसर की घटनाओं की खबर पहुँची तो 10 अप्रैल को जनता एवं पुलिस-बलों के बीच हिंसक संघर्ष हुए। 11 अप्रैल को मुगलपाड़ा रेलवे कार्यशाला में एवं अनके कारखानों में हड़तालें हुईं और स्थिति इतनी गंभीर हो गई कि अंग्रेजों को शहर छोड़कर छावनी में जाना पड़ा। बादशाही मस्जिद की एक विशाल सभा में एक जन-समिति गठित की गई, जिसने 11 से लेकर 14 अप्रैल तक वस्तुतः शहर को नियंत्रित किया। इस समय थोड़े समय के लिए एक वैकल्पिक, अधिक संघर्षशील नेतृत्व भी सामने आया- चमनदीन के नेतृत्व में चालीस सदस्यों की ‘डंडा फौज’ लाठियों और चिडि़यामार बंदूकों से लैस होकर सड़कों पर गश्त लगाने और भड़कानेवाले पोस्टर लगाने लगी थी: ‘‘ओ! हिंदू, मुसलमान और सिख भाइयों, आओ, डंडा फौज में शामिल होकर अंग्रेज बंदरों के खिलाफ बहादुरी से लड़ो….। अंग्रेजों से कोई लेन-देन न रखो, दफ्तर और वर्कशाप बंद कर दो। लड़ते रहो। यही महात्मा गांधी की आज्ञा है।‘‘ 14 अप्रैल को अंग्रेज दल-बल समेत छावनी से लौट आये, जन-समिति के नेता निष्कासित कर दिये गये और मार्शल ला के बल पर जन-आंदोलन को कुचल दिया गया।

गुजरांवाला, गुजरात और लायलपुर

अमृतसर और लाहौर के अलावा पंजाब के तीन और जिले रौलट ऐक्ट-संबंधी उपद्रवों से प्रभावित थे, जैसे गुजरांवाला, गुजरात और लायलपुर। गुजरांवाला और गुजरात में शहरों के निम्न वर्गों के साथ ही रेल कर्मचारी हड़ताल में एक साथ थे। लेकिन हंटर कमीशन और कांग्रेस की जाँच-समिति रिपोर्ट से पता चलता है कि किसानों का विशाल वर्ग इस सबसे अछूता था। सरकारी भवनों एवं संचार व्यवस्था पर छिटपुट हमले हुए, 10 से 12 अप्रैल के बीच 54 तार की लाइनों में गड़बड़ी की गई और कहीं-कहीं तो अंग्रेजों पर व्यक्तिगत हमले भी हुये जिसका जवाब अधिक हिंसक और पाशविक तरीके से दिया गया। गुजरांवाला और आसपास के गाँवों में 14 अप्रैल को हवाई बमबारी तक की गई। मार्शल ला न्यायालयों ने 258 मामलों में कोड़े मारे जाने, नाक रगड़ने और कसूर में पूरी जनसंख्या को पूरे दिन पंजाब की चिललिाती घूप में खड़े रहने की विचित्र सजाएँ दी गईं। यहाँ तक कि 1 मई को कसूर में एक ग्यारह साल के बालक पर सम्राट के विरुद्ध युद्ध छेड़ने का आरोप लगाया गया। आंदोलनकारियों की हिंसा और सरकारी हिंसा के अनुपात में अंतर का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि पूरे पंजाब में केवल चार गोरे मारे गये थे, जबकि भारतीयों में कम-से-कम 1,200 मरे थे और 3,600 घायल हुए थे।

दिल्ली

दिल्ली में अंसारी के नेतृत्व में होमरूल लीग की शाखा फरवरी 1917 से ही सक्रिय थी और यह नगर अखिल-इस्लामी गतिविधि का केंद्र बन गया था। यहाँ हिंदू निम्न-मध्य वर्ग पर स्वामी श्रद्धानंद का विशेष प्रभाव था। नवंबर 1918 एवं फरवरी 1919 के बीच देसी भाषाओं के कई जुझारू समाचारपत्र निकलने लगे थे। इनके संपादकों-‘विजया’ के इंद्र, ‘कांग्रेस’ और ‘इकबाल’ के आसिफ हुसैन हासवी, और ‘कौम’ के संपादक काजी अब्बास हुसैन, और स्वामी श्रद्धानंद ने अप्रैल 1919 के रौलट-विरोधी आंदोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। वस्तुतः दिल्ली शहर में रौलट-सत्याग्रह तीन चरणों में चला- पहला चरण 30 मार्च की हड़ताल तक चला और इस दौरान दो स्थानों- रेलवे स्टेशन और चाँदनी चौक में जुलूस पर गोली चलाई गई जिसमें पाँच आंदोलनकारी मारे गये। इसके बाद अपेक्षाकृत शांति का चरण आया, जिसमें 4 अप्रैल को जामा मस्जिद की सभा में हिंदू-मुसलमान दोनों ने स्वामी श्रद्धानंद के चरण चूमे। गांधीजी के प्र्रवेश-निषेघ की खबर से 10 से 18 अप्रैल तक लगातार हड़ताल होती रही। 17 अप्रैल को चांदनी चौक में दूसरी बार गोलियाँ चलीं, इसके बार शहर की स्थिति सामान्य हो गई।

अहमदाबाद

अहमदाबाद में गांधीजी के प्रवेश-निषेध और गिरफ्तारी को लेकर 11 अप्रैल को एक हिंसक विद्रोह भड़क उठा और 51 सरकारी इमारतों को आग लगा दी गई। शहर में मार्शल ला लगाया गया और इस दौरान की गई कार्रवाई में सरकारी अनुमान के अनुसार 28 लोग मारे गये और 123 लोग घायल हुए। 12 अप्रैल को आंदोनकारियों ने पास के कस्बे वीरमगाम में भी तोड़-फोड़ की। बंबई शहर में 10-11 अप्रैल को एक स्वतःस्फूर्त हड़ताल हुई, लेकिन कुल मिलाकर स्थिति शांतपूर्ण ही रही और गांधीजी की उपस्थिति ने निश्चय ही नियंत्रक का काम किया। नडियाड और खेड़ा जिलों में भी जन-हिंसा नहीं हुई, क्योंकि 11 अप्रैल को अहमदाबाद से गांधीजी के एक अनुयायी ने लोगों से शांत रहने की प्रार्थना की थी। बंबई सरकार की प्रतिक्रिया भी पंजाब के मुकाबले अधिक संयमित रही।

कलकत्ता

कलकत्ता में 6 और 11 अप्रैल को हड़तालें हुईं, 11 अप्रैल के नाखुदा मस्जिद में हिंदू-मुसलमानों की एक संयुक्त सभा हुई और 12 अप्रैल को बड़ा बाजार क्षेत्र में जनता और पुलिस-सेना के बीच हिंसक संघर्ष हुआ, जिसमें अंग्रेजों ने मशीनगन चलाकर 9 लोगों को मार डाला। कलकत्ता के प्रदर्शनों में उत्तर भारत के हिंदुओं, मारवाडि़यों और मुसलमानों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया और स्वदेशी के विपरीत बंगाली विद्यार्थियों की भागीदारी अपेक्षाकृत कम रही।

मद्रास

मद्रास शहर में रौलट-विरोधी आंदोलन अपेक्षाकृत शातिपर्ण रहा, किंतु यहाँ भी समुद्रतट पर होने वाली बड़ी-बड़ी सभाओं को कल्याणसुंदर मुदालियार ;थिरु वी काद्ध और प्रथम मजदूर संघ मद्रास लेबर यूनियन के संगठनकर्ता सुब्रमण्य शिवा जैसे नेता संबोधित करते थे। देश के अन्य भागों में इस आंदोलन का विशेष प्रभाव नहीं पड़ा।

इस प्रकार रौलट सत्याग्रह के दौरान अंग्रेजों द्वारा किये गये अभूतपूर्व हिंसात्मक दमन, विशेषकर जालियाँवाला बाग हत्याकांड के कारण भारतीयों में कुछ समय के लिए भय की एक लहर-सी दौड़ गई। साम्राज्यवाद तथा विदेशी शासन जिस सभ्यता का दावा करते थे, उसके पर्दे में छिपे घिनौने चेहरे और बर्बरता का जीता-जागता रूप लोगों के सामने आ गया। जालियाँवाला बाग के ‘पैशाचिक कांड’ की निंदा करते हुए वायसराय की कार्यकारिणी की परिषद् के सदस्य शंकरनायक ने कार्यकारिणी-परिषद् से इस्तीफा दे दिया।

महान् कवि और मानवतावादी रचनाकार रवींद्रनाथ ठाकुर ने क्षुब्ध होकर 30 मई 1919 को अपनी ‘नाइट’ की उपाधि वापसकर देश की व्यथा और आक्रोश को अभिव्यक्ति दी: ‘‘वह समय आ गया है जब सम्मान के प्रतीक अपमान अपने बेमेल संदर्भ में हमारी शर्म को उजागर करते हैं और मैं, जहाँ तक मेरा सवाल है, सभी विशिष्ट उपाधियों से रहित होकर अपने उन देशवासियों के साथ खड़ा होना चाहता हूँ जो अपनी तथाकथित क्षुद्रता को सहने के लिए बाध्य हो सकते हैं।’’

रौलट ऐक्ट-विरोधी सत्याग्रह का मूल्यांकन (Evaluation of Anti-Rowlatt Act Satyagraha)

पंजाब में हुए हत्याकांड के प्रति कांग्रेस की औपचारिक प्रतिक्रिया 1919 में भी सदैव की भांति एक जाँच-समिति बिठाने तक ही सीमित रही। गांधीजी स्वयं देशव्यापी हिंसा, विशेष रूप से उनके अपने क्षेत्र अहमदाबाद में हुई हिंसा से बहुत खिन्न हुए और 18 अप्रैल को शीघ्रता से सत्याग्रह वापस ले लिये।

इस प्रकार एक राजनीतिक अभियान के रूप में रौलट ऐक्ट-विरोधी सत्याग्रह स्पष्ट रूप से असफल रहा, क्योंकि वह अपने अकेले लक्ष्य को, रौलट ऐक्ट को निरस्त कराने के लक्ष्य को भी नहीं पा सका। उसमें हिंसा भी शामिल हो गई, यद्यपि उसको अहिंसक होना चाहिए था। गांधीजी ने माना कि अहिंसा के अनुशासन के लिए अपर्याप्त रूप से प्रशिक्षित जनता को सत्याग्रह का हथियार थमाकर उन्होंने भारी गलती की है। फिर भी, यह आंदोलन महत्त्वपूर्ण था, क्योंकि यह पहला राष्ट्रव्यापी जन-आंदोलन था और कुछ सीमित वर्गों की राजनीति से जनता की राजनीति में भारतीय राष्ट्रवादी राजनीति के रूपांतरण के आरंभ का सूचक था।

<राष्ट्रीय आंदोलन में गांधीजी का आगमन

>स्वराज पार्टी और अपरिवर्तनवादी 

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