‘कुरु-धम्म’ की नसीहत (The Advices of the ‘Kuru-Dhamma’)

‘कुरु-धम्म’ की नसीहत

लेखक

प्रो. गोरखनाथ,

अवकाश प्राप्त आचार्य एवं अध्यक्ष

प्राचीन इतिहास, पुरातत्व एवं संस्कृति विभाग

दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर

पुरोवाक्

कुरु-कथा पर मेरी दृष्टि दशकों पूर्व पड़ी थी, कराधान से जुड़ी सामग्री तलाशते समय। ‘प्री-बुद्धिष्ट इंडिया’ में लेखक सामान्य-सी चर्चा करके आगे बढ़ गये हैं। यही दशा एकाध और जगहों की है। लेकिन जिज्ञासा को चिनगारी तो लग ही गई थी। कथा को जानने-समझने का सिलसिला जारी रहा और तदनुरूप आकांक्षा बढ़ती गई। जब भी गोंजे हुए पन्नों को उठाता, कोई रोशनी दिख जाती और मन खिल उठता। गिरते-पड़ते कोशिश जारी रही। कहीं उपहास का पात्र न बन जाऊँ, इस भय ने लक्ष्य से भटकाए रखा। ऐसे लघु कार्य में विलंब भी हुआ। इसका प्रतिफल रहा कि कथा की बातों को समझने और लिखे को जोड़ने-माजने का पूरा मौका मिला और आज जब मुकाम से ज्यादा दूर नहीं हूँ, अच्छा लग रहा है। इस बीच सियासी दलों की आपाधापी और उनके आड़े-तिरछे7 शर-संधानों के साथ सरकारों के संचालन में उनके अभिनव प्रयोगों ने काफी कुछ सिखा दिया। क्योंकि कुरु-कथा मूलतः दंडनीति से जुड़ी है। वह भी राजतंत्र से और अब देश में जनतंत्र है।

इस बीच प्राच्य विद्या के क्षेत्र में कर-भाग-भोग पर काफी कुछ परोसा गया है। तब भी कुरु-कथा से न्याय होना अभी बाकी है। दरअसल कथा इतनी छोटी है कि लोगों की नजरें इस पर ठहरती ही नहीं। नजर टिके तब न पात्रों पर दृष्टि अटके और फिर कथा की गंभीरता का एहसास हो। हालांकि जातकों का संकलन-प्रकाशन हुए अर्सा बीत गये। बाद में हिंदी संस्करण भी आया। तथापि कथा की खूबसूरती पत्तों की ओट में छिपे फल की तरह अदृश्य ही बनी रही। इतिहास लेखन में इसका समुचित उपयोग शायद नहीं हो पाया।

सामाजिक-राजनीतिक सरोकारों से संश्लिष्ठ कथा स्वयं में एक नन्ही-सी दुनिया है। वह छल-प्रपंच की बुराइयों से दूर है, किसी शरारत की जगह सादगी है, भोलापन है, पारदर्शिता है और है कथा में यथेष्ट मार्गदर्शन की संभावना भी। उसमें न वर्ण है, न जाति है, न उच्च-निम्न के दाँव-पेंच हैं और न हैं भेद-भाव के दुखते पल।

गुण-धर्म के आधार पर सभी सम-धरातल पर खड़े हैं और स्व-स्व कर्मों में लगे हैं, सतत जागृत विवेक के साथ किसी का आचरण दूसरे को पीड़ा प्रदान करे, वह स्वतः आजू-बाजू में सरक लेता है और अपने प्रिय का परित्याग कर भी ऐसा भाव प्रदर्शित करता जैसे कुछ हुआ ही नहीं। कुरुओं के इसी भोलेपन पर तो कलिंग के प्रतिनिधि कुर्बान हैं और उनकी कमियों-खामियों को बीन-बटोर पाथेय स्वरूप अपने देश लाते हैं और उनके अनुरूप आचरण-व्यवहार शुरू कर देते हैं। उसका पुरस्कार उनको मिलता भी है। कलिंगों की चिर-प्रतीक्षित अभिलाषा पूर्ण भी होती है।

अमूमन तो समाज में गुण ही अनुकरणीय होता है। यही तो हर ओर से सुनते भी आये हैं। पर यह क्या, यहाँ की धार की रफ्तार ही उलटी है। कलिंग-जन तो कुरुओं की गलतियों के हिमायती हैं और उनको ही ओढ़न-बिछावन बना रखा है। कहीं ऐसा भी होता है क्या? तो कहना होगा, हाँ! कलिंग में यही होता है। यह ऐतिहासिक साक्ष्यों से पूरी तरह समर्थित है। असत्य की रत्ती भर भी संभावना नहीं। वास्तव में यही तो बात है। तो नसीहत आज का यही कि देश लंबी गुलामी के बाद आजाद हुआ और शीघ्र ही जम्हूरियत से इसका मन भर गया। वह छटपटा रहा है। ऐसे में कैसे नहीं स्वर से स्वर मिले- यहाँ दरख्तों के साये में धूप लगने लगी है।

आखिर में इस लेखन में यत्किचित् कमी दिखती है तो गुनहगार स्वतः मैं हूँ और किसी को कुछ अच्छा दिख जाता है तो उसका श्रेय कथा के बुनकरों को जाना चाहिए। बात आज के राजनय से ताल-मेल बिठाने का है, तो इसमें मैंने महज एक थोड़ा सचेत नागरिक का फर्ज निभाया है। सीमा में रहते, इतना ही बस।

आभार ज्ञापन

मूलो नास्ति कुतो शाखा’ की तरह पुराने जमाने की किस्सागोई न होती तो ‘कुरु-धम्म’ का वजूद न होता, और न ही टीका-टिप्पणी करने वाले होते। यह अलग है कि कथाकार ज्ञान-विज्ञान की तमाम संचेतनाओं से समन्वित होते थे। उनको अपने जमाने के इतिहास-भूगोल आदि का भी अच्छा ज्ञान होता था। कुरु-कथा को गढ़ने वाला तो दो कदम आगे था। उसे उस वक्त के आर्थिक क्रिया-कलाप भी ठीक से याद थे। तभी तो डॉ. रतिलाल मेहता उसकी ओर लपके और मैं भी उनके कदमों के निशान तलाशते थोड़ा आगे बढ़ गया। उन सभी के प्रति असीम आभार व नमन।

मेरे समक्ष असंख्य दुश्वारियाँ आईं पर कथा का दामन पकड़े रखा। कामयाबी मिलती कि कोविड-19 ने पीछे ढकेल दिया। प्रेस के हवाले कर के भी काम न बना। ‘कुरु धम्म की नसीहत’ को दुबारा छापाखाने द्वार पहुँचाने का श्रेय मेरे प्रिय शिष्य प्रो. प्रताप विजय कुमार को जाता है। मैं उनके सुखी जीवन की कामना करता हूँ। पूर्व में टंकण कराने का दायित्व श्री नरेन्द्र कुमार वर्मा ने निभाया। ऐसे अनुज को साधुवाद।

‘कुरु-धम्म’ की नसीहत (The Advices of the ‘Kuru-Dhamma’)
‘कुरु-धम्म’ की नसीहत

धम्म कथा: एक परिचय

बौद्ध धर्म का साहित्य-संसार बेशुमार है। उसका एक महत्वपूर्ण भाग ‘जातक’ नाम से जाना जाता है। इसमें तमाम कथा-कहानियों का संग्रह है। कथाएँ सुंदर व सरस ढंग से गढ़ी गई हैं। जैसे कोई वर्धकी (बढ़ई) चूल से चूल मिलाकर काष्ठ सामग्री का निर्माण करता है, जिस प्रकार बुनकर रंग व डिजाइन से आकर्षक वस्त्र तैयार करता है, वही तौर-तरीका कहानियों के गढ़ने में अपनाया गया है। सभी कहानियों में प्रमुख पात्र बोधिसत्व हैं जिनको बुद्ध का पूर्व अवतार मानते हैं। इससे कथाओं की प्राचीनता का पता चलता है। उन्हीं में एक ‘कुरु धम्म-कथा’ की भी है। वह कुरुधम्म जातक का अंग है।

कुरु एक राज्य है, जिसकी प्राचीनता 600 ई.पू. से भी आगे वैदिक काल तक पहुँचती है। ऐतिहासिक काल आते-आते इसके इतिहास-संस्कृति का विस्तृत विवरण मिलने लगता है। ‘धम्म’ पालि भाषा का शब्द है जिसका संस्कृत हमसफर धर्म है। वह आज के धर्म/रेलिजन से भिन्न है। महाभारत के अनुसार धर्म का आशय जीवन-यापन की सुंदर कला से है। उस वक्त एक दूसरे का ख्याल करते हुए अपनी सूझ-बूझ के साथ लोग अमन-चैन से रहते थे।

कथा में खास प्रसंग कलिंग का है। वहाँ अरसे से अवर्षा के कारण अकाल की स्थिति है। कलिंग की प्रजा, मय राजा के तमाम जोड़-जुगत करके थक चुकी है। तदापि वर्षा नहीं होती। एक राहगीर के जरिये लोगों को कुरु देश में शुभंकर स्वरूप हाथी का पता चलता है। पथिक की सोच है कि कुरुओं की शान बना हाथी कलिंग आ जाय तो वहाँ बारिश हो सकती है। वही इसका खुलासा करता कि कुरु राज अतिशय उदार है, जो कलिंग की याचना पर हाथी प्रदान कर सकता है। तयशुदा कार्यक्रम के अनुसार सब संपन्न होता है, पर पानी नहीं बरसता। कलिंगों की उम्मीदें धूमिल होती हैं, पर वे निराश नहीं होते।

फिर किसी सूत्र से कलिंग-जन को ‘कुरु-धम्म’ की जानकारी होती है। सूत्रधार उस धम्म का स्वरूप स्पष्ट करता है और स्वर्ण-पत्र पर लिखकर लाने और सभी के द्वारा तद्नुरूप आचरण करने का परामर्श देता है। वह पक्का विश्वास दिलाता है कि वैसा करने से वर्षा होगी और कलिंग को सूखे से निजात मिलेगी। कलिंग में याचक पुनः एक बार कमर कसते हैं और धम्म को लेखबद्ध कर स्वदेश लाने में सफल होते हैं। फिर तो वहाँ चमत्कार होता है। स्थान-स्थान पर धम्म के प्रदर्शन और कलिंग द्वारा उसके आचरण से अमृत-मय जल फूट पड़ता है तथा सूखे से उत्पन्न संकट मिट जाता है। यहाँ यह जानना स्वाभाविक है कि ऐसा क्या है वहाँ के धम्म में?

वास्तव में धम्म का विवेचन ही कथा का अहम् भाग है, जो दरअसल कुरुओं के जीवन का व्यवहारिक दर्शन है। कथा में ग्यारह पात्र हैं और वे क्रमशः सामने आते हैं। उनको कुरु-धम्म का प्रतिष्ठित जन कहा गया है- ‘ते एकादश जनाः कुरु धम्मे पतिष्ट्ठिता’। वही स्त्री-पुरुष उस देश के महान धम्म पालक यानि धर्म के पालनकर्ता हैं। वहाँ के आदर्श हैं।

कथा में उस वक्त एक मोड़ आता है जब कलिंग के याचक धम्म को लिपिबद्ध करने की अभिलाषा से उन अभ्यासियों से मुखातिब होते हैं। उस समय वे हैरान-परेशान रह जाते हैं, जब प्रत्येक धम्म-पालक इसे स्वीकार कर आगे बढ़ जाता है कि अब वह श्रेष्ठ धम्म-पालक नहीं रहा। उस दौरान वे अगले धम्म-पालक की तरफ खास इशारा करना नहीं भूलते जो उनकी नजर में श्रेष्ठता का हकदार है। उनका त्यागपूर्ण व्यवहार याचक-गण के दिलों को छू जाता है, क्योंकि स्वयं के धम्म-च्युत् होने का न उनको कोई मलाल है और न ही अगले के प्रति कोई द्वेष भाव। आज के वातावरण में इन बातों की अहमियत कहीं ज्यादा है, क्योंकि महत्वाकांक्षा लोगों के बीच की दूरी बढ़ा रही है।

धम्म-पालकों में प्रथम राजा एवं अंतिम गणिका सहित समाज के हर वर्ग के नर-नारी शामिल हैं। गणिका की सर्वोपरि स्थिति एक रोचक अंदाज में पेश की गई है। वह एक ऐसी रूप-गुण-संपन्न स्त्री है जिसे जन-भोग्या (च्नइसपब ॅवउंद) कहा जाना ठीक होगा। अन्य किरदारों की तरह उसमें भी खोट है जिसे त्वरित भूल सुधार के जरिये वह दुरुस्त कर लेती है। वास्तव में होता यह है कि तीन वर्ष पूर्व कोई ग्राहक उसे पेशगी देकर चला गया है जो फिर लौटता ही नहीं। उस बीच तमाम प्रतीक्षा कर आर्थिक लाचारी के चलते नये ग्राहक से जब वह सौदा कर रही होती है, उसी क्षण पूर्व ग्राहक उसे दिखाई दे जाता है। फिर तो नये की पेशगी ठुकरा कर पुराने की तरफ वह तेजी से लपकती है। उसी मुकाम पर इंद्र स्वयं प्रकट होता है, जो उसकी परीक्षा ले रहा होता है। वहाँ एकत्र हुई भीड़ के सामने इंद्र गणिका के निष्ठापूर्ण धम्म-पालन की प्रशंसा करता है और उसके आचार-व्यवहार से लोग शिक्षा ग्रहण करें, इसका परामर्श दे द्युलोक को उड़ जाता है। इस तरह शरीर का सौदा करने वाली एक सामान्य नारी श्रेष्ठ धम्म-पालक बन कर समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करती है। इससे इसकी पुष्टि होती है कि कुरुओं का समाज एक खुला समाज था जिसमें सभी को अपना सर्वोत्तम प्रदर्शित करने का अवसर मिलता था।

पात्र-परिचय के क्रम में उनकी गलतियों का संकेत ऊपर किया गया है। वास्तव में वे कमियाँ ही कथा की प्रेरक अंश हैं। शायद उसी उद्देश्य से कथा रचित है। जब स्व-आरोपी अपनी कमियों का बयान कलिंग के याचकों के सम्मुख कर रहे होते तो वे देखते रह जाते, क्योंकि कोई गलती उनसे होती ही नहीं। बिना किसी गुनाह के श्रेष्ठ पद का त्याग कलिंगों को विस्मय कर जाता है। याचक उस समय नमन मुद्रा में आ जाते हैं जब वे देखते हैं कि पद छोड़ने वालों को कोई पछतावा नहीं, चेहरे पर कोई शिकन नहीं।

ऐसे स्वस्थ वातावरण में जो अमृत वचन उन आत्म-आरोपी-अपराधियों से उन्हें प्राप्त होता है, वहीं कुरु-धम्म है। वही स्वर्णाक्षरों में लिखकर याचक कलिंग लौट आते हैं और स्थान-स्थान पर उसका प्रदर्शन किया जाता है। जैसे प्रजा के लाभ के लिए सम्राट अशोक ने शिलाओं पर अभिलेख लिखवा कर जगह-जगह प्रदर्शन कराया था। फिर तो धम्म के अनुपालन से कलिंगों का जीवन संवर जाता है और चमत्कारिक बारिश में तर-बतर हो उठते हैं। उनकी मुराद पूरी हो जाती है। धन-धान्य लौट आता है।

कलिंग-कुरु की पहचान

कथा में आया कलिंग आज के उड़ीसा का वही क्षेत्र है, जिसका उल्लेख प्राचीन साहित्य एवं अभिलेखों में आया है। संभव है झारखंड तथा छत्तीसगढ़ के दुर्गम क्षेत्र तक भी विस्तार हो। महाभारत के साथ यूनानी स्रोतों में भी उसकी चर्चा की गई है। वहाँ के लोगों को काफी परिश्रमी कहा गया है। कलिंगों को स्वतंत्रता बेहद प्यारी थी। वे किसी के आधिपत्य को लंबे समय तक सहन नहीं कर पाते थे। परतंत्रता की बेड़ी तोड़ना कोई उनसे सीखे। बौद्ध ग्रंथों से भी इन्हीं बातों का समर्थन होता है। साक्ष्यों में उसे वनाच्छादित पहाड़ी-पठारी भाग कहा गया है, जहाँ जीवन-यापन खासा संघर्षमय था। कृषि की भूमि के अभाव के कारण लोग जी-तोड़ परिश्रम करते थे। पानी की कमी यहाँ अलग चुनौती थी। वन उत्पाद (वनोपज) वहाँ के प्रमुख संसाधन थे।

वहाँ के वनों में हाथी पाये जाते थे। इस कारण गजदंत का कारोबार जोरों पर था। इससे जुड़े शिल्पी वहाँ बहुसंख्या में थे, जो दंत से तरह-तरह की सामग्री का निर्माण कर आर्थिक क्षेत्र में योगदान दे रहे थे। दंतपुर नाम के नगर का वहाँ विकसित होना इसका प्रमाण है। समुद्रतटीय क्षेत्र होने के कारण सीप, शंख, कौड़ी, मुक्ता आदि का संचय कई व्यवसायों का प्रेरणा-स्रोत था। कलिंग के प्राचीनतम सिक्कों (आहत मुद्रा) पर इनके चिह्न देखे भी जाते हैं। इनसे बनी तमाम उपभोक्ता वस्तुओं की बिक्री दूर-दूर तक की जाती थी।

कलिंग की ज्यादा प्रमाणिक जानकारी अभिलेखों से प्राप्त है। अशोक ने भारी रक्तपात करके उसे जीता था, इसे सभी जानते हैं। फिर भी वह मौर्य साम्राज्य का स्थाई हिस्सा नहीं बन पाया। उससे पूर्व चंद्रगुप्त मौर्य ने उसे जीतने की सफल कोशिश अवश्य की होगी। बिंदुसार के वक्त कभी मौर्यों की पकड़ से फिर छूट गया। तभी तो अशोक को बल प्रयोग करना पड़ा।

उससे भी पहले किसी नंद शासक ने कलिंग को रौंदा था। यह सूचना बाद के हाथीगुम्फा अभिलेख में मिलती है। उसी में नंद शासक द्वारा वहाँ सिंचाई आदि के लिए समुचित जल-प्रबंधन की सूचना है। बाद में फिर कलिंग स्वतंत्र हो गया। तभी अधिकार में लेने हेतु मौर्यों को बल प्रयोग करना पड़ा।

कलिंग के लिए वह जल योजना काफी उपयोगी रही होगी। वहाँ की दुर्गम भूमि पर बनी नहर आगे के 300 वर्षों तक लोगों के काम आती रही। अभिलेख का नायक खारवेल अपने समय में नहर का विस्तार कर तोसली तक ले जाता है, यह जनहित के कार्यों में राजाओं की रुचि का प्रमाण है। कलिंग के लिए वह जल-योजना कितनी कारगर थी, स्पष्ट है। वहाँ के जन विषम परिस्थितियों में भी कृषि कार्य कितनी दक्षता से कर लेते थे, यह वहाँ के आदि सिक्कों पर अंकित वृषभ के प्रतीक से भी स्पष्ट होता है।

स्वाभिमान के साथ जीने वाले कलिंग-वासी शत्रुओं से जमकर बदला लेते थे। खारवेल ने स्वयं अच्छे दिनों में उत्तर की ओर मगध पर धावा बोला था। उस विजय अभियान में वहाँ तूफान मचा कर वहाँ से ‘जिन’ की प्रतिमा को वापस लाने में सफल हुआ था। ‘जिन’ से मतलब महावीर स्वामी से है। यानि कलिंग के क्षेत्र में जैन संप्रदाय का प्रभाव था। हो न हो वह वही प्रतिमा थी जिसको नंद शासक 300 वर्ष पहले कलिंग से उठा ले गया था। नंदों का अनुराग भी जैन धर्म के प्रति था, यहाँ स्पष्ट है। इससे यह भी विदित होता है कि बौद्धों से पूर्व जैनों में मूर्ति-पूजा शुरू हो गई थी। संभव है जैनियों की देखा-देखी बुद्ध की मूर्तियाँ बनी हों।

अब भी समुद्र का तटीय क्षेत्र प्रायः वैसा ही है। यहाँ अल्प वर्षा के कारण सूखे की स्थिति रहती है। भूमि की बनावट कृषि हेतु मुफीद नहीं है। अतः वहाँ जन-जीवन संघर्षमय है। आज को देखकर दो-ढाई हजार वर्ष पहले का अनुमान कर सकते हैं कि वहाँ अकाल पड़ा होगा। प्राचीन ग्रंथों में ऐसे अकाल सूखे के तमाम संदर्भ हैं। ऐसी ही किसी स्थिति से प्रेरित होकर यह कथा लिखी गई होगी।

कलिंग के विषय में एक रोचक तथ्य और भी। आर्थिक बदलाव के चलते छठी-पाँचवीं शती ई.पू. में जब सिक्कों का चलन आरंभ हुआ, कलिंग भी उस दौड़ में कूद पड़ा। चार चिह्नों वाले चाँदी के सिक्कों को चलाकर उसने भी आर्थिक हैसियत दिखा दी। उसके आहत सिक्के आज बड़े काम के हैं। वे वहाँ के सुनहरे अतीत के साक्षी हैं।

कुरु देश का अतीत भी ऐसे ही सुंदर एवं समृद्ध रहा है। तो मानना पड़ेगा कि भारत के ऐतिहासिक काल की शुरुआत गौरवपूर्ण तरीके से हुई। उस वक्त के सोलह महाजनपदों में कुरु जनपद भी था। इससे उसकी आर्थिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का अनुमान कर सकते हैं। कुरु के कारण ही पौराणिक काल का राज-परिवार कौरव कहलाया। धृतराष्ट्र के वंशज इसी नाम से संबोधित हैं। उसी हस्तिनापुर नरेश के समय पांडु पुत्रों को पांडव की पृथक् पहचान मिली। इसके मद्देनजर पुरैतिहासिक (च्तवजव.ीपेजवतपब) कुरु देश की महानता स्वतः स्पष्ट है। स्वदेशी परंपरानुसार वह द्वापर युग की घटना है।

यहाँ अल्प चर्चा पांचाल की। साक्ष्यों में कहीं कुरु-पांचाल की चर्चा है तो कहीं पांचाल की एकाकी गूँज है। ऐतिहासिक काल की इसकी महत्ता से साफ है कि पांचाल की जड़ें वैदिक भूमि से जुड़ी हैं। छठी शती ई.पू. के समय दोनों पड़ोसी राज्य के रूप में मिलते हैं। दुर्जेय शक्ति का पांचाल उत्तर तथा दक्षिण, दो भागों में बँटा हुआ था, जहाँ कुरु उत्तर पांचाल (अहिच्छत्र व बरेली) के पड़ोसी थे। आज के मेरठ, दिल्ली एवं इंद्रप्रस्थ को मिलाकर कुरु प्रदेश का विस्तार पश्चिम में कुरुक्षेत्र (हरियाणा) तक समझना चाहिए। वहीं कौरव-पांडव का इतिहास प्रसिद्ध युद्ध लड़ा गया था, महाभारत।

कुरु-पांचाल के सुदूर अतीत में उतरें तो ऋग्वेदीय जन-गण के अंतर्गत पुरु और भरत जन मिलकर कुरु बने तो तुर्वश और कृविष के मेल से पांचालों की स्थिति बनी। इनके गहरे ऐतिहासिक रिश्तों की तरह इनकी संस्कृति भी कई रंगों से रंग कर चटक-चमकीली बनी थी। तात्पर्य यह कि कुरु-पांचालों ने राजनीतिक क्षितिज पर लंबी पारी खेली और संस्कृतियों के उतार-चढ़ाव को नजदीक से देखा। कुरु-कथा में एक अति उच्च नैतिक आदर्श की स्थापना है। वह आज के फिसलन भरे वक्त में देश-समाज का मार्ग-दर्शन करने की कूबत रखता है। बशर्ते कि उसकी जानकारी का कोई कद्रदान हो तथा तदनुरूप जीवन में उतारने को तत्पर हो।

धर्म-अधर्म की दृष्टि से महाभारत का एक प्रसंग बड़ा सही है। वह है तो खलनायक दुर्योधन से जुड़ा, पर बड़ी अहमियत लिए हुए है:

जनामि धर्मं न च ते प्रवृत्तिः

जनामि अधर्मं न च ते निवृत्तिः।

यहाँ धर्म-अधर्म के झूले पर ऊपर-नीचे होते समाज का चित्रण है। इसके आधार पर दुर्योधन को खलनायक की श्रेणी में ढकेलना उसके साथ नाइंसाफी होगी। वह गुण-अवगुण का विवेचक है। उसका दोष यही है कि अच्छे को ग्रहण नहीं कर पाता और बुरे को छोड़ नहीं पाता। महाकाव्य में द्वंद्व में उलझे दूसरे किरदार भी हैं। कुछ तो ऐसी खींचतान की प्रतियोगिता में समिधा डालते मिलते हैं तो दूसरे उनसे उत्पन्न तपिश में जल-भुनकर राख होते भी। दोनों कुल तो हैं अंततः एक ही, किंतु कौरव खामियों के चलते विनाश को आमंत्रित करते हैं तो पांडव खूबियों की वजह से अपना अस्तित्व बचाने में कामयाब होते हैं। वैसे मृत्यु की दहलीज पर पड़े पितामह का द्रौपदी को दिया ज्ञान हर काल में प्रेरणादायक है। वह जुड़ा है खाद्य पदार्थ के स्रोत से। कहा भी है, जैसा अन्न वैसा मन। यह विदित है कि पितामह एक विशुद्ध आत्मा वाले महामानव थे, किंतु वे भोजन लेते थे कौरव पक्ष का। इस कारण सभा में स्वयं की कुल-वधू का अपमान होते देख वे विरोध न कर सके। शर-शैय्या पर रहते जब सारा दूषित रक्त बाहर निकल गया तब उन्होंने सच कबूला और निर्मल मन से उपदेश दिए। अन्न-दोष पर ऐसा विचार काबिलेगौर है। आज भी इसकी उपयोगिता है और आगे भी सदाचारी इसे सिर माथे किये रहेंगे। राजनीति में अपना भविष्य चमका रहे आज के जन-सेवक इससे कुछ सीख सकें तो देश-समाज का काफी भला होगा।

कुरु-कथा के तार गंधार केकय से भी जुड़े प्रतीत होते हैं। अनुमान तो यह भी है कि रामायण की घटनाएँ तक उससे जुड़ी हो सकती हैं। कुरवो नाम भरताः का महाभारत का अंश भरत-पुरु के रूप में इनको ऋग्वेद तक ले जाता है। ऋग्वेद के ही आधार पर इनका संबंध त्रसदस्यु से जुड़ता है, जो पूर्व वैदिककाल का एक चरित्र नायक है। इन वैदिक कड़ियों को महाकाव्यों के कथानकों से जब सुमेलित करते हैं तो कुरु-कांधार-कैकेय की तस्वीर थोड़ी साफ होती है। कौरव धृतराष्ट्र का विवाह गांधारी से हुआ था। वह भीष्म की योजना का नमूना था। गंधार नरेश सुबल के आदेश से गंधारी भ्राता शकुनी के साथ हस्तिनापुर आई थी। उसके पहले किसी कुरुवंशीय राजा अजमीढ़ के किसी गंधार कन्या से विवाह का जिक्र है। उसी परिणय के पश्चात गंधार के जनों का आर्यीकरण (Aryanization) हुआ। यह ऐसे सही जान पड़ता है कि गंधार के समाज में कुछ अस्वस्थ एवं शर्मसार करने वाली प्रथाएँ व्यवहार में रही थीं। उनके मद्देनजर गंधार के जन यदा-कदा आलोचना के शिकार तक बने हैं। क्योंकि वहाँ यौन-क्रियाओं की स्वच्छंदता थी। संस्कृति के विचार से ऐसे समाज को सुधार की जरुरत होती है और वह रोशनी वहाँ विलंब से पहुँची। संभव यह भी है कि वह स्थानीय दोष था जो वृष्टि छाया की ओट में छूट गया था।

कैकेय का एक दूसरा वाकया भी है। कैकेयी अयोध्या नरेश की कनिष्ठ पटरानी थी, जो दासी मन्थरा के साथ आई थी। ठीक महाभारत के गंधारी-शकुनी की तरह। यही नहीं, दोनों रानियों के साथ आये सेविका-सहचर ने खलनायकी का जो खेल खेला, उससे अयोध्या और हस्तिनापुर हिल गये। वहाँ उठे बवण्डर में तमाम रीति-नीति की धज्जियाँ उड़ीं और मर्यादा तार-तार हो बिखर गई।

केकयी के भ्राता अश्वपति को केकय-राज कहा गया है। एक दूसरे केकय नरेश अश्वपति की चर्चा ‘छांदोग्य उपनिषद्’ में भी है। वह कुशल राजनीतिक प्रबंधन के लिए दूर-दूर तक मशहूर हैं। ‘न स्वैरी स्वेरिणी कुतः’ उसी से जुड़ा उपनिषद् का अंश है। यानि वहाँ उसके राज्य में कोई दुराचारी नहीं था, तो फिर दुराचारिणी भी कैसे हो सकती है। वैसे यह लाख टके की बात है और हर दशा में ग्रहण करने योग्य भी। इतिहास में ऐसा उदाहरण शायद ही कहीं मिले जब कोई कर्मवीर अपनी काबिलियत पर इतना गर्व करे:

न मे स्तेनो जनपदे न कदर्यो न मद्यपः

नाना हिताग्नि न अविद्वान न स्वैरी स्वैरिणीकृतः।।

केकयी प्रकरण के प्रकाश में एक शासक की ऐसी गर्वोक्ति ‘छांदोग्य उपनिषद्’ के अश्वपति की ही हो सकती है। वैसे दोनों एक राज्य के शासनाध्यक्ष हो सकते हैं, पर समय का अंतराल होगा। सर्वाधिक महत्व का यह है कि वैसा राज्य उधर पश्चिम में था, जिसमें चोर, कंजूस, लोभी व मद्यप नहीं थे। अच्छे कार्य में लगे लोगों में मूर्ख तथा अनपढ़ तक कोई नहीं था। चौंकाने वाली बात यह है कि उस राज्य में चरित्रहीनता नहीं थी। ये सभी विशेषताएँ कुरुओं की ओर इशारा करती हैं, जिसको ध्यान में रखकर कथा का सृजन किया गया।

देखने का यह कि बिल्कुल इसके समरूप बात रामायण के बालकांड के अयोध्या-बखान में मिलती है। त्रिवर्ग का समुचित लाभ लेने वाले अयोध्या के लोग धर्मात्मा, बहुश्रुत, लोभ-रहित व सत्यवादी होते थे। और तो और वहाँ कोई भी लम्पट, कृपण, क्रूर, मूर्ख और नास्तिक नहीं था-

कामां वा न कदर्मों वा नृशंसः पुरुषः क्वचित्।

द्रष्टुं शक्यं अयोध्यायां न अविद्वान न च नास्तिकः।।

इन युगल संदर्भों का साम्य सचमुच अद्भुत है। इससे क्वचित् अंदरूनी तार जुड़ता दिखता है।

आज जब समाज में मूल्यों, सिद्धांतों का क्षरण रोके नहीं रुक रहा, ऐसे उदाहरण अपनाए जाने चाहिए। पर वोट बटोरने की फितरत में लगे सियासत के पुजारी तवज्जो देंगे, यकीन नहीं आता। स्वदेशी संस्कृति का ढिंढोरा पीटने वाले प्रखर-प्रतापी राष्ट-प्रेमी भी इस बिंदु पर फिसड्डी ही मिलेंगे।

जातक कथा की लघु कड़ी महासतिय पठ्टान सूत्र से जुड़ती है। वहाँ कुरुदेश के एक निगम (Township) कम्मासदम्म का जिक्र है, जहाँ बुद्ध गये थे और भिक्षुओं को उपदेश दिया था। भगवान ने वहाँ की रीति-नीति व कुल-परंपरा की सराहना की थी। उसकी स्मृति, तमाम परिवर्तनों के, वहाँ अब भी है। कुरुक्षेत्र बौद्ध-साधना के प्रतिष्ठित केंद्र के रूप में मान्य है।

ऐसे में कुरु देश से जुड़े अनेक रोचक संस्मरण हैं। उनका प्रचार-प्रसार लंबे समय तक होता रहा। कुछ बातें उस दौरान कथाओं में जुड़ती भी रहीं। यहाँ यह तो कहना ही होगा कि पवित्र एवं सुंदर विचार प्रतीच (पश्चिमी) से प्राच्य (पूरब) तक सरकता-तैरता रहा, पश्चिमी सरस्वती प्रदेश (विनशन-राजस्थान से इतर) से पूर्वी पंजाब समेत सरस्वती घाटी और फिर उत्तर पंचाल तक। वैदिक जनों के प्रवर्जन (Movement and Migration) एवं दूसरे गणों के संक्रमण से एक विचारवान मर्यादित क्षेत्र विकसित हो गया। वह सरस्वती. सिंधु नदी से होकर गंधार-पंजाब और पश्चिमी यू.पी. तक फैला था। इस प्रक्रिया में कुछ गण-कबीलों में सांस्कृतिक उन्नति के लक्षण प्रकट हुए, तो कितने ही पुरातन प्रथा के जाल में उलझे रहे। यही कारण है कि कहीं उच्च नैतिक आदर्श की स्थिति दिखती है, तो अन्यत्र चारित्रिक पराभव के प्रमाण भी छिपे मिलते हैं। संस्कृति के सभी रंग व छटाएँ देश-समाज में देखी जाती हैं, तो ठीक ही है।

संस्कृति को लेकर उच्च-निम्न का सामना कुरुओं को भी करना पड़ा। वैदिक काल में वे टेढ़े-मेढ़े रास्ते भटकते पलायन करने तक को विवश हुए। यहाँ तक कि पंचालों ने उनकी जमीन छीन ली। कुरु राष्ट्र की जगह पंचाल नगर तक बसा डाला। सोमनस्स जातक ऐसा संकेत देता है। ऐसे में कुरु कथा के धर्मशील पात्र किसी खास देश व काल के न होकर अनेक स्थान और संस्कृति के हो सकते हैं। विश्वास इसका भी किया जाना चाहिए कि कथा में अनेक स्तर पर सुधार के दौर चले और फिर एक सुंदर स्वरूप उभर कर सामने आया। वही ‘कुरु-धम्म’ कथा है।

गलती: राजा-उपराजा की

धनंजय (बोधिसत्व) कुरु देश का राजा है। वही सर्वश्रेष्ठ धम्म-पालक भी है। यानि ग्यारहों धम्म-पालकों का शिखर प्रमुख। उसकी गलती, उसकी जुबानी- एक समय उत्सव का शुभारंभ करते हमने तीन बाण छोड़े। दो कहीं गिरे, इसका तो ज्ञान है, पर तीसरे का कुछ पता नहीं। कहीं वह सरोवर में तो नहीं गिरा। कोई मछली जरूर मारी गई। तो राजा के दुःख का कारण मछली की मौत है। ऐसा हुआ भी, कोई पुष्ट प्रमाण नहीं। मेला सरोवर के तट पर लगा था, अतः ऐसा हो सकता है। उधर राजा वर्षों की जप-तप से अर्जित पूँजी गवाने को तैयार। यहाँ तक कि धम्म-पालक का रुतबा भी भुला बैठा है। कैसी विडंबना है यह। इतिहास पर नजर डालें, शायद ही वैसी संवेदना का धनी कोई मिले। स्वर्णकाल में भी कोई न होगा। आज के हिंद सेवक तो धनंजय की कनिष्ठिका पकड़ने के भी काबिल नहीं। राजा के श्रेष्ठ धम्म-पालक न रहने पर कलिंग के याचक दल को घोर आश्चर्य होता है।

कथा में एक पात्र उप-राजा है, जो राजा का अनुज भी है। राज-परिवार वाले ऐसे पद पर विराजते रहे हैं। राजतंत्र में यह आम है। शक-पह्लवों में सह-शासक की लंबी प्रथा रही। उनके सिक्कों से अनेक महत्व की जानकारी मिलती है। कहीं तो यह पद कलह की वजह भी साबित हुआ है। कुरु राज्य में ऐसा नहीं था। श्रेष्ठ धम्म-पालक के हेतु अनुज का नामोल्लेख स्वयं राजमहिषी ने किया था।

वास्तव में उप-राजा स्वयं रथ हाँककर नित्य सायं राजा का कुशल-क्षेम जानने राजमहल जाता था। लगे हाथ दिन भर के कार्यों का ब्योरा भी राजा को दे आता। जिस रात उसे लौटना नहीं होता, रथ से अश्वों को विलग कर देता और कोड़े को भी हटवा देता। एक शाम राजा के पास वह गया ही था कि जोरों की बारिश होने लगी। यहीं भोजन कर विश्राम करो, राजा के ऐसा कहने पर वह वहीं ठहर गया। बात-चीत में उसे इसका ध्यान नहीं रहा कि कोड़ा और अश्व रथ के पास ही हैं।

अगली सुबह वहाँ से चलने को हुआ तो देखा कि तमाम लोग भीगते खड़े हैं और उप-राजा के आगमन की आस लगाए हैं। वह दृश्य देख उसे अतिशय ग्लानि हुई और धम्म-पालक का उसका सपना टूटकर बिखर गया। वह बेहद दुःखी रहने लगा, क्योंकि मामूली-सी लापरवाही के चलते तमाम लोगों को भारी कष्ट उठाने पड़े।

यहाँ देखें तो उप-राजा से एक चूक हुई, वह भी अनजाने में। राजकार्य की व्यस्तता के चलते वह संभव है। मानवीय भूल भी कहेंगे। बारिश भी एक वजह बनी, जो प्रजा जन उससे मिलकर कुछ निवेदन करना चाहते थे, उनको दुःख पहुँचा। कोड़ा और अश्व कोई राजकर्मी ही हटा देता तब भी अनहोनी न होती। लगता है तब आज के हाकिमों की तरह ऐशपरस्ती न थी। उप-राजा होना, उसका स्वयं रथ हाँकना, सादगी का संकेत है। फिर तो कहना पड़ता है, ‘जैसा राजा वैसी उसकी प्रजा’। क्या सुखद संयोग था वहाँ। सह-शासक ने अविलंब अपनी गलती कबूल कर ली और सिर का ताज त्याग दिया। आज-कल की तरह उसने कोई हीला-हवाली नहीं की। न अपराध सिद्ध होने तक ताज पकड़े रहने की जिद्द की। देश के तमाम हिंद सेवकों के लिए यह एक मिसाल है। उधर तपे-सधे कुरु-जन का देखिए, पूरी रात पानी में भीगते खड़े रहे, एक बार ‘मुर्दाबाद’ नहीं बोला किसी ने। थोड़े से भी उच्च स्वर में बोले होते तो आवाज ऊपर जाती और फरियादियों की बात राजा तक पहुँचती। पर वहाँ तो अति अनुशासित संयमी जनता ठहरी जो बुत की तरह शांत खड़ी रही। यह भी अचम्भे की बात है। नेता नहीं सीखते तो न सही, प्रजा ही अब सीखकर सुधर जाती तो भी देश का भला होता। वक्त आने पर जनता नेताओं को ठेलकर बाहर का रास्ता दिखा देती।

सोच: स्त्री पात्रों का

कुल तीन स्त्री-पात्र हैं कथा में। राजमाता (बोधिसत्व की माँ) श्रेष्ठ धम्म-पालक हैं। इसका परिचय स्वयं राजा ने दिया था। यानि राजा के बाद दूसरे स्थान की हकदार वह भी एक भूल की शिकार बनी। जबकि भूल की कोई खास न वजह नहीं। वास्तव में उनके पास दो अदद (बढ़िया चंदन का इत्र और एक सोने का नेकबैंड, प्रत्येक का मूल्य एक लाख सिक्कों के बराबर था) कीमती सामान थे जिन्हें दोनों बहुओं को देना था। उनके मन में संशय उठा, एक धनिक है और दूसरी थोड़ी गरीब। वही भेद का भाव उनके लिए अवसाद का कारण बना और धम्म-पालक का पद छोड़ने का राजमाता ने फैसला कर लिया।

यहाँ भी पूर्व की तरह लचर कारण। मन में विकार आया कि अगले क्षण उसे काबू में कर लिया, और स्वतः अपराधी भी बन गई। यहाँ भी मानव संवेदना की उच्च स्थिति जो न देखी, न सुनी।

श्रेष्ठता क्रम में महारानी का स्थान तीसरा है। वह राजा की पटरानी हैं जिसे श्रेष्ठता का आशीर्वाद राज-माता ने दिया था। याचकों के समक्ष उसने भी अपने मन का पाप प्रकट किया। वह कुछ ऐसे था- कभी उसने राजा के साथ अपने देवर को हाथी पर बैठे देखा और उस पर कामासक्त हो बैठी। असल में रानी के मन में उप-राजा के साथ सहवास का ख्याल आया जिस पर तत्काल उसने ब्रेक लगा दिया और सतर्क हो उठी। परंतु मनसा कृत पाप तो हो ही गया था और वह बेजार रहने लगी। ऐसे में परंपरा के अनुरूप धम्म-पालक का पद तो छोड़ना ही था, और बिना आगे-पीछे सोचे उसे त्याग दिया।

यहाँ भी खूब रहा। बिना अपराध के क्षमा और दंड। वह भी तुरंत अमल में आ गया। कोई करे भी तो क्या, वह गुजरे जमाने का कुरु देश था, आज का भारत नहीं। रानी को रत्ती भर भी पद त्याग का मलाल नहीं। कुदरत ने कैसे-कैसे रत्न वहाँ उतारे थे। अब यहाँ क्यों नहीं वैसा हो पा रहा। ऊपर वाला कहीं खिसिया तो नहीं गया, लोगों की हरकत देखकर, इनकी फितरत जानकर। शायद यही हुआ होगा।

गणिका तीसरा स्त्री-पात्र है। कथा का समापन भी उसी से होता है। बौद्ध साहित्य में इनके तमाम उल्लेख हैं। सचमुच यह एक पेशा रहा है। गणिका का एक हमसफर रूपाजीवा है। इससे इसका खुलासा होता है कि रूप-रंग के सहारे धन व यश प्राप्त करना इस पेशे की खासियत थी। सो अब भी है और दुनिया भर में है। वैशाली की प्रसिद्ध गणिका आम्रपाली का उदाहरण देखने लायक है। लिच्छवियों ने नगर-शोभिनी के पद से उसे नवाज था। मगध का राजा बिम्बिसार तक उस पर लट्टू था। उसकी बुद्ध भगवान में भी बड़ी आस्था थी। बुद्ध ने उसका आतिथ्य ग्रहण कर उसे आशीर्वाद दिया थी। उसी से प्रेरित मगध वालों ने शालवती नाम की गणिका को राज्य की मल्लिका बनाया था। वह आम्रपाली से दोगुनी फीस लेती थी। कुरु-कथा की गणिका का भी बड़ा रोचक किस्सा है। उसके लिए ग्राहक को 1000 कार्षापण खर्च करने पड़ते थे। एक ग्राहक से ऐसे ही सौदा किया जो पेशगी देकर गया तो लौटा ही नहीं। थोड़ी रकम से कब तक गुजारा करती? आर्थिक दशा बद्तर होने पर प्रशासन से अनुमति ले, नये ग्राहक से अग्रिम ले रही थी कि पहला ग्राहक दिख गया। फिर नये की रकम फेंक पुराने की तरफ दौड़ी। तभी इस रहस्य से पर्दा उठा कि वह ग्राहक स्वयं इंद्र था जो गणिक के ईमान-कौल की परीक्षा ले रहा था। ये तीनों नामचीन उदाहरण इसका सबूत हैं कि बौद्धकाल के समय लोग गणिकाओं के काफी शौकीन थे।

गणिका तो यहाँ परीक्षा में पास हुई परंतु धम्म-पालक की कसौटी पर खरा न उतर सकी, क्योंकि पहले ग्राहक की रकम लौटाये बगैर उसने दूसर ग्राहक बनाया। गणिका अपने द्वारा की गयी गलती की प्रायश्चित करती, इससे पूर्व कथा की इति हो जाती है। यकीनन यह प्रसंग भी अनूठा है, जो प्रायः देखने-सुनने में नहीं आता। नैतिक आदर्श के धनी कुरुओं के समाज में एक बाजारू स्त्री भी मान्य बन सकती है, इससे उम्दा और क्या हो सकता है। जहाँ गुणों का लोप होता जा रहा है, वैसे अपने देश समाज को इससे ज्यादा सीख लेनी चाहिए ताकि लोगों में कृतज्ञता के भाव पुनः पनप सकें।

कथा के आखिर में एक स्त्री और आती है। उसका कोई खास रोल नहीं है। वह अपने भाई के साथ जंगल में सूखी लकड़ी चुनने गई थी। उसका जीवन वन पर आधारित था। ऐसे उल्लेख कथाओं में दूसरे जगह भी आये हैं। इनसे पता चलता है कि उस काल में निर्धनता भी ज्यादा थी और वैसे लोग बमुश्किल तमाम दो जून के खाने का प्रबंध कर पाते थे। वह भी सही रूप में नहीं होता।

पुरोहित-श्रेष्ठि की खामी

राजनय में पुरोहित की अनिवार्यता और राजा के साथ उसकी अंतरंगता के तमाम किस्से हैं। देश के बाहर की संस्कृतियों का भी यही हाल है। राजा के पारलौकिक जगत से जुड़ाव में भी पुरोहित सहायता करता था। उसकी उपयोगिता युद्ध काल में भी थी। एक प्रकार से वह राजा का सहचर था। राजा से निकटता के ही चलते प्रजा में पुरोहित की पूछ व पैठ ज्यादा थी। प्रायः हर काल में राजा-पुरोहित का गठजोड़ प्रभावी देखा गया है। सो तो अब भी है। बल्कि वोट के चलते पहले से बढ़ गया है।

कथा में पुरोहित का स्थान ऊँचा है। फिर भी उससे एक गलती हुई, जब कि वह श्रेष्ठ धम्म-पालक के रूप में प्रतिष्ठित था। उसके नाम की सिफारिश उप-राजा ने की थी। एक दिन राजा का सुसज्जित रथ खड़ा था। उसे देख पुरोहित के मन में रथ में बैठने की लालसा जगी। फिर क्या, वह पाप का भागीदार बन बैठा और श्रेष्ठता का पद जाता रहा। निष्फल लोभ की ऐसी भारी कीमत चुकाते निरख कलिंग-दल का दिल दहल उठा। भला यह भी कोई अपराध है। पुरोहित पढ़े-लिखे होते थे। उसने वही किया जो उस वक्त कर पाया था। इसका उसे भी कोई मलाल, न कोई दुःख, न चिंता।

राजा के आजू-बाजू के भद्रलोगों में धनिक सेठ-साहुकार भी हुआ करते थे। साहित्य में तमाम सबूत दर्ज हैं जिनमें राजाओं को आर्थिक सहयोग देते भी इन्हें दिखाया गया है। श्रावस्ती में बुद्ध संघ को जेतवन का दान करने वाला अनाथपिंडिक महाश्रेष्ठी था। कथा का श्रेष्ठी ऐसा ही है जिसकी गाँव में खेती भी है। संयोगवश वह कुरु राज्य का सर्वश्रेष्ठ धम्म-पालक है। एक बार वह अपने खेत में लगी फसल का निरीक्षण कर रहा था कि एक मुट्ठी हरा दाना नोचकर खाने की इच्छा उसके मन में जगी। अमूमन चना, मटर, गन्ना जैसी फसलों को देखकर राहगीर स्वयं को रोक नहीं पाते, ऐसा देखा जाता है। वहाँ तो श्रेष्ठ स्वयं खेत का मालिक था। तथापि सेठ के बढ़े हाथ को सहसा ब्रेक लग गया- इस मुट्ठी भर अन्न में राजकीय कर का अंश भी तो है, उसकी हानि होगी, सो ठीक नहीं। उसका हाथ जहाँ से उठा था वहीं लौट आया। सेठ का मन अपराध-बोध से घायल हो उठा। ऐसी कपटपूर्ण बात जेहन में आई कैसे, सोचता हुआ बोल उठा- अब मैं धम्म-पालक नहीं रहा। उससे मिलकर कलिंग के नुमाइन्दे सोच में पड़ गये। सोचने की बात थी भी। वाकई किसी कोने से कोई अपराध हुआ ही नहीं। यही तो कथा की खूबी है। इसे बटोर कर वे आगे बढ़ गये। श्रेष्ठि वहाँ का असाधारण नागरिक था। वह अपने निजी खेत से एक मुट्टी दाना नहीं ले पाया क्योंकि उस कार्य में उसने राष्ट्र की क्षति देखी। इसे राष्ट्र-प्रेम कहते हैं। ऐसी ही राष्ट्रीयता वाले लोग चाहिए आज देश को। लेकिन मिलेंगे कैसे? यहाँ तो सभी के रक्त में ही दोष बैठा है और शुद्धिकरण का नुस्खा किसी के पास है ही नहीं।

इस मुकाम पर एक स्पष्टीकरण की जरूरत है। सेठ ने अपने उठे हाथ वापस खींच क्यों लिया? वास्तव में जहाँ सही शासकीय प्रबंधन होता था वहाँ भूमि पर राजा का मालिकाना हक माना गया है। उसके कारण उपज का एक हिस्सा राजकीय देय के रूप में देना होता था। इसके तहत मुट्ठी भर अन्न में भले ही कुछ दाने ही राज्यांश के हों, उसकी भरपाई का सवाल था। एक आदर्श करदाता बिना देयक अदा किये अन्न का उपभोग नहीं कर सकता था। कथा के श्रेष्ठि ने उसी आदर्श को निभाया है। दरअसल विधि के ग्रंथों में ऐसे देयक के लिए ‘भाग’ कहा है। उसकी सामान्य दर उपज का छठा हिस्सा था- ‘षड्भागमृतो राजा रक्षेत् प्रजान्’। इस स्लोगन का ‘रक्षेत् प्रजान्’ देखने योग्य है। इससे पता चलता है कि प्रजा की रक्षा करने के बदले ‘भाग’ कर ग्रहण किया जाता था। वह प्रथा अब भी प्रचलन में है और कर वसूली का औचित्य भी यथावत है। किसी विशेष दशा में इसे छठे भाग से बढ़ाकर उपज का चौथाई या तिहाई तक भी लिया जाता था। गुप्तकाल के बाद जो सामंतों का जमाना आया तो जनता से मनमाना वसूली तक की जाने लगी। राजा के कर्तव्य से जुड़ा यह बेहतर उदाहरण है। आज शासन-प्रशासन से जुड़े लोगों के साथ आम-जन इससे बहुत कुछ सीख सकते हैं

दोष: राजकर्मियों का

कथा में शामिल कर्मचारी बहुसंख्या में हैं। उनमें राजस्व से जुड़े हाकिम हैं, तो सामान्य कर्मकर भी हैं। रज्जुग्राहक और द्रोणमापक श्रेष्ठ राजकर्मी हैं। इनकी चर्चा अर्थशास्त्र जैसे महान ग्रंथ के साथ अशोक के अभिलेख में भी आई है। निश्चित रूप से इससे कथा की सत्यता को मजबूती मिलती है। ‘रज्जु’ कहते हैं रस्सी को और ‘ग्राहक’ यानि पकड़ने वाला। इस तरह पहला जमीन-मापक यानि आज का लेखपाल हुआ। तब वह राजस्व की वसूली से भी जुड़ा था। कथा में वह फसल लगे खेत की पैमाइश करते मिलता है जिस पर ‘भाग’ (लगान) लिया जाना है। यहाँ उसे बड़ी बारीकी से कार्य करते देखा जा सकता है। इसे उस समय की कार्य-संस्कृति का बेजोड़ नमूना कहना ठीक होगा। आज सरकारी अमला-तंत्र इससे काफी कुछ सीख सकता है।

जैसे आज सरकारी गोदाम में वस्तुओं का भंडारण होता है, वैसा पहले भी था। अर्थशास्त्र में इस महकमे के प्रमुख को कोष्ठागाराध्यक्ष कहा गया है। वह वस्तु-संचय से जुड़ी तमाम जानकारी रखता था। ‘सोहगौरा ताम्रपत्र’ तथा ‘महास्थान पाषाण लेख’ ऐसे भरोसेमंद पुरातत्त्व के प्रमाण हैं जो कथा की असलियत पर मुहर लगाते हैं। ये सभी साक्ष्य ई.पू. के दिनों के हैं। द्रोणमापक ऐसे ही किसी गोदाम पर तैनात कर्मचारी था। वह माप-तौल कर अनाज देता-लेता था। द्रोण- दोना यानि नापना, जिससे अनाज की माप होती थी। नपना के नाम पर रजिया का चलन अब भी ग्रामीण अंचल में है। द्रोण ऐसा ही पात्र रहा होगा। द्रोण से मापने के कारण वह राजकर्मी द्रोण-मापक कहा गया।

सारथी रथ हाँकने का कार्य करते थे। साहित्य के साथ कला में भी इन्हें देखा गया है। कथा का सारथी राजा का रथ-चालक है। वह अश्वों से जुड़े विज्ञान से परिचित है। राजा के साथ रहने के कारण उसका ओहदा थोड़ा बड़ा समझना चाहिए। था भी। आज भी बड़े ओहदेदारों के चालक अथवा उनकी सेवा में लगे, अपने को लगाते हैं।

चौथा राजकर्मी दौवारिक है। वह द्वार खोलने बंद करने का कार्य करता है। कहीं इसके लिए ‘द्वारपाल’ शब्द का प्रयोग है। ये सभी कुरु देश के श्रेष्ठ धम्म-पालक माने गये हैं। इन सभी से कहीं-न-कहीं कोई गलती होती है जिससे ये स्वयं अपनी नजर में हीन बनते हैं और श्रेष्ठता का ओहदा हँसी-खुशी उतार देते हैं। पद-त्याग करने का इनको भी कोई मलाल नहीं है। अपने सिर का ताज दूसरे को देने में भी ये आगे हैं। कहीं कोई हीला-हवाली नहीं करता। आज का जमाना इनसे बहुत कुछ सीख सकता है। बशर्ते ओल्ड इज गोल्ड में थोड़ा यकीन हो, सीखने की तमन्ना हो और त्याग से उफनता दिल भी हो।

रज्जुग्राहक एक बार खड़ी फसल का राजस्व निर्धारण कर रहा था। खेत की पैमाइश करते उसने रस्सी तानने हेतु खूंटी लगानी चाही। खूंटी संयोगवश उस मुकाम पर पड़ रही थी जहाँ पहले से कोई बिल (छिद्र) था। उसने स्थान बदल बिल बचाने की कोशिश की, परंतु राजस्व की कमी या अधिक की आशंका से वैसा कर न सका। उसे डर था कि इतस्ततः रस्सी सरकाने से किसान या राजा, किसी एक की हानि होगी। अतः खूंटी उसने तयशुदा जगह पर लगायी पर बिल से किर्र की आवाज सुनकर उसका चेहरा उतर गया। उसने कयास लगाया कि बिल में रहने वाला केकड़ा मारा गया। फिर तो धम्म-पालन की श्रेष्ठता का उसका दम्भ जाता रहा। हँसते-हँसते पद का तमगा दूसरे को थमा वह अपने कार्य में लग गया।

द्रोण-मापक की गलती भी ऐसी ही संदेहपूर्ण थी। उसकी तैनाती कोष्ठागार पर थी, जहाँ राज्यांश अदा करने वाले पहुँचते थे। गोदामों से ब्याज पर गरजमंदों को अनाज भी देने की प्रथा थी। फसल तैयार होने पर सवा या डेढ़ा ब्याज के साथ लोग उधारी लौटाते थे। गणना करके द्रोण-मापक ग्रहण करने योग्य रख लेता था और बचा हुआ शेष अनाज काश्तकार को लौटा देता था।

एक दिन बारिश की आशंका से वह जल्दी में था। अनाज की ढेरी को बिना ठीक से पहचान किये उसने कोठार में रखवा दिया। फिर क्या था, उसके मन में द्विविधा की घंटी बजने लगी और परेशान हो उठा। कार्य समापन की चूक उसे कचोटने लगी। देयक चुकाने वाला अथवा राजा, किसी एक के साथ धोखा हुआ, ऐसा सोच वह दुखित हुआ और धम्म-पालक की पदवी की तिलांजली दे दी। उसने भी पीछे मुड़कर नहीं देखा और आगे बढ़ गया।

सारथी का मामला थोड़ा हटकर है। इसकी चिंता पशु-जगत से ताल्लुक रखती है। इससे पता चलता है कि तब का समाज पशुओं के प्रति भी गंभीर संवेदना रखता था। एक बार रथ पर बैठाकर राजा को वह कहीं बाहर से वापस आ रहा था। रास्ते में बदली घिर आई और बारिश के आसार देख अश्वों पर उसने कोड़ा झटकाया। सधे सुंदर सैंधव अश्व डर गये और दौड़ते भागते राज-महल लौट आये। राजा की सकुशल वापसी पर सारथी ने चैन की साँस ली। परंतु उसे यह जानकर हैरानी हुई कि अश्व जब भी उस मुकाम पर होते, जहाँ कोड़े झटके थे, वे भागने लगते। सारथी को समझते देर न लगी कि अश्व सचमुच डर गये थे और कोड़े का खौफ उनके मन में सदा के लिए बैठ गया है। अश्वों को डराने का अपराध उसने मन ही मन कबूल किया और उदासी में डूब गया। फिर श्रेष्ठता का हकदार वह क्यों रहता? उसे कोई गम भी नहीं था उसका।

कथा में आये पशु-प्रेम की जैन-बौद्ध प्रथा से संगत देखने योग्य है। मुमकिन है कि ये संप्रदाय ‘कुरु-धम्म’ से प्रभावित रहे हों। वैसे तब कृषि कार्य में पशुओं का उपयोग होता था, जैसा कि तीन-चार दशक पूर्व तक यहाँ के गाँवों में था। वैसे पशु संरक्षण जनित अहिंसा के विचार याज्ञिक हिंसा के प्रतिफल भी हैं। वैदिक यज्ञ में काफी पशु-हिंसा होती थी। अशोक का पशु-प्रेम जग जाहिर है। उसके समय चौपायों के लिए प्याऊ और अस्पताल बने थे।

दौवारिक एक साधारण कार्यकर्ता है। फिर भी गुणों के चलते उसे कुरु समाज में उच्च मुकाम हासिल है। अनजाने में उससे भी एक गलती होती है। उस बोझ तले वह दबा है। एक रोज नगर द्वार बंद करते समय उसने जोर की आवाज लगाई- कोई रह गया हो तो आ जाय। तभी उसे एक क्षीण काँपती आवाज सुनाई दी। उसे अगोर ही रहा था कि एक स्त्री और मर्द दाखिल हुए। उनको देख दौवारिक को एक मजाक सूझा- रात में स्त्री संग जंगल में मजे करते फिरते हो। उसने व्यंग्य किया क्या कि उलटे मुसीबत में फँस गया। दरअसल वे दोनों भाई-बहन थे जो गरीबी के मारे जंगल में सूखी लकड़ी चुनने गये थे। उनकी दीन दशा देख उसे बड़ी ग्लानि हुई और कटुवचन को लेकर पश्चाताप करने लगा। लेकिन तीर तो हाथ से छूट चुका था। तत्क्षण उसने पद-त्याग की घोषणा की। वह भी दूसरों की तरह खुद की नजर में पतित बन चुका था और पद-त्याग ही पहली सजा थी। साधारण कर्मचारी होते हुए भी पद छिनने का उसे कोई मलाल नहीं था। जब औरों को गम नहीं था तो फिर उसे क्यों होता?

गलतियों का लेखा-जोखा

कुरु-धम्म के पात्रों की गलतियाँ वास्तव में कथा की खूबसूरती हैं और उसकी ताकत भी। फिर तो गलतियों की गिनती के वास्ते ही कथाएँ गढ़ी गई यह सोचना ठीक ही होगा। इन्हीं में ही कथा का उद्देश्य छिपा है और कथाकार का संदेश भी, जिसे वह समाज को देना चाहता है। फिर वही हुआ, मरा-मरा कहते राम-राम कहलवाना और इस कसौटी पर कथा कारगर साबित हुई है; हर कोने से।

कलिंग के सभ्य-जन तब चकराये जब राजा होते धनंजय (बोधिसत्व) ने अपनी अयोग्यता की घोषणा की। इसलिए कि उसके द्वारा कोई मछली मारी गई थी। वैसे पोखर में असंख्य मछलियाँ थीं और अहिंसा के चलते सभी को अभयदान भी मिला था। उसमें एक की कमी, क्या मायने रखती है? फिर मछली मरी ही, संदेह के घेरे में है। राजा इससे अनजान नहीं है, तथापि श्रेष्ठता का पद छोड़ देता है। ऐसे ही अकारण घटी घटनाओं की गिरफ्त में एक-एक कर सभी किरदार उलझते चले जाते हैं और वहाँ का विशिष्ट पद कंदुक की भाँति उछलता जाता है। सभी स्व-आरोपी हैं। सीधा आरोप किसी पर लगता नहीं दिखाई देता। अतिथि नुमाइन्दे हैरान हो जाते हैं। समझ आने पर गलतियों के उन्हीं पुलिंदों को सहेज कर अपने साथ ले जाते हैं; खुशी- खुशी। इस अफसाने में सभी हैं, फर्श से अर्श तक के शामिल कुरु-जन। सत्य के प्रति अटूट आग्रह सभी का झलकता हुआ है।

संवेदनायें सभी को अपने में लपेटे हैं। नैतिकता का उच्च स्तर एक दूसरे से होड़ लेता गतिमान है। ऐसी अनोखी स्पर्धा के बीच राजमाता की द्विविधा सहज सामान्य है। पद-त्याग उनको महान बनाता है। महारानी के मन का क्लेश थोड़ा हटकर है। उफनाई नदी किनारा तोड़ने को मचल उठती है। सामने सजे गबरू जवान को देख रानी का मचलना वाजिब है, लेकिन तुरंत स्थिति को भाँप सम्हल जाती हैं। पद-त्याग कर दामन धोने की कला ठीक है। फिर पुरोहित के मन का डोल जाना मानव-मन की कमजोरी ही दर्शाता है। वह राजा की सोहबत में ज्यादा रहता है। अतः अकेले में वैसा भाव उसमें उठा। ओहदा छोड़ उसने उच्च मुकाम बनाये रखा।

उप-राजा की गलती तो वाकई आँख खोलने वाली है। वह अपनी राई भर की भूल पर बड़ा पछताता है। पर उससे प्रजा की बेमिशाल धरोहर लोगों के सामने प्रकट होती है जो कुरुओं की सेहत की राज है। सचमुच वहाँ की प्रजा की कोई सानी नहीं। उपनिषदों के नव-चिंतन की लौ में कुरुदेश महक उठा था; तभी तो कलिंगों का आदर्श बना। आज भी उसे जानकर हम हर्षित होते हैं। यही क्या कम है।

ऐसे उच्च आदर्श का हठी राजभ्राता सामान्य-जन से ज्यादा धनिक नहीं है। राज-माता के कबूलनामे से तो यही छनकर आता है। तथापि इन सब से बे-फिक्र उप-राजा प्रजा-पालन में लगा रहता है। उसकी यह खूबी आज लोक सेवा में लगे हुए नेता अपनाते हैं तो उनकी वाह-वाही होगी। इसमें दो मत नहीं।

राजस्व के तौर-तरीकों के साथ उसके संकलन की पारदर्शिता का कोई जवाब नहीं। कर-प्रदाता की सराहना करें या कि देनदारी तय करने वालों का आभार व्यक्त करें। जैसे दोनों में होड़ मची हो कि कर्तव्य की राह पर कौन बाजी मारता है। एक सेठ जो इच्छा होते अपने ही खेत से एक मुट्ठी अन्न नहीं नोच पाता, क्योंकि पाँच-दस दानों की राजस्व की हानि उसे मंजूर नहीं। उधर देयक सुनिश्चित करने वाले राजकर्मी राजा-प्रजा दोनों के हित-साधन में अपना ही बेड़ा गर्क कर पद गवां देते हैं। प्रशंसनीय यह कि अपने आकलन की पारदर्शिता को वे आँच नहीं आने देते। ऐसे रज्जुग्राहक और द्रोण-मापक की कार्य-निष्ठा विश्व-फलक पर रखी जाने लायक है। संस्कृति के सियासी झंडाबरदारों को इसे जाननी चाहिए।

स्वतंत्रता प्राप्ति के आखिरी दशक में एक खबर उड़ी थी कि देश सियासत सम्हालने में सफल हो भी सकेगा? विन्स्टन चर्चिल इसके मुखर प्रवक्ता थे। उसके धुर विरोधी रुडयार्ड किपलिंग थे। वह देश की चार हजार साल पुरानी सभ्यता के हिमायती थे। आज की तमाम बातों को छोड़ तराजू पर सरकारी अनाज भंडारण को तौलते हैं। देखा कि द्रोण-मापक का चरित्र और उसकी कार्यशैली प्राचीन भारतीय संस्कृति की बेजोड़ नमूना है। इस संस्था के आज के रंग-ढंग क्या हैं, कौन सोचता है। शुरुआती दिनों में अनाज की भारी किल्लत थी। यह और है कि आज आत्मनिर्भरता है। किंतु यह भी सच्चाई है कि आज भारी संख्या में गरीब तबका दोनों वक्त पेट भर खाना नहीं खाता। जबकि खेत, खलिहान और गोदामों तक अनाज की बर्बादी रोके नहीं रुक रही। कहीं चूहे, तो कहीं छुट्टा पशु खेतों के दुश्मन बनें हैं, तो वहीं हर वर्ष बारिश में हजारो-हजार बोरे अनाज भीग कर बेकार हो जाता है। कई प्रांतों में यह बीमारी है। मंडी प्रबंधन भी बुरे दौर से गुजर रहा है। वहाँ भी बारिश में अनाज का सड़ना आम है। बिक्री के पूर्व किसानों का और खरीद के बाद सरकारों का। बिलकुल समभाव से।

चुनावी वर्ष 2019 के सत्तरह अप्रैल को अचानक मौसम बिगड़ा और पानी के साथ ओले भी गिरे। कई मंडियों में किसानों के बिक्री के गेहूं थे। बोरे में कसे रखे-रखे भीग गये तो फर्श पर की ढेरी पानी में तैरने लगी। दुःख की बात यह कि दलों के नेता वोट के जुगाड़ में रैलियों में मशगूल थे और उनके ही शहर-टाउन की मंडियों में किसान खून के आँसू रो रहे थे। किसी ने किसानों की खोज-खबर नहीं ली। यह रेकार्ड है। यहाँ तक कि चौकीदार की सीटी भी चुप रही?

ऐसी बर्बादी रोकने हेतु किसी पोख्ता इंतजाम के लिए और कितने वर्ष चाहिए। इस लोकतंत्र को या कि मान लिया जाय कि चर्चिल तब अपने-आप में सही था।

सारथी की गलती थोड़ी अलग है। उसका ताल्लुक पेशे से है। रथ हाँकना है, तो कोड़ा उठाना ही होगा। पीठ पर पड़ेगा तो चोट भी लगेगी। रथ-चालक इससे बेखबर था कि प्रशिक्षित सैंधव नस्ल के अश्व सच्चे-सधे हैं।

पर उस क्षण वह शीघ्रता में था। वर्षा बूंदी की आशंका से राजा को सुरक्षित पहुँचाने की जल्दी थी उसे। उसी मनःस्थिति में उसने कोड़ा झटकाया और अश्व डर गये। मानव-संवेदना के साथ यह पशु-संवेदना से जुड़ा बेहतरीन उदाहरण है। आज हर एक को इसे जानना चाहिए।

दौवारिक मामूली कर्मचारी है। श्रेष्ठ जनों के साथ उसे भी मान देकर इसे स्वीकार किया गया है कि कुरु देश को गैर-बराबरी पसंद नहीं। रात्रि में नासमझी की वजह से उसकी जुबान फिसल गई। फिर उसे अतिशय दुःख हुआ। एक मजाक उसके ऊपर भारी पड़ा। इससे सीख ली जा सकती है कि बोल तौल के बोले जाँय। अन्यथा वैसे बोल से चुप्पी ही भली। उससे कितनों के भ्रम की रक्षा होती है।

आखिर में गणिका का श्रेष्ठ घोषित किया जाना बहुविध सही है। परीक्षा में उसे अव्वल आना ही चाहिए। उसके कठिन व्रत पालन के बराबर कोई लकीर नहीं खींची जा सकती। हर तरह से वह निज के उसूलों की हिफाजत सुनिश्चित कर दूसरा ग्राहक बनाती है, वह उसकी चूक है। तभी पूर्व ग्राहक के दिखाई देते ही उसकी तरफ भागती है, यह ढाल है, रक्षा कवच है उसके लिए।

सीखने के लिए बहुत कुछ है इस कथा में। बशर्ते इसकी तमन्ना हो और दिलों में दूसरों के प्रति थोड़ी जगह हो।

कथा का आदर्श: इतिहास के आइने में

इसमें संदेह नहीं कि कुरु-कथा आदर्श की चाशनी में डुबो कर परोसी गई है। इसके पात्र जीवन के सभी स्तर व क्षेत्र के हैं। वे समाजिक समरसता बनाये रखने में कामयाब भी हैं। संख्या बल राजपरिवार की ओर झुका है, लेकिन वे किसी विषेशाधिकार का लाभ उठाते नहीं दिखते। शासन-प्रणाली वहाँ राजा शासित है, पर उसका चाल-ढाल जन-राज्य (Republic) की तरह है। इससे पता चलता है कि कुरु की धरती पर कभी निकट भूत में उदार शासन स्थापित था, या उसके आस-पास जन-राज्य विकसित था। सत्य जो भी हो, इतना स्पष्ट है कि वहाँ का राजा और उसका परिवार राज-मद से दूर था और वह जन-सरोकार की भावना से कार्य करता था। सत्ता मद से अप्रभावित रहना ही बड़ी बात थी। आज लोकशाही में वह नहीं है।

राजनीति में बिना भय या पक्षपात के कार्य करना बड़ी बात होती है। ऐसी व्यवस्था कुरु देश में थी। श्रेष्ठ धम्म-पालक के पद पाने के दरवाजे सभी के लिए खुले थे। उसका प्रमुख आधार ‘गुण’ (Virtue) था, सभी के लिए। वहाँ के जन कितने मजबूत इरादे के लोग थे, इसका पता तब लगता है, जब छोटी-सी भी गलती पर उनको पद त्यागते हम पाते हैं। यानि श्रेष्ठता का हकदार कोई तभी तक है जब तक वह बेदाग है। इसमें उनकी उच्च मानसिकता साफ झलकती है। तभी तो पद का त्याग कर चुका कभी अफसोस नहीं प्रकट करता बल्कि हँसते हुए हट जाता है। हर किसी के लिए यह अनुकरणीय हो सकता है जो आज अपने देश समाज से प्यार करता है। जो भारत को विश्व-पटल के शीर्ष पर देखने का सपना सँजोते हैं, उनको कुरुओं की त्याग की प्रवृत्ति से सीख लेनी चाहिए।

कुरु राज्य के दिल्ली-हरियाणा के आस-पास होने का अनुमान है। वहाँ के सुंदर आचार-विचार का सुदूर के कलिंग तक पहुँचना एक राहगीर के जरिये संभव हुआ था। तब न सड़कें थीं और न अन्य मशीन-चालित वाहन। कच्ची व टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडी पर लोग-बाग पैदल चला करते थे। सवारी के नाम पर घोड़े, हाथी, ऊँट, गधे और बैलगाड़ी थी। जंगलात के कारण सुरक्षा का बड़ा सवाल था। रास्ते में भूत-प्रेत का भी भय था। लोग प्रायः समूह में चलना पसंद करते थे, व्यापारी और आम जन दोनों ही। सार्थ, समूह, सार्थवाह, कारवां जैसे शब्द जो प्रचलन में थे, इसके संकेत हैं। थल की तरह जल-यातायात का भी हाल था। नदी, समुद्र में छोटे-बड़े यान चलते थे। स्थल पर बाजार, आपण, नगर, हाट विकसित हुए तो जल-मार्गों पर नगर-पत्तन इतिहास में दर्ज हैं। गुरुकुलों में शिक्षा पूरी कर विद्यार्थी भी माँगते-खाते ऐसे ही वतन वापसी करते थे। रास्ते भर का बटोरा गया उनका अनुभव बड़े काम का होता था। ऐसे ही किसी यात्री/राही के जरिये कुरु राज्य की सुगंध कलिंग तक पहुँची थी।

कथा में एक जरुरतमंद देश के रूप में कलिंग का चयन खास उद्देश्य से किया गया है। महाभारत के अलावा क्लासिकल लेखन में भी उसे सूखा प्रभावित बताया गया है। नंद शासन में नहर का निर्माण सूखे के मुकाबले के लिए ही किया गया था। उस नहर का उपयोग खारवेल के वक्त भी जारी था। बल्कि उसके समय में नहर का विस्तार यह दिखाता है कि कलिंग में पानी की कितनी अहमियत थी। शासन बड़ी परियोजनाओं में भी रुचि लेता था, स्पष्ट है।

भारतीय परंपरा में वर्षा-सूखे से उत्पन्न अकाल को दैवी-प्रकोप के साथ पाप-पुण्य से जोड़कर देखा जाता रहा है। पृथ्वी पर अधर्म की वृद्धि का संबंध देवताओं की नाराजगी से जोड़ते हैं। आज के वैज्ञानिक युग में भी भजन, कीर्तन, पूजा, यज्ञ, दानादि के द्वारा सत्कर्म करने की बातें होती हैं। कुरुओं की रीति-नीति का कलिंगों द्वारा अपनाया जाना कुछ ऐसा ही है। कलिंग के जन अपने प्रयोग में सफल हुए, प्रसन्नता की बात है। कोई बड़ा लक्ष्य आचरण सुधार कर हासिल किया जा सकता है, इससे सीख ली जा सकती है। हालांकि कलिंग-जन में कोई विशेष खामी आ गई हो, ऐसी कल्पना निराधार है। क्योंकि वहाँ के लोग खासा परिश्रमी होते थे और उनको स्वतंत्रता बेहद प्यारी थी। ये बातें तमाम साक्ष्यों में मिलती हैं। इस आशय की जीवनोपयोगी बातें अनेक काल-खंडों से होते हमारे बीच प्रभाव बनाये हुए हैं तो इसका श्रेय यहाँ की संस्कृति को जाता है। अभी 40-50 वर्षों पूर्व तक व गँवई की जमीन पर कई अनमोल चीजें व्यवहार में थीं। वे आज शहरी जीवन में बिला रही हैं।

यहाँ संजीवनी स्वरूप एक संदर्भ देखने लायक है। वह अब से 1600-1700 वर्ष पहले के गुप्त सम्राट के स्वर्ण सिक्कों पर की लिखावट का है। ‘पृथ्वीम जित्वा दिवं कर्मभिः उत्तमैः जयंति’ और इससे मिलते स्लोगन लिखे मिले हैं। कई गुप्त शासकों का कबूलनामा कि उनने पृथ्वी की विजय कर अपने श्रेष्ठ कर्म से गगन-मंडल तक में पैठ बनाई, कुरु-कलिंग के आदर्श चरित्र व्यवहार की याद कराते हैं। इतिहास में किसी साक्ष्य की तुलना में सिक्कों का प्रमाण खास होता है। कथा का निहित आदर्श और कुरुधम्म की विशेषताएँ ऐसे ही समझनी चाहिए।

कथा का रोचक पक्ष वह लोक व्यवस्था है जिसके माध्यम से राज्य-समाज संचालित हो रहा है। कुरु देश के सभी जन नपे-सधे होने के साथ बेहद संवेदनशील हैं। उनको कर्म-अकर्म की जानकारी है। कर्म में कहीं चूक हुई तो विराम तुरंत लग जाता है और गलती कबूल करने में देरी नहीं करते। किसी प्रकार का दायित्व वह लिए हैं तो उससे मुक्त होना उसका प्रथम कर्तव्य है। ऐसा नहीं कि कोई हीला-हवाली करे अथवा जनमत को अपने पक्ष में करने की कोशिश करे। जैसा कि आज के जमाने में आम होता जा रहा है। अहिंसा का उनका नजरिया तो देखने लायक है। मन-वचन से भी दूसरे को चोट पहुँचाना उनको स्वीकार नहीं। अमूमन स्वार्थ और प्रमाद में व्यक्ति सीमा तोड़ता है। कथा में ऐसा कोई संकेत नहीं कि राजा अथवा प्रजा द्वारा कभी सीमा तोड़ी गई हो। राज-कर्मियों की निष्ठा, कर्तव्य-परायणता, ईमानदारी व निष्पक्षता बेमिशाल है। कर-संग्रह की पारदर्शिता तो गजब की है। दुनिया में शायद ही कहीं वैसी व्यवस्था हो जैसा कुरु देश में था।

कथा के बीज-तत्व महाभारत से लगायत ऋग्वेद तक पसरे हैं। कुरुओं के उच्च आदर्श ही गवाह हैं कि देश कैसा महिमामंडित था। उधर कलिंग के आरंभिक सिक्के (Early Punch-marked Coins) बताते हैं कि 600-500 ई.पू. में वह विकासशील अर्थव्यवस्था का क्षेत्र था। रजत सिक्कों पर के चिन्ह कला की उन्नति का संकेत देते हैं। ऐसे यह कथन सही है कि दोनों ही राज्यों में जो नवादर्श विकसित हुए उनके रोपण में उपनिषदीय सोच का भारी योगदान था। कर्मकांड की जगह तप-जनित बुद्धि-ज्ञान और भोग को हटाकर त्याग को वहाँ महत्व दिया गया। देखें तो जैन, बौद्ध, आजीविक आदि धर्म-संप्रदायों की भी यही पूँजी रही। ऐसे में उपनिषदों के सुंदर विचार समाज की रगों में बहते हुए जातक-कथाओं की रचना के आधार बने तो आश्चर्य नहीं। वैसे देखा जाय तो कुरु-कथा पर नये आदर्शों का रंग कुछ ज्यादा ही चटख चढ़ा है। तो कुरुओं की श्रेष्ठता का यही सब रहस्य है।

राजनय के विकास में एक ऐसा मुकाम आया बताया गया है जिसे बुद्धिजीवी स्वर्ण-काल का नाम देते हैं। उसे ही आज राम-राज्य कहते हैं। इस आशय का ख्याल रखने वाले विदेशी भी रहे हैं। वह वक्त कैसा था, इसकी एक झलकी महाभारत के जरिये समझी जा सकती है। उस समय राजा, राज्य, दंड, दांडिक नहीं होता। शासन-सुरक्षा हेतु प्रजा धर्म के मार्ग पर चलती हुई स्वतः समर्थ थी- ‘धर्मेणैव प्रजाः सर्वा रक्षान्ति स्म परस्परम्’। उसका धर्म वह नहीं, जिसे आज देश जानता है, अपितु उसे जीवन-यापन का विज्ञान कहना ठीक होगा। ‘आर्ट ऑफ लिविंग’ के प्रचारक अपने परिजनों को आज क्या कुछ सिखा पाते हैं, नहीं मालूम, पर वहाँ कुरु-जन को अपने कर्तव्य व सामर्थ्य की सीमा का पता होता था और उनकी जीवन-गाड़ी खुशी-खुशी पटरी पर दौड़ रही होती थी।

आगे कभी बुराइयों के चलते जब सामाजिक समरसता के धागे कमजोर पड़े तो समाज की चूलें हिल उठीं और मत्स्य न्याय के दल-दल में लोग-बाग उलझते चले गये। जैसे जलाशय में छोटी मछली बड़ी मछली की भोजन बनती है, ठीक वही कुरीति चालू हुई। इससे सभी का जीवन दुश्वारियों से घिर गया। फिर आगे राज्य यानि सामाजिक सुरक्षा को लेकर गंभीरता बढ़ी। राज्य के उद्भव से जुड़ी इस गाथा के प्रति दुनिया एक मत है। लोगों का ऐसा सोचना सही भी है। ऐसे में देखें तो कुरुधम्म के आदर्श का बीज कहीं-न-कहीं महाभारत की कथा में साफ झलकता है।

महाभारत का एक महत्वपूर्ण खंड गीता है। उसका कर्मवाद कुरु-जन के अनुशासित जीवन-यापन के अनुरूप है। गीता में फल की चिंता से मुक्त कर्म का संदेश हैः ‘कर्मण्येवाधिकारस्तु मा फलेषु कदाचन्’। यह योग-जनित अभ्यास पूजा है, आराध्य की भक्ति है और प्रगति का द्वार है। देखें तो, जन-समुदाय को कर्म में नियोजित करना अनुशासन की दृष्टि से बड़ी सफलता है। फिर तो गीता-ज्ञान के जरिये कुरुओं ने कर्म-मंत्र की सिद्धि की थी, मुमकिन है। वैसे कुरु-जीवन-शैली का आदर्श महाभारत के कर्मयोग का आधार बना हो तो कोई आश्चर्य नहीं।

महाभारत में धर्म-अधर्म की खूब चर्चा की गई है। छल-प्रपंच के खेले गये खेलों को धर्म-अधर्म के तराजू पर तौलने के अलग-अलग अंदाज हैं। ज्येष्ठ कौरव इस विचारधारा का कुशल खिलाड़ी लगता है। उसकी विसंगति यह है कि वह धर्म के प्रति उदासीन रहता है परंतु अधर्म को लेकर ज्यादा आस्थावान हैः

जानाम्यधर्म न च ते प्रवृत्तिः।

जानाम्य अधर्मं न च ते निवृत्तिः ।।

धर्म-अधर्म के खेल में धर्म की जीत होती है, जो कि महाभारत का लक्ष्य है। देखें तो कुरु-कथा का मूल तत्व भी यही है। आश्चर्य तो यह कि ज्येष्ठ पांडव का उपनाम धर्मराज भी इस विचार का समर्थन करता है। इससे कुरु-कथा सुमेलित की जाय तो कहना होगा कि कुरुओं को सभी उचित-अनुचित का परिज्ञान था और धर्म का अनुशरण वे निष्ठा व शिद्दत के साथ करते थे। वही उनकी श्रेष्ठता का मूल आधार था।

एक पारंपरिक सोच यहाँ खासा मौजू लगता है। है वह अन्त्येष्ठि संस्कार से जुड़ा। ‘विमुखा बान्धवाः यान्ति। धर्म एव तिष्ठति’ में धर्म का जिक्र है जो जीव की मृत्यु के बाद शवदाह के उपरांत भी विराजमान रहता है। युद्धोपरांत पांडवों की अंतिम यात्रा में भी श्वान को पीछा करते बताया गया है और वह वही धर्म था। कुरुओं की क्या प्रकृति थी, किसी रूप में इनसे प्रकाश पड़ता है।

अब गणराज्यों के पूर्व के कबीलाई जीवन का आकलन। कबीलों में तब सभी जन-गण मिलकर कार्य करते थेः खेती, पशुपालन, शिकार आदि। वैसे ये कार्य सामूहिकता से ही संभव थे। कृषि हेतु खेत बनाने पड़ते थे जिसमें समूह का सहयोग जरूरी था। उपज के विषय में अनुमान है कि आवश्यकता का ध्यान रखते हुए समझ-बूझ कर बाँट लेते थे। ऐसे अस्तित्व के संघर्ष में कभी तो कई कबीले साथ होते थे। अनुमान किया जा सकता है कि सामूहिक श्रम (Collective Work) का महत्व लोगों को कबीलाई काल में ही पता चल गया था। तभी तो ऐतिहासिक कालों में भी ‘सम्भूय समुत्थान’ जैसे शब्द व संगठन व्यवहार में थे और आज भी आर्थिक विकास के मेरुदंड समझे जाते हैं। इसका आशय है एक से अधिक जन के सहयोग से संस्थागत ढाँचा खड़ा कर कोई लाभ का कार्य करना।

महाभारत में एक जगह गण-जन के संघ का उल्लेख हैं। अंधक-वृष्णि संघ के मुखिया के रूप में कृष्ण का जिक्र है। किसी खास अवसर पर साधारण सभा की बैठक में प्रमुख अपनी दसों उँगलियाँ फैला कर खुलासा करता है- देखो मैंने कोई धन छिपा कर नहीं रखा है। गणों में कैसे स्वार्थ-लोभ की बीमारी लगी, यहाँ देखी जा सकती है। ऐसी ही स्थितियों से ऊपर उठकर जन-गण अपने छोटे-बड़े राज्य स्थापित करने में सफल हुए। छठी शती ई.पू. के गणराज्य इसी तरह विकसित हुए जान पड़ते हैं। उस विकास-यात्रा में तमाम उतार-चढ़ाव आये और कबीलाई जीवन की कई बातें भूला दी गईं। गणों में बराबरी का आदर्श उन्हीं में से एक है। लोभ-मोह जैसे दुर्गुणों से जहाँ कर्मशीलता को विराम लगा वहीं निजी संपत्ति की भावना भी पनपी।

उस अवस्था में अपने समूह से छूटते-बिछुड़ते किसी मुकाम पर कुछ दास-कर्मकर की दशा में पहुँच गये। उस यात्रा-काल में नेतृत्व को लेकर भी टकराव हुए। इन सबका मिला-जुला परिणाम यह हुआ कि आगे निकल गये अपने को राजा कहने लगे, जो वास्तव में एक कुल व गोत्र के थे। वैशाली के लिच्छवियों में ऐसे ही 7707 राजा बताये गये हैं। वे ही आला नंबर के नागरिक थे और सभी अधिकार उनके ही हाथों में केंद्रित थे। इस विकास-यात्रा में गणराज्यों के पतन का इतिहास भी छिपा है। जब शनैः-शनैः जन-गण अपने पुरातन गुणों को भूलकर राजा, युवराज आदि की उपाधियाँ लेने लगे तो फिर राजतंत्रों के रूप में उनका रूपांतरण हो गया। उनकी पुरानी पहचान विलुप्त हो गई।

इन परिवर्तनों को ठीक से समझने के लिए शाक्यों-कोलियों पर एक नजर डालना सही होगा। शाक्य प्रमुख शुद्धोधन-शुद्ध$ओदन, वास्तव में कृषक समुदाय के प्रमुख (Pastoral Chief) थे। उनके नाम शुद्ध चावल या भात से तो यही प्रतीत होता है। देखने की बात है कि आधी शती पूर्व तक पिपरहवा-कपिलवस्तु का क्षेत्र सुगंधित काला नमक चावल धान का क्षेत्र होता था। हाँ! तो बुद्धत्व के दिनों में कुमार सिद्धार्थ को रोहिणी नदी के जल-संकट का सामना करना पड़ा था। उनको यह जानकर हैरानी हुई थी कि नदी जल हेतु झगड़ने वाले मौके पर शाक्य-कोलिय-गण के सदस्य नहीं, बल्कि उनके दास-श्रमिक थे। तो ऐसा था उन गणों/गणराज्यों का कृषि आधारित ठाट-बाट। उनके सामने उन कारिंदों की कोई हैसियत नहीं थी। वे शोषित-वंचित न भूमि के स्वामी थे और ना ही उनको मत देने का अधिकार था। बस वे गणों के सहारे जी-खा रहे थे। भूलवश उन गणराज्यों को देश में प्रजातंत्र का संस्थापक कहा जाता है। आज के प्रजातंत्र से उनका वास्ता दूर का था। मात्र इसकी एक-दो विशेषताओं में उनका विश्वास था और उसका पालन करते थे। उस काल की शासन-प्रणाली को कुलीन-तंत्र (Oligarchy) कहना ज्यादा ठीक होगा। हकीकत में ऐसा कुछ था तो उसके हकदार पूर्व के कबीलाई जन हो सकते हैं। वे उत्तर-वैदिक काल के आखिरी दिनों में अपने मुखिया की निगरानी में कृषि, पशुपालन में लगे थे। उनकी कर्मशीलता की वह बानगी कभी भुलाई नहीं जा सकती, जो आज भी सुनने वाले को रोमांच से भर देती है। दरअसल वे सभी मिलकर साथ-साथ कार्य करते थे और अपनी जरूरत के हिसाब से कटाई-मड़ाई के बाद अनाज को रखकर बाकी (Surplus) जलाकर नष्ट कर देते थे। ऐसा वे इसलिए करते कि आलस्य से वे दूर रहें, सदा कर्म की राह में डटे रह सकें। कर्मवीर कबीले ऐसा भी सोच रखते थे, इसी देश में; आश्चर्य है।

आज के सेटअप में नेतृत्व, जो खुद निकम्मेपन का शिकार है, भोली-भाली गरीब जनता को खैरात बाँटकर निकम्मा बना रहा है, उसको इसे ध्यान से समझना चाहिए। वैसे भी, जिसे हजारों वर्ष पहले रिजेक्ट किया जा चुका है, उसे आज पुनः लागू करने की बात ठीक नहीं। वह समाज के प्रति अन्याय है, चाहे छः हजार हो या बहत्तर हजार। ‘कार्यः तु कर्म कौशलम्’ की प्रतिष्ठा हर हालत में होनी चाहिए।

वर्तमान में कुरु-कथा की जरूरत

देश के लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर के गेट सं. छः पर एक स्लोगन लिखा है- ‘प्रजा सुखे सुखी राजा’। ऐसी लिखावट से दीवारें सजती हैं, सुंदर दिखती हैं। यह तो हुआ कला-पक्ष। पर शब्द-अक्षर में कोई संदेश भी छिपा होता है। वहाँ वह किसके लिए है, समझना बेहद आसान है। वे कितना सीखे हैं या सीख पाते हैं वे ही जानें। पर उनको देखती आम जनता की नजर में शायद कुछ भी नहीं। वैसे संसद की ड्योढ़ी पर बाहरी अतिथियों के साथ दूसरे आम खास भी पहुँचते हैं। उनके लिए वह ठीक है। इसके चयनकर्ता की समझ को सलाम।

प्रजा के सुख में राजा का सुख है, इसे बताने वाला संदेश ‘अर्थशास्त्र’ का है। वह एक अनुपम किताब है, प्राचीन काल की। उस समय राजतंत्र का बोलबाला था। उसमें राजा दंड-नीति का केंद्र-बिंदु होता है। आज की सियासत को शास्त्रों में दंड-नीति कहा गया है। इस संदेश के ‘राजा’ शब्द को निरख कर किसी माननीय को राजा होने का गुमान हो सकता है। माननीयों से जुड़ी विशेषताओं के मद्देनजर ऐसा सोचना गलत न होगा। क्योंकि किसी चुनाव तक जो आम है, चुनाव जीतते ही खास हो जाता है। उसकी चाह होती है कि लोग उसे माननीय कहें और सिर-माथे किये रहें। लोगों द्वारा ऐसा कहा जाना उसे अच्छा लगता है। आजादी के शुरुआती दौर को छोड़ दें, तो जैसे ये माननीय महिमामंडित हुए हैं, इनके हाव-भाव, रहन-सहन तथा बाह्य व्यवहार में बदलाव आया है और जिस तेजी से इनकी अमीरी बढ़ी है, ये किसी राजा, सामंत या क्षत्रप से कम नहीं लगते। फिर ये क्यों कर इस माथा-पच्ची में उतरें कि उस संदेश का लेखक मौर्य साम्राज्य का प्रधान अमात्य था, जिसने अपने प्रभुओं को दिशा-निर्देश देने की हिमाकत की थी कि वे प्रजा के सुख में ही अपना सुख देखें।

वैसे तो यह माननीयों के सोच-विचारों के खिलाफ है। यहाँ देखने की बात है कि तब अर्थशास्त्र के नियमों के मुताबिक कमोवेश राज-पाट चलता था। उस वक्त के लोक प्रशासन में अराजकता के लिए खास जगह न थी। गुप्तचर के ऊपर गुप्तचर लगे थे। बल्कि वे राजा की आँख थे, जिनके जरिये राजा प्रजा को देखता रहता था ग्राम-नगर सभी जगह पुस्तिकाएँ (Register) रखी थीं, जिन पर हर जाने-आने वाले की सूचना दर्ज की जाती थी। किसी ने सूचना नहीं दी और उसी वक्त कोई घटना हो गई तो वह आदमी पकड़ में ले लिया जाता था। आज संचार के तमाम तगड़े यंत्रों के होते हुए भी वैसा नहीं हो पाता। हाई प्रोफाईल की बात अलग है। सामान्य-जन का कोई ध्यान नहीं देता।

एक रोचक बात उसी दौर की। जहाँ उत्पादन का सवाल होता, कौटिल्य उच्च वर्ण वालों को राज्य पर भार समझता था। क्योंकि आज की तरह वे निज-हस्तेन कृषि आदि के कार्य करने से परहेज करते थे। उनके बरक्स निचले पायदान के लोग विकास के पर्याय समझे जाते। ‘अर्थशास्त्र’ के एक खंड के मुताबिक उन्हें वरीयता देने की बात कही गई है। नव-आवासीय योजनाओं में उनके लिए आवास का खास प्रबंध किया जाता था। ऐसे तो उनके भरण-पोषण की भी चर्चा ग्रंथ में है। इसे आजमाना अब भी लाभप्रद होगा। वैसे आज इस्तेमाल पिछड़ों का किया जाता है, विकास के लिए नहीं, वोट के लिए।

फिर तो कौटिल्य के सोच और कार्यों को देखते आज के सांसद-विधायकों से लगायत मंत्री-संत्री तक सभी को प्रजा के प्रति ज्यादा सरोकार रहना चाहिए। पर ऐसा कहीं दिखाई नहीं देता। हाल के दिनों में स्त्रियों सहित कमजोर-जन का उत्पीड़न बढ़ा है और लोगों के बीच की खाई चौड़ी हुई है। प्रजा की समस्या प्रायः मुसीबत बन कर टूटती देखी गयी हैं, उधर मरहम लगाने वाले ऐन वक्त पर नदारद मिले हैं। प्राकृतिक आपदाएँ तो नेताओं के साथ सरकारों के जैसे इम्तिहान लेती रही हैं और प्रायः वे सभी फेल ही मिले हैं।

‘कुरु-धम्म’ की नसीहत (The Advices of the ‘Kuru-Dhamma’)
‘कुरु-धम्म’ की नसीहत

ऐसा लगता है नारों-संदेशों से संसद की दीवारों को सजा रहे लोग इसे ताड़ गये थे कि जन प्रतिनिधियों के सुख प्रजा से तालमेल न कर सकेंगे। वैसे पहली नजर में यह संभव भी नहीं लगता। प्रजा में तमाम गरीब-गुरबा हैं, जबकि उन्हीं के चुने नुमाइन्दे सभी धनिक अमीर हैं। जहाँ नेताओं के अपने-अपने सुख हैं, वहाँ प्रजा का दुःख उनको कैसे और क्यों दिखेगा? इसी ख्याल से चाणक्य के उक्त संदेश की दूसरी पंक्ति के गेट पर उकेरने से परहेज किया गया, जबकि वह पंक्ति भी लाजवाब है और आदमी का सोच बदलने की कूबत रखती है। वह है- ‘प्रजा दुखे च दुःखितः’ यानि प्रजा का दुःख राजा का दुःख होता है। सचमुच क्या मर्मस्पर्शी स्लोगन है? कोई सुख में किसी की ओर न ताके और मुसीबत के वक्त ठहर कर कुशल-क्षेम पूछ ले। बड़ी बात होती है। कभी के राजतंत्र की यह सलाह आज के लोकतंत्र पर पेबंद लगती है, शर्म की बात है। साधु-साधु! प्रजातंत्र की ऐसी विफलता कि आज का नेतृत्व न प्रजा के सुख से जुड़ पाया और न ही उनके दुःख-दर्द से कोई रिश्ता बना पाया। कुरु-कलिंग में यह नहीं था।

आजादी के बाद के दशक में एक फिल्म आई थी, ‘प्यासा’। इसके एक गीत के बोल हैं- ‘.. जिन्हें नाज है हिंद पर वे कहाँ हैं…….।’ इसे सुनकर प्रधानमंत्री नेहरु चौंक गये थे, जैसे कोई उनको ललकार रहा हो। तबसे वह गीत अनगिनत बार बजा होगा, किंतु किसी में वैसे भाव उठते कभी किसी ने नहीं देखा। बड़े मजे से लोग एक कान से सुनते और दूसरे से निकाल देते हैं। ऐसा क्यों होता है? इसलिए कि नेहरु जी एक सहृदय इंसान थे। वे स्वयं आजाद भारत के एक स्वप्नद्रष्टा थे और शिल्पकार भी। तभी तो उनको आभास हुआ कि कोई उनके प्रयास को चिढ़ा रहा है। आज कोई नेता नहीं जो देश की माटी से प्यार करता हो और यहाँ के लोगों से तहे दिल से जुड़ा हो। जो जुड़ाव है, वह वोट बटोरने तक सीमित है। कुरुओं में यदि कोई कर्म की कसौटी पर फेल हुआ तो तुरंत गलती स्वीकार कर लाभ/सम्मान का पद छोड़ देता था। अभी जनता की भीड़ में बेगानों की तरह बने नेताओं से आम लोग कोई उम्मीद भी नहीं करते। तभी तो कहना पड़ता है-

जले या बुझे रोशनी जिंदगी की

परवाह कहाँ है किसी को किसी की।।

सहृदयता संवेदना से उपजती है। सूखे कुँए से पानी नहीं निकलता। आदमी तो तमाम हैं, इंसान थोड़े हैं। तभी तो कहा है- आदमी पैदा होते हैं और इंसान बनाये जाते हैं। अफसोस कि देश अंतरिक्ष में अपनी धाक भले जमा ले इंसान बनाने की किसी योजना पर काम नहीं कर रहा। जो हो रहा है, उसकी दिशा उलटी है। इंसानियत को तलाशता एक शायर का अंदाजे बयाँ बड़ा मौजू है-

खत लिखा मैंने इंसानियत के नाम पर

पता पूछते-पूछते डाकिया ही चल बसा।।

कुरुओं के देश में इंसानियत के साथ जीते लोग संवेदना के धनी थे। उनके जीवन में छोटी-सी गलती भी मायने रखती थी। भूल-चूक के प्रतिकार में अपना जमा भी लुटाने में उनको गुरेज न था। गाड़ी के आगे का काठ वे कभी नहीं बने। आज कोई वैसा नहीं कर रहा। बल्कि त्रुटि बताने पर गुर्राते हैं, धमकी भी देते हैं। इनको पता नहीं कि अच्छाइयाँ त्याग की तरफ ले जाती हैं और बुराइयाँ भोग को आमंत्रित करती हैं। त्याग-भोग की तनातनी में त्याग पराजित है। बल्कि कहें कि बिला गया है। देश की संस्कृति का मरम बताता श्लोक देखने लायक है-

येषां विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः।

ये मर्त्यलोके भुविभारभूताः, मनुष्यरूपेण मृगश्चिरन्ति।।

सचमुच विद्या, ज्ञान, दान, तप, शील, गुण-धर्म बिना व्यक्ति जीव नहीं पाषाण है, धरा पर भार है और चलता-फिरता पशु है। जो समझ सके तो ठीक, नहीं तो कोई बात नहीं।

अब तक घास-पात बीने, बटोरे और परोसे। उसमें कुछ लज्जत है, यह आगे सुधीजन ही बता पायेंगे। यह जब होगा तब होगा। फिलहाल कुरु-कलिंग किस मायने में आगे थे और हम कहाँ पीछे छूट गये। वैसे इसमें लज्जा की बात नहीं। वे यहीं के थे, हमारे पूर्वज हुए। उनकी कई विशेषताएँ परंपरा में हैं। खासकर जब दुनिया को पछाड़ कर आगे निकल जाने का जयघोष किया जाता है या अपने को विश्वगुरु होने का कोई भरम पाले हो, उनसे विनम्र निवेदन है कि जरा ठहर लें और आँखे खोल कर देख-सुन लें। उनको पता लग जायेगा कि कौन कितने पानी में है। क्योंकि दिन को रात बता देने से तारे नहीं दिखते और भोर में देखे सपने सदा सच नहीं होते। कुरु राजाधीन राज्य था, पर उसकी सोच और उपलब्धि समाजवाद जैसी थी। प्रतिष्ठा का पद वहाँ एक मुकाम पर टिका नहीं है, बल्कि 360 डिग्री पर घूमने के लिए स्वतंत्र है। जो गुण-धर्म का साधक है, वह हाथ ऊपर कर पकड़ सकता है। आज हम प्रजातंत्र में रहते हैं, किंतु हमारी सोच व प्राप्तव्य राजतंत्र की तरह है। श्रेष्ठ धम्म-पालक का पद आज रहता तो किसी राजा-क्षत्रप के हाथों बंदी होकर उसकी निजी मिल्कियत होता। और किसी फर्श पर रहने वाले को उस ओर सिर उठा कर ताकने की इजाजत न होती।

अब बात शुरू ‘गीता’ से। शायद तब भी ‘गीता’ पढ़ी जाती होगी। नहीं तो कुरुओं के कर्मवाद से प्रभावित होकर बाद में लिखी गई होगी। ‘गीता’ आज भी लोग पढ़ते हैं, पर बिरले ही उससे सीख ले पाते हैं। इसीलिए कर्म का सिद्धांत यहाँ प्रतिष्ठा नहीं पा रहा। ‘हारे को हरिनाम’ की तरह भले लोग ‘गीता’ को सिर-माथे करते रहते हों, सबल समर्थ-जनों का यकीन इस पर कम ही है। अन्यथा चुनाव जीतने वास्ते प्रत्याशी और पार्टियों के लोग मंदिर-मंदिर आरती की थाली ले चक्कर नहीं काटते। इस देव-परिक्रमा में कई उपहास के पात्र ही सिद्ध हो रहे हैं। नानक देव कह गये हैं- ‘एक नूर से सब जग उपजा’। सनातन परंपरा में भी ‘एको ब्रह्म द्वितियो नास्ति’ का जयघोष है। वैसे उसमें जिक्र बहुदेववाद का भी है। वह भी सत्य है। साधना-ध्यान में तमाम लोग लगे थे। आज भी लगे हैं। जिसने जो देखा, उसे बयान किया और लोग फॉलोअर बने। वैसे वह सब उसी एक ब्रह्म/ईश्वर के विविध रूप हैं। फिर मंदिर-मंदिर, देवता-देवता, घाटे-घाटे का मतलब यानि कि उनमें से कोई भी लह जाये। इस मुद्दे पर शरद जोशी ने क्या सटीक कहा है- ‘कमी न मूर्तियों की है और न ही पूजने वालों की। मिल जाय तो लोग पूजने से चूकते नहीं। न मिले तो किसी शेप-बेशेप पत्थर की तलाश करते उन्हें देर नहीं लगती। दिखा और लगाया सिंदूर। पत्थर का वश चले तो खुद सिंदूर लगा ले।’ इस देश में सभी पूजने की संभावना टटोलते हैं। कब कौन-सा अनगढ़ पत्थर देवता बन जायेगा, कहा नहीं जा सकता। ऐसे सशंकित देव-पूजकों की नजर में नानक की अगली पंक्ति का क्या काम- ‘का बामन का सूदा’। चुनाव के दिनों में सियासत के खिलाड़ियों को जैसे शूद्र वोटर में भी भगवान नजर आता है, वह आम दिनों में भी रहता तो भारत से वर्ण-भेद कभी का खत्म हो गया होता। देखें तो कुरु-कलिंगों में देव-पूजा का ढोंग नहीं था। उनके लिए तो कर्म ही पूजा थी और सतत् उसी में लगे रहते थे। कलिंग में अकाल-सूखा पड़ा। किसी इंद्र को रिझाने के बजाय लोगों ने आचरण सुधार पर बल दिया और कठिन पूजा का फल उनको मिला भी। आज ऐसा ख्याल किसी को नहीं आता। इसलिए कि यह काँटों पर चलने जैसा है, जबकि पूजा-पाठ के जरिये दूसरों को प्रभावित करना आसान है।

कुरु-जनों में गुण-दोष के प्रति गहरी निष्ठा थी। अपने में गुण पैदा कर दौवारिक जैसा सामान्य राज-कर्मी प्रतिष्ठा प्राप्त करता है। दूसरी ओर मामूली दोष की वजह से महारानी पद गवाँ देती हैं। यह वैसे ही है जैसे आज का चाय वाला। जमीन से उठा एक शख्स उसकी चहुदिषि वाह-वाह भी है। यह गर्व की बात है। इसे देख-सुन किसी भी दबे-कुचले के मन में आगे बढ़ने का हौसला जाग सकता है। यह ठीक भी है। हालांकि आदमी सिक्के का दूसरा पहलू भी टटोलने लगे हैं।

कुरुओं का गुण के प्रति आग्रह और दोष को लेकर उपेक्षा वाकई अनुकरणीय है। राज-परिवार भी इस विवेक का कायल है। आज देश में ऐसा ही कोई अभियान चलाया जाना चाहिए, जिससे कि लोगों का नैतिक स्तर ऊँचा उठे और फिर लुढ़के ना। कभी गाँव की गड़ही में मछली पकड़ते देखा था। बच्चे गंदे पानी को हाथ-पैर से हीड़ देते थे, जिससे कि भीतर छिपी मछली ऊपर आ जाय और वे पकड़ लें। आज कुछ वही किया जा रहा है। तभी तो पहले से दूषित समाज गुण-युक्त होने के बजाय दोष-युक्त होता जा रहा है। यदि कोई अच्छा करना भी चाहे तो स्वार्थ बाधा बन रास्ते में आ टपकता है। नजर दौड़ाएं तो स्वार्थ/लोभ दिनों-दिन घनीभूत होता जा रहा है और लोग कर्म की राह भूल इसके लपेटे में फँसते जा रहे हैं। इस दुर्गुण से पीछा छुड़ाने की कोई सूरत नहीं दिखती। पर दूरबीन से देखें तो दूर क्षितिज पर कोने में एक उम्मीद का दीया टिमटिमाता है और वह है यवन देश का चिंतक सुकरात। यवन, जिनको कभी किसी ने म्लेच्छ कहा था। दुनिया का प्रसिद्ध दार्शनिक सुकरात वहीं का एक रत्न था।

बात लगभग 2400 वर्ष पुरानी है। विचारक होने के कारण लोगों का चहेता था, वह। आगे-पीछे लगे जन उससे प्रश्न पूछते और वह लोगों की जिज्ञासा शांत करता रहता था। ऐसे ही एक मौके पर उसने कहा- तुम्हारा जूता टूटता है तो मरम्मत के वास्ते कुशल (Skilled) मोची की तलाश करते हो, तो क्या राज-शासन (State-craft) के लिए ऐरे-गैरे के हाथों में देश की लगाम थमा दोगे? इसका उत्तर आज भी पढ़ा या अनपढ़ नहीं में देगा, सिर्फ सियासत में लगे को छोड़कर। सुकरात के शिष्यों ने ‘ना’ ही कहा होगा। पर अपने देश में अब ऐसा नहीं हो रहा। देश-प्रदेश में कहीं पर। और हो वही रहा है, जिसकी वर्जना यूनानी दार्शनिक ने सदियों पहले की थी। तो यहाँ बबूल बोकर रसीले आम की तमन्ना की जाती है। सो कहाँ होने वाला। परिणाम सभी के सामने है।

यह भी देखने का कि सुकरात के सुझाव डेमोक्रेसी की ही उपज हैं। इसलिए भी यह देश के लिए मुफीद है, बशर्ते कि व्यवहार में लाया जाय। अफसोस कि तंत्र में सुधार के नाम पर कभी किसी ने सुकरात का नाम लिया हो, मुझे तो नहीं पता। नेता कभी विमर्श में भी यह मुद्दा नहीं उठाते। व्यवहार में तो ठीक इसके उलट ही होता है। ऐसे ही कुरुधम्म के उसूल सियासत को पसंद नहीं हो सकते। इसलिए कि उसमें लूट की इजाजत नहीं है। एक खास किस्म की देशभक्ति है उसमें, और वह आज की राष्ट्रीयता से मेल नहीं खाती।

इधर फिर चुनाव का मौसम है। दलों में जहाँ भीतर-घात है, वहीं एक दूसरे पर शब्द बम के प्रहार के साथ कीचड़ भरे मटके भी फोड़े जा रहे हैं। बस सीधे तौर पर सुभाषित के आदान-प्रदान व हाथापाई के अलावा सब कुछ चल रहा है। गड़े मुर्दे उखाड़ना तो पुराना धर्म है। जो एक बात सभी दलों में कामन है, वह जिताऊ प्रत्याशी की तलाश का है। किसी दल से भाग कर आया हो, निकाला गया हो, हत्या आदि के कितने भी मामले हों उस पर या ऐसे ही संगीन जुर्म का आरोपी हो, उसे टिकट देने में किसी को परहेज नहीं, बस सीट निकलनी चाहिए। जिस खेल में सभी जीतने पर आमादा हों और हार किसी को कबूल न हो, वह खेल-खेल नहीं होता, कुछ और ही होता है। आज देश समाज की राजनीति का कुछ यही हाल है। जनता की सेवा सभी करना चाहते हैं, पर कुर्सी पर बैठकर। जैसे कुर्सी सेवा-भाव भरने की मशीन हो। पद पाते ही सेवा की रसधार फूट पड़ती है और छिनते ही सूखा कुंआ उभर आता है। वाह! फिर कुर्सी के पीछे कोई क्यों न भागे।

यहाँ के राजनय का एक और अनूठा ऐब है, जो किसी कोने से समर्थन के काबिल नहीं है। कुरुओं के गुण-धर्म से इसका कोई वास्ता भी नहीं है, बल्कि उसके सर्वथा उलट है। यहाँ के सियासी क्षत्रप, कहीं से भी आते हों, चाहत यही होती है कि उनकी अगली पीढ़ी उनके साथ रहकर उनके कार्य में हाथ बंटावे। जैसे सियासत भी कोई कुटुंब का कारोबार हो और वंश-परंपरा से उसका ताल्लुक हो। कहीं पर तो भ्राता व भ्रातृव्य सहित कुनबा ही नेताजी के साथ जन-सेवा में लगा दिखेगा। सचमुच नेतागिरी से इतर सुरक्षित और ज्यादा लाभप्रद आज दूसरा कोई धंधा नहीं है। बेरोजगारी के जमाने में तो खासा आकर्षण है इसका। न कौशल विकास से इसका कोई वास्ता है और न ही किसी उच्च डिग्री की जरूरत है। ऐसे में इसे सोचकर कोई क्यों दुबला हो कि देश-सेवा की शर्त में सुकरात ने क्या मनाही की थी। अतः सुकरात को भूलना ही अच्छा।

सच पूछिए तो वंशवाद के कीट का पालन ठीक नहीं। प्रजातंत्र की सेहत के तो यह सख्त खिलाफ है। इससे सामंतीय सोच को बढ़ावा मिलता है और एक भारत के भीतर कई भारत बनाने में इसकी बड़ी भूमिका है। आजादी के शुरुआती दौर में ऐसा नहीं था, जो कि अब दिखाई देता है। नेताओं की नई पौध के अंदाज तो निराले हैं, जिसके कारण सियासत और समाज में बौखलाहट बढ़ रही है। वोटरों का घटता कद बेचारगी की बाटम लाइन को छूने लगा है, जो गंभीर चिंता की बात है। कुरु-कलिंगों में इस बुराई की बू तक नहीं थी। सभ्यता की चढ़ाई चढ़ रहे इस देश में भी नहीं होनी चाहिए। साँपनाथ या नागनाथ या ऐसे ही नाथ-पगहों में से किसी को चुनना होता है। जबकि ये सभी जनता को अनाथ ही बनाते हैं।

देश का बहुसंख्यक समाज वर्ण-जाति के झूले पर सदियों से झूलता आ रहा है। ऊँच-नीच व भेद-भाव इसके प्रमुख उत्पाद हैं। यूं तो शहरी प्रभाव के चलते इसमें काफी कमी आई है। इस दिशा में और कोशिश करने के बजाय चुनावी-प्रपंच सिसकते हुए धुएँ को भड़का जाता है। बताते हैं लपटों के बीच मतदान की अच्छी फसल होती है तथा उम्मीदवार जीत कर माननीय बनते हैं और सदन को आबाद करते हैं। सींगे-पूंछी बैल की भाँति माना चुनाव देश में जरूरी है, तो फिर भी समाज को इसकी सुनामी से बचाया जाना चाहिए। पर ऐसा नहीं हो पा रहा। तो वही हुआ: बागवां भी खुश रहे, और खुश रहे सैयाद भी।

कुरु देश की आबोहवा इतनी जहरीली न थी। वर्ण-जाति थी भी तो वह नैतिकता की चादर में लिपटी थी। क्या करना और क्या नहीं करना लोग जानते थे। यह तब कैसे होता था, नगरीकरण के पूर्व के गाँवों को याद करें। अभी ज्यादा वक्त नहीं बीता है। आगे कैसे कहाँ से वाइरस का हमला हुआ और समाज को चपेटे में ले लिया, जानने की एक कोशिश यहाँ पर भी। दरअसल मानव समुदाय की एक विशेषता वर्गीकरण (Classification of Society) की होती है। चाहे किसी रूप में हो। सैंधवों में भी था और आर्यों में भी रहा। देश के प्रचीनतम् ग्रंथ ऋग्वेद में एक मंत्र है, जहाँ चार वर्णों का एक साथ जिक्र मिलता है, वे सभी वर्ण अलौकिक पुरुष के अंगों से निकले हैं-

ब्राह्मणः अस्य मुखम् आसीत्, बाहूः राजन्य कृतः।

उरुभ्यां यत् तद् वैश्य, पदाम्यां शूद्रो अजायत् ।।

इसके मुताबिक ब्राह्मण दिव्य पुरुष का मुख है। उसकी क्षेत्रीय ‘कृत’ यानि किये/बनाये गये तथा उरु-जधे से वैश्य और पैरों से शूद्र अजायत्, अर्थात पैदा हुए। यहाँ खास बात यह है कि आखिरी दो के युग्म के साथ तीनों की क्रियाएँ एक नहीं है। सूजन एक और सृजित होने के तरीके अलग-अलग, माजरा है क्या? प्रथम वेद के अंतिम मंडल (खंड) का यह एक मात्र सबूत है जहाँ चारों वर्णों का साथ-साथ उल्लेख है। आगे वर्ण-विभाजन को सामाजिक स्वीकृति दिलाई गई और इस तरह वर्णों की चौखट पर सामाजिक व्यवस्था खड़ी की गई। तब से 3000 साल से ज्यादा का वक्त बीत चुका है और चार खंभों पर समाज टिका चला आ रहा है।

पहली नजर में दो बातें देखने लायक हैं। यह घटना पृथ्वी पर मानव के प्रथम आगमन के समय की नहीं है। इसका संबंध आर्यों के आरंभिक चरण से है। जब कि दुनिया के तमाम हिस्सों में मनुष्य का वास-निवास पसर चुका था और देश में प्रागैतिहासिक काल से लगायत हड़प्पा-मोहनजोदड़ो के समय तक नर-नारी रहते आ रहे थे। अतः मानव के जन्म के समय से वर्गों के उद्भव का कोई नाता नहीं है, ऐसा हो भी नहीं सकता था जैसा कि भ्रमवश सनातनी कहते बताये जाते हैं।

दूसरी यह कि अलौकिक पुरुष ने सभी वर्गों को एक साथ नहीं बनाया। ब्राह्मण जैसे उसका मुख था (मुखं आसीत्). वहीं राजन्य/क्षत्रिय किया गया (कृतः) और वैश्य-शूद्र पैदा हुए (अजायत्)। इस सृजन में मुख से लेकर पैर तक का प्रयोग हुआ है। आशय यह कि वर्णों के परस्पर अंतर व उच्च-निम्न का मूल यहीं ऋग्वेद में छिपा है।

अब सिक्के का दूसरा पहलू देखें। वेद के बाकी मंडलों में ब्रह्म-ब्राह्मण, क्षत्र-क्षत्रिय/राजन्य और विशः यानि अन्य बचे हुए जन की भीड़ है। ये गीत रचने से लेकर युद्ध, कृषि, गो-पालन, सेवा आदि के कार्य/पेशा में लगे हुए हैं। एक कुटुंब या समुदाय में रहते जन-रुचि एवं क्षमता के अनुरूप पेशा अख्तियार किए हुए हैं और साथ-साथ रहते हैं। रहन-सहन का स्तर साधारण है तथा कृषि आधारित अर्थव्यवस्था वस्तु-विनिमय (Barter) पर टिकी है। लगभग ऐसा ही परिदृश्य था ऋग्वेद के समय का। यहीं यह बता देना सही होगा कि उस वक्त के जो व्यापारी थे उनको ‘पणि’ कहा जाता था। वे आर्यों के समुदाय में समाज के बाहर के होते थे। बाद में उनका विलय आर्यों में हुआ। उससे पहले की सिंधुघाटी सभ्यता एक नगर सभ्यता (Urban Civilization) थी, जो शायद आर्यों के आक्रमण की शिकार हुई। उसके प्रभावहीन होने के दूसरे कारण भी कहे जाते हैं; निश्चित रूप से थे भी।

यहाँ कल्पना करें कि दिव्य पुरुष शयन अवस्था (Sleeping Posture) में था और उसके अंगों से चारों वर्ण निकले। अगले चरण में उसके स्थानक खड़े (Standing Posture) होने पर मुख सबसे ऊपर हुआ तथा पैर नीचे। ऐसी दशा में ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ कहा गया तो शूद्र सबसे नीचे का। भुजा का स्थान जंघों से ऊपर है। अतः क्षत्रिय वैश्य से ऊँचे हुए। ऐसे ही वर्णों के बीच आपसी खाई/दूरी तैयार की गई। उसके बाद इनके कार्य और पेशा निश्चित किये गये। हालांकि तमाम कार्य मानव पहले से करता आ रहा था। इसमें भी उच्च-निम्न का ध्यान रखा गया। शूद्रों के हिस्से में सिर्फ स्वामी की सेवा का विधान, उसके अलावा कुछ भी नहीं, यह विचित्र-सा लगता है। संभव है यह सोची-समझी नीति हो जिससे कि समाज का एक वर्ग श्रमिक बना रहे और सेवा करता रहे। तो यही वर्णों की दैवीय उत्पत्ति (Divine Origin) की गाथा है।

वर्णों की संख्या पर तो ‘नास्ति पंचमो वर्ण’ कह कर विराम लगा दिया गया, परंतु जातियों की संख्या बढ़ती गई। इसमें पेशों के फैलाव के साथ विवाह की मर्यादा की समस्या का प्रमुख हाथ था। लोगों की आव्रजन-प्रवजन (Immigration) नीति का प्रभाव भी जाति व पेशों के विस्तार पर पड़ा। आर्थिक तरक्की के साथ पेशों की संख्या बढ़ी तो समाज में ऐसे लोग पैदा हुए जिनके लिए अलग पहचान की जरूरत पड़ी, क्योंकि संदेहपूर्ण पैदाइश के कारण माता-पिता का वर्ण मिलने की तब भी दुश्वारी थी। उनको वर्ण-संकर (Mixed Origin) कहा गया। यह देखने योग्य है कि सभी जगह विवाह की मर्यादा समान नहीं थी। कई समुदायों को बदलाव की हवा न लगने के कारण उनमें यौन-स्वच्छंदता (Sexual Freedom) बनी रही, देर तक। इन्हीं परिस्थितियों में जाति जैसी व्यवस्था प्रचलन में आई। यह जन्म आधारित सामाजिक पहचान की व्यवस्था थी जिसका सीधा वास्ता अपनाये गये पेशे/व्यवसाय से था। आगे के समय में इसका लचीलापन जाता रहा। वर्ण-जाति की यह तस्वीर जो थोड़ी धुंधली दिखती है, आगे श्रीमद्भागवतगीता के कथन से साफ व पारदर्शी हो जाती है। यह इन सामाजिक संस्थाओं के दैवीय होने का दूसरा आधार है। वहाँ श्रीकृष्ण धरती पर अवतार लेते हैं और वर्णों के बनने का कारक बनते हैं। वह प्रसंग हैः चातुर्वर्ण मया सृष्टा गुण-कर्म विभागसः

यहाँ देखें तो कर्म वही है जो पेशा/व्यवसाय के रूप में पहले से चला आ रहा है। यानि वर्णों का उदय पेशों पर आधारित है। हाँ! गुण का आधार नया है जो यहाँ जोड़ा गया है। वहाँ और दूसरे जगह गुण तीन कहे गये हैं- सत्व, रजस और तमस। सत्व तथा रजस वाले क्रमशः ब्राह्मण व क्षत्रिय हुए तो रजस व तमस के योग से वैश्य और तमस के कारण शूद्रों को आकार मिला। श्रेष्ठता-क्रम के मद्देनजर यहाँ पूर्व का ही समर्थन है। क्योंकि सत्व=श्वेत/शुभ्र का ब्राह्मण, रजस= उग्रता से युक्त क्षत्रिय तथा तम= कृष्ण यानि अंधकार वाले शूद्र कहे गये। वैश्यों को उग्र और तम का मिला-जुला रूप बताया गया। वैश्यों के लिए भी कोई शब्द गढ़ सकते थे। पर ऐसा न करना दिखाता है कि किसी मजबूरी में वैसा किया गया। यानि जान-बूझ कर वैश्य को क्षत्रिय और शूद्र के बीच जगह दी गई। गुण पर किये गये शोधों से स्पष्ट है कि इनके बीच पुख्ता दीवार नहीं खींची जा सकती। ये परस्पर मिलते-जुलते चंचल चलायमान (Overlapping) हैं। अतः जिसमें जिस गुण की अधिकता होती वही वर्ण नाम उसे मिलता है या मान लिया जाता है। फिर गुण विचार शरीर की अंतः-रचना (Biological factor) पर टिका है, जिसका आज के वैज्ञानिक युग में भी सही निर्धारण संभव नहीं। फिर उस जमाने का क्या? तथापि भेद-भाव का आभास तो होता ही है और वही उस वक्त प्रयोज्य था। शरीर विज्ञान से जुड़ा एक शोध डी.एन.ए. का है। इसके अनुसार आसेतु हिमालय के बाशिंदों का एक ही परिणाम है, यानि सबका डी.एन.ए. एक ही है। इसकी कसौटी पर धर्म-समुदाय अथवा वर्ण-जाति का भेद बेमानी है। इसका भी संज्ञान लिया जाना चाहिए। सामाजिक समरसता बनाये रखने में यह सोच काफी मददगार हो सकता है। संवादों के जरिये इसे लोकप्रियता दिलाना एक सार्थक कदम होगा।

श्रीकृष्ण को लेकर दूसरी सोच भी है। यह द्वापर युग की घटना है, यानि त्रेता के श्रीराम के बाद के समय की। इनके मद्देनजर ऋग्वेद कहाँ जगह पाता है, कहना कठिन है। भाषा का आधार लें तो गीता-महाभारत ऋग्वेद के बाद रचे गये। बल्कि काफी बाद में। अतः ठीक यही होगा कि गुण चर्चा यहीं तक। धर्म के विषय में तर्क की राह सही नहीं। इससे प्रतिष्ठा घटती है। शास्त्र की ओर से भी मनाही हैः

तर्कः अप्रतिष्ठितः श्रुतयोः विभिन्नाः नैशोऋषिः यस्य मतं प्रमाणम्।

धर्मस्य तत्वं निहितोगुहायाम् महाजनो येन गतः स पन्थाः।।

धर्म के मामले में तर्क की गुंजाइश नहीं, सुनी-सुनाई बातें तमाम हैं, धर्म के तत्व अँधेरी गुफा में छिपे के समान हैं, फिर तो सुधी, ज्ञानी या अपने से श्रेष्ठ जिस राह पर चलते हों, वही रास्ता सही है। वही महाजन सम्मत मार्ग है।

अस्तु वर्ण-जाति-गुण की चर्चा की इति। व्यंजना-लक्षणा पर्याप्तम्। अभिधा निष्प्रयोज्यम्।

अब मुद्दा नैतिकता का। इसकी महत्ता का गुणगान कई दफा किया गया है, कथा में और इस लेखन में। यही आजकल का धधकता हुआ विषय भी है और मुख्य चुनौती भी। इसे दो तरह से देखना ठीक होगा- दिन-प्रति-दिन के कार्य-व्यवहार में आदर्श व सच्चाई का निर्वहन और दूसरा चरित्र की शुद्धता का। ये दोनों ही कुरु-कथा में प्रमुखता से उठाये गये हैं और पूरी पारदर्शिता बरती गई है। उप-राजा से जुड़ा वाकया सियासत में सपने जैसा है।

प्रजा की अपने राजा पर वैसी अटूट आस्था, जानकर आश्चर्य होता है। काश! आज वैसा हो पाता। पर कैसे? यहाँ तो दोनों एक-दूसरे को शक व छल की नजर से देखते हैं। चुनावी राजनीति ने इसे और जटिल बना रखा है। एक प्राचीन कथा में कौवे, मेढकों को काटते हैं। इस पर मेढक रोते हुए कहते हैं- इस देश के राजा ने जरूर कोई गलती की होगी, अन्यथा कौवे नहीं काटते।

एक दूसरी कथा में जिक्र है कि- जहाँ राजा सही कार्य नहीं करता, उस देश में नमक और शक्कर स्वाद खो देते हैं। आज ऐसा मुमकिन नहीं। इस धरातल पर यहाँ के विधायक, सांसद, मंत्री, संत्री सब फेल। देखें तो यहाँ की लीडरशिप जनता का विश्वास खोती जा रही है। उधर नेता भी सीना खोलकर नहीं दिखा सकता कि उसके हृदय में सिर्फ प्रजा-हित ही बसता है। कल्याणकारी योजनाओं और पंचायती-राज के जरिये यह साफ हो गया है कि कदाचार गाँव-गिराव से होते जन-जन तक पैठ बना चुका है। हाल में लोगों को खैरात देकर आलसी बनाने के खिलाफ मद्रास उच्च न्यायालय ने तीखी टिप्पणी की है। ऐसी अविचारित योजनाओं से समस्याओं का समाधान नहीं हो पा रहा है। समस्याओं पर सोचने व कुछ करने के बजाय नेता स्वयं तू-तू, मैं-मैं में लग समय गवाँ रहे हैं। कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ में वृद्धों से, जो चलने-फिरने में असमर्थ थे, सूत कतवाने का उल्लेख है। अपने समाज में हाथ-पाँव सलामत रहते युवा सड़क नापते हैं। उनके नियोजन की कोई योजना किसी सरकार के पास होती ही नहीं। कहा तो काफी कुछ जाता है, करने की जरूरत है; वह भी जमीन पर।

कथा के सेठ से जुड़ी दास्तान टैक्स अदा करने की है। वह एक अनूठी मिशाल है। ऐसा दुनिया में शायद ही कहीं होता होगा। भले यह नुमाईशी लगे, पर सोच तो किसी देशवासी की ही है। इससे काफी कुछ सीखा जा सकता है। ताली बजाने को उठा दूसरा हाथ तो देखिए। राजस्व से जुड़े राजकर्मी, राजा और प्रजा दोनों के प्रति समान निष्ठा रखते हैं। यह अभूतपूर्व है। राजाओं के कई दूसरे दस्तावेज इसका सबूत हैं कि ऐसा होता था, गुजरे जमाने में।

चरित्र से जुड़े कई मुद्दे कथा में हैं। इस लेखन में भी इसकी चर्चा की गई है। कथा में काम-पीड़ित कोई पुरुष नहीं है, देह का सौदा करने वाली स्त्री जरूर है। फिर तो वैश्यागामी होंगे ही। पर आज की छिछालेदर तो कुछ और है। लगता है हर आयु के हर वर्ग में यौन-कुंठा व्याप्त है। हो भी क्यों न, बड़े-छोटे पर्दे के साथ मोबाइल स्क्रीन जो सेक्स एजुकेटर बनी है। तभी तो सभी यौन-विकृतियों की गिरफ्त में फँसे लगते हैं। जटा-जूट-धारी साधु-संतों के सेक्स के खेल तो निराले हैं। जो मामले पकड़ में आये हैं, उनमें सभी 50-55 के पार के हैं। आश्रम-नियम के मुताबिक वह वानप्रस्थ की अवस्था है। फिर निवृत्ति की राह पकड़े इनको काम भोग से क्या काम? पर नहीं, कर्म ठीक इसके उलट है, जैसे कामदेव के ये सच्चे सहोदर हों। कितनों ने तो सिर्फ वासना-पूर्ति की खातिर धर्म, अध्यात्म व शिक्षा की दुकान खोल रखी थी। यह तो सरकारों के साथ लोगों की जागरुकता है कि उनमें से अधिकांश सलाखों के पीछे हैं। पर इस सेक्स के खेल में तमाम दूसरे सफेदपोश भी शामिल रहे हैं, और हैं भी। किसी की चिकनी कमर देख इनका फिसलना कैसे रुके? यकीनन यह भारी समस्या है। ऐसों की घिनौनी हरकतें समाज को बीमार बना रही हैं, जबकि ‘सबका साथ सबका विकास’ के युग में समाज को स्वस्थ होना चाहिए। सिर्फ कहने और इश्तेहार देने से सुधार होना होता तो काफी कुछ समाज बदल गया होता। तब दुर्जनता को पछाड़ कर सज्जनता का वास होता; पर ऐसा हुआ नहीं।

काम के मुद्दे पर देखें तो मनु का सोच काफी व्यवहारिक लगता है। उसमें वैज्ञानिकता भी है। उस विचार को आम आदमी भी ठीक से समझ सकता है, जबकि अज्ञानवश मनु कइयों के निशाने पर रहे हैं। मनु का कहना है कि मांस-भक्षण, मद्यपान और यौन-क्रिया, इन तीन मकारों में मानव की सहज संलग्नता होती है। लेकिन जो इनसे परहेज करता, यानि विवेक के साथ कदम बढ़ाता है वह ठीक करता है। वह नमन योग्य संदर्भ हैः

न मांस भक्षणे दोषः न च मद्ये न च मैथुने।

प्रवृत्ति एषां मनुष्याणां निवृत्तिः तु महाफलाः ।।

देखें तो यह उपदेश तब जारी किया गया था जब मनुष्य ने संस्कृति विकास की कई मंजिलें पार कर ली थीं। समाज में विवाह की मर्यादा स्थापित हो चुकी थी और लोगों ने एक-पत्नि व एक-पति व्रत ले लिया था। यहाँ तक कि आश्रम के नियम भी स्थिर हो चुके थे। तथापि समय-समय पर राजाओं से अपेक्षा की जाती रही है कि सामाजिक नियमों का पालन वे सुनिश्चित करावें। यह जरूरी है कि एक बड़े देश में जहाँ सांस्कृतिक बहुलता हो स्थानीय तौर पर कहीं पिछड़ापन रह गया हो। ऐसा तो अब भी कहीं-कहीं सुनाई देता है। लेकिन बहुसंख्यक लोग-बाग अपनी संस्कृति व परम्परा के पोषक थे और अनुशासित जीवन यापन में यकीन रखते थे। जैसा कि कमोवेश आज भी है। अंत में, कालिदास का अमर संदेश:

शैशवे अभ्यस्त विद्यानां, यौवने विषयैषिणाम्।

वार्धक्ये मुनि वृतानां, योगेन अन्ते तनु त्यजाम्।।

यानि प्रथम अवस्था में विद्याभ्यास, युवा काल में अर्थ-काम से संतुष्टि, बढ़ती आयु में यति-मुनि सम जीवन और अंतिम दिनों में योगाभ्यास से शरीर त्याग, यही है अमर कवि का अमर संदेश। आश्रम-पुरुषार्थ पर सभी देशवासियों को इसे सुनना, गुनना और चुनना चाहिए। इससे आचार-विचार सही रखने में मदद मिलेगी।

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