मौर्य राजवंश : ऐतिहासिक स्रोत एवं उत्पत्ति (Mauryan Dynasty: Historical Sources and Origins)

मौर्य राजवंश

326 ई.पू. में जब सिकंदर की सेनाएँ पंजाब के विभिन्न राज्यों में विध्वंसक युद्धों में व्यस्त थीं, उस समय मध्य प्रदेश और बिहार में नंद वंश का राजा धननंद शासन कर रहा था। सिकंदर के आक्रमण से देश के लिए संकट पैदा हो गया था। धननंद का सौभाग्य था कि वह इस आक्रमण से बच गया। इसी समय राजनीतिक मंच पर एक ऐसे व्यक्ति का उदय हुआ, जिसका नाम चंद्रगुप्त था। यूनानी लेखक प्लूटार्क ने इसे एंड्रोकोट्टस तथा जस्टिन, एरियन आदि ने सेंड्रोकोट्टस कहा है। विलियम जोंस पहले विद्वान् थे, जिन्होंने ‘सेंड्रोकोट्टस’ की पहचान भारतीय ग्रंथों के ‘चंद्रगुप्त’ से की है।

चंद्रगुप्त मौर्य के आगमन से भारतीय इतिहास में एक नये युग का सूत्रपात हुआ और मौर्य वंश की स्थापना हुई। मौर्यों के आगमन से भारतीय इतिहासकारों के लिए अंधकार से प्रकाश की ओर जाने का मार्ग खुल गया, कालानुक्रम स्पष्ट हो गया तथा अनेक छोटे-छोटे राज्य सिमटकर एक विशाल साम्राज्य में परिवर्तित हो गये।

परमार राजवंश

मौर्यों के इतिहास-निर्माण के साधन

मौर्य राजवंश के संबंध में ब्राह्मण, बौद्ध और जैन साहित्य से सूचना मिलती है। चंद्रगुप्त एवं अशोक का इतिहास कवि-कल्पना प्रसूत साहित्यिक कृतियों में ही नहीं, प्रत्युत्, पुरातात्त्विक स्रोतों में भी उपलब्ध है। ब्राह्मण साहित्य में पुराण, कौटिल्य का अर्थशास्त्र, विशाखदत्त का मुद्राराक्षस, सोमदेव का कथासरित्सागर आदि ग्रंथ महत्त्वपूर्ण हैं।

साहित्यिक साधन
पुराण

मौर्यों के इतिहास-निर्माण में भारतीय ग्रंथों में पुराण सर्वाधिक उपयोगी हैं। पुराणों की संख्या बहुत अधिक है, किंतु अठारह पुराणों को महापुराण की कोटि में रखा जाता है। यद्यपि धार्मिक ग्रंथ होने और ब्राह्मण प्रणेताओं के कारण बौद्ध धर्मानुयायी मौर्यों का जीवन-वृत्त उनके लिए उपेक्षणीय रहा है, किंतु मौर्यों के अभिजन तथा वंश-क्रम के निर्धारण में उनसे पर्याप्त सहायता मिलती है। मौर्यों के इतिहास-निर्माण की दृष्टि से विष्णु, भागवत एवं मारकंडेय पुराण विशेष रूप से उपयोगी हैं।

अर्थशास्त्र

मौर्य वंश के इतिहास-निर्माण और तत्कालीन समाज एवं संस्कृति के अध्ययन की दृष्टि से अर्थशास्त्र पर्याप्त उपयोगी है। इसकी रचना 400 ई. के आसपास की गई थी। इस प्रसिद्ध राजनीतिक ग्रंथ के प्रणेता कौटिल्य (विष्णुगुप्त) माने जाते हैं। विष्णुगुप्त नाम कामंदक के नीतिसार में मिलता है-

नीतिशास्त्रामृतं धीमानर्थशास्त्र महोदधे।

समुद्रधे नमस्तस्मै विष्णुगुप्ताय वेधसे।।

मुद्राराक्षस के टीका के अनुसार चणक का पुत्र होने के कारण विष्णुगुप्त को चाणक्य भी कहा जाता है। भागवत पुराण के टीकाकार ने विष्णुगुप्त के लिए कौटिल्य, वात्स्यायन, चाणक्य आदि नामों का प्रयोग किया है। अर्थशास्त्र में लगभग 4000 श्लोक हैं, किंतु बीच-बीच में गद्य शैली में भी विषय का प्रतिपादन किया गया है। इसमें मूलतः राजनीतिक सिद्धांत प्रतिपादित हैं, किंतु इससे मौर्ययुगीन राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक संगठन पर भी प्रकाश पड़ता है।

मुद्राराक्षस

मौर्य वंश के इतिहास-निर्माण में विशाखदत्तकृत मुद्राराक्षस का अद्वितीय स्थान है। यद्यपि मुदाराक्षस का काल-निर्धारण विवादग्रस्त है, किंतु इसे चतुर्थ शताब्दी ई. के उत्तरार्द्ध अथवा पाँचवीं शती ई. के पूर्वार्द्ध में रखा जा सकता है। इस प्रकार मुद्राराक्षस गुप्तकाल से संबंधित लगता है।

मुद्राराक्षस की संपूर्ण कथावस्तु का मूलरूप लोक-प्रचलित तथा पुराणादिकों में बीजरूप में उपलब्ध था और इसे ही नाटककार ने अपनी कल्पनाओं के आधार पर पल्लवित करने का प्रयास किया है। इसमें चाणक्य द्वारा नंदवंश का विनाश, पाटलिपुत्र के सिंहासन पर चंद्रगुप्त को आसीन करने, नंद अमात्य राक्षस द्वारा चंद्रगुप्त की योजना में बाधा उत्पन्न करने तथा उसे चंद्रगुप्त के पक्ष में करने जैसी ऐतिहासिक घटनाएँ प्रसिद्ध हैं। इसके अलावा इससे मौर्ययुगीन राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक स्थिति का भी ज्ञान होता है।

जेजाकभुक्ति (बुंदेलखंड) के चंदेल

मुद्राराक्षस की टीका

अठारहवीं शताब्दी ई. के प्रारंभ में आविर्भूत ढुंढ़िराज ने मुद्राराक्षस पर टीका लिखी है जो मौर्यों के इतिहास-निर्माण में उपयोगी है। यद्यपि इस ग्रंथ में मनगढ़ंत और कपोलकल्पित कहानियाँ अधिक हैं, किंतु इनमें अनेक उपयोगी सूचनाएँ भी मिलती हैं।

कात्यायन का वार्तिक

कात्यायन विरचित वार्तिक से भी मौर्य वंश के इतिहास-निर्माण में प्रकारांतर से सहायता मिलती है। कात्यायन के वार्तिक में ‘देवानांप्रिय’ शब्द की व्याख्या की गई है।

महाभाष्य

पतंजलि ने पाणिनि के अष्टाध्यायी पर महाभाष्य की रचना की है। वे शुंगवंशीय शासक पुष्यमित्र के समकालीन थे। शालिशुक जैसे दुर्बल शासक के काल में यवनाक्रमण की आँधी उनके सामने गुजरी थी। इसलिए महाभाष्य से मौर्य वंश की पतनोन्मुखी राजनीतिक एवं सामाजिक स्थिति पर प्रकाश पड़ता है। महाभाष्य से पता चलता है कि आर्थिक संकट से उबरने के लिए मौर्य शासकों ने देव-प्रतिमाएँ बनवाई तथा उनकी बिक्री की। इससे धन-संग्रह में पर्याप्त सहायता मिली।

भास के नाटक

भास ने अपने नाटकों की रचना प्राक्-मौर्ययुगीन कथानकों के आधार पर की थी, इसलिए मगध साम्राज्य के इतिहास-निर्माण में भास के नाटक भी उपयोगी हैं।

मालविकाग्निमित्रम्

कालीदास के ‘मालविकाग्निमित्रम्’ से मौर्यकालीन इतिहास एवं संस्कृति पर प्रकाश पड़ता है। इस नाटक का नायक अग्निमित्र शुंगवंशीय शासक पुष्यमित्र शुंग का पुत्र था। यद्यपि इस नाटक का सीधा संबंध मौर्य वंश से नहीं है, किंतु इस वंश की पतनोन्मुख स्थिति पर प्रकाश डालने के लिए यह नाटक अत्यंत उपयोगी है।

हर्षचरित

बाण की रचना ‘हर्षचरित’ से भी मौर्य वंश के इतिहास पर प्रकाश पड़ता है। इसमें बृहद्रथ के विरुद्ध पुष्यमित्र के षड्यंत्र एवं उसकी हत्या कर राज्य हड़पने का उल्लेख मिलता है।

वाकाटक राजवंश

कथासरित्सागर तथा बृहत्कथामंजरी

ग्यारहवीं शती में रचित ‘बृहत्कथामंजरी’ तथा ‘कथासरित्सागर’ से भी मौर्यों के इतिहास पर प्रकाश पड़ता है। इन ग्रंथों की रचना प्रथम शताब्दी ई. में रचित गुणाढ्य के बृहत्कथा के आधार पर किया गया है। बृहत्कथा की रचना मूलतः पैशाची भाषा में की गई थी, जिसे गंगवंशीय ‘दुर्विनीति’ ने संस्कृत में अनूदित किया था। कथासरित्सागर में नंदवंश के विनाश के पश्चात् मौर्य वंश की स्थापना का उल्लेख मिलता है।

राजतरंगिणी

कल्हणकृत ‘राजतरंगिणी’ में भी मौर्य वंश के इतिहास का विवरण मिलता है। कल्हण ने आरंभ से बारहवीं शताब्दी तक के कश्मीर के इतिहास का वर्णन किया है। प्रसंगतः उसने कश्मीर के शासक के रूप में असोक और उसके उत्तराधिकारियों का विवरण दिया है।

बौद्ध ग्रंथ

बौद्ध ग्रंथों में ‘महावंसटीका’ व ‘महाबोधिवंस’ सर्वाधिक उपयोगी हैं। महावंसटीका को ‘वंसत्थप्पकासिनी’ भी कहते हैं, जिसकी रचना लगभग दसवीं शताब्दी ई. के मध्य हुई थी और महाबोधिवंस, जिसके रचयिता ‘उपतिस्स’ हैं, की रचना लगभग दसवीं शताब्दी ई. के उत्तरार्द्ध में हुई थी। इन दोनों ही ग्रंथों का आधार ‘सीहलट्ठकथा’ तथा ‘उत्तरविहारट्ठकथा’ नामक प्राचीन ग्रंथ हैं। सीहलट्ठकथा के बारे में कहा जाता है कि उसकी रचना थेर महिंद (असोक का पुत्र) तथा उनके साथ मगध से आये हुए अन्य भिक्षुओं ने की थी, जिन्हें संघ के प्रधान ने धर्मप्रचार के लिए लंका भेजा था। इसके अलावा ‘महावंस’, ‘दीपवंस’ तथा’ दिव्यावदान’ भी उपयोगी हैं।

जैन ग्रंथ

ब्राह्मण और बौद्ध साहित्य की भाँति जैन साहित्य भी मौर्य वंश के इतिहास निर्माण में सहायक हैं जो प्राकृत और संस्कृत दोनों भाषाओं में मिलते हैं। यद्यपि जैन धर्म के दोनों संप्रदायों- श्वेतांबर और दिगंबर-में भिन्न-भिन्न सूचनाएँ मिलती हैं, किंतु जैन साहित्य सूचनापरक और उपयोगी हैं। दिगंबरीय ग्रंथों में हरिषेण विरचित बृहत्कथाकोश, प्रभाचंद्रकृत आराधना सत्कथाप्रबंध, श्रीचंद्रविरचित कथाकोश तथा नेमिचंद्रकृत कथाकोश विशेषरूप से उपयोगी हैं। इसमें चाणक्य एवं चंद्रगुप्त की कथा सविस्तार वर्णित है। इसके साथ-हरिवंश पुराण, उत्तर पुराण, त्रिलोकसार तथा धवला नामक ग्रंथों का भी मौर्यकालीन इतिहास के निर्माण में उपयोग किया जाता है।

श्वेतांबर संप्रदाय के ग्रंथों में आगम ग्रंथों तथा उन पर लिखी टीकाओं का विशेष महत्त्व है। सूत्रों में उत्तराध्ययनसूत्र, आवश्यकसूत्र तथा दशवैकालिकसूत्र उपयोगी हैं। इन पर लिखी निर्युक्तियों, चूर्णियों तथा टीकाओं में मौर्य इतिहास से संबंधित कथाएँ विद्यमान हैं। टीकाकारों में हरिभद्र सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं। जैन ग्रंथों में भद्रबाहु का कल्पसूत्र, हेमचंद्र का परिशिष्टपर्वन् सूचना के प्रमुख स्रोत हैं। इसके अलावा जिनप्रभसूरिकृत विविधतीर्थकल्प में भी मौर्य इतिहास से संबंधित कुछ सूचनाएँ मिलती हैं। चौदहवीं शताब्दी ई. के पूर्वार्द्ध में लिखी गई मेरुतुंगकृत ‘विचारश्रेणी’ में भी मौर्यों से संबंधित सामग्री मिलती है।

फ्रांस की पुरातन व्यवस्था

यूनानी तथा रोमन लेखकों के विवरण

विदेशी स्रोतों में क्लासिकल (यूनानी-रोमन) लेखकों के विवरण अधिक उपयोगी हैं। इन्होंने चंद्रगुप्त को ‘सेंड्रोकोट्टस’ और ‘एंड्रोकोट्टस’ कहा है। विलियम जोंस पहले विद्वान् थे, जिन्होंने ‘सेंड्रोकोट्टस’ की पहचान भारतीय ग्रंथों के ‘चंद्रगुप्त’ से की है। इससे पता चलता है कि चंद्रगुप्त सिकंदर का समकालीन था।

सिकंदरकालीन लेखकों- नियार्कस, आनेसिक्रिटस, अरिस्टोबुलस भी महत्त्वपूर्ण हैं। तीसरी शताब्दी ई.पू. में जिन यूरोपीय राजदूतों को यूनानी शासकों ने भारत भेजा था, उनमें से कुछ ने सिकंदर के इन साथियों की रचनाओं में पूरक जोड़े हैं। इनमें मेगस्थनीज की रचना ‘इंडिका’ बहुत उपयोगी है। यद्यपि मेगस्थनीज की यह मूल कृति नष्ट हो गई है, किंतु उसके विवरण के कुछ अंश दूसरे लेखकों की पुस्तकों में आज भी देखने को मिलते हैं।

स्ट्रैबो (लगभग ई.पू. 64 से 19 ई.) के ‘भूगोल’ के पंद्रहवें भाग का प्रथम अध्याय भारत के बारे में है, जिसमें सिकंदर के साथियों तथा मेगस्थनीज की रचनाओं से ली गई सामग्री के आधार पर भारत के भूगोल, यहाँ के निवासियों के रहन-सहन तथा रीति-रिवाजों का वर्णन किया गया है। डियोडोरस ई.पू. 36 तक जीवित रहा। इसने मेगस्थनीज की रचनाओं के आधार पर भारत का एक वृत्तांत लिखा है।

प्लिनी ज्येष्ठ ने ‘नेचुरल हिस्ट्री’ (प्रकृति-वृत्त) नामक विशद् ज्ञानकोश की रचना की है, जो लगभग 75 ई. में प्रकाशित हुई थी। इसमें यूनानी रचनाओं तथा व्यापारियों के नवीनतम् विवरणों के आधार पर भारत का वर्णन किया गया है। एरियन (लगभग 130 ई.) ने सिकंदर के अभियानों का सबसे अच्छा वृत्तांत (ऐनाबेसिस) लिखा है। नियार्कस ने मेगस्थनीज तथा भूगोलवेत्ता एरेटोस्थनीज (ई.पू. 276-195) की रचनाओं के आधार पर भारत, इसके भूगोल, यहाँ के रहन-सहन तथा रीति-रिवाजों के बारे में एक छोटी-सी पुस्तक लिखी है।

प्लूटार्क (लगभग 45-125 ई.) की ‘जीवनियाँ’ नामक रचना में 57वें से 67वें अध्यायों तक सिकंदर की जीवनी दी गई है। इन अध्यायों में भारत का भी विवरण मिलता है। दूसरी शताब्दी ई. में जस्टिन ने एक ‘एपिटोम’ (सार-संग्रह) की रचना की थी, जिसके 12वें खंड में भारत में सिकंदर के विजय-अभियानों का विवरण मिलता है।

उत्तरगुप्त राजवंश (कृष्णगुप्त राजवंश)

चीनी यात्रियों के विवरण

यूनानी तथा रोमन लेखकों के अलावा चीनी यात्रियों के विवरण भी मौर्ययुगीन इतिहास के लिए उपयोगी हैं। इनमें फाह्यान, ह्वेनसांग तथा इत्सिंग के यात्रा-विवरण विशेष उपयोगी हैं। यद्यपि इनका संबंध मौर्योत्तरकाल से है, किंतु प्रसंगतः इनके यात्रा-वृतांतों में मौर्ययुगीन सभ्यता और संस्कृति का संकेत मिलता है। फाह्यान ने अपने भ्रमण के दौरान असोक निर्मित अनेक स्तूपों को देखा था। इसी प्रकार ह्वेनसांग ने धार्मिक स्थलों के निर्माताओं और उनसे जुड़ी अनुश्रुतियों का उल्लेख किया है।

तुगलक वंश 1320-1412 ई.

पुरातात्विक स्रोत

पुरातात्त्विक स्रोतों में असोक के लेख सर्वाधिक उपयोगी हैं जो लगभग चालीस की संख्या में भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के विभिन्न क्षेत्रों से पाये गये हैं। इन्हीं अभिलेखों के आधार पर भंडारकर ने अपना महत्त्वपूर्ण ग्रंथ ‘अशोक’ लिखा है। मौर्ययुगीन लेखों के साथ-साथ दूसरे लेखों से भी मौर्यकालीन इतिहास के बारे में जानकारी प्राप्त होती है। कलिंग नरेश खारवेल के हाथीगुम्फा लेख से भी मौर्यों की पतनोन्मुखी स्थिति पर प्रकाश पड़ता है। इसी प्रकार श्रवणबेलगोला के समीप चंद्रगिरि पर्वत पर उत्कीर्ण लेख से चंद्रगुप्त मौर्य के प्राण-त्याग की घटना पर प्रकाश पड़ता है। इसके अलावा शक क्षत्रप रुद्रदामन् का जूनागढ़ अभिलेख भी महत्त्वपूर्ण है। इस लेख से पता चलता है कि मौर्यों के प्रांतपति वैश्य पुष्यगुप्त ने यहाँ सुदर्शन नामक एक झील का निर्माण करवाया था। नागार्जुनी पहाड़ी के गुहालेख में दशरथ नामक मौर्य शासक का उल्लेख मिलता है। लेखों के अतिरिक्त स्मारकों, स्तूपों, विहारों, संघारामों आदि से भी मौर्ययुगीन सामाजिक, धार्मिक स्थिति पर प्रकाश पड़ता है।

गुप्तों की प्राचीनता और उद्भव

मौर्यों की उत्पत्ति

मौर्य वंश का संस्थापक चंद्रगुप्त मौर्य था, किंतु उसकी जाति और जीवन के संबंध में कोई स्पष्ट सूचना नहीं मिलती है। ब्राह्मण ग्रंथ एक स्वर में मौर्यों को शूद्र अथवा निम्नकुल से संबंधित करते हैं, जबकि जैन, बौद्ध ग्रंथों में उन्हें क्षत्रिय बताया गया है।

कुछ इतिहासकार मौर्यों को वैश्य सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। यही नहीं, स्पूनर जैसे कुछ इतिहासकार तो मौर्यों को पारसीक मानते हैं, किंतु स्मिथ, कीथ आदि विद्वानों ने इस मत को पूर्णतया अस्वीकार कर दिया है।

शूद्र उत्पत्ति का मत

विद्वानों का एक वर्ग ब्राह्मण ग्रंथों- मुद्राराक्षस, विष्णु पुराण की मध्यकालीन टीका तथा दसवीं शताब्दी की ढ़ुण्ढ़िराज द्वारा रचित मुद्राराक्षस की टीका के आधार पर चंद्रगुप्त को शूद्र मानता है। पुराणों में नंदों को शूद्र बताया गया है और विष्णु पुराण में कहा गया है कि ‘शैशुनागवंशीय शासक महानंदि के बाद शूद्रयोनि के राजा पृथ्वी पर शासन करेंगे’ (ततः प्रभृत्ति राजानो भविष्यन्ति शूद्रयोनयः)।

विष्णु पुराण के एक भाष्यकार श्रीधरस्वामी ने चंद्रगुप्त को नंदराज की पत्नी ‘मुरा’ से उत्पन्न बताया है और ‘मुरा’ की संतान होने के कारण ही वह ‘मौर्य’ कहा गया (चंद्रगुप्तम् नंदस्यैव पत्यंतरस्य मुरासंज्ञस्य पुत्रं मौर्याणाम् प्रथमम्)।

विशाखदत्त के नाटक मुद्राराक्षस में चंद्रगुप्त को नंदवंश की संतान कहा गया है, किंतु नंदपुत्र न कहकर ‘मौर्यपुत्र’ कहा गया है। पता चलता है कि वह सर्वार्थसिद्धि के पुत्र मौर्य का पुत्र था और सर्वार्थसिद्धि नौ नंदों का पिता था तथा स्वयं नंदवंश की संतान था। इस बूढ़े राजा को भी नंद कहा गया है। नाटक से पता चलता है कि राक्षस के परामर्श से वह पाटलिपुत्र छोड़कर वन में भाग गया था क्योंकि चंद्रगुप्त तथा चाणक्य ने एक-एक करके उसके सभी पुत्रों (नौ नंदों) को मरवा डाला था।

इंग्लैंड का हेनरी सप्तम

फिर भी, चंद्रगुप्त को अपने पिता का हत्यारा नहीं कहा जा सकता क्योंकि उसे कहीं ‘नंदपुत्र’ नहीं कहा गया है। वह उन नौ नंदों में से किसी की भी संतान नहीं था। उसके लिए जिस दूसरे शब्द ‘मौर्यपुत्र’ का प्रयोग किया गया है, उसके कारण वह इस जघन्य अपराध के दोष से मुक्त हो गया है। इस ग्रंथ में नंदों को ‘उच्चकुल’ तथा चंद्रगुप्त को ‘निम्नकुल’ का बताया गया है। ग्रंथ में चंद्रगुप्त के लिए ‘बृषल’ और ‘कुलहीन’ शब्द प्रयुक्त किया गया है। शूद्र उत्पत्ति के समर्थक इतिहासकार इन दोनों शब्दों को शूद्र के अर्थ में ग्रहण करते हैं।

18वीं शताब्दी ई. के मुद्राराक्षस के एक टीकाकार ढुंढ़िराज ने चंद्रगुप्त को शूद्र सिद्ध करने के लिए एक नई कहानी गढ़ी है। उनके अनुसार सर्वार्थसिद्धि नामक एक क्षत्रिय राजा की दो पत्नियाँ थीं- सुनंदा और मुरा। सुनंदा एक क्षत्राणी थी, जिसके नौ पुत्र हुए और जो ‘नवनंद’ कहलाये।

मुरा, शूद्रा (वृषलात्मजा) थी और उसके एक पुत्र हुआ, जो मौर्य कहलाया। ढुंढ़िराज के अनुसार चंद्रगुप्त का पिता मौर्य था और सर्वार्थसिद्धि ने मौर्य को अपना सेनापति बनाया था, इस पर नंदबंधुओं ने छल से मौर्य तथा उसके सभी पुत्रों को मरवा दिया, किंतु चंद्रगुप्त भाग निकला। नंदों का एक दूसरा शत्रु चाणक्य भी था। समान शत्रु के कारण दोनों मित्र बन गये।

ग्यारहवीं शताब्दी ई. के दो संस्कृत ग्रंथों- सोमदेव के कथासरित्सागर तथा क्षेमेंद्र की बृहत्कथामंजरी में चंद्रगुप्त की शूद्र उत्पत्ति का एक भिन्न विवरण मिलता है। इन ग्रंथों के अनुसार नंदराज की अचानक मृत्यु हो गई और इंद्रदत्त नामक व्यक्ति योग के बल पर उसके शरीर में प्रवेश कर गया और राजा बन बैठा। वह योगनंद के नाम से जाना जाने लगा। उसने नंदराज की पत्नी से विवाह कर लिया, जिससे उसे हिरण्यगुप्त नामक एक पुत्र उत्पन्न हुआ। वास्तविक नंदराजा के पहले ही एक पुत्र था। योगनंद अपने तथा अपने पुत्र के मार्ग में चंद्रगुप्त को बाधक समझता था, जबकि वास्तविक नंदराज के मंत्री शकटार ने चंद्रगुप्त का पक्ष लिया। उसने चाणक्य नामक ब्राह्मण को अपनी ओर मिलाकर योगनंद और हिरण्यगुप्त की हत्या करवा दिया और राज्य के वास्तविक उत्तराधिकारी चंद्रगुप्त को गद्दी पर बैठाया। इस प्रकार चंद्रगुप्त को नंदराज का पुत्र मानकर उसे शूद्र माना जाता है।

गुप्त युग का मूल्यांकन

शूद्र मत का खंडन

किंतु चंद्रगुप्त को शूद्र मानने का मत कल्पना पर आधारित लगता है। पुराण एक स्वर से नंदों को शूद्र मानते हैं, किंतु मौर्यों की जाति के संबंध में मौन हैं। विष्णु पुराण का कथन केवल नंदों पर ही लागू होता है, क्योंकि इसके बाद के सभी राजवंश शूद्र नहीं थे। पुराणों में कहा गया है कि द्विजर्षभ (श्रेष्ठ ब्राह्मण) कौटिल्य सभी नंदों को मारकर चंद्रगुप्त को सिंहासनासीन करेगा-

‘उद्वरिष्यति तान् सर्वान् कौटिल्यो द्विजर्षभः।

कौटिल्याश्चंद्रगुप्तं तु ततो राज्येभिषेक्ष्यति।।’

पाणिनीय व्याकरण के अनुसार ‘मौर्य शब्द की व्युत्पत्ति पुल्लिंग ‘मूर’ शब्द से होगी। ‘मुरा’ शब्द से मौरेय हो सकता है, मौर्य नहीं।

मुद्राराक्षस का साक्ष्य भी विश्वसनीय नहीं है क्योंकि इसमें नंदों को ‘उच्चकुल’ का बताया गया है। जहाँ तक ‘वृषल’ और ‘कुलहीन’ शब्दों का प्रश्न है, इस आधार पर भी चंद्रगुप्त को शूद्र नहीं माना जा सकता है।

मनुस्मृति तथा महाभारत में वृषल शब्द का प्रयोग धर्मच्युत् व्यक्ति के लिए किया गया है। मुद्राराक्षस में ‘वृषल’ का प्रयोग चंद्रगुप्त के लिए कौटिल्य द्वारा अच्छे अर्थों में किया गया लगता है। एक स्थान पर उसे राजाओं में वृष (राजाओं में सर्वोत्तम) कहा गया है, इसलिए इसे जाति का बोधक नहीं माना जा सकता है।

चंद्रगुप्त ने अपने जीवन के अंतिम काल में जैन धर्म को अंगीकार कर लिया था, संभवतः इसीलिए मुद्राराक्षस में चंद्रगुप्त के लिए ‘वृषल’ शब्द का प्रयोग किया गया है। इसी प्रकार ‘कुलहीन’ शब्द का आशय भी सामान्य कुल में उत्पन्न होने से है। इससे मात्रा इतना सिद्ध होता है कि चंद्रगुप्त किसी राजघराने से संबंधित नहीं था। वस्तुतः परवर्ती रचना होने के कारण मुद्राराक्षस की ऐतिहासिकता ही संदिग्ध है और मुद्राराक्षस के टीकाकार की कथा भी काल्पनिक है जिसका कोई ऐतिहासिक आधार नहीं है। कथासरित्सागर और बृहत्कथामंजरी भी बाद की रचनाएँ होने के कारण ऐतिहासिक दृष्टि से श्रद्धेय नहीं हैं।

द्वितीय विश्वयुद्ध : कारण, प्रारंभ, विस्तार और परिणाम

वैश्य उत्पत्ति का मत

रोमिला थापर मौर्यों को वैश्य स्वीकार करती हैं। उनके अनुसार रुद्रदामन् के जूनागढ़ लेख में मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त के एक प्रांतपति वैश्य पुष्यगुप्त का नाम मिलता है (मौर्यस्य राज्ञः चंद्रगुप्तस्य राष्ट्रियेण वैश्येन पुष्यगुप्तेन कारितं…)।

कीलहर्न के अनुसार वैश्य पुष्यगुप्त चंद्रगुप्त का बहनोई था। चंद्रगुप्त ने अपने बहनोई को साम्राज्य के पश्चिमी भाग में अधिकारी के रूप में नियुक्त किया था। थापर के अनुसार गुप्त उपाधि वैश्यों द्वारा धारण की जाती थी, इसलिए चंद्रगुप्त को वैश्य माना जा सकता है।

वैश्य मत का खंडन

किंतु मात्र पुष्यगुप्त के संबंधों के आधार पर चंद्रगुप्त को वैश्य नहीं माना जा सकता है। इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि पुष्यगुप्त चंद्रगुप्त का बहनोई था। हो सकता है कि चंद्रगुप्त ने पुष्यगुप्त की बहन के साथ विवाह किया रहा हो जिसके बदले में पुष्यगुप्त को प्रांतीय अधिकारी का पद मिला हो। गुप्त नामांत के आधार पर भी मौर्यों को वैश्य नहीं माना जा सकता है।

संस्कृत साहित्य में कई नामों के अंत में गुप्त शब्द मिलता है, किंतु वे सभी वैश्य नहीं थे। स्वयं चाणक्य का ही एक नाम विष्णुगुप्त था। थापर स्वयं मानती हैं कि गुप्त नामांत शासक ब्राह्मण तथा क्षत्रिय दोनों वर्णों में मिलते हैं। इस प्रकार मौर्यों को वैश्य नहीं माना जा सकता है।

नेपोलियन तृतीय : उपलब्धियाँ और मूल्यांकन

क्षत्रिय उत्पत्ति का मत

ब्राह्मण ग्रंथों के विपरीत बौद्ध रचनाओं में चंद्रगुप्त को असंदिग्ध रूप से अभिजात कुल का बताया गया है। कहा गया है कि वह मोरिय नामक क्षत्रिय जाति की संतान था। मोरिय जाति शाक्यों की उच्च तथा पवित्र जाति की एक शाखा थी। जब अत्याचारी कोसल नरेश विडूडभ ने शाक्यों पर आक्रमण किया था, तो शाक्य परिवार के कुछ लोग कोशल नरेश के कोप से बचने के लिए हिमालय के एक सुरक्षित स्थान में जाकर बस गये। वह प्रदेश मोरों के लिए प्रसिद्ध था, इस कारण वहाँ आकर बसने वाले लोग ‘मोरिय’ कहलाने लगे।

मोरिय’ शब्द ‘मोर’ से निकला है, जो संस्कृत के मयूर शब्द का पालि पर्याय है। मोरिय का अर्थ है मोरों के स्थान के निवासी। एक दूसरी कथा के अनुसार इसका नाम मोरिय नगर इसलिए रखा गया था कि वहाँ की इमारतें मोर की गर्दन के रंग की ईंटों की बनी हुई थीं। जिन लोगों ने इस नगर का निर्माण किया था, वे ‘मोरिय’ कहलाये।

महाबोधिवंस में कहा गया है कि राजाओं के कुल में (नरिंद्रकुलसंभव) जन्मा कुमार चंद्रगुप्त क्षत्रियों के मोरिय नामक वंश में हुआ था, जिसका निर्माण साक्यपुत्तों ने किया था। महावंस में भी कहा गया है कि ‘चंद्रगुप्त का जन्म क्षत्रियों के मोरिय नामक वंश में हुआ था-

मोरियानम् खत्तियानम् वंसे जातं सिरीधरं

चंद्रगुप्तोति पंचातं चणक्कोब्राह्मणो ततो।

नवम् धननंदतं घातेत्वा चंडकोधसा,

सकलेजम्बूद्वीपंहि रज्ज समभिसिंचिसो।।

महापरिनिब्बानसुत्त के दीर्घनिकाय में मौर्यां को पिप्पिलवन का शासक तथा क्षत्रिय वंश का बताया गया है। दिव्यावदान में बिंदुसार (चंद्रगुप्त के पुत्र) के बारे में कहा गया है कि उसका क्षत्रिय राजा के रूप में विधिवत् अभिषेक हुआ था (क्षत्रिय-मूर्धाभिषिक्त) और असोक (चंद्रगुप्त के पौत्र) को क्षत्रिय कहा गया है। इसी ग्रंथ में एक स्थल पर बिंदुसार एक स्त्री से कहता है कि ‘तुम नाईन हो और मैं मूर्धाभिषिक्त क्षत्रिय हूँ, इसलिए मेरा तुम्हारा समागम कैसे हो सकता है?’ (त्वं नापिनी अहं राजा क्षत्रियोमूर्धाभिषिक्तः कथं मया सार्धं समागमो भविष्यति)।

रूस का आधुनिकीकरण: पीटर महान और कैथरीन द्वितीय

जैन ग्रंथों में भी मौर्यों को मयूरों से संबंधित किया गया है और क्षत्रिय बताया गया है। हेमचंद्र के परिशिष्टपर्वन् के अनुसार चंद्रगुप्त मयूर-पोषकों के मुखिया की दुहिता का पुत्र था। आवश्यकसूत्र की हरिभद्रीया टीका में भी चंद्रगुप्त को मयूर-पोषकों के ग्राम के मुखिया के कुल में उत्पन्न बताया गया है। पुण्याश्रवकथाकोश, जिसकी रचना रामचंद्र मुमुक्ष ने की थी, में भी चंद्रगुप्त को क्षत्रिय स्वीकार किया गया है।

यूनानी लेखकों ने चंद्रगुप्त को एंड्रोकोट्टस, सैंड्रोकोट्टस कहा है। जस्टिन के विवरण से पता चलता है कि उसका जन्म एक सामान्य कुल में हुआ था। प्लूटार्क के विवरण से पता चलता है कि जब वह युवा ही था, उसने पंजाब में यवन (यूनानी) विजेता सिकंदर से भेंटकर बताया था कि वह बड़ी आसानी से संपूर्ण भारत को जीत सकता है क्योंकि तत्कालीन मगध का नंद शासक अपनी निम्न उत्पति के कारण जनता में घृणित और अप्रिय है। उसने अपनी स्पष्टवादिता से सिकंदर को नाराज कर दिया था। सिकंदर ने उसे बंदी बना लेने का आदेश दिया, लेकिन वह अपने शौर्य का प्रदर्शन करता हुआ सिकंदर के शिकंजे से भाग निकला। इससे स्पष्ट है कि यदि चंद्रगुप्त स्वयं निम्न जाति का होता, तो नंदों की निम्नजातीयता पर जोर नहीं देता।

साहित्यिक स्रोतों के साथ-साथ पुरातात्विक स्रोतों से भी मौर्य क्षत्रिय सिद्ध होते हैं। असोक के लौरियानंदनगढ़ के स्तंभ के नीचे भाग में मयूर की आकृति उत्कीर्ण मिलती है। लगता है कि मौर्य (पालि-मोरिय) नाम मोर टोटेम का सूचक है। यही कारण है कि मौर्ययुगीन कलाकृतियों में मयूरों का अंकन मिलता है। मार्शल के अनुसार सांँची स्तूप के पूर्वी द्वार तथा अन्य भवनों को सजाने के लिए मयूरों के चित्र बनाये गये थे। मैसूर के लेखों में चंद्रगुप्त को पुरातन क्षत्रियों का संरक्षक बताया गया है।

इस प्रकार चंद्रगुप्त के वंश के संबंध में ब्राह्मण, बौद्ध एवं जैन परंपराओं व अनुश्रुतियों के आधार पर केवल इतना ही कहा जा सकता है कि वह संभवतः किसी कुलीन घराने से संबंधित नहीं था। विदेशी वृत्तांतों एवं उल्लेखों से भी स्थिति कुछ अस्पष्ट ही बनी रहती है। अधिक संभावना यही है कि मौर्य क्षत्रिय थे।

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