जेजाकभुक्ति (बुंदेलखंड) के चंदेल (Chandelas of Jejakabhukti)

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जेजाकभुक्ति (बुंदेलखंड) के चंदेल

प्रतिहार साम्राज्य के पतन के पश्चात् बुंदेलखंड के भूभाग पर चंदेल वंश के स्वतंत्र राज्य की स्थापना हुई। अभिलेखों में चंदेल शासकों को ‘जेजाकभुक्ति के चंदेल’ कहा गया है क्योंकि बुंदेलखंड का प्राचीन नाम जेजाकभुक्ति था।

महोबा से प्राप्त एक लेख के अनुसार इस वंश के तीसरे शासक जयशक्ति (जेजा या जेज्जा) ने अपने द्वारा शासित प्रदेश का नामकरण अपने नाम पर ‘जेजाभुक्ति’ अथवा जेजाकभुक्ति ठीक उसी प्रकार किया, जिस प्रकार राजा पृथु के नाम पर पृथ्वी का नामकरण हुआ। कालांतर में इसी का नाम जुझौती तथा बुंदेलों के नाम पर बुंदेलखंड भी पड़ गया। जेजाकभुक्ति के प्रमुख नगर छतरपुर, महोबा (महोत्सव नगर, आधुनिक हमीरपुर), कालिंजर और खजुराहो थे। चंदेल शासन में यह भूभाग राजनैतिक एवं सांस्कृतिक दोनों दृष्टियों से उत्कर्ष की पराकाष्ठा पर पहुँच गया। खजुराहो चंदेल राज्य की राजधानी थी।

चंदेल राजवंश ने 9वीं और 13वीं शताब्दी के बीच मध्य भारत के बुंदेलखंड क्षेत्र (जेजाकभुक्ति) के अधिकांश हिस्से पर शासन किया। आरंभिक चंदेल नरेश कान्यकुब्ज (कन्नौज) के गुर्जर-प्रतिहारों के सामंत थे। 10वीं शताब्दी में चंदेल शासक यशोवर्मन् नाममात्र के लिए प्रतिहार आधिपत्य को स्वीकार करता था, लेकिन उसके उत्तराधिकारी धंगदेव के समय में चंदेल एक संप्रभु शक्ति बन गये थे।

अपने पड़ोसी राजवंशों, विशेषकर मालवा के परमारों और त्रिपुरी के कलचुरियों के साथ चंदेलों का संघर्ष चलता रहा, जिससे उनकी शक्ति का हृास हुआ। 11वीं शताब्दी के बाद से चंदेलों को तुर्कों के आक्रमणों का भी सामना करना पड़ा। दिल्ली के चहमानों और गोरी के आक्रमणों के बाद 13वीं शताब्दी के आरंभ में चंदेल शक्ति का अवसान हो गया।

चंदेल राजवंश के शासक अपनी अपनी कला और वास्तुकला के लिए प्रसिद्ध हैं। चंदेलों ने विशेष रूप से अपनी राजधानी खजुराहो में मंदिरों का निर्माण करवाया। इसके अलावा, उन्होंने अन्य स्थानों जैसे- अजयगढ़, कालिंजर और महोबा में भी कई मंदिरों, जलाशयों, महलों और किलों का निर्माण करवाया।

ऐतिहासिक स्रोत

चंदेल राजवंश के इतिहास के सर्वाधिक प्रमाणिक साधन चंदेल शासकों द्वारा उत्कीर्ण करवाये गये बहुसंख्यक अभिलेख हैं, जिनमें खजुराहो (छतरपुर, म. प्र.) के विक्रम संवत् 1011 (954 ई.) तथा विक्रम संवत् 1059 (1002 ई.) के लेख, नन्यौरा (हमीरपुर, उ.प्र.) से प्राप्त विक्रम संवत् 1055 (998 ई.) के लेख, मऊ का प्रस्तर अभिलेख, महोबा के किले की दीवार पर अंकित विक्रम संवत 1240 (1183 ई.) के लेख विशेष महत्वपूर्ण हैं। इनमें खजुराहो से प्राप्त लेखों का विशेष महत्व है, क्योंकि ये दोनों लेख चंदेल शासक धंगदेव के समय के है। इन लेखों में चंदेल शासकों की वंशावली तथा यशोवर्मन् और धंगदेव की उपलब्धियों का वर्णन मिलता है। चंदेल राजाओं के लेखों में ही सर्वप्रथम देवनागरी लिपि का प्रयोग किया गया है।

चंदेलों के इतिहास पर प्रकाश डालने वाले ग्रंथों में कृष्णमिश्र के संस्कृत नाटक ‘प्रबोधचंद्रोदय’, राजशेखर के ‘प्रबंधकोश’, चंदबरदाईकृत ‘पृथ्वीराजरासो’ तथा जगनिककृत ‘परमालरासो’ महत्वपूर्ण हैं। कृष्णमिश्र के प्रबोधचंद्रोदय से चंदेल तथा चेदि राजाओं के संघर्ष का ज्ञान होता है। प्रबंधकोश से चंदेल नरेश मदनवर्मन् के विषय में सूचना मिलती है। चंदबरदाई के ‘पृथ्वीराजरासो’ में चहमान शासक पृथ्वीराज तृतीय तथा चंदेल शासक परमर्दि (परमाल) के बीच होने वाले संघर्ष का रोचक विवरण है। जगनिक के परमालरासो का केवल ‘आल्हा खंड’ ही उपलब्ध है जो वीरगाथात्मक लोकगाथा के रूप में उत्तर भारत में बहुत प्रसिद्ध रहा है। इन ग्रंथों से तत्कालीन सांस्कृतिक जीवन पर भी पर्याप्त प्रकाश पड़ता है।

मुस्लिम लेखकों के विवरण भी चंदेल इतिहास की जानकारी के लिए उपयोगी हैं, जिनमें इब्ज-उल-अतहर, निजाममुद्दीन हसन निजामी आदि के नाम बहुत महत्वपूर्ण हैं। अतहर और निजामुउदीन से महमूद गजनवी तथा चंदेल शासक विद्याधर के बीच होने वाले संघर्ष की सूचना मिलती है। इन्होंने विद्याधर की शक्ति की बड़ी प्रशंसा भी की है। हसन निजामी के विवरण से कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा चंदेल राज्य पर आक्रमण और उसके जीते जाने का ज्ञान होता है।

बुंदेलखंड क्षेत्र में चंदेल शासकों द्वारा बनवाये गये तमाम मंदिर और उनमें स्थापित मूर्तियाँ भी ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत उपयोगी हैं। इनसे जहाँ एक ओर चंदेल शासकों के धार्मिक विचारों तथा विश्वासों की जानकारी मिलती है, वहीं दूसरी ओर तत्कालीन कला एवं स्थापत्य के संबंध में भी महत्वपूर्ण सूचनाएँ मिलती हैं।

चंदेलों की उत्पत्ति

चंदेलों की उत्पत्ति अस्पष्ट है। विंसेंट स्मिथ का मानना है कि चंदेलों का उद्भव गोंड और भरों के कबीलों से हुआ था और उनका मूलस्थान छतरपुर राज्य में केन नदी के तट पर मनियागढ़ था।

परवर्ती मध्यकालीन ग्रंथों, जैसे- महोबा-खंड, वर्णरत्नाकर, पृथ्वीराजरासो और कुमारपालचरित में चंदेलों की गणना 36 राजपूत कुलों में की गई है। महोबा-खंड की कथा के अनुसार बनारस के गहरवार राजा के पुजारी हेमराज की कन्या हेमवती और चंद्र के पुत्र चंद्रवर्मा चंदेलों के पूर्वज थे। किंतु इन किंवदंतियों का कोई ऐतिहासिक आधार नहीं है और महोबा-खंड तथा पृथ्वीराजरासो जैसी रचनाएँ ऐतिहासिक दृष्टि से विश्वसनीय नहीं हैं।

किंतु चंदेल लेखों से पता चलता है कि चंदेल पौराणिक चंद्र वंश से संबंधित थे। खजुराहो शिलालेख (954 ई.) के अनुसार इस वंश के पहले राजा नन्नुक ऋषि चंद्रात्रेय के वंशज थे, जो अत्रि के पुत्र थे। 1002 ई. के एक दूसरे खजुराहो शिलालेख में चंद्रात्रेय का उल्लेख इंदु (चंद्रमा) के पुत्र और अत्रि के पोते के रूप में किया गया है। इसकी पुष्टि बलभद्रविलास और प्रबोधचंद्रोदय जैसे समकालीन ग्रंथों से भी होती है। इस प्रकार स्पष्ट है कि चंदेल चंद्रवंशी क्षत्रिय थे और संभवतः यही उनके चंदेल नामकरण का आधार था।

आरंभिक चंदेल शासक

नन्नुक या चंद्रवर्मन् (831-845 ई.)

खजुराहो से मिले 954 ई. और 1002 ई. के दो शिलालेखों में नन्नुक या चंद्रवर्मन् (831-845 ई.) को चंदेल राजवंश का संस्थापक बताया गया है, जो छतरपुर (खजुराहो) के आसपास एक छोटे से क्षेत्र पर गुर्जर-प्रतिहारों के अधीस्थ सामंत के रूप में शासन करता था। किंतु चंदेलों से संबंधित काव्य-गाथाओं में नन्नुक का उल्लेख नहीं है, और उसके स्थान पर चंदेल वंश के संस्थापक के रूप में चंद्रवर्मन् का नाम मिलता है।

954 ई. के खजुराहो शिलालेख में नन्नुक को कई शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने का दावा किया गया है, और तीरंदाजी में उसकी तुलना अर्जुन से की गई है। चंदेल अभिलेखों में नन्नुक की उपाधि नृप, नरपति तथा महीपति की मिलती है। इससे लगता है कि वह कोई स्वतंत्र शासक न होकर सामंत शासक ही रहा होगा। इस समय की सार्वभौम सत्ता प्रतिहारों की थी और बुंदेलखंड की स्थानीय परंपरा के अनुसार प्रतिहारों को विजित करने के बाद ही चंदेल उस क्षेत्र के शासक हुए थे।

वाक्पति (845-865 ई.)

नन्नुक का उत्तराधिकारी उसका पुत्र वाक्पति (845-865 ई.) हुआ। वाक्पति के संबंध में खजुराहो से पाये गये 954 ई. और 1002 ई. के दोनों शिलालेखों से सूचना मिलती है। शिलालेखों के अनुसार वाक्पति ने कई शत्रुओं को पराजित किया था और वह अपनी बहादुरी, शील तथा ज्ञान के लिए प्रसिद्ध था। 954 ई. के शिलालेख में कहा गया है कि विंध्य पर्वत आनंद वाक्पति का क्रीड़ा-स्थल था, जहाँ कमल पर बैठी किरात महिलाएँ उसका गान करती थीं। चंदेल अभिलेखों में उसकी उपाधि ‘कृतिपा’ (देश का स्वामी) मिलती है और वह भी प्रतिहारों के अधीन सामंत था।

वाक्पति के जयशक्ति (जेजा) और विजयशक्ति (विज) नामक दो पुत्र थे। वाक्पति के बाद उसका बड़ा पुत्र जयशक्ति उसका उत्तराधिकारी हुआ। महोबा से प्राप्त एक शिलालेख के अनुसार जयशक्ति के नाम पर ही चंदेल क्षेत्र का नाम ‘जेजाकभुक्ति’ पड़ा था।

संभवतः जयशक्ति की मृत्यु बिना किसी उत्तराधिकारी के हो गई थी, इसलिए उसकी मृत्यु के बाद छोटा भाई विजयशक्ति उसका उत्तराधिकारी हुआ। लेखों में प्रायः जयशक्ति और विजयशक्ति का एक साथ उल्लेख मिलता है। इससे लगता है कि दोनों भाइयों ने कुछ समय तक एक साथ शासन किया था। चंदेल अभिलेखों में कहा गया है कि उन्होंने अपने दुश्मनों को नष्ट कर दिया, लेकिन पराजित शासकों में से किसी का नाम नहीं मिलता है। कलचुरि राजा कोक्कल प्रथम ने एक चंदेल राजकुमारी नट्टादेवी से विवाह किया था जो आर.सी. मजूमदार के अनुसार जयशक्ति की पुत्री थी। किंतु कुछ दूसरे इतिहासकारों का अनुमान है कि नट्टादेवी जयशक्ति के भतीजे राहीला की पुत्री या बहन थी। संभवतः जयशक्ति एवं विजयशक्ति ने 865 ई. से 885 ई. के बीच चंदेल क्षेत्र पर शासन किया था।

रहीला (885-905 ई.)

विजयशक्ति का उत्तराधिकारी उसका पुत्र रहीला (885-905 ई.) हुआ। खजुराहो लेख (954 ई.) में उसकी शक्ति एवं वीरता की प्रशंसा करते हुए कहा गया है कि उसने अपने दुश्मनों की रातों की नींद हराम कर दी थी। यही नहीं, एक ग्रंथ में उसे रामेश्वर पर आक्रमण करने और सिंहल के राजा से एक हजार जहाजों को छीनने का श्रेय भी दिया गया है, जो स्पष्टतः अतिशयोक्ति मात्र है। एक दूसरे शिलालेख में रहीला की उपाधि ‘निपति’ मिलती है। इससे पता चलता है कि रहीला भी अन्य आरंभिक चंदेल शासकों की तरह प्रतिहारों की अधीनता स्वीकार करता था।

रहीला ने कई सार्वजनिक कार्यों का शुभारंभ किया। उसने अनेक मंदिरों एवं तालाबों का निर्माण करवाया, जिनमें अजयगढ का मंदिर तथा महोबा के समीप राहिल सागर झील विशेष महत्वपूर्ण हैं। कलचुरि राजा कोक्कल प्रथम ने जिस चंदेल राजकुमारी नट्टादेवी से विवाह किया था, वह संभवतः रहीला की पुत्री या बहन थी। इस प्रकार लगभग 900 ई. तक चंदेल प्रतिहारों की अधीनता में शासन करते हुए धीरे-धीरे अपनी शक्ति का विस्तार करते रहे।

हर्ष (905-925 ई.)

राहिल का उत्तराधिकारी उसका पुत्र हर्ष (905-925 ई.) हुआ। यद्यपि हर्ष के संबंध में ऐतिहासिक जानकारी बहुत कम मिलती है, किंतु बाद के कई शिलालेखों में उसकी बहादुरी, उदारता, विनय और अच्छे गुणों की प्रशंसा की गई है। खजुराहों लेख में इसे ‘परमभट्टारक’ कहा गया है। उसने अपने वंश की कन्या नट्टादेवी का विवाह कलचुरि नरेश कोक्कल के साथ और स्वयं अपना विवाह चाहमान वंश की कन्या कंचुकादेवी के साथ किया था। कलचुरि राष्ट्रकूटों के भी संबंधी थे और कोक्कल ने अपनी कन्या का विवाह राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण द्वितीय के साथ किया था। इस प्रकार अपने प्रतिहार अधिपति को खुली चुनौती दिये बिना हर्ष ने कलचुरियों, चाहमानों और राष्ट्रकूटों का समर्थन प्राप्त कर अपनी आंतरिक एवं बाह्य स्थिति मजबूत कर लिया।

हर्ष की सैन्य-सफलताएँ

हर्ष की सैन्य-सफलताओं का उल्लेख करते हुए दावा किया गया है कि उसने अपने शत्रुओं को पराजित करने के उपरांत संपूर्ण पृथ्वी पर शासन किया था। नन्यौरा लेख से ज्ञात होता है कि हर्ष की भयानक सेना ने चारों ओर आतंक फैला दिया और अनेक राजाओं को करद बना लिया।

खजुराहो के एक खंडित शिलालेख के अनुसार हर्ष ने क्षितिपालदेव नामक एक राजा को सिंहासन पर आसीन किया था। इस क्षितिपाल की पहचान गुर्जर-प्रतिहार शासक महिपाल से की जाती है। किंतु यह निश्चित नहीं है कि हर्ष ने यह सहायता राष्ट्रकूट राजा इंद्र तृतीय द्वारा 915 ई. के आक्रमण के समय दी थी या उसके सौतेले भाई भोजराज द्वितीय के विरूद्ध उत्तराधिकार के युद्ध में। संभावना यही है कि राष्ट्रकूट नरेश इंद्र तृतीय ने महीपाल (क्षितिपाल) को परास्त कर कन्नौज की गद्दी से उतार दिया था, परंतु चंदेल शासक हर्ष की सहायता से वह पुनः कन्नौज जीतने में सफल हुआ।

कलचुरी नरेश लक्ष्मीकर्ण के वाराणसी अनुदान लेख में कहा गया है कि उसने भोज द्वितीय, वल्लभराज और हर्ष नामक एक राजा को भय से मुक्ति दी। कुछ इतिहासकार इस हर्ष की पहचान चंदेल राजा से करते हैं।

हर्ष पहला ज्ञात चंदेल शासक है, जिसकी ‘परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर’ की उपाधि मिलती है। इससे लगता है कि हर्ष भी प्रतिहारों की अधीनता स्वीकार करता था। लेकिन वह अपने पूर्ववर्तियों की तुलना में अधिक शक्तिशाली था। वह वैष्णव धर्म का अनुयायी था।

चंदेल शक्ति का उत्था

यशोवर्मन् या लक्षवर्मन् (925-950 ई.)

हर्ष के बाद उसका पुत्र यशोवर्मन् या लक्षवर्मन् चंदेल राजवंश की गद्दी पर बैठा। वह एक महत्त्वाकांक्षी साम्राज्यवादी शासक था। इस समय राष्ट्रकूटों के आक्रमण से प्रतिहारों की शक्ति क्षीण हो रही थी और राष्ट्रकूट भी आंतरिक कलह के कारण उत्तर की राजनीति में सबल भूमिका निभाने में असमर्थ थे। इस अनुकूल परिस्थिति का लाभ उठाकर यशोवर्मन् व्यावहारिक रूप से चंदेलों को एक संप्रभु शक्ति के रूप में स्थापित करने में सफल हुआ, यद्यपि औपचारिक रूप से वह भी गुर्जर-प्रतिहारों की अधीनता स्वीकार करता रहा।

यशोवर्मन् की विजयें

खजुराहो शिलालेख में यशोवर्मन् को गौड़, कोशल, कश्मीर, मालव, चेदि, खस, कुरु, गुर्जर आदि का विजेता बताया गया है। यद्यपि यह विवरण अतिरंजित है, क्योंकि इस प्रकार के दावे उत्तरी भारत के अन्य समकालीन राजाओं जैसे- कलचुरियों और राष्ट्रकूटों राजा कृष्ण तृतीय के अभिलेखों में भी किये गये हैं। फिर भी, लगता है कि यशोवर्मन् ने उत्तर भारत के एक बड़े क्षेत्र को रौंद डाला था। चेदि पर उसकी विजय एक वास्तविकता है और उसका समकालीन चेदि नरेश संभवतः लक्ष्मणराज अथवा उसका पूर्वगामी युवराज प्रथम था, जिसकी अगणित सेनाओं को यशोवर्मन् ने भीषण युद्ध में पराजित किया होगा।

संभवतः यशोवर्मन ने गौड़ नरेश पालवंशी राज्यपाल अथवा उसका पुत्र गोपाल द्वितीय को पराजित किया था, जो पश्चिम की ओर राज्य-विस्तार का प्रयास कर रहा था। लेख में उल्लिखित मालव संभवतः परमार रहे होंगे, जो उस समय मालवा क्षेत्र में राष्ट्रकूटों के सामंत थे। कोशल का आशय दक्षिणी कोशल के सोमवंशी शासकों से है, जो संभवतः कलचुरियों के सहयोगी थे। कश्मीर तथा खस के शासक की पहचान असंदिग्ध रूप से नहीं की जा सकी है।

मालवा, कोशल तथा कुरु कन्नौज के गुर्जर-प्रतिहार शासकों के अधिकार में थे। यशोवर्मन् ने कन्नौज पर आक्रमण कर प्रतिहार राजा देवपाल को पराजित किया और उससे बैकुंठदेव की एक प्रतिमा प्राप्त की, जिसे उसने खजुराहो के विष्णु मंदिर में स्थापित की।

यशोवर्मन् ने कालिंजर के महत्वपूर्ण दुर्ग को विजित किया था, किंतु यह निश्चित नहीं है कि उसने कालिंजर को अपने स्वामी गुर्जर-प्रतिहारों से छीना था या राष्ट्रकूटों से या चेदियों से। राष्ट्रकूट राजा कृष्ण तृतीय के करहद लेख में कहा गया है कि उसने कालिंजर और चित्रकूट के किलों को प्रतिहारों से छीन लिया था। किंतु राष्ट्रकूटों पर यशोवर्मन् की जीत का कोई निश्चित प्रमाण नहीं है। हो सकता है कि यशोवर्मन् ने राष्ट्रकूटों और चेदियों (त्रिपुरी के कलचुरी) के सहयोग से कालिंजर पर अधिकार किया हो। लेकिन इस तरह के किसी गठबंधन का भी कोई प्रमाण नहीं है। फिर भी, यशोवर्मन् की कालिंजर पर विजय निर्विवाद है क्योंकि उसके उत्तराधिकारी पुत्र धंग ने ‘कलंजराधिपति’ की उपाधि धारण की थी।

खजुराहो शिलालेख से यह भी पता चलता है कि यशोवर्मन् ने इलाहाबाद के आसपास के क्षेत्र को जीत लिया था क्योंकि उसके शक्तिशाली हाथियों ने गंगा और यमुना नदियों में स्नान किया था। लेख से पता चलता है कि 954-55 ई. तक चंदेल प्रतिहारों की नाममात्र की संप्रभुता ही स्वीकार कर रहे थे क्योंकि इस तिथि के बाद के किसी चंदेल लेख में प्रतिहारों का उल्लेख नहीं मिलता है।

सांस्कृतिक उपलब्धियाँ

यशोवर्मन् के शासनकाल में चंदेल कला की शुरुआत हुई। उसने खजुराहो के प्रसिद्ध लक्ष्मण मंदिर की स्थापना की और मंदिर में बैकुंठदेव की मूर्ति स्थापित की, जिसे उसने प्रतिहार शासक देवपाल से छीना था। यह मंदिर खजुराहो में नागर वास्तुकला का पहला उदाहरण है। इसके अतिरिक्त यशोवर्मन् ने एक विशाल जलाशय (तड़ागार्णव) का भी निर्माण करवाया था।

यशोवर्मन् की प्रतिभा बहुमुखी थी। उसके शासन में प्रजा अत्यंत संतुष्ट एवं प्रसन्न थी। उसने निर्धनों, निर्बलों एवं दीन-दुखियों की सहायता की और शास्त्रों के निर्देशानुसार शासन किया।

धंगदेव (950-1102 ई.)

यशोवर्मन् के बाद उसकी पत्नी पुप्पादेवी (पुष्पादेवी) से उत्पन्न उसका पुत्र धंग चंदेल राज्य का उत्तराधिकारी हुआ। उसके संबंध में खजुराहो तथा लक्ष्मणनाथ मंदिर से प्राप्त लेख से महत्वपूर्ण सूचनाएँ मिलती है।

धंग अपने पिता के समान ही शक्तिशाली एवं महात्वाकांक्षी शासक था। लेखों से ज्ञात होता है कि धंग के शासनकाल में चंदेलों की शक्ति का तीव्र गति से विकास हुआ। 954 ई. तक उसका साम्राज्य उत्तर में यमुना तक, उत्तर-पश्चिम में ग्वालियर तक, पूर्व में वाराणसी तक और दक्षिण-पश्चिम में चेदि क्षेत्र एवं भिलसा तक फैल गया था। ग्वालियर और कालिंजर उसके हाथ में आ जाने से मध्य भारत में उसकी शक्ति काफी सुदृढ़ हो गई।

धंग के पूर्व चंदेल शासक प्रतिहारों की नाममात्र की अधीनता स्वीकार करते थे, किंतु धंगदेव ने ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण कर औपचारिक रूप से चंदेल संप्रभुता की स्थापना की।

धंग की सैनिक उपलब्धियाँ

खजुराहो शिलालेख में दावा किया गया है कि कोसल, क्रथ (बरार), कुंतल और सिंहल के शासक धंग की अधीनता स्वीकार करते थे। यह भी कहा गया है कि आंध्र, अंग, कांची और राहा के राजाओं की पत्नियाँ युद्धों में उसकी सफलता के परिणामस्वरूप उसकी जेलों में रहती थीं। मऊ शिलालेख के अनुसार उसने कन्नौज (कान्यकुब्ज) के राजा को पराजित कर सम्राट पद प्राप्त किया था।

इन प्रशंसात्मक अतिशयोक्तियों के बावजूद ऐसा लगता है कि धंग ने व्यापक सैन्य-अभियान किया था। कलंजरा के दुर्ग पर अधिकार करके उसने 954 ई. के लगभग अपनी स्वाधीनता घोषित की थी। उसने कालिंजर को अपनी राजधानी बनाकर स्वयं ‘कालंजराधिपति’ की उपाधि धारण की थी। किंतु ऐसा लगता है कि बाद में धंग ने अपनी राजधानी कालिंजर से खजुराहो स्थानांतरित कर दिया, क्योंकि धंग तथा चंदेल वंश के अन्य राजाओं के प्राचीनतम् अभिलेख कालिंजर से नहीं, खजुराहो से मिलते हैं।

ग्वालियर की विजय धंग की सबसे महत्त्वपूर्ण सफलता थी। सास-बहू मंदिर शिलालेख के अनुसार गोपाद्री दुर्ग (ग्वालियर किला) कच्छपघाटों के अधिकार में था। कच्छपघाट संभवतः इस समय चंदेलों के सामंत थे, और उन्होंने प्रतिहारों के विरूद्ध चंदेलों की मदद की थी। नन्यौरा ताम्र अनुदानपत्र लेख से संकेत मिलता है कि वाराणसी (काशिका) क्षेत्र भी धंग के नियंत्रण में था।

पूर्वी भारत में धंगदेव को अंग और राहा में सैनिक सफलता मिली थी। धंग द्वारा पराजित अंग का राजा कोई पाल शासक रहा होगा, क्योंकि कंबोजों और चंद्रों की स्वतंत्रता की घोषणा के बाद पाल साम्राज्य का पतन हो रहा था। राहा के शासक की पहचान पाल साम्राज्य से कंबोज हड़पने वाले राजा से की जा सकती है। किंतु इस अभियान से धंग को कोई भौगोलिक लाभ नहीं हुआ।

दक्षिण में आंध्र, कांची, कुंतल और सिंहल में धंग की सफलता का दावा काव्यात्मक अतिशयोक्ति ही है। संभवतः उसने विंध्य के दक्षिण में कुछ क्षेत्रों पर आक्रमण किया था। इस समय कोसल (दक्षिणी कोसल) का शासक सोमवंशी राजा महाभावगुप्त जनमेजय रहा होंगा।

दुधई पाषाण लेख से पता चलता है कि धंग का कृष्ण (कान्हापा) नाम का एक छोटा भाई भी था, जो चंदेल राज्य के दक्षिण-पश्चिमी प्रांतों का राज्यपाल था। संभवतः धंग के निर्देश पर कृष्ण के मंत्री कौंडिन्य वाचस्पति ने मालवा के परमारों और चेदि के कलचुरियों को पराजित किया था। कौंडिन्य द्वारा पराजित चेदि राजा शंकरगण तृतीय रहा होगा।

महोबा से प्राप्त एक खंडित शिलालेख के आधार पर प्रायः दावा किया जाता है कि धंग को सुबुक्तिगीन अथवा महमूद गजनबी के विरुद्ध सफलता मिली थी। किंतु गजनवियों और चंदेलों के बीच प्रत्यक्ष संघर्ष का कोई ऐतिहासिक विवरण नहीं मिलता है।

16वीं शताब्दी के इतिहासकार फरिश्ता के अनुसार कालिंजर के राजा सहित कई हिंदू राजाओं ने जयपाल की सैनिक सहायता की थी। संभवतः 10वीं शताब्दी के अंत में सुबुकतिगीन के विरुद्ध पंजाब के काबुलशाही वंश के शासक जयपाल के पक्ष में हिंदू राजाओं का जो संघ बना था, उसमें चंदेल नरेश धंग भी सम्मिलित हुआ था। सुबुकतिगीन ने इस संघ को पराजित कर दिया था। लेकिन इस पराजय से धंग को कोई विशेष क्षति नहीं हुई।

धंग की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ

धंग कुशल प्रशासक तथा कला एवं संस्कृति का उन्नायक भी था। उसके सुशासन में चंदेल साम्राज्य के गौरव में अद्भुत वृद्धि हुई। उसने ब्राह्मणों को भूमिदान दिया और उन्हें प्रशासन में उच्च पदों पर नियुक्त किया। मदनवर्मा के मऊ प्रस्तर लेख से पता चलता है कि धंग का प्रधानमंत्री प्रभास ब्राह्मण था, जिसे अर्थशास्त्र में वर्णित मानकों के परीक्षण के उपरांत (सर्वोपधाशुद्धान) नियुक्त किया गया था। कहा गया है कि प्रभास, अंगिरस तथा न्याय दर्शन के प्रणेता गौतम अक्षपाद के वंश में उत्पन्न हुआ था और राजनीति के संचालन में अत्यंत निपुण था (नयप्रयोगे गहने सुदक्षः)। नन्यौरा लेख (998 ई.) से पता चलता है कि धंग ने मुख्य न्यायाधीश भट्ट यशोधर को काशी में एक गाँव दान दिया था।

धंग वैदिक धर्म का अनुयायी था। उसके लेखों में प्रायः सभी हिंदू देवी-देवताओं की स्तुति की गई है। शिव उसके विशिष्ट आराध्य देव थे। खजुराहो से प्राप्त एक शिलालेख से पता चलता है कि उसने विश्वनाथ मंदिर में दो लिंग स्थापित किया था- एक पन्ना (मरकटमणि) का और एक साधारण पत्थर का। नन्यौरा शिलालेख के अनुसार वह सूर्यग्रहण जैसे पवित्र अवसरों पर नियमित रूप से दान देता था। उसने तुलापुरुष उपहार देने का समारोह भी किया था।

धंग अन्य धर्मों के प्रति भी सहिष्णु था। खजुराहो से प्राप्त एक लेख से पता चलता है कि उसने जैन मतानुयायियों को भी अपने धर्म के प्रचार एवं मंदिर निर्माण करने की सुविधा दी थी और अनेक जैन उपासकों को दान दिया था।

धंग एक उच्चकोटि का निर्माता भी था। उसने खजुराहो के जिननाथ, प्रमथनाथ एवं विश्वनाथ जैसे अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया था। धंग ने अपने पिता द्वारा आरंभ किये गये बैकुंठनाथ मंदिर को पूरा किया और 999 ई. में कंदरिया महादेव मंदिर का निर्माण करवाया, जो स्थापत्य कला का अनुपम उदाहरण है। वैद्यनाथ मंदिर में उत्कीर्ण लेख से पता चलता है कि उसका निर्माण गहपति कोक्कल ने करवाया था।

इस प्रकार धंग का सुदीर्घ शासनकाल प्रत्येक दृष्टि से सफलताओं का काल रहा। उसने ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की और ‘जीवेम् शरदः शतम्’ की उक्ति-चरितार्थ करते हुए सौ वर्ष से अधिक समय तक जीवित रहा। अंततः धंग ने 1002 ई. में प्रयाग के गंगा-यमुना के पवित्र संगम में शिव की आराधना करते हुए अपना शरीर त्यागकर मोक्ष प्राप्त किया।

गंड (1002-1019 ई.)

धंग के पश्चात् उसका पुत्र गंड चंदेल राज्य का स्वामी हुआ। इसके समय का कोई भी लेख नहीं मिला है। लगता है कि वह अधिक आयु में शासक बना था और इसलिए वह न कोई विजय कर सका और न कोई लेख लिखवा सका। फिर भी, उसके काल में चंदेलों की शक्ति अक्षुण्ण रही। त्रिपुरी के कलचुरि-चेदि तथा ग्वालियर के कच्छपघात शासक चंदेलों की अधीनता स्वीकार करते रहे।

लगता है कि गंड भी अपने पिता की भाँति महमूद गजनबी के विरुद्ध संगठित हिंदू राजाओं के संघ में सम्मिलित था। परंतु यह संघ भी महमूद के प्रसार को रोकने में सफल न हो सका। गंड ने 1002 से 1019 ई. तक राज्य किया।

विद्याधर (1019-1029 ई.)

गंड के पश्चात् उसका पुत्र विद्याधर जेजाकभुक्ति के चंदेल राज्य का उत्तराधिकारी हुआ। इसके शासनकाल की घटनाओं की जानकारी तत्कालीन लेखों तथा मुसलमान इतिहासकारों के विवरणों से मिलती है। मुसलमान लेखक उसका उल्लेख ‘नंद’ तथा ‘विदा’ नाम से करते है और उसे तत्कालीन भारत का सबसे शक्तिशाली राजा मानते हैं।

विद्याधर की सैन्य-उपलब्धियाँ

विद्याधर चंदेल वंश का सबसे प्रतापी राजा था। उसका प्रभाव चंबल से लेकर नर्मदा तक फैला हुआ था। इब्न-उल-अतहर ने लिखा है कि उसके पास सबसे बड़ी सेना थी और उसके देश का नाम खजुराहो था।

विद्याधर के राजा बनते ही महमूद गजनवी के नेतृत्व में तुर्कों के हिंदू राजाओं पर आक्रमण तेज हो गये। 1019 ई. में महमूद ने कन्नौज के प्रतिहार शासक राज्यपाल के ऊपर आक्रमण किया, लेकिन जब राज्यपाल ने बिना युद्ध किये ही आत्मसमर्पण कर दिया तो कन्नौज नरेश के इस कायरतापूर्ण व्यवहार से क्रुद्ध होकर विद्याधर ने राजपूत राजाओं का एक संघ बनाया और कन्नौज पर आक्रमण कर राज्यपाल की हत्या करवा दी। ग्वालियर के कछवाहा नरेश विक्रमसिंह के दूबकुंड लेख (1088 ई.) से ज्ञात होता है कि उसके एक पूर्वज अर्जुन ने विद्याधर की ओर से कन्नौज नरेश राज्यपाल को मार डाला था। इसकी पुष्टि चंदेलों के महोबा लेख से भी होती है। विद्याधर ने कन्नौज पर अधिकार कर राज्यपाल के पुत्र त्रिलोचनपाल प्रतिहार को अपनी ओर से राजा बनाया।

महमूद ने विद्याधर के नेतृत्व में बने राजपूत संघ को भंग करने के उद्देश्य से 1020 ई. में ग्वालियर होते हुए कालिंजर पर आक्रमण किया। कुछ इतिहासकारों के अनुसार विद्याधर अंघेरे का लाभ उठाकर रणक्षेत्र से भाग खड़ा हुआ। परंतु अधिकांश इतिहासकार विद्याधर के रणभूमि से भागने के विवरण पर विश्वास नहीं करते।

वास्तव में कालिंजर चंदेल राज्य का एक दुर्भेद किला था। मुस्लिम स्रोतों से पता चलता है कि दोनों के बीच किसी नदी के किनारे भीषण युद्ध हुआ था, लेकिन उसका कोई परिणाम नहीं निकला। युद्ध में असफल होकर महमूद वापस लौट गया।

चंदेलों को कुचलने के उद्देश्य से महमूद ने 1022 ई. में पुनः ग्वालियर तथा कालिंजर पर आक्रमण किया और दुर्ग का घेरा डाल दिया। दीर्घकालीन घेरे के बाद भी महमूद अभेद्य दुर्ग को जीतने में सफल नहीं हुआ। अंततः मजबूर होकर उसे चंदेल नरेश से संधि करनी पड़ी और चंदेल नरेश से 300 हाथी तथा कुछ भेंटें लेकर गजनी लौटना पड़ा। दोनों के बीच यह मित्रता कम से कम 1029 ई. तक बनी रही, जब महमूद ने अपने शत्रु सेल्जुक के एक पुत्र को बंदी बनाकर कालिंजर के दुर्ग में भेजा था। इस प्रकार विद्याधर ही अकेला ऐसा भारतीय नरेश था जिसने महमूद गजनवी की महत्वाकांक्षाओं का सफलतापूर्वक प्रतिरोध किया।

विद्याधर ने मालवा के परमार शासक भोज तथा कलचुरि शासक गांगेयदेव को भी पराजित किया था। ग्वालियर के कच्छपघाट सामंत कीर्तिराज के एक शिलालेख में दावा किया गया है कि उसने मालवा शासक की सेना को हराया था। अनुमान है कि परमार नरेश भोज ने चंदेल साम्राज्य पर आक्रमण किया होगा, लेकिन विद्याधर के सामंत कीर्तिराज ने उसे पीछे हटने पर मजबूर कर दिया। चंदेलों के खंडित महोबा शिलालेख में भी कहा गया है कि भोज और कलचुरी-चंद्र विद्याधर की गुरु की तरह पूजा करते थ। इस कलचुरी-चंद्र की पहचान कलचुरि राजा गांगेयदेव से की जाती है। संभवतः गांगेय की सहायता से भोज ने चंदेल साम्राज्य पर आक्रमण किया था। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि महोबा शिलालेख केवल एक प्रशंसात्मक अतिशयोक्ति है।

इस प्रकार विद्याधर ने अपने वीरतापूर्वक कृत्यों द्वारा विशाल चंदेल साम्राज्य को गौरवान्वित किया। मुस्लिम लेखकों ने भी विद्याधर की शक्ति एवं उसके साम्राज्य की मुक्तकंठ से प्रशंसा की है। 1029 ई. में विद्याधर की मृत्यु हो गई।

चंदेल सत्ता का विघटन

विजयपाल: विद्याधर की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र विजयपाल (1035-1050 ई.) चंदेल राज्य का उत्तराधिकारी हुआ। यद्यपि चंदेल अभिलेखों, विशेषकर महोबा शिलालेख से पता चलता है कि विद्याधर के उत्तराधिकारी विजयपाल ने गांगेय को एक युद्ध में हराया था। एक लेख में विजयपाल को ‘नृपेंद्र’ कहा गया है और मऊ शिलालेख में घोषणा की गई है कि उसने सभी दुष्टों को मार डाला और कलियुग का अंत कर दिया।

किंतु लगता है कि विजयपाल के शासनकाल के दौरान चंदेलों की शक्ति क्षीण होने लगी थी। विजयपाल के काल में कलचुरि राजा गांगेयदेव तथा उसके पुत्र लक्ष्मीकर्ण ने चंदेलों की शक्ति को पर्याप्त क्षति पहुँचाई और चंदेल राज्य के पूर्वी भागों पर अधिकार कर लिया। विजयपाल को विवश होकर बुंदलेखंड की पहाड़ियों में शरण लेनी पड़ी। सास-बहू शिलालेख से भी संकेत मिलता है कि ग्वालियर के कच्छपघाट शासक मूलदेव ने इस समय चंदेलों के प्रति अपनी निष्ठा त्याग दी थी। मऊ लेख से ज्ञात होता है कि विजयपाल का प्रधानमंत्री महिपाल था, जो विद्याधर के प्रधानमंत्री शिवांग का पुत्र था।

देववर्मन् (1050-1060 ई.)

विजयपाल के बाद उसकी पत्नी भुवनदेवी से उत्पन्न उसका पुत्र देववर्मन् (1050-1060 ई.) चंदेल शासक हुआ। देववर्मन् के संबंध में उसके द्वारा जारी किये गये दो शिलालेखों- 1051 ई. नन्यौरा शिलालेख और 1052 ई. के चरखारी शिलालेख से सूचना मिलती है। इन अभिलेखों के अनुसार वह विजयपाल का उत्तराधिकारी था, किंतु बाद के अन्य चंदेल अभिलेखों में उसका नाम नहीं मिलता है और विजयपाल के बाद अगले राजा के रूप में उसके भाई कीर्तिवर्मन् का उल्लेख मिलता है, जिसने चंदेल शक्ति को पुनर्जीवित किया था। इससे किसी आंतरिक संघर्ष की संभावना तो बनती है, लेकिन इसका कोई प्रमाण नहीं है।

संभवतः देववर्मन् के शासनकाल में चंदेल त्रिपुरी के कलचुरियों अधीन हो गये थे। चंदेलों के राज्याश्रित कवि कृष्णमिश्र के नाटक प्रबोधचंद्रोदय में स्पष्ट कहा गया है कि चेदिनरेश ने चंद्रवंश को पदच्युत् कर दिया। बिल्हण के विक्रमांकदेवचरित में भी कहा गया है कि कलचुरि नरेश लक्ष्मीकर्ण कलंजरागिरि के स्वामी के लिए मृत्यु के समान था। देववर्मन् ने ‘कलंजराधिपति’ और ‘परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर’ जैसी चंदेल उपाधियाँ ही धारण की थी।

कीर्तिवर्मन् (1060-1100 ई.)

देववर्मन् की मृत्यु के बाद विजयपाल का कनिष्ठ पुत्र कीर्तिवर्मन् (1060-1100 ई.) चंदेल शासक हुआ। कीर्तिवर्मन् के संबंध में उसके 1090 ई. के कालिंजर शिलालेख और 1098 ई. के देवगढ़ शिलालेख से महत्वपूर्ण सूचनाएँ मिलती हैं।

कीर्तिवर्मन् की सैन्य-उपलब्धियाँ

देववर्मन् के शासनकाल में चंदेलों को कलचुरि नरेश लक्ष्मीकर्ण की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी थी। किंतु देववर्मन् के छोटे भाई कीर्तिवर्मन् ने लक्ष्मीकर्ण को पराजित कर चंदेल वंश की लुप्तप्राय शक्ति और मर्यादा को पुनः प्रतिष्ठापित किया। उसके वंशज वीरवर्मन् के अजयगढ़ शिलालेख से पता चलता है कि कीर्तिवर्मन् ने कर्ण को हराकर एक नये राज्य की स्थापना की थी। महोबा से प्राप्त चंदेल लेख से भी ज्ञात होता है कि कीर्तिवर्मन् ने चेदि की सेनाओं का सामना करने के लिए चंदेल सामंतों का एक विशाल संघ (सकल राजमंडल) तैयार किया था। महोबा लेख में कीर्तिवर्मन् की तुलना पुरुषोत्तम (विष्णु) से की गई है, और कहा गया है कि उसने अभिमानी लक्ष्मीकर्ण को अपनी मजबूत भुजाओं से कुचल दिया।

कीर्तिवर्मन् की शक्ति के उत्थान का विवरण कृष्णमिश्र के संस्कृत नाटक प्रबोधचंद्रोदय में भी मिलता है, जिसमें कर्ण को पराजित करने का श्रेय ब्राह्मण योद्धा गोपाल को दिया गया है, जो इतिहासकारों के अनुसार कीर्तिवर्मन् का चचेरा भाई या सामंत या सेनापति रहा होगा।

चंदेल शिलालेखों में कीर्तिवर्मन् को अन्य कई विजयों का भी श्रेय दिया गया है, और कहा गया है कि उसने कई शत्रुओं को परास्त किया, जिससे उसकी आज्ञा समुद्र की सीमाओं तक पहुँच गई थी। संभवतः कीर्तिवर्मन् के दूसरे मंत्री वत्सराज ने बेतवा घाटी को विजित किया था।

मुस्लिम क्रॉनिकल दीवान-ए-सलमान के अनुसार गजनबी शासक इब्राहिम (1059-1099 ई.) ने चंदेलों के कालिंजर दुर्ग पर आक्रमण किया था। इससे लगता है कि कीर्तिवर्मन् को इब्राहिम के आक्रमण का भी सामना करना पड़ा था। किंतु इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि देववर्मन् के समय में कालिंजर चंदेलों के हाथ से निकल गया था। संभवतः यह तुर्क आक्रमण एक धावा मात्र था। कुछ इतिहासकारों के अनुसार कीर्तिवर्मन् ने चंदेलों की राजधानी खजुराहो से महोबा स्थानांतरित किया था।

कीर्तिवर्मन् की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ

देवगढ़ शिलालेख (1098 ई.) से ज्ञात होता है कि कीर्तिवर्मन् का प्रधानमंत्री वत्सराज था, जिसने कीर्तिगिरी दुर्ग और बेतवा नदी के तट पर सीढ़ियों का निर्माण करवाया था। कृष्णमिश्र के संस्कृत नाटक प्रबोधचंद्रोदय के अनुसार ब्राह्मण योद्धा गोपाल उसका सेनापति था। कीर्तिवर्मन् का एक अन्य महत्वपूर्ण मंत्री अनंत था। अनंत के पिता महिपाल ने कीर्तिवर्मन् के पिता विजयपाल की सेवा की थी। लेखों से कीर्तिवर्मन् के कुछ अन्य पदाधिकारियों के नाम भी मिलते हैं, जैसे- कायस्थ महेश्वर, जो कलंजरा का विशिष्ट प्रशासनिक अधिकारी था।

कहा जाता है कि कीर्तिवर्मन् ने महोबा और चंदेरी में किरात सागर झील तथा कालिंजर में बुधिया झील का निर्माण करवाया था। लोक परंपरा के अनुसार वह कुष्ठ रोग से पीड़ित था और बुधिया झील में स्नान करके ही स्वस्थ हुआ था।

कीर्तिवर्मन् शैव था, लेकिन उसने वैष्णव और जैन धर्म को भी संरक्षण प्रदान किया। मऊ शिलालेख उसे एक धर्मी राजा के रूप में चित्रित किया गया है, जिसने छः आंतरिक शत्रुओं पर विजय प्राप्त की थी। अजयगढ़ में परमाल तालाब के पास एक शिवमंदिर की दीवार में श्रीकीर्तिजयेश्वर की कथा है, जो संभवतः कीर्तिवर्मन् को ही संदर्भित करता है।

कीर्तिवर्मन् ने सांस्कृतिक उत्थान का भी कार्य किया। उसने कृष्णमिश्र जैसे संस्कृत के विद्वान् को राजाश्रय प्रदान किया, जिसने प्रबोधचंद्रोदय नामक संस्कृत नाटक की रचना की। प्रबोधचंद्रोदय में खुले यौन-चित्रण की आलोचना की गई है और कापालिकों जैसे चरम तांत्रिक संप्रदायों का उपहास उड़ाया गया है।

कीर्तिवर्मन् ने महोबा में शिवमंदिर और कीर्तिसागर नामक जलाशय का निर्माण करवाया। इसके अलावा उसने कालिंजर और चंदेरी में भी अनेक झीलें खुदवाई।

चंदेलों के सबसे पुराने सिक्के कीर्तिवर्मन् के शासनकाल के हैं, जो सोने के हैं। सिक्कों पर एक ओर बैठी हुई देवी और दूसरी तरफ ‘श्रीमतकीर्तिवर्मादेव’ अंकित है। यह शैली मूलतः कलचुरि नरेश गांगेयदेव द्वारा अपनाई गई थी। संभवतः कीर्तिवर्मन् ने गांगेय के पुत्र लक्ष्मीकर्ण पर अपनी जीत के उपलक्ष्य में इस शैली को अपनाया था।

सलक्षणवर्मन् (1100-1115 ई.)

कीर्तिवर्मन् के उपरांत सलक्षणवर्मन् (1100-1115 ई.) चंदेल वंश का शासक हुआ। उसका अपना कोई लेख तो नहीं मिला है, लेकिन उसके उत्तराधिकारियों के लेखों से उसके विषय में कुछ सूचनाएँ मिलती हैं।

लेखों से पता चलता है कि सलक्षणवर्मन् एक पराक्रमी योद्धा तथा कुशल सेनानायक था। अजयगढ़ शिलालेख के अनुसार सलक्षण की तलवार ने मालवों और चेदियों के भाग्य को काट दिया था। इससे लगता है कि सलक्षण ने मालवा के परमार राजा नरवर्मन् और कलचुरि चेदि (त्रिपुरी के कलचुरि) राजा यशःकर्ण के विरूद्ध सफलता प्राप्त की थी। रतनपुर के कलचुरि राजा जजल्लादेव के एक शिलालेख में कहा गया है कि उसें जेजाकभुक्ति के शासक द्वारा एक मित्र की तरह सम्मानित किया गया था। वी.वी. मिराशी का मानना है कि यह शासक स्वयं सलक्षण था, क्योंकि जजल्ला ने उसके ताँबे के सिक्कों की नकल की थी।

मदनवर्मन् के खंडित मऊ शिलालेख से पता चलता है कि सलक्षण ने अंतर्वेदी क्षेत्र (गंगा-यमुना दोआब) में एक सफल सैनिक अभियान किया था। कल्हण के अनुसार कान्यकुब्ज (कन्नौज) के आसपास केंद्रित गंगा और यमुना नदियों के बीच की भूमि को ‘अंतर्वेदी’ कहा जाता था। किंतु यह निश्चित नहीं है कि अंतर्वेदी प्रदेश में सलक्षण का प्रतिद्वंदी कौन था, क्योंकि यह क्षेत्र राष्ट्रकूटों और गहड़वालों के संघर्ष का केंद्र था। संभव है कि सलक्षण की सेना ने इस क्षेत्र में केवल एक संक्षिप्त छापेमारी की हो या यह भी हो सकता है कि मसूद तृतीय के अधीन गजनबियों ने कन्नौज क्षेत्र पर आक्रमण कगहड़वालों और उनके राष्ट्रकूट सामंतों को पराजित कर दिया हो और उसका लाभ उठाकर सलक्षण ने अंतर्वेदी पर कब्जा कर लिया होगा।

मऊ अभिलेख के अनुसार सलक्षणवर्मन् कुशल प्रशासक, उदार, परोपकारी, कला और साहित्य-प्रेमी सम्राट था। उसके पिता का प्रधानमंत्री अनंत उसके शासनकाल में भी अपने पद पर बना रहा। उसने अनंत के कुछ पुत्रों को भी परीक्षण के बाद महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त किया था। उसके वंशज परमर्दिदेव के एक ताम्रपत्र शिलालेख में सलक्षण-विलासपुर नामक नगर का उल्लेख मिलता है, जिसे संभवतः सलक्षणवर्मन् ने ही बसाया था। इस नगर की पहचान झांसी के पास आधुनिक पचार से की जाती है। सलक्षणवर्मन् ने सोने और ताँबे के सिक्के जारी किये थे।

जयवर्मन् (1110-1120 ई.)

मदनवर्मन् के मऊ शिलालेख के अनुसार सलक्षणवर्मन् के बाद उसका पुत्र जयवर्मन् (1110-1120 ई.) जेजाकभुक्ति क्षेत्र का राजा हुआ। खजुराहो से उसका गौड़ जयपाल कायस्थ का लिखा हुआ एक लेख मिला है, जो धंग के लेख का नवीनीकरण है। किंतु इस लेख से जयवर्मन् की राजनीतिक उपलब्धियों की कोई जानकारी नहीं मिलती।

खजुराहो के विश्वनाथ मंदिर शिलालेख में राजा की पारंपरिक प्रशंसा करते हुए कहा गया है कि निपति जयवर्मादेव ने युद्धों में ‘पहाड़ जैसे महान राजकुमारों’ को उखाड़ फेंका था। मऊ शिलालेख में उसे ‘उदारता, सच्चाई, नीति और वीरता’ का निवास स्थान बताया गया है। कालिंजर के एक शिलालेख से पता चलता है कि जयवर्मन् ने शासन से थककर अपने चाचा पृथ्वीवर्मन् के पक्ष में गद्दी छोड़ दी थी।

मऊ शिलालेख के अनुसार जयवर्मन् के दो पूर्ववर्तियों की सेवा करने वाले मंत्री अनंत ने राजा की सेवा की और उसके शासनकाल के दौरान उसकी मृत्यु हो गई। अनंत का पुत्र गदाधर प्रतिहार पद पर बना रहा। अजयगढ़ शिलालेख में श्रीधर नामक एक अन्य वंशानुगत अधिकारी का भी उल्लेख है। खजुराहो शिलालेख के अनुसार गौड़ परिवार के जयपाल जयवर्मन् के कायस्थ (क्लर्क) थे।

अपने पिता की तरह जयवर्मन् ने भी हनुमान की विशेषता वाले ताँबे के सिक्के जारी किये। इन सिक्कों में उसका नाम ‘श्रीमतजयवर्मादेव’ मिलता है। उसने खजुराहो में कुछ इमारतों का जीर्णोद्धार करवाया था। किंतु पृथ्वीवर्मन् के उत्तराधिकारी मदनवर्मन् के नन्यौरा लेख में वर्णित चंदेल वंशावली में जयवर्मन् और उसके पिता सलक्षणवर्मन् का नाम नहीं है।

पृथ्वीवर्मन् (1120-1128 ई.)

अपने भतीजे जयवर्मन् के सिंहासन छोड़ने के बाद पृथ्वीवर्मन् (1120-1128 ई.) चंदेल राज्य का उत्तराधिकारी हुआ। पृथ्वीवर्मन् और उसके बड़े भाई सलक्षणवर्मन् चंदेल शासक कीर्तिवर्मन् के पुत्र थे। मऊ अभिलेख में कहा गया है कि कीर्तिवर्मन् की मृत्यु के बाद, सलक्षण और उनके पुत्र जयवर्मन् ने चंदेल राज्य पर शासन किया।

पृथ्वीवर्मन् के संबंध में मऊ शिलालेख में कहा गया है कि उसने वंशानुगत प्रशासन को अच्छी तरह से संभाला था। अजयगढ़ के एक शिलालेख में गौड़ परिवार के गोकुल को भी पृथ्वीवर्मन् का एक अन्य वंशानुगत मंत्री बताया गया है।

अपने पूर्ववर्तियों की तरह पृथ्वीवर्मन् ने हनुमान की आकृति वाले ताँबे के सिक्के जारी किये। औगासी शिलालेख में पृथ्वीवर्मन् को ‘परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर’ की उपाधि दी गई हैं और कल्याणदेवी के अजयगढ़ शिलालेख में उनकी तुलना महान् राजा पृथु से की गई है।

मदनवर्मन् (1128-1165 ई.)

पृथ्वीवर्मन् का उत्तराधिकारी उसका पुत्र मदनवर्मन् (1128-1165 ई.) हुआ। वह चंदेल वंश का एक शक्तिशाली शासक था। कालिंजर, औगासी, खजुराहो, अजयगढ, महोबा, मऊ आदि स्थानों से उसके पंद्रह लेख और कई स्थानों से स्वर्ण एवं रजत मुद्राएँ मिली हैं। उसने अपने पड़ोसी राज्यों को विजित कर चंदेल वंश की गरिमा को पुनर्जीवित किया, और कई जलाशयों तथा मंदिरों का निर्माण करवाया था।

मदनवर्मन् के उत्तराधिकारियों के शिलालेखों में उसकी सैन्य-उपलब्धियों का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन मिलता है, जिसके आधार पर कुछ विद्वान् विद्याधर के पश्चात् मदनवर्मन् को ही चंदेल वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली राजा मानते हैं।

मदनवर्मन् के मंत्री गदाधर के मऊ लेख से ज्ञात होता है कि उसने चेदि तथा परमार राजाओं को पराजित किया और काशी के राजा को भयभीत किया। परमार्दि के बघारी शिलालेख में दावा किया गया है कि मदनवर्मन् ने अपने दुश्मनों को अपनी तलवार से तितर-बितर कर दिया था। संभवतः मदनवर्मन् ने कलचुरि चेदिनरेश यशःकर्ण के पुत्र गयाकर्ण (1051 ई.) को पराजित कर बघेलखंड क्षेत्र के उत्तरी भाग पर कब्जा कर लिया। किंतु गयाकर्ण के उत्तराधिकारी नरसिंह के लाल पहाड़ी (1158 ई.) और आल्हाघाट (1159 ई.) शिलालेख से संकेत मिलता है कि चंदेल इस नव विजित क्षेत्रों को लंबे समय तक अपने अधिकार में नहीं रख सके और गयाकर्ण के उत्तराधिकारी नरसिंह ने इन क्षेत्रों पर पुनः अधिकार कर लिया।

मदनवर्मन् ने मालवा के परमार नरेश यशोवर्मन् या उनके पुत्र जयवर्मन् को हरा कर परमार साम्राज्य के पश्चिमी क्षेत्र पर भी कब्जा कर लिया। उसके उत्तराधिकारी परमर्दि के सेमरा शिलालेख से भी संकेत मिलता है कि चंदेलों ने बेतवा नदी को पार कर परमार क्षेत्र के एक हिस्से पर कब्जा कर लिया था। किंतु यशोवर्मन् के पुत्र लक्ष्मीवर्मन् ने पुनः अपने क्षेत्रों को जीत लिया था।

काशी के संबंध में कहा गया है कि मदनवर्मन् के भय से काशी नरेश अपना समय मैत्रीपूर्ण व्यवहार में व्यतीत करता था। काशी के राजा की पहचान गहड़वाल नरेश गोविंदचंद्र से की गई है, जो चंदेलों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध बनाये रखता था।

कालिंजर लेख में कहा गया है कि मदनवर्मन् ने गुर्जर नरेश को क्षण भर में उसी प्रकार पराजित कर दिया, जिस प्रकार कृष्ण ने कंस को हराया था। गुजरात के इस गुर्जर शासक की पहचान जयसिंह सिद्धराज से की जाती है। वास्तव में मदनवर्मन् ने झांसी तथा बांदा स्थित परमार साम्राज्य के कई क्षेत्रों को अपने नियंत्रण में ले लिया था, जो चंदेल और चालुक्य राज्यों के बीच स्थित थे। लगता है कि गुजरात के चालुक्य राजा जयसिंह सिद्धराज ने भी परमार क्षेत्र पर आक्रमण किया था, जिसके कारण मदनवर्मन् का चालुक्यों के साथ संघर्ष अनिवार्य हो गया था। कीर्तिकौमुदी से पता चलता है कि जयसिंह सिद्धराज परमारों की राजधानी धारा को जीतता हुआ कालिंजर तक चढ़ गया था।

संभवतः चंदेल-चालुक्य संघर्ष अनिर्णायक रहा, क्योंकि दोनों पक्षों ने अपनी-अपनी जीत का दावा किया है। कालिंजर शिलालेख और चंदबरदाई के पृथ्वीराजरासो से ज्ञात होता है कि मदनवर्मन् ने जयसिंह को हराया था, लेकिन कुमारपालचरित के अनुसार जयसिंह ने महोबा के राजा (मदनवर्मन्) को या तो पराजित किया था या उससे उपहार लेकर वापस लौट गया था।

1183-84 ई. के एक खंडित महोबा शिलालेख में अंग, बंग और कलिंग के साथ युद्धों का अस्पष्ट उल्लेख है, जो संभवतः पूर्वी भारत में मदनवर्मन् के अभियान से संबंधित थे।

अन्य चंदेल शासकों की तुलना में मदनवर्मन् के शासनकाल के सिक्के और शिलालेख बड़ी संख्या में मिले हैं। इन लेखों के प्राप्ति स्थानों से स्पष्ट है कि बुंदेलखंड के चारों प्रमुख क्षेत्रों- कालिंजर, खजुराहो अजयगढ़ तथा महोबा में चंदेल सत्ता पुन स्थापित हो गई थी। औगासी ताम्रपत्र शिलालेख में कहा गया है कि यह भिलसा (विदिशा) से जारी किया गया था, जिससे पता चलता है कि भिलसा भी उसके राज्य में सम्मिलित था। बरिगर (वरिदुर्गा) शिलालेख से दमोह, झांसी और सागर जिलों के कुछ हिस्सों पर उसके अधिकार की पुष्टि होती है। रीवां से मिले सिक्के के ढेर इस बात के प्रमाण हैं कि बघेलखंड क्षेत्र भी उनके राज्य का हिस्सा था। इस प्रकार मदनवर्मन् ने अपनी विजयों द्वारा प्राचीन चंदेल साम्राज्य के सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों पर पुनः अधिकार कर लिया था। दीर्घकालीन शासन के बाद 1163 ई. के लगभग मदनवर्मन् की मृत्यु हो गई।

मदनवर्मन् का प्रधानमंत्री गदाधर था, जिसकी मऊ शिलालेख में वेदों के ज्ञान और पवित्र कार्यों के लिए प्रशंसा की गई है। उसने एक विष्णु मंदिर का निर्माण और डेड्डू गाँव के पास एक तड़ाग का निर्माण भी करवाया था। मदनवर्मन् का मुख्य सलाहकार एक लहड़ा नामक एक विद्वान् था, जो कला में भी पारंगत था। मदनवर्मन् का सेनापति अजयपाल था, जिसका उल्लेख परमर्दि के सेमरा शिलालेख में सेनापति किल्हान के पुत्र के रूप में मिलता है। कालिंजर शिलालेख में उसके महाप्रतिहार संग्रामसिंह का उल्लेख है।

मदनवर्मन् ने बैठी देवी की आकृति वाले सोने, चाँदी और ताँबे के सिक्के जारी किये। उसने हनुमान की आकृति वाले ताँबे के सिक्के भी जारी किये थे। इन सिक्कों में उसका नाम ‘श्रीमत मदनवर्मन्देव’ मिलता है।

‘परमालरासो’ के अनुसार मदनवर्मन् ने बड़ी संख्या में तालाबों और मंदिरों का निर्माण करवाया था। महोबा में झील के चारों ओर स्थित खंडित शिव और विष्णु मंदिरों के निर्माण का श्रेय मदनवर्मन् को ही है। उसके नाम के जलाशय टीकमगढ़ जिले के महोबा, जतारा और अहार-नारायणपुर क्षेत्र में हैं। झांसी जिले के मदनपुरा और महोबा के पास मदनखेड़ा जैसे कई स्थानों के नाम मदनवर्मन् के नाम पर ही हैं। उसके शासनकाल की कई जैन तीर्थंकरों की मूतियाँ अहाड़, खजुराहो, महोबा, पपौरा और अन्य स्थानों से मिली हैं।

मदनवर्मन् के 1192 ई. के एक शिलालेख में उसकी तीन रानियों का उल्लेख है- महारानी वल्हानादेवी, रजनी लखमादेवी और रजनी चांडाला देवी। कालिंजर शिलालेख के अनुसार प्रतापवर्मन् उसके छोटे भाई थे।

यशोवर्मन् द्वितीय (1164-1165 ई.)

मदनवर्मन् का पुत्र यशोवर्मन् द्वितीय (1164-1165 ई.) था। इसका उल्लेख केवल परमर्दिदेव के बटेश्वर (बघरी) शिलालेख में मिलता है, किसी अन्य चंदेल लेख में नहीं। इससे लगता है कि यशोवर्मन् या तो बहुत कम समय के लिए चंदेल राज्य का उत्तराधिकारी हुआ था या मदनवर्मन् के समय में ही उसकी मृत्यु हो गई थी क्योंकि अन्य चंदेल लेखों में मदनवर्मन् का उत्तराधिकारी परमर्दिदेव को बताया गया है।

परमर्दिदेववर्मन् (1165-1203 ई.)

चंदेल लेखों से ज्ञात होता है कि मदनवर्मन् के बाद उसका पौत्र परमर्दिदेव पाँच वर्ष की छोटी उम्र में चंदेल सिंहासन पर आरूढ़ हुआ था। परमर्दि चंदेल वंश का अंतिम महान् शासक था, जिसने 1165 ई. से 1203 ई. तक राज्य किया। उसके कई लेख तथा सिक्के विभिन्न स्थानों, जैसे- सेमरा, महोबा, बघारी (बटेश्वर), महोबा और चरखारी पाये गये हैं। लेखों में उसके लिए ‘परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर परममहेश्वर श्रीकलंजराधिपति श्रीमनमत परमर्दिदेव’ जैसी राजसी उपाधियाँ प्रयुक्त की गई हैं। मध्ययुगीन पौराणिक किंवदंतियों जैसे आल्हा खंड में उसे परमाल या परिमाल कहा गया हैं। सेमरा ताम्रलेख में उसकी प्रशंसा करते हुए कहा गया है कि वह सुंदरता में मकरध्वज से, गहराई में समुद्र से, ऐश्वर्य में स्वर्ग के स्वामी इंद्र से, ज्ञान में बृहस्पति से और सच्चाई में युधिष्ठिर से बढ़कर था। उसके द्वारा जारी एक सोने के सिक्के में एक बैठी हुई देवी है और उसका नाम ‘श्रीमतपरमर्दि’ मिलता है।

परमर्दिदेव की उपलब्धियाँ

बघारी (बटेश्वर) शिलालेख में परमर्दि को अनेक सैन्य-विजयों का श्रेय दिया गया है और अजयगढ़ शिलालेख में उसे एक सार्वभौमिक संप्रभु शासक के रूप में वर्णित किया गया है। लेकिन इसके सैन्य-विजयों की पुष्टि किसी ऐतिहासिक स्रोत से नहीं होती है। यही नहीं, किसी लेख में उसके द्वारा पराजित किसी राजा का नाम भी नहीं मिलता है।

समकालीन साहित्यिक कृतियों, जैसे- पृथ्वीराजरासो, परमालरासो से पता चलता है कि परमर्दि तथा चहमान शासक पृथ्वीराज तृतीय के बीच शत्रुता थी। इन ग्रंथों के अनुसार पृथ्वीराज ने परमर्दि के चंदेल राज्य पर आक्रमण कर उसे पराजित किया। संभवतः गहड़वाल नरेश जयचंद्र ने परमर्दि की सहायता की थी, लेकिन वह भी पृथ्वीराज की सेना को रोक नहीं सका और उसने चंदेल राज्य के पश्चिमी भागों पर अधिकार कर लिया। इस युद्ध में परमर्दिदेव के दो वीर सैनिकों- आल्हा और ऊदल ने पृथ्वीराज के विरुद्ध लड़ते हुये अपनी जान गँवाई थी, जिनके शौर्य और बलिदान की गाथा जगनिक द्वारा प्रणीत परमालरासो के आल्ह खंड में वर्णित है। महोबा पर पृथ्वीराज के अधिकार की पुष्टि मदनपुर लेख (1182 ई.) से होती है।

ऐसा लगता है कि पृथ्वीराज के वापस जाने के बाद परमर्दि ने न केवल महोबा पर पुनः चंदेल सत्ता को पुनर्स्थापित कर ‘दशार्णधिपति’ की उपाधि धारण किया, बल्कि त्रिपुरी के किसी कलचुरी राजा, संभवतः जयसिंह को भी पराजित किया था। 1183 ई. के महोबा अभिलेख में कहा गया है कि परमार्दि की वीरता के गीत सुनकर त्रिपुरी के स्वामी मूर्छित हो जाते थे।

परंतु परमर्दि अधिक समय तक शांति से शासन नहीं कर सका। 1202-1203 ई. के लगभग कुतुबुद्दीन ऐबक ने चंदेल साम्राज्य पर आक्रमण किया और बुंदेलखंड के अधिकांश भाग पर अधिकार कर लिया। इतिहासकार ताज-उल-मासीर के अनुसार परमर्दि ने दिल्ली की सेनाओं के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। उसने सुल्तान को उपहार देने का वादा किया, किंतु इसी समय कालिंजर के दुर्ग में परमर्दि की मृत्यु हो गई। 16वीं शताब्दी के इतिहासकार फरिश्ता के अनुसार परमर्दि की हत्या उसकी कायरता से क्षुब्ध हो़कर उसके मंत्री अजयदेव ने ही की थी।

त्रैलोक्यवर्मन् (1203-1247 ई.)

परमर्दि के पश्चात् उसका पुत्र त्रैलोक्यवर्मन् (1203-1247 ई.) चंदेल राज्य का उत्तराधिकारी हुआ। त्रैलोक्यवर्मन् के सात शिलालेख अजयगढ़, बानपुर, गर्रा और टिहरी (टीकमगढ़) से मिले हैं। इन लेखों में उसकी उपाधियाँ ‘परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर परममहेश्वर श्रीकलंजराधिपति’ मिलती हैं। उसके मुद्राएँ भी बांदा जिले से पाई गई हैं। इससे पता चलता है कि चंदेल राज्य के एक बड़े हिस्से पर उसका अधिकार था।

त्रैलोक्यवर्मन की ‘कलंजराधिपति’ की उपाधि से भी स्पष्ट है कि उसने दिल्ली के तुर्क शासकों से कालिंजर के किले को पुनः जीत लिया था। वीरवर्मन् के अजयगढ़ के एक प्रस्तर लेख में उसकी तुलना विष्णु से की गई है और कहा गया है कि उसने तुरुष्कों द्वारा समुद्र में डुबोई गई पृथ्वी का उद्धार किया था। मुस्लिम क्रॉनिकल तबकात-ए नासिरी से भी पता चलता है कि 1232 ई. के पहले कालिंजर तुर्कों के हाथ से निकल गया था।

वीरवर्मन् (1245-1285 ई.)

त्रैलोक्यवर्मन् के बाद वीरवर्मन् (1245-1285 ई.) चंदेल राज्य का उत्तराधिकारी हुआ। उसंने चंदेलों की परंपरागत उपाधियाँ ‘परमभट्टरक महाराजाधिराज परमेश्वर कलंजराधिपति’ धारण की। अपने पूर्ववर्तियों की तरह वीरवर्मन् ने एक बैठी हुई देवी की आकृति वाले तांबे और सोने के सिक्के जारी किये थे।

फरिश्ता जैसे मुस्लिम इतिहासकारों के अनुसार दिल्ली के सुल्तान नसीरुद्दीन महमूद ने बुंदेलखंड क्षेत्र को लगभग 1251 ई. विजित किया था, किंतु वह चंदेलों को समाप्त नहीं कर सका क्योंकि वीरवर्मन् की रानी कल्याणदेवी के 1260 ई. के एक शिलालेख से पता चलता है कि उसने नंदीपुरा में एक कुआं और एक तालाब का निर्माण करवाया था।

कालिंजर शिलालेख के अनुसार वीरवर्मन् ने कई मंदिरों, उद्यानों और जलाशयों का निर्माण करवाया था। उसने शिव, कमला और काली जैसे देवी-देवताओं की मूर्तियाँ भी स्थापित की थी। अजयगढ़ शिलालेख के अनुसार उसके शासनकाल में एक जैन मूर्ति की भी स्थापना की गई थी।

भोजवर्मन् (1285-1288 ई.)

वीरवर्मन् के बाद भोजवर्मन् (1285-1288 ई.) ने शासन किया। इसके शासनकाल के लगभग छः शिलालेख अजयगढ़ और ईश्वरमऊ मिले हैं। यद्यपि उपलब्ध लेखों से भोजवर्मन् के शासनकाल के बारे में अधिक जानकारी नहीं मिलती है। किंतु लगता है कि भोजवर्मन् ने अजयगढ़, कालिंजर और खजुराहो सहित महत्वपूर्ण चंदेल क्षेत्रों पर अपना अधिकार बनाये रखा।

हमीरवर्मन् (1288-1311 ई.)

भोजवर्मन् का उत्तराधिकारी हमीरवर्मन् (1288-1311 ई.) हुआ। चूंकि भोजवर्मन् का नाम चरखारी ताम्रपत्र शिलालेख में दी गई पूर्ववर्तियों की सूची में नहीं है। इससे लगता है कि भोजवर्मन् हमीरवर्मन् का पूर्वज नहीं था। संभव है कि दोनों भाई रहे हो, किंतु इस धारणा की पुष्टि किसी अन्य साक्ष्य से नहीं होती है। एक संभावना यह भी है कि दोनों चचेरे भाई रहे होंगे। हमीरवर्मन् के सबसे पुराने और नवीनतम् ज्ञात शिलालेख 1289 ई. और 1311 ई. के हैं। इससे स्पष्ट होता है कि उसने कम से कम 22 वर्षों तक शासन किया था।

चरखारी ताम्रलेख में चंदेल वंश के पूर्वजों के लिए ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि का प्रयोग मिलता है, लेकिन हम्मीरवर्मन् के लिए इस उपाधि का प्रयोग नहीं किया गया है। इससे लगता है कि इस समय चंदेल राज्य की स्थिति अच्छी नहीं थी। मुस्लिम आक्रमणों के साथ-साथ अन्य स्थानीय राजवंशों, जैसे- बुंदेलों, बघेलों और खंगार राजाओ के उदय के कारण चंदेलों शक्ति कमजोर पड़ गई थी। हम्मीरवर्मन् के शासन के दौरान 1305 ई. के लगभग दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने चंदेल साम्राज्य के अधिकांश हिस्से पर अधिकार कर लिया। किंतु अजयगढ़ में पाये गये एक 1311 ई. सतीलेख से पता चलता है कि अजयगढ़ (और संभवतः कालिंजर) चंदेल शासन के अधीन बने रहे।

1315 ई. के लाडवारी (लारवारी) शिलालेख से पता चलता है कि हम्मीरवर्मन् के बाद वीरवर्मन् द्वितीय चंदेल सिंहासन पर आरूढ़ हुआ, किंतु वह नाममात्र का शासक था। इसके बाद भी चंदेल वंश बुंदेलखंड के कुछ क्षेत्रों में 16वीं शती तक जैसे-तैसे बना रहा।

चंदेलकालीन संस्कृति एवं कलात्मक उपलब्धियाँ

चंदेल शासन परंपरागत आदर्शों पर आधारित था। किंतु चंदेल नरेशों का शासनकाल उनकी कलात्मक उन्नति के लिए अत्यधिक प्रसिद्ध है। उन्होंने विभिन्न स्थानों पर अनेक मंदिरों, जलाशयों, महलों और दुर्गों का निर्माण करवाया।

चंदेल शासकों की कलात्मक उपलब्धियों के सबसे सबल प्रमाण खजुराहो (छतरपुर, म. प्र.) में नागर शैली के लगभग 30 विश्व-प्रसिद्ध मंदिर हैं, जो विष्णु, शिव तथा जैन तीर्थंकरों की उपासना के लिए निर्मित करवाये गये हैं।

मंदिरों में कंदारिया महादेव का मंदिर सर्वाधिक प्रसिद्ध है। इस विश्व प्रसिद्ध मंदिर का निर्माण विद्याधर ने 999 ई. में करवाया था। अन्य प्रमुख मंदिरों में लक्ष्मण मंदिर, जगदंबिका मंदिर, विश्वनाथ मंदिर तथा पार्श्वनाथ के मंदिर विशेषरूप से महत्वपूर्ण हैं।

चंदेलकालीन सभी मंदिरों के भीतरी तथा बाहरी दीवारों पर अनेक भव्य मूर्तियाँ उत्कीर्ण की गई हैं। देवी-देवताओं के अतिरिक्त अनेक अप्सराओं, नायिकाओं तथा सामान्य नारियों की मूर्तियाँ भी खजुराहो से मिलती हैं। कुछ मूर्तियाँ अत्यंत अश्लील हैं जो धर्म पर तांत्रिक विचारधारा के प्रभाव को व्यक्त करती हैं। समग्ररूप से खजुराहो की कला अत्यंत प्रशंसनीय है। यह चंदेल नरेशों की अमर-कीर्ति का प्रमाण है। इसके अलावा चंदेलों ने अजयगढ़, कलंजरा (आधुनिक कालिंजर) और महोत्सव नगर (आधुनिक महोबा) जैसे नगरों में अनेक सुदृढ़ दुर्गों, भव्य मंदिरों और विशाल जलाशयों का निर्माण करवाया था।

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