राष्ट्रकूट शासक कृष्ण द्वितीय (Rashtrakuta Ruler Krishna II, 880-914 AD)

कृष्ण द्वितीय

अमोघवर्ष के पश्चात् उसका पुत्र कृष्ण द्वितीय 880 ई. के लगभग राष्ट्रकूट राजगद्दी पर बैठा। उसने शुभतुंग तथा अकालवर्ष के साथ-साथ वल्लभराज, श्रीपृथ्वीवल्लभ, परमभट्टारक, महाराजाधिराज एवं परमेश्वर जैसी परंपरागत उपाधियाँ धारण की।

वैवाहिक संबंध: राष्ट्रकूटों के इतिहास में उनके वैवाहिक संबंधों का विशेष महत्व रहा है। कृष्ण द्वितीय ने स्वयं चेदि शासक कोक्कलदेव प्रथम की पुत्री और शंकरगण की बहन महादेवी के साथ विवाह किया था। उसने अपने पुत्र जयतुगि (जगत्तुंग) का विवाह चेदि शंकरगण की पुत्री लक्ष्मी के साथ किया था। बाद में जयतुगि ने लक्ष्मी की छोटी बहन गोविंदवा से भी विवाह कर लिया। जयतुगि के पुत्र इंद्र (लक्ष्मी से उत्पन्न) का विवाह शंकरगण के भाई अर्जुन की पौत्री कलचुरि राजकुमारी विजंबा के साथ हुआ था। अमोघवर्ष (इंद्र का सौतेला भाई) का विवाह शंकरगण के एक अन्य भाई मुग्धतुंग की पौत्री कुंडकदेवी से किया गया था। इन वैवाहिक संबंधों के कारण राष्ट्रकूटों को अपने सैनिक अभियानों में कलचुरि शासकों से पर्याप्त सहायता मिली। बिलहरी लेख में कहा गया है कि कोक्कल ने उत्तर तथा दक्षिण में भोज तथा कृष्ण को दो स्तंभों के रूप में स्थापित किया था। इसी प्रकार कर्णदेवी के बनारस लेख से भी पता चलता है कि चेदिराज कोक्कल ने भोज तथा कृष्ण की सहायता की थी।

कृष्ण द्वितीय की सैनिक उपलब्धियाँ

कृष्ण द्वितीय का राज्यकाल संघर्षों से परिपूर्ण रहा। उसे प्रायः अपने सभी पड़ोसी राजाओं- पूर्व में वेंगी के चालुक्यों, उत्तर में मालवा के प्रतिहारों, गुजरात (लाट) के राष्ट्रकूटों, दक्षिण में गंगावाड़ी तथा नोलंबवाड़ी के शासकों और सुदूर दक्षिण में चोलों के साथ संघर्ष करना पड़ा था।

वेंगी के चालुक्यों से संघर्ष: कृष्ण द्वितीय का वेंगी के चालुक्यों के साथ लंबा संघर्ष चला। उसके समकालीन चालुक्य शासक विजयादित्य तृतीय तथा भीम प्रथम थे। अमोघवर्ष के समय में ही 850 ई. के आसपास विजयादित्य तृतीय ने वेंगी को राष्ट्रकूट प्रभाव से मुक्त करा लिया था। इसके अलावा, विजयादित्य तृतीय ने दक्षिण की ओर बढ़कर पल्लवों, पांड्यों तथा चोलों को पराजित कर अपनी स्थिति को काफी सुदृढ़ कर लिया।

कृष्ण द्वितीय के काल में विजयादित्य ने नोलंबों तथा गंगों पर आक्रमण किया, जो राष्ट्रकूटों के अधीन सामंत थे। नोलंबवाडी की सेना पराजित हुई और उनका सेनापति मंगि मारा गया। इडर ताम्रपत्रों के अनुसार विजयादित्य ने मंगि का सिर काट लिया-

गंगानां गजवैरिशक्तिरसमान् रट्टेशसंचोदितः।

जित्वा मंगिशिरोऽहद् युधि महाबाह्वाप्तवीर्यार्यमा।।

पीठापुरम् अभिलेख के अनुसार उसने मंगी के शीशरूपी गेंद से युद्धभूमि में कीड़ा की थी-

मंगिराजोत्तमांगेन् यो वीरस्समरांगणे।

चकार कन्दुकक्रीडां नाम्ना त्रिभुवनांकुशः।।

विजयादित्य के मसूलीपट्टम अनुदानपत्र में कहा गया है कि उसने बाह्मण विनयादिश्रमण को मंगि के वध का उपाय बताने के उपलक्ष्य में दान दिया था।

इसके बाद विजयादित्य ने गंगवाडी पर आक्रमण कर राजमल्ल तथा बुतुग को पराजित किया और गंगवाडी के कुछ क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। नोलंब और गंग राष्ट्रकूटों के मित्र और सामंत थे। चालुक्य शासक के इस कृत्य से कृष्ण द्वितीय का चौकन्ना होना स्वाभाविक था।

नोलंब तथा गंग शासकों को पराजित करने के बाद विजयादित्य ने राष्ट्रकूटों के उत्तरी-पूर्वी भाग पर आक्रमण कर दिया। कृष्ण द्वितीय ने अपने साले चेदिराज शंकरगण, जिसे संकिल भी कहा गया है, को लेकर विजयादित्य का रोकने का प्रयास किया, लेकिन सफलता नहीं मिली। विजयादित्य तृतीय इस अभियान में पूर्णतया सफल रहा। उसने चक्रकूट (बस्तर का चक्रकोट्टया) के किले को भस्मसात कर दिया

योधाक्षीच्चक्रकूटं किरणपुरगतं संकिलं कृष्णयुक्तम्।

योऽभैषीत्, बल्लभेन्द्रं निजमहिमयुतं योऽव्यधात्, अग्रहीच्च।।

विवश कृष्ण द्वितीय को भागकर अपने साले चेदिराज शंकरगण के किरणपुर (बालाघाट जिले का किरनपुर) दुर्ग में शरण लेनी पड़ी (किरणपुरमधाक्षीत् कृष्णराजस्थितम् यः)।

चालुक्य विजयादित्य की सेना पांडुरंग के नेतृत्व में कृष्ण द्वितीय का पीछा करते हुए किरणपुर की ओर बढ़ी। रास्ते में कलिंग तथा कोशल के शासकों तथा वेमुलवाड के चालुक्य सामंत ने, जो राष्ट्रकूटों के मित्र थे, पांडुरंग को रोकने का प्रयास किया। किंतु चालुक्य सेना बिना किसी प्रतिरोध के चेदि राज्य पहुँच गई और दहाल का तहस-नहस कर कृष्ण द्वितीय तथा उसके संबंधी शंकरगण को पराजित कर न केवल किरणपुर पर अधिकार कर लिया, बल्कि उसे जलाकर नष्ट कर दिया-

कृष्णं संकिलमंकिताखिलबल (?) प्राप्तोरुसद्विक्रमः।

भीतार्तं च विधाय तत्पुरवरम् यो निर्ददाह प्रभुः।।

इसके बाद चालुक्य सेना ने अचलपुर (बरार के एलिचपुर) को भी नष्ट कर डाला। इस प्रकार चालुक्यों ने चेदियों के दोनों महत्वपूर्ण दुर्गों को नष्ट कर दिया।

अंततः विवश होकर कृष्ण द्वितीय ने चालुक्य नरेश की अधीनता स्वीकार कर ली। कलयुम्बुर लेख के अनुसार कृष्ण द्वितीय ने विजयादित्य की वंदना की थी। विजयादित्य ने कृष्ण द्वितीय का पालिध्वज और गंगा-यमुना प्रतीक छीनकर उसे उसका राज्य पुनः वापस कर दिया। इस विजय के बाद विजयादित्य ने स्वयं को ‘समस्त दक्षिणापथ का स्वामी’ तथा ‘त्रिकलिंगाधिपति’ घोषित किया।

किंतु कृष्ण द्वितीय की यह पराजय अल्पकालिक रही। 891 ई. में विजयादित्य तृतीय की मृत्यु के बाद अभी उसके भतीजे एवं उत्तराधिकारी चालुक्य भीम प्रथम का राज्याभिषेक भी नहीं हुआ था कि कृष्ण ने अपने सामंतों- गुजरात के कृष्ण और कर्नाटक के बड्डेग के साथ वेंगी पर पुनः आक्रमण कर दिया। युद्ध में भीम को पराजित कर बंदी बना लिया गया और कृष्ण ने उसके राज्य पर अधिकार कर लिया। संभवतः इसीलिए चालुक्य लेखों में कहा गया है कि विजयादित्य (विजय के सूर्य) के अस्त होने पर विजयी राष्ट्रकूटों ने वेंगी को तिमिराच्छादित कर दिया था

किंतु बाद में राष्ट्रकूट शासक कृष्ण द्वितीय ने उदारता दिखाते हुए भीम प्रथम को मुक्त कर दिया और वह राष्ट्रकूटों के सामंत के रूप में वेंगी में शासन करने लगा। चालुक्यों की पराजय का लाभ उठाकर गंग और नोलंब भी स्वतंत्र हो गये।

भीम प्रथम ने शीघ्र ही अपनी स्थिति सुदृढ़ कर राष्ट्रकूटों को वेंगी से बहिष्कृत कर अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी और 892 ई. में अपना राज्याभिषेक किया। फलतः कृष्ण द्वितीय को पुनः वेंगी पर आक्रमण करना पड़ा।

इस बार राष्ट्रकूटों तथा चालुक्यों में निरवधपुर (निनाडवोसु) तथा पेरुवन्मुरु (पेडवगुरु) में भीषण युद्ध हुए। निरवधपुर के युद्ध में भीम के पुत्र ने राष्ट्रकूट सेनापति गुडदुय को मौत के घाट उतार दिया, किंतु वह स्वयं भी मारा गया। संभवतः इस युद्ध में किसी भी पक्ष को निर्णायक सफलता नहीं मिल सकी। फलतः दोनों पक्षों ने युद्ध न करने का निर्णय किया और वे अपनी-अपनी सीमाओं में लौट गये।

गुर्जर प्रतिहारों से संघर्ष

कृष्ण द्वितीय का सर्वाधिक महत्वपूर्ण संघर्ष गुर्जर प्रतिहारों के साथ हुआ। अनेक राष्ट्रकूट लेखों में गुर्जर प्रतिहार भोज और कृष्ण द्वितीय के संघर्ष का उल्लेख मिलता है। प्रतिहार शासक मिहिरभोज ने अमोघवर्ष के समय में राष्ट्रकूटों से अपनी पराजय का बदला लेने का प्रयास किया था, किंतु उस समय अमोघवर्ष ने गुजरात के लाट शासकों की सहायता से मिहिरभोज के प्रयास को विफल कर दिया था।

कृष्ण द्वितीय के राजा बनने के बाद प्रतिहार शासक मिहिरभोज ने पुनः राष्ट्रकूट साम्राज्य के उत्तरी प्रदेशों पर आक्रमण किया। संभवतः नर्मदा नदी के तट पर दोनों सेनाओं का आमना-सामना हुआ, जिसमें राष्ट्रकूट शासक को पराजित होकर भागना पड़ा। इसकी पुष्टि भावनगर संग्रहालय के एक खंडित लेख से होती है।

इसके बाद मिहिरभोज अपनी सेना के साथ गुजरात की ओर बढ़ा। किंतु इस बार राष्ट्रकूटों का पलड़ा भारी पड़ा। कृष्ण द्वितीय ने गुजरात (लाट) के राष्ट्रकूट शासक कृष्णराज, अपने पुत्र जगत्तुंग और चेदि शासक की मदद से प्रतिहारों को पराजित कर वापस लौटने पर मजबूर कर दिया।

अपनी सफलता से उत्साहित होकर कृष्ण ने मालवा में प्रवेश कर प्रतिहारों की राजधानी उज्जयिनी पर अधिकार कर लिया। गुजरात के प्रांतीय शासक कृष्णराज के 888 ई. के बेग्रुमा अभिलेख में कहा गया है कि उसने अपने अधीश्वर के सामने उज्जैनी में शत्रुओं को पराजित कर प्रसिद्धि प्राप्त की थी। इंद्र तृतीय के 914 ई, के बेग्रुमा दानपत्रों में कहा गया है कि उस समय वृद्धजन प्रतिहारों से हुए युद्ध में कृष्ण द्वारा प्रदर्शित अनुपम शौर्य का बखान करते थे।

इस युद्ध के परिणामस्वरूप न तो राष्ट्रकूटों को कोई विशेष लाभ हुआ और न ही प्रतिहारों को विशेष क्षेत्रीय हानि पहुँची। अलमसूदी के अनुसार गुर्जर प्रतिहार दक्षिण में राष्ट्रकूटों की शक्ति के प्रसार को रोकने के लिए अपनी सेना तैयार रखते थे। संभव है कि सीमांत प्रदेशों पर कभी-कभी सेनाओं के बीच छिटपुट झड़पें होती रही हों। जो भी हो, संभवतः इस युद्ध के बाद राष्ट्रकूट और प्रतिहार दोनों एक दूसरे के प्रति उदासीन हो गये।

गुजरात के राष्ट्रकूटों का अंत

प्रतिहारों के विरुद्ध युद्ध में गुजरात के कृष्णराज ने कृष्ण द्वितीय का सक्रिय सहयोग किया था, किंतु बाद में किन्हीं कारणों से दोनों राजवंशों में अनबन हो गई। राष्ट्रकूट लेखों से ज्ञात होता है कि कृष्ण द्वितीय ने कृष्णराज अथवा उसके उत्तराधिकारी को खेटक (कैरा) से खदेड़ दिया था। एक दानपत्र से भी पता चलता है कि 910 ई. में गुजरात में प्रचंड नामक सामंत शासन कर रहा था। गुजरात के राष्ट्रकूटों का 888 ई. के बाद का कोई अभिलेख नहीं मिलता है। इससे लगता है कि इसी तिथि के बाद किसी समय इस शाखा का अंत हो गया होगा।

चोलों के साथ संघर्ष

कृष्ण द्वितीय का सुदूर दक्षिण के चोलों के साथ भी संघर्ष हुआ। पहले चोलों के साथ राष्ट्रकूटों के मधुर संबंध थे। कृष्ण द्वितीय ने अपनी एक पुत्री का विवाह चोल नरेश आदित्य प्रथम के साथ किया था, जिससे कन्नरदेव नामक एक पुत्र था। आदित्य के पश्चात् 907 ई. में परांतक चोल राजसिंहासन पर बैठा, जबकि कृष्ण द्वितीय अपनी पुत्री के पुत्र कन्नरदेव को राजा बनाना चाहता था।

कृष्ण द्वितीय ने अपने पौत्र को राजगद्दी दिलाने के लिए परांतक पर आक्रमण कर दिया। इस अभियान में कृष्ण द्वितीय की सहायता बाणों तथा वैदुंबों ने की, जबकि गंगनरेश पृथ्वीपति द्वितीय ने परांतक का साथ दिया। किंतु 911 ई. में बल्लाल (वर्तमान विरुवल्लम) के युद्ध में परांतक ने कृष्ण द्वितीय और उसके सहायकों को पराजित कर दिया। वीरराजेंद्र के कन्याकुमारी अभिलेख के अनुसार परांतक ने कृष्णराज को पराजित कर वीरचोल की उपाधि धारण की थी। इसकी पुष्टि पृथ्वीपति के लेखों से भी होती है।

कृष्ण द्वितीय की अन्य विजयें

कुछ परवर्ती राष्ट्रकूट अभिलेखों में कृष्ण को अंग, मगध, कलिंग तथा गौड़ राज्यों की विजय करने का श्रेय दिया गया है। कहा गया है कि उसने गौड़ नरेश को नम्रता का पाठ पढ़ाया, गुर्जरों को भयभीत किया, लाटों के यश का नाश किया, समुद्रतटवासियों की नींद हराम की और अंग, कलिंग, गंग तथा मगध के शासकों से अपनी आज्ञा का पालन करवाया। इसी प्रकार गुणभद्र ने उत्तर पुराण के ऐतिहासिक परिशिष्ट में लिखा है कि कृष्ण द्वितीय के हाथियों ने गंगा के जल का पान किया और कन्याकुमारी के घने जंगलों की शीतल छाया में विश्राम किया था। किंतु इस प्रकार के विवरण निश्चित ही काल्पनिक और अतिशयोक्तिपूर्ण हैं, क्योंकि कृष्ण की इन विजयों का कोई भी ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं है।

कृष्ण द्वितीय का मूल्यांकन

कृष्ण द्वितीय का राज्यकाल सामरिक उपलब्धियों की दृष्टि से बहुत गौरवपूर्ण नहीं रहा। गंगवाड़ी पर वह पुनः अधिकार स्थापित करने में असफल रहा। इसके समय में कुछ समय के लिए ही सही, वेंगी के चालुक्यों ने राष्ट्रकूटों की शक्ति एवं प्रतिष्ठा को धूल में मिला दिया।

यह सही है कि कृष्ण में गोविंद तृतीय अथवा ध्रुव के समान सैनिक कुशलता नहीं थी, फिर भी वह राष्ट्रकूट साम्राज्य को सुरक्षित रखने में सफल रहा। उसको इस बात का श्रेय मिलना चाहिए कि वह गुजरात की राष्ट्रकूट शाखा का अंत करने में सफल रहा और प्रतिहार भोज एवं महेंद्रपाल राष्ट्रकूट साम्राज्य को कोई क्षति नहीं पहुँचा सके। कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि कृष्ण द्वितीय का अरबों से मैत्रीपूर्ण संबंध था।

कृष्ण द्वितीय जैन धर्म का अनुयायी था। उसकी शिक्षा-दीक्षा प्रसिद्ध जैनाचार्य गुणभद्र की देख-रेख में संपन्न हुई थी। गुणभद्र ने ही ‘आदिपुराण’ के अंतिम पाँच अध्यायों (उत्तर पुराण) की रचना की थी।

कृष्ण द्वितीय की अंतिम ज्ञात तिथि 912 ई. है, किंतु वह लगभग 914 ई. तक जीवित रहा। इंद्र तृतीय के नौसारी ताम्रपत्रों से ज्ञात होता है कि शक संवत् 836 (914 ई.) में वह अपने पट्टबंधोत्सव के निमित्त मान्यखेट से कुरूंधक गया था। शक संवत् 836 के बेगुम्रा ताम्रपत्रों के अनुसार उसने पट्टबंधोत्सव की परिसमाप्ति पर अनेक प्रकार का दान-कार्य किया था। इस प्रकार कृष्ण द्वितीय ने संभवतः 880 ई. से लेकर 914 ई. तक लगभग 34 वर्ष शासन किया था।

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