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गहड़वाल वंश (Gahadwal Dynasty)

गहड़वाल वंश (Gahadwal Dynasty)

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गहड़वाल वंश

प्रतिहार साम्राज्य के पतन के पश्चात् कन्नौज तथा वाराणसी में जिस नवीन राजवंश की स्थापना हुई, वह ‘गहड़वाल वंश’ था। गहड़वाल राजवंश ने 11वीं और 12वीं शताब्दी के दौरान भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर प्रदेश और बिहार के कुछ हिस्सों पर शासन किया। गहड़वाल शासकों को ‘काशी नरेश’ के रूप में भी जाना जाता है क्योंकि उनकी राजधानी (काशी) वाराणसी में स्थित थी, यद्यपि कुछ समय के लिए गहड़वालों ने कान्यकुब्ज (कन्नौज) पर भी शासन किया था।

ऐतिहासिक स्रोत

गहड़वाल वंश के इतिहास की जानकारी मुख्यतः अभिलेखों और साहित्यिक ग्रंथों से मिलती है। इस वंश के प्रमुख लेखों में चंद्रदेव के चंद्रावली (वाराणसी) दानपत्र, मदनचंद्र के राहन (1109 ई.) और बसही अभिलेख (1104 ई.), गोविंदचंद्र के वाराणसी, कमौली (1168 ई.) तथा देवरिया के लार (1146 ई.) से प्राप्त अभिलेख और गोविंदचंद्र की रानी कुमारदेवी के अतैथिक सारनाथ अभिलेख विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। इन लेखों के अतिरिक्त रतनपुर लेख (1114 ई.), पालि अभिलेख (1114 ई.), ताराचंडी प्रतिमालेख (1168-69 ई.), मछलीशहर दानपत्राभिलेख (1198 ई.), बेलखरा (मिर्जापुर) स्तंभ अभिलेख (1197 ई.) के साथ-साथ सेन शासक लक्ष्मणसेन के माधाइनगर अभिलेख भी उपयोगी हैं। यद्यपि इनमें अधिकाशतः दानपरक लेख हैं, फिर भी, गहड़वाल वंश के इतिहास-निर्माण में इनकी उपयोगिता निर्विवाद है। इसके अलावा, सोने, चाँदी, ताँबे और मिश्रित घातुओं की ‘बैठी हुई लक्ष्मी’ शैली की मुद्राओं से भी गहड़वाल-कलुचुरि संबंधों पर प्रकाश पड़ता है।

समकालीन साहित्यिक कृतियों से भी गहड़वाल वंश के इतिहास पर कुछ प्रकाश पड़ता है। ऐसे साहित्यिक ग्रंथों में चंदबरदाई का ‘पृथ्वीराजरासो’ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है, जिससे गहड़वाल शासक जयचंद्र और चहमान शासक पृथ्वीराज तृतीय के संबंधों पर प्रकाश पड़ता है। किंतु पृथ्वीराजरासो को अनैतिहासिक एवं काल्पनिक माना जाता है। मेरुतुंग के ‘प्रबंध-चिंतामणि’ में भी जयचंद्र के विषय में कुछ सूचनाएँ मिलती हैं। गोविंदचंद्र का मंत्री लक्ष्मीधर राजनीतिशास्त्र का प्रकांड विद्वान था, जिसने ‘कृत्यकल्पतरु’’ नामक ग्रंथ की रचना की थी। यह ग्रंथ तत्त्कालीन राजनीति, समाज और संस्कृति से संबंधित सूचनाओं की दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण है। इनके अलावा, नयचंद्रकृत ‘रंभामंजरी’, चंद्रशेखरकृत ‘सुरजन चरित्र’ , विद्यापतिकृत ‘पुरुषपरीक्षा’, जयसिंहसूरिकृत ‘कुमारपालचरित’ के साथ-साथ राजशेखर के ‘प्रबंधकोश’, जयानकभट्ट के ‘पृथ्वीराजविजय’, कल्हण की ‘राजतरंगिणी’, हेमचंद्र के ‘द्वाश्रयकाव्य’, जयसिंह के महासांधिविग्रहिक मंख कवि के ‘श्रीकंठचरित’ और संध्याकार नंदी के ‘रामचरित’ भी ऐतिहासिक दृष्टि से उपयोगी हैं।

मुसलमान लेखकों के विवरणों से भी गहड़वालों और मुसलमानों के बीच संघर्षों की जानकारी होती है। फरिश्ता ने जयचंद्र की सैनिक शक्ति का विवरण दिया है। हसन निजामी के विवरण से जयचंद्र और मुहम्मद गोरी के बीच होने वाले संघर्ष तथा शिहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी की विजयों की सूचना मिलती है। इन स्रोतों के आधार पर गहड़वाल वंश के इतिहास का निर्माण किया जा सकता है।

गहड़वालों की उत्पत्ति

गहड़वाल वंश की उत्पत्ति के संबंध में कोई स्पष्ट सूचना नहीं मिलती है। यद्यपि उनके कुछ अभिलेखों, जैसे कुमारदेवी के सारनाथ अभिलेख में चंद्रदेव को ‘क्षत्रिय’ बताया गया है (जगति गहड़वाले क्षत्रवंशे प्रसिद्धेऽजनि नरपतिश्चन्द्रश्चंद्रनामा नरेन्द्रः), किंतु न तो गहड़वालों को कहीं सूर्य अथवा चंद्र से जोड़ा गया है, और न ही किसी प्रसिद्ध राजवंश से। गहड़वाल नाम भी उनके कुछ ही अभिलेखों में मिलता है और समकालीन साहित्य में भी उनकी चर्चा नहीं है। इसलिए अनुश्रुतियों के आधार इतिहासकार गहड़वालों का संबंध पालों, राष्ट्रकूटों, कर्णाट-चालुक्यों अथवा विंध्याचल की पहाड़ियों के आसपास रहने वाले भारत के मूल निवासियों से जोड़ते रहे हैं, जिन्होंने राजकार्य से संबद्ध होने पर अपने को ‘क्षत्रिय’ कहना प्रारंभ कर दिया था।

कुछ विद्वान गहड़वालों का संबंध राष्ट्रकूटों और राठौरों से जोड़ने का प्रयास करते हैं। मिर्जापुर में स्थित माँड़ा-बीजापुर के राजा अपने को ‘राठौर’ कहते हैं और जयचंद्र के छोटे भाई मानिकचंद्र से अपनी उत्पत्ति बताते हैं। मारवाड़ के राठौर (राष्ट्रकूट) अपने को सीहाजी से जोड़ते हैं, जो जयचंद्र का पुत्र अथवा पौत्र था, इसलिए गहड़वालों को भी राठौर अथवा राष्ट्रकूट कुल का ही माना जाना चाहिए। इसके अलावा, चंद्रबरदाईकृत ‘पृथ्वीराजरासो’ में जयचंद्र को ‘राठौर’ कहा गया है। इस ग्रंथ में क्षत्रियों के 36 कुलों में राठौरों की गिनती तो की गई है, किंतु गहड़वालों का स्वतंत्र रूप में कोई उल्लेख नहीं मिलता। इससे लगता है कि गहड़वाल राठौरों की ही एक शाखा थे। ग्यारहवीं शती में कन्नौज और उसके आसपास (बदायूँ) के क्षेत्रों में राष्ट्रकूटों ने अनेक राजवंशों की स्थापना की थी। इसलिए लखनपाल (राष्ट्रकूट) के बदायूँ अभिलेख में वर्णित ‘चंद्र’ को गहड़वाल वंश के ‘चंद्र’ से समीकृत किया जा सकता है।

किंतु गहड़वालों को राष्ट्रकूटों और राठौरों से संबंधित करना उचित नहीं है। प्रथमतः, गहड़वाल कभी भी अपने को राठौर नहीं कहते। दूसरे, उनका गोत्र कश्यप था, जबकि राठौरों का गोत्र गौतम है। तीसरे, लखनपाल के बदायूँ अभिलेख की तिथि ज्ञात नहीं है और संभव है कि वह गहड़वाल शासकों के समय से बहुत बाद का हो। इसलिए उसके ‘चंद्र’ को गहड़वाल शासक ‘चंद्र’ से जोड़ना उचित नहीं है। 997 ई. के हथुंडी (हस्ति-कुंडी) लेख से पता चलता है कि गहड़वालों के लगभग 100 वर्ष पहले ही राजस्थान के मारवाड़ क्षेत्र में राष्ट्रकूटों (राठौरों) की बस्तियाँ बस गई थीं, इसलिए यह भी निश्चित रूप से नहीं माना जा सकता है कि कन्नौज अथवा बदायूँ के राष्ट्रकूटों का गहड़वालों से कोई संबंध था। पाँचवें, ‘पृथ्वीराजरासो’ के आल्हा खंड में गहरवारों का स्पष्ट उल्लेख है और कर्नल टॉड ने राज्यस्थान के 36 क्षत्रिय कुलों की जो सूची तैयार की, उसमें भी उनका स्वतंत्र रूप में नाम मिलता है। यही नहीं, गोविंदचंद्र की रानी कुमारदेवी के सारनाथ अभिलेख में जहाँ उसके पति को ‘गहड़वालवंश’ का बताया गया है, वहीं उसकी माँ को ‘राष्ट्रकूट वंशोत्पन्ना’ कहा गया है। इससे स्पष्ट है कि राष्ट्रकूट और गहड़वाल, दोनों वंश अलग-अलग थे। इस प्रकार गहड़वाल राष्ट्रकूटों या राठौरों से संबंधित नहीं थे।

गहडवाल, गाहड़वाल अथवा गहरवार शब्दों की उत्पत्ति के संबंध में भी कोई स्पष्ट सूचना नहीं मिलती। कुछ इतिहासकार इन्हें पोरवाल, अग्रवाल अथवा ओसवाल की तरह स्थानवाची मानते हैं। मिर्जापुर में एक क्षत्रिय कुल अपने को गहड़वाल मानता है क्योंकि इसके एक पूर्वज देवदास को शनि ग्रह का वारण करने के कारण ‘ग्रहवर’ या ‘ग्रहवार’ (ग्रह शनि का वारण करनेवाला) की उपाधि मिली थी। इसी से कालांतर में गहरवार अथवा गहड़वाल शब्द निकला।

पुराणों में ‘गहर’ अथवा ‘गिरिगहर’ नामक एक जाति का वर्णन मिलता है, जो जंगलों और पहाड़ों की कंदराओं में रहती थी। इस आधार पर कुछ विद्वान गहड़वालों को गह्वरवासी मानते हैं। जो भी हो, ऐसा लगता है कि मिर्जापुर की पहाड़ियों के आसपास रहनेवाली किसी पहाड़ी जाति ने अवसर पाकर काशी के पास अपने लिए एक राज्य का निर्माण कर लिया, जिसने कालांतर में कन्नौज पर अधिकार कर गहड़वाल वंश की स्थापना की थी। फिर भी, गहड़वालों के वंश और उनकी उत्पत्ति के संबंध में कुछ भी निश्चित रूप से कहना संभव नहीं है।, इतना स्पष्ट है कि पूर्वमध्यकाल में गहड़वाल वंश की गणना राजपूत कुलों में की जाती थी।

दोआब पर अधिकार के लिए प्रतिद्वंद्विता

कन्नौज के गुर्जर प्रतिहारों के पतन के परिणामस्वरूप उत्तर भारत में राजनीतिक अराजकता फैल गई। महमूद गजनवी और उसके उत्तराधिकारियों के आक्रमणों से गंगा-यमुना का दोआब त्रस्त था। इसी स्थिति में डाहल के कलचुरि राजा गांगेयदेव और मालवा के परमार राजा भोज ने प्रतीहारों के अनेक क्षेत्रों पर बारी-बारी से अधिकार कर लिया।

मुसलमान लेखक अब्दुल बैहाकी से पता चलता है कि 1033 ई. में बनारस पर राजा गंग (गांगेयदेव) का अधिकार था। उसके कुछ सिक्के भी कन्नौज से मिले हैं। जबलपुर अभिलेख से पता चलता है कि उसने अपनी 100 रानियों के साथ प्रयाग के संगम में प्राण-त्याग किया। इससे स्पष्ट है कि 11वीं शती के चौथे दशक में कलचुरि गांगेयदेव ने प्रतिहारों के दक्षिण-पूर्वी क्षेत्रों पर अधिकार स्थापित कर लिया था, किंतु उसी समय मालवा के भोज परमार (1010-1055 ई.) ने गांगेयदेव को अपदस्थ कर पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बिहार के कुछ क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। मेरुतुंग की ‘प्रबंधचिंतामणि’ से ज्ञात होता है कि भोज की शक्ति के सामने ‘राजाओं में सुभट समान कान्यकुब्ज कुबड़ा हो गया है।’

किंतु भोज को अपने विजित क्षेत्रों की रक्षा के लिए गांगेयदेव के पुत्र लक्ष्मीकर्ण से कई युद्ध करने पड़े। अंततः काशी के क्षेत्र पर लक्ष्मीकर्ण का अधिकार हो गया और उसने वहाँ एक विशाल मंदिर (कर्णमेरु) की स्थापना की। यही नहीं, लक्ष्मीकर्ण ने कन्नौज होते हुए कीर अर्थात् हिमांचल प्रदेश की तलहटियों में स्थित कांगड़ा तक के प्रदेशों को जीत लिया। किंतु बाद में लक्ष्मीकर्ण को गुजरात के सोलंकी राजा प्रथम भीम (1024-1064 ई.), कल्याणी के चालुक्य राजा सोमेश्वर प्रथम (1042-1068 ई.) और चंदेल राजा कीर्तिवर्मा (1060-1100 ई.) के संयुक्त आक्रमणों का सामना करना पड़ा और उत्तर प्रदेश के अधिकृत क्षेत्र उसके हाथों से निकल गये। संभवतः मध्य और दक्षिण-पश्चिम की विभिन्न राजनीतिक शक्तियों के बीच चलने वाली इसी आपसी प्रतिद्वंद्विता के परिणामस्वरूप उत्पन्न राजनीतिक अराजकता का लाभ उठाकर चंद्रदेव ने स्वतंत्र गहड़वाल राज्य की स्थापना की थी।

यशोविग्रह और महीचंद्र

गहड़वाल वंश में सबसे पहला नाम यशोविग्रह का मिलता है, जो संभवतः कलचुरि शासक कर्ण के अधीन कन्नौज का कोई अधिकारी था क्योंकि उसके नाम के साथ कोई राजकीय उपाधि नहीं मिलती है।

यशोविग्रह का पुत्र महीचंद्र अथवा महीतल या महीयल था। गोविंदचंद्र के अभिलेखों में उसकी उपाधि ‘नृप’ मिलती है और उसे ‘शत्रुसमूह’ (अरिचक्र) को जीतने का श्रेय दिया गया है (अभून्नृपगहड़वालवंशे महीतलनामा जितारिचक्रः)। किंतु यह कहना कठिन है कि उसने शत्रुसमूह को एक स्वतंत्र राजा की हैसियत से पराजित किया था या अथवा किसी अन्य शासक की ओर से। महीचंद्र की ‘नृप’ उपाधि से लगता है कि वह संभवतः कलचुरियों की अधीनता स्वीकार करता था।

गहड़वाल वंश का राजनीतिक इतिहास

चंद्रदेव (लगभग 1089-1104 ई.)

गहड़वाल वंश की स्वतंत्र सत्ता का वास्तविक संस्थापक महीचंद्र का पुत्र चंद्रदेव था। चंद्रदेव के चार दानपत्र अभिलेख मिले हैं, जिनसे प्रमाणित होता है कि काशी और अयोध्या जैसे प्रमुख नगरों सहित गंगा और सरयू (घाघरा) नदियों के किनारों के प्रदेश उसके अधिकार में थे। ऐसा लगता है कि मूलतः इन्हीं प्रदेशों को आधार बनाकर उसने अपनी राजनीतिक सत्ता का विस्तार प्रारंभ किया और अंत में कन्नौज पर अपनी सत्ता स्थापित करने में सफल हुआ। गहड़वाल अभिलेखों में चंद्रदेव को ‘परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर, श्रीचंद्रदेव अथवा चंद्रादित्यदेव’ जैसी उपाधियों से अलंकृत किया गया है।

चंद्रदेव के पुत्र मदनपाल और पौत्र गोविंदचंद्र के 1104 ई. के बसही अभिलेख में कहा गया है कि ‘भोज की मृत्यु और कर्ण के यशमात्र शेष रह जाने के बाद विपत्तिग्रस्त पृथ्वी ने चंद्रदेव नामक राजा को विश्वासपूर्वक अपना रक्षक चुना’-

याते श्रीभोजभूपे विवुधवरबधूनेत्रसीमातिथित्वम्,

श्रीकर्णे कीर्तिशेषे गतवति चनृपे क्ष्मात्यये जायमाने।

भर्त्तारं यं धरित्री त्रिदिव विधुनिभ प्रीतिर्योबादुपेता।।

त्राता विश्वासपूर्ण समभवदिह स क्ष्मापनिश्चंद्रदेवः।।

इससे स्पष्ट है कि चंद्रदेव को कर्ण की मृत्यु (1072-1073 ई.) के बाद ही अपनी सत्ता के विस्तार का अवसर मिला और उसने अपनी वीरता से कान्यकुब्ज पर अधिकार कर लिया (निजभुजोपर्जित कान्यकुब्जाधिपत्य श्रीचंद्रदेवः)। संभवतः बार-बार होने वाले तुर्क आक्रमणों को ही बसही अभिलेख के अनुसार ‘पृथ्वी विपत्तिग्रस्त’ हो गई थी।

चंद्रदेव ने तुर्क आक्रमणों के कारण दोआब में व्याप्त अव्यवस्था और अराजकता का अंत कर काशी (वाराणसी), कुशिक (कान्यकुब्ज) उत्तर कोसल (अयोध्या) और इंद्रस्थानीय (दिल्ली-इंद्रप्रस्थ) के सभी पार्श्ववर्ती क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया- (तीर्थानिकाशीकुशिकोत्तरकोशलेन्द्रस्थानीयकानि परिपालयताधिगम्य)।

अपनी सत्ता-विस्तार के क्रम में चंद्रदेव को अन्य अनेक राजाओं से भी संघर्ष करना पड़ा। चंद्रदेव के चंद्रावती लेख (1093 ई.) में कहा गया है कि उसने नरपति, गजपति, गिरिपति एवं त्रिशंकुपति की विजय की थी। इनमें प्रथम दो- नरपति और गजपति कलचुरि शासकों की उपाधियाँ थीं, जिससे पता चलता है कि चंद्रदेव ने कलचुरि नरेश लक्ष्मीकर्ण के पुत्र यशःकर्ण को पराजित कर अंतर्वेदी (गंगा-यमुना के दोआब) के प्रदेश को जीत लिया था। किंतु गिरिपति और त्रिशंकुपति की पहचान स्पष्ट नहीं है। यह भी स्पष्ट रूप से ज्ञात नहीं है कि चंद्रदेव ने कन्नौज किससे जीता था। आर. एस. त्रिपाठी का अनुमान है कि चंद्रदेव ने कन्नौज को गोपाल नामक राजा से छीना था, जिसे बदायूँ तथा सेत-महेत लेखों में ‘कन्नौज का राजा’ (गाधिपुराधिप) कहा गया है। कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि चंद्रदेव ने कदाचित् चंदेल राजा सल्लक्षणवर्मा को हराया था, जिसका अंतर्वेदि पर अधिकार करने का प्रयत्न मदनवर्मा के मऊ अभिलेख में उल्लिखित है।

उत्तर में चंद्रदेव का दिल्ली-इंद्रप्रस्थ तक के क्षेत्रों पर अधिकार था। माना जाता है कि दिल्ली में उस समय तक तोमर स्थापित हो चुके थे और अपनी नवोदित शक्ति बचाने के लिए उन्होंने गहड़वालों की अधिसत्ता स्वीकार कर ली थी। पंचाल (पश्चिमी उत्तर प्रदेश) चंद्रदेव के प्रशासित क्षेत्रों में निश्चय ही सम्मिलित था।

पूर्व दिशा में चंद्रदेव का पालों और सेनों से भी संघर्ष होने की सूचना मिलती है। उसके अभिलेखों से ज्ञात होता है कि उसने पूर्व में अपनी सेनाएँ भेजी थी। पाल शासक रामपाल के सामंत भीमयशस् (पीठी के शासक) को ‘रामचरित’ में ‘कान्यकुब्ज-राजबाजीनीगंठन भुजंगः’ कहा गया है। इससे अनुमान किया जाता है कि रामपाल के विरुद्ध मगध की ओर अपना प्रसार करने में चंद्रदेव को सफलता नहीं मिली और उसे पाल सामंत भीमयशस् से पराजित होना पड़ा। किंतु यह निश्चित नहीं है कि भीमयशस् ने जिस कान्यकुब्ज के राजा को पराजित किया था, वह चंद्रदेव ही था क्योंकि ‘रामचरित’ में एक अन्य स्थान पर ‘चंद्र’ नामक किसी राजा की इसलिए प्रशंसा की गई है कि उसने विजयसेन के विरुद्ध पाल राजा की सहायता की थी। इस ‘चंद्र’ की पहचान चंद्रदेव गहड़वाल से करके उसके विजयसेन से भी संघर्षरत होने का अनुमान किया जाता है। किंतु यहाँ भी ‘चंद्र’ की चंद्रदेव से पहचान सर्वमान्य नहीं है। इस प्रकार स्पष्ट प्रमाणों के अभाव में पूर्व दिशा (मगध) में चंद्रदेव के सैनिक अभियानों के संबंध में निश्चितता के साथ कुछ कह पाना संभव नहीं है।

चंद्रदेव के उत्तराधिकारी मदनपाल का उल्लेख करने वाला प्रथम अभिलेख 1104 ई. का है। इससे लगता है कि चंद्रदेव की मृत्यु 1103 ई. के लगभग हुई होगी और इसी समय मदनपाल ने राजगद्दी प्राप्त की होगी।

मदनपाल या मदनचंद्र (लगभग 1104-1014 ई.)

चंद्रदेव का पुत्र और उत्तराधिकारी मदनपाल या मदनचंद्र हुआ। मदनपाल के समय के कुल पाँच अभिलेख मिले हैं, जिनमें तीन अभिलेख तो उसके पुत्र (महाराजपुत्र) और युवराज गोविंद्रचंद्र के हैं, और चौथे में उसकी रानी पृथ्वीसीका के दान का उल्लेख है। इसलिए केवल पाँचवाँ दानपत्र ही मदनपाल का निजी अभिलेख माना जा सकता है। इसमें उसे परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर की पूर्ण साम्राज्यसूचक उपाधियाँ दी गई हैं। गहड़वाल शासक मदनचंद्र आयुर्वेद का ज्ञाता था।

किंतु मदनपाल के समय उसके पुत्र गोविंद्रचंद्र ने जिन अभिलेखों को प्रकाशित किया, उनमें यह कहा गया है कि दान हेतु उसने जागुक नामक पुरोहित, बाल्हन अथवा गाँगेय नामक महत्तक, गौतम प्रतिहार और रानी राल्हादेवी की भी अनुमति प्राप्त की थी। इस आधार पर इतिहासकारों का अनुमान है कि मदनपाल नाममात्र का ही शासक था और शासन की वास्तविक सत्ता एक संरक्षक समिति के हाथ में थी, जिसमें पुरोहित जागुक, महत्तक बाल्हन अथवा गाँगेय, प्रतिहार गौतम और राल्हादेवी सम्मिलित थीं।

मदनपाल के समय तुर्क आक्रमणकारियों ने लाहौर के पूर्व दूर-दूर तक आक्रमण किया और कन्नौज पर अधिकार कर लिया था। तबकाते नासिरी से पता चलता है कि सुल्तान मसूद तृतीय  (1099-1115 ई.) के समय हाजी तुगातिगिन गंगा नदी पारकर उन स्थानों तक चढ़ गया जहाँ सुल्तान महमूद को छोड़कर अन्य कोई सेना लेकर नहीं पहुँच सका था। दीवाने-सल्माँ से ज्ञात होता है कि उसने राजा मल्ही (मल्हीर) को बंदी बना लिया था, जिसकी पहचान कन्नौज के गहड़वाल राजा मदनपाल से की जा सकती है। 1104 ई. के बसही अभिलेख से स्पष्ट है कि उस वर्ष तक मदनपाल कन्नौज से ही शासन करता था। सल्माँ ने मल्ही को हिंद का राजा और कन्नौज को हिंद की राजधानी बताया है।

मदनपाल को महाराजपुत्र गोविंदचंद्र ने कड़े संघर्ष के बाद तुर्क आक्रमणकारियों से मुक्त कराया था। राहन लेख (1109 ई.) में कहा गया है कि बारंबार वीरता प्रदर्शित करते हुए उसने अपने युद्ध कौशल से हम्मीर को शत्रुता त्यागने के लिए विवश कर दिया था (हम्मीरन्यस्तवैर मुहुर्मुहुःरणक्रीडया यो विधत्ते)। यहाँ ‘हम्मीर’ से तात्पर्य अरबी ‘अमीर’ से है, जो संभवत मसूद तृतीय का कोई सेनापति अथवा पदाधिकारी रहा होगा। डॉ. हेमचंद्रराय का विश्वास है कि उसने अपने को छुड़ाने के लिए मुक्तिधन दिया था। महासांधिविग्रहिक लक्ष्मीधर के ‘कृत्यकल्पतरु’ में कहा गया है कि गोविंदचंद्र ने हम्मीर-वीर को एक असमान युद्ध में मार डाला था। किंतु इन दोनों उल्लेखों का प्रसंग अलग-अलग प्रतीत होता है, इसलिए इस संबंध में स्पष्ट रूप से कुछ कहना संभव नहीं है।

राहन अभिलेख तथा ‘कृत्यकल्पतरु’ की एक दूसरे से मिलती-जुलती हुई सूचनाएँ हैं कि गोविंदचंद्र ने पाल शासक (रामपाल) के हाथियों की पाँतों को वीरतापूर्वक चीर डाला था। किंतु किसी प्रमाण के अभाव में यह स्पष्ट नहीं है कि यह युद्ध प्रतिरक्षात्मक था या आक्रमणात्मक। ऐसा लगता है कि पालों ने मदनपाल के समय गहड़वाल राज्य पर आक्रमण किया था, किंतु गोविंदचंद्र की वीरता के सामने वे टिक नहीं सके।

मदनपाल के शासनकाल का अंतिम अभिलेख 1109 ई. का मिलता है और स्वतंत्र शासक के रूप में गोविंदचंद्र का कमौली से मिलनेवाला प्रथम ज्ञात अभिलेख 1114 ई. का है। अतः मदनपाल की मृत्यु 1114 ई. के लगभग हुई होगी।

गहड़वाल राज्य का विस्तार

गोविंदचंद्र (लगभग 1114-1154 ई.)

मदनपाल के बाद उसकी रानी राल्हादेवी से उत्पन्न पुत्र गोविंदचंद्र 1114 ई. में गहड़वाल वंश की गद्दी पर बैठा। गोविंदचंद्र गहड़वाल इस वंश का सर्वाधिक योग्य और शक्तिशाली शासक था। वह राजपुत्र अथवा महाराजपुत्र (युवराज) के रूप में अपने पिता के समय प्रशासन के सभी कार्यों से परिचित हो चुका था और गहड़वाल राज्य पर होने वाले तुर्क और पाल आक्रमणों का सामना कर चुका था।

गोविंदचंद्र की राजनीतिक और सांस्कृतिक उपलब्धियों के सूचक लगभग 40-42 अभिलेख पश्चिमी बिहार से लेकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक के विभिन्न स्थानों से मिले हैं, जिनमें अधिकांश बनारस और उसके आसपास के पूर्वी उत्तर प्रदेश के क्षेत्रों से पाये गये हैं।

गोविंदचंद्र की सैनिक उपलब्धियाँ

गोविंदचंद की रानी कुमारदेवी के अतैथिक सारनाथ अभिलेख में कहा गया है कि ‘दुष्ट तुरुष्क वीर से वाराणसी की रक्षा करने के लिए हर (शंकर) द्वारा नियुक्त मानो हरि (विष्णु) का ही वह अवतार था-

वाराणसी भुवनरक्षणदक्षएको दुष्टात्तुरुष्कसुभटादवितुं हरेण।

उक्तोहरिः स पुनरत्र बभूव तस्मात् गोविन्दचन्द्र इति प्रथिताभिधानः।।

किंतु तुर्कों के विरुद्ध यह युद्ध उसने संभवतः युवराज के रूप में ही लड़ा था क्योंकि मसूद तृतीय के बाद कन्नौज, वाराणसी अथवा गहड़वाल क्षेत्र के अन्य किसी स्थान पर तुर्कों के किसी भी आक्रमण की सूचना नहीं मिलती है।

सिंहासनारोहण के बाद गोविंदचंद्र ने पश्चिम में तुर्क आक्रमणकारियों के संभावित आक्रमणों से अपने राज्य की रक्षा करने के लिए उसने प्रतिरक्षात्मक नीति का पालन किया। किंतु गहड़वाल राज्य की सीमाओं के विस्तार के लिए उसने पूर्व, दक्षिण और उत्तर की ओर आक्रमक नीति का सहारा लिया और अपनी सैनिक विजयों के द्वारा कन्नौज के प्राचीन गौरव को पुनः स्थापित किया।

सरयूपार की विजय

गोविंदचंद्र की सैनिक विजयों का तिथिक्रम निश्चित करना कठिन है। चंद्रदेव और मदनपाल के समय गहड़वाल क्षेत्रों का विस्तार वाराणसी से उत्तर अयोध्या और पूर्वी उत्तर प्रदेश के उन क्षेत्रों तक सीमित था, जो घाघरा नदी के दक्षिणी किनारे पर पड़ते हैं। उसके उत्तरी भागों की विजय गोविंदचंद्र ने की।

पालि अभिलेख (1114 ई.) में कहा गया है कि गोविंदचंद्र ने ‘नवराज्यगज’ पर अधिकार किया था। यद्यपि नवराज्यगज के वास्तविक तादात्म्य के संबंध में विवाद है, फिर भी, अभिलेख के प्राप्तिस्थान और उसमें वर्णित स्थान पालि और ओण्वल को घाघरा नदी के उत्तर गोरखपुर के धुरियापार में स्थित पाली और उनवल नामक गाँवों से समीकृत किया जा सकता है। इस अभिलेख में प्रयुक्त ‘सरवार’ शब्द का सरयूपार का ही रूपांतर प्रतीत होता है। संभवतः गोविंदचंद्र की घाघरा के उत्तर के क्षेत्रों (सरयूपार) की विजयों को ही एक नये राज्य (नवराज्यगज) के रूप में स्वीकार किया गया है। 1111 ई. के गोरखपुर से प्राप्त एक अन्य लेख में ‘दरदगंडकी देश’ (घाघरा तथा बड़ी गंडक के बीच स्थित प्रदेश) के शासक कीर्त्तिपाल की चर्चा मिलती है। संभवतः गोविंदचंद्र ने कीर्त्तिपाल को 1111 ई. और 1114 ई. के बीच पराजित करके पूर्वोत्तर में अपनी राज्य-सीमा बड़ी गंडक तक बढ़ाई थी। गोविंदचंद्र के 1146 ई. के लार (देवरिया) लेख से भी पता चलता है कि उसने सरयूपार के क्षेत्रों में ब्राह्मणों को भूमिदान में दिया था।

पश्चिमी और मध्य बिहार पर अधिकार पूर्वी भारत अर्थात् बिहार और बंगाल में इस समय पाल राजाओं का शासन था। 1109 ई. के राहन अभिलेख से पता चलता है कि गोविंदचंद्र का पालों से संघर्ष रामपाल के समय ही प्रारंभ हो गया था। यद्यपि पाल शासक रामपाल (1084-1126 ई.) ने पालों की गिरती हुई प्रतिष्ठा को पुनर्स्थापित करने का भरसक प्रयत्न किया, किंतु उसके शासन के अंतिम वर्षों में पाल सत्ता का अवसान होने लगा था। गोविंदचंद्र के कुछ लेखों से संकेत मिलता है कि संभवतः राजा बनने के बाद गोविंदचंद्र ने बिहार के कुछ पाल क्षेत्रों को भी जीत लिया था। पटना-दानापुर क्षेत्र के मनेर नामक गाँव से 1124 ई. का गोविंदचंद का एक लेख मिला है, जिससे पता चलता है कि उसने मणिवारी पत्तला (पटना) के गुणाव और पडाली नामक गाँवों को गणेश्वर शर्मा नामक ब्राह्मण को दान दिया था। इसी प्रकार 1146 ई. का उसका एक अन्य लेख देवरिया के लार से मिला है, जिससे ज्ञात होता है कि उसने मुद्गगिरि (मुंगेर) में निवास के दौरान सरुवार स्थित गोविसालक के पंदल-पत्तला में स्थित पोटाचवाड नामक गाँव ठक्कुर श्रीधर नामक ब्राह्मण को दान दिया था। इससे स्पष्ट है कि 12वीं शती के दूसरे दशक में गहड़वाल राज्य की सीमा पटना तक और उसके चौथे दशक में मुंगेर (उत्तर-पूर्वी बिहार) तक पहुँच चुकी थी। संभवतः गोविंदचंद्र ने पटना का क्षेत्र पाल नरेश रामपाल से जीता था, जो 1126 ई. के आसपास पाल शासक था, किंतु पटना के पूर्वोत्तर का मुंगेर क्षेत्र मदनपाल से छीना रहा होगा।

जो भी हो, लगता है कि मुंगेर क्षेत्र पर गोविंदचंद्र का अधिकार स्थायी नहीं रह सका और मदनपाल ने पुनः उस पर अपना अधिकार कर लिया, जो वहाँ से प्राप्त होने वाले उसके शासन के 14वें और 18वें वर्ष के दो अभिलेखों से प्रमाणित है। इस प्रकार संभवतः गोविंदचंद्र की मृत्यु के बाद मुंगेर के आसपास के क्षेत्र गहड़वालों के हाथों से निकलकर पालों के अधिकार में चले गये।

कलचुरि क्षेत्रों की विजय

यह सही है कि कलचुरि साम्राज्य के भग्नावशेषों पर ही गहड़वाल राज्य का निर्माण हुआ था और चंद्रदेव ने यमुना नदी के किनारे जिन राजाओं को परास्त किया था, उनमें संभवतः लक्ष्मीकर्ण का पुत्र यशःकर्ण भी था। गोविंदचंद्र ने भी कलचुरियों को पराजित कर गोविंदचंद्र ने यमुना अैर सोन नदियों के बीच स्थित उनके कुछ प्रदेशों पर अधिकार किया था क्योंकि गोविंदचंद्र के 1120 ई. के एक अभिलेख से पता चलता है कि उसने करंड और करंडतल्ल नामक दो गाँवों को ठक्कुर वसिष्ठ नामक ब्राह्मण को दान दिया था, जिनको इसके पहले कलुचुरि यशःकर्ण ने राजगुरु रुद्रशिव को दान दिया था (राजाश्रीयशःकर्णदेवेन राजगुरुशैवाचार्यभट्टारक श्री रुद्रशिवपास्योभिक्षत्वेन शासनीकृत्वा प्रदत्तम्)। इसी अभिलेख से ज्ञात होता है कि गोविंद्रचंद्र ने इसी समय कलुचुरियों की ‘अश्वपति नरपति गजपति राजत्रयाधिपति’ उपाधि को अपनी अन्य उपाधियों के साथ जोड़ा था। यही नहीं, गोविंदचंद्र ने कलुचुरियों के सिक्कों की बनावट का अनुकरण कर ‘बैठी हुई लक्ष्मी’ शैली वाले सोने, ताँबे और चाँदी के साथ अन्य मिश्रित धातुओं के सिक्के भी चलाये। उसके पूर्व के गहड़वाल सिक्के सोने के न होकर ताँबे और मिश्रित धातुओं के ही होते थे और उनकी बनावट ‘वृषभ-अश्वारोही’ शैली की थी। इससे स्पष्ट है कि उसने अपने को कलचुरि साम्राज्य का उत्तराधिकारी मानकर कलचुरि-उपाधि और मुद्रा-प्रणाली को अपना लिया था।

दशार्ण की विजय

नयचंद्रकृत ‘रंभामंजरी’ नाटक में गोविंदचंद्र को दशार्ण विजय का श्रेय दिया गया है। दशार्ण से आशय पूर्वी मालवा प्रदेश से है, जहाँ पहले परमार वंश का शासन था। संभवतः परमार शासक यशोवर्मा को पराजित कर गोविंदचंद्र ने दशार्ण पर अधिकार किया था। दशार्ण विजय के दिन ही उसे अपने पौत्र के जन्म की सूचना मिली थी, इसलिए उसने अपने पौत्र का नाम जयचंद्र रखा था।

किंतु पूर्वी मालवा तक जाने के लिए गोविंदचंद्र को चंदेलों के राज्य-क्षेत्र पार करना पड़ा होगा। उसके समकालीन चंदेल शासक जयवर्मा (1115-1120 ई.), पृथ्वीवर्मा (1120-1129 ई.) और मदनवर्मा (1129-1163 ई.) थे। चूंकि दशार्ण की विजय और जयचंद्र के जन्म की सूचना नयचंद्र के रंभामंजरी से मिलती है। इससे लगता है कि पूर्वी मालवा (दशार्ण) की विजय के लिए जाते समय उसका चंदेल मदनवर्मा से ही संघर्ष हुआ होगा। किंतु किसी स्पष्ट स्रोत के अभाव में गोविंदचंद्र के इन अभियानों का समय निश्चित नहीं किया जा सका है।

गोविंदचंद्र का अन्य राज्यों से संबंध

गोविंदचंद्र एक विजेता होने के साथ-साथ महान् कूटनीतिज्ञ भी था। उसने पाल, चंदेल, चोल, कलचुरि, चौलुक्य और कश्मीर के शासकों के साथ मैत्री-संबंध स्थापित किया था। गोविंदचंद्र ने तुर्क आक्रमणों से अपने राज्य की रक्षा के लिए पहले पालों और उनके सामंतों से मैत्री-संबंध सुदृढ़ करने के उद्देश्य से पीठी के चिक्कोरवंशी देवरक्षित की पुत्री और रामपाल के मामा मथनदेव राष्ट्रकूट की दौहित्री कुमारदेवी से विवाह किया था। इस वैवाहिक संबंध से उसे सरयूपार के क्षेत्रों की विजय में सहायता मिली होगी।

1114 ई. के रतनपुर लेख से पता चलता है कि तुम्माण के कलचुरि शासक जाज्जलदेव प्रथम (1109-1124 ई.) को, जो पहले त्रिपुरी के कलचुरियों के अधीन था, को गोविंदचंद्र ने अपनी ओर मिला लिया था। संभवतः यही कारण है कि जब गोविंद्रचंद्र ने यमुना और सोन के बीच के कलचुरि क्षेत्रों पर अधिकार करना आरंभ किया, तो जाज्वलजदेव ने अपने स्वामी त्रिपुरी के कलचुरि शासक गयाकर्ण की कोई सहायता नहीं की।

इस प्रकार जब दक्षिण और उत्तर में अपनी सीमाओं को विस्तार कर गोविंदचंद्र ने पर्याप्त शक्ति अर्जित कर ली, तो उसे पालों की मित्रता की कोई आवश्यकता नहीं रही। फलतः उसने अपने वैवाहिक संबंध और मित्रता को दरकिनार कर पाल राज्य पर आक्रमण करना प्रारंभ कर दिया और धीरे-धीरे पटना तथा मुंगेर तक के पाल क्षेत्रों को हड़प लिया। संभवतः गोविंदचंद्र का चंदेल नरेश मदनवर्मा से भी मित्रता थी, क्योंकि परमार और कलचुरि दोनों ही गहड़वालों और चंदेलों के शत्रु थे।

चोलराज प्रथम कुलोतुंग के शासन के 41वें वर्ष (1110-11 ई.) के त्रिचनापल्ली स्थित कोंडचोल्लपुरम् से प्राप्त एक अभिलेख के नीचे एक अपूर्ण लेख में यशोविग्रह से चंद्रदेव तक गहड़वालवंशी शासकों की वंशावली मिलती है। हेमचंद्रराय का अनुमान है कि कलचुरियों के प्रति समान शत्रुता के कारण गहड़वालों और चोलों के बीच परस्पर मैत्री संबंध स्थापित हुआ था।

मेरुतुंग के ‘प्रबंधचिंतामणि’ से पता चलता है कि अन्हिलवाड़ के चौलुक्य राजा जयसिंह सिद्धराज ने काशी के राजा के दरबार में एक दूत भेजा था। किंतु जयसिंह सिद्धराज (1094-1143 ई.) का समकालीन काशिराज जयचंद्र (1170-1194 ई.) न होकर गोविंदचंद्र (1114-1154 ई.) ही रहा होगा। चौलुक्य-गहड़वाल मित्रता संभवतः कुमारपाल के समय तक चलती रही क्योंकि कुमारपाल ने जीवहिंसा बंद कराने के लिए अपने दूतों को काशी भेजा था।

कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ से पता चलता है कि कश्मीर का राजा जयसिंह (1128-1149 ई.) भी कान्यकुब्ज के राजा का मित्र था। यही नहीं, जयसिंह के महासांधिविग्रहिक मंख कवि के ‘श्रीकंठचरित’ से ज्ञात होता है कि जयसिंह के मंत्री अलंकार ने कश्मीरी पंडितों और अधिकारियों की एक संगोष्ठी का आयोजित की थी, जिसमें गोविंदचंद्र ने अपने प्रतिनिधि के रूप में सुहल को भेजा था (अन्यः स सुहलस्तेन ततोवन्द्यतपण्डितः दूतो गोविंदचंद्रस्य कान्यकुब्जस्य भूभुजः)।

इस प्रकार अपने राजनयिक संबंधों द्वारा गोविंदचंद्र ने न केवल अपनी स्थिति सुदृढ़ की, बल्कि गहड़वाल राज्य का विस्तार भी किया। गोविंदचंद्र के अनेक दान-पत्र और सिक्के इस बात के गवाह हैं कि उसके समय में कन्नौज पुनः एक महत्त्वपूर्ण नगर बन चुका था। गोविंदचंद्र ने कलचुरियों के सिक्कों का अनुकरण कर सोने, चाँदी, ताँबे और मिश्रित घातुओं के ‘बैठी हुई लक्ष्मी’ शैली के सिक्के ढलवाये। इसके पूर्व के गहड़वाल सिक्के सोने के न होकर ताँबे और मिश्रित धातुओं के ही होते थे और उनकी बनावट ‘वृषभ-अश्वारोही’ शैली की थी। गोविंदचंद्र के मनेर ताम्रलेख में ‘तुरुष्कदंड’ कर का उल्लेख मिलता है।

विद्या और साहित्य

गोविंदचंद्र के समय कन्नौज का राजदरबार हर्षवर्धन और महेंद्रपाल प्रतिहार के समय की ही तरह पुनः एक बार विद्या, संस्कृति और साहित्यिक क्रियाकलापों का केंद्र हो गया। गोविंदचंद्र को उसके लेखों में ‘विविधविद्याविचारवाचस्पति’ कहा गया है, जो उसके शास्त्रनैपुण्य और विद्वता का परिचायक है। उसका महासांधिविग्रहिक लक्ष्मीधर भी शास्त्रों का ज्ञाता था, जिसने गोविंदचंद्र के आग्रह पर ‘कृत्यकल्पतरु’ नामक ग्रंथ लिखा है (महाराजाधिराज श्री गोविंदचंद्रदेवेनादिष्टेन श्री लक्ष्मीधर भट्टेन विरचितम्)। यह ग्रंथ चौदह अध्यायों (कल्पतरुओं) में विभक्त है और प्रत्येक अध्याय को ‘कल्पतरु’ कहा गया है। इस ग्रंथ में ‘राजधर्मकल्पतरु’ तथा ‘व्यवहारकल्पतरु’ क्रमशः राजनीति एवं विधि से संबद्ध हैं। लक्ष्मीधर को ‘मंत्र महिमा का आश्चर्य’ कहा गया है-

राज्ञां मूर्द्धानि यत्पादं व्यरचदगोविंदचंद्रनृपः।

                          तत्सर्वं खलु यस्य मन्त्रमहिनाश्चर्य सः लक्ष्मीधरः। कृत्यकल्पतरु

गोविंदचंद्र के एक अभिलेख के अनुसार उसने सूर्य, शिव, वासुदेव आदि देवताओं की पूजा की थी। कुमारदेवी के सारनाथ लेख में गोविंदचंद्र को ‘विष्णु का अवतार’ कहा गया है। उसने उत्कल के बौद्ध भिक्षु शाक्यरक्षित तथा चोल देश के उनके शिष्य वागेश्वररक्षित का सम्मान करने के लिए उनके द्वारा संचालित जेतवन विहार को गाँव दान में दिया था। गोविंदचंद्र की रानी कुमारदेवी बौद्ध धर्म की अनुयायी थी, जिसने सारनाथ में धर्मचक्र जिनविहार का निर्माण कराया।

विजयचंद्र (लगभग 1155-1169 ई.)

गोविंदचंद्र के तीन पुत्र थे, जिनमें सबसे बड़़ा आस्फोटचंद्र था, जिसे 1134 ई. के एक अभिलेख में ‘समस्तराजक्रियोपेत’ (प्रशासन के सभी कार्यों से संबद्ध) और युवराज (यौवराज्याभिषिक्त) कहा गया है। उसके छोटे भाई राज्यपालदेव की सूचना 1142 ई. के एक अन्य अभिलेख से मिलती है। किंतु इन दोनों की या तो पिता के समय में ही असमय मृत्यु हो गई या उन्हें विजयचंद्र ने उन्हें उत्तराधिकार युद्ध में पराजित कर मार डाला। इस प्रकार गोविंदचंद्र का उत्तराधिकारी उसका पुत्र विजयचंद्र हुआ, जिसे साहित्यिक ग्रंथों में विजयपाल अथवा मल्लदेव भी कहा गया है।

विजयचंद्र के केवल मात्र चार अभिलेख मिले हैं, जिनमें सबसे अभिलेख 1168 ई. का है। गोविंदचंद्र के समय का अंतिम अभिलेख 1954 ई. का मिला है। इससे यह अनुमान किया जाता है कि विजयचंद्र 1155 ई. के आसपास राज्यासीन हुआ होगा।

चंदबरदाई के ‘पृथ्वीराजरासो’ से ज्ञात होता है कि विजयचंद्र ने कटक के सोमवंशी राजा मुकुंददेव को पराजित किया, जिसके परिणामस्वरूप मुकुंददेव को अपनी पुत्री का विवाह जयचंद्र से करना पड़ा था। ‘पृथ्वीराजरासो’ में विजयचंद्र को दिल्ली के अनंगपाल और पट्टनपुर (अन्हिलवाड़) के भोला भीम को हराने तथा विंध्याचल के पार दक्षिण के अनेक देशों पर आक्रमण करने का श्रेय दिया गया है। किंतु चंदबरदाई ने विजयचंद्र द्वारा पराजित जिन शासकों का उल्लेख किया है, वे उसके समकालीन नहीं थे।

कटक या उड़ीसा में उस समय तक सोमवंशियों का शासन समाप्त हो चुका था और विजयचंद्र का समकालीन कटक का शासक गंगवंशी सप्तम कामार्णव (1147-1156 ई.) अथवा राघव (1156-1170 ई.) रहा होगा। दरअसल उड़ीसा के मुकुंददेव नामक किसी राजा की जानकारी नहीं है।

चौलुक्य शासक भोला भीम अर्थात् द्वितीय भीमदेव (1178-1241 ई.) भी विजयचंद्र का नहीं, बल्कि उसके पुत्र जयचंद्र का समकालीन था। इसके विपरीत हेमचंद्र के ‘द्वाश्रयकाव्य’ से पता चलता है कि कुमारपाल ने कान्यकुब्ज के राजा को आतंकित किया। संभवतः चहमानों द्वारा पराजित किये जाने के पहले दिल्ली तोमरों ने गहड़वालों से स्वतंत्र होने का प्रयत्न किया था और इसी प्रसंग में विजयचंद्र का अनंगपाल से संघर्ष हुआ था।

विजयचंद्र के पुत्र जयचंद्र के बनारस से प्राप्त 1168 ई. के कमौली अभिलेख में कहा गया है कि उसने ‘पृथ्वी का दलन करते हुये हम्मीर की स्त्रियों के आंखों के आसूओं से, जो बादलों से गिरते हुए जल के समान थे, पृथ्वी का कष्ट धो डाला’ (भुवनदलनहेलाहर्म्यहम्मीरनारी नयनजलधारा धौतभूलोकतापः)। यह हम्मीर (अमीर) संभवतः लाहौर के तुर्क शासक खुशरूशाह (1150-1160 ई.) अथवा खुशरूमलिक (1160-1186 ई.) का कोई सेनानायक था, जिसे गहड़वाल क्षेत्रों पर आक्रमण के दौरान गहड़वाल शासक ने पराजित किया था।’

उत्तर में तुरुष्क आक्रमण में विजयचंद्र की व्यस्तता का लाभ उठाकर पूरब में सेन राजकुमार लक्ष्मणसेन ने गहड़वाल राज्य पर आक्रमण कर दिया। लक्ष्मणसेन के माधाइनगर अभिलेख में कहा गया है कि उसने काशी नरेश को पराजित किया था (येनाऽसौ काशीराज भुविजिता)। किंतु लगता है कि लक्ष्मणसेन (अथवा विजयसेन या बल्लालसेन) को काशी पर अधिकार करने में सफलता नहीं मिली क्योकि कमौली लेख से पता चलता है कि काशी के ऊपर विजयचंद्र का अधिकार पूर्ववत् बना हुआ था। यही नहीं, बिहार में सहसराम के आसपास तक विजयचंद्र का अधिकार प्रमाणित होता है क्योंकि 1168-69 ई. के मिले ताराचंडी प्रतिमालेख से ज्ञात होता है कि वहाँ के कुछ ब्राह्मणों ने कान्यकुब्जराज श्रीविजयचंद्रदेव के देव नामक दास को घूस देकर कालाहंडी और वडपिला नामक गाँवों का दान गलत ढ़ंग से प्राप्त कर लिया था। श्रीविजयचंद्रदेव और कन्नौज के उल्लेख से स्पष्ट है कि कालाहंडी और वडपिला गाँवों पर गहड़वालों का 1169 ई. तक अधिकार बना हुआ था। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि इस क्षेत्र की विजय भी स्वयं विजयचंद्र ने ही की होगी क्योंकि गोविंदचंद्र की इस दिशा में विजय का कोई प्रमाण नहीं मिलता है।

किंतु विजयचंद्र के समय पश्चिम में गहड़वालों की सत्ता का ह्रास हुआ। चंद्रदेव के समय से ही दिल्ली के तोमर शासक गहड़वालों की अधिसत्ता स्वीकार करते थे, किंतु  शाकम्मरी के चाहमान शासक विग्रहराज (चतुर्थ) बीसलदेव (1153-1163 ई.) ने तोमरों  को अपने अधीन कर लिया। उसके दिल्ली-शिवालिक अभिलेख और सोमेश्वर के बिजोलिया अभिलेख से ज्ञात होता है कि विग्रहराज ने दिल्ली और हाँसी पर अधिकार कर लिया था। इस प्रकार विजयचंद्र के समय से गहड़वालों की अवनति प्रारंभ हो गई और गहड़वाल साम्राज्य की सीमाएँ संकुचित हो गईं।

जयचंद्र (1170-1194 ई.)

विजयचंद्र के बाद उसकी रानी चंद्रलेखादेवी से उत्पन्न पुत्र जयचंद्र जून, 1170 ई. में गहड़वाल राजगद्दी पर आसीन हुआ, जो भारतीय लोक साहित्य और कथाओं में जयचंद्र के नाम से प्रसिद्ध है। राजशेखर के अनुसार उसका नाम ‘जयंतचंद्र’ था। सिंहासनारोहण के पहले जयचंद्र जून, 1168 ई. से ही युवराज के रूप में प्रशासन से संबद्ध था। उसके राज्यकाल के 16 अभिलेख मिले हैं, और उसके संबंध में चंदबरदाईकृत ‘पृथ्वीराजरासो’, विद्यापतिकृत ‘पुरुषपरीक्षा’ और मेरुतुंगकृत ‘प्रबंधचिंतामणि’ जैसे ग्रंथों से सूचनाएँ मिलती हैं।

जयचंद्र की उपलब्धियाँ और अन्य राज्यों से संबंध

यह सही है कि जयचंद्र को उत्तराधिकार में एक विशाल साम्राज्य प्राप्त हुआ था, जो शक्ति एवं संसाधनों की दृष्टि से अत्यंत संपन्न था। मुस्लिम स्रोतों से पता चलता है कि कन्नौज तथा वाराणसी का वह सार्वभौम शासक था। मुसलमान इतिहासकार उसे भारत का सबसे बड़ा राजा बताते हैं, जिसका साम्राज्य चीन से लेकर मालवा तक फैला हुआ था। उसके पास एक विशाल सेना थी, जिसमें हाथी, घुड़सवार, धनुर्धारी और पदाति सैनिक सम्मिलित थे। चंद्रवरदाई के ‘पृथ्वीराजरासो’ से भी उसकी सेना की विशालता का पता चलता है। किंतु राजनीतिक सूझ-बूझ एवं दूरदर्शिता की कमी के कारण जयचंद्र अपने साम्राज्य की सुरक्षा नहीं कर सका।

जयचंद्र और परमर्दिदेव

नयचंद्रकृत ‘रंभामंजरी’ में जयचंद्र की भुजाओं की तुलना ‘मदनवर्मा की राज्यश्रीरूपी हाथी को बाँधने के लिए खंभ’ से की गई है, जिससे लगता है कि उसने मदनवर्मा को पराजित किया था। किंतु मदनवर्मा (1129-1163 ई.) और जयचंद्र (1170-1194 ई.) के समकालीन न होने के कारण इस विवरण की सत्यता संदिग्ध है। संभव है कि अपने पिता विजयचंद्र के समय में जयचंद्र ने युवराज के रूप में मदनवर्मा को पराजित किया रहा हो।

पृथ्वीराजरासो के आल्हाखंड से ज्ञात होता है कि चहमान पृथ्वीराज तृतीय ने चंदेल राजा परमर्दि (परमाल) को उसके बनाफर सामंतवीरों- आल्हा और ऊदल के साथ पराजित किया था, किंतु जयचंद्र ने पृथ्वीराज के विरुद्ध चंदेल शासक परमर्दि की सहायता की थी। पृथ्वीराज के 1183-84 ई. के मदनपुर अभिलेख से स्पष्ट है कि चहमानों ने परमर्दि के राज्य के कुछ भागों पर अधिकार कर लिया था। संभवतः परमर्दि का पितामह मदनवर्मा गहड़वाल शासक गोविंदचंद्र अथवा उसके पुत्र विजयचंद्र का मित्र रह चुका था और दिल्ली पर विग्रहराज (चतुर्थ) बीसलराज के अधिकार के कारण भी जयचंद्र की चहमानों से शत्रुता थी।

जयचंद्र और लक्ष्मणसेन

पूर्व दिशा में सेनवंशी राजा लक्ष्मणसेन जयचंद्र का प्रतिद्वंद्वी था। राजशेखर के ‘प्रबंधकोश’ से पता चलता है कि जयचंद्र (जयंतचंद्र) ने सेन राज्य पर आक्रमण तो किया, किंतु दोनों पक्षों में किसी की विजय अथवा पराजय के पूर्व ही वह काशी लौट आया। सहसराम के आसपास के क्षेत्रों पर 1169 ई. में विजयचंद्र का प्रशासकीय अधिकार था। 1175 ई. के जयचंद्र के शिवहर ताम्रफलकाभिलेख से पता चलता है कि उसने मारणपत्तला में दो गाँवों का दान किया था। जयचंद्र का बोधगया से प्राप्त 1183 और 1192 ई. के बीच का एक अन्य अभिलेख गया तक उसके अधिकार को प्रमाणित करता है। वहाँ उसे ‘काशी’ और ‘सैकड़ों राजाओं द्वारा सेवित’ (नृपशतकृतसेवः) बताया गया है। किंतु इन साक्ष्यों के विपरीत लक्ष्मणसेन और उसके पुत्र विश्वरूपसेन के अभिलेखों में कहा गया है कि लक्ष्मणसेन ने ‘काशिराज’ को पराजित किया और बनारस तथा प्रयाग में अपने विजय-स्तंभों की स्थापना की थी। डॉ. रमेशचंद्र मजूमदार जैसे अनेक विद्वान् इस ‘काशिराज’ की पहचान जयचंद्र से करते हैं और मानते हैं कि लक्ष्मणसेन ने गया के आसपास के कुछ क्षेत्रों को जयचंद्र से छीन लिया था। किंतु लगता है कि लक्ष्मणसेन ने इन क्षेत्रों की विजय जयंचंद्र की शिहाबुद्दीन गोरी से पराजय और हत्या के बाद की थी, उसके शासनकाल में नहीं। इस प्रकार जयचंद्र के समय गहड़वालों की पूर्वी सीमा में कोई संकुचन नहीं हुआ। मुसलमान विवरणों से स्पष्ट है कि गोरी के आक्रमण (1193-94 ई.) के समय जयचंद्र कान्यकुब्ज और वाराणसी का शासक था।

जयचंद्र और पृथ्वीराज तृतीय

पश्चिमोत्तर दिशा में शाकम्भरी-अजमेर के चाहमानों का राज्य जयचंद्र का सीमावर्ती क्षेत्र था। गहड़वाल शासक जयचंद्र और चहमान शासक पृथ्वीराज के संबंधों के बारे में अनेक अनुश्रुतियाँ प्रचलित हैं। चंदबरदाई के ‘पृथ्वीराजरासो’ में जयचंद्र की दिग्विजय, उसके राजसूय यज्ञ और संयोगिता के स्वयंवर की चर्चा है। स्वयंवर में पृथ्वीराज का आमंत्रित न किया जाना, संयोगिता का उसके प्रति प्रेम और पृथ्वीराज का छिपकर स्वयंवर स्थल पर उपस्थित होकर संयोगिता को भगा ले जाना आदि कथाएँ बहुत प्रसिद्ध हैं। यद्यपि ‘पृथ्वीराजरासो’ की ऐतिहासिकता को लेकर विद्वानों में सदैव मतभेद रहा है, फिर भी, अबुलफजल की ‘आइने अकबरी’, चंद्रशेखरकृत ‘सुर्जनचरित’ और जयानकभट्ट के ‘पृथ्वीराजविजय’ में रासो की कथाओं का उल्लेख मिलता है और यह ऐतिहासिक रूप से सत्य है कि जयचंद्र और पृथ्वीराज के बीच शत्रुता थी।

दरअसल जयचंद्र और पृथ्वीराज की शत्रुता का मूल कारण यह था कि दोनों एक-दूसरे को हटाकर तत्कालीन राजनीति में अपना प्रमुख स्थान बनाने के लिए प्रयत्नशील थे। वैसे भी, गहड़वालों और चहमानों के बीच शत्रुता गहड़वाल विजयचंद्र के समय से ही चली आ रही थी क्योंकि चहमान विग्रहराज (चतुर्थ) बीसलराज ने दिल्ली के तोमरों को गहड़वालों अधीनता से मुक्तकर उनको अपने अधीन कर लिया था। ऐसी स्थिति में जयचंद्र का पृथ्वीराज को स्वयंवर में निमंत्रित न करना स्वाभाविक ही था। संभवतः पृथ्वीराज ने जयचंद्र पर अचानक आक्रमण कर संयोगिता का अपहरण कर लिया, जिसके कारण राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता व्यक्तिगत शत्रुता में बदल गई। किंतु उत्तर भारत के दो प्रमुख राजाओं की यह व्यक्तिगत शत्रुता शिहाबुद्दीन गोरी के लिए वरदान गई।

गोरी के आक्रमण

12वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में उत्तर भारत के चार सर्वाधिक प्रमुख राज्य- गहड़वाल, चहमान, सोलकीं और चंदेल- जब आपस में ही लड़ रहे थे, गियासुद्दीन मुहम्मद और मुइजुद्दीन (शिहाबुद्दीन) गोरी के नेतृत्त्व में तुर्कों ने गजनी (1173 ई.), मुल्तान (1175 ई.), पेशावर (1179 ई.) और लाहौर (1187 ई.) पर अधिकार कर लिया। तुर्कों ने 1178 ई. में चौलुक्यों के राज्य पर भी आक्रमण किया, किंतु वहाँ के वीर राजा भीमदेव द्वितीय ने काशहद के मैदान में उन्हें बुरी तरह पराजित कर खदेड़ दिया। उस समय चाहमानों या गहड़वालों ने उसकी कोई सहायता नहीं की और अपनी शक्ति के अहंकार में एक-दूसरे से लड़ते रहे। ‘ताजुल मासिर’ से पता चलता है कि ‘अपनी बड़ी सेना और महान् वैभव के कारण पृथ्वीराज पर विश्व-विजय का भूत सवार था, किंतु जब आक्रमणकारियों से सामना हुआ तो अकेला ही रह गया और जयचंद्र तथा भीम तमाशा देखते रहे। तराइन की दूसरी लड़ाई (1192 ई.) में जब वह पराजित होकर मारा गया, तो ‘पृथ्वीराजप्रबंध’ के अनुसार जयचंद्र ने अपनी राजधानी में दीवाली मनाई थी। कुछ इतिहासकार तो जयचंद्र पर यह भी आरोप लगाते हैं कि उसने स्वयं शिहाबुद्दीन गोरी को पृथ्वीराज के राज्य पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया था।

गहड़वाल राज्य का पतन

पृथ्वीराज की पराजय और मृत्यु के बाद मुहम्मद गोरी ने 1194 ई. में जयचंद्र के राज्य पर भी आक्रमण किया। जयचंद्र को संभवतः अपनी ‘बालू के कणों की तरह अनगिनत जान पड़नेवाली’ लगभग 10 लाख सैनिकों और 700 हाथियों की सेना पर बड़ा भरोसा था। कुछ भारतीय ग्रंथों, जैसे- विद्यापतिकृत ‘पुरुषपरीक्षा’, नयचंद्रकृत ‘रंभामंजरी’ नाटक आदि से ज्ञात होता है कि जयचंद्र ने चंदावर के युद्ध के पूर्व मुहम्मद (शिहाबुद्दीन) गोरी को पहले कई बार हराया था। संभवतः तराइन की सफलता के बाद मुहम्मद गोरी के कुछ प्रारंभिक भावों के विरूद्ध जयचंद्र को एकाध बार सफलता मिली थी।

चंदावर का युद्ध (1194 ई.)

जयचंद्र और मुहममद गोरी की अंतिम मुठभेड़ 1194 ई. में चंदावर (एटा) के मैदान में हुई, जहाँ 50 हजार शस्त्रकवचधारी घुड़सवारों के साथ शिहाबुद्दीन ने जयचंद्र की विशाल सेना से सामना किया। युद्ध के प्रथम चरण में तुर्क आक्रांता बहुत भयभीत थे, किंतु हाथी पर सवार जयचंद्र की आँख में कुतुबुद्दीन का एक तीर लग जाने से वह नीचे गिर गया और मारा गया। फलतः जयचंद्र की सेना में भगदड़ मच गई और शिहाबुद्दीन गोरी की विजय हुई।

शिहाबुद्दीन ने कन्नौज से आगे बढ़कर असनी (फतेहपुर) के दुर्ग को भी लूटा, जहाँ जयचंद्र के राज्य का खजाना रखा हुआ था। यही नहीं, तुर्क सेनाओं ने बनारस में भी लूटपाट की और वहाँ के 1000 मंदिरों को धराशायी कर उनके स्थानों पर मस्जिदें बना दीं। इस प्रकार गहड़वाल राज्य का पतन हो गया।

किंतु ऐसा लगता है कि चंदावर के युद्ध और जयचंद्र की मृत्यु के बाद भी कुछ समय तक कन्नौज पर गहड़वालों की सत्ता बनी रही। गोरी सेनाओं ने संभवतः कन्नौज पर अधिकार नहीं किया। जौनपुर के मछलीशहर से जयचंद्र के पुत्र हरिश्चंद्र का एक दानपत्राभिलेख (1198 ई.) मिला है, जिसमें हरिश्चंद्र को ‘परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर परममाहेश्वर अश्वपति गजपति नरपति राजत्रयाधिपति विविधविद्याविचारवाचस्पति’ की उपाधि दी गई है। इससे स्पष्ट है कि जयचंद्र की मृत्यु के बाद उसके पुत्र हरिश्चंद्र ने कुछ समय तक कन्नौज पर स्वतंत्र रूप से शासन किया था और पमहई नामक गाँव दान में दिया था।

हरिश्चंद्र की स्वतंत्र राजनीतिक स्थिति की पुष्टि 1197 ई. के राणक श्रीविजयकर्ण के बेलखरा स्तंभ अभिलेख (मिर्जापुर) से भी होती है। किंतु इस लेख में कान्यकुब्ज के राजा का नाम न दिया जाना कान्यकुब्ज के आसपास की राजनीतिक स्थिति की अस्तव्यस्तता का सूचक है। फिर भी, इतना स्पष्ट है कि मिर्जापुर-वाराणसी-जौनपुर के क्षेत्रों पर हरिश्चंद्र का 1198 ई. तक शासन था। किंतु 1198 ई. के बाद कन्नौज काशी के गहड़वाल राज्य के किसी अन्य प्रतिनिधि के संबंध में कोई सूचना नहीं मिलती है।

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