वेंगी का (पूर्वी) चालुक्य राजवंश

वेंगी के (पूर्वी) चालुक्य (Vengi’s (Eastern) Chalukya)

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वेंगी के (पूर्वी) चालुक्य

वेंगी का प्राचीन चालुक्य राज्य मुख्यतः कृष्णा एवं गोदावरी नदियों के बीच के क्षेत्र में विस्तृत था। इसकी राजधानी वेंगी (वेंगिपुर) में थी जिसका समीकरण आंध्र प्रदेश के गोदावरी जिले में स्थित वर्तमान पेड्डवेगी से की जाती है।

वेंगी के चालुक्य वंश का उत्थान बादामी के चालुक्य वंश की ही एक शाखा के रूप में हुआ। वातापि (बादामी) के चालुक्य सम्राट पुलकेशिन् द्वितीय ने पूर्वी दक्षिणापथ (पूर्वी दक्कन) को सुव्यवस्थित एवं नियंत्रित करने के लिए अपने छोटे भाई कुब्ज (कुबड़ा) विष्णुवर्द्धन् को आंध्र राज्य का प्रांतपति (उपराजा) नियुक्त था। कालांतर में विष्णुवर्द्धन् ने अपनी शक्ति बढ़ाकर वेंगी को केंद्र बनाकर एक स्वतंत्र चालुक्य राज्य की स्थापना की, जिसे ‘वेंगी का चालुक्य राजवंश’ या ‘पूर्वी चालुक्य’ के नाम से जाना जाता है।

वेंगी के चालुक्य शासक अपने को पश्चिमी चालुक्यों की तरह मानव्यगोत्रिय, हारितिपुत्र तथा कार्तिकेय और सप्तमातृकाओं से जोड़ते हैं, साथ ही अपने को वे उन कदंबों और इक्ष्वाकुओं से भी जोड़ते हैं, जिनके अधिकार वाले भू-भाग को उन्होंने स्वयं अधिकृत किया था। किंतु उनकी पूरी वंशावली पुलकेशिन् द्वितीय के हैदराबाद वाले (613 ई.) अभिलेख में प्राप्त होती है।

वेंगी के पूर्वी चालुक्यों ने 7वीं शताब्दी से आरंभ करके 1075 ई. तक लगभग 460 वर्षों तक शासन किया। अपने उत्कर्ष काल में यह राज्य पूर्व में उड़ीसा के गंजाम जिले में महेंद्रगिरि तक, पश्चिम में आंध्र प्रदेश के नेल्लोर जिले में मन्नेरू नदी तक, उत्तर में भूतपूर्व हैदराबाद राज्य, बस्तर तथा मध्य भारत की सीमाओं तक और दक्षिण में बंगाल की खाड़ी तक विस्तृत था। इस प्रकार मोटे तौर पर इसमें उड़ीसा राज्य में आधुनिक गंजाम जिले का दक्षिणी भाग तथा आंध्र राज्य के विशाखापट्टनम, गोदावरी, कृष्णा, गुंटूर एवं नेल्लोर जिले सम्मिलित थे।

वेंगी के (पूर्वी) चालुक्यों का राजनीतिक इतिहास

विष्णुवर्द्धन्

वेंगी का प्रथम चालुक्य शासक विष्णुवर्द्धन् महापराक्रमी, कुशल सेनानायक तथा योग्य प्रशासक था। वह बहुत समय तक अपने भाई वातापी के पुलकेशिन द्वितीय के प्रति निष्ठावान बना रहा तथा उसकी ओर से विभिन्न युद्धों में भाग लिया। सतारा अभिलेख (617-18 ई.) में वह अपने को ‘युवराज’ तथा ‘बादामी के शासक का प्रिय’ कहता है। बाद में, जिस समय पुलकेशिन् द्वितीय पल्लव नरेश नरसिंहवर्मन् प्रथम के साथ भीषण युद्ध में व्यस्त था, उसी समय विष्णुवर्द्धन् ने वेंगी में अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी और विषमसिद्धि की उपाधि धारण की।

एक स्वतंत्र शासक के रुप में विष्णुवर्द्धन् ने कम से कम दो ताम्रपत्रों को उत्कीर्ण कराया था, जो विजिपट्टम से पाये गये हैं। लेखों से पता चलता है विष्णुवर्द्धन् ने अपने बाहुबल से महेंद्र पर्वत-श्रृंखला तक कलिंग को तथा पूर्वी समुद्रतटीय आंध्र प्रदेश को जीत लिया था और कलिंग का कुछ भाग उसके राज्य में अवश्य सम्मिलित था। बाद के एक अन्य अभिलेख से पता चलता है कि दक्षिण में विष्णुकुंडिन् वंश का माधव तृतीय या मंय्यण भट्टारक तथा कोंडपडुमटि वंश का शासक बुद्धराज उसके सामंत के रूप में शासन करते थे।

इसके अतिरिक्त, पुलकेशिन द्वितीय के कोप्परम् अनुदानपत्रों से पता चलता है कि उसने कर्मराष्ट्र (आंध्र प्रदेश के गुंटूर तथा नेल्लोर क्षेत्र) में स्थित कुछ भूमि को ब्राह्मणों को दान किया था। इस प्रकार विष्णुवर्द्धन् प्रथम लगभग संपूर्ण वेंगी साम्राज्य का स्वामी बन गया था।

परवर्ती अभिलेखों में कहा गया है कि पट्टवर्द्धन् वंश के सेनापति कालकंप ने विष्णुवर्द्धन् के आदेश पर दद्दर नामक कट्टर शत्रु को मारकर उसके राजचिन्ह को छीन लिया था। यद्यपि दद्दर की पहचान निश्चित नहीं है, किंतु विष्णुवर्द्धन् तृतीय के एक लेख के अनुसार उसकी रानी अय्यणा महादेवी ने बैजवाड़ा (विजयवाङा) में नडुव्बिसदि जैन मंदिर के लिए भूमदान दिया था जो तेलगू प्रदेश का प्रथम जैन मंदिर था।

इस प्रकार विष्णुवर्द्धन् पुलकेशिन द्वितीय एवं पल्लव नरेश नरसिंहवर्मन् प्रथम के युद्धों के कारण अपनी आंतरिक स्थिति को सुदृढ़ करने और सीमांत क्षेत्रों में अपने प्रभाव का विस्तार करने में सफल रहा। उसके दक्षिणी साम्राज्य-विस्तार में उसके वीर सेनानायक बुद्धवर्मन् तथा कालकंप का विशेष सहयोग प्राप्त था। अभिलेखों से पता चलता है कि उसका साम्राज्य उत्तर-पूर्व में विशाखापत्तनम् से लेकर दक्षिण-पश्चिम में उत्तरी नेल्लोर तक फैला था।

विष्णुवर्द्धन् राजनेता के साथ-साथ विद्याप्रेमी और विद्वानों का संरक्षक भी था। कहा जाता है कि उसने संस्कृत साहित्य के महाकवि भारवि को संरक्षण दिया था, जिन्होंने प्रसिद्ध महाकाव्य ‘किरातार्जुनीयम्’ की रचना की थी।

विष्णुवर्द्धन् ने सिंह, दीपक तथा त्रिशूल चिन्हांकित चाँदी के सिक्कों का प्रचलन किया और मकरध्वज, विषमसिद्धि तथा बिट्टरस जैसी सम्मानजनक उपाधियाँ धारण की थी।

विष्णवर्द्धन् की शासनावधि का निश्चित निर्धारण करना कठिन है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार इसने 624 ई. से 641 ई. तक शासन किया था। सामान्यतया इसका शासनकाल 615 ई. से 633 ई. तक माना जाता है।

जयसिंह प्रथम

विष्णुवर्द्धन् प्रथम के बाद उसका पुत्र जयसिंह प्रथम वेंगी का शासक हुआ। इसके द्वारा जारी किये गये एक लेख में दावा किया गया है कि इसने अनेक सामंत शासकों को पराजित किया था, किंतु इसके द्वारा पराजित किसी शासक या राज्य का नाम नहीं मिलता है।

इसके शासनकाल में बादामी के चालुक्यों और दक्षिण के पल्लवों के बीच जो संघर्ष हुआ, उसमें इसने पुलकेशिन द्वितीय की कोई सहायता नहीं की, जिसके कारण चालुक्य-पल्लव संघर्ष में वातापी के चालुक्य बुरी तरह पराजित हुए और दक्षिणापथेश्वर पुलकेशिन द्वितीय युद्धभूमि में मारा गया।

जयसिंह प्रथम ने महाराज, पृथ्वीवल्लभ, पृथ्वीजयसिंह तथा सर्वसिद्धि आदि उपाधियाँ धारण की थी। कुछ विद्वानों के अनुसार इसने 641 से 673 ई. तक राज्य किया, जबकि अधिकांश इतिहासकार इसका शासनकाल 633 से 663 ई. तक मानते हैं।

इंद्रवर्मन्

जयसिंह के उपरांत 663 ई. के लगभग उसका छोटा भाई इंद्रवर्मन् वेंगी का शासक हुआ। इंद्रवर्मन् की किसी विजय अथवा अन्य महत्वपूर्ण उपलब्धि की सूचना नहीं मिलती है, केवल उसके एक सामंत कोडिवर्मन् की जानकारी मिलती है। इंद्रवर्मन् ने इंद्रभट्टारक, इंद्रराज, इंदुराज, महाराज के अतिरिक्त सिंहविक्रम तथा त्यागधेनु की उपाधि भी ग्रहण की थी।

यद्यपि जयसिंह प्रथम के शासनकाल में इंद्रवर्मन् सक्रिय रुप से प्रशासन से संबद्ध था, परंतु स्वतंत्र शासक के रूप में एक सप्ताह तक शासन करने के बाद ही (663 ई.) उसकी मृत्यु हो गई।

विष्णुवर्द्धन् द्वितीय

इंद्रवर्मन् के अल्पकालीन शासन के बाद विष्णुवर्द्धन् द्वितीय 663 ई. में वेंगी राजगद्दी पर बैठा जो संभवतः इंद्रवर्मन् का पुत्र था। उसके अभिलेखों में उसके द्वारा दिये गये भूमिदानों के अतिरिक्त किसी अन्य उपलब्धि का उल्लेख नहीं मिलता है। इसने विजयसिद्धि, मकरध्वज तथा प्रलयादित्य की उपाधियाँ धारण की। इसने कुल नौ वर्षों (663-672 ई.) तक शासन किया।

मंगि युवराज

विष्णुवर्द्धन् द्वितीय के उपरांत उसका पुत्र मंगि युवराज 672 ई. में वेंगी का उत्तराधिकारी हुआ। मंगि मंगलेश का संक्षिप्तीकरण है। इसने लगभग पच्चीस वर्ष तक शासन किया, किंतु इसकी किसी सैनिक उपलब्धि की जानकारी नहीं मिलती है। उसके राज्य की उत्तरी सीमा नागवली (लांगुलिया), दक्षिण में पिनाकिनी नदी के पास वाले कर्मराष्ट्र की सीमाओं तक तथा पश्चिम में आधुनिक तेलंगाना तक विस्तृत थी।

मंगि युवराज दर्शनशास्त्र और न्यायशास्त्र का ज्ञाता था। इसने शास्त्रार्थ द्वारा नास्तिक बौद्धों को आंध्र देश छोड़ने को विवश कर दिया। इसने कई अग्रहार ग्रामों को दान दिया और संभवतः अपनी राजधानी विजयवाटिका (विजयवाड़ा) में स्थानांतरित की थी।

मंगि युवराज के लिए विजयादित्य, सर्वलोकाश्रय, विजयसिद्धि की नामों का भी प्रयोग किया गया है। अनुमानतः इसने 672 से 697 ई. तक शासन किया था।

जयसिंह द्वितीय

संभवतः मंगिराज के कई पुत्र थे और उसकी मृत्यु के बाद उसके पुत्रों में उत्तराधिकार का युद्ध हुआ जिसमें जयसिंह द्वितीय को सफलता मिली और वह वेंगी के सिंहासन पर बैठा।

पता चलता है कि जयसिंह द्वितीय का छोटा भाई विजयादित्यवर्मन् एलमांचिलि (विजगापट्टम जिले का आधुनिक एलमांचिलि) को राजधानी बनाकर मध्य कलिंग पर शासन कर रहा था। संभवतः विजयादित्यवर्मन् ने जयसिंह द्वितीय की संप्रभुता को चुनौती देकर स्वतंत्र हो गया और ‘महाराज’ की उपाधि धारण की। विजयादित्यवर्मन् की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र कोकिल या कोकिलवर्मन् मध्यम कलिंग (एलमांचिलि) का शासक हुआ।

जयसिंह के लिए लोकाश्रय एवं सर्वसिद्धि जैसे विरूदों का प्रयोग किया गया है। इसने संभवतः तेरह वर्ष (697-710 ई.) तक शासन किया।

कोक्किलि या कोकुलि विक्रमादित्य

जयसिंह द्वितीय की मृत्यु के बाद वेंगी के चालुक्यों में उत्तराधिकार के लिए युद्ध हुआ। इस युद्ध में सबसे छोटे सौतेले भाई कोक्किलि या कोकुलि विक्रमादित्य को सफलता मिली और वह लगभग 710 ई. में वेंगी के सिंहासन पर बैठा।

कोकुलि विक्रमादित्य ने विजयसिद्धि की उपाधि धारण की और अपने भतीजे कोकिल या कोक्किलवर्मन् को पराजित कर मध्य कलिंग (एलमांचिलि) को पुनः साम्राज्य में सम्मिलित किया।

अंततः छः महीने बाद ही कोकुलि विक्रमादित्य को उसके बड़े भाई विष्णुवर्द्धन् तृतीय ने अपदस्थ कर सिंहासन पर अधिकार कर लिया। संभवतः बाद में दोनों में समझौता हो गया जिसके अनुसार मुख्य साम्राज्य पर विष्णुवर्द्धन् तृतीय और मध्य कलिंग पर कोक्किलि का अधिकार मान लिया गया। इसके बाद चार पीढियों तक इस प्रदेश पर कोक्किलि के उत्तराधिकारियों के शासन करने के प्रमाण मिलते हैं। कोक्किलि के बाद मध्य कलिंग पर मंगि युवराज (मंगि युवराज का पौत्र) ने शासन किया।

विष्णुवर्द्धन् तृतीय

विष्णुवर्द्धन् तृतीय ने लगभग 710 ई. में अपने छोटे भाई कोकुलि विक्रमादित्य को हटाककर वेंगी का शासन संभाला। इसके काल के लगभग 9 अभिलेख मिलते हैं। इनमें से एक तेलुगू भाषा में है। शेष संस्कृत भाषा में उत्कीर्ण हैं। इन लेखों में प्रायः अग्रहार ग्रामों का उल्लेख है या मंदिरों को दिये गये ग्रामदान (देवदान) का विवरण है।

विष्णुवर्द्धन् तृतीय के शासनकाल के तेइसवें वर्ष के एक लेख में मंगि की पुत्री पृथ्वीपोथि (पृथ्वीपोणि) द्वारा दिये गये दान का उल्लेख है। इस मंगि युवराज की पहचान विष्णुवर्द्धन् के पिता (मंगि युवराज) से की जा सकती है। 762 ई. के एक दूसरे अनुदानपत्र के अनुसार इसने विष्णुवर्द्धन् प्रथम की पत्नी महादेवी अय्यण द्वारा बैजवाड़ा के जैन मंदिर के लिए दिये गये भूमिदान का नवीनीकरण किया था। संभवतः यह अनुदानपत्र मूलतः विष्णुवर्द्धन् प्रथम के राज्यकाल में जारी किया था और विष्णुवर्द्धन् तृतीय या उसके उत्तराधिकारी ने इसका नवीनीकरण किया था।

ज्ञात होता है कि विष्णुवर्धन तृतीय के शासनकाल के उत्तरार्द्ध में पृथ्वीव्याघ्र नामक एक निषाद शासक ने नेल्लोर की उत्तरी सीमा से सटे पूर्वी चालुक्य राज्य के दक्षिणी भाग को जीत लिया था। किंतु नंदिवर्मन् के उदयेंदिरम् अनुदानपत्र के अनुसार पृथ्वीव्याघ्र को बाद में पल्लव नंदिवर्मन् द्वितीय के सेनापति उदयचंद्र ने पराजित कर दिया और उसके द्वारा विजित पूर्वी चालुक्य राज्य के भू-भाग को अधिकृत कर लिया।

विष्णुवर्द्धन् तृतीय ने विषमसिद्धि, त्रिभुवनांशुक तथा समस्तभुवनाश्रय जैसी उपाधियाँ धारण की थी जबकि इसकी पत्नी विजयमहादेवी को परिपालिका की उपाधि दी गई है।

यद्यपि विष्णुवर्द्धन् तृतीय 762 ई. तक जीवित रहा, किंतु इसने 746 ई. के आसपास ही प्रशासन का भार अपने पुत्र विजयादित्य प्रथम को सौंप दिया था।

विजयादित्य प्रथम

विष्णुवर्धन तृतीय के सिंहासन-त्याग के बाद उसकी पटरानी महादेवी से उत्पन्न पुत्र विजयादित्य प्रथम वेंगी के चालुक्य वंश का शासक हुआ। विजयादित्य के शासनकाल में दक्षिणापथ की राजनीति में व्यापक उथल-पुथल हुई। आठवीं शताब्दी के मध्य में 757 ई. के आसपास राष्ट्रकूट शासक दंतिदुर्ग ने बादामी के चालुक्यों को पराजित कर उनके अधिकांश क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। इसके बाद राष्ट्रकूटों का वेंगी के पूर्वी चालुक्यों के साथ संघर्ष प्रारंभ हुआ क्योंकि पूर्वी चालुक्य एवं राष्ट्रकूटों की सीमाएँ एक-दूसरे से लगी हुई थीं।

विजयादित्य ने त्रिभुवनांकुश, विजयसिद्धि, शक्तिवर्मन्, भट्टराज, विक्रमराम, विजयादित्य जैसी उपाधियाँ धारण की थी। इसने संभवतः 746 से 764 ई. तक शासन किया।

विष्णुवर्द्धन् चतुर्थ

विजयादित्य प्रथम के पश्चात् उसका पुत्र विष्णुवर्द्धन् चतुर्थ 764 ई. में वेंगी के सिंहासन पर आरूढ़ हुआ। इसके समकालीन राष्ट्रकूट शासक कृष्ण प्रथम ने साम्राज्य विस्तार हेतु युवराज गोविंद द्वितीय को वेंगी पर आक्रमण करने के लिए भेजा। राष्ट्रकूट युवराज गोविंद द्वितीय के अलस अभिलेख (769 ई.) से पता चलता है कि युवराज गोविंद द्वितीय ने वेंगी के विरुद्ध अभियान का नेतृत्व किया था और मुसी एवं कृष्णा नदियों के संगम पर अपने स्कंधावार में कोष, सेना तथा भूमि सहित वेंगी नरेश (विष्णुवर्द्धन् चतुर्थ) को समर्पण के लिए बाध्य किया था। इससे लगता है कि वेंगी नरेश ने बिना युद्ध के ही राष्ट्रकूटों की अधीनता स्वीकार कर ली थी।

विष्णुवर्द्धन् चतुर्थ के शासनकाल में ही राष्ट्रकूटों में उत्तराधिकार का युद्ध प्रारंभ हुआ। गोविंद द्वितीय तथा ध्रुव प्रथम के आंतरिक संघर्ष में विष्णुवर्द्धन् चतुर्थ ने गोविंद द्वितीय का साथ दिया। किंतु उत्तराधिकार के युद्ध में ध्रुव प्रथम की विजय हुई और उसने गोविंद द्वितीय के समर्थकों को दंडित करने के क्रम में वेंगी पर आक्रमण कर दिया। इस अभियान में वेमुलवाड के चालुक्य सामंत अरिकेशरी ने ध्रुव प्रथम का विशेष सहयोग किया। 786 ई. के जेथवै अनुदानपत्र से ज्ञात होता है कि विष्णुवर्द्धन् युद्ध में पराजित हुआ और अपनी पुत्री शीलमहादेवी का विवाह ध्रुव प्रथम से करने के लिए बाध्य हुआ। इस संघर्ष के पश्चात् वेंगी के चालुक्य राष्ट्रकूटों के सामंत के रूप में शासन करने लगे। बाद के 802 ई. के एक लेख तथा 808 ई. के राधनपुर अनुदानपत्रों से भी पता चलता है कि ध्रुव प्रथम के पत्रवाहक के मुख से निकले अर्धशब्द ही विष्णुवर्द्धन् चतुर्थ को अधिकृत करने के लिए पर्याप्त सिद्ध हुए थे।

वेंगी पर राष्ट्रकूटों का अधिकार ध्रुव के बाद उसके पुत्र गोविंद तृतीय के समय में भी बना रहा, क्योंकि उसके लेखों में कहा गया है कि ‘वेंगी नरेश अपने स्वामी की आज्ञाओं का पालन करने के लिए सदैव तत्पर रहता था।

राधनपुर पत्रों के अनुसार विष्णुवर्द्धन् चतुर्थ अपने स्वामी के लिए महाप्राचीर एवं भवन निर्माण कराने के लिए बाध्य हुआ था। इस आधार पर कुछ इतिहासकारों का विचार है कि ध्रुव प्रथम के आदेशानुसार विष्णुवर्द्धन् चतुर्थ ने ही मान्यखेट की किलेबंदी करवाई थी। किंतु साहित्यिक स्रोतों से ज्ञात होता है कि मान्यखेट का निर्माण अमोघवर्ष प्रथम ने करवाया था।

विष्णुवर्द्धन् चतुर्थ ने लगभग 36 वर्षों तक राज्य किया। कुछ इतिहासकार इसका शासनकाल 772 ई. से 808 ई. मानते हैं, लेकिन आमतौर पर माना जाता है कि इसने 764 ई. से 799 ई. तक शासन किया था।

विजयादित्य द्वितीय

विष्णुवर्द्धन् चतुर्थ के शासन के उपरांत विजयादित्य द्वितीय वेंगी के राजसिंहासन पर बैठा। यह पूर्वी चालुक्य राज्यवंश का सर्वशक्तिमान शासक था। यद्यपि विजयादित्य द्वितीय वेंगी के योग्यतम चालुक्य शासकों में एक था, किंतु अपने शासन के प्रारंभिक वर्षों में उसे अनेक असफलताओं का सामना करना पड़ा। इसके भाई भीम सालुक्कि ने राष्ट्रकूट शासक गोविंद तृतीय की सहायता से इसे पराजित कर वेंगी पर अधिकार कर लिया। गोविंद तृतीय को भीम सालुक्कि को पश्चिमी गंगों, वेमुलवाड़ के चालुक्यों से भी बड़ी सहायता मिली थी।

विजयादित्य अपनी पराजय से निराश नहीं हुआ और राष्ट्रकूटों से वेंगी को मुक्त कराने के लिए निरंतर प्रयास करता रहा। संयोग से 814 ई. में गोविंद तृतीय की मृत्यु के बाद उसके अल्पवयस्क पुत्र अमोघवर्ष प्रथम के उत्तराधिकार को लेकर आंतरिक झगड़े शुरू हो गये। अमोघवर्ष का संरक्षक कर्क विद्रोह को दबा नहीं सका और अमोघवर्ष प्रथम को कुछ समय के लिए गद्दी से हटना पड़ा।

गंटूर अभिलेख से पता चलता है कि विजयादित्य ने राष्ट्रकूट राज्य में व्याप्त अराजकता का लाभ उठाते हुए राष्ट्रकूट वल्लभेन्द्र (अमोधवर्ष) के सेनानायकों से निरंतर युद्ध करते हुए अंततः विद्रोही भाई भीम सालुक्कि को अपदस्थ पर वेंगी पर अधिकार कर लिया। इसकी पुष्टि राष्ट्रकूट इंद्र तृतीय के नौसारी पत्र से भी होती है जिसके अनुसार राष्ट्रकूट कुललक्ष्मी चालुक्यरूपी अगाध समुद्र में विलुप्त थीं (निमग्नो यश्चुलुक्याब्धौ रट्टराजश्रियंपुनः)। इस युद्ध में विजेता चालुक्यों की सेना ने राष्ट्रकूट साम्राज्य के एक बड़े भाग को रौंदते हुए स्तंभनगर (गुजरात का आधुनिक खंभात) को पादाक्रांत कर उसे नष्ट कर दिया था।

इस प्रकार विजयादित्य ने संभवतः 814 ई. में गोविंद तृतीय की मृत्यु के उपरांत राष्ट्रकूट राजवंश में व्याप्त अराजकता का लाभ उठाकर न केवल वेंगी मंडल को अपितु स्तंभनगर तक राष्ट्रकूट राज्य को जीतकर अपनी शक्ति का विस्तार कर लिया। उसने राष्ट्रकूटों के सहयोगी दक्षिण के गंगों को भी पराजित किया, जिसकी पुष्टि विजयादित्य तृतीय के मसुलीपट्टम् अभिलेख से होती है।

किंतु नौसारी अभिलेख से ज्ञात होता है कि राष्ट्रकूटों के विरूद्ध वेंगी के चालुक्यों की यह सफलता अस्थायी सिद्ध हुई। परवर्ती राष्ट्रकूट लेखों से पता चलता है कि अमोघवर्ष ने गुजरात के राजा कर्क द्वितीय की सहायता से विंगवेल्लि (भिगिनिपल्लि) के युद्ध में चालुक्य सेना को निर्णायक रूप से पराजित कर विजयादित्य को क्षमायाचना करने के लिए विवश कर दिया और वीरनारायण (विष्णु) की भाँति अपने राज्य का उद्धार किया (पृथ्वीमिवोद्धरन् धरोवीरनारायणो भवत्)।

कुछ समय बाद विजयादित्य ने अपने पुत्र विष्णुवर्द्धन् का विवाह गुजरात की राष्ट्रकूट राजकुमारी सिंहलादेवी के साथ करके अपने मैत्री-संबंध को दृढ़ कर लिया।

विजयादित्य को संभवतः किसी नाग नरेश से भी निपटना पड़ा जो बस्तर क्षेत्र में शासन कर रहा था। किंतु इस नागवंशीय नरेश की पहचान स्पष्ट नहीं है। मिहिरभोज की ग्वालियर प्रशस्ति के अनुसार नागभट्ट द्वितीय (गुर्जर प्रतिहार शासक) ने आंध्र तथा कलिंग राजाओं को पराजित किया था। दिनेशचंद्र सरकार, डी.सी. गांगुली जैसे कुछ इतिहासकार इस आंध्र शासक की पहचान विजयादित्य द्वितीय से करते हैं।

विजयादित्य धर्मनिष्ठ शैव था। उसका शासनकाल कलात्मक निर्माण-कार्यों के लिए स्मरणीय है। उसने समस्तभुवनाश्रय, श्री नरेंद्रस्वामी और उमामहेश्वर स्वामी के नाम से अनेक शिव मंदिरों का निर्माण करवाया था।

विजयादित्य द्वितीय ने नरेंद्र भृगराज, चालुक्यार्जुन, त्रिभुवनांकुश, परमभट्टारक महाराजाधिराज, परमेश्वर, वेंगीनाथ जैसी उपाधियाँ धारण की। इसके शासनकाल को इतिहासकारों ने 40, 41, 44 अथवा 48 वर्ष निर्धारित किया है। नीलकंठ शास्त्री जैसे इतिहासकारों के अनुसार इसका शासनकाल 808 ई. से 847 ई. तक मानते हैं, जबकि दिनेशचंद्र सरकार के अनुसार इसने 799 ई. से 847 ई. तक शासन किया था। संभवतः इस अंतर का कारण विद्रोही भाई भीम सालुक्कि द्वारा वेंगी का सिंहासन हड़प लिया जाना था। सामान्यतया इसका शासनकाल 799 ई. से 847 ई. तक माना जा सकता है।

विष्णुवर्द्धन् पंचम

विजयादित्य द्वितीय के बाद उसका पुत्र विष्णुवर्द्धन् पंचम वेंगी राज्य का उत्तराधिकारी हुआ। इसे कलिविष्णुवर्द्धन्, सर्वलोकाश्रय तथा विषयसिद्धि आदि उपाधियों से अलंकृत किया गया है। इसने मात्र 18 या 20 महीने (847-848 ई.) ही शासन किया।

विष्णुवर्द्धन् के कई पुत्र थे- विजयादित्य तृतीय, अय्यपराज, विक्रमादित्य प्रथम और युद्धमल्ल प्रथम। इसके पिता विजयादित्य के काल में इसका विवाह गुजरात की राष्ट्रकूट राजकुमारी सिंहलादेवी से हुआ था। इसकी मृत्यु के पश्चात् इसका सिंहलादेवी उत्पन्न पुत्र विजयादित्य तृतीय उत्तराधिकारी हुआ।

विजयादित्य तृतीय

विष्णुवर्द्धन् के बाद उसका सिंहलादेवी से उत्पन्न पुत्र विजयादित्य तृतीय लगभग 848 ई. में वेंगी की राजगद्दी पर बैठा। यह अपने पितामह की भाँति महत्वाकांक्षा एवं रण-कौशल का जीवंत संगम था। इस दिग्विजयी शासक का संपूर्ण शासनकाल दिग्विजय और विभिन्न राज्यों से संघर्ष करते हुए व्यतीत हुआ।

विजयादित्य तृतीय की उपलब्धियाँ

विजयादित्य तृतीय वेंगी के चालुक्य वंश का सबसे महान शासक था। शासन-सत्ता संभालते ही इसने ‘लौह-रक्तनीति’ का अनुसरण करके दक्षिण और उत्तर में अनेक शक्तियों को अपनी कूटनीतिक चालों तथा बाहुबल से पराजित किया और वेंगी राज्य की सीमाओं को यथासंभव विस्तृत किया।

बोय (बोथ) जाति के विरूद्ध अभियान

विजयादित्य तृतीय ने अपने दिग्विजय के क्रम में सबसे पहले नेल्लोर के आसपास शासन करने वाली बोय (बोथ) जाति के विरूद्ध अभियान किया। बोय (बोथ) जाति के लोग पहले से ही चालुक्यों के अधीन थे, लेकिन विष्णुवर्धन पंचम के मरते ही बोयों ने चालुक्यों की अधीनता मानने से इनकार कर दिया और विजयादित्य तृतीय के सिंहानारोहण के समय अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी।

बोयों को दंडित करने के लिए विजयादित्य ने अपने सेनापति पंडरंग के नेतृत्व में एक शक्तिशाली सेना बोयों पर आक्रमण करने के लिए भेजा। पंडरंग के नेतृत्व में चालुक्य सेना ने बोयों के कट्टेम तथा नेल्लोर के सुदृढ़ दुर्गों को ध्वस्त कर दिया। बोय बुरी तरह पराजित हुए और पंडरंग विजय करता हुआ तोंडैमंडलम् की सीमा तक पहुँच गया तथा पुलकित झील के तट पर रुका। यहाँ उसने अपने नाम पर एक नगर स्थापित किया और पंडरंग माहेश्वर नामक एक शिवमंदिर का निर्माण करवाया। इस विजय के फलस्वरूप समस्त दक्षिण-पूर्वी तेलगु प्रदेश, जो पल्लवों के अधीन था, चालुक्य साम्राज्य में मिला लिया गया। पंडरंग को इस क्षेत्र का उपराजा बना दिया गया।

राहण की पराजय

बोयों से निपटने के बाद विजयादित्य तृतीय की सेना ने पंडुरंग के नेतृत्व में किसी राहण नामक सरदार को पराजित किया। किंतु इस राहण सरदार की पहचान नहीं हो सकी है।

पश्चिमी गंगों के विरूद्ध अभियान

886 ई. में तालकाड के पश्चिमी गंग शासक नीतिमार्ग पेर्मानाडि ने गंगावाड़ी में विद्रोह कर दिया और अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। विजयादित्य ने गंगावाड़ी के विरूद्ध बढ़ते हुए नोलंबबाडी की सीमा पर पेर्मानाडि के सहायक नालंबराज मंगि को पराजित कर उसकी हत्या कर दी। अम्म द्वितीय के मलियपुंड लेख से ज्ञात होता है कि विजयादित्य ने नोलंब शासक (मंगि) का सिर काटकर उसे कंदुक बनाकर युद्ध मैदान में ही खेला था। इसके बाद विजयादित्य ने गंगावाडि के गंगों को बुरी तरह पराजित कर नीतिमार्ग पेर्मानाडि को संधि करने के लिए विवश किया।

चोलों, पल्लवों और पांड्यों के विरूद्ध सफलता

इस समय चोल, पल्लव तथा पांड्य सुदूर दक्षिण की प्रमुख शक्तियाँ थीं। सतलुरु अनुदानपत्र के अनुसार विजयादित्य ने पल्लवों एवं पांड्यों के विरूद्ध भी सफलता प्राप्त की थी। संभवतः नोलंबवाडी पर अधिकार को लेकर पल्लव और चालुक्यों में युद्ध हुआ, जिसमें विजयादित्य ने पल्लव शासक अपराजित को पराजित कर दिया।

धर्मवरम लेख से पता चलता है कि विजयादित्य तृतीय ने तंचापुरी (तंजौर) नगर पर अधिकार किया और चोल शासक को संरक्षण दिया था। जिस चोल राजा को चालुक्यों ने संरक्षण दिया, वह संभवतः विजयालय था। लगता है कि पांड्य मारंजडैयन ने चोल राज्य पर आक्रमण कर उस पर अधिकार कर लिया था। इसी आक्रमण के फलस्वरूप विजयालय ने विजयादित्य के यहाँ शरण ली थी। विजयादित्य ने पांड्यों को पराजित कर विजयालय को उसका राज्य वापस दिला दिया। इन विजयों के फलस्वरूप विजयादित्य की धाक संपूर्ण दक्षिण भारत में फैल गई।

राष्ट्रकूटों से संघर्ष

सुदूर दक्षिण में अपनी विजय पताका फहराने के बाद विजयादित्य ने उत्तर की ओर सैन्य-अभियान किया। राष्ट्रकूट शासक अमोघवर्ष प्रथम की 880 ई. में मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारी पुत्र कृष्ण द्वितीय ने अपने संबंधी कलचुरि संकिल (शंकरगण) के साथ, जो डाहल का शासक था, विजयादित्य पर आक्रमण कर दिया।

किंतु अम्म द्वितीयकालीन मलियपुंडि लेख से ज्ञात होता है कि विजयादित्य तृतीय ने नोलंब (मैसूर) नरेश मंगि को पराजित करके उसकी हत्या कर दी। उसने गंगवाड़ी नरेश नीतिमार, कलचुरि संकिल (शंकरगण) तथा राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण द्वितीय को भयाक्रांत कर दिया (हत्वा भूरिनोलम्बनृपंमगिम्महासागरे…..गंगानांथित गंगकूटसिररानिर्जित्य…..दहलाधीश संकिल उग्रवल्लभयुतम्)।

कृष्ण तृतीय ने भागकर शंकरगण के राज्य डाहल में शरण ली। इसके बाद विजयादित्य तृतीय ने अपने सेनापति पंडरंग को डाहल (जबलपुर) पर आक्रमण करने के लिए भेजा। कुछ पूर्वी चालुक्य लेखों से पता चलता है कि चालुक्य सेना ने कलिंग, कोशल तथा वेमुलवाड़ के शासकों को पराजित कर आगे बढ़ते हुए चेदि राज्य में डाहल, दलेनाड और चक्रकूट नगर को घ्वस्त कर दिया।

तत्पश्चात् विजयादित्य ने कृष्ण तृतीय एवं शंकरगण की सेनाओं को बुरी तरह पराजित कर किरणपुर (म.प्र. के बालाघाट जिले का किरनपुर) को जलाकर नष्ट कर दिया। चालुक्य सेना ने राष्ट्रकूट साम्राज्य को रौंदते हुए अचलपुर को जलाकर राख कर दिया। विवश होकर कृष्ण द्वितीय को विक्रमादित्य की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी। विजयादित्य ने राष्ट्रकूट शासक के राजचिन्ह (गंगा-यमंना की आकृतियाँ) छीनकर स्वयं ‘वल्लभ’ की उपाधि धारण की और अपने को संपूर्ण दक्षिणापथ तथा त्रिकलिंग का स्वामी घोषित किया। अंततः अंततः कृष्ण द्वितीय द्वारा आत्मसमर्पण करने पर उसने उसका राज्य उसे वापस लौटा दिया।

वास्तव में विजयादित्य तृतीय पूर्वी चालुक्य वंश का महानतम् विजेता शासक था जिसने वेंगी के सिंहासन की मर्यादा में सर्वाधिक वृद्धि की। इसके शासनकाल में पूर्वी चालुक्य राज्य उत्तर में महेंद्रगिरि से लेकर दक्षिण में पुलिकत झील तक विस्तृत था।

विजयादित्य तृतीय के 44 वर्षों (लगभग 848-892 ई.) तक राज्य किया। लेखों में इसे गुणग, परचक्रराम, मंजुप्रकार, अरशंककेशरिन्, रणरंगशूद्रक, विक्रमधवल, नृपतिमार्तंड, भुवनकंदर्प, त्रिभुवनांकुश जैसी उपाधियों से विभूषित किया गया है।

विजयादित्य तृतीय के कोई पुत्र नहीं था, इसलिए इसने अपने छोटे भाई विक्रमादित्य को युवराज घोषित किया। किंतु दुर्भाग्य से इसके शासनकाल में ही विक्रमादित्य की मृत्यु हो गई। फलतः विजयादित्य तृतीय के मरने के बाद विक्रमादित्य का पुत्र चालुक्य भीम प्रथम वेंगी के सिंहासन पर बैठा।

चालुक्य भीम प्रथम

विजयादित्य तृतीय की मृत्यु के बाद उसका भतीजा चालुक्य भीम प्रथम 892 ई. के लगभग पूर्वी चालुक्य वंश का उत्तराधिकारी हुआ जो विक्रमादित्य का पुत्र था। भीम प्रथम को आरंभ में अत्यंत संकटपूर्ण स्थिति का सामना करना पड़ा क्योंकि उसके चाचा युद्धमल्ल तथा कुछ अन्य पारिवारिक सदस्य उसके राज्यारोहण का विरोध कर रहे थे। चाचा युद्धमल्ल ने राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण द्वितीय से सहायता मांगी। कृष्ण भी विजयादित्य के हाथों हुई अपनी पराजय का बदला लेने के लिए तुरंत एक सेना वेंगी भेजी। वेमुलवाड के चालुक्य लेखों तथा कन्नड़ कवि पम्पकृत ‘पम्पभारत’ अथवा ‘विक्रमार्जुनविजय’ से पता चलता है कि राष्ट्रकूट शासक कृष्ण तृतीय के सामंत वड्डेग ने वेंगी पर आक्रमण कर दिया। कृष्ण द्वितीय के सैनिकों ने गुंटूर तथा नेल्लोर तक दक्षिण में चालुक्य राज्य को रौंद डाला और चालुक्य राज्य के एक बहुत बड़े भाग पर अधिकार कर लिया। युद्धभूमि में भीम को बंदी बना लिया गया, किंतु कुछ समय बाद कृष्ण द्वितीय ने उसे मुक्त कर दिया।

भीम प्रथम अपनी पराजय से निराश नहीं हुआ। उसने कुसुमायुध ( मुदुगोंड के चालुक्यों का प्रधान) जैसे स्वामिभक्त समर्थकों की सहायता से राष्ट्रकूट आक्रमणकारियों को चालुक्य राज्य से बाहर खदेड़ दिया। इसके बाद भीम प्रथम ने अपना अभिषेक करवाया और विष्णुवर्द्धन् की उपाधि धारण की।

किंतु भीम प्रथम शांतिपूर्वक शासन नहीं कर सका। उसके राज्यारोहण के कुछ समय बाद कृष्ण द्वितीय के सेनापति दंडेश गुंडय ने पुनः चालुक्यों पर आक्रमण किया। इस अभियान में राष्ट्रकूटों के साथ लाट तथा कर्नाट प्रदेश की सेनाएँ भी थीं। भीम तथा उसके पुत्र युवराज इरिमर्तिगंड ने निर्वधपुर (पूर्वी गोदावरी जिले का निधवोलु) में आक्रमणकारियों को परास्त कर पीछे ढकेल दिया। इसके बाद पेरुवंगुरुग्राम (पश्चिमी गोदावरी जिले के एल्लोरे तालुक में स्थित पेदवंगुरु) के युद्ध में पुनः चालुक्य भीम की सेना ने राष्ट्रकूटों एवं लाटों तथा कर्नाट की सम्मिलित सेनाओं को पराजित किया। इस युद्ध में राष्ट्रकूट सेनापति दंडेश गुंडय मारा गया, लेकिन चालुक्य युवराज इरिमर्तिगंड भी स्वर्ग सिधार गया। इस प्रकार चालुक्य भीम ने राष्ट्रकूटों के आक्रमण से अपने राज्य की रक्षा करने में सफल रहा।

चालुक्य भीम ने सर्वलोकाश्रय, त्रिभुवनाकुंश, द्रोणाचार्य, परमब्रह्मण्य तथा ऋतसिद्ध जैसी उपाधियाँ धारण की थी। वह शिव का परम उपासक था। इसने द्राक्षाराम तथा भीमवरम में शिवमंदिरों का निर्माण करवाया था।

भीम के कम से कम दो पुत्र थे- विजयादित्य तथा विक्रमादित्य। लगभग 30 वर्षों तक शासन करने के पश्चात् 922 ई. में भीम प्रथम की मृत्यु हो गई।

विजयादित्य चतुर्थ

भीम प्रथम की मृत्यु के बाद विजयादित्य चतुर्थ लगभग 922 ई. में वेंगी के सिंहासन पर बैठा। इसने गंडभाष्कर तथा कोल्लभिगंड की उपाधि धारण की थी। यद्यपि इसने मात्र छः माह ही शासन किया, किंतु इस अल्पकालीन शासन के दौरान इसने न केवल राष्ट्रकूटों को पराजित किया, बल्कि दक्षिण विरजापुरी के युद्ध में कलिंग के गंगों के विरूद्ध भी सफलता प्राप्त की। किंतु दुर्भाग्य से इसी युद्ध में विजयादित्य की मृत्यु हो गई।

अम्म प्रथम

विजयादित्य के दो पुत्र थे-अम्मराज प्रथम तथा भीम द्वितीय। विजयादित्य की मृत्यु के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र अम्म प्रथम वेंगी राज्य का उत्तराधिकारी हुआ। किंतु इस समय देंगी के चालुक्य राज्य की स्थिति अत्यंत नाजुक थी। वेंगी में उत्तराधिकार के प्रश्न को लेकर आंतरिक संघर्ष आरंभ हो गया जिसमें अम्मराज प्रथम के चाचा विक्रमादित्य द्वितीय की मुख्य भूमिका थी। चालुक्यों का परंरागत शत्रु राष्ट्रकूट इंद्र तृतीय भी विद्रोहियों का साथ दे रहा था। इस विषम परिस्थिति में अम्मराज प्रथम ने दृढ़तापूर्वक परिस्थितियों का सामना किया और अंततः अपने स्वामिभक्त समर्थकों की सहायता से 922 ई. के अंत में वेंगी के सिंहासन पर अधिकार करने में सफल हो गया। अम्मराज प्रथम ने राजमहेंद्र तथा सर्वलोकाश्रय की उपाधि भी धारण की थी। इसने कुल सात वर्षों (922-929 ई.) तक राज्य किया।

अल्पकालीन चालुक्य शासक

अभिलेखो में अम्म प्रथम के दो पुत्रों की सूचना मिलती है- विजयादित्य पंचम् और भीमराज। इनमें अम्म प्रथम की असामयिक मृत्यु के बाद उसका अव्यस्क पुत्र विजयादित्य पंचम् राजा बना। इसे कंठिक विजयादित्य अथवा कंठक बेत नाम से भी जाना जाता है। यह मात्र 15 दिन शासन कर सका क्योंकि युद्धमल्ल प्रथम के पुत्र ताल (तालप, ताड या ताडप) ने राष्ट्रकूटों की सहायता से विजयादित्य पंचम् को बंदी बनाकर सिंहासन पर अधिकार कर लिया।

किंतु एक महीने बाद एक दूसरे दावेदार चालुक्य भीम प्रथम के पुत्र विक्रमादित्य द्वितीय ने ताल को पराजित कर मार डाला और वेंगी के सिंहासन पर अधिकार कर लिया। विक्रमादित्य द्वितीय ने लगभग एक वर्ष तक शासन किया। अपने इस अल्प शासनकाल में उसने त्रिकलिंग को पुनः जीता, जो भीम प्रथम के बाद स्वतंत्र हो गये थे। इसके बाद विक्रमादित्य को अम्म प्रथम के पुत्र भीमराज (भीम द्वितीय) ने अपदस्थ कर वेंगी की राजगद्दी पर अधिकार कर लिया। इस घटना की सूचना दिगुमर्डु लेख से मिलती है।

भीमराज (भीम द्वितीय) भी केवल आठ महीने शासन कर सका। इसे ताल प्रथम के पुत्र युद्धमल्ल द्वितीय ने एक युद्ध में पराजित कर मार डाला और चालुक्य राज्य पर अधिकार कर लिया। युद्धमल्ल को यह सफलता राष्ट्रकूट नरेश इंद्र तृतीय की सहायता से मिली थी।

युद्धमल्ल द्वितीय नाममात्र का ही शासक था। उसके शासन के दौरान राष्ट्रकूट शासकों और उनके सामंतों के हस्तक्षेप के कारण वेंगी के चालुक्य राज्य में अराजकता और अव्यवस्था फैली रही। उसके अन्य भाई और और सगे-संबंधी भी उसे सिंहासन से हटाने के लिए षङ्यंत्र कर रहे थे। युद्धमल्ल द्वितीय ने लगभग सात वर्षों (929-935 ई.) तक शासन किया था।

चालुक्य भीम द्वितीय

वेंगी के चालुक्य राज्य को गृहयुद्ध और अराजकता के भंवर से बाहर निकालने का श्रेय चालुक्य भीम द्वितीय को है। चालुक्य भीम द्वितीय विजयादित्य चतुर्थ की पत्नी मेलांबा से उत्पन्न पुत्र और अम्म प्रथम का सौतेला भाई था।

चालुक्य भीम द्वितीय ने लगभग पाँच वर्ष तक राष्ट्रकूटों तथा अपने संबंधियों से निरंतर संघर्ष किया। 930 ई. में गोविंद के शासन के विरुद्ध उसके कुछ उच्च अधिकारियों ने बड्डेग तथा उसके पुत्र कन्नर के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया। इनका साथ कुछ अन्य सामंतों ने भी दिया। गोविंद उन्हें दबा नहीं सका तथा विद्रोह बढता गया।

राष्ट्रकूटों की आंतरिक कलह का लाभ उठाकर चालुक्य भीम द्वितीय ने राष्ट्रकूट सेनाओं को चालुक्य राज्य से बाहर खदेड दिया। युद्धमल्ल के सामने हथियार डालने के अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं था। उसके दोनों पुत्रों-बाडप और ताल द्वितीय ने भागकर राष्ट्रकूट दरबार में शरण ली। इस प्रकार 935 ई. के आसपास चालुक्य भीम द्वितीय ने वेंगी के सिंहासन पर अधिकार कर लिया।

चालुक्य भीम द्वितीय ने विष्णुवर्धन, गंडमहेंद्र, राजमार्तंड, सर्वलोकाश्रय, त्रिभुवनांकुश आदि उपाधियाँ धारण की थी। संभवतः उसने बैजवाड़ा में मल्लेश्वर स्वामी के मंदिर तथा इसी के निकट एक बौद्ध बिहार का निर्माण करवाया था।

चालुक्य भीम द्वितीय की दो रानियों के बारे में सूचना मिलती है-अंकिदेवी और लोकांबा। अंकिदेवी से दानार्णव और लोकांबा से अम्म द्वितीय पैदा हुए थे। उसने अपने आठवर्षीय पुत्र अम्मराज द्वितीय को अपना युवराज नियुक्त किया था। लगभग 12 वर्षों तक शासन करने के बाद 947 ई. के लगभग उसकी मृत्यु हो गई।

अम्म द्वितीय

चालुक्य भीम द्वितीय के बाद उसका पुत्र अम्म द्वितीय 947 ई. के आसपास वेंगी का राजा हुआ। इसे ‘विजयादित्य’ भी कहते हैं। अम्म द्वितीय का संपूर्ण शासनकाल संघर्षों में ही व्यतीत हुआ। उसके सिंहासनारोहण के बाद युद्धमल्ल द्वितीय के दोनों पुत्रों- बाडप तथा ताल द्वितीय ने, जो पिता की मृत्यु के बाद राष्ट्रकूट दरबार में भाग गये थे, कृष्ण तृतीय की सहायता पाकर वेंगी पर आक्रमण कर दिया। अम्म द्वितीय के कई अधिकारी भी उनसे जा मिले। विवश होकर अम्म द्वितीय वेंगी छोड़कर भाग गया। बाडप ने वेंगी पर अधिकार कर लिया और विजयादित्य के नाम से शासन करने लगा।

बाडप और ताल द्वितीय के लेखों से पता चलता है कि वाडप की मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई ताल द्वितीय विष्णुवर्द्धन् के नाम से वेंगी का राजा हुआ। किंतु विष्णुवर्द्धन् (ताल द्वितीय) अधिक समय तक शासन नहीं कर सका। कुछ दिनों तक प्रवास में रहने के बाद अम्म द्वितीय वेंगी वापस आ गया। उसने अपने सामंतों और कोलनु के सरदार नृपकाम की सहायता से ताल को युद्ध में मारकर पुनः वेंगी का सिंहासन हस्तगत कर लिया।

अम्म द्वितीय अधिक समय शांति से शासन नहीं कर सका। राष्ट्रकूट शासक कृष्ण द्वितीय ने अपनी विस्तारवादी नीति के तहत 950 ई. में चोल राज्य को जीतने के बाद वेंगी-विजय के लिए अपनी सेना भेज दी। उसने कूटनीति का आश्रय लेते हुए अम्म द्वितीय के भाई दानार्णव को वेंगी के सिंहासन पर बैठाने का आश्वासन देकर अपनी ओर मिला लिया। राष्ट्रकूटों और दानार्णव की संयुक्त सेना से पराजित होकर अम्म द्वितीय कलिंग भाग गया। कृष्ण ने अपने वादे के अनुसार दानार्णव को वेंगी की गद्दी पर बैठा दिया।

कुछ समय बाद जैसे ही राष्ट्रकूटों की सेना वेंगी से वापस हुई, अम्म द्वितीय ने कलिंग से वापस आकर दानार्णव को अपदस्थ कर वेंगी के सिंहासन पर फिर अधिकार कर लिया।

इसके बाद भी अम्म और दानार्णव के बीच संघर्ष चलता रहा। अंततः 970 ई. के आसपास दानार्णव ने मुदुगोंड वंश के मल्लन तथा गोंडिम की सहायता से अम्म को मौत के घाट उतार दिया और वेंगी की गद्दी पर अधिकार कर लिया।

अम्म द्वितीय ने राजमहेंद्र, त्रिभुवनांकुश, तथा समस्त भुवनाश्रय की उपाधियाँ धारण की थी। अनुश्रुतियों के अनुसार इसने राजमहेंद्री या राजमहेंद्रपुर नामक नगर की स्थापना की और चेमका नामक गणिका की प्रार्थना पर सर्वलोकेश्वर जिनवल्लभ जैन मंदिर के लिए एक गाँव दान दिया था।

दानार्णव

दानार्णव ने अम्म द्वितीय को मौत के घाट उतार कर 970 ई. के लगभग वेंगी का सिंहासन प्राप्त किया था। किंतु यह केवल तीन वर्ष (970-973 ई.) ही शासन कर सका। पेडुकल्लु का तेलगु चोड प्रमुख जटाचोड भीम अम्म द्वितीय का साला था। जटाचोड़ ने अपने बहनोई अम्म द्वितीय की मौत का बदला लेने के लिए 973 ई. के लगभग दानार्णव की हत्या कर वेंगी पर अधिकार कर लिया।

चालुक्य शासन में व्यवधान

जटाचोड़ भीम

दानार्णव की मृत्यु के बाद जटाचोड़ के वेंगी पर अधिकार करने के साथ ही वहाँ कुछ समय (973-999 ई.) के लिए चालुक्य राजवंश के शासन का अंत हो गया और एक नये वंश की सत्ता स्थापित हुई। जटाचोड़ पेड्डकल्लु के तेलगुवंश का प्रधान था। उसका शासनकाल वेंगी के चालुक्य इतिहास में अंतराल कहा जाता है।

जटाचोड़ भीम एक शक्तिशाली शासक था। इसने अंग, कलिंग, द्रविड़ आदि के राजाओं को पराजित किया और महेंद्रगिरि से काँची तक के संपूर्ण तटीयप्रदेश एवं बंगाल की खाड़ी में लेकर कर्नाटक तक अपने राज्य का विस्तार किया।

दानार्णव की हत्या के बाद उसके पुत्रों- शक्तिवर्मन् तथा विमलादित्य ने भागकर पहले कलिंग के गंग शासक के यहाँ शरण ली थी, किंतु जब जटाचोड़ भीम ने गंगों पर आक्रमण किया तो दोनों राजकुमारों ने चोल शासक राजराज प्रथम के यहाँ शरण ली। राजराज चोल ने चालुक्य राजकुमारों की सहायता के बहाने अपनी विस्तारवादी नीति को कार्यान्वित करने की योजना बनाई।

राजराज ने विमलादित्य के साथ अपनी पुत्री का विवाह कर चालुक्य राजकुमारों से मित्रता को सुदृढ़ किया और शक्तिवर्मा को वेंगी के सिंहासन पर बैठाने के लिए 999 ई. के आसपास जटाचोड़ भीम पर आक्रमण कर दिया।

राजराज के चौदहवें वर्ष के लेख से ज्ञात होता है कि उसन वेंगी पर अधिकार कर लिया था। जटाचोड़ भीम ने भागकर कलिंग के पहाड़ों और जंगलों में आश्रय लिया। शक्तिवर्मन् को वेंगी की गद्दी पर आसीन कराने के बाद चोल सेना स्वदेश लौट गई।

लेकिन शक्तिवर्मन् वेंगी पर शांति से शासन नहीं कर सका। कलिंग में चटाचोड़ अपनी शक्ति को सुदृढ़ करने में लगा रहा। जैसे ही चोल सेना वेंगी से वापस हुई, उसने वेंगी पर आक्रमण कर अधिकार कर लिया। इसके बाद उसने आगे बढ़कर चोलों के दूसरे नगर कांची को जीत लिया।

किंतु चटाचोड़ की यह सफलता क्षणिक सिद्ध हुई और राजराज ने जटाचोड़ की सेनाओं को न केवल अपने साम्राज्य से बाहर खदेड़ दिया, बल्कि विजय करते हुए कलिंग तक पहुँच गया। युद्ध में चोड़भीम पराजित हुआ और 999 ई. के लगभग मार दिया गया। इसके बाद राजराज ने 1003 ई. के लगभग शक्तिवर्मन् को पुनः वेंगी का शासक बना दिया।

शक्तिवर्मन् प्रथम

जटाचोड़ भीम के बाद दानार्णव का पुत्र शक्तिवर्मन् प्रथम चोलों की सहायता से वेंगी का शासक बना। इसके साथ ही वेंगी में चालुक्य वंश का शासन पुनः स्थापित हुआ।

यद्यपि शक्तिवर्मन् ने वेंगी में बारह वर्षों (999-1011 ई.) तक शासन किया, किंतु उसके शासनकाल की घटनाओं के विषय में कोई विशेष जानकारी नहीं मिलती है। उसने चोलों की सहायता से वेंगी का सिंहासन प्राप्त किया था, अतएव वह जीवन-पर्यंत चोलों की अधीनता स्वीकार करता रहा।

कल्याणी के पश्चिमी चालुक्यों के एक लेख से पता चलता है कि वहाँ के शासक तैलप द्वितीय के पुत्र सत्तिग या सत्याश्रय ने 1006 ई. में बायलनंबि के नेतृत्व में वेंगी पर आक्रमण करने के लिए एक सेना भेजी थी। यद्यपि बायलनंबि ने शक्तिवर्मन् को हरा दिया, किंतु चोलों की सहायता से वह अपने राज्य को सुरक्षित रखने में सफल रहा।

शक्तिवर्मन् ने चालुक्यनारायण, चालुक्यचंद्र, सर्वलोकाश्रय तथा विष्णुवर्द्धन् महाराज आदि उपाधियाँ धारण की थी। इसने लगभग 1011 ई. तक शासन किया।

विमलादित्य

शक्तिवर्मन् प्रथम की मृत्यु के बाद उसके छोटे भाई विमलादित्य ने वेंगी पर शासन किया। यह पूर्णतया चोलों के अधीन था। एक लेख से पता चलता है कि एक जैन साधु त्रिकालयोगी सिद्धांतदेव उसके गुरु थे। इससे लगता है कि वह जैन धर्म में दीक्षित हुआ था।

अपने पूर्वजों की भाँति विमलादित्य ने भी परमब्रह्मांड तथा माहेश्वर की उपाधि धारण की थी। इसने लगभग सात वर्ष (1011-1018 ई.) तक शासन किया था विमलादित्य की दो पत्नियों की सूचना मिलती है- कुंददैदेवी और मेलमा। कुंददैदेवी चोल राजराज प्रथम की पुत्री थी जिससे राजराज नरेंद्र नामक पुत्र हुआ था और मेलमा संभवतः जटाचोड़ भीम की पुत्री थी जिससे विजयादित्य उत्पन्न हुआ था। विमलादित्य की मृत्यु के बाद उसके दोनों पुत्रों में उत्तराधिकार के लिए विवाद पैदा हो गया।

राजराज नरेंद्र

विमलादित्य की मृत्यु के बाद कुंददैदेवी से उत्पन्न ज्येष्ठ पुत्र राजराज नरेंद्र 1018 ई. में वेंगी की गद्दी पर बैठा। मेलमा के पुत्र विजयादित्य ने उसके उत्तराधिकार का विरोध किया और कल्याणी के चालुक्य जयसिंह द्वितीय जगदेकमल्ल की सहायता से वेंगी की गद्दी पर अधिकार कर लिया। किंतु राजराज नरेंद्र ने अपने मामा राजेंद्र चोल की सहायता से 1022 ई. के लगभग वेंगी का सिंहासन पुनः प्राप्त कर लिया।

राजराज नरेंद्र और विजयादित्य के बीच संघर्ष चलता रहा रहा। कल्याणी के चालुक्य विजयादित्य का समर्थन कर रहे थे, जबकि राजराज नरेंद्र को चोलों की सहायता मिल रही थी। कल्याणी के चालुक्यों से सहायता पाकर विजयादित्य सप्तम ने 1030 ई. में वेंगी की गद्दी हस्तगत कर ली। किंतु 1035 ई. में राजराज नरेंद्र ने पुनः सिंहासन पर अधिकार कर लिया।

राजराज नरेंद्र अधिक समय तक शांति से शासन नहीं कर सका और 1142 ई. में कल्याणी के चालुक्य शासक सोमेश्वर प्रथम ने वेंगी पर आक्रमण किया। राजराज की सहायता के लिए राजेंद्र चोल ने अपनी सेना भेजी। चोल और चालुक्य सेनाओं के बीच कलिदिंडि का युद्ध हुआ, जिसका कोई परिणाम नहीं निकला। किंतु कुछ समय बाद सोमेश्वर ने वेंगी पर पुनः आक्रमण कर उसे जीत लिया। अब राजराज ने चोलों के स्थान पर पश्चिमी चालुक्यों की अधीनता स्वीकार कर ली।

1045 ई. के राजाधिराज प्रथम के एक लेख से पता चलता है कि उसने धान्यकटक के एक युद्ध में सोमेश्वर प्रथम की सेना को पराजित कर चालुक्यों को वेंगी से बाहर कर दिया था। लेकिन 1047 ई. के एक लेख में सोमेश्वर की वेंगी विजय का वर्णन मिलता है। 1049 से 1054 ई. तक के लेखों में इसके पुत्र सोमेश्वर द्वितीय को ‘वेंगी पुरवरेश्वर’ की उपाधि दी गई है। पश्चिमी चालुक्यों के 1055-56 ई. के कई लेख गोदावरी जिले के द्राक्षाराम से मिले हैं। इस प्रकार लगता है कि राजराज नरेंद्र के शासन के अंत (1061 ई.) तक वेंगी पर पश्चिमी चालुक्यों का अधिकार बना रहा।

इस प्रकार राजराज का इक्तालिस वर्षीय शासनकाल संघर्षों में ही व्यतीत हुआ। चोल एवं चालुक्य शासक वेंगी को समरांगण मानकर शक्ति-परीक्षण करते रहे। राजराज नरेंद्र ने अपनी ममेरी बहन अम्मंगै से विवाह किया था जो राजेंद्र चोल की पुत्री थी। इससे उत्पन्न पुत्र का नाम राजेंद्र चोल के नाम पर राजेंद्र रखा गया था।

विजयादित्य सप्तम

राजराज नरेंद्र की मृत्यु के बाद उसका छोटा सौतेला भाई विजयादित्य सप्तम 1061 ई. में वेंगी के चालुक्य वंश का अंतिम शासक बना। इसने कल्याणी के चालुक्यों की सहायता से अपने सौतेले भाई राजराज नरेंद्र को अपदस्थ करने के लिए निरंतर प्रयास किया और आरंभ में कुछ यह सफल भी हुआ था। बाद में यह कल्याणी के चालुक्यों की शरण में चला गया और उनके अधीन नोलंबवाडि में शासन करने लगा था।

सिंहासन ग्रहण करने के बाद विजयादित्य सप्तम ने अपने पुत्र शक्तिवर्मन् द्वितीय के पक्ष में सिंहासन त्याग दिया और पुनः नोलंबवाडि चला गया। किंतु मात्र एक वर्ष के शासन के बाद शक्तिवर्मन् चोलों के विरुद्ध लड़ता हुआ मारा गया। इसके बाद विजयादित्य पुनः वेंगी के सिंहासन पर बैठा।

विजयादित्य सप्तम कल्याणी के चालुक्य शासक सोमेश्वर की अधीन था। सोमेश्वर ने उसके नेतृत्व में एक सेना दक्षिण की ओर चोलों से युद्ध करने के लिए भेजी। इसी बीच सोमेश्वर की मृत्यु हो गई और विजयादित्य को बाध्य होकर चोलों की अधीनता स्वीकार करनी पङी। इसके बाद 1068 ई. तक वह वेंगी में चोलों के सामंत के रूप में शासन करता रहा।

कुछ इतिहासकाकरों का अनुमान है कि विजयादित्य को वेंगी का शासक बनाये जाने का उसके भतीजे राजेंद्र ने उसका विरोध किया, किंतु कलिंग के गंग शासक देवेंद्रवर्मा की सहायता से वह 1072-73 ई. तक वेंगी पर शासन करता रहा।

पता चलता है कि 1073 ई. के आसपास डाहल के चेदि शासक यशःकर्णदेव ने वेंगी पर आक्रमण किया और आंध्र शासक को नष्ट कर दिया। इसी प्रकार गंग शासक राजराज देवेंद्रवर्मन् के एक सेनापति ने एक लेख में दावा किया है कि उसने वेंगी शासक को कई बार पराजित किया और उसकी संपत्ति को अपहृत कर लिया था। इस प्रकार लगता है कि विजयादित्य ने वेंगी से भागकर पश्चिमी चालुक्यों के अधीन नोलंबवाडि में शासन करने लगा था और वहीं 1075 ई. में उसकी मृत्यु हो गई। विजयादित्य के बाद वेंगी का चालुक्य राज्य शक्तिशाली चोल साम्राज्य में विलुप्त हो गया।

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बौद्ध धर्म पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-3

आधुनिक भारत और राष्ट्रीय आंदोलन पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-1

आधुनिक भारत और राष्ट्रीय आंदोलन पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-2 

आधुनिक भारत और राष्ट्रीय आंदोलन पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-3  

आधुनिक भारत और राष्ट्रीय आंदोलन पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-4 

आधुनिक भारत और राष्ट्रीय आंदोलन पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-5

भारत के प्राचीन इतिहास पर आधारित क्विज-1 

भारत के मध्यकालीन इतिहास पर आधारित क्विज-1

नाथ पंथ और भारतीय संत साहित्य पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-2023 

भारत के मध्यकालीन इतिहास पर आधारित क्विज-1 

सिंधुघाटी की सभ्यता पर आधारित क्विज 

भारत की प्रागैतिहासिक संस्कृति पर आधारित क्विज 

राष्ट्र गौरव पर आधारित क्विज 

रामगुप्त की ऐतिहासिकता 

स्कंदगुप्त ‘क्रमादित्य’ 

पेरिस शांति-सम्मेलन और वर्साय की संधि 

द्वितीय विश्वयुद्ध : कारण, प्रारंभ, विस्तार और परिणाम 

प्रथम विश्वयुद्ध, 1914-1918 ई. 

भारत में राष्ट्रवाद का उदय

नेपोलियन बोनापार्ट (Napoleon Bonaparte)

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