ताम्रपाषाणिक संस्कृतियाँ : सिंधुघाटी की सभ्यता (Chalcolithic Cultures: Indus Valley Civilization)

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ताम्रपाषाणिक संस्कृतियाँ : सिंधुघाटी (हड़प्पा) की सभ्यता

नवपाषाणकालीन संस्कृति की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता है- गैर-धात्विक उपकरण और कृषि की जानकारी के साथ ग्रामीण जीवन का विकास। माना जाता है कि मानव ने सर्वप्रथम जिस धातु को औजारों में प्रयुक्त किया, वह ताँबा था और इसका सबसे पहले प्रयोग करीब 5000 ई.पू. में किया गया। जिस काल में मनुष्य ने पत्थर और ताँबे के औजारों का साथ-साथ प्रयोग किया, उस काल को ‘ताम्र-पाषाणिक काल’ कहते हैं।

भारत की ताम्रपाषाणिक संस्कृतियों में गैर-नगरीय और गैर-हड़प्पाई संस्कृतियों की गणना की जाती है। सर्वप्रथम इनका उदय दूसरी सहस्राब्दी ई.पू. में हुआ और जिनको अंत में लौह-प्रयोक्ता संस्कृतियों ने विस्थापित कर दिया। तिथिक्रम के अनुसार भारत में ताम्र-पाषाणिक बस्तियों की अनेक शाखाएँ हैं। कुछ तो प्राक्-हड़प्पाई हैं, कुछ हड़प्पा संस्कृति के समकालीन हैं, और कुछ हड़प्पोत्तर काल की हैं। प्राक्-हड़प्पाकालीन संस्कृति के अंतर्गत राजस्थान के कालीबंगा एवं हरियाणा के बनावली स्पष्टतः ताम्र-पाषाणिक अवस्था के हैं।

सिंधुघाटी की आरंभिक बस्तियाँ

बलूचिस्तान, उत्तर-पश्चिम की गोमल घाटी, पंजाब के मैदानों, सिंधु, बहावलपुर, घग्गर घाटी, राजस्थान और हरियाणा में बहुत सी ऐसी बस्तियों का समान्वेषण और उत्खनन हुआ है, जो भारतीय प्रायद्वीप में न केवल गेहूँ, जौ पर आधारित कृषि तथा बस्तियों का प्रतिनिधित्व करती हैं, वरन् वे सिंधु सभ्यता की पृष्ठभूमि को भी स्पष्ट करती हैं। परवर्ती काल में सिंधु सभ्यता इस समूचे क्षेत्र में विकसित हुई जो गुजरात तथा गंगा-यमुना के ऊपरी भाग तक फैल गई।

दक्षिणी अफगानिस्तान के मुंडीगाक तथा देह मोरासी, घुंडई बलूचिस्तान में मेहरगढ़, किले गुल मुहम्मद, दंब सादात, अंजीरा, स्याह दंब, राना घुंडई, कुल्ली, नाल और बालाकोट, गोमल घाटी में गुमला और रहमान ढ़ेरी, पश्चिमी पंजाब में रावलपिंडी के निकट पोतवार पठार में सराय खोला, जलीलपुर, सिंधु के कोटदीजी और आमरी, राजस्थान में कालीबंगा तथा हरियाणा के बनावली आदि पुरास्थलों के उत्खनन में हड़प्पा-पूर्व सभ्यता और जीवन-यापन के साक्ष्य का समन्वेषण किया गया है।

इन प्राक्-हड़प्पा संस्कृतियों के लोग पत्थर के साथ-साथ ताँबे के उपकरणों का प्रयोग करते थे। मेहरगढ़ से ताँबे की जानकारी तथा अफगानिस्तान, ईरान और संभवतः मध्य भारत के साथ संपर्क का प्रमाण मिलता है। ताँबे के उपकरणों में कुल्हाड़ियां, चाकू, चूड़ियाँ, मुद्रिकाएँ, कंकण आदि मिले हैं। जलीलपुर से मिट्टी और सोने के मनके मिले हैं।

बलूचिस्तान तथा सिंधु क्षेत्र में इन प्राक्-हड़प्पा संस्कृतियों के लोग हाथ से तथा चाक पर बनाये गये पांडु तथा लाल रंग के मृद्भांड का प्रयोग करते थे। कुछ बर्तनों पर काले रंग की चित्रकारियाँ भी मिलती हैं। जोब लोरलाई क्षेत्र में राना घुंडई अतिविशिष्ट चित्रित मृद्भांड शैली के लिए प्रसिद्ध है। इसके दूसरे और तीसरे चरणों पर ईरानी प्रभाव परिलक्षित होता है। आमरी और कोटदीजी, दोनों स्थलों पर विशिष्ट चित्रित मृद्भांड शैलियों के दर्शन होते हैं जो सिंधुु तथा उससे लगे हुए क्षेत्रों में अनेक स्थानों से पाई गई हैं।

प्रारंभिक हड़प्पा की इन संस्कृतियों में विकासशील ग्राम्य अर्थव्यवस्था का निरंतर अनुक्रम देखने को मिलता है। इस संस्कृति के लोग कृषक और पशुचारी थे। कालीबंगा से प्राक्-हड़प्पा स्तर से एक जुते हुए खेत का प्रमाण मिला है। वे गेहूँ, जौ, धान, मसूर, उड़द, मटर आदि की खेती करते थे और गाय, बैल, भेड़, बकरी, सुअर, भैंस आदि मवेशियों को पालते थे। कुछ स्थलों के उत्खनन से धातु के व्यापक प्रयोग तथा पश्चिम में फारस की खाड़ी तक व्यापार-संपर्क का संकेत मिलता है।

उनके मकान घास-फूस तथा मिट्टी के बनते थे। कहीं-कही कच्ची ईंटों का भी प्रयोग किया गया है। कोटदीजी, कालीबंगा जैसे कुछ स्थलों से अनगढ़ पत्थरों के प्रयोग तथा किलेबंदी के प्रमाण मिले हैं। कालीबंगा की सिंधुु-पूर्व सभ्यता की बस्ती कच्ची ईंटों की किलेबंदी से घिरी थी। रहमान ढ़ेरी से सुनियोजित हड़प्पा-पूर्व बस्ती के संकेत मिलते हैं जो एक दीवार से घिरी थी। कुल्ली, झाब आदि से प्राप्त नारी-मूर्तियों से देवी पूजा का संकेत मिलता है। शवाधान में दाह-कर्म एवं समाधीकरण दोनों विधियाँ अपनाई जाती थीं। अस्थि-कलशों में औजार, उपकरण, आभूषण आदि मिलते हैं, जिससे लगता है कि इस संस्कृति के लोग लोकोत्तर जीवन में विश्वास करते थे।

इस प्रकार सिंधु, पंजाब, राजस्थान आदि की ग्रामीण संस्कृतियाँ अत्यंत विकसित थीं। कोटदीजी में सुनियोजित भवन, सुदृढ़ रक्षा-प्राचीर और नालियों की उत्तम व्यवस्था थी। इसी समृद्ध ग्रामीण आधार पर ही सिंधु घाटी में नगरीय सभ्यता का उदय/विकास हो सका।

सिंधुघाटी (हड़प्पा) की सभ्यता

प्राचीनतम् विश्व की नदी घाटी सभ्यताओं में से एक हड़प्पा सभ्यता का विकास सिंधु और घग्घर (प्राचीन सरस्वती) नदियों के किनारे हुआ था। प्रागैतिहासिक युग के पश्चात् मानव ने अपने अनुभव, विवेक और शक्ति के प्रयोग के द्वारा प्रकृति तथा तत्कालीन वातावरण पर विजय प्राप्त किया, जिसके परिणामस्वरूप उसे नूतन आविष्कारों द्वारा अपने जीवन को सुखद, सुरक्षित एवं सुविधाजनक बनाने में सफलता मिली। इसी क्रम में ताम्रपाषाणिक पृष्ठिभूमि पर सिंधु नदी की उपत्यका में इस पूर्ण विकसित नागर सभ्यता का प्रादुर्भाव हुआ। सबसे पहले चार्ल्स मैसन ने 1826 ई. में इस पुरानी सभ्यता को खोजा।

1872 ई. में कनिंघम ने इस सभ्यता के संबंध में सर्वेक्षण किया और फ्लीट ने इसके बारे में एक लेख लिखा। किंतु भारतीय इतिहास के प्राचीनतम् वैभव की इस परिकल्पना को जोरदार समर्थन तब मिला जब 1921 ई. में दयाराम साहनी ने हड़प्पा की और 1922 ई. में राखालदास बनर्जी ने मोहनजोदड़ो की खुदाई की। इन दोनों पुरास्थलों की खुदाई से भारत के उत्तरी पश्चिमी भाग में 2500 ई.पू. के लगभग विकसित एक ऐसी नगरीय सभ्यता का ज्ञान हुआ, जिसकी तुलना में तत्कालीन विश्व की मिस्र, मेसोपोटामिया जैसी अन्य विकसित सभ्यताएँ अपने विकास के क्रम में बहुत पीछे छूट गईं। इस सभ्यता के ज्ञान से भारतीय इतिहास का आद्यैतिहासिक काल बहुत पहले चला जाता है। यह भारतीय प्रायद्वीप का गौरव रहा है कि पश्चिमी विश्व जब आदिम सभ्यता के आँचल में ढ़का था तो एशिया महाद्वीप के इस प्रायद्वीप में अत्यंत विकासमान सभ्य लोग निवास करते थे। विभिन्न अनुसंधानों से अब यह भी सिद्ध हो गया है कि भारत की सामाजिक, धार्मिक एवं भौतिक प्रवृत्तियों का मूल इसी विकसित सभ्यता में है।

नामकरण

आरंभ में हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई से इस सभ्यता के प्रमाण मिले थे, और ये दोनों स्थल सिंधु और उसकी सहायक नदियों के क्षेत्र में थे, इसलिए विद्वानों ने इसे ‘सिंधु घाटी की सभ्यता नाम दिया था, किंतु बाद में रोपड़, लोथल, कालीबंगा, बनावली, रंगपुर, भगतराव, धौलावीरा आदि क्षेत्रों में भी इस सभ्यता के अवशेष मिले, जो सिंधु और उसकी सहायक नदियों के क्षेत्र से बाहर थे। इसलिए इस सभ्यता के प्रथम उत्खनित एवं विकसित केंद्र हड़प्पा के नाम पर पुरातत्त्वविदों ने इसे ‘हड़प्पा सभ्यता’ नाम दिया। आद्यैतिहासिककालीन होने के कारण इसे ‘आद्यैतिहासिक सभ्यता’ के नाम से भी जाना जाता हैं। पहली बार इस सभ्यता में काँस्य-उपकरणों का व्यापक स्तर पर प्रयोग किया गया, जिसके कारण इसे काँस्यकालीन सभ्यता भी कहा जाता है।

प्रथम नगरीकरण

अन्य समकालीन सभ्यताओं की भाँति सिंधु सभ्यता भी नदी घाटियों में ही विकसित हुई। भूमि की उर्वरता और पानी की उपलब्धता के कारण इस क्षेत्र में बड़ी मात्रा में अधिशेष उत्पादन किया जा सकता था। अधिक अधिशेष-उत्पादन के कारण गैर-कृषक वर्ग, जैसे- व्यापारी, शिल्पकार और शासक उत्पन्न हुए जिससे धीरे-धीरे नगरीकरण की प्रक्रिया को बल मिला और पहली बार सैंधव सभ्यता में नगरों का उदय हुआ, इसलिए इस सभ्यता को ‘प्रथम नगरीकरण’ भी कहते हैं। वी. गार्डन चाइल्ड का कहना है कि नगरीकरण का तकनीकी विकास, धातु विज्ञान, अधिशेष उत्पादन, विशेषीकरण, वर्ग-स्तरीकरण और राज्य के निर्माण में नजदीकी संबंध है। इन सभी तत्त्वों ने लिपि के आविष्कार एवं विकास के साथ मिलकर नगरीय क्रांति को जन्म दिया, जो आगे चलकर सभ्यता के विकास की अग्रदूत बनी। इस प्रकार सभ्यता मानव के क्रमिक सामाजिक विकास की एक निश्चित अवस्था है जो शिकारी खाद्य-संग्रहकर्त्ता चरण से कहीं आगे की अवस्था है। साथ ही यह अवस्था नवपाषाण समाज से भी कहीं आगे की अवस्था है क्योंकि नवपाषाणिक समाज अधिशेष उत्पादन के लिए पर्याप्त विकसित नहीं था।

सिंधु सभ्यता के निर्माता

सैंधव सभ्यता के उदय और विकास के संबंध में इतिहासकारों में मतभेद रहा है। सर जान मार्शल, गार्डन चाइल्ड, मार्टीमर ह्वीलर जैसे पुरातत्त्वविदों के अनुसार यह सभ्यता मेसोपोटामियाई सभ्यता की एक औपनिवेशिक शाखा थी जो सुमेरियनों द्वारा सिंधु क्षेत्र में लाई गई। इनके अनुसार सिंधु सभ्यता में मिलनेवाले अवशेष पश्चिमी सभ्यता से काफी मिलते-जुलते है। ह्वीलर के अनुसार कालानुक्रम में सुमेरियन सभ्यता हड़प्पा सभ्यता से प्राचीन है, इसलिए सिंधु सभ्यता पर सुमेरियन सभ्यता का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। सिंधु सभ्यता के लोगों ने सुमेरियनों से बहुत कुछ सीखा। अपने तर्क के समर्थन में ह्वीलर जैसे विद्वानों ने दोनों सभ्यताओं की समानताओं को दिखाने का प्रयास किया है, जैसे- दोनों ही सभ्यताएँ नगरीय थीं और दोनों में ईंटों का प्रयोग होता था। हस्तकौशल दोनों की ही विशेषता है और दोनों सभ्यता के लोग लिपि तथा चाक का प्रयोग करते थे।

यद्यपि मेसोपोटामिया और सिंधु सभ्यता से प्राप्त मोहरों, नगर-नियोजन, बर्तन, उपकरण तथा ईंटों आदि में कुछ समानताएँ परिलक्षित होती हैं, किंतु सिंधु सभ्यता की नगरीय व्यवस्था, सुनियोजित, नगर खंड, अपवाह प्रणाली आदि सुमेरियनों से अधिक विकसित थी। सुमेरियन ईंटें जहाँ कच्ची, अनगढ़ और धूप में सुखाई गई हैं, वहीं हड़प्पा सभ्यता की ईंटें पूर्णतया पकी हुई हैं। दोनों सभ्यताओं की लिपि में भी अंतर है। सैंधव लिपि चित्राक्षर है जिसमें 400 संकेत हैं, जबकि सुमेरियन लिपि में 900 अक्षर मिलते हैं। इस प्रकार सैंधव सभ्यता का उदय सुमेरियन सभ्यता से नहीं माना जा सकता है।

के.एन. शास्त्री, पुसाल्कर, भगवानसिंह जैसे इतिहासकार सिंधु सभ्यता एवं वैदिक सभ्यता दोनों का निर्माता आर्यों को ही मानते हैं। भगवानसिंह हड़प्पा और वैदिक संस्कृति को एक ही सिद्ध करने का प्रयास करते है।

द्रविड़ उत्पत्ति

राखालदास बनर्जी इस सभ्यता के निर्माण का श्रेय द्रविड़ों को देते हैं। ह्वीलर का मानना है कि ऋग्वेद में वर्णित ‘दस्यु’ एवं ‘दास’ सिंधु सभ्यता के निर्माता थे। वस्तुतः सिंधु सभ्यता के निर्माता द्रविड़ ही रहे होंगे क्योंकि ऋग्वेद में वर्णित घटनाओं से यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि इस विकसित सभ्यता का विनाश आर्यों द्वारा ही किया गया था।

स्थानीय उत्त्पति

फेयर सर्विस, अल्चिन दंपति, स्टुअर्ट पिग्गट, अमलानंद घोष जैसे अधिकांश इतिहासकार हड़प्पा की स्थानीय उत्त्पति को स्वीकार करते हैं जिसके अनुसार यह सभ्यता विभिन्न प्राक्-हड़पाई स्थलों में विकसित हुई है। सिंधु सभ्यता के मूल में वे स्थानीय संस्कृतियाँँ रही हैं जो सिंधु सभ्यता के उद्भव के भी पहले यहाँ विद्यमान थीं। वस्तुतः सैंधव सभ्यता की विशिष्टताओं में जो मौलिकता और निजी तत्त्व हैं, वे उसके स्थानीय उत्पत्ति की ओर संकेत करते हैं। दक्षिणी अफगानिस्तान, सिंधु, राजस्थान, गुजरात, मुंडीगाक, झाब, कुल्ली नाल, आमरी जैसे स्थलों से जो ग्रामीण एवं ताम्रपाषाणिक संस्कृतियाँ मिली हैं, वे ही धीरे-धीरे विकसित होकर सैंधव सभ्यता का मूलाधार बनीं। इन ग्रामीण संस्कृतियों के लोग कृषिकार्य करते थे और इन स्थलों की खुदाइयों में हड़प्पा से मिलते-जुलते उपकरण और मृद्भांड पाये गये हैं।

काल-निर्धारण

हड़प्पा सभ्यता के काल को निर्धारित करना निःसंदेह कठिन है। मोहनजोदड़ो की खुदाई से इस सभ्यता के सात स्तरों का पता चला है, जिससे लगता है कि यह सभ्यता कम से कम 1000 वर्षों तक अस्तित्व में रही। सबसे पहले सर जान मार्शल ने 1931 ई. में सारगोन की तिथि के आधार पर इस सभ्यता का काल ई.पू. 3250 से ई.पू. 2750 निर्धारित किया था। इस सभ्यता का काल-निर्धारण माधोस्वरूप वत्स ने ई.पू. 3500-2700 ई.पू., डेल्स ने ई.पू. 2900-1900 ई.पू., अर्नेस्ट मैके ने ई.पू. 2800-5500 ई.पू., सी.जे. गैड ने ई.पू. 2350-1700 ई.पू., डी.पी. अग्रवाल ने ई.पू. 2350-1750 ई.पू. और फेयर सर्विस ने ई.पू. 2000-1500 ई.पू. किया है।

मार्टीमर ह्वीलर ने मुख्यतः मेसोपोटामिया के उर और किश जैसे स्थलों से पाये गये हड़प्पाई मुद्राओं और ऋग्वेद के अंतःसाक्ष्य के आधार पर इस सभ्यता का काल ई.पू. 2500-1700 निर्धारित किया है। इस सभ्यता का मेसोपोटामिया के साथ व्यापारिक संबंध सारगोन युग में ही अधिक था, इसलिए यह संबंध ई.पू. 2500 के आसपास स्थापित हुआ होगा। ह्वीलर के अनुसार ऋग्वेद के इंद्र ने ही हड़प्पा के रक्षा-प्राचीरों को ध्वस्त किया था, इसलिए उसे पुरों को नष्ट करने वाला ‘पुरंदर’ कहा गया है। मोहनजोदड़ो के उत्खनन से पता चलता है कि वहाँ के निवासियों की निर्दयतापूर्वक हत्या की गई थी। इस नरसंहार का मुख्य अभियुक्त ‘इंद्र’ था। इससे लगता है कि आर्यों ने ही आक्रमण कर इस सभ्यता के नगरों को धवस्त किया और भागते हुए नागरिकों की सामूहिक हत्या की थी। भारत में आर्यों का आगमन ई.पू. 1500 के आसपास माना जाता है और यही सिंधु सभ्यता के अंत का समय भी रहा होगा। ई.पू. 1500 के बाद की कोई मुहर मेसापोटामियाई स्थलों से नहीं मिली है, इसलिए इस समय सिंधु सभ्यता का अंत माना जा सकता है।

कालांतर में इस सभ्यता के मोहनजादड़ो, कोटदीजी, कालीबंगा, लोथल, रोजदी, सुरकोटदा तथा बाड़ा से रेडियो कार्बन-तिथियाँ प्राप्त की गईं। रेडियो कार्बन-विधि से इस सभ्यता को तीन चरणों- पूर्व हड़प्पाई चरण लगभग ई.पू. 3500-2600 ई.पू. तक, परिपक्व हड़प्पाई चरण लगभग ई.पू. 2600-1900 ई.पू. तक और लगभग ई.पू. 1900-1300 ई.पू. तक उत्तर हड़प्पाई चरण में बाँटा गया है। इस प्रकार इस रेडियो कार्बन (सी-14) की नवीन विश्लेषण-पद्धति के द्वारा इस सभ्यता का सर्वमान्य काल ई.पू. 2500 से ई.पू. 1700 को माना जा सकता है। हड़प्पा सभ्यता ई.पू. 2500 में अपने विकास की चरमसीमा पर पहुँच चुकी थी।

हड़प्पा सभ्यता का प्रसार-क्षेत्र

विश्व की सभी प्राचीन सभ्यताओं के क्षेत्र से कई गुना विस्तृत था। इस परिपक्व सभ्यता का केंद्र-स्थल पंजाब तथा सिंधु में था। किंतु इस सभ्यता के अंतर्गत पंजाब, सिंधु और बलूचिस्तान के क्षेत्र ही नहीं, बल्कि गुजरात, राजस्थान, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सीमांत भाग भी सम्मिलित थे। अब तो महाराष्ट्र और गंगा-यमुना के दोआब से भी इस विकसित सभ्यता के अवशेष मिलने की सूचनाएँ मिल रही हैं। यह सभ्यता पश्चिम में मकरान समुद्र तट के सुत्कागेनडोर से लेकर पूरब में मेरठ के आलमगीरपुर (उ.प्र.) तक तथा उत्तर में जम्मू-कश्मीर के मांडा से लेकर दक्षिण में महाराष्ट्र के दायमाबाद तक फैली थी।

सिंधुघाटी की सभ्यता (Indus Valley Civilization)
हड़प्पा सभ्यता का प्रसार-क्षेत्र

यह सभ्यता पूर्व से पश्चिम तक 1,600 कि.मी. तथा उत्तर से दक्षिण तक 1,400 कि.मी. क्षेत्र में विस्तृत थी और इस त्रिभुजाकार क्षेत्र का क्षेत्रफल 12,99,600 वर्ग किलोमीटर है। इस विस्तृत भूभाग में असंख्य नगर, कस्बे और गाँव रहे होंगे। नवीन अन्वेषणों से यह निश्चित हो गया है कि इस सभ्यता का विस्तार उत्तरी पंजाब से लेकर नर्मदा-ताप्ती नदी की घाटी तक तथा पश्चिम में बलूचिस्तान से लेकर पूरब में गंगा-यमुना की घाटी तक फैला हुआ था। भगवतशरण उपाध्याय के अनुसार इसका विस्तार पूरब में बिहार के पटना तथा बक्सर तक रहा होगा क्योंकि इन स्थानों से प्राप्त मृंडमूर्तियों पर सैंधव सभ्यता की छाप है।

हड़प्पाई सभ्यता का कुल भौगोलिक क्षेत्र मिस्र की सभ्यता के क्षेत्र से बीस गुना और मिस्र तथा मेसोपोटामिया की दोनों सभ्यताओं के संयुक्त क्षेत्रफल से बारह गुना बड़ा था।

भारतीय उपमहाद्वीप में अब तक इस सभ्यता के कुल 2,400 स्थलों का पता लग चुका है जिसमें से 9,25 केंद्र भारत में है। अभी तक कुछ गिने-चुने स्थलों का ही उत्खनन-कार्य किया गया है, जिनमें से कुछ पुरास्थल आरंभिक अवस्था के परिचायक हैं, कुछ परिपक्व अवस्था के और कुछ उत्तरवर्ती अवस्था के। हड़प्पा सभ्यता के विभिन्न स्थल भारतीय उपमहाद्वीप के निम्नलिखित क्षेत्रों से प्रकाश में आये हैं-

बलूचिस्तान

दक्षिणी बलूचिस्तान में हड़प्पा सभ्यता के कई पुरास्थल स्थित हैं जिसमें मकरान समुद्र तट पर मिलनेवाले तीन स्थल पुरातात्त्विक दृष्टि से अधिक महत्त्वपूर्ण हैं- सुत्कागेनडोर) दाश्क नदी के मुहाने पर), सुत्काकोह (शादीकौर के मुहाने पर), बालाकोट (विंदार नदी के मुहाने पर) और डाबरकोट (सोन मियानी खाड़ी के पूर्व में विंदार नदी के मुहाने पर)।

उत्तर पश्चिमी सीमांत

उत्तर पश्चिमी सीमांत की संपूर्ण पुरातात्त्विक सामग्री, गोमल घाटी में केंद्रित प्रतीत होती है जो अफगानिस्तान जाने का एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण मार्ग है। गुमला जैसे स्थलों पर सिंधु-पूर्व सभ्यता के निक्षेपों के ऊपर सिंधु सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए हैं।

सिंधु

सिंधु में कुछ स्थल प्रसिद्ध हैं, जैसे- मोहनजोदड़ो, चांहूदड़ो, जूडीरोजोदड़ो, आमरी (जिसमें सिंधु पूर्व सभ्यता के निक्षेप के ऊपर सिंधु सभ्यता के निक्षेप मिलते हैं), कोटदीजी, अलीमुराद, रहमानढ़ेरी, रानाघुंडई इत्यादि।

पश्चिमी पंजाब

इस क्षेत्र में अधिक स्थल प्रकाश में नहीं आये हैं। संभवतः पंजाब की नदियों के मार्ग बदलने के कारण कुछ स्थल नष्ट हो गये हैं। इसके अलावा डेरा इस्माइलखाना, जलीलपुर, रहमानढ़ेरी, गुमला, चक-पुरवानस्याल आदि महत्त्वपूर्ण पुरास्थल हैं।

बहावलपुर

यहाँ के स्थल सूखी हुई सरस्वती नदी के मार्ग पर स्थित हैं। इस मार्ग का स्थानीय नाम हकरा है। घग्घर/हकरा अर्थात् सरस्वती/दृषद्वती नदियों की घाटियों में हड़प्पा संस्कृति के अनेक स्थल पहचाने गये हैं, किंतु इस क्षेत्र में अभी तक किसी स्थल का उत्खनन नहीं हुआ है।

राजस्थान

प्राचीन सरस्वती नदी के सूखे हुए मार्ग पर स्थित इस क्षेत्र का सबसे महत्त्वपूर्ण स्थल कालीबंगा है। इस पुरास्थल से हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो की भाँति पश्चिम में गढ़ी और पूर्व में नगर के दो टीले विद्यमान हैं। राजस्थान के समस्त हड़प्पाई पुरास्थल आधुनिक गंगानगर जिले में हैं।

हरियाणा

हरियाणा में इस सभ्यता का महत्त्वपूर्ण स्थल हिसार जिले में स्थित बनावली है। इसके अलावा मिथातल, सिसवल, राखीगढ़ी, वाड़ा तथा वालू आदि स्थलों का भी उत्खनन किया जा चुका है।

पूर्वी पंजाब

इस क्षेत्र के महत्त्वपूर्ण स्थल रोपड़ और संधोल है। हाल ही में चंडीगढ़ नगर में भी हड़प्पा संस्कृति के निक्षेप पाये गये हैं। इसके अतिरिक्त कोटलानिहंग खान, चक 86 वाड़ा, ढ़ेर-मजरा आदि पुरास्थलों से सिंधु सभ्यता से संबद्ध पुरावशेष प्राप्त हुए हैं।

गंगा-यमुना दोआब

गंगा-यमुना क्षेत्र में हड़प्पाई पुरास्थल मेरठ जिले के आलमगीरपुर तक फैले हुए हैं। अन्य स्थल सहारनपुर जिले में स्थित हुलास तथा बाड़गाँव हैं। हुलास तथा बाड़गाँव की गणना परवर्ती हड़प्पा सभ्यता के पुरास्थलों में की जाती है।

जम्मू

इस क्षेत्र से मात्र एक स्थल का पता लगा है, जो अखनूर के निकट मांडा में है। यह स्थल भी हड़प्पा सभ्यता के परवर्ती चरण से संबंघित है।

गुजरात

1947 ई. के बाद गुजरात में हड़प्पाई स्थलों की खोज के लिए व्यापक स्तर पर उत्खनन किया गया। गुजरात में हड़प्पा सभ्यता से संबंधित 23 पुरास्थल हैं, जिसमें से चौदह कच्छ क्षेत्र में तथा शेष अन्य भागों में स्थित हैं। गुजरात प्रदेश में पाये गये प्रमुख पुरास्थलों में रंगपुर, लोथल, पाडरी, प्रभास-पाटन, रोजदी, देसलपुर, मेघम, वेतेलोद, भगवतराव, सुरकोटदा, नागेश्वर, कुंतासी, शिकारपुर, धौलावीरा, जाना खटिया आदि हैं।

महाराष्ट्र

इस प्रदेश के दायमाबाद पुरास्थल से मिट्टी के ठीकरे प्राप्त हुए हैं जिन पर चिरपरिचित हड़प्पा लिपि में कुछ लिखा हुआ है। ताम्र-मूर्तियों का एक निधान, जिसे प्रायः हड़प्पा संस्कृति से संबद्ध किया जाता है, महाराष्ट्र के दायमाबाद नामक स्थान से प्राप्त हुआ है। इसमें रथ चलाते मनुष्य, सांड़, गैंडा और हाथी की आकृतियाँ प्रमुख रूप से प्राप्त हुई हैं। ये सभी ठोस धातु की बनी हैं और वजन कई किलो है, किंतु इसकी तिथि के विषय में विद्वानों में मतभेद है।

अफगानिस्तान

हिंदुकुश के उत्तर में अफगानिस्तान में स्थित मुंडीगाक और शोेर्तगोई दो पुरास्थल हैं। मुंडीगाक का उत्खनन जे.एम. कैसल द्वारा किया गया था, जबकि शोर्तगोई की खोज एवं उत्खनन हेनरी फ्रैंकफर्ट द्वारा कराया गया था। शोर्तगोई लाजवर्द की प्राप्ति के लिए बसाई गई व्यापारिक बस्ती थी।

यह बिडंबना है कि उपरोक्त पुरातात्त्विक स्थलों की खोज एवं उत्खनन के बाद भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग व भारत सरकार इस सभ्यता से संबद्ध नवीन स्थलों की पहचान और खुदाई में उदासीन हैं। नवीन अनुसंधानों से इस विकसित सभ्यता के उदय और विनाश के लिए उत्तरदायी तत्त्वों की पहचान की जा सकती है।

प्रमुख पुरास्थल

भारतीय उपमहाद्वीप में इस सभ्यता के ज्ञात लगभग 2,400 स्थानों में से केवल छः को ही नगर की संज्ञा दी जा सकती है- हड़प्पा, मोहनजोदड़ो (मुअनजोदारो), चांहूदड़ो, लोथल, कालीबंगा और बनावली (बणावली)। इनमें से दो नगर बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं- पाकिस्तान के पंजाब का रावी नदी के तट पर स्थित हड़प्पा तथा सिंधु का मोहनजोदड़ो (मृतकों का टीला)। दोनों ही पुरास्थल एक दूसरे से 483 कि.मी. दूर थे और सिंधु नदी द्वारा परस्पर जुड़े हुए थे। तीसरा नगर मोहनजोदड़ो से 130 कि.मी. दक्षिण में चांहूदड़ो है और चौथा नगर है गुजरात के खंभात की खाड़ी के ऊपर स्थित लोथल। इसके अतिरिक्त राजस्थान के कालीबंगा (काले रंग की चूडि़याँ) तथा हरियाणा के बनवाली भी उल्लेखनीय स्थल हैं। इन सभी स्थलों पर परिपक्व एवं उन्नत सिंधु सभ्यता के दर्शन होते हैं। सुतकांगेनडोर तथा सुरकोटदा के समुद्रतटीय नगरों में भी इस सभ्यता की परिपक्व अवस्था दिखाई देती है।

मोहनजोदड़ो (मुअनजोदारो)

मुअनजोदारो या मोहनजोदड़ो का शाब्दिक अर्थ ‘मृतकों का टीला’ है। यह पाकिस्तान के सिंधु प्रांत के लरकाना जिले में सिंधु नदी के दाहिने तट पर स्थित है। यह नगर लगभग पाँच कि.मी. के क्षेत्र में फैला हुआ है। मोहनजोदड़ो के टीलों को 1922 ई. में खोजने का श्रेय राखालदास बनर्जी को प्राप्त है। मोहनजोदड़ो के उत्खनन में मिस्र और मेसोपोटामिया जैसी ही प्राचीन सभ्यता के अवशेष मिले हैं। यहाँ पूर्व और पश्चिम (नगर के) दिशा में प्राप्त दो टीलों के अतिरिक्त सार्वजनिक स्थलों में एक विशाल जलाशय एवं एक अन्नागार के अवशेष प्राप्त हुए हैं। यहाँ विभिन्न आकार-प्रकार के सत्ताईस प्रकोष्ठ मिले हैं। इनके अतिरिक्त सार्वजनिक भवन एवं अधिकारी-आवास के ध्वंसावशेष भी सार्वजनिक भवनों की श्रेणी में आते हैं। अधिकारी-आवास विशाल स्नानागार के उत्तर-पूर्व में स्थित था।

दुर्ग टीला

मोहनजोदड़ो के पश्चिमी भाग में स्थित दुर्ग टीले को ‘स्तूप टीला’ भी कहा जाता है, क्योंकि यहाँ पर कुषाण शासकों ने एक स्तूप का निर्माण करवाया था। इसके अलावा मोहनजोदड़ो से कुंभकारों के छः भट्ठों के अवशेष, सूती कपड़ा, हाथी का कपालखंड, गले हुए ताँबे के ढेर, सीपी की बनी हुई पटरी एवं काँसे की नृत्यरत नारी की मूर्ति के अवशेष भी मिले हैं।

मोहनजोदड़ो नगर के एच. आर. क्षेत्र से जो मानव मूर्तियाँ मिली हैं, उसमें दाढ़ीयुक्त सिर विशेष महत्त्वपूर्ण है। मोहनजोदड़ो के अंतिम चरण से नगर-क्षेत्र के अंदर मकानों तथा सार्वजनिक मार्गों पर 42 कंकाल अस्त-व्यस्त दशा में मिले हैं। इसके अतिरिक्त मोहनजोदड़ो से लगभग 1,398 मुहरें (मुद्राएँ) भी प्राप्त हुई हैं जो कुल लेखन-सामग्री का 56.67 प्रतिशत हैं। पत्थर की मूर्तियों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सेलखड़ी से निर्मित एक 19 सेमी. लंबा पुरुष का धड़ है। चूना पत्थर का बना एक पुरुष सिर (14 सेमी.), सेलखड़ी से बनी एक अन्य मूर्ति भी विशेष उल्लेखनीय हैं। अन्य अवशेषो में सूती व ऊनी कपड़े का साक्ष्य और प्रोटो-आस्ट्रोलायड या काकेशियन जाति के तीन सिर मिले हैं। कूबड़वाले बैल की आकृतियुक्त मुहरं, बर्तन पकाने के छः भट्टे, एक बर्तन पर नाव का चित्र, जालीदार अलंकरणयुक्त मिट्टी का बर्तन, गीली मिट्टी पर कपड़े का साक्ष्य, पशुपति शिव जैसी मूर्ति एवं ध्यान की आकृतिवाली मुद्रा उल्लेखनीय हैं। मोहनजोदड़ो की एक मुद्रा पर एक संश्लिष्ट आकृति भी मिली है, जिसमें आधा भाग मानव का है, आधा भाग बाघ का। एक सिलबट्टा तथा मिट्टी का तराजू भी मिला है। मोहनजोदड़ो के समाधि क्षेत्र के विषय में अधिक सूचना नहीं है। नगर के अंदर शव-विसर्जन के दो प्रकार के साक्ष्य मिले हैं- एक आंशिक शवाधान का और दूसरा पूर्ण समाधीकरण (दफनाने) का।

बृहत्स्नानागार

बृहत्स्नानागार मोहनजोदड़ो ही नहीं, बल्कि सिंधु सभ्यता का भी सर्वाधिक उल्लेखनीय स्मारक है। इसका विस्तार पूर्व से पश्चिम की ओर 32.9 मी. तथा उत्तर से दक्षिण की ओर 54.86 मी. है। इसके मध्य में स्थित जलाशय (महाजलकुंड) 11.89 मी. लंबा, 7.01 मी. चैड़ा एवं 2.44 मी. गहरा है। इस जलकुंड के अंदर प्रवेश करने के लिए दक्षिणी और उत्तरी छोरों पर 2.43 मी. चैड़ी सीढि़याँ बनाई गई थीं। जलाशय की फर्श पक्की ईंटों की बनी थी। फर्श तथा दीवार की जुड़ाई जिप्सम से की गई है तथा बाहरी दीवार पर बिटूमन का एक इंच मोटा प्लास्टर है। स्नानागार के फर्श की ढाल दक्षिण-पश्चिम की ओर है जहाँ पानी निकलने की नाली बनी थी। कुंड के चारों ओर बरामदे एवं इनके पीछे अनेक छोटे-छोटे कमरे थे। कमरे संभवतः दोमंजिले थे, क्योंकि ऊपर जाने के लिए सीढ़ियाँ भी मिली हैं। इन कमरों में शायद कपड़े बदले जाते थे। कुंड के पूर्व में स्थित एक कमरे से ईंटों की दोहरी पंक्ति से बने एक कुँए का साक्ष्य मिला है जो संभवतः स्नानागार हेतु जल की आपूर्ति करता था। मैके के अनुसार इस बृहत्स्नानागार का निर्माण धार्मिक अवसरों पर जनता के सामूहिक स्नान हेतु किया गया था। जान मार्शल ने इसे तत्कालीन विश्व का ‘आश्चर्यजनक निर्माण’ बताया है।

सिंधुघाटी की सभ्यता (Indus Valley Civilization)
मोहनजोदड़ो का बृहत्स्नानागार
अन्नागार

मोहनजोदड़ो के स्नानागार के पश्चिम में 1.52 मीटर ऊँचे चबूतरे पर निर्मित विशाल भवन संभवतः संपूर्ण हड़प्पा संस्कृतिमाला में निर्मित पकी ईंटों की विशालतम् संरचना है जो 45.72 मीटर लंबा एवं 22.86 मीटर चौड़ा था। इसमें ईंटों से बने हुए विभिन्न आकार-प्रकार के पच्चीस प्रकोष्ठ मिले हैं। मार्टीमर ह्वीलर ने इसे ‘अन्नागार’ (कोठार) बताया है, जबकि कुछ अन्य इतिहासकार इसे ‘राजकीय भंडारागार’ होने का अनुमान लगाते हैं। इसमें हवा के संचरण की भी व्यवस्था थी। इस भवन का मुख्य प्रवेश-द्वार नदी की ओर था, जिससे अनाज को लाकर रखने में सुविधा होती रही होगी। संभवतः यह राजकीय भंडारागार था जिसमें जनता से कर के रूप में वसूल किये गये अनाज को रखा जाता था। मिस्र, मेसोपोटामिया से भी अन्नागारों के साक्ष्य पाये गये हैं।

सार्वजनिक भवन

दुर्ग के दक्षिण में 27.43 मीटर वर्गाकार का एक विशाल सार्वजनिक भवन का ध्वंसावशेष मिला है जिसकी छत 20 चैकोर स्तंभों पर टिकी है जो पाँच-पाँच की चार कतारों में हैं। मुख्य प्रवेश-द्वार उत्तर की ओर था। भवन के भीतर बैठने के लिए चौकियाँ बनाई गई थीं। मैके इसे ‘सामूहिक बाजार’ बताते हैं, जबकि कुछ इतिहासकारों के अनुसार संभवतः इसका प्रयोग धर्म-चर्चा या धार्मिक सभाओं के लिए किया जाता था। मार्शल महोदय इसकी तुलना ‘बौद्ध गुफा मंदिर’ से करते हैं और यही उचित भी लगता है।

अधिकारी आवास

विशाल स्नानागार के उत्तर-पूर्व से 70.01×23.77 मी. आकार के एक विशाल भवन का अवशेष प्राप्त हुआ है जिसमें 10 मी. वर्गाकार कोएक आंगन, तीन बरामदे एवं अनेक कमरे हैं। यह भवन संभवतः महत्त्वपूर्ण राजकीय अधिकारियों का निवास स्थान था। मैके के अनुसार इसमें पुरोहित जैसे विशिष्ट लोग निवास करते थे।

हड़प्पा

पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में स्थित मांटगोमरी जिले में रावी नदी के बांयें तट पर यह पुरास्थल स्थित है। हड़प्पा के ध्वंशावशेषों के संबंध में सबसे पहले जानकारी 1826 ई. में चार्ल्स मैसन ने दी थी। इसके बाद 1856 ई. में ब्रंटन बंधुओं ने हड़प्पा के पुरातात्त्विक महत्त्व को स्पष्ट किया। जान मार्शल के निर्देशन में 1921 ई. में दयाराम साहनी ने इस स्थल का उत्खनन कार्य प्रारंभ करवाया। यहाँ से मिस्र और मेसोपोटामिया जैसी प्राचीन सभ्यता के अवशेष मिले। 1946 ई. में सर मार्टीमर ह्वीलर ने हड़प्पा के पश्चिमी दुर्ग टीले की सुरक्षा-प्राचीर का स्वरूप ज्ञात करने के लिए इसका उत्खनन करवाया। यह नगर करीब पांँच कि.मी. के क्षेत्र में बसा हुआ था।

हड़प्पा से प्राप्त दो टीलों में पूर्वी टीले को नगर टीला तथा पश्चिमी टीले को दुर्ग टीला के नाम से संबोधित किया गया है। हड़प्पा का दुर्ग क्षेत्र सुरक्षा-प्राचीर से घिरा हुआ था। दुर्ग का आकार समलंब चतुर्भुज की भाँति था जिसकी उत्तर से दक्षिण लंबाई 420 मी. तथा पूर्व से पश्चिम चैड़ाई 196 मी. है। उत्खननकर्ताओं ने दुर्ग के टीले को माउंट ‘अब’ नाम दिया है। दुर्ग का मुख्य प्रवेश-द्वार उत्तर दिशा में तथा दूसरा प्रवेशद्वार दक्षिण दिशा में था। रक्षा-प्राचीर लगभग बारह मीटर ऊँची थी जिसमें स्थान-स्थान पर तोरण अथवा बुर्ज बने हुए थे। हड़प्पा के दुर्ग के बाहर उत्तर दिशा में स्थित लगभग छः मीटर ऊँचे टीले को ‘एफ’ नाम दिया गया है जहाँ से अन्नागार, अनाज कूटने के वृत्ताकार चबूतरे और श्रमिक आवास के साक्ष्य मिले हैं।

अन्नागार

हड़प्पा से प्रांत अन्नागार नगर गढ़ी के बाहर रावी नदी के निकट स्थित थे। यहाँ से छः-छः की दो पंक्तियाँ में निर्मित कुल बारह कक्षोंवाले एक अन्नागार का अवशेष प्रकाश में आया है, जिनमें प्रत्येक का आकार 50×20 मी. का है, जिसका कुल क्षेत्रफल 2,745 वर्ग मीटर से अधिक है।

हड़प्पा के ‘एफ’ टीले में पकी हुई ईंटों से निर्मित 18 वृत्ताकार चबूतरे मिले हैं। इन चबूतरों में ईंटों को खड़े रूप में जोड़ा गया है। प्रत्येक चबूतरे का व्यास 3.20 मी. है। हर चबूतरे में संभवतः ओखली लगाने के लिए छेद था। इन चबूतरों के छेदों में राख, जले हुए गेहूँ तथा जौ के दाने एवं भूसा के तिनके मिले हैं। मार्टीमर ह्वीलर के अनुसार इन चबूतरों का उपयोग संभवतः अनाज पीसने के लिए किया जाता था।

श्रमिक आवास

श्रमिक आवास के रूप में विकसित 15 मकानों की दो पंक्तियाँ मिली हैं जिनमें उत्तरी पंक्ति में सात एवं दक्षिणी पंक्ति में आठ मकानों के अवशेष पाये गये हैं। प्रत्येक मकान का आकार 17×7.5 मी. का है। प्रत्येक घर में कमरे तथा आंगन होते थे। इनमें मोहनजोदड़ो के घरों की भाँति कुँएं नहीं मिले हैं। श्रमिक आवास के निकट ही करीब चौदह भट्टों और धातु बनाने की एक मूषा के अवशेष मिले हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ से एक बर्तन पर बना मछुआरे का चित्र, शंख का बना बैल, पीतल का बना इक्का, ईंटों के वृत्ताकार चबूतरे, जिनका उपयोग संभवतः फसल की मड़ाई में किया जाता था, साथ ही गेहूँ तथा जौ के दानों के अवशेष भी मिले हैं।

कब्रिस्तान

हड़प्पा के सामान्य आवास क्षेत्र के दक्षिण में एक कब्रिस्तान स्थित है जिसे ‘समाधि आर-37’ नाम दिया गया है। यहाँ की खुदाई में कुल 57 शवाधान पाये गये हैं। शव प्रायः उत्तर-दक्षिण दिशा में दफनाये जाते थे जिनमें सिर उत्तर की ओर होता था। एक कब्र में लकड़ी के ताबूत में शव को रखकर दफनाया गया था। बारह शवाधानों से काँस्य-दर्पण भी प्राप्त हुए हैं। एक सुरमा लगाने की सलाई, एक समाधि से सीपी की चम्मच एवं कुछ अन्य से पत्थर के फलक (ब्लेड) मिले हैं। हड़प्पा से 1934 ई. में एक अन्य समाधि मिली थी जिसे ‘समाधि-एच’ नाम दिया गया था। इसका संबंध हड़प्पा सभ्यता के बाद के काल से माना जाता है।

चांहूदड़ो

मोहनजोदड़ो के दक्षिण में स्थित चांहूदड़ो नगर की खोज सर्वप्रथम 1931 में एन. गोपाल मजूमदार ने किया और 1943 ई. में मैके द्वारा यहाँ उत्खनन करवाया गया। सबसे निचले स्तर से हड़प्पा संस्कृति के साक्ष्य मिले हैं। यहाँ पर गुरिया (मनका) बनाने का एक कारखाना मिला है। ताँबे और काँसे के औजार तथा साँचों के भंडार मिलने से लगता है कि यहाँ मनके बनाने, हड्डियों के सामान तथा मुद्रा-निर्माण संबंधी दस्तकारी प्रचलित थी। वस्तुएँ निर्मित व अर्धनिर्मित दोनों रूपों में पाई गई हैं, जिससे पता चलता है कि यहाँ मुख्यतः शिल्पकार और कारीगर ही रहते थे। वस्तुएँ जिस प्रकार बिखरी हुई मिली हैं, उससे स्पष्ट लगता है कि यहाँ के लोग अचानक मकान छोड़कर भागे थे।

यहाँ से जला हुआ एक कपाल, चार पहियोंवाली गाड़ी और मिट्टी के मोर की एक आकृति का अवशेष मिला है। इसके अलावा यहाँ से लिपिस्टिक का भी साक्ष्य मिला है। यहीं से एक ईंट पर कुत्ते और बिल्ली के पंजों के निशान मिले हैं। मिट्टी की एक मुद्रा पर तीन घडि़यालों और दो मछलियों का अंकन है। एक वर्गाकार मुद्रा की छाप पर दो नग्न-नारियों का अंकन है जो हाथ में एक-एक ध्वज पकड़े हुए हैं और ध्वजों के बीच से पीपल की पत्तियाँ निकल रही हैं। चांहूदड़ो ही एक मात्र ऐसा पुरास्थल है जहाँ से वक्राकार ईंटें मिली हैं, किंतु किसी दुर्ग का अवशेष नहीं मिला है।

लोथल

यह पुरास्थल गुजरात के अहमदाबाद जिले में भोगवा नदी के किनारे सरगवाला नामक गाँव के समीप स्थित है। इसकी खुदाई 1954-55 ई. में रंगनाथ राव के नेतृत्व में की गई। इस स्थल से विभिन्न कालों के पाँच स्तर पाये गये हैं। यहाँ पर दो भिन्न-भिन्न टीले नहीं मिले हैं, बल्कि पूरी बस्ती एक ही दीवार से घिरी हुई थी। यह बस्ती छः खंडों में विभक्त थी, जो पूर्व से पश्चिम 117 मी. और उत्तर से दक्षिण की ओर 136 मी. तक फैली हुई था।

बाजार और औद्योगिक क्षेत्र

लोथल नगर के उत्तर में एक बाजार और दक्षिण में एक औद्योगिक क्षेत्र था। यहाँ से मनके बनाने वाले, ताँबे तथा सोने का काम करनेवाले शिल्पियों और ताम्रकर्मियों की उद्योगशालाएँ भी प्रकाश में आई हैं। यहाँ एक मकान से सोने के दाने, सेलखड़ी की चार मुहरें, सीप एवं ताँबे की बनी चूड़ियाँ और रंगा हुआ एक मिट्टी का जार मिला है। लोथल नगर में जल को पुनर्शोधित कर उपयोग में लाया जाता था, एक बूँद जल व्यर्थ नहीं जाता था।

नगर दुर्ग के पश्चिम की ओर विभिन्न आकार के ग्यारह कमरे बने थे, जिनका प्रयोग मनके या दाना बनानेवाले कारखाने के रूप में किया जाता था। लोथल नगर क्षेत्र के बाहरी उत्तरी-पश्चिमी किनारे पर समाधि क्षेत्र था, जहाँ से बीस समाधियाँ मिली हैं। यहाँ तीन युग्मित् समाधि के भी उदाहरण मिले हैं। लोथल की अधिकांश कब्रों में कंकाल के सिर उत्तर की ओर और पैर दक्षिण की ओर था। केवल अपवादस्वरूप एक कंकाल की दिशा पूर्व-पश्चिम की ओर मिली है।

बंदरगाह अथवा गोदीबाड़ा

लोथल की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि बंदरगाह अथवा गोदीवाड़ा का अवशेष है। इसका औसत आकार 214×36 मीटर एवं गहराई 3.3 मीटर है। इसके उत्तर में बारह मीटर चौड़ा एक प्रवेश-द्वार निर्मित था जिससे होकर जहाज आते-जाते थे और दक्षिण दीवार में अतिरिक्त जल के लिए निकास-द्वार था। इस बंदरगाह पर मिस्र तथा मेसोपोटामिया से जहाज आते-जाते थे।

लोथल में गढ़ी और नगर दोनों एक ही रक्षा-प्राचीर से घिरे हैं। यहाँ की सर्वाधिक प्रसिद्व उपलब्धि हड़प्पाकालीन बंदरगाह के अतिरिक्त विशिष्ट मृद्भांड, उपकरण, मुहरें, बाट-माप एवं पाषाण-उपकरण हैं। इसके साथ ही धान (चावल), फारस की मुहरें एवं घोड़ों की लघु मृंडमूर्तियों के भी अवशेष मिले हैं। लोथल से प्राप्त एक मृद्भांड पर एक कौआ तथा एक लोमड़ी का चित्र उत्कीर्ण हैं जिसका समीकरण पंचतंत्र की चालाक लोमड़ी की कथा से किया गया है। यहाँ से उत्तरकाल की एक कथित अग्निवेदी भी मिली है। नाव के आकार की दो मुहरें तथा लकड़ी का एक अन्नागार मिला है। अन्न पीसने की चक्की, हाथीदाँत तथा सीप का पैमाना, एक छोटा सा दिशा-मापक यंत्र भी मिला है। ताँबे का पक्षी, बैल, खरगोश व कुत्ते की आकृतियाँ भी मिली हैं, जिसमें ताँबे का कुत्ता विशेष महत्त्वपूर्ण है।

लोथल से मेसोपोटामियाई मूल की तीन बेलनाकार मुहरें प्राप्त हुई हैं। यहाँ से बटन के आकार की एक मुद्रा भी मिली है। आटा पीसने के दो पाट भी मिले हैं जो हड़प्पा संस्कृति के एक मात्र उदाहरण हैं। लोथल के उत्खनन से जिस प्रकार की नगर-योजना और अन्य भौतिक वस्तुएँ प्रकाश में आई हैं, उनसे लोथल एक लघु-हड़प्पा या मोहनजोदड़ो लगता है। समुद्र के तट पर स्थित यह स्थल पश्चिम एशिया के साथ व्यापार का एक प्रधान केंद्र था।

कालीबंगा

कालीबंगा राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले में घग्घर नदी के बांयें तट पर स्थित है। इसकी खुदाई 1953 ई. में बी.बी. लाल एवं बी. के. थापर द्वारा कराई गई। यहाँ पर प्राक्-हड़प्पा एवं हड़प्पाकालीन संस्कृतियों के अवशेष मिले हैं। यह प्राचीन समय में काले रंग की पत्थर की बनी चूड़ियों के लिए प्रसिद्ध था। हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो की भाँति यहाँ पर सुरक्षा-प्राचीर से घिरे दो टीले पाये गये हैं। कुछ विद्वानों का मानना है कि यह हड़प्पा सभ्यता की तीसरी राजधानी थी। पूर्वी टीले की सभ्यता प्राक्-हड़प्पाकालीन है।

कालीबंगा में हड़प्पा-पूर्व सभ्यता की यह बस्ती कच्ची ईंटों की किलेबंदी से घिरी थी। प्राक्-हड़प्पा बस्तियों में प्रयुक्त होनेवाली कच्ची ईंटें 30×20×10 से.मी. आकार की होती थी। इस प्राक्-हड़प्पा सभ्यता में प्रायः मकान में एक आंगन होता था और उसके किनारे पर कुछ कमरे बने होते थे। आँगन में खाना पकाने का साक्ष्य भी मिला है, क्योंकि वहाँ भूमि के ऊपर और नीचे दोनों प्रकार के तंदूर मिले हैं। इस युग में पत्थर और ताँबे दोनों प्रकार के उपकरण प्रचलित थे, परंतु पत्थर के उपकरणों का प्रयोग अधिक होता था। संभवतः कालीबंगा के इस चरण का जीवन 3000 ई.पू. के आसपास तक रहा होगा। मिट्टी के खिलौनों, पहियों तथा मवेशियों की हड्डियों की प्राप्ति से बैलगाड़ी के अस्तित्व का सहज अनुमान किया जा सकता है।

दूसरे बड़े टीले से जो वस्तुएँ मिली हैं, वे हड़प्पा सभ्यता के समानुरुप हैं। अन्य हड़प्पाई नगरों की तरह कालीबंगा भी दो भागों- नगर दुर्ग या गढ़ी और नगर में विभाजित था। नगर दुर्ग समानांतर चतुर्भुजाकार था। यहाँ से मिले मकानों के अवशेषों से ज्ञात होता है कि सभी मकान कच्ची ईंटों से बनाये गये थे, किंतु नाली और कुंओं के निर्माण में पकी ईंटों का प्रयोग किया गया था। कालीबंगा कोएक फर्श हड़प्पा सभ्यता का एक मात्र उदाहरण है जहाँ परिच्छेदीवृत्त से अलंकृत ईंटों का प्रयोग किया गया है। कालीबंगा के दुर्ग टीले के दक्षिण भाग में मिट्टी और कच्चे ईंटों के बने हुए पाँच चबूतरे मिले हैं, जिसके शिखर पर संदिग्ध हवनकुंडों के साक्ष्य मिले हैं। कालीबंगा से मिट्टी के बर्तनों के कुछ ऐसे टुकड़े मिले हैं, जिनसे लगता है कि इस सभ्यता की लिपि दाँयें से बाँयें लिखी जाती थी। भवनों का निर्माण कच्ची ईंटों से किया गया था, किंतु नालियों, कुँओं तथा स्नानागारों में पकी ईंटें प्रयुक्त की गई हैं। कालीबंगा में मोहनजोदड़ो जैसी उच्च-स्तर की जल-निकास व्यवस्था का साक्ष्य नहीं मिला है।

जुते हुए खेत का साक्ष्य

कालीबंगा में प्राक्-हड़प्पा संस्कृति की सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि एक जुते हुए खेत का साक्ष्य है जिसके कुंडों के बीच की दूरी पूर्व-पश्चिम की ओर 30 से.मी. और उत्तर-दक्षिण 1.10 मी. है। संभवतः कम दूरी के खाँचों में चना और अधिक दूरी के खाँचों में सरसो की बुआई की जाती थी।

यहाँ पर लघु पाषाण उपकरण, माणिक्य एवं मिट्टी के मनके, शंख, काँच एवं मिट्टी की चूड़ियाँ, खिलौना गाड़ी के पहिये, साँड़ की खंडित मृंडमूर्ति, सिलबट्टे आदि पुरावशेष मिले हैं। यहाँ से प्राप्त सेलखड़ी की मुहरें और मिट्टी की छोटी मुहरें महत्त्वपूर्ण अवशेष हैं। एक मुहर पर किसी आराध्य देव की आकृति मिली है। यहाँ से प्राप्त मुद्राएँ मेसोपोटामियाई मुहरों के समकक्ष थीं। मिट्टी की मुहरों पर सरकंडे के निशान से लगता है कि इनका प्रयोग पैकिंग के लिए किया जाता रहा होगा।

कालीबंगा के दक्षिण-पश्चिम में कब्रिस्तान स्थित था। यहाँ अंत्येष्ठि संस्कार की तीन विधियाँ प्रचलित थीं- पूर्ण समाधिकरण, आंशिक समाधिकरण और दाह-संस्कार। यहाँ से शव-विसर्जन के सैंतीस उदाहरण मिले हैं। एक बच्चे की खोपड़ी मिली है जिसमें छः छेद हैं, इससे जलकपाली या मस्तिष्क-शोध की बीमारी का ज्ञान होता है। यहाँ से एक ऐसा कंकाल मिला है जिसके बाँयें घुटने पर किसी धारदार औजार से काटने का निशान है। यहीं से भूकंप के प्राचीनतम् प्रमाण मिले हैं। संभवतः घग्घर नदी के सूख जाने से कालीबंगा का विनाश हो गया।

बनावली

हरियाणा के हिसार जिले में स्थित बनावली की खुदाई 1973-74 ई. में रवींद्रसिंह बिष्ट के नेतृत्व में की गई। इस स्थल से प्राक्-हड़प्पा, विकसित हड़प्पा और उत्तर हड़प्पा के तीन स्तर प्रकाश में आये हैं। यहाँ प्राक्-हड़प्पा स्तर से ही नगर-नियोजन एवं बाट के प्रमाण मिलते हैं।

हड़प्पाकालीन इस स्थल पर नगर-नियोजन अत्यंत विकसित है। यहाँ दुर्ग तथा निचला नगर अलग-अलग न होकर एक ही प्राचीर से घिरे हुए थे। दुर्ग की दीवारें 5.4 मी. से 7 मी. तक चैड़ी थीं। एक मकान से धावन-पात्र के साक्ष्य मिले हैं जो किसी व्यापारी के आवास की ओर संकेत करता है। एक दूसरे बड़े मकान से सोने, लाजवर्द, कार्नेलियन के मनके, छोटे बटखरे तथा सोने की परत चढ़ी एक कसौटी जैसी वस्तुएँ मिली हैं, जिससे लगता है कि यह किसी स्वर्णकार का मकान था। इसके अतिरिक्त मृद्भांड, गोलियाँ, मनके, ताँबे के बाण्राग, हल की आकृति के खिलौने आदि मिले हैं। बनावली की नगर-योजना जाल के आकार की बनाई गई थी, किंतु यहाँ जल-निकास प्रणाली का अभाव दिखाई देता है।

अन्य प्रमुख पुरास्थल

सुरकोटदा

सुरकोटदा गुजरात के कच्छ जिले में स्थित है। इसकी खोज 1964 ई. में जगपति जोशी ने की थी। इस स्थल से सिंधु सभ्यता के पतन के अवशेष परिलक्षित होते हैं। सुरकोटदा के दुर्ग एवं नगर क्षेत्र दोनों एक ही रक्षा प्राचीर से घिरे हुए थे। अन्य नगरों के विपरीत यहाँ नगर दो भागों- गढ़ी तथा आवास क्षेत्र में विभाजित था। दुर्ग कूटी हुई पीली मिट्टी से निर्मित चबूतरे पर बनाया गया था। यहाँ से प्राप्त घोड़े की अस्थियाँ एवं कलश शवाधान के अवशेष विशेष महत्त्वपूर्ण हैं।

सुत्कांगेनडोर

यह पुरास्थल दक्षिण बलूचिस्तान में दाश्त नदी के किनारे स्थित है जो हड़प्पा संस्कृति की सबसे पश्चिमी बस्ती थी। इसकी खोज 1927 ई. में आरेल स्टाइन ने की थी। यहाँ से हड़प्पा सभ्यता की परिपक्व अवस्था के अवशेष पाये गये हैं। यहाँ का दुर्ग एक प्राकृतिक चट्टान पर बसाया गया था। संभवतः यह समुद्र तट पर अवस्थित एक व्यापारिक बंदरगाह था। यहाँ से प्राप्त अवशेषों में अस्थि-भस्म से भरा बर्तन, ताँबे की कुल्हाड़ी, मिट्टी से बनी चूडि़याँ तथा तिकोने ठीकरे महत्त्वपूर्ण हैं।

कोटदीजी

पाकिस्तान के सिंधु प्रांत में खैरपुर नामक स्थान पर स्थित इस पुरास्थल की खोज 1935 ई. में धुर्ये ने की थी। इसका नियमित उत्खनन 1953 ई. में फजल अहमद खान द्वारा कराया गया। इस बस्ती के चारों ओर पत्थर की दीवार बनी थी, जो लगभग 3000 ई.पू. की प्रतीत होती है। कोटदीजी में एक आदि-हड़प्पा स्तर मिला है। इस आदि-हड़प्पा स्तर के मृद्भांडों पर मोर, मृग और गेंदों की जुड़ी हुई आकृतियों का अपरिष्कृत चित्रण मिलता है। संभवतः यहाँ पर घर बनाने में पत्थरों का उपयोग किया जाता था। इससे लगता है कि पाषाणयुगीन सभ्यता का अंत यहीं पर हुआ था। कोटदीजी के विस्तृत स्तर से काँसेे की चपटे फलकवाली कुल्हाड़ी, बाणाग्र, छेनी, पत्थर की चाकी, अँगूठी व दोहरी एवं इकहरी चूड़ियाँ आदि मिली हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ से मृत्पिंड भी पाये गये हैं। कोटदीजी के इन स्तरों में जो संस्कृति मिलती है, वह थोड़े-बहुत परिवर्तन के साथ हड़प्पा सभ्यता में चलती रही है।

आलमगीरपुर

पश्चिम उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले में यमुना की सहायक हिंडन नदी पर स्थित इस पुरास्थल की खोज 1958 ई. में यज्ञदत्त शर्मा ने की थी। यह हड़प्पा संस्कृति का सर्वाधिक पूर्वी पुरास्थल है। गंगा-यमुना दोआब में यह पहला स्थल है जहाँ से हड़प्पाकालीन अवशेष प्रकाश में आये हैं।

आलमगीरपुर सैंधव सभ्यता की अंतिम अवस्था को सूचित करता है। यहाँ मृद्भांड, मनके एवं मृत्पिंड मिले हैं। कुछ बर्तनों पर मोर, त्रिभुज, गिलहरी आदि की चित्रकारियाँ भी मिली हैं। एक गर्त से रोटी बेलने की चैकी तथा कटोरे के टुकड़े पाये गये हैं।

रंगपुर

गुजरात के काठियावाड़ प्रायद्वीप में भादर नदी के समीप स्थित इस स्थल की खुदाई 1953-54 ई. में एस.आर. राव द्वारा की गई। यहाँ से प्राप्त कच्ची ईंटों के दुर्ग, नालियाँ, मृद्भांड, बाट, पत्थर के फलक आदि महत्त्वपूर्ण हैं। यहाँ से धान की भूसी का ढेर मिला है।

अलीमुराद

अलीमुराद सिंधु प्रांत में स्थित एक ऐतिहासिक नगर है। यहाँ से कूप, मिट्टी के बर्तन, कार्निलियन के मनके, बैल की लघु मृंडमूर्ति और काँसे की कुल्हाड़ी आदि मिली हैं। इसके अतिरिक्त इस पुरास्थल से पत्थरों से निर्मित एक विशाल दुर्ग का अवशेष भी प्राप्त हुआ है।

खर्वी

गुजरात राज्य के अहमदाबाद से 114 किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस स्थल से हड़प्पाकालीन मृद्भांड एवं ताम्र-आभूषण के अवशेष मिले हैं।

रोपड़

पंजाब में सतलुज नदी के बाँयें तट पर स्थित रोपड़ का आधुनिक नाम रूपनगर है। इस पुरास्थल की खोज 1950 ई. में बी.बी. लाल ने की थी और 1953-55 ई. के दौरान यज्ञदत्त शर्मा ने इसका उत्खनन करवाया। यहाँ छः सांस्कृतिक स्तर प्रकाश में आये हैं जिसमें पहला हड़प्पाकालीन है। इस पुरास्थल से हड़प्पाकालीन मृद्भांड, सेलखड़ी की मुहर, तीन विभिन्न प्रकार के मुद्रांकित ठप्पे, चर्ट के बटखरे, एक छुरा, ताँबे का बाणाग्र तथा कुल्हाड़ी आदि वस्तुएँ मिली हैं। एक ऐसा शवाधान भी मिला है जिसमें मनुष्य के साथ पालतू कुत्ता दफनाया गया है।

बालाकोट

नालाकोट से लगभग 90 कि.मी. की दूरी पर बलूचिस्तान के दक्षिणी तटवर्ती भाग में बालाकोट स्थित था। इसका उत्खनन 1963-1970 ई. के बीच जार्ज एफ. डेल्स द्वारा किया गया। यहाँ से प्राक्-हड़प्पा एवं हड़प्पाकालीन अवशेष मिले हैं। यहाँ की नगर-योजना सुनियोजित थी। भवन-निर्माण के लिए मुख्यतः कच्ची ईंटों का प्रयोग किया गया था, किंतु नालियों में पकी ईंटें प्रयुक्त की गई हैं। बालाकोट का सबसे समृद्ध उद्योग सीप उद्योग (शील इंडस्ट्री) था। इस स्थल का प्रयोग एक बंदरगाह के रूप में किया जाता था। उत्खनन में यहाँ से हजारों की संख्या में सीप की बनी चूड़ियों के टुकड़े मिले हैं, जिससे लगता है कि बालाकोट सीप निर्यात का प्रमुख केंद्र था।

अल्लाहदीनो

अल्लाहदीनो सिंधु और अरब महासागर के संगम से लगभग सोलह किलोमीटर उत्तर-पूर्व तथा कराची से चालीस कि.मी. पूर्व में स्थित है। 1982 ई. में फेयर सर्विस ने यहाँ पर उत्खनन-कार्य करवाया था। अल्लाहदीनो के भवन वर्गाकार अथवा आयताकार हैं, जो बहु-प्रकोष्ठीय भवनों में विभाजित हैं। दीवारों की नींव तथा नालियाँ पत्थर की बनी हैं। यहाँ से प्राप्त अवशेषों में ताँबे की वस्तुएँ, मिट्टी की एक खिलौना-गाड़ी, सोने-चाँदी के आभूषण, माणिक्य के मनके तथा हड़प्पाई मुहरें महत्त्वपूर्ण हैं। संभवतः यह नगर भी बंदरगाह था।

मांडा

जम्मू और कश्मीर राज्य के जम्मू में चेनाब नदी के दक्षिणी किनारे पर स्थित मांडा विकसित हड़प्पा संस्कृति का सबसे उत्तरी स्थल है। इसका उत्खनन 1982 ई. में जगपति जोशी तथा मधुबाला ने करवाया था। इसके उत्खनन में तीन सांस्कृतिक स्तर- प्राक्-हड़प्पा, विकसित हड़प्पा तथा उत्तरकालीन हड़प्पा के अवशेष प्रकाश में आये हैं। यहाँ से विशेष प्रकार के मृद्भांड, गैर-हड़प्पा से संबद्ध कुछ ठीकरे, पक्की मिट्टी की पिंडिकाएँ (टेराकोटा के), नुकीले बाणाग्र, काँस्य निर्मित पेंचदार पिन आदि वस्तुएँ प्राप्त हुई हैं।

भगवानपुरा

भगवानपुरा हरियाणा के कुरुक्षेत्र जिले में सरस्वती नदी के दक्षिणी किनारे पर स्थित है। इसका उत्खनन जगपति जोशी ने कराया था। यहाँ के प्रमुख अवशेषों में सफेद, काले तथा आसमानी रंग की काँच एवं ताँबे की चूड़ियाँ, काँच व मिट्टी के मनके हैं। यहाँ से ऋग्वेदकालीन चित्रित धूसर मृद्भांड भी प्राप्त हुए हैं।

कुंतासी

गुजरात के राजकोट जिले में स्थित इस पुरास्थल का उत्खनन एम.के. धावलिकर, एम.आर.आर. रावल तथा वाई.एम. चितलवास ने करवाया था। यहाँ से विकसित तथा उत्तर हड़प्पाकालीन स्तर प्रकाश में आये हैं। यहाँ से व्यापार-केंद्र, निगरानी-स्तंभ तथा बंदरगाह के अवशेष मिले हैं। उत्खनन में लम्बी सुराहियाँ, दो-हत्थे वाले कटोरे, मिट्टी की खिलौना-गाड़ी जैसी वस्तुएँ पाई गई हैं। एक मकान के कमरे से सेलखड़ी के हजारों छोटे मनके, ताँबे की कुछ चूड़ियाँ एवं दो अंगूठियाँ मिली हैं।

देसलपुर

गुजरात के भुज जिले में स्थित देसलपुर की खुदाई पी.पी. पांड्या और एक. के. ढाके द्वारा किया गया। बाद में 1964 ई. में के.वी. सौंदरराजन ने भी यहाँ उत्खनन करवाया। इस नगर के मध्य में विशाल दीवारोंवाला एक भवन था जिसमें छज्जेवाले कमरे थे जो किसी महत्त्वपूर्ण भवन का संकेत करता है। इस पुरास्थल से मिट्टी तथा जेस्पर के बाट, गाडि़यों के पहिये, ताँबे की छूरियाँ, अँगूठी और सेलखड़ी तथा ताँबे की एक-एक मुहरें मिली है।

रोजदी

गुजरात के सौराष्ट्र जिले में स्थित रोजदी से प्राक्-हड़प्पा, हड़प्पा एवं उत्तर हड़प्पा के स्तर मिले हैं। इस बस्ती के चारों ओर पत्थरों की एक सुरक्षा-प्राचीर थी। यहाँ से कच्ची ईंटों के बने चबूतरों और नालियों के साथ-साथ बिल्लौर (काले रंग) एवं गोमेद पत्थर के बने बाट, गोमेद, बिल्लौर के छेददार मनके और पक्की मिट्टी के मनके मिले हैं। रोजदी से प्राप्त मृद्भांड लाल, काले और चमकदार हैं।

धौलावीरा

यह पुरास्थल गुजरात के कच्छ जिले के भचाऊ तालुका में स्थित है। इसकी खोज 1967-68 ई. में जगपति जोशी ने की थी और 1990-91 ई. में आर.एस. बिष्ट ने यहाँ व्यापक पैमाने पर उत्खनन-कार्य करवाया। धौलावीरा की खुदाई में मिले अवशेषों का प्रसार मनहर एवं मानसर नामक नालों के बीच में हुआ था। यह हड़प्पा सभ्यता का एक महत्त्वपूर्ण सुनियोजित नगर था जो समानांतर चतुर्भुज के रूप में लगभग सौ हेक्टेयर में फैला हुआ था। जहाँ अन्य हड़प्पाई नगर मात्र दो भागों- दुर्ग और आवास क्षेत्र में बँटे थे, वहीं धौलावीरा तीन भागों- दुर्ग, मध्यम नगर और निचला नगर में विभाजित था।

सिंधुघाटी की सभ्यता (Indus Valley Civilization)
धौलावीरा

संपूर्ण नगर के चारों तरफ एक सुदृढ़ प्राचीर के साक्ष्य मिले हैं और प्रत्येक क्षेत्र की अपनी अलग किलेबंदी भी थी। नगर का ‘महाप्रासाद’ ऊँचे दुर्ग के भीतर था। इसके उत्तर में एक विस्तृत एवं व्यापक समतल मैदान का अवशेष मिला है। मैदान के उत्तर में नगर का मध्यम भाग है जिसे ‘पुर’ की संज्ञा दी गई है। महाप्रासाद में शासक वर्ग और मध्यम नगर ‘पुर’ में शासकीय पदाधिकारी निवास करते रहे होंगे। प्राचीरयुक्त बस्तियों में प्रवेश के लिए भव्य और विशाल द्वार थे। मध्यवर्ती प्राचीरयुक्त दुर्ग के उत्तरी द्वार के पीछे एक तालाब मिला है जिसमें वर्षा का पानी इकट्ठा करने के लिए जलमार्ग बनाया गया था। इसके पूर्व में नगर का तीसरा महत्त्वपूर्ण भाग है जिसे ‘निचला नगर’ कहा जाता है।

इस पुरास्थल से पालिशदार श्वेत पाषाणखंड बड़ी संख्या में मिले हैं जिससे लगता है कि हड़प्पाई पत्थरों पर पालिश करने की कला से परिचित थे। इसके अलावा सैंधव लिपि के दस बड़े अक्षर तथा घोड़े की कलाकृतियों के अवशेष भी यहाँ से पाये गये हैं।

दायमाबाद

महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में प्रवरा नदी के बाँये तट पर स्थित इस स्थल से हड़प्पा सभ्यता के मृद्भांड, सैंधव लिपि की एक मुहर, प्याले, तश्तरी आदि अवशेष पाये गये हैं। कुछ बर्तनों पर दो सींगों वाली आकृति मिली है। एक गर्त में युवा मानव का शवाधान प्राप्त हुआ है जिसे उत्तर-दक्षिण में लिटाया गया है। शव को गर्त में ईंटों की चिनाई कर मिट्टी और ईंटों से ढका गया है तथा सिरहाने एक पत्थर है। दायमाबाद हड़प्पा सभ्यता का सबसे दक्षिणी स्थल है।

हुलास

उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले के हुलास की खुदाई से उत्तरकालीन हड़प्पा सभ्यता से मिलते-जुलते कुछ मृद्भांड पाये गये हैं। यहाँ से काँचली मिट्टी के मनके, चूड़ियाँ, ठीकरे और खिलौना-गाड़ी के अलावा सैंधव लिपि कोएक ठप्पा भी मिला है।

मांडी

उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के मांडी नामक गाँव में एक खेत की जुताई से बड़ी मात्रा में सोने के छल्ले, मिट्टी के बर्तनों के टुकड़े तथा ईंटें प्राप्त हुई हैं। तीन विभिन्न प्रकार के सोने के छल्लों से लगता है कि इनका प्रयोग मुद्रा के रूप में किया जाता रहा होगा और यहाँ कोई टकसाल रहा होगा। इस पुरास्थल के व्यापक उत्खनन से नवीन तथ्यों का उद्घाटन हो सकता है।

सिनौली

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बागपत (मेरठ) जिले में स्थित सिनौली गाँव से हड़प्पाकालीन शवाधान प्राप्त हुआ है। 128 नरकंकालों की प्राप्ति से लगता है कि यहाँ बड़ी आबादी निवास करती थी। एक कंकाल के दोनों हाथों में ताँबे का कंगन है। पहली बार इस स्थल से नरकंकालों के साथ दो श्रृंगी तलवारें भी मिली हैं जो ताम्रनिधि संस्कृति से संबंधित हैं। इससे पता चलता है कि ताम्रनिधि संस्कृति का संबंध उत्तर हड़प्पा संस्कृति से था। एक दूसरे शव के पास किसी पशु को दफनाया गया है। सभी कंकाल उत्तर-दक्षिण दिशा में लिटाये गये हैं जिनके सिरहाने मृद्भांड रखे गये हैं। इस स्थल से प्राप्त अन्य पुरावशेषों में गुरियों का हार, स्वर्णाभूषण एवं अन्य हड़प्पाई मानवसम आकृतियाँ हैं। यद्यपि इस पुरास्थल की प्राचीनता ई.पू. 2000 बताई जा रही है, किंतु अंतिम निर्णय कार्बन-तिथि प्राप्त होने पर ही संभव होगा।

जुना खटिया

हड़प्पा सभ्यता से संबंधित एक नवीन पुरास्थल श्जूना खटियाश् गुजरात के कच्छ जिले के लखपत तालुका में स्थित है। जूना खटिया पुरास्थल की खोज 2016 ई. में केरल विश्वविद्यालय के पुरातत्त्व विभाग द्वारा एक सर्वेक्षण के दौरान की गई थी। इस नवीन स्थल से अब तक 500 से ज्यादा कब्रें मिल चुकी हैं, जो 3200 ईसापूर्व से 2600 ईसापूर्व तक की बताई जाती हैं।

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