भारत का भौगोलिक परिचय (Geographical Introduction of India)

भारत का भौगोलिक परिचय

भारत गणराज्य दक्षिण एशिया में स्थित भारतीय उपमहाद्वीप का सबसे बड़ा देश है। पूर्णरूप से उत्तरी गोलार्द्ध में स्थित भारत का भौगोलिक विस्तार उत्तर से दक्षिण तक 3,214 कि.मी. और पूर्व से पश्चिम तक 2,933 कि.मी. है। भौगोलिक दृष्टिकोण से भारत में सातवां सबसे बड़ा और जनसंख्या के दृष्टिकोण से दूसरा सबसे बड़ा देश है। देश की सीमाएँ प्राकृतिक एवं मानव निर्मित दोनों प्रकार की है।

भारत में उत्तर-पश्चिम में इंदिरा काल पर देश की स्थलीय सीमा अफगानिस्तान, पाकिस्तान, तजाकिस्तान और चीन व नेपाल से मिलती है, जबकि सुदूर उत्तरी-पूर्वी कोने (त्रिसंधि) पर भारतीय सीमा के साथ चीन और म्यांमार की सीमाएँ आपस में मिलती हैं। पश्चिम में पाकिस्तान और पूर्व में बांग्लादेश के साथ भारत की सीमाएँ कृत्रिम अथवा मानव निर्मित हैं, जबकि अफगानिस्तान, तजाकिस्तान, चीन, नेपाल, भूटान तथा म्यांमार के साथ भारत की सीमाएँ प्राकृतिक हैं। भारत तथा चीन के बीच अंतर्राष्ट्रीय सीमा को ‘मैकमोहन रेखा’ के नाम से जाना जाता है। दक्षिण-पश्चिम में हिंद महासागर में मालदीव, दक्षिण में श्रीलंका और दक्षिण-पूर्व में थाइलैंड और इंडोनेशिया से भारत की सामुद्रिक सीमा लगती है। इसका सबसे दक्षिणी बिंदु ‘इंदिरा प्वाइंट’ अंडमान-निकोबार द्वीपसमूह में स्थित है और अरब सागर में स्थित लक्षद्वीप भारत के द्वीपीय हिस्से हैं।

भारत का भौगोलिक परिचय (Geographical Introduction of India)
भारत का भौगोलिक परिचय

नामकरण

भारतीय उपमहाद्वीप का सबसे बड़ा देश भारत एक सनातन राष्ट्र माना जाता है क्योंकि यह मानव-सभ्यता का पहला राष्ट्र है। इसके दो आधिकारिक नाम हैं- हिंदी में ‘भारत’ और अंग्रेजी में ‘इंडिया’। पुराणों में कहा गया है कि-

उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमवद्वक्षिणं च यत।

वर्ष यद् भारतं नाम यत्रोयं भारती प्रजा।।

अर्थात् ‘समुद्र के उत्तर और हिमालय के दक्षिण के भूखंड का नाम भारत है और इसकी प्रजा भारती है।’ वायु पुराण के अनुसार हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत के पुत्र भरत के नाम पर इस देश का नाम भारत पड़ा। संभवतः ऋग्वेद के प्रमुख जनों में एक प्रसिद्ध जन ‘भरत’ के नाम पर यह क्षेत्र ‘भरत’ जनपद कहलाया तथा इसके उत्तर-पश्चिम में प्रवाहित होने वाली नदी को सिंधु नाम दिया गया। भरतों की प्रजा की निवास-भूमि होने के कारण भी इसको ‘भारतवर्ष’ कहा गया। जैन परंपरा के अनुसार प्रथम जैन तीर्थंकर ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र भरत के नाम पर यह देश भारत कहलाया। ‘इंडिया’ नाम की उत्पत्ति सिंधु नदी के अंग्रेजी नाम ‘इंडस’ से हुई है।

यूनानियों ने सिंधु नदी को इंडस और उस देश को, जहाँ यह नदी प्रवाहित होती है ‘इंडिया’ नाम दिया। ईरानियों ने सिंधु नदी को ‘हिंदु’ तथा इस देश को ‘हिंदुस्तान’ कहा, जिसका अर्थ होता है ‘हिंद की भूमि। आरंभ में यह नाम कम और प्रायः उत्तरी भारत के लिए प्रयुक्त होता था। बाद में यह नाम अधिक प्रचलित हुआ, विशेषकर अरब-ईरान में। भारत में यह नाम पहली बार संभवतः विजयनगर साम्राज्य में प्रयुक्त किया गया। इसके अतिरिक्त भारतवर्ष को अजनाभवर्ष, आर्यावर्त, जंबुद्वीप आदि नामों से भी जाना जाता रहा है।

श्रीमद्भागवत के पंचम् स्कंध में भारत राष्ट्र की स्थापना का वर्णन आता है। भारतीय दर्शन के अनुसार सृष्टि उत्पत्ति के पश्चात् ब्रह्मा के मानस पुत्र स्वयंभू मनु ने व्यवस्था संभाली। मत्स्य पुराण में प्रजाओं को जन्म देने और उनका भरण करने से मनु को ‘भरत’ और इस देश को ‘भारत’ कहा गया है। अथर्ववेद के ‘पृथ्वीसूक्त’ में भी इसे मनु-संतति की मातृभूमि बताया गया है। इनके दो पुत्र- प्रियव्रत और उत्तानपाद थे। उत्तानपाद भक्त ध्रुव के पिता थे।

प्रियव्रत के दस पुत्र थे जिनमें से तीन पुत्र बाल्यकाल में ही विरक्त हो गये। प्रियव्रत ने अपने शेष सात पुत्रों के लिए पृथ्वी को सात भागों में विभक्त कर एक-एक भाग (द्वीप) प्रत्येक पुत्र को सौंप दिया। इन्हीं पुत्रों में एक पुत्र आग्नीध्र थे, जिन्हें जंबूद्वीप का शासन-कार्य सौंपा गया। वृद्धावस्था में आग्नीध्र ने अपने नौ पुत्रों को जंबूद्वीप के विभिन्न नौ स्थानों (वर्ष) के शासन का दायित्व सौंपा। इन नौ पुत्रों में सबसे बड़े थे- नाभि, जिन्हें हिमवर्ष का भू-भाग मिला। उन्होंने हिमवर्ष को स्वयं के नाम अजनाभ से जोड़कर ‘अजनाभवर्ष’ प्रचारित किया। यह हिमवर्ष या अजनाभवर्ष ही प्राचीन भारतवर्ष था। राजा नाभि के पुत्र थे- ऋषभ। ऋषभदेव के सौ पुत्रों में भरत ज्येष्ठ एवं सबसे गुणवान् थे। ऋषभदेव ने वानप्रस्थ लेने पर भरत को राजपाट सौंप दिया। इसी भरत के नाम से ही अजनाभखंड को ‘भारतवर्ष’ कहा जाने लगा।

भारत के प्राचीन साहित्य से पता चलता है कि संपूर्ण भारतखंड पाँच भागों में बँटा था। सिंधु और गंगा के मध्य में मध्य प्रदेश था। ब्राह्मण ग्रंथों के अनुसार यह भू-भाग सरस्वती नदी से प्रयाग, काशी तक और बौद्ध ग्रंथों के अनुसार राजमहल तक फैला हुआ था। इसी क्षेत्र का पश्चिमी भाग ब्रह्मर्षि देश कहलाता था। पतंजलि ने इस समस्त भू-भाग को ‘आर्यावर्त’ कहा है। मनुस्मृति में पूर्वी और पश्चिमी समुद्रों, उत्तरी हिमालय और दक्षिणी विन्ध्याचल के बीच अवस्थित भू-भाग आर्यावर्त बताया गया है। मध्यदेश के उत्तर में ‘उत्तरापथ’ (उदीच्य), पश्चिम में ‘अपरांत’ (प्रतीच्य), दक्षिण में ‘दक्षिणापथ’ (दक्खिन) और पूरब में ‘प्राच्यदेश’ (प्राची) थे। सुदूर दक्षिण में तमिलदेश या तमिलकम् था। वस्तुतः भौगोलिक दृष्टिकोण से कश्मीर से लंका की सीमा तक और कश्मीर से असम तक ही भारत का भू-भाग था।

भारत का भौगोलिक परिचय (Geographical Introduction of India)
भारत का भौगोलिक परिचय

भूगर्भीय संरचना

भूगर्भशास्त्रीय दृष्टि से भारत पूरी तौर पर भारतीय प्लेट के ऊपर स्थित है जो भारती-आस्ट्रेलियाई प्लेट का उपखंड है। प्राचीन काल में यह प्लेट गोंडवानालैंड का हिस्सा थी और अफ्रीका तथा अंटार्कटिका के साथ जुड़ी हुई थी। लगभग 9 करोड़ वर्ष पहले क्रीटेशियस काल में यह प्लेट 15 से.मी. प्रतिवर्ष की गति से उत्तर की ओर बढ़ने लगी और इओसीन पीरियड में यूरेशियन प्लेट से टकराई। भारतीय प्लेट और यूरेशियन प्लेट के मध्य स्थित टेथीज भूसन्नति के अवसादों के वालन द्वारा ऊपर उठने से तिब्बत पठार और हिमालय पर्वत का निर्माण हुआ। बाद में सामने की द्रोणी में अवसाद जमा हो जाने से सिंधु-गंगा का मैदान बना। भारतीय प्लेट अभी भी लगभग 5 से.मी. प्रतिवर्ष की गति से उत्तर की ओर गतिशील है और हिमालय की ऊँचाई में अभी भी 2 मि.मी. प्रतिवर्ष की गति से उत्थान हो रहा है।

भौगोलिक स्वरूप

भौतिक दृष्टि से भारत का विशाल क्षेत्र पर्याप्त विविधतापूर्ण है। इसकी भौगोलिक संरचना (उच्चावचन) में लगभग सभी प्रकार के स्थलरूप पाये जाते हैं। एक ओर इसके उत्तर में विशाल और ऊँची हिमालय की पर्वतमालायें हैं, तो दूसरी ओर दक्षिण में विस्तृत हिंद महासागर है। एक ओर ऊँचा-नीचा और कटा-फटा दक्कन का पठार है, तो दूसरी ओर विशाल और समतल सिंधु-गंगा-ब्रह्मपुत्र का मैदान भी है।

भारत का भौगोलिक परिचय (Geographical Introduction of India)
भारत का भौगोलिक परिचय

थार के विस्तृत मरुस्थल में जहाँ विविध मरुस्थलीय स्थलरुप पाये जाते हैं, वहीं दूसरी ओर समुद्रतटीय भाग भी हैं। इस प्रायद्वीप में सिंधु, नर्मदा, ब्रह्मपुत्र, गंगा, यमुना, गोदावरी, कावेरी, कृष्णा, चंबल, सतलज, व्यास जैसी कई बड़ी नदियाँ हैं। कर्क रेखा इसके लगभग बीच से गुजरती है और यहाँ प्रायः हर प्रकार की जलवायु पाई जाती है। इसी प्रकार की भौगोलिक विविधता मिट्टी, वनस्पति और प्राकृतिक संसाधनों की दृष्टि से भी है। भारत को मुख्यतः चार प्राकृतिक या भौतिक भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है-

1. हिमालय का पर्वतीय भाग, 2. उत्तर का विशाल मैदान, 3. प्रायद्वीपीय पठारी भाग 4. समुद्रतटीय मैदान 5. द्वीपीय भाग।

हिमालय का पर्वतीय भाग

भारत के उत्तर में हिमालय पर्वत स्थित है, इसलिए इसे हिमालय पर्वतीय प्रदेश भी कहते हैं। हिमालय की पर्वतमालाएँ नये और मोड़दार पहाड़ों से बनी हैं। यह पर्वत-श्रेणी उत्तर सीमा पर एक चाप के आकार में कश्मीर से अरुणांचल तक तक फैली हुई है। भौतिक दृष्टि से हिमालय मे चार समानांतर श्रेणियाँ मिलती हैं जिनमें सबसे उत्तर में ट्रांस अथवा तिब्बत हिमालय, उसके दक्षिण में क्रमशः वृहत् अथवा आंतरिक हिमालय, लघु अथवा मध्य हिमालय तथा उप अथवा शिवालिक श्रेणी स्थित हैं।

ट्रांस अथवा तिब्बत हिमालय श्रेणी सबसे उत्तर में स्थित हैं। इसकी खोज 1906 में स्वैन ने की थी। इस श्रेणी पर वनस्पतियों का पूर्ण अभाव पाया जाता है। बृहत् अथवा आंतरिक हिमालय ही हिमालय पर्वतमाला की सबसे प्रमुख तथा संसार की सबसे ऊँची पर्वतमाला है जो कश्मीर में नंगापर्वत से लेकर असम तक एक दुर्भेद्य दीवार की तरह खड़ी है।

इस श्रेणी में विश्व की सर्वोच्च पर्वत चोटियाँ पाई जाती हैं, जिनमें माउंट एवरेस्ट (8,848 मी.), कंचनजंगा (8,598 मीं.) आदि प्रमुख हैं। लघु अथवा मध्य हिमालय श्रेणी वृहत् हिमालय के दक्षिण उसके समानांतर विस्तृत है। बृहत् हिमालय और मध्य हिमालय के बीच अनेक उपजाऊ घाटियाँ हैं जिनमें कश्मीर की घाटी तथा नेपाल में काठमांडू की घाटी विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। मध्य हिमालय के निचले भाग में भारत के प्रसिद्ध शैलावास शिमला, मसूरी, नैनीताल, चकराता, रानीखेत, दार्जिलिंग आदि हैं। बाह्य हिमालय अथवा शिवालिक श्रेणी का विस्तार पाकिस्तान के पोतवार पठार से पूर्व में कोसी नदी तक है। लघु तथा बाह्य हिमालय के बीच कई घाटियाँ मिलती हैं जिनको पश्चिम में ‘दून’ तथा पूर्व में ‘द्वार’ कहा जाता है। देहरादून और हरिद्वार इसके प्रमुख उदाहरण हैं।

हिमालय की ऊँची पर्वतमाला को कुछ ही स्थानों पर, जहाँ दर्रे हैं, पार किया जा सकता है। इन दर्रों का विशेष महत्त्व है। उत्तर-पश्चिम में खैबर और बोलन के दर्रे हैं जो अब पाकिस्तान में हैं। भारत ने एक नया रास्ता पठानकोट से बनिहाल दर्रा होकर श्रीनगर जाने के लिए बनाया है। श्रीनगर से जोजीला दर्रे द्वारा लेह तक जाने का रास्ता है।

उत्तर का विशाल मैदान

शैलों से निर्मित प्रायद्वीपीय पठार के उत्तर में एक विस्तृत समतल मैदान है जो लगभग सारे उत्तर भारत में फैला हुआ है। सिंधु, गंगा, ब्रह्मपुत्र और उनकी सहायक नदियों द्वारा जमा की गई जलोढ़ मिट्टी के जमाव से इस विशाल धनुषाकार मैदान का निर्माण हुआ है। इस मैदान को ‘सिंधु-गंगा ब्रह्मपुत्रा का मैदान’ भी कहते हैं। इस मैदान में कहीं कोई पहाड़ नहीं है। भूमि समतल है और समुद्र की सतह से धीरे-धीरे पश्चिम की ओर उठती गई है। प्रादेशिक दृष्टि से उत्तरी राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा तथा असम में इसका विस्तार हैं।

हिमालय (शिवालिक) की तलहटी में जहाँ नदियाँ पर्वतीय क्षेत्र को छोड़कर मैदान में प्रवेश करती हैं, एक संकीर्ण पेटी में कंकड-पत्थर मिश्रित निक्षेप पाया जाता है जिसमें नदियाँ अंतर्धान हो जाती हैं। इस ढलुआ क्षेत्र को ‘भाभर’ कहते हैं। यही गंगा मैदान की सबसे उत्तरी सीमा भी है। भाबर के दक्षिण में तराई क्षेत्र है, जहाँ विलुप्त नदियाँ पुनः प्रकट हो जाती हैं। ये वस्तुतः निम्न समतल मैदानी क्षेत्र हैं, जो नदियों का जल इधर-उधर फैल जाने से दलदलों और जंगलों से भरे हैं।

तराई के दक्षिण में जलोढ़ मैदान पाया जाता है। मैदान में जलोढ़क दो किस्म के हैं, पुराना जलोढ़क जिसे ‘बाँगर’ कहते हैं और नवीन जलोढ़क जिसे ‘खादर’ कहा जाता है। बाँगर क्षेत्र पुरानी जलोढ़ मिट्टी का बना होता है जहाँ नदियों की बाढ़ का जल नहीं पहुँचता है। इस क्षेत्र में चूनायुक्त संग्रथनों की अधिकता होने के कारण यह कृषि के लिए अधिक उपयुक्त नहीं है। खादर क्षेत्र का निर्माण नवीन जलोढ़ मिट्टी द्वारा होता है क्योंकि बाढ़ के जल के साथ नवीन मिट्टी यहाँ प्रति वर्ष पहुँचती रहती है। यह क्षेत्र कृषि के लिए अधिक उपयुक्त होता है। मैदान के दक्षिणी भाग में कहीं-कहीं दक्षिणी पठार से निकली हुई छोटी-मोटी पहाडि़याँ हैं, जैसे बिहार में गया तथा राजगिरि (राजगृह) की पहाडि़याँ।

प्रायद्वीपीय पठारी भाग

उत्तर भारत के मैदान के दक्षिण का पूरा भाग एक विस्तृत पठार है जो दुनिया के सबसे पुराने स्थल खंड का अवशेष है। यह मुख्यतः कड़ी तथा दानेदार कायांतरित चट्टानों से बना है। यह क्षेत्र 460 से 1,220 मीटर की ऊँचाई के पर्वतीय खंड और पहाडि़याँ की शृंखलाओं के कारण सिंधु और गंगा के मैदानों से पृथक् हो जाता है। पठार तीन ओर पहाड़ी श्रेणियों से घिरा है। नर्मदा, ताप्ती, महानदी, गोदावरी आदि नदियों ने इस प्रदेश को कई छोटे-छोटे पठारों में विभाजित कर दिया है।

उत्तर-पश्चिम में विन्ध्याचल श्रेणी और अरावली श्रेणी के बीच मालवा का पठार हैं जो लावा द्वारा निर्मित हैं। उत्तर-पूर्व में छोटा नागपुर का पठार है, जहाँ राजमहल पहाड़ी प्रायद्वीपीय पठार की उत्तर-पूर्वी सीमा बनाती है। असम का शिलांग पठार भी प्रायद्वीपीय पठार का ही हिस्सा है जो गंगा के मैदान द्वारा अलग हो गया है। नर्मदा और ताप्ती को छोड़कर बाकी सभी नदियाँ पूर्व की ओर बंगाल की खाड़ी में गिरती हैं।

प्रायद्वीप के पश्चिमी किनारे पर पश्चिमी घाट और पूर्वी किनारे पर पूर्वी घाट नामक पहाडियाँ हैं। पश्चिमी घाट पूर्वी घाट की अपेक्षा अधिक ऊँचा है। पूर्वी घाट न केवल नीचा है, बल्कि बंगाल की खाड़ी में गिरनेवाली नदियों- महानदी, गोदावरी, कृष्णा तथा कावेरी ने इसे कई स्थानों पर काट डाला है। दक्षिण में पूर्वी और पश्चिमी घाट नीलगिरि की पहाड़ी में मिल जाते है। नीलगिरि के दक्षिण अन्नामलाई तथा कार्डेमम (इलायची) की पहाडि़याँ हैं। इन पहाडि़याँ और नीलगिरि के बीच पालघाट का दर्रा है। पश्चिमी घाट में बंबई के पास थालघाट और भोरघाट दो महत्त्वपूर्ण दर्रे हैं।

समुद्रतटीय मैदान

दक्षिण के प्रायद्वीपीय पठारी भाग के दोनों ओर पूर्वी घाट तथा पश्चिमी घाट पर्वतमालाओं एवं सागर-तट के बीच समुद्रतटीय मैदानों का विस्तार है। इन्हें पश्चिमी तथा पूर्वी तटीय मैदानों में विभाजित किया गया है। पश्चिमी तटीय मैदान संकीर्ण हैं, इसके उत्तरी भाग को कोंकण तट और दक्षिणी भाग को मालाबार तट कहते हैं। इस मैदान का विस्तार गुजरात में कच्छ की खाड़ी से लेकर कुमारी अंतरीप तक पाया जाता है। इस मैदान कोढाल पश्चिम की ओर अत्यधिक तीव्र है, जिस पर तीव्रगामी एवं छोटी नदियाँ प्रवाहित होती हैं।

पूर्वी तटीय मैदान अपेक्षाकृत चैड़ा है और उत्तर में पश्चिम बंगाल, उड़ीसा से लेकर दक्षिण में कुमारी अंतरीप तक फैला हुआ है। इस मैदान पर प्रवाहित होनेवाली नदियों- महानदी, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी आदि ने विस्तृत डेल्टा का निर्माण किया है। इस पर चिल्का तथा पुलीकट जैसी विस्तृत लैगून झीलें भी पाई जाती हैं। मैदान का उत्तरी भाग उत्तरी सरकार तट कहलाता है तथा दक्षिण भाग को कोरोमंडल तट के नाम से जाना जाता है।

द्वीपीय भाग

भारत के द्वीपीय भागों में अरब सागर में लक्षद्वीप और बंगाल की खाड़ी में अंडमान निकोबार द्वीपसमूह हैं। लक्षद्वीप प्रवाल-भित्तिजन्य द्वीप हैं या एटाल हैं, वहीं अंडमान निकोबार द्वीपसमूह अरकान योमा का समुद्र में प्रक्षिप्त हिस्सा माने जाते हैं जो वस्तुतः समुद्र में डूबी हुई पर्वत श्रेणी हैं। अंडमान निकोबार द्वीपसमूह पर ज्वालामुखी क्रिया के अवशेष भी दिखाई पड़ते हैं। इसके पश्चिम में बैरन द्वीप भारत का इकलौता सक्रिय ज्वालामुखी है।

भारतीय भूगोल का इतिहास पर प्रभाव

प्रत्येक देश का भूगोल उसके इतिहास को प्रभावित करता है और भारतीय इतिहास पर भी यहाँ के भूगोल का गहरा प्रभाव पड़ा है। भारत को प्रकृति ने एक दुर्ग के समान बनाया है। उत्तर में विशाल एवं अजेय हिमालय, दक्षिण में हिंद महासागर, पूर्व में बंगाल की खाड़ी तथा म्यांमार की पहाडि़याँ एवं पश्चिम में अरब सागर इसकी सीमाओं के रक्षक हैं। चारों ओर से प्राकृतिक सीमाओं से घिरा हुआ देश भारत अपनी संस्कृति की रक्षा करने में सफल रहा है।

भौगोलिक विविधताओं के कारण भारत में अनेक प्रकार की भिन्नताएँ पाई जाती हैं। भारत के विभिन्न क्षेत्रों में कद, रंग तथा बनावट के लोगों का पाया जाना क्षेत्रीय भिन्नताओं का ही परिणाम है। विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार की जलवायु होने के कारण यहाँ विभिन्न प्रकार की वनस्पति, जीव-जंतु और रीति-रिवाज, खान-पान व संस्कृति देखने को मिलती है। यहाँ जलवायु व सुविधा के अनुकूल विभिन्न प्रकार के व्यवसाय पनपते रहे हैं।

प्राकृतिक विविधता के साथ-साथ यहाँ सामाजिक व धार्मिक भिन्नता भी दृष्टिगत होती है। भारत में सैकड़ों (222) भाषाएँ और बोलियाँ (545) हैं। वर्तमान में भारत के संविधान द्वारा 22 भाषाओं- हिंदी, बांग्ला, पंजाबी, गुजराती, मराठी, उडि़या, उर्दू, सिंधुी, असमिया, कश्मीरी, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम, कोंकणी, मणिपुरी, नेपाली, संस्कृत, डोगरी, संथाली, बोडो व मैथिली को मान्यता प्रदान की गई है।

भारत के विभिन्न भागों में अलग-अलग धर्म जैसे- हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, पारसी तथा जैन धर्म के अनुयायी रहते हैं। इन विभिन्न धर्मों तथा मतों के अनुयायियों में भी धार्मिक विविधता दिखाई देती है। इन्हीं क्षेत्रीय विभिन्नताओं के कारण देश में बहुत काल तक राष्ट्रीयता की भावनाओं का विकास नहीं हो सका। आज भी संस्कृति, भाषा, धर्म, प्रदेश, क्षेत्र, जल आदि को लेकर देश को विभिन्न सामाजिक समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।

भौगोलिक एवं सामाजिक परिस्थितियों की विभिन्नता के कारण भारत विश्व का एक लघु रूप बन गया। स्थानीय विशिष्टताओं के कारण भारतीय सभ्यताएँ युगों-युगों तक अपने स्वतंत्र रूप में विकसित होती रही हैं। भारतीय प्रायद्वीप की विशालता और भौगोलिक पृथकता के कारण ही संपूर्ण देश में कभी राजनैतिक एकता की स्थापना नहीं हो सकी, यद्यपि इसके लिए कई महान् शासक प्रयत्नशील रहे। यही कारण है कि भारत का इतिहास एक प्रकार से केंद्रीयकरण तथा विकेंद्रीयकरण की प्रवृत्तियों के बीच निरंतर संघर्ष की गाथा है। एक अलग विशिष्ट भौगोलिक इकाई होने के कारण चोलों को छोड़कर अन्य किसी भारतीय शासक ने इस प्रायद्वीप के बाहर साम्राज्य स्थापित करने का प्रयास नहीं किया।

भौगोलिक दृष्टि से भारत विविधताओं का देश है, फिर भी सांस्कृतिक रूप से एक इकाई के रूप में इसका अस्तित्व प्राचीनकाल से बना हुआ है, जिसमें अनेक सांस्कृतिक उपधाराएँ विकसित होकर पल्लवित और पुष्पित हुई हैं। हिमालय संपूर्ण देश के गौरव का प्रतीक रहा है, तो गंगा-यमुना और नर्मदा जैसी नदियों की स्तुति यहाँ के लोग प्राचीनकाल से करते आ रहे हैं। राम, कृष्ण और शिव की आराधना यहाँ सदियों से की जाती रही है।

उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक संपूर्ण भारत में जन्म, विवाह और मृत्यु के संस्कार एक समान प्रचलित हैं। भाषाओं की विविधता अवश्य है, फिर भी संगीत, नृत्य और नाट्य के मौलिक स्वरूपों में आश्चर्यजनक समानता है। संगीत के सात स्वर और नृत्य के त्रिताल संपूर्ण भारत में समान रूप से प्रचलित हैं। यह प्रायद्वीप अनेक धर्मों, संप्रदायों, मतों और पृथक् आस्थाओं एवं विश्वासों का महादेश है, तथापि इसका सांस्कृतिक समुच्चय और अनेकता में एकता का स्वरूप संसार के अन्य देशों के लिए विस्मय का विषय रहा है।

भारतीय संस्कृति विश्व की सर्वाधिक प्राचीन एवं समृद्ध संस्कृति है। मध्य प्रदेश के भीमबेठका में पाये गये शैलचित्र, नर्मदा घाटी में की गई खुदाई तथा कुछ अन्य नृवंशीय एवं पुरातात्त्विक प्रमाणों से यह सिद्ध हो चुका है कि भारत-भूमि आदि मानव की प्राचीनतम् कर्मभूमि रही है और आज से लगभग पाँच हजार वर्ष पहले भारत के सिंधु घाटी क्षेत्र में एक उच्चकोटि की नगरीय सभ्यता का विकास हो चुका था।

बौद्ध काल में भारत के सोलह महाजनपदों और उनकी राजधानियों का प्रमुख नगरों के रूप में उल्लेख मिलता है। दक्षिण भारत के कई नगर चेर, चोल और पांड्य राजाओं द्वारा बसाये गये जो कला, संस्कृति और व्यापार के समृद्ध केंद्र थे। प्राचीनकाल के भारतवासी केवल अपने देश की भौगोलिक सीमाओं तक ही सीमित नहीं थे, वरन् उन्हें विदेशों का भी ज्ञान था, जहाँ पर उन्होंने अपने व्यापारिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक केंद्रों की स्थापना की थी। भारत से बाहर भारतीयों ने विस्तृत भूखंड में अपने उपनिवेशों की स्थापना कर सांस्कृतिक व व्यापारिक संबंध स्थापित किये, जिससे भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का बृहत्तर भारत में प्रचार-प्रसार हुआ।

अन्य देशों की संस्कृतियाँ तो समय की धारा के साथ-साथ नष्ट होती रही हैं, किंतु भारतीय संस्कृति आदिकाल से अपने परंपरागत अस्तित्व के साथ अजर-अमर बनी हुई है। प्रारंभ से ही भारतीय संस्कृति अत्यंत उदात्त, समन्वयवादी, सशक्त एवं जीवंत रही है, जिसमें जीवन के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण तथा आध्यात्मिक प्रवृत्ति का अद्भुत समन्वय रहा है।

मानवता के सिद्धांतों पर आधारित होने के कारण ही यह संस्कृति अपने अस्तित्व को सुरक्षित रख सकी है। इसकी उदारता तथा समन्वयवादी गुणों ने अन्य संस्कृतियों के उन्नत तत्त्वों को अपने में समाहित तो किया है, किंतु अपने अस्तित्व के मूल को सुरक्षित रखा है। यह भारतीय संस्कृति की सहिष्णुता, उदारता एवं ग्रहणशीलता ही है जिसके कारण बाहर से आनेवाले आर्य, ईरानी, यूनानी, शक, कुषाण एवं हूण जैसी प्रजातियों के लोग यहीं की माटी में घुल-मिल गये और अपनी पहचान खो बैठे। इससे लगता है कि यह प्रायद्वीप विदेशी तत्त्वों को आत्मसात् कर अपनी संपन्नता बढ़ाने की क्षमता रखता है।

यद्यपि भारतीय संस्कृति लोकहित और विश्व-कल्याण के कालजयी सिद्धांतों पर आधारित रही है, किंतु समाज को संगठित रखने के लिए निर्मित वर्ण-व्यवस्था में ऊँच-नीच और अस्पृश्यता, धर्मांधता, अंधविश्वास एवं सामाजिक रूढि़यों के प्रवेश के कारण इस संस्कृति का वास्तविक स्वरूप बहुत कुछ धूमिल-सा हो गया है।

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