चोल राजवंश का राजनीतिक इतिहास (Political History of Chola Dynasty, 850-1279 AD)

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चोल राजवंश (850-1279)

सुदूर दक्षिण भारत के तमिल प्रदेश में प्राचीनकाल में जिन राजवंशों का उत्कर्ष हुआ, उनमें चोलों का विशिष्ट स्थान है। चोल एक शक्तिशाली राजवंश था, जिसने 1500 वर्षों से अधिक समय तक दक्षिण भारत में शासन किया। यद्यपि इस राजवंश की स्थापना के संस्थापक का ज्ञान नहीं है, किंतु मौर्य सम्राट अशोक के तेरहवें शिलालेख में चोलों का प्रथम ऐतिहासिक उल्लेख मिलता है, जहाँ इनकी गणना सीमावर्ती राज्य के रूप में पांड्यों और चेरों के साथ की गई है।  प्राचीन चोल राज्य ‘चोडमंडलम्’ पेन्नार और बेल्लारु नदियों के बीच स्थित था। इस राज्य की भौगोलिक सीमा इस राजवंश के शासकों की शक्ति एवं सामर्थ्य के अनुसार समय-समय पर बदलती रही। प्रारंभ में चोलों ने उरगपुर (तमिलनाडु में त्रिचनापल्ली के निकट उरैयूर) में अपनी राजधानी स्थापित की, किंतु आगे चलकर क्रमशः कावेरीपट्टनम्, तंजुवुर (तंजोर) तथा गंगैकोंडचोलपुरम् भी उनकी राजधानियाँ बनीं। चोल वंश या चोल साम्राज्य का राजकीय चिन्ह बाघ था, जो उनके ध्वज पर भी अंकित मिलता है। किंतु तेलगु प्रदेश के कुछ स्थानीय राजाओं के, जो अपने को करिकाल की संतान मानते हैं, कुलचिन्ह के रूप में सिंह का प्रयोग किया गया है। इसके साथ ही, चोल शासकों ने तमिल और संस्कृत को राजकीय भाषा के रूप में अपनाया। इन शासकों के अभिलेख संस्कृत, तमिल और तेलुगू भाषाओं में मिलते हैं।

चोल राजवंश का राजनीतिक इतिहास (Political History of Chola Dynasty, 850-1279 AD)
चोल राजवंश का साम्राज्य-विस्तार और प्रभाव-क्षेत्र

चोल राजवंश के ऐतिहासिक स्रोत

साहित्यिक स्रोत

आरंभिक चोलों के इतिहास-निर्माण के प्रमुख साधन साहित्यिक ही हैं, जिनमें संगम साहित्य (100-250 ई.) सबसे महत्त्वपूर्ण है। इन ग्रंथों में सुदूर दक्षिण में तीन प्रमुख राज्यों- चोल, चेर और पांड्य के उद्भव और विकास का विवरण मिलता है। संगम साहित्य से न केवल आरंभिक चोल शासक करिकाल की उपलब्धियों की सूचना मिलती है, बल्कि पांड्य तथा चेर राजाओं के साथ उनके संबंधों का भी ज्ञान होता है। संगम साहित्य में वर्णित अनेक तथ्यों की पुष्टि पेरीप्लस और टॉलमी के विवरणों से होती है।

परवर्ती चोल शासकों अर्थात् विजयालय और उसके उत्तराधिकारियों के इतिहास-निर्माण के लिए दशवीं-ग्यारहवीं शताब्दी ईस्वी में प्रवर्तित शैव संतों के ‘चरित’ विशेष उपयोगी हैं। सबसे पहले नंबि आंडार ने शैव संतों का चरित उपनिबद्ध किया और जिसके आधार पर शेक्किलार ने ‘तिरुतोंडर पुराणम्’ नामक बृहत्काव्य की रचना की, जिसे ‘पेरियपुराणम्’ भी कहा जाता है। शैव आगमों की तरह वैष्णवागम भी ऐतिहासिक दृष्टि से उपयोगी हैं, जो ‘चार सहस्र स्तुतियाँ’ के रूप में संकलित हैं। इस परंपरा में ‘दिव्यमूरिचरित’ एवं ‘गुरुपरम्परै’ महत्त्वपूर्ण हैं, जिनमें वैष्णव आलवारों की क्रमबद्ध सूची के साथ-साथ तत्कालीन प्रचलित लोक परंपराओं एवं विश्वासों का भी वर्णन मिलता है। जयन्गोंडार की रचना ‘कलिंगत्तुप्परणि’ में यद्यपि काल्पनिक और अलौकिक तत्त्वों की बहुलता है, फिर भी, इससे कुलोत्तुंग प्रथम की वंश-परंपरा और उसके सेनापति करुणाकर तोंडैमान की कलिंग-विजय की जानकारी मिलती है। ओट्टकूतन लिखित ‘तक्कयागप्परणि’ पौराणिक अधिक, ऐतिहासिक कम है। शेक्किलार द्वारा रचित ‘पेरियपुराणम्’ से कुलोतुंग द्वितीय के शासनकाल की घटनाओं का ज्ञान होता है।

चोल शासको के नाम पर लिखी गई उलाएँ भी ऐतिहासिक दृष्टि से उपयोगी हैं। उलाओं में विक्रमचोल, कुलोत्तुंग द्वितीय तथा राजराज द्वितीय से संबंधित उलाएँ अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। बौद्ध बुद्धमित्र के तमिल व्याकरण-ग्रंथ ‘वीरशोलियम्’ से वीरराजेंद्र के शासनकाल की कुछ ऐतिहासिक घटनाओं पर प्रकाश पड़ता है। सिंहली इतिवृत ‘महावंश’ से परांतक की पांड्य विजय और राजेंद्र प्रथम की सिंहल-विजय का विवरण मिलता है। यही नहीं, जैन विद्वान तिरुतक्कदेवर द्वारा रचित ‘जीवक चिंतामणि’ से भी चोल साम्राज्य के संबंध में सूचना मिलती है। प्रसंगतः, जीवक चिंतामणि की गणना तमिल साहित्य के पाँच प्रसिद्ध ग्रंथों में की जाती है।

उत्तर भारतीय ग्रंथों- पाणिनि के ‘अष्टाध्यायी’ और कात्यायन के ‘वार्तिक’ में चोलों का प्राचीनतम् उल्लेख मिलता है। ‘रामायण’ तथा ‘महाभारत’ में भी चोल राज्य और दक्षिण भारत की नदियों का उल्लेख मिलता है। महाभारत में केरल और चोल राज्य की मुक्ता की प्रशंसा की गई है। पतंजलि ने भी अपने ‘महाभाष्य’ में काँचीपुर का विवरण दिया है।

क्लासिकी लेखकों और विदेशी यात्रियों के विवरण भी चोलों के इतिहास-निर्माण में सहायक हैं। ‘पेरीप्लस ऑफ द इरीथ्रियन सी’ के अज्ञात लेखक और भूगोलवेत्ता टॉलमी ने चोल राज्य का उल्लेख किया है। पेरिप्लस से पश्चिमी समुद्रतट से पाश्चात्य देशों के साथ होने वाले व्यापार पर प्रकाश पड़ता है। चीनी स्रोतों से ज्ञात होता है कि चोलों और चीनी शासकों के बीच राजनयिक और व्यापारिक संबंध थे। एक चीनी अनुश्रुति के अनुसार राजराज प्रथम और कुलोत्तुंग प्रथम के काल में एक दूत-मंडल चीन गया था। सातवीं शताब्दी ईस्वी का चीनी यात्री ह्वेनसांग अपने भारत का भ्रमण के दौरान चोल राज्य में भी गया था। उस समय चोल राज्य महत्त्वपूर्ण नहीं था और संभवतः पल्लवों के अधीन था। चीनी यात्री चाउ-जु-कुआ के विवरण से चोलों की शासन-व्यवस्था की कुछ जानकारी मिलती है।

1950 के दशक के तमिल उपन्यासकार और पत्रकार कल्कि कृष्णमूर्ति की एक उत्कृष्ट कृति ‘पोन्नियिन सेलवन’ भी चोलकालीन इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है, जो काल्पनिक होकर भी वास्तविक ऐतिहासिक घटनाओं से परिपूर्ण है। इस पुस्तक में युवराज आदित्यचोल द्वितीय की हत्या और राजराज चोल के सिंहासन पर बैठने के आसपास की घटनाओं की रोचक जानकारी मिलती है।

पुरातात्त्विक स्रोत

चोलों के इतिहास-निर्माण में पुरातात्त्विक स्रोत अपेक्षाकृत अधिक उपयोगी हैं, जो अभिलेखों, मुद्राओं और स्मारकों के रूप में मिलते हैं। चोल अभिलेख प्रायः अनुदानपत्रों के रूप में हैं और अलंकृत काव्य शैली में संस्कृत, तमिल, तेलगू तथा कन्नड़ भाषा में लिखे गये हैं। चोल अभिलेखों में विजयालय कुल के आदित्य प्रथम के तिरुकल्लकुकरम्, तक्कोलम् तथा तिलोत्तम् लेख अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। उसके उत्तराधिकारी परांतक प्रथम के विषय में तोंडैमान तिरुवोर्रैयूर, किलयुत्तगुर तथा उत्तरमेरुर लेखों से उपयोगी जानकारी मिलती है। राजराज प्रथम के संबंध में उसके तथा उसके उत्तराधिकारियों के लेखों से ऐतिहासिक सूचनाएँ मिलती हैं। इस दृष्टि से राजराज प्रथम के तंजोर लेख, मेलपाडि लेख, लीडेन अनुदानपत्र, तिरुवलंगाडु अनुदानपत्र, वीर राजेंद्र के कन्याकुमारी लेख और राजेंद्र तृतीय के तिरुवेंदिपुरम् लेख उल्लेखनीय हैं। तिरुवेंदिपुरम् लेख में चोलवंश के उत्कर्ष तथा राजराज तृतीय को उसके होयसल सामंत द्वारा दी गई सहायता का उल्लेख मिलता है। राजाधिराज प्रथम के मणिमंगलम् लेख से उसकी सिंहल-विजय तथा चालुक्यों से संघर्ष की सूचना मिलती है। चोलों के समकालीन बाणों, कदंबों, बैदुम्बों, नोलंबों, राष्ट्रकूटों, पांड्यों तथा पूर्वी चालुक्यों के लेख भी चोल राजवंश के इतिहास-निर्माण में उपयोगी हैं।

चोल राजाओं द्वारा चलाये गये सोने, चाँदी तथा ताँबे के सिक्के भी ऐतिहासिक दृष्टि से उपयोगी हैं। इन सिक्कों से चोलों शासकों की राजनीतिक गतिविधियों के साथ-साथ व्यापार-वाणिज्य की प्रगति और तत्कालीन आर्थिक समृद्धि का ज्ञान होता है। चोलों के सोने के सिक्कों का एक ढेर धवलेश्वरम् से मिला है। चोलों के एक विशेष प्रकार के सिक्कों पर दो द्वीप-स्तंभों के बीच एक व्याघ्र का अंकन और उसके ऊपर एक छत्र प्रदर्शित है। संभवतः चोलों ने इसका प्रचलन कल्याणी के चालुक्यों की विजय के उपलक्ष्य में किया था। चोलों के कुछ सिक्के उनके द्वीपांतर शासन के प्रमाण हैं। राजाधिराज प्रथम के कुछ सिक्के श्रीलंका से मिले हैं, जिनसे सिंहल पर उसके अधिकार की पुष्टि होती है। ग्यारहवीं शती ईस्वी के कुछ चोल सिक्कों पर ‘वृष’ अंकित है, जो चोल राजनीति में होयसलों के प्रभुत्व का सूचक है।

चोलों के इतिहास की कुछ जानकारी स्मारकों और मूर्तियों से भी होती है। मंदिरों के चबूतरों, स्तंभों तथा दीवारों पर अनेक लेख उत्कीर्ण किये गये थे, जो ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। पुराने मंदिर के जीर्णोद्वार के समय पुराने लेखों की प्रतिलिपियाँ उतार ली जाती थीं और उन्हें पुनः नये मंदिर में उत्कीर्ण कर दिया जाता था। मंदिरों के निर्माण से वास्तुकला की प्रगति का ज्ञान होता है। चोलकाल काँस्य मूर्तियों के निर्माण के लिए प्रसिद्ध है, जो मूर्तिकला के क्षेत्र में उनकी दक्षता के साथ-साथ धातुविज्ञान की प्रगति का भी प्रमाण है।

चोलों का अभिजन तथा कुलनाम

चोलों की उत्पत्ति का स्पष्ट ज्ञान नहीं है। परिमेललगर जैसे विद्वान् ‘चोल’ को पांड्य तथा चेर के समान एक वंश का नाम मानते हैं। कुछ विद्वानों का अनुमान है कि जेरन, पंडियन तथा शोलन नामक तीन भाइयों से चेर, पांड्य तथा चोल राजवंशों की उत्पत्ति हुई थी। किंतु इस मत की ऐतिहासिकता संदिग्ध है।

कर्नल जेरिनि ने ‘चोल’ शब्द को संस्कृत ‘काल’ (काला) तथा ‘कोल’ से संबंधित किया है। ‘कोल’ शब्द का प्रयोग प्राचीन काल में दक्षिण भारत में विद्यमान कृष्णवर्ण की एक प्राक्-आर्य जाति के लिए किया जाता था। इसी प्रकार ‘चोल’ शब्द को संस्कृत ‘चोर’ तथा तमिल ‘चोलम्’ (बाजरा) से संबंधित किया जाता है। किंतु ये सभी व्युत्पत्तियाँ अस्वाभाविक और काल्पनिक प्रतीत होती हैं।

डॉ. राजबली पांडेय के अनुसार चोल का सबसे निकटवर्ती शब्द  ‘चूल’ (श्रेष्ठ) है। द्रविड़ प्रदेश के प्राचीन राजाओं में चोल शिरोमणि (श्रेष्ठ) थे, इसीलिए चोल कहे गये। उत्तर भारत से ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों को दक्षिण में बुलाने और संस्कृत साहित्य को विशेष प्रश्रय देने से लगता है कि चोल भी उत्तर भारत से द्रविड़ प्रदेश में गये और वहाँ अपना साम्राज्य स्थापित किये। साहित्य एवं लेखों में इन्हें ‘सूर्यवंशी’ कहा गया है। इससे प्रतीत होता हैं कि चोल क्षत्रिय थे।

चोलों को किल्लि, वलवन और शेंबियन कहा गया है। नीलकंठ शास्त्री के अनुसार ‘किल्लि’ शब्द किल् से बना है, जिसका अर्थ है- खोदना या विदारण करना। वलवन का अर्थ ‘उर्वरता’ है और कावेरी की भूमि अपनी उर्वरता के लिए प्रसिद्ध थी। शेंबियन का अर्थ है-‘शिबि की संतान’। अनुश्रुतियों में राजा शिबि द्वारा बाज से कपोत के प्राण-रक्षा की कहानी मिलती है। प्राचीन चोल पुराण कथाओं में भी शिबि की इस कहानी का उल्लेख मिलता है।

संगम काल के चोल शासक

संगमकालीन चोल राजवंश का एक महत्वपूर्ण शासक करिकाल था, जिसने चोलों की अपनी प्रतिष्ठा को बनाकर रखा था। इसके बाद चोल वंश की शक्ति क्षीण हो गई और वे शक्तिशाली पल्लवों, चालुक्यों और राष्ट्रकूटों के अधीन सामंत बनकर रह गये। 9वीं सदी के उत्तरार्द्ध से विजयालय के नेतृत्व में चोलों की शक्ति का पुनरुत्थान हुआ और देखते ही देखते चोल सुदूर दक्षिण की एक महान् शक्ति बन गये और तेरहवीं सदी के मध्य तक शासन करते रहे। प्रतिभाशाली चोल नरेशों के सफल नेतृत्व में चोल साम्राज्य अपने स्वर्णिम काल में तुंगभद्रा नदी के दक्षिण के सभी भू-भागों और अरब सागर के बहुत से द्वीपों पर फैला हुआ था। संगमयुगीन चोल शासकों की विस्तृत जानकारी के लिए देखें-

महान चोल वंश का राजनीतिक इतिहास

संगमयुग में कलभ्रों ने पांड्यों और चोलों को आक्रांत कर उनकी शक्ति नष्ट-भ्रष्ट कर दी। पांड्यों तथा पल्लवों ने तो किसी प्रकार कलभ्रों को अपदस्थ कर अपनी सत्ता पुनः स्थापित कर ली, किंतु चोल कई शताब्दियों तक अवसर की प्रतीक्षा करते रहे। नवीं शती ईस्वी के दूसरे चरण के पहले चोल समय एवं परिस्थिति के अनुसार पल्लवों और पांड्यों के अधीनता में कभी एक की, तो कभी दूसरे की सेवाकर तथा वैवाहिक संबंधों के माध्यम से अपने वंश के अस्तित्व बनाये रखे। नवीं शती ईस्वी के उत्तरार्द्ध में विजयालय के आगमन से चोलों की शक्ति का पुनरुत्थान हुआ। विजयालय ने उरैयूर को केंद्र बनाकर अपनी शक्ति का विस्तार किया और एक ऐसे चोल साम्राज्य की स्थापना की, जो देखते ही देखते दक्षिण भारत की एक महान् शक्ति बन गया और लगभग दो सौ वर्षों तक दक्षिण भारत की एक प्रमुख शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित रहा।

विजयालय (लगभग 850-870 ई.)

9वीं सदी के मध्य में विजयालय ने चोल शक्ति की पुनर्स्थापना की। विजयालय पल्लव शासकों के अधीन एक शक्तिशाली शासक था। उसने मुत्तरैयरों, जो पांड्यों के अधीन शासन कर रहे थे, से तंजोर छीन लिया और उसे चोलों की राजधानी बनाया। इस प्रकार चोलों की प्राथमिक राजधानी उरगपुर से हटकर तंजोर (थंजावुर अथवा तंजावर) में स्थापित हो गई। तिरुवालंगाडु ताम्रपट्टों में कहा गया है कि विजयालय ने विलासपूर्वक तंजोर को इस प्रकार पकड़ लिया, मानो यह नगर उसकी विवाहिता रानी हो। वहाँ उसने निशुंभसूदिनी देवी का मंदिर बनवाया था।

आर. संथियनथय्यर के अनुसार पल्लव तथा पांड्यों की पारस्परिक शत्रुता तथा युद्धों के कारण विजयालय ने मुत्तरैयरों से तंजोर अपहृत कर लिया और ऐसा उसने अपने पल्लव अधिपति के आदेश पर किया होगा। संभवतः उसे कावेरी प्रदेश में व्याप्त राजनीतिक उथल-पुथल का लाभ भी मिला था। काँची तथा शचींद्रम जैसे दूर स्थानों से प्राप्त परकेशरी नामक शासक के लेख संभवतः विजयालय के ही हैं।

वास्तव में, पांड्यों तथा पल्लवों की पतनावस्था का लाभ उठाकर विजयालय ने अपनी शक्ति का विस्तार किया और उत्तरी तथा दक्षिणी बेल्लार नदियों के बीच के प्रदेश के अतिरिक्त कावेरी नदी की घाटी तथा कोलेरुन तक अपने प्रभुत्त्व को बढ़ा लिया।

विजयालय की तिथि का समकालीन लेखों से कोई ज्ञान नहीं होता है। किंतु इसके उत्तराधिकारियों की तिथि के आधार पर उसकी तिथि का निर्धारण किया जा सकता है। कीलहार्न उसके पौत्र परांतक प्रथम के राज्यारोहण की तिथि 907 ई. मानते हैं। आदित्य प्रथम के चौबीसवें वर्ष के तक्कोलम् के एक लेख में एक सूर्यग्रहण का उल्लेख है, जो 894-95 ई. में पड़ा था। इस आधार पर आदित्य का राज्यारोहण 871 ई. के लगभग और विजयालय का शासनांत 870  ई. के लगभग माना जा सकता है। सामान्यतः विजयालय का शासनकाल बीस वर्ष माना जाता है, इसलिए उसके शासन का आरंभ 850 ई. के लगभग माना जा सकता है।

आदित्य प्रथम (871-907 ई.)

विजयालय के बाद उसका पुत्र आदित्य प्रथम लगभग 870-71 ई. में चोल राज्य का उत्तराधिकारी हुआ। आदित्य ने पल्लव शासक अपराजित को पांड्यों के विरुद्ध सहायता दी। बाद में 893 ई. के लगभग उसने अपराजित को परास्त करके मार डाला और संपूर्ण तोंडैमंडल पर अधिकार करके चोल वंश के स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। कालांतर में उसने पल्लवों के शेष राज्य पर भी अधिकार लिया और पश्चिमी गंगों को भी अपनी अधीनता मानने के लिए बाध्य किया। इस प्रकार आदित्य प्रथम का साम्राज्य कालहस्ति तथा तिरुक्कलुक्कुनम् से लेकर पुडककोट्टै तथा कोयंबटूर तक फैल गया, जिसमें तोंडैमंडलम् तथा तालकाड प्रदेश सम्मिलित थे।

आदित्य प्रथम परम शैव था। उसे कई शिवमंदिरों के निर्माण का श्रेय दिया गया है। अन्विल ताम्रपत्रों के अनुसार उसने कावेरी नदी के दोनों तटों पर कई मंदिरों का निर्माण करवाया था, जिससे सह्य पर्वत से लेकर समुद्रपर्यंत का प्रदेश अत्यंत रमणीय हो गया था।

आदित्य प्रथम का एक विवाह एक पल्लव राजकुमारी से हुआ था। उसकी अग्रमहिषी इलंगोनपिच्चि राष्ट्रकूट कृष्ण द्वितीय की पुत्री थी। उसके परांतक तथा कर्णदेव नामक दो पुत्रों के संबंध में जानकारी मिलती है।

आदित्य प्रथम की मृत्यु 907 ई. में कालहस्ति के समीप तोडैंमानाडु में हुई थी, जहाँ उसके पुत्र परांतक प्रथम ने अपने पिता की स्मृति में कोदंडरामेश्वर तथा आदित्येश्वर नामक मंदिरों का निर्माण करवाया था।

परांतक प्रथम (907-955 ई.)

आदित्य प्रथम की मृत्यु के बाद 907 ई. में उसका पुत्र परांतक प्रथम चोल राजसिंहासन का उत्तराधिकारी हुआ। दक्षिण भारत में चोल शक्ति की स्थापना का वास्तविक श्रेय इसी को प्राप्त है। इसने शासन के प्रारंभ में ही राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण द्वितीय के आक्रमण का सामना किया और अजेय कृष्णराज को पराजित कर ‘वीरचोल’ को उपाधि धारण की। अपने शासनकाल के तीसरे वर्ष में परांतक ने श्रीलंका और पांड्यों को पराजित करके ‘मदुरैकोंड’ और ‘संग्रामराघव’ की उपाधि धारण की थी। करंदै ताम्रलेखों से पता चलता है कि परांतक प्रथम ने कृषि की सुविधा के लिए नहरों का निर्माण करवाया था। उसने संभवतः 955 ई. तक शासन किया था। परांतक प्रथम के संबंध में विस्तृत जानकारी के लिए देखें-

गंडरादित्य ((956-57 ई.)

इतिहासकारों के अनुसार परांतक प्रथम की मृत्यु के बाद उसके दूसरे पुत्र गंडरादित्य ने 956 ई. के आसपास शासन ग्रहण किया। इसने संभवतः बहुत कम समय (957 ई.) तक शासन किया और इसकी किसी विशेष उपलब्धि की सूचना नहीं मिलती है। तोंडैमंडलम् प्रदेश पर राष्ट्रकूटों का अधिकार बना रहा और इसे बार-बार कृष्ण तृतीय के आक्रमणों का सामना करना पड़ रहा था।

गंडरादित्य के शासनकाल के दूसरे वर्ष के एक लेख में उसके एक सामंत ने दावा किया है कि उसने वीरचोलपुरम् में अपने शत्रुओं को पराजित किया था। लेख में शत्रु का नाम नहीं है, किंतु अनुमान है कि यह सरदार नरसिंहवर्मा था, जिसने अपने शासन के सत्रहवें वर्ष (955 ई.) में कृष्ण तृतीय की अधीनता स्वीकार की थी।

गंडरादित्य की महारानी शेंबियन एक धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थी, जिससे उत्तमचोल पैदा हुआ था। गंडरादित्य की आकस्मिक मृत्यु के बाद भी यह 1001 ई. तक जीवित रही। उसने कई पाषाण मंदिरों का निर्माण करवाया तथा दान दिया था। गंडरादित्य साहित्य प्रेमी था और कहा जाता है कि चिदंबरम् मंदिर के श्लोक की रचना उसने स्वयं की थी। गंडरादित्य का शासन 957 ई. के लगभग समाप्त हुआ।

अरिंजय (957 ई.)

गंडरादित्य के अल्पकालीन शासन के बाद उसका भाई अरिंजय (957 ई.) चोल राजसिंहासन पर बैठा। कुछ इतिहासकारों के अनुसार उसकी उपाधि अरिकुलकेशरी थी, किंतु इस संबंध में निश्चितता के साथ कुछ कहना संभव नहीं है।

अरिंजय का शासनकाल भी अत्यल्प रहा। इसकी दो रानियाँ वोमन कुंददैयार और कोदईपिदात्तियार उसकी मृत्यु के बाद भी जीवित थीं।

संभवतः अरिंजय ने राष्ट्रकूट कृष्ण तृतीय से चोलों के प्रदेशों को छीनने का प्रयास किया था, किंतु सफलता नहीं मिली और इसी प्रयास में उसकी मृत्यु हो गई। लेखों के अनुसार अरिंजय की मृत्यु मेलपाणि के आसपास (संभवतः आर्रुर में) हुई थी क्योंकि राजराज के एक अभिलेख में कहा गया है कि उसने वहाँ मरने वाले राजा की स्मृति में एक मंदिर का निर्माण करवाया था। इससे लगता है कि आर्रुर मेलपाडि के आसपास ही रहा होगा।

परांतक  द्वितीय या सुंदरचोल (957-973 ई.)

अरिंजय की मृत्यु (957 ई.) के बाद अन्विल ताम्रपत्र में उल्लिखित इसकी रानी वैदुम्ब राजकुमारी कल्याणी से उत्पन्न पुत्र सुंदर चोल परांतक द्वितीय के नाम से चोल सिंहासन का उत्तराधिकारी हुआ, जिसे ‘मदुरैकोंड राजकेशरि’ की उपाधि दी गई है। परांतक द्वितीय ने पांड्य शासक को पराजित किया था। इसकी मृत्यु काँचीपुरम् में हुई थी और मृत्यु के बाद इसे ‘पोनमलिगैतुंजिनतेव’ उपाधि दी गई थी। इसकी एक रानी वानवन महादेवी इसकी मृत्यु के बाद सती हो गई थी।

परांतक द्वितीय ने परम शैव होते हुए भी नेगपत्तिनम् में एक बौद्ध मठ के लिए एक गाँव दान दिया था। जीवन के अंतिम दिनों में इसके पुत्र आदित्य द्वितीय करिकाल की हत्या हो गई थी और इसी दुःख में परांतक द्वितीय की 973 ई. में मृत्यु हो गई। परांतक चोल द्वितीय के संबंध में विस्तृत जानकारी के लिए देखें-

उत्तमचोल (973-985 ई.)

उत्तमचोल परांतक द्वितीय का चचेरा भाई और शेंबियन महादेवी तथा गंडरादित्य का पुत्र था। इसने 973 ई. से 985 ई. तक शासन किया था। गंडरादित्य की मृत्यु के समय उत्तमचोल संभवतः अल्पायु था, इसलिए गंडरादित्य के बाद चोल सिंहासन पर उसके छोटे भाई अरिंजय को बैठाया गया था। अरिंजय के अल्पकालीन शासन के बाद उसका पुत्र परांतक द्वितीय (सुंदरचोल) चोल राजगद्दी पर बैठा। परांतक द्वितीय की मुत्यु के बाद उत्तमचोल ने 973 ई. में चोल शासन की बागडोर संभाली, किंतु इसके शासनकाल की किसी विशेष उपलब्धि का ज्ञान नहीं है। उसने 985 ई. तक शासन किया। उत्तमचोल के संबंध में विस्तृत जानकारी के लिए देखें-

राजराज चोल प्रथम (985-1014 ई.)

उत्तमचोल के बाद परांतक द्वितीय का दूसरा पुत्र अरुमोलिवर्मन् (अरुलमोझिवर्मन्) ‘राजराज’ की उपाधि धारण कर चोल राजगद्दी पर आसीन हुआ। राजराज ने पश्चिमी गंगों, वेंगी के पूर्वी चालुक्यों, मदुरा के पांड्यों, कलिंग के गंगों और केरल के चेरों को पराजित किया और सुदूर दक्षिण में अपने राज्य का विस्तार किया।

राजराज ने दक्षिण भारत में सर्वप्रथम एक शक्तिशाली नौसेना का निर्माण किया और उसकी सहायता से कुर्ग, संपूर्ण मालाबार तट और श्रीलंका के कुछ भागों पर अधिकार कर लिया। इसने पूर्वी द्वीपसमूहों पर आक्रमण किया और श्रीविजय साम्राज्य के राजा तुंगवर्मन् से मित्रता की।

राजराज के शासनकाल में शासन-तंत्र, सैन्य-संगठन, कला एवं स्थापत्य, साहित्य एवं धर्म के क्षेत्रों में भी असाधारण प्रगति हुई। उसने अपने पुत्र को युवराज के रूप में शासन में सम्मिलित करने की परंपरा आरंभ किया और स्थानीय स्वशासन की नींव डाली।

शैव धर्मावलम्बी राजराज प्रथम ने ‘शिवपाद शेखर’ की उपाधि भी धारण की थी और राजराजेश्वर के शिवमंदिर का निर्माण करवाया था, जो तमिल वास्तुकला का एक अद्वितीय उदाहरण है। राजराज प्रथम ने 1014 ई. तक शासन किया। इसके बाद इसका पुत्र राजेंद्र चोल गद्दी पर आसीन हुआ। राजराज के संबंध में विस्तृत जानकारी के लिए देखें-

राजेंद्र चोल प्रथम (1014-1044 ई.)

राजराज चोल की मृत्यु के बाद राजेंद्र चोल औपचारिक रूप से 1014 ई. में चोल सिंहासन पर बैठा। उसने राजेंद्र चोल को 1012 ई. में ही युवराज नियुक्त किया था।

राजेंद्र ने अपने पिता द्वारा शुरू किये गये कार्य को आगे बढ़ाया और चोलों की शक्ति को चरम सीमा पर पहुँचा दिया। उसने दक्षिण के पांड्यों, चेरों, सिंहलियों को पराजित किया और पश्चिमी चालुक्यों के राज्य पर आक्रमण करके लूटपाट किया। राजेंद्र ने कलिंग, उड़ीसा और बस्तर के मार्ग से पश्चिमी बंगाल पर आक्रमण किया और शक्तिशाली पाल शासक महीपाल को हराया। यही नहीं, इसने समुद्री व्यापार की रक्षा के लिए मलाया, जावा, सुमात्रा के् शैलेंद्र साम्राज्य पर आक्रमण किया और अरब सागर में भी उसने अपनी नौ-सेना की प्रतिष्ठा को स्थापित किया।

राजेंद्र चोल ने गंगैकोंडचोलपुरम् को अपनी राजधानी को बनाया और ‘गंगैकोंडचोल’ की उपाधि धारण की। इसने संभवतः 1044 ई. तक शासन किया था। इसकी रानी वीरमादेवी इसकी मृत्यु के बाद सती हुई थी। इसकी पुत्री अमंगादेवी का विवाह पूर्वी चालुक्य शासक राजराज के साथ हुआ था, जिससे प्रथम चोल-चालुक्य शासक कुलोत्तुंग पैदा हुआ था। इसने अपने पुत्र राजाधिराज को युवराज बनाया और उसे अपना संभाव्य उत्तराधिकारी घोषित किया था। राजेंद्रचोल के संबंध में विस्तृत जानकारी के लिए देखें-

चोल राजेंद्र प्रथम के उत्तराधिकारी

राजेंद्र प्रथम के पश्चात् उसके पुत्रों- राजाधिराज, राजेंद्र तथा वीरराजेंद्र ने क्रमशः शासन किया और विस्तृत चोल साम्राज्य को पूर्णतः सुरक्षित रखने का प्रयास किया। चोल-चालुक्य संघर्ष इस काल में अपने उग्रतम् रूप में चलता रहा। इसी चोल-चालुक्य संघर्ष में राजाधिराज मारा गया, किंतु राजेंद्र द्वितीय ने स्थिति को संभाल लिया और चोलों की पराजय को विजय में बदल दिया था । यही नहीं, दक्षिण में पांड्य तथा केरल के शासक श्रीलंका के शासकों से मिलकर चोल साम्राज्य को क्षति पहुँचाने का कुचक्र रचते रहते थे।

वीरराजेंद्र के कन्याकुमारी लेख से ज्ञात होता है कि राजराज, राजेंद्र प्रथम के उन सभी पुत्रों में बड़ा था, जो उसके बाद क्रमशः गद्दी पर बैठे थे। इसकी पुष्टि राजेंद्र के तीनों पुत्रों के शासनकाल के लेखों से होती है। शिलालेखों की तिथियों लगता है कि इन शासकों का शासनकाल बहुत-कुछ साथ-साथ चलता रहा था। वास्तव में, इन सभी शासकों ने अपने शासनकाल की गणना अपने युवराजकाल से की है, जिससे दो शासकों की शासन-तिथियाँ एक-दूसरे के शासनकाल में अतिक्रमण करती हैं। राजमहेंद्र जैसे शासकों के लेखों में भी उसके शासनवर्ष का उल्लेख मिलता है, जबकि युवराज के रूप में ही उसकी मृत्यु हो गई थी। अभिलेखिक साक्ष्यों के आधार पर राजेंद्र के बाद के उत्तराधिकारियों का क्रम निम्नवत् निर्धारित किया जा सकता है-

  1. राजाधिराज प्रथम राजकेशरी (1018 से 1054 ई.),
  2. राजेंद्र द्वितीय (1052-1064 ई.),
  3. राजमहेंद्र (युवराज रूप में मृत्यु) (1060-1063 ई.),
  4. वीरराजेंद्र राजकेशरी (1063-1069 ई.) और
  5. अधिराजेंद्र परकेशरी (1068-1070 ई.)।
राजाधिराज प्रथम राजकेशरी (1044-1054 ई.)

राजेंद्रचोल प्रथम की मृत्यु के बाद उसका पुत्र राजाधिराज प्रथम राजकेशरी 1044 ई. में चोल राजगद्दी पर बैठा। किंतु राजाधिराज को 1018 ई. में ही युवराज नियुक्त किया गया था। राजाधिराज ने अपने पिता राजेंद्र प्रथम के शासनकाल में लगभग पचीस-छब्बीस वर्षों (1043-44 ई.) तक युवराज के रूप में शासन किया। उसने अपने पिता के समय में चोल सेनाओं का सफल नेतृत्व किया और सिंहल, पांडय और केरल में हुए विद्रोहों का दमन किया। अपने वास्तविक शासनकाल में राजाधिराज श्रीलंका और चालुक्यों के साथ संघर्ष में उलझा रहा और अंततः इसी संघर्ष में इसकी मृत्यु हो गई।

राजाधिराज प्रथम के शासनकाल के संबंध में इसके उत्तराधिकारियों के लेखो में 38, 36 अथवा 32 वर्षों के शासनकाल की जानकारी मिलती है। उसने संभवतः अपने युवराज काल से लेकर 36 वर्षों (1054 ई.) तक शासन किया। इसी प्रकार राजेंद्र द्वितीय का अभिषेक 1052 ई. में हुआ था। उसका अंतिम शासनवर्ष बारहवाँ है। उसने 1064 ई. तक राज्य किया, जबकि उसके उत्तराधिकारी वीरराजेंद्र का अभिषेक 1062-63 ई. में हुआ था। राजाधिराज प्रथम के संबंध में विस्तृत जानकारी के लिए देखें-

राजेंद्रचोल द्वितीय (1052-1064 ई.)

राजेंद्रचोल द्वितीय (1052-1064 ई.) अपने भाई राजाधिराज (1044-1054 ई.) की कोप्पम् के युद्ध में मृत्यु के बाद चोल राजगद्दी पर बैठा। इसे राजेंद्रदेवचोल भी कहा जाता है। इसका जन्म राजेंद्रचोल प्रथम और उसकी पत्नी मुक्कोकिलन आदिगल से हुआ था। एक राजकुमार के रूप में, राजेंद्र ने पांड्य, नाडु और श्रीविजय के कई विद्रोहों के दमन में मदद की थी। उसने अपने पिता के सिंहल अभियान में पोलोन्नरुवा और रोहण की विजय में सहायता की थी। 1044 ई. में पिता राजेंद्रचोल प्रथम की मृत्यु के बाद, राजेंद्र द्वितीय अपने भाई राजाधिराज प्रथम (1044-1054 ई.) के अधीन सह-शासक के रूप में कार्य कर रहा था। अभिलेखों के अनुसार राजाधिराज ने उसका राज्याभिषेक 28 मई, 1052 ई. को किया था। राजेंद्रचोल द्वितीय के संबंध में विस्तृत जानकारी के लिए देखें-

वीरराजेंद्र ( (1063-1070 ई.)

राजेंद्र द्वितीय की मृत्यु के बाद उसका अनुज वीरराजेंद्र 1063 ई. के लगभग चोल राजपीठ पर आसीन हुआ। यद्यपि राजेंद्र द्वितीय ने अपने जीवनकाल में अपने पुत्र राजमहेंद्र को 1059 ई. में युवराज नियुक्त किया था, जिसने संभवतः मुडक्कारु के युद्ध में भी भाग लिया था और राजकेशरी राजमहेंद्र की उपाधि धारण की थी। किंतु शीघ्र ही उसकी मृत्यु हो जाने के कारण राजेंद्र द्वितीय ने 1063 ई. में वीरराजेंद्र को युवराज बनाया। वीरराजेंद्र ने राजेंद्र द्वितीय की ओर से लगभग 1060 ई. में अपने परंपरागत शत्रु पश्चिमी चालुक्यों को कुडलसंगमम् के मैदान में पराजित किया और तुंगभद्रा नदी के किनारे एक विजय-स्तंभ स्थापित किया था।

वीरराजेंद्र के शासनकालीन घटनाओं की जानकारी के पर्याप्त साधन उपलब्ध हैं। स्रोतों से ज्ञात होता है कि शासन संभालने के बाद वीरराजेंद्र चोल (1063-1070 ई.) ने अपने एक पुत्र मधुरांतक को तोंडमंडलम् और दूसरे पुत्र गंगैकोंडचोल को पांडय देश का उपराजा नियुक्त किया था। वीरराजेंद्र के संबंध में विस्तृत जानकारी के लिए देखें-

अधिराजेंद्र (1070 ई.)

वीरराजेंद्र चोल की मृत्यु के बाद उसका पुत्र अधिराजेंद्र परकेशरि 1070 ई. में चोल गद्दी पर बैठा, जिसे 1068 ई. में युवराज नियुक्त किया गया था। अधिराजेंद्र एक दुर्बल शासक था, जो चोल साम्राज्य की शक्ति को अक्षुण्ण रखने में असमर्थ था। ‘विक्रमांकदेवचरित’ से ज्ञात होता है कि वीरराजेंद्र की मृत्यु के बाद विक्रमादित्य षष्ठ काँची गया और वहाँ फैले विद्रोह को दबाकर अधिराजेंद्र को गद्दी पर प्रतिष्ठित किया था। किंतु उसके वापस जाते ही वेंगी के शासक राजग (राजेंद्र द्वितीय) ने उसे मार डाला और राजगद्दी हस्तगत कर ली। इस प्रकार अधिराजेंद्र ने मात्र कुछ महीनों तक ही शासन किया और किसी विद्रोह के दौरान इसका अंत हो गया। उसकी मृत्यु के साथ ही विजयालय द्वारा स्थापित चोल वंश समाप्त हो गया और चोल-चालुक्य वंश की सत्ता स्थापित हुई।

चोल-चालुक्यवंशीय इतिहास

कुलोत्तुंग (कुलोथुंग) प्रथम (1070-1122 ई.)

कुलोत्तुग (कुलोथुंग) प्रथम के सिंहासनारोहण से चोल इतिहास में एक नये युग का सूत्रपात हुआ। कलिंगत्तुप्परणि में कहा गया है कि वीरराजेंद्र ने कुलोत्तुंग को अपना युवराज तथा उत्तराधिकारी नियुक्त किया था। संभवतः चोल देश में उत्पन्न राजनीतिक अस्थिरता का लाभ उठाकर कुलोत्तुंग प्रथम ने चोल राजसिंहासन पर अधिकार कर लिया। इसके बाद का चोल इतिहास ‘चोल-चालुक्यवंशीय इतिहास’ के नाम से जाना जाता है।

कुलोत्तुंग का जन्म 1025 ई. के आसपास पुष्य नक्षत्र में हुआ था। उसके बचपन का नाम राजेंद्र (द्वितीय) था। उसकी माता अमंगादेवी चोल राजेंद्र प्रथम की पुत्री थी और इसका पिता पूर्वी चालुक्य राजा राजराज नरेंद्र प्रथम (1019-1061 ई.) था, जो स्वयं चोल राजेंद्र प्रथम की बहन और राजराज प्रथम की पुत्री कुंदवैदेवी से उत्पन्न हुआ था। इस प्रकार कुलोत्तुंग अपनी माता की ओर से चोल वंश से और अपने पिता की ओर से पूर्वी चालुक्य वंश से संबंधित था। कलिंगत्तुंपरणि के अवतारम् (अवतार) सर्ग में कुलोत्तुंग के जन्म को ‘भगवान विष्णु के अवतार’ के रूप में वर्णित किया गया है। उसका विवाह चोल राजकुमारी मधुरांतका से हुआ था, जो वीरराजेंद्र चोल की भतीजी थी। कुलोत्तुंग (कुलोथुंग) प्रथम के संबंध में विस्तृत जानकारी के लिए देखें-

विक्रमचोल (1122-1135 ई.)

कुलोत्तुंग प्रथम की मृत्यु के बाद 1122 ई. में विक्रमचोल चोल राजसिंहासन पर बैठा, जिसे पुलिवेंदन कोलियार कुलपति उर्फ राजय्यार विक्रमचोलदेव के नाम से भी जाना जाता है। विक्रमचोल को 1089 ई. में उसके भाई राजराज चोडगंग के स्थान पर वेंगी का उपराजा बनाया गया था। अपने कार्यकाल के दौरान उसने पश्चिमी चालुक्य विक्रमादित्य षष्ठ की महत्त्वाकांक्षाओं पर नियंत्रण रखा। वेंगी के उपशासक के रूप में उसको कोलनु के शासक तेलंग भीम पर विजय प्राप्त करने और कलिंग को जलाने का श्रेय दिया गया है। शिलालेखों से ज्ञात होता है कि विक्रम ने 1110 ई. में अपने पिता की ओर से कलिंग देश में एक अभियान का नेतृत्व किया था।

तमिल लेखों के अनुसार कुलोत्तुंग ने 1118 ई में विक्रमचोल को वेंगी से बुलाकर युवराज और अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था। विक्रमचोल ने 1122 ई. तक अपने पिता के सह-शासक के रूप में संयुक्त रूप से शासन किया और राजकेशरी सहित कई उपाधियाँ धारण की थी। बाद में, 1122 ई. में सिंहासनारूढ़ होने के बाद उसने परकेशरी की उपाधि ग्रहण की। विक्रमचोल के संबंध में विस्तृत जानकारी के लिए देखें-

कुलोत्तुंग चोल द्वितीय (1135-1150 ई.)

कुलोत्तुंग द्वितीय, कुलोत्तुंग (प्रथम) का पौत्र और विक्रमचोल का पुत्र था, जिसे 1133 ई. में ही युवराज बनाया गया था, क्योंकि उसके अभिलेखों में उसके शासन की गणना इसी वर्ष से की गई है। 1135 ई. में विक्रमचोल की मृत्यु के बाद कुलोत्तुंग द्वितीय चोल राजगद्दी पर बैठा। कुलोत्तुंग द्वितीय के लेख दक्षिण अर्काट, चिंगलेपुट, तंजोर, तिरुचिरापल्ली, कडप्पा, कृष्णा तथा गोदावरी जिलों से मिले हैं, जिनमें उसके शासनकाल की अतिरंजित प्रशंसा की गई है। कुलोत्तुंग द्वितीय के एक लेख में कहा गया है कि उसके मुकुट पहनने से तिल्लैनगर की शोभा बढ़ जाती थी। इसका आशय संभवतः चिदंबरम् नगर में उसके अभिषेक कराये जाने से है।

इतिहासकारों का अनुमान है कि कुलोत्तुंग द्वितीय के शासनकाल में चोल राज्य में सामान्यतया शांति और समृद्धि बनी रही। किंतु डी.सी. गांगुली का मानना है कि कुलोत्तुंग द्वितीय को अपने शासन के अंतिम दिनों में कल्याणी के चालुक्य शासक जगदेकमल्ल के साथ संघर्ष करना पड़ा, जिसमें कुलोत्तुंग द्वितीय को सफलता मिली।

कुलोत्तुंग द्वितीय का शासनकाल राजनीतिक दृष्टि से तो नहीं, किंतु साहित्यिक एवं कलात्मक दृष्टि से प्रगति एवं विकास का काल माना जाता है। उसने तमिल साहित्य को प्रोत्साहन दिया, जिसके फलस्वरूप कई तमिल ग्रंथों का प्रणयन हुआ। उसने पेरियपुराण के लेखक शेक्किलार, कुलोत्तुंगशोलन उला के लेखक ओट्टाकुट्टन एवं कंबल जैसे लेखकों को संरक्षण दिया था। कुलोत्तुंग चोल द्वितीय के संबंध में विस्तृत जानकारी के लिए देखें-

राजराज द्वितीय (1150-1173 ई.)

कुलोत्तुंग द्वितीय के पश्चात् उसका पुत्र राजराज द्वितीय 1150 ई. में चोल राजवंश की गद्दी पर बैठा। कुलोत्तुंग द्वितीय ने इसे 1146 ई. में ही युवराज नियुक्त किया था, यही कारण है कि लेखों में इसके शासनकाल की गणना 1146 ई. से ही की गई है।

राजराज द्वितीय के लेख तिरुचिरापल्ली, तंजोर, चिंगलेपुट, दक्षिणी अर्काट, कृष्णा, गुंटूर तथा गोदावरी जिलों से मिले हैं। उसके मणिमंगलम् लेख में कहा गया है कि चेर, काकतीय, पांड्य, सिंहल तथा पल्लव के शासक उसके समक्ष साष्टांग दंडवत् करते थे, किंतु इसे अतिशयोक्ति माना जाना चाहिए।

राजराज चोल द्वितीय उपलब्धियाँ

यद्यपि राजराज द्वितीय को चोल वंश का कमजोर शासक बताया जाता है, किंतु अभिलेखों से लगता है कि उसके शासनकाल में चोल साम्राज्य की सीमा पूर्ववत् बनी रही और पश्चिमी समुद्र के साथ-साथ पूर्वी समुद्र में भी चोल नौसेनाओं का दबदबा बना रहा। राजराज द्वितीय के साम्राज्य में मदुरै, कोंगुनाडु, थिरुनेलवेली, नेल्लोर, गुंटूर, विजयवाड़ा, राजमुंदरी और कलिंग शामिल थे। राजराज द्वितीय पूर्वी गंगावाड़ी प्रांत पर भी अपना नियंत्रण बनाये रखने में सफल रहा। गंगराज्य के पूर्वी भाग और कोंगु देश में चोल सत्ता बनी हुई थी। राजराज द्वितीय के लेख तेलगु प्रदेश में द्राक्षाराम तक के समस्त वेंगी से मिले हैं, जो इस प्रदेश पर उसके अधिकार के सूचक हैं। इसके अतिरिक्त, उत्तरी श्रीलंका भी प्रायः उसके नियंत्रण में था। राजराज चोल द्वितीय के संबंध में विस्तृत जानकारी के लिए देखें-

राजाधिराज द्वितीय (1173-1178 ई.)

राजराज चोल द्वितीय के कोई पुत्र नहीं था, इसलिए उसने अपने जीवनकाल में ही विक्रमचोल के दौहित्र राजाधिराज द्वितीय को 1163 ई. युवराज और अपना उत्तराधिकारी मनोनीत कर दिया था। राजाधिराज द्वितीय के पाँचवें वर्ष के एक लेख से पता चलता है कि राजाधिराज द्वितीय ने कुलशेखर की सहायता के लिए मदुरा में चोल सेना भेजी थी और श्रीलंका के दंडनायकों को मरवा करके उनके सिरों को मदुरा के दरवाजों पर टंगवा दिया था।

राजराज चोल द्वितीय के शासनकाल में स्थानीय सामंतों और सरदारों की बढ़ती स्वतंत्रता राजाधिराज के शासनकाल में और अधिक स्पष्ट हो गई। इसके शासन के अंतिम वर्षों में वेंगी चोल प्रभाव से मुक्त हो गया। पहले वेलनाडु के सरदारों ने, फिर नेलोर के तेलगु-चोड ने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा की। इस प्रकार केंद्रीय शक्ति की दुर्बलता और सामंतों की बढ़ती शक्ति से चोल साम्राज्य के सम्मान को गहरा आघात पहुँचा। राजाधिराज द्वितीय ने लगभग 1179 ई. तक शासन किया। इसके बाद कुलोत्तुंग तृतीय उसका उत्तराधिकारी हुआ।

कुलोत्तुंग तृतीय (1178-1218 ई.)

कुलोत्तुंग तृतीय चोल राजवंश का अंतिम महान शासक था, जिसने 1178 ई. से 1218 ई. तक शासन किया। राजाधिराज द्वितीय ने अपने शासनकाल के अंतिम दिनों में कुलोत्तुंग तृतीय को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत किया था, किंतु दोनों के आपसी संबंधों की कोई स्पष्ट सूचना नहीं मिलती है।

अपने राज्याभिषेक के बाद कुलोत्तुंग तृतीय ने सर्वप्रथम आंतरिक प्रशासन को व्यवस्थित और सुदृढ़ किया। इसके बाद, उसने चोलों के केंद्रीय प्रशासन को मजबूत करने के लिए होयसलों, मदुरा के पांड्यों, वेनाड के चेरों, पोलोन्नरुवा के सिंहलियों और वेलनाडु तथा नेल्लोर के चोडों के विरूद्ध सैनिक कार्रवाई कर उन्हें अपने नियंत्रण में किया। उसने चोल सामंत आडिगैमन द्वारा शासित करूर पर भी अधिकार किया और गंगावाड़ी और तगादुर के आसपास के क्षेत्रों में अतिक्रमण करने वाले होयसाल शासक वीरबल्लाल द्वितीय को भी निकाल बाहर किया। किंतु अपने शासन के अंतिम समय में उसे पांड्यों की नवोदित शक्ति के सामने नतमस्तक होना पड़ा और संभवतः उनकी अधीनता स्वीकार करनी पड़ी।

कुलोत्तुंग चोल तृतीय की सामरिक उपलब्धियाँ

कुलोत्तुंग तृतीय का शासनकाल विघटनकारी शक्तियों के विरूद्ध उसके व्यक्तिगत विजय की कहानी है। वह अपने पूर्ववर्तियों राजराज द्वितीय और राजाधिराज द्वितीय से अलग मिट्टी से बना था। उसने न केवल साम्राज्य के बाहरी हिस्सों पर केंद्रीय प्रशासन की पकड़ को मजबूत किया, बल्कि विद्रोही सामंतों को भी अपने नियंत्रण में रखा। कुलोत्तुंग चोल तृतीय के संबंध में विस्तृत जानकारी के लिए देखें-

राजराज तृतीय (1218-1256 ई.)

कुलोत्तुंग तृतीय की मृत्यु के पश्चात् राजराज चोल तृतीय 1218 ई. में चोल राजगद्दी पर बैठा, जो संभवतः कुलोत्तुंग का पुत्र था। कुलोत्तुंग तृतीय ने 1216 ई. में ही राजराज तृतीय का युवराज के रूप में अभिषेक कर दिया था, इसलिए राजराज तृतीय के लेखों में उसके शासनकाल की गणना 1216 ई. से की गई है।

राजराज तृतीय का शासनकाल चोल राज्य के लिए संकट का काल था। इस समय दक्षिण भारत की राजनीति में व्यापक परिवर्तन हो चुका था। दक्षिण में पांड्य शक्ति के उदय के साथ ही चोल कावेरी नदी के दक्षिण के अधिकांश क्षेत्रों पर अपना नियंत्रण खो चुके थे। उत्तर में होयसल शक्ति के उदय के साथ वेंगी क्षेत्र पर भी चोलों की पकड़ कमजोर होती जा रही थी। राजराज तृतीय में इतनी सामर्थ्य और योग्यता नहीं थी कि वह इन नवोदित शक्तियों का सामना कर सके। इसके साथ ही, प्रशासनिक दुर्बलता के कारण काकतीय, तेलुगूचोड, यादव तथा काडव जैसे अनेक अधीनस्थ सामंत भी विद्रोही हो गये थे और चोल सत्ता की अवहेलना करने लगे थे।

आंतरिक विद्रोह

राजराज तृतीय के शासनकाल में विप्लव एवं राजद्रोह आम बात हो गई थी। तंजौर से प्राप्त राजराज तृतीय के लेखों में उसके शासन के पाँचवें वर्ष में हुए विद्रोहों का स्पष्ट विवरण मिलता है। इससे ज्ञात होता है कि इस विद्रोह और क्षोभ के कारण चोल राज्य असुरक्षित हो गया था और धन-संपत्ति की भारी हानि हुई थी। मंदिर उजाड़ दिये गये थे और उनमें स्थापित प्रतिमाओं एवं चल-संपत्ति को दूसरे सुरक्षित स्थान तक पहुँचाया गया था। यही नहीं, दो गाँवों के दानपत्रों को भी नष्ट कर दिया गया था। इस विद्रोह के स्वरूप और विद्रोहियों के संबंध में कुछ स्पष्ट संकेत नही मिलता है, किंतु लगता है कि यह स्थानीय उपद्रव रहा होगा। राजराज तृतीय के संबंध में विस्तृत जानकारी के लिए देखें-

राजेंद्र तृतीय (1252-1279 ई.)

राजराज तृतीय के उपरांत 1252 ई. में राजेंद्र तृतीय चोल राजसिंहासन पर बैठा। संभवतः राजराज तृतीय ने 1246 ई. में ही उसको अपना युवराज और उत्तराधिकारी मनोनीत किया था। किंतु इन दोनों शासकों का पारस्परिक संबंध निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है। कुछ इतिहासकार राजेंद्र तृतीय को राजराज तृतीय का पुत्र मानते हैं, किंतु लगता है कि वह राजराज तृतीय का भाई और प्रतिद्वंद्वी था। राजेंद्र तृतीय के लेखों से लगता है कि राजराज तृतीय और राजेंद्र तृतीय के बीच गृहयुद्ध हुआ था, जिसके परिणामस्वरूप चोल साम्राज्य का विभाजन हो गया। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि संभवतः राजेंद्र तृतीय ने राजराज तृतीय का वध कर दिया था। जो भी हो, इतना निश्चित है कि युवराज नियुक्त होने के बाद राजेंद्र तृतीय की शक्ति एवं प्रभाव में पर्याप्त अभिवृद्धि हो गई थी।

नीलकंठ शास्त्री जैसे कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि राजराज के शासन का अंत 1246 ई. में हुआ था। किंतु अधिकांश इतिहासकार मानते हैं कि राजराज तृतीय ने 1252 ई. तक शासन किया था। राजराज के शिलालेख उसके शासन के 34वें वर्ष के बाद बहुत कम संख्या में मिले हैं और मुख्यतः उत्तरी अर्काट और नेल्लोर जिलों तक ही सीमित हैं। इसके विपरीत, इस काल में न केवल युवराज राजेंद्र तृतीय के अभिलेखों की संख्या अपेक्षाकृत अधिक है, बल्कि वे चोल साम्राज्य के अधिकांश क्षेत्रों से भी मिले हैं, जो राजराज तृतीय की दुर्बलता और राजेंद्र तृतीय की बढ़ती शक्ति एवं उसके प्रभाव को स्पष्टतः प्रमाणित करते हैं।

राजेंद्र तृतीय अपने पूर्ववर्ती चोल नरेश राजराज तृतीय से अधिक शक्तिशाली और महत्त्वाकांक्षी था। युवराज काल में उसने संभवतः पांड्य राज्य को जीत लिया था और शासक बनने के बाद चोल राजवंश की गरिमा को पुनः प्रतिष्ठित करने के लिए उसने होयसल एवं काकतीय राज्यों को पराजित करके कुछ समय के लिए उन्हें चोल राज्य में सम्मिलित कर लिया। राजेंद्र चोल तृतीय के संबंध में विस्तृत अध्ययन के लिए देखें-

चोल सत्ता का अवसान

काकतीय शासक गणपति ने 1250 ई. में चोलों पर आक्रमण करके काँची पर अधिकार कर लिया था। राजेंद्र के शासन के 15वें वर्ष के एक अभिलेख में काकतीयों के विरुद्ध उसकी सफलता का संकेत मिलता है। किंतु चोलों की इन सैन्य-सफलताओं का कोई स्थायी परिणाम नहीं निकला। जटावर्मन् सुंदरपांड्य प्रथम (1251-72 ई.) ने होयसलों की सहायता से चोल राज्य पर आक्रमण किया। पांड्यों एवं होयसलों के संयुक्त सामरिक अभियान में अंततः 1258 ई. के लगभग चोल नरेश राजेंद्र तृतीय पराजित हुआ और उसे विवश होकर पांड्यों की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी। श्रीरंगम् से प्राप्त पांड्य शासक के एक अभिलेख में सुंदरपांड्य को ‘चोल प्रजातिरूपी पर्वत के लिए वज्र’ कहा गया है।

पांड्य अब दक्षिण की एक महान शक्ति बन चुके थे। जटावर्मन् सुंदरपांड्य प्रथम ने काडव सामंत कोप्परेजिंग को हराकर अपने अधीन किया, उत्तर की ओर आगे बढ़कर तेलुगु सामंत विजय गंडगोपाल की हत्या करके काँची पर अधिकार किया और काकतीय शासक गणपति को हराने के बाद वहाँ अपना वीराभिषेक (वीरों का अभिषेक) करवाया। इस बीच, उसके सेनापति वीरपांड्य ने सिंहल के राजा को पराजित कर द्वीप को अपने अधीन कर लिया।  इसके बाद, जटावर्मन् सुंदरपांड्य प्रथम ने होयसलों को कावेरी डेल्टा से खदेड़ कर उनके हस्तक्षेप को समाप्त कर दिया और बाद में 1262 ई. में श्रीरंगम् के युद्ध में होयसलों के राजा वीर सोमेश्वर की हत्या कर दी, जो तमिल क्षेत्र में चोलों का सहयोगी था।

राजेंद्र तृतीय के किसी युद्ध में मारे जाने की कोई सूचना नहीं है। इससे लगता है कि वह संभवतः 1279 ई. तक पांड्यों की अधीनता में शासन करता रहा। उसकी अंतिम ज्ञात तिथि 1279 ई. है। संभवतः कुलशेखर पांडय ने 1279 ई. के आसपास होयसलों को कन्ननूर कुप्पम में पराजित कर अंतिम चोल सम्राट राजेंद्र तृतीय को भी अंतिम रूप से पराजित किया, जिससे चोल साम्राज्य का अस्तित्व पूरी तरह समाप्त हो गया था।

इस प्रकार अपनी सामरिक शक्ति एवं लोकोपकारी शासन-तंत्र से भरपूर महान् चोल साम्राज्य अपनी आंतरिक दुर्बलताओं और बाह्य राजनीतिक समीकरणों तथा नवोदित संयुक्त शक्तियों के सामने अधिक समय तक संघर्ष कर पाने की स्थिति में नहीं था और अंततः चोल-शासित तमिलनाडु प्रदेश पर शक्तिशाली पांड्यों की प्रभुसत्ता स्थापित हो गई और चोल साम्राज्य पांड्य साम्राज्य में विलीन हो गया।

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