राजेंद्रचोल प्रथम (Rajendra Chola I, 1014-1044 AD)

राजेंद्रचोल प्रथम (1014-1044 ई.)

राजराज की मृत्यु के बाद उसकी कोडुंबलुर की राजकुमारी थिरिपुवना (त्रिभुवन) महादेवी से उत्पन्न पुत्र राजेंद्रचोल प्रथम 1014 ई. में औपचारिक रूप से चोल सिंहासन पर आसीन हुआ। चूंकि राजेंद्र के तीसरे शासनवर्ष में राजराज द्वारा दिये गये एक दान का उल्लेख मिलता है। इससे स्पष्ट है कि राजराज प्रथम ने अपने पुत्र राजेंद्र चोल को 1012 ई. में ही युवराज पद पर नियुक्त कर दिया था और लगभग तीन वर्षों तक पिता-पुत्र ने साथ-साथ शासन-सत्ता का संचालन किया था।

राजेंद्र प्रथम को उत्तराधिकार में एक ऐसा विस्तृत साम्राज्य मिला था, जिसमें संपूर्ण मद्रास (आधुनिक तमिलनाडु) और आंध्र तथा मैसूर (कर्नाटक) के कुछ भाग सम्मिलित थे। उत्तरी सिंहल भी चोल साम्राज्य का एक अंग था। राजेंद्र चोल प्रथम ने अपने तैंतीस वर्षीय शासनकाल में चोल साम्राज्य को दक्षिण भारत के एक ऐसे विशाल साम्राज्य में परिवर्तित कर दिया, जिसमें श्रीलंका, मालदीव के साथ-साथ मलय प्रायद्वीप और इंडोनेशिया द्वीपसमूह के अनेक द्वीप सम्मिलित थे।

राजेंद्र चोल प्रथम की उपलब्धियों की सूचना उसके शिलालेखों तथा ताम्रानुशासनों से मिलती है, जो दक्षिण में कन्याकुमारी, पूर्वी तट पर महेंद्रगिरि तथा भूतपूर्व मैसूर राज्य के नंजनगुड तथा नंडगुडि के समीप सत्तुरू जैसे विभिन्न स्थलों से मिले हैं। इस दृष्टि से तालकड अभिलेख (1917 ई.), निलतुर लेख, नंजगुड लेख (1121 ई.) तथा कोलार लेख महत्त्वपूर्ण हैं। सिंहली इतिवृत्त महावंश से भी राजेंद्र की उपलब्धियों पर कुछ प्रकाश पड़ता है।

राजेंद्र चोल ने अपने शासनकाल के प्रारंभ अर्थात सातवें वर्ष (1018 ई.) में अपने सर्वाधिक योग्य पुत्र राजाधिराज को युवराज पद पर नियुक्त किया। इसके बाद अगले पचीस वर्ष तक पिता-पुत्र ने सम्मिलित रूप से प्रशासन का दायित्व सँभाला। इस अवधि में राजाधिराज द्वारा जो अभिलेख प्रकाशित किये गये, उनमें पिता द्वारा किये गये युद्धों में युवराज के रूप में उसकी भूमिका का उल्लेख मिलता है। राजेंद्र ने अन्य अनेक चोल राजकुमारों को विभिन्न क्षेत्रों के शासक के रूप में नियुक्त कर अपने प्रशासन को सुदृढ आधार दिया।

राजेंद्र चोल प्रथम के सैन्याभियान एवं विजयें

प्रारंभिक विजयें

राजेंद्र चोल की प्रारंभिक विजयों के संबंध में तिरुमन्निवलर की प्रस्तावना से पता चलता है कि उसने अपने शासन के तीसरे वर्ष तक इडितुरैनाडु, बनवासे, कोल्लिप्पक्कै तथा मण्णैक्क्डक्कम् की विजय की थी। इडितुरैनाडु उत्तर में कृष्ण तथा दक्षिण में तुंगभद्रा नदियों के बीच का क्षेत्र इडितुरैनाडु था, जिसमें रायचूर का एक बड़ा हिस्सा सम्मिलित था। बनवासे स्पष्टतः बनवासी है। कोल्लिप्पकै की पहचान हैदराबाद के उत्तर पूर्व स्थित कुल्पक से की गई है। मण्णैक्कडक्कम् को मान्यखेट अथवा मालखेडु से समीकृत किया जाता है। इन सभी प्रदेशों पर चालुक्य नरेश सत्याश्रय का अधिकार था, जिसने 1008 ई. तक शासन किया था। संभवतः राजेंद्र ने युवराज की हैसियत से अपने पिता के शासनकाल में इन प्रदेशों की विजय की थी। इसलिए यह निश्चित नहीं है कि राजेंद्र ने इन प्रदेशों पर राज्यारोहण के बाद दुबारा अधिकार किया था अथवा प्रशस्तिकार ने उन्हीं उपलब्धियों का पुनः उल्लेख किया है।

लगता है कि 1007 ई. के लगभग चालुक्य सत्याश्रय ने चोलों के उत्तरी प्रवाह को रोक दिया था। संभवतः राजेंद्र ने 1008 ई. में सत्याश्रय या उसके उत्तराधिकारी विक्रमादित्य पंचम् से पुनः इन प्रदेशों को अधिकृत कर लिया था। स्थिति जो भी रही हो, इतना निश्चित है कि 1008 ई. में इन प्रदेशों पर राजेंद्र का अधिकार था। लेख के अनुसार इसी अभियान के संदर्भ में उसने बनवासी को भी जीता था। किंतु लगता है कि वनवासी के कदंब किसी अन्य अभियान में पराजित हुए थे, जो कल्याणी के चालुक्यों की अधीनता में शासन कर रहे थे।

सिंहल विजय

राजेंद्र ने 1017 ई. में सिंहल पर आक्रमण किया और संपूर्ण ईलमंडलम (श्रीलंका) पर अधिकार कर लिया। इसके शासनकाल के पाँचवे वर्ष (1017-18 ई.) के कुछ लेखों से सिंहल विजय की पुष्टि होती है। महावंश के अनुसार श्रीलंका पर चोल आक्रमण की समाप्ति महेंद्र पंचम के शासनकाल के छत्तीसवें वर्ष में हुई थी, जो गीगर द्वारा निर्धारित श्रीलंका के नवीनतम तिथिक्रम के अनुसार 1017 ई. ठहरती है। इस तिथि के लगभग बारह वर्ष पहले राजराज ने श्रीलंका के महेंद्र को पराजित कर उसके साम्राज्य के कुछ भागों पर अधिकार कर लिया था। संभवतः राजराज की मृत्यु के बाद महेंद्र ने विद्रोह कर दिया, जिसे दबाने के लिए राजेंद्र ने श्रीलंका पर आक्रमण किया था।

राजेंद्र का सिंहल के विरूद्ध अभियान में श्रीलंका का राजा पूर्णतया पराजित हुआ। महावंश के अनुसार राजा महेंद्र (महिंद) के शासनकाल के छत्तीसवें वर्ष चोलों ने आक्रमण कर राजा की महिषी, रत्न, आभूषण, मुकुट, हीरों के अमूल्य कंगन, देवताओं के उपहार, न टूटने वाली तलवार तथा कपड़े की फटी पट्टी के रूप में एक पुरावशेष अपने कब्जे में कर लिया। राजा महेंद्र भयभीत होकर भाग निकला, किंतु उसे संधि के बहाने पकड़कर संपूर्ण खजाने के साथ चोल शासक के पास भेज दिया गया। करंदै ताम्रपत्रों से भी ज्ञात होता है कि राजेंद्र ने सिंहल राजा के मुकुट, रानी, पुत्री, समस्त संपदा, वाहन, उसके पास धरोहर रखे गये इंद्र के निर्मल हार और पांड्य राजमुकुट को छीन लिया और संपूर्ण ईडमंडलम् पर अधिकार कर लिया। पोलोन्नरूव तथा कोलंबो संग्रहालय से राजेंद्र के अनेक लेख प्राप्त हुए हैं। राजा महेंद्र बारह वर्ष तक चोल प्रदेश में रहा और यही पर 1029 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।

इस प्रकार राजेंद्र का संपूर्ण सिंहल द्वीप पर अधिकार हो गया और अपने पिता के अधूरे कार्य को पूरा करने में सफल हुआ। इस आक्रमण से लंका के बौद्ध विहारों को बहुत क्षति पहुँची। राजेंद्र ने वहाँ अनेक शिव एवं विष्णु के मंदिरों का निर्माण करवाया, जो तमिल-चोल शैली का प्रतिनिधित्व करते हैं।

महावंश से पता चलता है कि राजेंद्र चोल के आक्रमण के बारह वर्ष बाद महेंद्र पंचम के पुत्र कस्सप, जिसे सिंहलियों ने गुप्तरूप से पाला था, ने चोलों के विरूद्ध विद्रोह कर दक्षिणी सिंहल के रोहण क्षेत्र को चोलों से मुक्त करने में सफल हुआ और विक्रमबाहु प्रथम नाम से बारह वर्ष तक शासन किया।

केरल से युद्ध

राजेंद्र ने अपने शासनकाल के छठवें वर्ष (1018 ई.) में केरलाधिपति की पारंपरिक लक्ष्मी का अपहरण कर लिया। तिरुवालंगाडु ताम्रपत्रों में राजेंद्र प्रथम के एक दिग्विजय का विवरण मिलता है, जिसके अनुसार ‘निर्भीक मधुरांतक (मदुरै को जीतने वाला, राजेंद्र) सह्य पर्वत को पारकर विशाल सेना के साथ केरल की ओर चल पड़ा। वहाँ पर भयानक युद्ध हुआ, जिसमें राजाओं पर विपत्ति के पहाड़ टूट पड़े। राजेंद्र ने राजा के मुकुट और लाल किरणों वाला कंठहार भी अपहृत कर लिया तथा समुद्र द्वारा पूरी तरह सुरक्षित अनेक प्राचीन द्वीपों को हथिया लिया। इस प्रकार उसने केरल के राजाओं पर विजय प्राप्त कर अपनी राजधानी वापस आया-

अतिलन्ध्यति सह्यमपनीतभयो मधुरान्तकस्सपदि केरलेश्वरम्।

सबलं रूरोध तदनु क्षितिपक्षयकारि युद्धमभवत् भयंकरम्।।

जित्वाकेरलभूपति भृगुतेश्छित्वा तपोरक्षिताम्,

पृथ्वीम् पात्थिर्वनन्दनो निजपुरम् प्रायात् स धाम श्रियः।।

पांड्यों से युद्ध

तिरुवालंगाडु ताम्रपत्रों के अनुसार सूर्यवंश के तिलक राजेंद्र के सेनापति दंडनाथ ने अपार बलशाली सेना के साथ पांड्य राज्य पर आक्रमण किया। पांड्य शासक भयभीत होकर गृह-त्याग कर आश्रय की तलाश में अगस्त्य के निवास-स्थान मलय पर्वत में शरण ली। राजराज के पुत्र (राजेंद्र) ने पांड्यों के यशःरूपी कलंकरहित मोतियों को छीन लिया।

पांड्य राज्य पर अधिकार कर राजेंद्र प्रथम ने अपने पुत्र सुंदरचोल राजाधिराज प्रथम को पांड्य प्रदेश का वायसराय (महामंडलेश्वर) नियुक्त किया तथा उसे ‘चोल-पांड्य’ की उपाधि दी। राजेंद्र ने मदुरा में एक राजप्रासाद का निर्माण करवाया। उसका पुत्र जटावर्मन् सुंदरचोल पांड्य प्रदेश पर 1018 ई. से 1044 ई. तक उपराजा के रूप में शासन करता रहा।

यद्यपि केरल तथा पांड्य राज्यों पर राजराज के समय से ही चोल सत्ता स्थापित थी। किंतु लगता है कि राजेंद्र के शासनकाल में इन राज्यों ने विद्रोह कर दिया था, जिसके कारण उसे इनके विरुद्ध पुनः सैनिक अभियान करना पड़ा था।

पश्चिमी चालुक्यों से युद्ध

विक्रमादित्य पंचम के पश्चात् उसका पुत्र जयसिंह 1016 ई. के लगभग कल्याणी के पश्चिमी चालुक्य राज्य का उत्तराधिकारी हुआ। उसने चोलों से अपने खोये हुए प्रदेशों को हस्तगत करने का प्रयास किया। 1019 ई. के बेलगाँव लेख के अनुसार चालुक्यों ने चेरों तथा चोलों को पराजित किया था। जयसिंह के कुछ लेख बेलारी तथा कर्नाटक के उत्तरी पश्चिमी क्षेत्रों से भी मिले हैं, जो इन प्रदेशों पर उसके अधिकार के सूचक हैं। किंतु जयसिंह अधिक समय तक इन प्रदेशों पर शासन नहीं कर सका। 1021 ई. की तमिल प्रशस्ति में दावा किया है कि राजेंद्र ने संपूर्ण रट्टपाडि पर अधिकार कर लिया और मुशंगि के युद्ध में जयसिंह को पराजित कर जंगल की ओर भागने के लिए बाध्य किया। मुशंगि की समता उच्छगि दुर्ग अथवा मास्की से की गई है। यद्यपि अभिलेखिक स्रोतों में संपूर्ण रट्टपाडि पर राजेंद्र के अधिकार का दावा किया गया है, किंतु यह अतिशयोक्ति ही है, क्योंकि जयसिंह का तुंगभद्रा तट तक अधिकार बना रहा। 1024 ई. के मीरज दानपत्रों के अनुसार जयसिंह का एडोदोर पर अधिकार था और उसने पंच द्रविड़ों के स्वामी चोलों को भगाकर उस पर पुनः अधिकार कर लिया था।

वेंगी राज्य में हस्तक्षेप

चोल-चालुक्य संघर्ष वास्तव में दो मोर्चों पर चल रहा था। पश्चिमी मोर्चे पर राजेंद्र मान्यखेट और कल्याणी पर अधिकार करना चाहता था। इस ओर तुंगभद्रा दोनों के बीच प्राकृतिक सीमा थी। पूर्वी मोर्चे पर वह वेंगी पर अधिकार करना चाहता था। वस्तुतः चालुक्य-चोल संघर्ष का मूल कारण वेंगी ही था, क्योंकि दोनों ही इस पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहते थे।

1019 ई. में विमलादित्य, जो शक्तिवर्मन के बाद वेंगी की गद्दी पर बैठा था, अपनी चोल महारानी कुंदवै देवी से उत्पन्न पुत्र राजराज नरेंद्र का राज्याभिषेक करना चाहता था, जबकि चालुक्य शासक जयसिंह वेंगी के सिंहासन पर राजराज नरेंद्र के सौतेले भाई विष्णवर्धन (विजयादित्य सप्तम्) को बैठाना चाहता था। जयसिंह ने कलिंग तथा ओड्ड के शासकों के साथ मिलकर राजराज नरेंद्र के राज्याभिषेक का विरोध किया। राजराज नरेंद्र ने विवश होकर अपने मामा राजेंद्र चोल से सहायता माँगी।

राजेंद्र के दसवें वर्ष के एक तमिल लेख से ज्ञात होता है कि राजेंद्र के सेनापति अरैयन राजराजन् (विक्रमचोल) ने विजयादित्य और जयसिंह के संयुक्त मोर्चे को पराजित कर 1022 ई. में राजराज नरेंद्र का वेंगी में अभिषेक कराया। एक अन्य लेख में भी कहा गया है कि उसने कलिंगों, ओड्डों और तेलुंगों के साथ युद्ध किया था। एक अतिथि लेख में भी कहा गया है कि वेंगी का राजा विक्रमचोल के आने का समाचार सुनकर भाग गया। यह राजा संभवतः विजयादित्य सप्तम ही था। संभवतः चोल सेनापति ने कलिंग तथा ओड्डु के शासकों को भी पराजित किया था, जो विजयादित्य की सहायता कर रहे थे। राजेंद्र चोल ने अपने भांजे राजराज नरेंद्र के साथ अपनी पुत्री अमंगादेवी का विवाह कर दिया।

उत्तर-पूर्वी भारत को विजय

राजेंद्र चोल की सेना ने 1019 ई. में कलिंग से होते हुए गंगा नदी की ओर अभियान किया। तिरुवालंगाडु लेख के अनुसार जिस गंगा को भगीरथ ने कठिन तपस्या से पृथ्वी पर लाया था, उसको राजेंद्र ने अपने बाहुबल से अपनी कर्मभूमि में लाकर पवित्र किया। राजेंद्र स्वयं गोदावरी तक आया था तथा उसके आगे विक्रम चोल ने चोल सेना का नेतृत्व किया।

चोल सेना ने सर्वप्रथम कलिंग में आदिनगर के सोमवंशी शासक इंद्ररथ को हराया। राजेंद्र चोल को परमारों और कलचुरियों से भी सहायता मिली, जिनके साथ इंद्ररथ की शत्रुता थी। इसके बाद उसने ओडु (उड़ीसा) तथा दक्षिणी कोशल (कोशलैनाडु) पर अधिकार किया। तदनंतर उड़ीसा तथा बंगाल के बीच स्थित दंडभुक्ति को जीतकर उसके स्वामी धर्मपाल को पराजित किया। चोल सेना ने पूर्वी बंगाल पर छापा मारा और चंद्र वंश के गोविंदचंद्र को हराया और बस्तर क्षेत्र पर आक्रमण किया। इस प्रकार गंगा के किनारे पहुँचकर उसने विजित राजाओं से गंगा नदी का जल मँगवाकर अपने स्वामी मधुरांतक के पास भिजवाया। अभिलेखों में कहा गया है कि गंगाजल बंगाल के शासक अपने सिर पर रखकर चोलों को राजधानी तक लाये थे।

तमिल प्रशस्ति के अनुसार उसने शक्करकोट्टम् (चित्रकूट) पर अधिकार किया। इसके बाद उसने नमणैककोणम्, पंचप्पलि, माशुणिदेश (सर्पों का देश), ओडु (उड़ीसा) तथा दक्षिणी कोशल (कोशलैनाडु) पर अधिकार किया।

तमिल लेख के अनुसार विक्रमचोल ने धर्मपाल पर आक्रमण करने के बाद लाढ़ के रणशूर पर आक्रमण किया और बंगाल के गोविंदचंद्र को पराजित किया, तदनंतर महीपाल को पराजित कर गंगा तट तक गया। इसके विपरीत, तिरुवालंगाडु प्रशस्ति के अनुसार रणशूर पर आक्रमण धर्मपाल पर आक्रमण से पहले हुआ था। धर्मपाल को उखाड़ने के बाद विक्रमचोल गंगा के तट पर पहुँचा था। इससे लगता है कि महिपाल पर विजय लौटते समय प्राप्त की गई थी।

राजेंद्र चोल के पूर्वी भारत के अभियान के संबंध में इतिहासकारों के बीच विवाद है। कुछ इतिहासकारों का विचार है कि राजेंद्र का यह अभियान गंगा की तीर्थयात्रा से अधिक कुछ नहीं था। संभव है कि इस अभियान का उद्देश्य पवित्र गंगाजल लाना रहा हो, किंतु इससे कहीं अधिक इसका उद्देश्य उत्तरी पूर्वी भारत में चोल शक्ति का प्रदर्शन करना था।

आर.डी. बनर्जी के अनुसार राजेंद्र की उड़ीसा तथा बंगाल विजय के कुछ स्थायी प्रभाव पड़े। एक कर्नाट चोल सेनापति सामंतसेन पश्चिमी बंगाल में स्थायी रूप से बस गया, जिसने सेन वंश की स्थापना की। मिथिला की करण्ट जाति भी संभवतः चोलों के किसी करण्ट सामंत की वंशज है। त्रिलोचन शिवाचार्य की सिद्धांत सारावली की टीका से पता चलता है कि राजेंद्र ने गंगातट के अनेक शैवों को चोल देश में बसाया था। उत्तरी-पूर्वी अभियान की सफलता के बाद राजेंद्र ने चोलगंगम् नामक एक विशाल झील बनवाया, उसमें सैनिकों द्वारा लाया गया गंगाजल डलवाया और ‘गंगैकोंडचोल’ उपाधि धारण की। उसने उत्तरी अर्काट में गंगैकोंडचोलपुरम् नामक एक नगर की स्थापना की और उसे अपनी राजधानी बनाया। इस प्रकार राजेंद्र चोल के पूर्वी भारतीय अभियान का व्यापक सांस्कृतिक प्रभाव पड़ा। इससे बंगाल तथा मिथिला में नये वंशों की स्थापना हुई, दक्षिण में शैव धर्म का प्रसार हुआ और गंगा सांस्कृतिक एकता की प्रतीक बनी।

वेंगी में पुनः हस्तक्षेप

उत्तरी-पूर्वी अभियान से वापस आने के बाद राजेंद्र को वेंगी में पुनः हस्तक्षेप करना पड़ा। इसके पहले उसने 1022 ई. में अपने भांजे राजराज नरेंद्र को वेंगी के सिंहासन पर अभिषिक्त कर उसके साथ अपनी पुत्री अमंगादेवी का विवाह किया था। किंतु 1031 ई. के आसपास विष्णुवर्धन (विजयादित्य सप्तम) ने चालुक्य सेनापति चावणरस की सहायता से राजराज नरेंद्र को अपदस्थ कर वेंगी की गद्दी पर अधिकार कर लिया और राजराज ने पुनः राजेंद्रचोल से सहायता माँगी।

राजेंद्रचोल प्रथम ने राजराज नरेंद्र की सहायता के लिए ब्राह्मण सेनापति राजराज ब्रह्ममहाराज तथा दो अन्य अधिकारियों उत्तमचोल मिलाडुडैयान तथा चोलकोन के साथ एक शक्तिशाली सेना भेजी। यद्यपि कालिदिंड के युद्ध में तीनों चोल सेनापति मारे गये, किंतु चोल सेना को अपने उद्देश्य में सफलता मिली और राजराज नरेंद्र पुनः वेंगी की गद्दी पर बैठ गया, क्योंकि स्रोतों से पता चलता है कि वह 1035 ई. के आसपास वेंगी पर शासन कर रहा था।

कडारम् एवं श्रीविजय अभियान

राजेंद्रचोल के के चौदहवें शासनवर्ष के लेखों में उसकी सागरपार कडारम् विजय का वर्णन मिलता है। तिरुवालंगाडु ताम्रपत्रों के अनुसार राजा ने अपनी शक्तिशाली सेना से समुद्र पारकर कटाह पर विजय प्राप्त की (अवजित्य कराट्टमुन्नतैर्न्निजदण्डैर भिलं घितार्णयः)। तमिल प्रशस्ति के अनुसार राजेंद्रचोल ने अपनी नौसेना के बहुसंख्यक जलपोत भेजकर कडारम् के शासक संग्रामविजयोत्तुंगवर्मन् की सेना के हाथियों को अपहृत कर उसके राजकोष को छीन लिया। राजेंद्र को श्रीविजय, पण्णै, मलैयूर, मायुरुडिंगम्, इलंगांशोकम्, मापप्पालम्, मेविलिंबंगम्, वलैप्पंडूरु, तलैत्तक्कोलम्, माडमालिंगम्, इलामुरिदेशम्, माणक्कवारम् तथा कडारम् की विजयों का श्रेय दिया गया है। संभवतः ये सभी क्षेत्र दक्षिण-पूर्व एशिया में स्थित थे, जो कडारम् साम्राज्य के अधीन रहे होंगे।

वस्तुतः कडारम् की पहचान मलयद्वीप के पश्चिमी तट पर स्थित आधुनिक केडाह नामक स्थान से की जाती है। श्रीविजय सुप्रसिद्ध श्रीविजय है, जिसे चीनी ग्रंथों में सन-फोत्सी कहा गया है। यह सुमात्रा का आधुनिक पलेम्बंग है। पण्णै आधुनिक सुमात्रा तट पर स्थित पणि या पन्नई है। मलैयूर आधुनिक मलय प्रायद्वीप का कोई स्थान था। मायिरुडिंगम का समीकरण चीनियों के जी-लो-तिग से किया जाता है, जो मलय प्रायद्वीप के मध्य श्रीविजय के अधीन कोई सामंत राज्य था। इलंगाशोक की समता चीनियों के लिंग-य-स्स्यू-किया से की गई है, जो मलय प्रायद्वीप में केडाह राज्य के दक्षिण में स्थित था और श्रीविजय के अधीन था। मापप्पालम् की स्थिति निचले बर्मा के तलैंग देश में मानी गई है। मेविलिम्बंगम् तथा वलैप्पंडूरु की ठीक-ठीक पहचान नहीं हो सकी है। तलैत्तकोलम् को मिलिंदप्रश्न और टॉलमी के विवरणों में तक्कोल नाम से उल्लिखित किया गया है, जो मलय प्रायद्वीप के पश्चिमी तट पर स्थित था। मादमेलिंगम् की पहचान तनमलिंगम् से की जाती है और इसे पहंग में क्वांटन नदी के मुहाने पर तेमिलिंग या तंबेलिंग माना गया है। इलामुरिदेशम् सुमात्रा के उत्तरी भाग में स्थित था। मानक्कावारम् निकोबार द्वीपसमूह है।

संभवतः राजेंद्र चोल ने शैलेंद्रों के साथ युद्ध के प्रसंग में सुमात्रा, मलय प्रायद्वीप तथा इंडोनेशिया द्वीपसमूह में उसके अधीन राज्यों के साथ संघर्ष किया। इनमें निकोबार को छोड़कर शेष सभी या तो मलाया में स्थित थे या सुमात्रा में। श्रीविजय के शासक को चोल लेखों में कडारम् का शासक कहा गया है। नीलकंठ शास्त्री का अनुमान है कि कडारम् श्रीविजय का अधीनस्थ राज्य था। तमिल सर्वप्रथम इसी स्थान पर उतरे थे, इसीलिए इस देश के शासक को कडारम् का शासक कहा गया है।

राजेंद्र चोल के सागरपार इस अभियान के उद्देश्य तथा परिणाम के विषय में मतभेद है। एस.के. आयंगर के अनुसार इन विजयों से कलिंग विजय की पूर्ति की गई अर्थात् सागरपार आक्रमण कलिंग पर पूर्ण अधिकार स्थापित करने के लिए किये गये युद्ध का हिस्सा थे। किंतु नीलकंठ शास्त्री तथा आर.सी. मजूमदार के अनुसार राजेंद्र चोल के शासनकाल के प्रारंभ में चोल राज्य, कडारम् एवं श्रीविजय में परस्पर मैत्रीपूर्ण संबंध थे। इसकी पुष्टि लीडेन ताम्रलेखों से होती है, जिसमें राजेंद्र द्वारा नेगपत्तम् स्थित चूड़ामणि विहार के लिए आनैमंगलम् ग्राम के दान के मूल अभिलेख को स्थायी बनाने का उल्लेख किया गया है। इसलिए दोनों के बीच झगड़े का कारण या तो श्रीविजय द्वारा पूर्व के साथ चोल-व्यापार में कोई बाधा उपस्थित करना था, जिसकी अधिक संभावना है, या राजेंद्र द्वारा अपनी दिग्विजय का सागरपार के देशों तक विस्तार कर अपनी राजगद्दी की शोभा बढ़ाना था।

वास्तव में चोलों के साथ चीन के साथ व्यापार में श्रीविजय साम्राज्य कड़ी का कार्य करता था। इसीलिए राजेंद्र चोल ने उसे जीतने की योजना बनाई और विजय प्राप्त की। राजेंद्र प्रथम ने दो बार अपने दूतों को चीन भेजा था। के.जी. कृष्णनन का सुझाव है कि कंबुज शासक ने उपहारादि भेजकर चोल सम्राट को अपना मित्र बना लिया था। जब श्रीविजय साम्राज्य की साम्राज्यवादी नीति से कंबुज को खतरा हुआ, तो चोल सम्राट ने उसकी मदद में सेना भेजी। करंदै ताम्रपत्रों में कहा गया है कि कंबुज (कंबोडिया) के राजा ने अपनी राजलक्ष्मी की रक्षा के लिए रथ भेजकर राजेंद्र चोल से सहायता की याचना की थी। किंतु राजेंद्र चोल ने यह अभियान मात्र कंबुज की सहायता के लिए नहीं किया होगा।

राजेंद्र चोल के सागरपार इस अभियान के परिणाम भी ठीक-ठीक ज्ञात नहीं हैं। अभिलेख से पता चलता है कि संघर्ष में विजयोत्तुंगवर्मन् पकड़ लिया गया और राजेंद्र चोल का उसके राज्यों पर अधिकार हो गया।

किंतु संग्रामविजयोत्तुंगवर्मन् की पराजय और श्रीविजय व कडारम् पर राजेंद्र चोल के अधिकार हो जाने के बाद भी श्रीविजय की स्वतंत्र सत्ता बनी रही। इसका कोई प्रमाण नहीं है कि राजेंद्र चोल ने इन प्रदेशों को अपने साम्राज्य का अंग बनाया था। इस अभियान के परिणामस्वरूप शैलेंद्र राजगद्दी पर श्रीदेव नामक एक नया शासक आसीन हुआ, जिसने 1028 ई. में अपने दूतों को चीन भेजा था। इससे स्पष्ट कि चोल विजय स्थायी नहीं रह सकी।

केरल, मदुरा तथा सिंहल के विद्रोह का दमन

जिस समय राजेंद्र चोल सागरपार दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों की विजय में व्यस्त था, पांड्य, केरल तथा सिंहल के शासकों ने चोल सत्ता के विरूद्ध विद्रोह कर दिया। राजेंद्र ने इन विद्रोहों के दमन का दायित्व युवराज राजाधिराज को सौंपा। लेखों से पता चलता है कि युवराज राजाधिराज ने मानाभरण का सिर काट लिया, अजेय वीर केकलन को, जो पैरों में कड़े पहनता था, पकड़ कर अपने हाथी से कुचलवा दिया और सुंदर पांड्य मुलैयूर की ओर भाग गया। पांडय विजय से लौटते समय वेणाडु के राजा को मौत के घाट उतार दिया और इरामकुडम् के सरदार को खत्म कर दिया। शक्तिशाली विल्लवन (चेर) भयभीत होकर जंगल में भाग गया। इसके बाद चोलों ने कांदलूरशालै में जलपोतों को नष्ट कर दिया। राजाधिराज की एक प्रशस्ति में तीन पांड्यों के साथ युद्ध की प्रस्तावना के रूप में विक्रमनारायण के साथ युद्ध और उसकी पराजय का वर्णन मिलता है। इस युद्ध के बाद राजाधिराज ने ‘भूपेंद्रचोल’ की उपाधि धारण की थी।

सिंहल विजय

राजाधिराज के प्रारंभिक लेखों से लंका एवं कन्नकुचि (कन्नौज) विजय का संकेत मिलता है। 1029 ई. में चोलों और श्रीलंका के कस्सप (विक्रमबाहु) के बीच जो संघर्ष शुरू हुआ था, वह छः मास तक चलता रहा। इसके बाद लगभग बारह वर्ष तक विक्रमबाहु ने शासन किया। इसके शासन के अंतिम दिनों में पुनः चोलों एवं विक्रमबाहु में संघर्ष हुआ। चोल लेखों से पता चलता है कि युद्ध में विक्रमबाहु को अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा और उसका मुकुट राजाधिराज के हाथ लग गया।

किंतु महावंश के अनुसार चोलों के विरुद्ध तैयारी करते समय विक्रमबाहु अपने शासनकाल के बारहवें वर्ष (1041 ई.) में बीमार पड़ा और अचानक मर गया था। जो भी हो, इतना निश्चित है कि 1041 ई. में विक्रमबाहु के बाद महालानकित्ति ने श्रीलंका की गद्दी संभाली थी, जो अपने शासनकाल के तीसरे वर्ष (1044 ई.) में चोलों से पराजित होने के बाद स्वयं अपना गला काटकर मर गया था। इस समय तक संभवतः राजेंद्र की भी मृत्यु हो गई थी।

पश्चिमी चालुक्यों से संघर्ष

यद्यपि राजेंद्र ने चालुक्य जयसिंह को मुशंगि के युद्ध में 1021 ई. में पराजित कर दिया था, किंतु बाद में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर उसने रायचूर दोआब पर अधिकार कर लिया, जिससे उसका साम्राज्य तुंगभद्रा नदी तक विस्तृत हो गया। राजेंद्र चोल की व्यस्तता का लाभ उठाकर चालुक्यों ने तुंगभद्रा को पारकर नोलंबों को अधिकृत कर लिया। 1033 ई. के आसपास चालुक्य बेलारी तक पहुँच गये थे। इसकी पुष्टि 1033 ई. के एक लेख से होती है, जिसके अनुसार चालुक्यों का एक सेनापति जगदैकमल्ल नोलंबवाडि पर शासन कर रहा था।

जयसिंह के उत्तराधिकारी सोमेश्वर आहवमल्ल ने वेंगी पर आक्रमण कर दिया। चालुक्य आक्रमण से निपटने के लिए राजेंद्र प्रथम ने अपने पुत्र राजाधिराज के नेतृत्व में एक सेना वेंगी भेजी। राजाधिराज ने कृष्णा के तट पर पुंडि नामक स्थान पर हुए युद्ध में सोमेश्वर को पराजित किया। इसके बाद उसने चालुक्यों की राजधानी कल्याणी को ध्वस्त किया और वहाँ से एक द्वारपाल की मूर्ति ले आया, जो आज भी तंजोर के दारापुरम् में है।

1042 ई. के आसपास राजेंद्र और सोमेश्वर के बीच पुनः युद्ध हुआ और राजाधिराज ने ही पुनः चोल अभियान का नेतृत्त्व किया। चोल लेखों के अनुसार चोल सेनाओं ने धान्यकटक के युद्ध में चालुक्य सेनापति गंगाधर और गंडप्प को उनके हाथियों सहित मार डाला। विक्कि तथा विजयादित्य को कायरों की भाँति भागना पड़ा। चोलों ने कोलिलपाक्कै नगर भस्मीभूत कर दिया। विक्कि तथा विजयादित्य की पहचान क्रमशः विक्रमादित्य चतुर्थ एवं विजयादित्य सप्तम विष्णुवर्धन से की गई है, जो सोमेश्वर के पुत्र थे। कुछ लोग विजयादित्य को वेंगी में राजराज का प्रतिस्पर्धी विजयादित्य मानते हैं, जो उसका सौतेला भाई था। इस युद्ध के बाद राजराज वेंगी का शासक बन गया।

किंतु समकालीन लेखों से संकेत मिलता है कि वेंगी पर चोलों का अधिकार स्थायी नहीं रह सका और राजराज को सोमेश्वर की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी। 1044 ई. में सोमेश्वर के एक सामंत शोभनरस ने ‘वेंगीपुरवरेश्वर’ की उपाधि धारण की थी। 1047 ई. के एक अभिलेख में कहा गया है कि सोमेश्वर ने युद्ध में वेंगी और कलिंग के राजाओं को पराजित किया था। किंतु एक लेख में, जो 1047 ई. का ही है, राजराज भी अपने को वेंगी का स्वामी बताता है। इसमें भीमेश्वर मंदिर के लिए दिये गये एक दान का उल्लेख है। संभवतः राजराज ने सोमश्वर से संधि कर ली थी क्योंकि सोमेश्वर का एक दरबारी नारायणभट्ट राजराज के दरबार में रहता था।

राजेंद्र की उपलब्धियों का मूल्यांकन

राजेंद्र चोल का संपूर्ण शासनकाल सैन्याभियानों एवं युद्धों में ही व्यतीत हुआ और एक सम्राट की भाँति इसे सर्वत्र सफलता मिली। उसने मुडिगोंडचोल, पंडितचोल, वीरराजेंद्र, गंगैकोंडचोल, कडारकोंड, राजकेशरीवर्मन् जैसी उपाधियाँ धारण की थी, जो उसकी उपलब्धियों का प्रमाण हैं। मुंडिगोंडचोल उपाधि से उसके पांड्य, केरल तथा श्रीलंका पर आधिपत्य का समर्थन होता है। पंडितचोल की उपाधि उसके विद्यानुराग का प्रतीक है। गंगैकोंडचोल की उपाधि और गंगैकोंडचोलपुरम् नामक नवीन राजधानी की स्थापना और उसकी गंगा-विजय का परिचायक है, जबकि कडारकोंड की उपाधि उसके सफल दक्षिणपूर्व एशियाई अभियान का प्रतीक है। जयमकोंडन जैसे मध्यकालीन तमिल कवियों ने राजेंद्र चोल के सफल विजय अभियानों की प्रशंसा की है।

राजेंद्रचोल उदार शासक था, किंतु कुशल राजनेता होने के कारण वह दंड को आवश्यक समझता था और युद्धों में कभी-कभी प्रचंड नीति का अनुसरण करते हुए स्त्री, पुरुष, वृद्ध, ब्राह्मण तक को दंडित करने में संकोच नहीं करता था। सीमावर्ती राज्यों के साथ उसने सदैव कठोर नीति अपनाई।

राजेंद्र चोल एक कुशल प्रशासक भी था। उसने शासन-संगठन, सैन्य-व्यवस्था और आर्थिक सुधारों पर भी ध्यान दिया। उसकी सेना में महिलाएँ भी सेनापति के रूप में नियुक्त थीं। उसने अपनी विशाल नौकाओं वाली शक्तिशाली नौसेना की सहायता से पूरे दक्षिण-पूर्व एशिया पर अधिकार किया था। उसने अपनी नवीन राजधानी गंगैकोंडचोलपुरम् के सौंदर्यीकरण के साथ-साथ सिंचाई की भी अनेक योजनाएँ बनाई। उसने लगभग सोलह मील लंबी और तीन मील चौड़ी चोलगंगम् नामक विशाल कृत्रिम झील का निर्माण करवाया, जो भारत की सबसे बड़ी मानव निर्मित झीलों में से एक थी।

राजेंद्र चोल ने चाँदी, सोने तथा ताँबे के कई प्रकार के सिक्कों का प्रचलन किया। उसके चाँदी के कुछ सिक्कों के मुख भाग पर चोलों के राजकीय चिन्ह सिंह के साथ पांडयों तथा चेरों के राजकीय चिन्ह क्रमशः मत्स्य और धनुष का अंकन है। उसके ‘फणम्’ नामक सिक्कों पर उसकी उपाधि ‘युद्धमल्ल’ मिलती है। सोने तथा चाँदी के कई अन्य सिक्कों पर उसकी उपाधि ‘गंगैकोंडचोल’ अंकित है, जिनका प्रचलन संभवतः पूर्वी भारत के सफल अभियान के उपलक्ष्य में किया गया था।

राजेंद्र चोल स्वयं विद्वान था और शिक्षा के प्रचार-प्रसार में रुचि लेता था। त्रिलोचन शिवाचार्य के सिद्धांत सारावली के अनुसार राजेंद्र स्वयं एक कवि था और उसने शिव की स्तुति में कई भजनों की रचना की थी। राजेंद्र ने शिक्षा के विकास के लिए विद्यालय स्थापित किया, जहाँ वेद, व्याकरण, न्याय आदि विषयों का पठन-पाठन होता था। दक्षिणी अर्काट से प्राप्त 1025 ई. के एक अभिलेख के अनुसार इस विद्यालय में 340 छात्र तथा 14 अध्यापक थे। शिक्षकों के जीवन-निर्वाह के लिए चावल और वेतन दिया जाता था। विद्यालय के खर्च का वहन करने के लिए 45 वेलिभूमि दान की गई थी। सिद्धांत सारावली की एक टीका के अनुसार राजेंद्र चोल ने गंगा तट के कई शैवों को चोल देश में संरक्षण दिया था।

राजेंद्र चोल के कई सामंतों एवं सैनिक अधिकारियों के संबंध में भी लेखों से जानकारी मिलती है। उनमें एक राजराज की बड़ी बहन कुंदवै का पति वल्लवरैयर था, जो आधुनिक उत्तरी अर्काट के एक भाग में शासन कर रहा था। यादवभीम दक्षिण अर्काट जिले के पर्वतीय भाग का शासक था। इसी भाग पर बाद में गंगैकोंड चोलमिलाडुडैयार ने शासन किया। दंडनायकन नराक्कण कृष्णन् रामन, मारायन अरुमोलि, इंदलदेव तथा चंगालवो और कोंगालवों का भी उसके अधिकारियों के रूप में उल्लेख है।

राजेंद्र चोल के लेखों में उसकी चार रानियों- त्रिभुवन अथवा वानवन महादेवियार, मुक्कोक्किलान, पंचवन महादेवी तथा वीरमादेवी के नाम मिलते हैं। अंतिम रानी वीरमादेवी राजेंद्रचोल की मृत्यु के बाद सती हो गई थी। उसके पुत्रों में राजाधिराज, राजेंद्र तथा वीरराजेंद्र और पुत्रियों में अरुमोलि नंगैयार या पिरानार तथा अमंगादेवी के नाम मिलते हैं। अमंगादेवी का विवाह पूर्वी चालुक्य शासक राजराज के साथ हुआ था, जिससे प्रथम चोल-चालुक्य शासक कुलोत्तुंग पैदा हुआ था।

राजेंद्रचोल प्रथम का अंतिम ज्ञात लेख इसके शासनकाल के तैंतीसवें वर्ष का है और उसकी मृत्यु का उल्लेख राजाधिराज के छब्बीसवें वर्ष के एक लेख में मिलता है। इस प्रकार राजेंद्र प्रथम का शासनकाल 1044 ई. तक माना जा सकता है। उसके पुत्र राजधिराज के लेख में कहा गया है कि राजेंद्र चोल की रानी वीरमादेवी राजेंद्र की मृत्यु पर सती हुई थी और उनके अवशेषों को ब्रह्मदेसम में दफनाया गया था। इससे लगता है कि राजेंद्र की मृत्यु उत्तरी अर्काट के ब्रह्मदेसम में ही हुई थी।

चोल राजेंद्र प्रथम के उत्तराधिकारी

राजेंद्र प्रथम के पश्चात् उसके पुत्रों- राजाधिराज, राजेंद्र तथा वीरराजेंद्र ने क्रमशः शासन किया और विस्तृत चोल साम्राज्य को पूर्णतः सुरक्षित रखने का प्रयास किया। चोल-चालुक्य संघर्ष इस काल में अपने उग्रतम् रूप में चलता रहा। इसी चोल-चालुक्य संघर्ष में राजाधिराज मारा गया, किंतु राजेंद्र द्वितीय ने स्थिति को संभाल लिया और चोलों की पराजय को विजय में बदल दिया था । यही नहीं, दक्षिण में पांड्य तथा केरल के शासक श्रीलंका के शासकों से मिलकर चोल साम्राज्य को क्षति पहुँचाने का कुचक्र रचते रहते थे।

वीरराजेंद्र के कन्याकुमारी लेख से ज्ञात होता है कि राजराज, राजेंद्र प्रथम के उन सभी पुत्रों में बड़ा था, जो उसके बाद क्रमशः गद्दी पर बैठे थे। इसकी पुष्टि राजेंद्र के तीनों पुत्रों के शासनकाल के लेखों से होती है। शिलालेखों की तिथियों लगता है कि इन शासकों का शासनकाल बहुत-कुछ साथ-साथ चलता रहा था। वास्तव में, इन सभी शासकों ने अपने शासनकाल की गणना अपने युवराजकाल से की है, जिससे दो शासकों की शासन-तिथियाँ एक-दूसरे के शासनकाल में अतिक्रमण करती हैं। राजमहेंद्र जैसे शासकों के लेखों में भी उसके शासनवर्ष का उल्लेख मिलता है, जबकि युवराज के रूप में ही उसकी मृत्यु हो गई थी। अभिलेखिक साक्ष्यों के आधार पर राजेंद्र के बाद के उत्तराधिकारियों का क्रम निम्नवत् निर्धारित किया जा सकता है-

  1. राजाधिराज राजकेशरी (1018 से 1054 ई.),
  2. राजेंद्र द्वितीय (1052-1064 ई.),
  3. राजमहेंद्र (युवराज रूप में मृत्यु) (1060-1063 ई.),
  4. वीरराजेंद्र राजकेशरी (1063-1069 ई.) और
  5. अधिराजेंद्र परकेशरी (1068-1070 ई.)
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