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राजराज द्वितीय (1150-1173 ई.)
कुलोत्तुंग द्वितीय के पश्चात् उसका पुत्र राजराज द्वितीय 1150 ई. में चोल राजवंश की गद्दी पर बैठा। कुलोत्तुंग द्वितीय ने इसे 1146 ई. में ही युवराज नियुक्त किया था, यही कारण है कि लेखों में उसके शासनकाल की गणना 1146 ई. से ही की गई है। राजराज द्वितीय के लेख तिरुचिरापल्ली, तंजोर, चिंगलेपुट, दक्षिणी अर्काट, कृष्णा, गुंटूर तथा गोदावरी जिलों से मिले हैं। उसके मणिमंगलम् लेख में कहा गया है कि चेर, काकतीय, पांड्य, सिंहल तथा पल्लव के शासक उसके समक्ष साष्टांग दंडवत् करते थे, किंतु इसे अतिशयोक्ति माना जाना चाहिए।
राजराज चोल द्वितीय उपलब्धियाँ
यद्यपि राजराज द्वितीय को चोल वंश का कमजोर शासक बताया जाता है, किंतु अभिलेखों से लगता है कि उसके शासनकाल में चोल साम्राज्य की सीमा पूर्ववत् बनी रही और पश्चिमी समुद्र के साथ-साथ पूर्वी समुद्र में भी चोल नौसेनाओं का दबदबा बना रहा। राजराज द्वितीय के साम्राज्य में मदुरै, कोंगुनाडु, थिरुनेलवेली, नेल्लोर, गुंटूर, विजयवाड़ा, राजमुंदरी और कलिंग शामिल थे। राजराज द्वितीय पूर्वी गंगावाड़ी प्रांत पर भी अपना नियंत्रण बनाये रखने में सफल रहा। गंगराज्य के पूर्वी भाग और कोंगु देश में चोल सत्ता बनी हुई थी। राजराज द्वितीय के लेख तेलगु प्रदेश में द्राक्षाराम तक के समस्त वेंगी से मिले हैं, जो इस प्रदेश पर उसके अधिकार के सूचक हैं। इसके अतिरिक्त, उत्तरी श्रीलंका भी प्रायः उसके नियंत्रण में था।
पांड्यों का उत्तराधिकार विवाद
राजराज द्वितीय को अपने शासन के अंतिम वर्षों में पांडयों के उत्तराधिकार विवाद में उलझना पड़ा। पांड्य कुलोत्तुंग प्रथम के समय से ही चोल साम्राज्य के अधीन थे, फिर भी, मदुरै साम्राज्य समय-समय पर अपने अधिराज से स्वतंत्र होने का प्रयास करता रहता था। 1169 ई. के आसपास मदुरै में पांड्य गद्दी के लिए कुलशेखर और पराक्रमपांड्य में उत्तराधिकार के लिए संघर्ष शुरू हो गया। पराक्रमपांड्य ने श्रीलंका के शासक विजयबाहु से सहायता माँगी, किंतु श्रीलंका से सहायता आने के पहले ही कुलशेखर ने अपने प्रतिद्वंदी पराक्रमपांड्य को पराजित कर उसे परिवार सहित मौत के घाट उतार दिया और मदुरै पर अधिकार कर लिया।
सिंहल के सेनापति लंकापुरी तंदनायगन ने पराक्रमपांड्य की ओर से पांड्यों के विरूद्ध अपने अभियान को जारी रखा और कुलशेखर को पराजित कर मृत पराक्रमपांड्य के पुत्र वीरपांड्य को मदुरा की गद्दी पर बैठाया। पराजित पांड्य कुलशेखर ने चोल शासक राजराज द्वितीय से सहायता माँगी। राजराज द्वितीय ने कुलशेखर की सहायता के लिए चोल सेनापति अनन पल्लवरायन को पांड्य राज्य पर आक्रमण करने के लिए भेजा। चोल सेना ने वीरपांड्य और उसकी सहयोगी सिंहली सेना को पराजित कर वापस खदेड़ दिया और कुलशेखर को मदुरा की गद्दी पर बिठाया।
चोल सेना ने आगे बढ़कर पराक्रमबाहु के प्रतिद्वंद्वी श्रीवल्लभ को सिंहल की गद्दी पर बैठाने के उद्देश्य से श्रीलंका पर नौसैनिक अभियान किया और कई नगरों को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। यद्यपि चोल, पांड्य और सिंहल का यह युद्ध 1177 ई. तक चलता रहा, किंतु इसी बीच 1173 ई. में राजराज द्वितीय की मृत्यु हो गई।
राजराज द्वितीय की सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि यह थी कि उसके शासन के उत्तरार्ध में शांति और समृद्धि बनी रही। इस परोपकारी शासक ने उत्पादन के साथ-साथ कुशल राजस्व प्रणाली की स्थापना की और प्राकृतिक आपदाओं के समय अपनी प्रजा को राहत प्रदान किया। गंगैकोंडचोलपुरम् अभी भी चोलों का प्रमुख नगर था। उसके शासनकाल में एक दूसरे नगर आयिरत्तलि को भी महत्ता मिली।
राजराज द्वितीय कला और संस्कृति का उदार संरक्षक था। उसने अपने शासन के उत्तरार्द्ध में दरासुरम (कुंभकोणम) के प्रसिद्ध ऐरावतेश्वर मंदिर का निर्माण आरंभ करवाया, जो उसके उत्तराधिकारी राजाधिराज द्वितीय के शासनकाल के आरंभ में पूरा हुआ। ऐरावतेश्वर मंदिर चोलकालीन का वास्तुशिल्प का चमत्कार माना जाता है। इसके अलावा, उसने तंजौर, चिदंबरम्, काँची, श्रीरंगम्, तिरुचि के मंदिरों के साथ-साथ मदुरै के मंदिरों को भी अनुदान दिया था। कहा गया है कि वह परशुराम के देश (केरल) में मंदिरों को नियमित अनुदान देता था।
राजराज द्वितीय ने चोलेंद्रसिंह, वीरधर, वीरोदय, राजगंभीर तथा एदिरिशोल की उपाधियाँ धारण की थी। उसने अपनी सांस्कृतिक उपलब्धियों के लिए त्रिभुवनचक्रवर्ती जैसी उपाधि भी धारण की थी। राजराज द्वितीय की तीन महारानियों- भवनमुलुडदैयाल, धरणिमुलुडदैयाल तथा उलगुडैमुक्कोक्किलान के नाम मिलते हैं।
चूंकि राजराज निःसंतान था, इसलिए उसने विक्रमचोल के पोते राजाधिराज द्वितीय को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। राजराज द्वितीय के शिलालेखों में उसके शासन का अंतिम वर्ष 26 है, इसलिए उसका शासनकाल 1173 ई. तक माना जा सकता है। राजराज की मृत्यु के बाद विक्रमचोल का दौहित्र राजाधिराज द्वितीय चोल राजसत्ता का अधिकारी बना।
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