कुलोत्तुंग चोल द्वितीय (Kulottunga Chola II, 1135-1152 AD)

कुलोत्तुंग चोल द्वितीय (1135-1152)

कुलोत्तुंग द्वितीय, कुलोत्तुंग (प्रथम) का पौत्र और विक्रमचोल का पुत्र था, जिसे 1133 ई. में ही युवराज बनाया गया था, क्योंकि उसके अभिलेखों में उसके शासन की गणना इसी वर्ष से की गई है। 1135 ई. में विक्रमचोल की मृत्यु के बाद कुलोत्तुंग द्वितीय चोल राजगद्दी पर बैठा।

कुलोत्तुंग द्वितीय के लेख दक्षिण अर्काट, चिंगलेपुट, तंजोर, तिरुचिरापल्ली, कडप्पा, कृष्णा तथा गोदावरी जिलों से मिले हैं, जिनमें उसके शासनकाल की अतिरंजित प्रशंसा की गई है। कुलोत्तुंग द्वितीय के एक लेख में कहा गया है कि उसके मुकुट पहनने से तिल्लैनगर की शोभा बढ़ जाती थी। इसका आशय संभवतः चिदंबरम् नगर में उसके अभिषेक कराये जाने से है।

कुलोत्तुंग चोल द्वितीय (Kulottunga Chola II, 1135-1152 AD)
कुलोत्तुंग चोल द्वितीय के समय चोल साम्राज्य का विस्तार

इतिहासकारों का अनुमान है कि कुलोत्तुंग द्वितीय के शासनकाल में चोल राज्य में सामान्यतया शांति और समृद्धि बनी रही। किंतु डी.सी. गांगुली का मानना है कि कुलोत्तुंग द्वितीय को अपने शासन के अंतिम दिनों में कल्याणी के चालुक्य शासक जगदेकमल्ल के साथ संघर्ष करना पड़ा, जिसमें कुलोत्तुंग द्वितीय को सफलता मिली।

कुलोत्तुंग द्वितीय का शासनकाल राजनीतिक दृष्टि से तो नहीं, किंतु साहित्यिक एवं कलात्मक दृष्टि से प्रगति एवं विकास का काल माना जाता है। उसने तमिल साहित्य को प्रोत्साहन दिया, जिसके फलस्वरूप कई तमिल ग्रंथों का प्रणयन हुआ। उसने पेरियपुराण के लेखक शेक्किलार, कुलोत्तुंगशोलन उला के लेखक ओट्टाकुट्टन एवं कंबल जैसे लेखकों को संरक्षण दिया था।

कुलोत्तुंग द्वितीय व्यक्तिगत रूप से शैव धर्म का अनुयायी था। उसके लेखों तथा कुलोत्तुंगचोलन उला से पता चलता है कि उसने अपने पिता विक्रमचोल द्वारा शुरू किये गये चिदंबरम् के प्रसिद्ध मंदिर के नवीनीकरण और विस्तार के कार्य को पूरा करवाया था। इसी क्रम में उसने चिदंबरम् के नटराज के मंदिर के आँगन में प्रतिष्ठित गोविंदराज विष्णु की मूर्ति को समुद्र में फेंकवा दिया था। कहा जाता है कि रामानुज ने इस मूर्ति को समुद्र में से निकलवाकर तिरुपति में प्रतिष्ठित किया था। बहुत दिनों बाद विजयनगर के रामराय ने उस मूर्ति को अपने मूलस्थान पर पुनः प्रतिष्ठित किया था।

कुलोत्तुंग द्वितीय ने अनपाय और तिरुनीर्रुच्चोल जैसी उपाधियाँ धारण की थी। उसने 1146 ई. में अपने पुत्र राजाधिराज द्वितीय को युवराज नियुक्त किया था। लेखों में उसकी दो रानियों- पटरानी त्यागवलि और मुक्कोक्किलान का उल्लेख मिलता है। कुलोत्तुंग द्वितीय ने संभवतः 1150 ई. तक शासन किया था, यद्यपि डी.सी. गांगुली जैसे कुछ इतिहासकार उसका शासनकाल 1152 ई. तक मानते हैं।

कुलोत्तुंग द्वितीय ने अपने शासनकाल में 1146 ई. में अपने पुत्र राजाधिराज द्वितीय को युवराज नियुक्त कर दिया था, जो 1150 ई. में उसकी मृत्यु के बाद चोल राज सिंहासन पर आसीन हुआ।

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