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सोमेश्वर प्रथम, 1042-1068 ई. (Someshwara I, 1042-1068 AD.)
जयसिंह द्वितीय के बाद उसका पुत्र सोमेश्वर प्रथम 1042 ई. में राजगद्दी पर बैठा। वह इस राजवंश के महानतम शासकों में से एक था। सोमेश्वर प्रथम ने मान्यखेट के स्थान पर कल्याणी को अपनी राजधानी बनाया। विल्हण के अनुसार इसने अपने शासनकाल में नवोदित राजधानी कल्याणी को विभिन्न सुंदर भवनों एवं मंदिरों से अलंकृत कर विश्व का श्रेष्ठ नगर बना दिया। उसने ‘त्रैलोक्यमल्ल’, ‘वीरमार्तंड’, ‘राजनारायण’, ‘सेवणदिशपट्ट’, ‘विंध्याधिपमल्लशिरच्छेदन’ आदि उपाधियाँ धारण की थी।
चालुक्य राजवंश (Chalukya Dynasty)
सोमेश्वर प्रथम की विजयें और उपलब्धियाँ (Victories and Achievements of Someshwara I)
अपने दीर्घकालीन शासनकाल में सोमेश्वर प्रथम विभिन्न युद्धों में व्यस्त रहा, लेकिन उसके सामरिक अभियानों का क्रम सुनिश्चित करना कठिन है। उसने दक्षिण भारत के लगभग सभी महत्वपूर्ण राजाओं से शक्ति-संतुलन स्थापित करने के अतिरिक्त उत्तर भारत के परमारों तथा संभवतः प्रतिहारों को भी पराजित किया था।
नांदेर अभिलेख में कहा गया है कि सोमेश्वर प्रथम ने मगध, अंग एवं कलिंग के शासकों की शक्ति का विनाश किया, कोंकण को आक्रांत कर वहाँ के शासक को अपनी चरण-वंदना के लिए विवश किया, मालवराज ने अपनी राजधानी धारा में उसकी अनुकंपा की याचना की, उसने चोल राजा को युद्ध में पराजित किया तथा वेंगी एवं कलिंग के राजाओं को अपनी ओर मिला लिया। शाके 966 (1045 ई.) के नरेमंगल अभिलेख में महामंडलेश्वर सोभनरस को ‘वेंगिपति’ कहा गया है। नांदेर लेख में ही सोमेश्वर के एक ब्राह्मण सेनापति नागवर्मा का उल्लेख है जिसे ‘सोमेश्वर की दक्षिणभुजा’ कहा गया जिसने ‘धारावर्षोत्पाटन’ एवं ‘चैक्रकूट-कालकूट’ की उपाधि धारण की थी।
1050 ई. के बाद के सोमेश्वर प्रथम के कुछ अभिलेखों में उसे वंग, मगध, नेपाल, कान्यकुब्ज तथा पंचाल के अतिरिक्त कुरु, खस एवं आभीर राज्यों की विजयों का श्रेय दिया गया है। विल्हण के अनुसार युवराज विक्रमादित्य षष्ठ ने गौड़, कामरूप, पांड्य तथा सिंहल के विरुद्ध सामरिक अभियानों का नेतृत्व किया था। इनमें कम से कम मगध, अंग, कुरु, खस, आभीर तथा नेपाल की विजयों का विवरण अप्रामाणिक लगता है।
चोलों के साथ संघर्ष: अपने शासन के प्रारंभ से लेकर अंत तक सोमेश्वर प्रथम चोलों से संघर्ष करता रहा। किंतु इन युद्धों के क्रम के विषय में मत-भिन्नता एवं अनिश्चितता है। दरअसल वेंगी राज्य को अपहृत कर उस पर अधिकार स्थापन के लिए पश्चिमी चालुक्यों एवं चोलों के बीच परंपरागत शत्रुता चली आ रही थी और वेंगी को लेकर राजराज और उसके सौतेले भाई विजयादित्य के बीच सिंहासन को लेकर गृहयुद्ध चल रहा था। इस गृहयुद्ध में चालुक्य नरेश विजयादित्य का समर्थक था, जबकि वेंगी के सिंहासन पर विराजमान राजराज को चोलों का प्रबल समर्थन प्राप्त था।
राज्यारोहण के कुछ ही समय के बाद सोमेश्वर प्रथम ने विजयादित्य की सहायता के लिए वेंगी पर आक्रमण करने के लिए एक विशाल सेना भेजी। इसकी सूचना पाकर राजेंद्र चोल ने भी अपने संरक्षित राज्य की सहायता के लिए सेना भेजी। सोमेश्वर प्रथम और राजाधिराज के बीच कालिदिडि-क्षेत्र में एक अनिर्णायक युद्ध हुआ।
इसके बाद धान्यकटक (वर्तमान गंटूर जिले में स्थित धरणीकोट) में चालुक्यों एवं चोलों के मध्य भयंकर संग्राम हुआ। चोल अभिलेखों के अनुसार चालुक्य सोमेश्वर, जो इस युद्ध के समय उपस्थित भी नहीं था, युद्ध के समाचार से भयभीत हो गया और विक्कि (युवराज विक्रमादित्य षष्ठ) तथा विजयादित्य (राजराज नरेंद्र का सौतेला भाई) युद्ध के मैदान से भाग गये। राजाधिराज ने सोमेश्वर की सेना को वेंगी से पश्चिम की ओर खदेड़ दिया और वेंगी पर अधिकार कर लिया।
धान्यकटक में चालुक्यों को पराजित कर राजाधिराज अपनी सेनाओं के साथ कोल्लिप्पाकै (नलगोंडा जिले में कुलपक) तक पहुँच गया। किंतु कोल्लिप्पाकै में चालुक्यों ने चोलों का कड़ा प्रतिरोध किया। एक कन्नड़ अभिलेख से ज्ञात होता है कि कोल्लिप्पाकै की रक्षा की गई थी। 1046 ई. में एक लेख में सोमेश्वर के एक सामंत सिगनदेव, जो बनवासी तथा संतलिगे का शासक था, ने दावा किया है कि उसने शत्रुओं से कोल्लिप्पाकै की रक्षा की थी।
बादामी का चालुक्य वंश: आरंभिक शासक (Chalukya Dynasty of Badami: Early Rulers)
चोल-चालुक्य संघर्ष के अगले चरण का उल्लेख राजाधिराज के शासनकाल के उन्नीसवें तथा तीसवे वर्ष (1047–1048 ई.) के लेखों में मिलता है। इस अभियान का नेतृत्व स्वयं राजाधिराज ने किया था। उसने विक्रमनारायण (विक्रमादित्य षष्ठ) की सेना को पराजित कर नारायण, गंडरदिनकर (गंडरादित्य), गणपति, मधुसूदन एवं गंगाधर आदि सेनापतियों को पराजित कर या मारकर चालुक्य सेना के बहुत से हाथी, अश्व एवं एवं युद्धास्त्र छीन लिये तथा कम्पिलि के राजप्रासाद को ध्वस्त कर दिया था।
इसके बाद चोल-चालुक्यों की अगली मुठभेड़ कृष्णा नदी के बांयें पर स्थित कड़कमार नगर (छावनी) पुंडर में हुई। इसमें चालुक्यों की ओर से तेलगु राजा बिच्चय ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। किंतु इस युद्ध में भी चालुक्य बुरी तरह पराजित हुए। पुंडर नगर को भूमिसात् कर उसके ध्वंसावशेषों को गधों से जुतवाकर उसमें वाराटिकै नामक अनाज बो दिया गया। चोल आक्रांताओं ने मणंदिप्पै ( मुणिन्दिध ) नगर को जलाकर राख कर दिया। जब भयभीत आहवमल्ल ने दया-याचना के साथ संधि का प्रस्ताव लेकर अपना दूत भेजा चोलराज के स्कंधावार में भेजा, तो चोल शासक ने न केवल दूत का अपमान किया, बल्कि उसके शरीर पर ‘आहवमल्ल घृणित एवं कायर है’ लिखवाकर सोमेश्वर के संधि-प्रस्ताव को ठुकरा दिया।
चोल अभिलेखों के अनुसार चोल राजा अपने हाथियों के साथ आगे बढ़ता गया। उसके हाथियों ने शिरूतरै, पेरूवरै तथा दैवभीमकशी के घाट का पानी पिया। इसके बाद चोलों ने येतगिरि में अपना ‘सिंह’ युक्त विजय-स्तंभ स्थापित किया, आनंदोत्सव मनाया और अधीनता स्वीकार करने वाले राजाओं को पुरस्कार दिया।
इसी समय चालुक्यों ने पुनः संघर्ष आरंभ कर दिया। इस बार चोलों ने चालुक्यों के कई सेनापतियों का सिर काट लिये। सोमेश्वर ने विवश होकर पुनः अपने एक अधिकारी एवं दो नायकों को संधि-प्रस्ताव के साथ चोलराज के पास भेजा, किंतु चोल नरेश ने दूतों को अपमानित कर वापस कर दिया।
इसके बाद चोल राजाधिराज ने चालुक्यों की राजधानी कल्याणी पर आक्रमण कर लूट-पाट किया और राजमहल को ध्वस्त कर दिया। राजाधिराज ने इस विजय के उपलक्ष्य में अपना ‘वीराभिषेक’ कराया और ‘विजयराजेंद्र’ की उपाधि धारण की। तंजौर जिले में दारसुरम (दारासुरम) नामक स्थान पर चालुक्य शैली में एक द्वारपालक की मूर्ति आज भी है जिस पर तमिल भाषा में इस आशय का लेख ‘‘उडैयर श्री विजयेंद्र राजेंद्रदेव द्वारा कल्याणपुर को भस्म कर लाया गया द्वारपाल’’ अंकित है। इससे राजाधिराज द्वारा चालुक्यों की पराजय तथा कल्याणपुर के भस्मसात् करने की पुष्टि हो जाती है।
पुलकेशिन् द्वितीय, 610-642 ई. (Pulakeshin II, 610-642 AD)
चोल-चालुक्य संघर्ष का विवरण मुख्यतया चोलों के अभिलेखों पर आधारित है जबकि चालुक्य लेखों में इस संबंध में कोई विशेष सूचना नहीं मिलती है। यह सही है कि चोलों ने चालुक्यों को बहुत हानि पहुँचाई थी, किंतु 1047 ई. के बाद चालुक्य सोमेश्वर ने उन्हें अपने प्रदेशों से खदेड़ दिया था। सोमेश्वर प्रथम के 1047 ई. के एक लेख में उसे अन्य देशों के साथ चोल-विजय का भी श्रेय दिया गया है। 1049 ई. के एक लेख से पता चलता है कि सोमेश्वर पल्लव दिग्विजय के बाद करहाट के बग्घापुर नामक स्थान पर एक नेलेवीडु में था। नागै अभिलेख में भी सोमेश्वर को काँची विजय का श्रेय दिया गया है। लगता है कि चोलों से कई बार पराजित होने के बावजूद उसके सेनानायक चामुंडराज ने 1047 ई. के पहले चोलों को खदेड़ दिया था और सोमेश्वर कुछ समय के लिए वेंगी पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने में सफल हो गया था। अपने 1053 ई. के मुलगुंड अभिलेख में सोमेश्वर प्रथम ने अपने पुत्र सोमेश्वर द्वितीय को ‘वेंगीपुरवरेश्वर’ की उपाधि दी है।
किंतु चोल-चालुक्य संघर्ष अभी समाप्त नहीं हुआ था। राजाधिराज के शासन के अंतिम वर्षों में चोलों ने नये सिरे से चालुक्यों पर आक्रमण किया। इस बार राजाधिराज के साथ उसका पुत्र राजेंद्र भी था जिसे जिसे राजाधिराज ने अन्य पुत्रों की उपेक्षा कर युवराज बना दिया था। राजेंद्र चोल के चौथे वर्ष के मणिमंगलम् लेख से पता चलता है कि राजाधिराज रट्टमंडल को आक्रांत करता हुआ कोप्पम नगर तक पहुँच गया। उसके इस दुस्साहस सें क्रुद्ध होकर आहवमल्ल ने अपनी सेना के साथ कोप्पम (कृष्णा नदी के तट पर स्थित कोम्बाल) में चोल सेना का सामना किया। युद्ध में राजाधिराज मारा गया, किंतु उसके पुत्र राजेंद्र ने चोल ने सिथति पर नियंत्रण स्थापित कर अनेक चालुक्य सेनापतियों को मौत के घाट उतार दिया। अंततः सोमेश्वर पराजित होकर भाग गया और चोलुक्यों की बहुत सी संपत्ति चोलों के हाथ लगीं। राजेंद्र द्वितीय ने युद्ध क्षेत्र में ही अपना राज्यारोहण संपन्न किया तथा कोल्हापुर में जयस्तंभ स्थापित किया। इस प्रकार कोप्पम युद्ध में भी सोमेश्वर प्रथम को पराजित होना पड़ा।
किंतु चालुक्य अधिक समय तक कोप्पम की पराजय को स्वीकार नहीं कर सके। चालुक्य नरेश सोमेश्वर ने कोप्पम का प्रतिशोध लेने के लिए दंडनायक बालादेव (बालादित्य) एवं अन्य सेनापतियों के नेतृत्व एक बड़ी सेना चोलों पर आक्रमण करने के लिए भेजा। इस बार चालुक्य-चोल संघर्ष मुडक्कारु के तट पर हुआ। इस युद्ध में राजेंद्रदेव, उसके पुत्र राजमहेंद्र तथा भाई वीरराजेंद्र भी सम्मिलित हुए। राजमहेंद्र के लेखों में मुडक्कारू के युद्ध का वर्णन मिलता है जिसमें आहवमल्ल पराजित हुआ था।
इसके बाद सोमेश्वर प्रथम ने अपने पुत्र विक्रमादित्य तथा परमार नरेश जयसिंह को चालुक्य सेना के साथ चोलशासित प्रदेश गंगवाड़ी पर आक्रमण करने के लिए भेजा। किंतु चोल नरेश राजेंद्र द्वितीय ने अपने पुत्र वीरराजेंद्र के नेतृत्व में एक विशाल सेना भेजकर गंगवाड़ी से आक्रांताओं को भगा दिया। वीरराजेंद्र के आरंभिक शिलेखों से पता चलता है कि उसने महादंडनायक चामुंडराज से युद्ध किया और उसका सिर काट लिया। इससे लगता है कि चोलों ने वेंगी में भी चालुक्यों की सेना को पराजित किया था। किंतु 1064 ई. में चोल नरेश राजेंद्र द्वितीय की मृत्यु के बाद वीर राजेंद्र को वापस लौटना पड़ा।
वीर राजेंद्र के शासन के पाँचवें वर्ष के लेखों से ज्ञात होता है कि भयभीत आहवमल्ल ने पुनः वेंगी को अधिकृत कर लिया। लेकिन वीरराजेंद्र ने कर्नाटक के तुंग एवं भद्रा नदियों के संगम-स्थल ‘कुडल-संगम’ के युद्ध में चालुक्यों को पराजित कर दिया।
चोल लेखों में कूडलसंगमम् के द्वितीय युद्ध का भी उल्लेख मिलता है। मणिमंगलम् लेख से पता चलता है कि वेंगनाडु की पराजय और अपमान का बदला चुकाने के लिए सोमेश्वर ने वीरराजेंद्र को कुडलसंगम के मैदान में पुनः युद्ध करने की चुनौती दी। वीरराजेंद्र तत्काल अपनी सेना के साथ उक्त मैदान में पहुँचकर गया। चालुक्य सेना भी वहाँ आ गई और लगभग एक माह तक अपने राजा की प्रतीक्षा करती रही। एक महीने की प्रतीक्षा के बाद जब सोमेश्वर नहीं आया तो वीर राजेंद्र ने क्रुद्ध होकर संपूर्ण रट्टपाडि को रौंद डाला और तुंगभद्रा के तट पर अपना विजय-स्तंभ स्थापित किया।
वस्तुतः पश्चिमी चालुक्य तथा चोल, दोनों ही वेंगी को अपने अधीन रखना चाहते थे। शासन के अधिकांश भाग में सोमेश्वर प्रथम वेंगी को अपने अधीन रखने में सफल रहा। 1044 ई. के नरेयंगल अभिलेख में उसके सामंत महामंडलेश्वर शोभनरस को ‘वेंगीपति’ कहा गया है। 1049 ई. से पहले किसी समय सोमेश्वर ने वेंगी के शासक राजराज को अपना अधीनस्थ बना लिया था और 1049 तथा 1053 ई. के बीच के अंतराल में उसके पुत्र सोमेश्वर द्वितीय ने ‘वेंगीपुरवरेश्वर’ की उपाधि धारण की थी। सोमेश्वर प्रथम का 1057 ई. का एक अभिलेख आंध्र राज्य के गोदावरी जिले से प्राप्त हुआ है।
परंतु समय-समय पर पश्चिमी चालुक्यों को पराजित कर चोल भी वेंगी में अपना प्रभुत्व स्थापित करते रहे और सोमेश्वर के शासन के अंतिम भाग में यह राज्य संभवतः चोलों के अधीन हो गया था; क्योंकि 1066-67 ई. के वीरराजेंद्र के पाँच अभिलेखों में वर्णित है कि वेंगीनाडु पर अधिकार कर उसने अपने बड़े भाई की प्रतिज्ञा पूरी की थी।
शिलाहार राज्य की विजय: यद्यपि सोमेश्वर प्रथम अधिकांश समय चोलों के साथ संघर्ष में व्यस्त रहा, लेकिन बीच-बीच में उसे उत्तर तथा पश्चिम की अन्य कई शक्तियों से भी निपटना पड़ा।
सोमेश्वर ने उत्तरी तथा दक्षिणी कोंकण तथा कोल्हापुर में शासन करने वाले शिलाहारों को पराजित कर अपने अधीन किया था। इसकी पुष्टि नागै अभिलेख, खेंभावी अभिलेख और भरंगी लेख से होती है। कोलानुपाक अभिलेख से भी विदित होता है कि 1050-51 ई. में सोमेश्वर नेलेविडु से शासन कर रहा था जो शिलाहार राज्य में था।
बिल्हण के अनुसार विक्रमादित्य षष्ठ की रानी चंद्रलेखा (चंदलादेवी) करहाट के राजा विद्याधर की पुत्री थी। इस आधार माना जा सकता है कि संभवतः बाद में कोल्हापुर के शिलाहार शासक ने चालुक्य राज से मैत्री स्थापित कर ली थी, और अपनी पुत्री का विवाह विक्रमादित्य षष्ठ के साथ कर दिया था।
मालवा पर आक्रमण: सोमेश्वर ने कल्याणी की गद्दी पर बैठते ही मालवा पर आक्रमण किया। सोमेश्वर का समकालीन मालवा का शासक भोज था। नागै लेख के अनुसार चालुक्यों ने धारा नगरी में आग लगा दी तथा मांडव पर अधिकार कर लिया। यद्यपि नांदेर लेख में कहा गया है कि भोज ने धारा में ही आत्मसमर्पण कर दिया था। किंतु विक्रमादित्य षष्ठ के येवूर अभिलेख के अनुसार मालवा के राजा ने कई बार भागकर मांडव में शरण ली थी। विक्रमांकदेवचरित से भी पता चलता है कि जब सोमेश्वर ने धारा को आक्रांत किया, तो भोज अपनी राजधानी छोड़कर भाग गया था। मालवा के विरूद्ध इस अभियान में सोमेश्वर को अपने कई सामंतों एवं सेनापतियों से सहायता मिली थी। 1066 ई. के होट्टूर अभिलेख में सोमेश्वर के महामंडलेश्वर जेमरस को ‘भोज के लिए कालाग्नि’ कहा गया है। इससे पता चलता है कि जेमरस की उपाधि सोमेश्वर ने भोज के विरूद्ध उसकी सहायता के कारण दी थी। स्रोतों से पता चलता है कि भोज की मृत्यु के बाद जब मालवा में जयसिंह तथा उदयादित्य के बीच गद्दी के लिए संघर्ष हुआ तो सामेश्वर ने जयसिंह की सहायता की थी। इसकी पुष्टि विल्हण के विवरणों से भी होती है। संभवतः इस संघर्ष में सोमेश्वर को कलचुरियों और लाट के चालुक्यों के विरोध का सामना करना पड़ा था।
कलचुरियों तथा चालुक्यों के विरूद्ध अभियान: विल्हण के अनुसार सोमेश्वर प्रथम का गुजरात तथा लाट के चालुक्यों तथा कलचुरियों से भी संघर्ष हुआ। संभवतः भोज के विरूद्ध चालुक्य भीम प्रथम और कलचुरि शासक कर्ण ने सोमेश्वर के साथ मिल कर एक संघ बनाया था, किंतु लगता है कि भोज की पराजय के बाद राजनीतिक कारणों से यह संघ भंग हो गया और शक्ति संतुलन के लिए सोमेश्वर को कलचुरियों एवं चालुक्यों के विरूद्ध अभियान करना पड़ा। सूडी अभिलेख में दंडनायक नागदेव को ‘गुर्जरराज का विजेता’ कहा गया है। हीरहडगल्लि लेख के अनुसार विक्रमादित्य षष्ठ को देखकर गुर्जरराज किसी छिद्र में छिप गया था। इतिहासकारों के अनुसार लाट का चालुक्य शासक, जिसे सोमेश्वर ने पराजित किया था, या तो वत्सराज था या त्रिलोचनपाल।
सोमेश्वर ने कलचुरि कर्ण को भी पराजित किया था। विल्हण के अनुसार विक्रमादित्य ने दाहल के राजा कर्ण की शक्ति चूर-चूर कर दी थी। उसके महामंडलेश्वर संकरस ने गांगेय (कर्ण) को पराजित करने का दावा किया है। इतिहासकारों का विचार है कि परमार जयसिंह को मालवा की गद्दी पर आसीन करने के बाद ही सोमेश्वर ने कलचुरि कर्ण को पराजित किया था।
चक्रकूट के विरूद्ध अभियान: मध्यप्रदेश के आधुनिक बस्तर के आसपास नागवंशियों का शासन था जिनकी राजधानी चक्रकूट थी। नांदेर लेख में सोमेश्वर प्रथम के सेनापति नागवर्मा को ‘चक्रकूट कालकूट’ की उपाधि दी गई है। इससे लगता है कि सोमेश्वर प्रथम ने नागवर्मा के नेतृत्व में नागों को पराजित किया था।
भारत में सांप्रदायिकता का विकास (Development of Communalism in India)
मारसिंह के विरूद्ध अभियान: नांदेर लेख में नागवर्मा को ‘मारसिंहमदमर्दन’ की उपाधि दी गई है। इससे स्पष्ट है कि उसने मारसिंह नामक किसी शासक को पराजित किया था। नांदेर लेख के लगभग एक वर्ष बाद जारी किये गये एक लेख से ज्ञात होता है कि किसी रट्ट सामंत अंक ने मारसिंह को पराजित किया था। मारसिंह नामक एक शासक के लेखों से पता चलता है कि वह सोमेश्वर की पत्नी लीलावती का पिता था। अनुमान किया जाता है कि इसी मारसिंह प्रभु को नागवर्मा और अंक ने पराजित किया था जो किसी कारण से सोमेश्वर का विरोधी हो गया था।
काकतीय: साक्ष्यों से पता चलता है कि काकतीय प्रोल प्रथम ने सोमेश्वर के चक्रकूट तथा अन्य सैन्य-अभियानों में सहयोग किया था और इसके बदले उसे वारंगल प्रदेश के आसपास का शासक नियुक्त किया गया था। 1090 ई. के काजीपेट अभिलेख से भी पता चलता है कि प्रोल प्रथम की सेवाओं के कारण त्रैलोक्यमलल ने उसे अन्मकोंड विषय पुरसकार के रूप में दिया था। इसी अभिलेख में प्रोल के पुत्र बेट को ‘मालव तथा चोलरूपी हाथियों के लिए सिंह के समान’ कहा गया है। पलंपट लेख में भी सामेश्वर को ‘काकतीयवल्लभ’ की उपाधि दी गई है। इससे स्पष्ट होता है कि काकतीय सोमेश्वर के अधीनस्थ सामंत थे।
मालवा का औलिकार वंश और यशोधर्मन् (Aulikar Dynasty of Malwa and Yashodharman)
केरल के विरूद्ध अभियान: इसके अलावा सोमेश्वर प्रथम ने अपने सामरिक अभियानों में अपने पुत्र विक्रमादित्य तथा सामंतराज की सहायता से केरल तथा मलाबार के शासक पर आक्रमण किया और वहाँ के शासक को मार डाला।
मल्ल तथा सेउण के विरूद्ध सफलता: 1047 ई. के ताडखेड़ अभिलेख से पता चलता है कि उसके सेनापति नागवर्मा ने मल्ल तथा सेउण का भी दमन किया था। यद्यपि मल्ल की पहचान करना कठिन है, किंतु नागवर्मा की ‘विंध्यधिपति’ की उपाधि से लगता है कि मल्ल विंध्य के आसपास का शासक था। सेउण की पहचान भिल्लम तृतीय से की जाती है जिसे जयसिंह के शासन में विज्जुरस ने उन्मूलित किया था। लगता है कि सोमेश्वर के काल में इसने विद्रोह कर दिया जिसका दमन सामंत नागवर्मा ने किया था। बाद में दोनों में मधुर संबंध हो गया क्योंकि क्योंकि देवली अनुदानपत्र से पता चलता है कि विज्जुरस ने सोमेश्वर की ओर से उसके शत्रुओं को अपदस्थ किया था।
कलिंग तथा कोशल: सोमेश्वर ने कलिंग के गंग शासक वज्रहस्त पंचम पर भी विजय प्राप्त की और दक्षिण कोशल में अपना प्रभुत्व स्थापित किया।
आलुपों पर अधिकार: सोमेश्वर प्रथम के सामंत कदंब जयकेशिस प्रथम ने आलुप तथा कपर्दिक द्वीप के शासक पर भी विजय प्राप्त की और कामदेव को अपदस्थ किया था।
इसके अतिरिक्त सोमेश्वर प्रथम को चालुक्य-अभिलेखों में मगध, बंग, कन्नौज, पांचाल, खस, कुरु, आभीर एवं नेपाल आदि प्रदेशों का विजेता कहा गया है। विल्हण ने सोमेश्वर के कनिष्ठ पुत्र विक्रमादित्य षष्ठ द्वारा दक्षिण में पाण्ड्य एवं लंका पर तथा पूर्वी भारत में गौड़ तथा कामरूप जैसे दूरस्थ प्रदेशों पर किये गये आक्रमणों का उल्लेख किया है। किंतु ये सभी विवरण अतिरंजनापूर्ण प्रतीत होते हैं।
इस प्रकार अपने राज्यारोहण के समय से लेकर अंतिम समय तक सोमेश्वर प्रथम युद्धों में व्यस्त रहा। चोलों के विरुद्ध होने वाले दीर्घकालीन युद्धों में यद्यपि उसे अनेक बार पराजय मिली, तथापि उसने अपने साहस एवं धैर्य का कभी परित्याग नहीं किया। इससे उसके युद्ध-प्रेम तथा अनुपम शौर्य का प्रमाण मिलता है।
सोमेश्वर प्रथम का साम्राज्य उत्तर में विंध्य से लेकर दक्षिण में तुंगभद्रा तक के अधिकांश भू-भाग में व्याप्त था। पूरब में यह आधुनिक मध्य प्रदेश के दक्षिणी जिलों से लेकर कलिंग और कोशल तक विस्तृत था। कुछ समय तक परमार एवं प्रतीहार भी उसके अधीन रहे थे।
अभिलेखों में सोमेश्वर प्रथम की तमाम रानियों के नाम वर्णित हैं- चंदलकव्वे (चंद्रिकादेवी), मैलालदेवी, होयसलदेवी, केतलदेवी, वच्छलदेवी, चामलदेवी, लीलादेवी (शिरपुर लेख), लाच्छलदेवी (बेलवट्टि अनुदानपत्र) आदि। इनमें मैलालदेवी 1053-54 ई. में बनवासी में, और केतलदेवी 1054 ई. में पेनवाड अग्रहार में शासन कर रही थी। मैलालदेवी संभवतः अग्रमहिषी थी।
सोमेश्वर प्रथम के कम से कम चार पुत्रों की जानकारी प्राप्त होती है- सोमेश्वर द्वितीय, विक्रमादित्य षष्ठ, विजयादित्य और जयसिंह। अपने शासन के अंतिम दिनों में उसने अपने दो पुत्रों- सोमेश्वर द्वितीय और विक्रमादित्य षष्ठ को युवराज नियुक्त किया था। सोमेश्वर द्वितीय 1053-54 ई. में बेलवोला तथा पुरिगेरे में शासन कर रहा था। विक्रमादित्य षष्ठ के संबंध में पता चलता है कि उसने 1055-65 ई. के बीच बनवासी, संतलिगे तथा गंगवाड़ी में अलग-समयों में शासन किया था। अपनी लंबी बीमारी और चोलों के आक्रमणों से भयभीत होकर सोमेश्वर प्रथम ने 29 मार्च 1068 ई. में कुरवत्ति नामक स्थान पर तुंगभद्रा नदी में जल-समाधि ले ली।
सोमेश्वर द्वितीय, 1068-1076 ई. (Someshwara II, 1068-1076 AD.)
सोमेश्वर प्रथम के पश्चात् उसका जयेष्ठ पुत्र सोमेश्वर द्वितीय ‘भुवनैकमल्ल’ 1068 ई. में राजा हुआ। उसने अपने अनुज विक्रमादित्य षष्ठ को गृहयुद्ध की विभीषिका से राज्य को सुरक्षित रखने के लिए गंगवाड़ी प्रदेश का शासक दिया। वह 1071 तथा 1074 ई. के मध्य विक्रमादित्य कर्नाटक के आधुनिक बेल्लारी, चित्तलदुर्ग, अनंतपुर तथा धारवाड़ जिलों में शासन कर रहा था, और उसकी राजधानी गोविंदवाड़ी थी। उसका विवाह चोल वीरराजेंद्र की पुत्री से हुआ था, जिसके कारण चोलों से उसके मधुर संबंध थे।
चोलों से युद्ध: 1068-69 ई. में सोमेश्वर को विक्रमादित्य तथा उसके संबंधी एवं सहायक चोलों से युद्ध करना पड़ा। चोल वीरराजेंद्र ने अपने दामाद की महत्वाकांक्षा की तुष्टि के लिए गंगवाड़ी की चालुक्यसेना के साथ कल्याणी-नरेश सोमेश्वर द्वितीय पर आक्रमण कर दिया और गुत्ति (गूटी) को घेर लिया। इसके पश्चात् कम्पिलनगर को नष्ट-भ्रष्ट कर चोल सेना ने आगे बढ़कर करदिकल (आधुनिक करदी) में अपना विजय-स्तंभ स्थापित किया। कर्नाटक प्रदेश को जीतकर वीरराजेंद्र ने विक्रमादित्य को रट्टपाडि का राजा घोषित कर दिया। 1071 ई. के अभिलेखों के अनुसार विक्रमादित्य ने ‘त्रिभुवनमल्ल’ का विरुद धारण किया।
परंतु वीरराजेंद्र का यह राजनीतिक दबाव सोमेश्वर के राज्य पर अधिक समय तक नहीं रह सका। शीघ्र ही सोमेश्वर द्वितीय की शक्तिशाली अश्व-सेना ने वीरराजेंद्र को पराजित कर चोल सेना को दक्षिणी कर्नाटक से बाहर खदेड़ करके अपनी खोई हुई शक्ति को पुनः प्राप्त कर लिया। चालुक्य सेनापति दंडनायक लक्ष्मण ने कल्याणी के सिंहासन को सुरक्षित रखने में विशेष योगदान दिया।
चोलों पर विजय प्राप्त करने के उपरांत सोमेश्वर द्वितीय ने गुजरात के चालुक्य शासक कर्ण के साथ संधि की और उसकी सहायता से परमार जयसिंह को पराजित कर मालवा को अधिकृत कर लिया। परंतु इस सफलता के कुछ ही समय के बाद परमार उदयादित्य ने चहमानों के सहयोग से सोमेश्वर को मालवा प्रदेश से खदेड़ दिया।
यद्यपि विक्रमादित्य षष्ठ युवराज के रूप में शासन कर रहा था, लेकिन वह आंतरिक रूप से सोमेश्वर द्वितीय के राजा बनने के विरूद्ध था। पिता की मृत्यु के समय वह दिग्विजय के निकला था। कल्याणी वापस आने पर उसने लूट की समस्त संपत्ति सोमेश्वर के चरणों में समर्पित कर दी। 1074 ई. के एक अभिलेख से प्रमाणित होता है कि इस तिथि तक विक्रमादित्य सोमेश्वर के अधीन बंकापुर में शासन कर रहा था।
विल्हण के विवरण से पता चलता है कि सोमेश्वर द्वितीय गलत आदतों से ग्रसित हो गया। उसके निष्ठुर और विलासी प्रवृत्ति के कारण सभी उससे असंतुष्ट हो गये। यद्यपि विक्रमादित्य षष्ठ ने उसे अनेक प्रकार से समझाने का प्रयास किया, किंतु जब सोमेश्वर द्वितीय अनुज विक्रमादित्य षष्ठ पर संदेह करने लगा तो विक्रमादित्य और उसके छोटे भाई जयसिंह ने राजधानी को त्यागकर तुंगभद्रा के तट पर एक लघु राज्य की स्थापना की।
चालुक्य राजवंश (Chalukya Dynasty)
विक्रमांकदेवचरित के अनुसार विक्रमादित्य का चोल वीरराजेंद्र से मधुर संबंध था जिसके कारण उसकी शक्ति एवं महत्वाकांक्षा में काफी वृद्धि हो गई थी। विक्रमादित्य षष्ठ ने कदंबवंशीय जयकेशि एवं विजयादित्य, उच्छंगि के पांड्य शासक तथा संभवतः होयसल बिट्टिग विष्णुवर्धन एवं उसके पुत्र इरेयंग की सहायता से कल्याणी के सिंहासन पर अधिकर करने का प्रयास किया। फलतः 1075 ई. में सोमेश्वर द्वितीय ने कुलोत्तुंग की सहायता से विद्रोही विक्रमादित्य षष्ठ और उसके समर्थक सामंतों को कुचलने की योजना बनाई।
1076 ई. में कर्नाटक (कोलार जनपद) के नांगिली नामक स्थान पर दोनों पक्षों की सेनाओं के मध्य घमासान युद्ध हुआ। यद्यपि कुलोत्तुंग ने विक्रमादित्य की राजधानी गंगवाड़ी पर अधिकार कर लिया, किंतु विक्रमादित्य की सेना ने चालुक्यनरेश सोमेश्वर द्वितीय को बंदी बना लिया। इसकी पुष्टि विक्रमादित्य षष्ठ के 1099 ई. के गडक अभिलेख तथा विक्रमांकदेवचरित से होती है।
विक्रमादित्य के अन्य कई अभिलेखों में भी वर्णित है कि उसने होयसल इरेयंग एवं चोडपांड्य की सहायता से दुर्व्यसनी सोमेश्वर द्वितीय को पराभूत कर बंदी बना लिया था और 1076 ई. में कल्याणी के चालुक्य राज पर अधिकार कर लिया।
लेखों में सोमेश्वर द्वितीय की दो पत्नियों के नाम कचलदेवी और मैललदेवी मिलता है। उसकी एक बहन सुग्गलदेवी 1069 तथा 1075 ई. में किसुकाड में शासन कर रही थी। उसका सामंत और सेनानायक लक्ष्मण दंडनायक बनवासी का शासक था। विल्हण के विवरण में सोमेश्वर द्वितीय को एक अत्याचारी एवं विलासी शासक बताया गया है, किंतु सोमेश्वर के लेखों में इसकी पूर्ण प्रशस्ति प्राप्त होती है।