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यूरोप में धर्मसुधार आंदोलन
16वीं शताब्दी के आरंभ तक समस्त पश्चिमी यूरोप धार्मिक दृष्टि से एक था- सभी ईसाई थे, सभी रोमन कैथलिक चर्च के सदस्य थे, उसकी परंपरगत शिक्षा मानते थे और धार्मिक मामलों में उसके अध्यक्ष अर्थात् रोम के पोप का शासन स्वीकार करते थे। किंतु 16वीं शताब्दी के दूसरे दशक में यूरोप में जिस सुधार-आंदोलन प्रवर्तन हुआ, वह शीघ्र ही चर्च की परंपरागत शिक्षा और पोप के अधिकार, दोनों का विरोध करने लगा। दूसरे शब्दों में, 16वीं शताब्दी में चर्च और पोप के भ्रष्ट-तंत्र के विरूद्ध इंग्लैंड और यूरोप में जो आंदोलन हुआ, उसे ‘धर्मसुधार आंदोलन’ (Reformation Movement) कहा जाता है।
वास्तव में इस धर्मसुधार आंदोलन के दो लक्ष्य थे- एक तो ईसाईयों में धार्मिक, नैतिक और आध्यात्मिक जीवन को पुनः उन्नत और श्रेष्ठ करना और दूसरे रोम के पोप और उसके अधीनस्थ अन्य धर्माधिकारियों के धर्म-संबधी अनेक व्यापक अधिकारों को कम करना। इस महान् आंदोलन के फलस्वरूप पाश्चात्य ईसाइयों की यह एकता छिन्न-भिन्न हो गई और यूरोप में कैथोलिक संप्रदाय के साथ-साथ लूथरवादी, कैल्विनवाद, एंग्लिकनवादी और प्रेसबिटेरियनवादी संप्रदाय प्रचलित हो गये।
दरअसल मध्ययुग में यूरोपीय पूर्णतया समाज धर्मकेंद्रित, धर्मप्रेरित व धर्मनियंत्रित था। पोप, धार्मिक जीवन का नियंता ही नहीं था, अपितु राजनीतिक क्षेत्र में भी उसकी तूती बोलती थी। इस प्रकार यद्यपि धर्म-सुधार आंदोलन सामाजिक और धार्मिक जीवन के विरूद्ध एक असाधारण प्रक्रिया थी, किंतु उसने राज्य और व्यक्ति के जीवन को सर्वाधिक प्रभावित किया।
धर्म-सुधार आंदोलन के दो स्वरूप थे- एक धार्मिक और दूसरा राजनीतिक। इस आंदोलन से ईसाइयों में जो धार्मिकता, नैतिकता और आध्यात्मिकता की वृद्धि हुई, उस दृष्टि से तो यह धर्मसुधार आंदोलन था, किंतु पोप के विशेषाधिकारों के विरूद्ध राष्ट्रीय राजतंत्र और पोप में जो परस्पर संघर्ष छिड़ा, उस दृष्टि से इसका स्वरूप राजनीतिक था।
यूरोपीय धर्मसुधार का ऐतिहासिक विकास
यद्यपि तेरहवीं सदी में ही चर्च में कुछ परिवर्तन किये गये थे, किंतु वे आधुनिक युग की आवश्यकताओं के समान नहीं थे। आधुनिक युग के आगमन से तथा पुनर्जागरण के कारण यूरोप की जनता तर्कवादी हो चुकी थी और अंधविश्वासों और पाखंडों को मानने के लिए तैयार नहीं थी। इसी समय कुछ सुधारकों ने पोप की आचरणहीनता एवं विलासिता को अपने लेखों और भाषणों के माध्यम से जनता को परिचित कराया। धीरे-धीरे धर्म सुधार आंदोलन शक्तिशाली होता गया और उसका प्रभाव पूरे यूरोप के देशों पर दिखाई देने लगा। आंदोलन को सफल बनाने में जर्मनी के मार्टिन लूथर का महत्वपूर्ण योगदान रहा। उसने पोप का घोर विरोध किया और एक नवीन संप्रदाय को जन्म दिया जिसे ‘प्रोटेस्टेंट’ कहते हैं।
जर्मनी के लूथर द्वारा प्रवर्तित सुधार आंदोलन ने विभिन्न रूप धारण कर समस्त यूरोप को हिला दिया। स्विटजरलैंड में धर्म सुधार के दो नेता सर्वप्रधान थे- जूरिक में ज्विंगली (1424-1436 ई.) और जेनेवा में काल्विन (1509-1564 ई.), दोनों के अनुयायी बाद में एक ही काल्विनवाद में सम्मिलित हो गये। यह संप्रदाय हॉलैंड,स्कॉटलैंड तथा फ्रांस के कुछ भागों में भी फैल गया। स्कॉटलैंड में इसका नाम प्रेसबिटरीय धर्म रखा गया है। फ्रांस में पहले लूथर का प्रभाव पड़ा, किंतु बाद में वहाँ के अधिकांश प्रोटेस्टेंट धर्मावलंबी, जो यूग्नो कहलाते थे, काल्विन के अनुयायी बन गये। इंग्लैंड का राजा हेनरी अष्टम् जीवन भर अपने राज्य में प्रोटेस्टेंट सिद्धांतों का प्रचार रोकने का प्रयास करता रहा, फिर भी, उसने व्यक्तिगत कारणों से 1531 ई. में इंग्लैंड के कैथोलिक धर्म को रोम से अलग कर दिया। इस प्रकार धर्म सुधार आंदोलन के कारण यूरोप के ईसाई संसार की एकता छिन्न-भिन्न हो गई। शासन की दृष्टि से पूर्ण रूप से स्वतंत्र संप्रदायों का उद्भव हुआ, जो एक ही ईसा और बाइबिल को मानते हुए भी अनेक मूलभूत धर्म सिद्धांतों के विषय में भिन्न भिन्न मतों का प्रतिपादन करते हैं।
धर्म सुधार आंदोलन के कारण
15वीं शताब्दी के आरंभ में कैथोलिक जनता की दयनीय दशा और पोप की निष्क्रियता, पोप और चर्च की संपत्ति हड़पने की राजनेताओं की उत्सुकता, पुनर्जागरण के कारण व्यक्तिगत स्वतंत्रता और मानववादी आंदोलन के प्रसार, मुद्रण के आविष्कार आदि धर्म सुधार आंदोलन में सहायक सिद्ध हुए, किंतु धर्म सुधार आंदोलन की सफलता के लिए अन्य कई कारण भी उत्तरदायी थे-
चर्च और पोप के प्रति श्रद्धाभाव की कमी
ईसा द्वारा प्रवर्तित कैथोलिक चर्च के प्रति ईसाइयों में जो श्रद्धा का भाव शताब्दियों से चला आ रहा था, वह कई कारणों से कम हो गया था। 14वीं शताब्दी में एक फ्रांसीसी पोप का चुनाव हुआ था, जो जीवनभर फ्रांस की सीमा पर स्थित एयुग्नेन में रहा। इसके बाद 1378 ई. में दो पोप हो गये, एक फ्रांस में और एक रोम में, दोनों एक-दूसरे का ‘नास्तिक’ कहने लगे, जिससे समस्त कैथोलिक संसार 1417 ई. तक दो भागों में विभक्त रहा। इससे पोप के प्रति श्रद्धा कम हो गई और उसकी शक्ति के पतन के लक्षण दृष्टिगत होने लगे।
चर्च के केंद्रीय संगठन की इस दुर्दशा के अतिरिक्त विभिन्न धर्मप्रांतों की परिस्थिति भी संतोषजनक नहीं थी। इस समय समस्त पश्चिमी यूरोप लगभग सात सौ धर्मप्रांतों में विभक्त था। उनके शासक बिशप कहलाते थे। ये बिशप सामंत थे जो राजा द्वारा प्रायः अभिजात वर्ग में से चुने जाते थे और जर्मनी में प्रायः अपने क्षेत्र के राजनीतिक शासक भी थे। अतः बहुत से बिशप राजनीति में अधिक, धर्म में कम रुचि लेते थे और अपने धर्मप्रदेश का धार्मिक प्रशासन पुरोहितों के हाथ में छोड़ देते थे। इसलिए इस समय चर्च के सभी क्षेत्रों में सुधार की अपेक्षा थी और धर्म सुधार का आंदोलन अनिवार्य हो गया था।
राजनीतिक कारण
चर्च और पोप के पास व्यापक राजनीतिक और आर्थिक अधिकार और शक्तियाँ थीं। पोप से लेकर गाँव के पादरी तक चर्च के सभी अधिकारी राजा की सत्ता से स्वतंत्र थे। उनके पास विशाल जागीरें थी और राज्य के करों से मुक्त थे, लेकिन जनता से विभिन्न प्रकार के कर वसूल करते थे। चर्च के स्वतंत्र न्यायालय भी थे, जहाँ वे जनता के मुकदमों को सुनते और निर्णय देते थे। पोप राज्य के आंतरिक और बाहरी मामलों में हस्तक्षेप करता था। वह राजा को ईसाई धर्म से बहिष्कृत करने, राज्य में चर्च के पादरियों और अधिकारियों को नियुक्ति करने का आदेश भी दे सकता था। उदीयमान राष्ट्रीय राजाओं ने चर्च और पोप के इन व्यापक धामिक और राजनीतिक अधिकारों का घोर विरोध किया, क्योंकि पोप के विस्तृत अधिकार राष्ट्रीय राजतंत्रों के विकास में बाधक थे। नवीन शासक और राजकुमार पोप के इन अवांछनीय अधिकारों को समाप्त कर अपनी प्रभुसत्ता और शक्ति को सुदृढ़ करना चाहते थे।
राष्ट्रीय भावना का विकास
जन-साधारण में यह भावना भी पैदा हुई कि पोप एक विदेशी सत्ता है। इससे विभिन्न देशों की जनता को लगा कि अपने देश की उन्नति और विकास के लिए पोप के प्रभाव व अधिकारों को समाप्त किया जाना चाहिए। शासक वर्ग अपनी निरंकुश राजसत्ता के अधिकार को दृढ़ करने और अपने राज्य के चर्च की अतुल धन-संपत्ति और जागीरों को हड़पने के लिए लालायित थे।
आर्थिक कारण
मध्ययुगीन यूरोप में सामंतवादी व्यवस्था में कृषकों और श्रमिकों को व्यक्तिगत स्वतंत्रता नहीं थी। परंतु सोलहवीं सदी में विभिन्न कारणों से सामंतवादी व्यवस्था का विघटन हो गया और व्यापार, वाणिज्य और उद्योगों के विकास के कारण कृषक, कारीगर और मजदूर विभिन्न उद्योग-धंधों एवं कल-कारखानों में लग गये। वाणिज्यवाद और पूँजीवाद के उत्कर्ष से समाज में संपन्न वणिक वर्ग और उद्योगपतियों का उदय हुआ। चर्च ब्याज और मुनाफा अर्जित करने के साधनों को वर्जित करता था। फलतः इस नवीन पूँजीवादी वणिक वर्ग ने चर्च का विरोध किया। इसके अलावा नवोदित वणिक चर्च की अतुल संपत्ति को भी अपने व्यापार और उद्योगों की वृद्धि के लिए हड़पना चाहता था, क्योंकि उसका मानना था कि चर्च की धन-संपत्ति अनुत्पादक है।
चर्च की असंख्य भू-स्वामित्व जागीरों से, विभिन्न करों, चंदों एवं अनुदानों से चर्च के पास अतुलनीय धन संपत्ति संग्रहीत हो गई थी। इसका उपयोग चर्च के पादरी और अधिकारी सांसारिकता और भोगविलास में करते थे। इससे जनसाधारण में रोष व्याप्त था। इसलिए जनसाधारण ने भी धर्म सुधार आंदोलन को समर्थन और सहयोग दिया।
धार्मिक कारण
आधुनिक युग के प्रारंभ होने तक चर्च और पोपशाही में अनेक दोष उत्पन्न हो चुके थे। चर्च के बहुसंख्यक पादरी और धर्माधिकारी अपने धार्मिक कर्तव्यों की उपेक्षा कर आचरण-भ्रष्ट व अनैतिक हो गये थे तथा सांसारिक सुख-सुविधाओं और विलासिता में लिप्त थे। रोम में पोप का दरबार भयंकर व्यभिचार और भ्रष्टाचार का अड्डा बन गया था। पोप का व्यक्तिगत जीवन भी अनैतिकता और अनाचार से भरा था। पोप एलेक्जेंडर षष्ठ (1492-1503 ई.) ने तो अपनी विलासिता के लिए एक पूरा हरम रखा था और इस व्यभिचार से उत्पन्न अपने अवैध पुत्रों के लिए जागीरें खोजा करता था।
इसके साथ ही चर्च के विभिन्न पदों पर नियुक्तियाँ योग्यता के आधार पर न होकर धन के आधार पर होने लगी थीं। पोप गिरजाघरों के विभिन्न पदों को बेचता था। चर्च में एक दोष ‘प्लुरेलिटिज’ प्रथा थी, जिसके अंतर्गत एक ही पादरी अनेक गिरजाघरों का अध्यक्ष हो सकता था और अनेक पदों पर कार्य कर सकता था। इससे एक ही व्यक्ति की सत्ता और संपन्नता में वृद्धि हो रही थी।
चर्च में व्याप्त इस अनैतिकता और विलासिता के अतिरिक्त चर्च जनसाधारण का शोषण भी करता था। चर्च द्वारा विभिन्न करों, उपहारों और दानों से धन एकत्र किया जाता था। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आय का दसवाँ भाग (टाइथ) चर्च को देना अनिवार्य था। इस आर्थिक शोषण के कारण जनसाधारण में आक्रोश तो था ही, करों द्वारा एकत्रित धन देश के बाहर पोप के पास रोम भेजे जाने से नवीन शासक वर्ग भी चर्च और पोप के विरोधी हो गये थे।
पोप ईसाई जगत का अनधिकृत सम्राट समझा जाता था और वह स्वयं को ईश्वर का प्रतिनिधि मानता था। पोप समस्त ईसाई राज्यों का संरक्षक होता था। उसने प्रत्येक देश में अपने प्रतिनिधि ‘लिगेट’ और ‘ननसियस’ नियुक्त किये थे, जो पोप के अतिरिक्त किसी अन्य की आज्ञा को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। अपनी शक्तियों को और अधिक निरंकुश बनाने के लिए पोप के पास दो विषेशाधिकार थे, जिनका प्रयोग कर वह समय-समय पर अपनी निरंकुशता का परिचय देता रहता था- एक विशेषाधिकार ‘इंटरडिक्ट’ का था जिसके द्वारा वह किसी देश के एक अथवा समस्त गिरजाघारों को बंद करने का आदेश दे सकता था, जिससे उस देश में जन्म, विवाह, मृत्यु आदि अवसरों पर होनेवाले समस्त धार्मिक कर्तव्यों पर प्रतिबंध लग जाता और जनता को अपार कठिनाइयों का सामना करना पड़ता। दूसरे विशेषाधिकार ‘एक्सकम्यूनिकेशन’ का प्रयोग कर पोप किसी भी देश के राजा को ईसाई धर्म से च्युत् कर सकता था और उसे उसके पद से हटा सकता था। इस प्रकार राजा और जनता दोनों पोप से भयभीत रहते थे। आधुनिक काल का प्रारंभ होते ही यूरोप के ईसाई देशों में से अनेक देशों की जनता पोप की इस निरंकुशता को समाप्त करने के लिए प्रयत्नशील हो गई।
पुनर्जागरण का प्रभाव
पुनर्जागरण के कारण यूरोपीय समाज तर्कवादी हो गया था। अब जनता बिना किसी प्रमाण या तर्क के किसी भी सिद्धांत या बात को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थी। इस तर्कवाद का धार्मिक क्षेत्र पर गंभीर प्रभाव पड़ा। इसके अलावा बाइबिल का क्षेत्रीय भाषाओं में अनुवाद किया गया और छापेखाने के आविष्कार से बाइबिल जनसाधारण को सुगमता से उपलब्ध होने लगी। यूरोप के कई सुधारकों ने इटली की यात्रा की और अपने देश लौटकर पोप और चर्च की बुराइयों से जनता को अवगत कराया, जिससे धर्म सुधार आंदोलन को व्यापक स्वीकार्यता मिल सकी।
तात्कालिक कारण
धर्म-सुधार आंदोलन का सूत्रपात पाप-मोचन पत्रों की बिक्री से हुआ। पोप लिओ दशम अपने आपको ईश्वर का प्रतिनिधि मानता था और उसने सेंट पीटर के विशाल गिरजाघर के निर्माण के लिए अधिकतम धन संग्रह करने के लिए ‘क्षमा-पत्रों’ या ‘पापमोचन-पत्रों’ को अपने पादरियों द्वारा जनता में बेचना शुरू किया। कोई भी व्यक्ति अपने पापों से मुक्ति के लिए धन देकर क्षमा-पत्र खरीद सकता था। पोप ने यह प्रचार किया था कि जो व्यक्ति मृत्यु के पूर्व पाप-मोचन पत्र खरीद लेगा, वह मृत्यु के बाद स्वर्ग प्राप्त करेगा।
1817 ई. में पोप का प्रतिनिधि टेंटजेल क्षमा-पत्रों को खुलेआम बेचता हुआ जर्मनी के विटेनवर्ग पहुँचा तो मार्टिन लूथर ने क्षमा-पत्रों की बिक्री का कड़ा विरोध किया और अपने लिखित ‘95 प्रश्नों’ द्वारा पोप के विरूद्ध खुला विद्रोह कर दिया। लूथर का कथन था कि धन देकर मोक्ष प्राप्त नहीं किया सकता, बल्कि पापों से मुक्ति पाने के लिए ईश्वर पर विश्वास रखना, ईश्वर की दया प्राप्त करना और अच्छे कर्म करना आवश्यक है। लूथर ने पाप-मोचन पत्रों को निरर्थक बताया और इस प्रकार धर्मसुधार आंदोलन का प्रारंभ हो गया।
धर्मसुधार आंदोलन के प्रमुख प्रणेता
मार्टिन लूथर के पूर्व धर्म सुधारकों ने चैदहवीं सदी से ही चर्च और पोपशाही की अनैतिकता, भ्रष्टता, विलासिता ओर शोषण के विरूद्ध अपनी आवाज बुलंद करना आरंभ कर दिया था और धर्म-सुधार की पृष्ठभूमि तैयार कर दी थी। प्रमुख धर्म-सुधारकों का विवरण इस प्रकार है-
जान वाइक्लिफ
इंग्लैंड का जान वाइक्लिफ (1320 ई.-1384 ई.) एक प्रसिद्ध धर्म-सुधारक था, जो ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में प्रोफेसर था। वाइक्लिफ ने कैथोलिक धर्म और चर्च की अनेक गलत परंपराओं और गतिविधियों की ओर जनसाधारण का ध्यान आकृष्ट किया। उसने साधारण जनता को ईसाई धर्म के वास्तविक सिद्धांतों को समझने के लिए बाइबिल का अंग्रेजी में अनुवाद किया।
जान हस
दूसरा महत्त्वपूर्ण धर्म-सुधारक जर्मनी के बोहेमिया का चेक निवासी जान हस था जो प्राग विश्वविद्यालय में प्रोफेसर था। उसने यह मत प्रतिपादित किया कि एक साधारण ईसाई बाइबिल के सिद्धांतों का अनुकरण कर मुक्ति प्राप्त कर सकता है। इसके लिए गिरजाघर और पादरी की आवश्यकता नहीं है। पोप और चर्च की आलोचना करने के कारण उसे नास्तिकता के आरोप में 1415 ई. में जीवित जला दिया।
सेवोनारोला
इटली में फ्लोरेंस नगर के विद्वान पादरी सेवोनारोला (1452 ई.-1498 ई.) ने भी पोप की अनैतिकता, भ्रष्टता और विलासिता तथा कैथोलिक चर्च में व्याप्त दोषों की कटु आलोचना की थी, जिसके कारण उसे भी 1498 ई. जीवित जला दिया गया था।
इरेस्मस
हालैंड निवासी इरेस्मस (1466 ई.-1536 ई.) ने लैटिन साहित्य तथा ईसाई धर्मशास्त्रों का अध्ययन किया था। 1484 ई. में वह ईसाई मठ में धार्मिक जीवन व्यतीत करने चला गया। 1492 ई. तक उसने एक पादरी के पद पर कार्य किया। वहाँ उसने कैथोलिक चर्च व मठों में व्याप्त भ्रष्टाचार और विलास को स्वयं देखा। 1499 ई. में इरेस्मस इंग्लैंड गया, जहाँ वह टामस, मूर, जान कालेट, टामस लिनेकर जैसे विद्वानों के संपर्क में आया। उसने ‘कलेक्टिनिया एडगियोरम’, ‘कोलोक्वीज’, ‘हैंडबुक आफ ए क्रिश्चयन गोल्जर’ और 1511 ई. में ‘दि प्रेज आफ फौली’ की रचना की। अपने अंतिम ग्रंथ में इरेस्मस ने व्यंग्य और परिहास की शैली में धर्माधिकारियों की पोल खोल दी और चर्च में व्याप्त दोषों और अनैतिकता पर प्रहार किये। दि प्रेज आफ फौली के संबंध में कहा जाता कि ‘लूथर के क्रोध की अपेक्षा इरेस्मस के उपहासों ने पोप को अधिक हानि पहुँचाई।
इरेस्मस ने 1515 ई में उसने बाइबिल का लैटिन भाषा में अनुवाद किया। किंतु इरेस्मस के विचार लूथर के समान उग्र नहीं थे। उसने कभी भी चर्च का खुला विरोध नहीं किया।
यूरोप में धर्मसुधार आंदोलन का आरंभ
जर्मनी में धर्मसुधार और लूथरवाद
जर्मनी में धर्मसुधार आंदोलन का प्रणेता मार्टिन लूथर (1483 ई.-1546 ई.) था। टाइम पत्रिका के अनुसार पूरे इतिहास में जितनी किताबें मार्टिन लूथर पर लिखी गयी हैं उतनी शायद ही किसी और के बारे में लिखी गई हों, सिवाय उसके स्वामी यीशु मसीह के। लूथर ने उसने जर्मन भाषा में बाइबिल का अनुवाद किया और तत्कालीन कैथोलिक धर्म में प्रचलित सप्त संस्कारों के सिद्धांत का खंडन किया। उसने एक नया ईसाई संप्रदाय चलाया, जिसे (प्रोटेस्टैंट) कहा जाता है।
मार्टिन लूथर जन्म 10 नवंबर 1483 को जर्मनी में सेक्सनी क्षेत्र के गाँव आइबेन में एक साधारण किसान परिवार में हुआ था। उसके पिता उसे वकील बनाना चाहते थे, लेकिन उसने इरफर्ट विश्वविद्यालय में कानून की जगह धर्मशास्त्र और मानववादी शास्त्र का अध्ययन शुरू किया और वहाँ की लाइब्रेरी में पहली बार बाइबिल पढ़ी। 22 साल की उम्र में लूथर एरफर्ट के अगस्तीन मठ का सदस्य बन गया। उसने विटेनबर्ग के विश्वविद्यालय में धर्मविज्ञान में डाक्टरेट की डिग्री हासिल की। 1508 ई. में वह विटेनवर्ग के विश्वविद्यालय में धर्म और दशर्नशास्त्र का प्रोफेसर नियुक्त हुआ। उसने ईसाई धर्म और संतों के सिद्धांतों का गहन अध्ययन किया और वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि मोक्ष-प्राप्ति के लिए मनुष्य में ईश्वर के प्रति श्रद्धा एवं ईश्वर की क्षमाशीलता में विश्वास नितांत आवश्यक है। लूथर स्वयं कैथोलिक धर्म का अनुयायी था और पोप क प्रति उसके मन में अपार श्रद्धा थी।
1511 ई. में लूथर को रोम जाने का अवसर मिला, किंतु रोम पहुँचने पर पोप की विलासमयी जीवन-शैली को देखकर उसकी वह हतप्रभ रह गया। उसने देखा कि वहाँ धर्माधिकरी विभिन्न तरीकों से धन कमाकर विलासिता का जीवन जी रहे हैं। उसने कहा कि, ‘ईसाई धर्म रोम के जितना निकट है, उतना ही दोषयुक्त है।’ किंतु लूथर ने पोप का विरोध नहीं किया, बल्कि वह चर्च में सुधार करने के विषय में सोचने लगा।
क्षमा-पत्रों का विरोध
इस बीच एक ऐतिहासिक घटना घटी, जिससे लूथर पोप का विरोधी हो गया। वह ऐतिहासिक घटना थी क्षमा-पत्रों की बिक्री का विरोध। क्षमा-पत्र एक ऐसा मुक्ति-पत्र होता था जिसको कोई भी व्यक्ति धन देकर पोप या उसके प्रतिनिधियों से खरीद सकता था। पोप का कहना था कि इन क्षमा-पत्रों को खरीदनेवाले के समस्त पाप धुल जायेंगे।
1517 ई. में क्षमा-पत्रों (इंडलजेंस) की बिक्री करता हुआ पोप का एक प्रतिनिधि टेटजेल विटेनवर्ग पहुँचा। टेटजेल ने यहाँ तक घोषणा की कि यदि कोई भविष्य में भी पाप करना चाहता है तो भी यदि वह क्षमा-पत्रों को खरीद लेगा तो वह पाप से मुक्त माना जायेगा। उसका कहना था कि, ‘‘जैसे ही क्षमा-पत्रों के लिए दिये गये सिक्कों की खनक गूँजती है, तो उस आदमी की आत्मा सीधे स्वर्ग में प्रवेश कर जाती है।’’
क्षमा-पत्रों की खरीद-फरोख्त से लूथर का गुस्सा भड़क उठा।उसने जर्मनी की जनता को समझाया कि यह धन उगाहने का एक साधन मात्र है क्योंकि मानव कभी परमेश्वर के साथ किसी तरह का सौदा कर ही नहीं सकता। लूथर ने क्षमा-पत्रों की खरीद-फरोख्त के विरोध में 31 अक्टूबर, 1517 ई. को विटेनवर्ग के कैसल गिरजाघर की दीवारों पर अपने 95 प्रश्नों (95 थीसिसें) को चिपका दिया। इन प्रश्नों के द्वारा उसने इंडलजेंस (क्षमा-पत्रों) की बिक्री के औचित्य को चुनौती दी।
लूथर ने तर्क दिया कि क्षमापत्र के द्वारा मनुष्य चर्च के लगाये दंड से मुक्त हो सकता है, किंतु मृत्यु के पश्चात् वह ईश्वर के लगाये दंड से छुटकारा नहीं पा सकता और न अपने पाप के फल से बच सकता है। लूथर चर्च के खिलाफ बगावत नहीं करना चाहता था, बल्कि उसमें सुधार लाना चाहता था। इसलिए उसने अपने प्रश्नों की कापियाँ, मेयान्स के आर्चबिशप ऐल्बर्ट और कई विद्वानों को भेजीं। उसने अपने 95 प्रश्नों को छपवाकर लोगों में वितरित किया, जिससे चर्च में सुधार का आंदोलन व्यापक बहस का विषय बन गया और देखते-ही-देखते मार्टिन लूथर जर्मनी में सबसे प्रसिद्ध हो गया। इस प्रकार 1517 से ही धर्मसुधार आंदोलन की शुरूआत मानी जाती है।
लूथर के विचारों से पोप लियो दशम को बड़ी घबराहट हुई और उसने अपने सिद्धांतों के प्रचार के लिए डा. जान नामक एक धर्मशास्त्री को जर्मनी भेजा। डा. जान से लूथर ने वाद-विवाद किया और लूथर ने ईश्वर तथा मनुष्य के मध्य पोप को निरर्थक बताया। इसके साथ ही पोप ने तीन वर्चे- ‘ऐन एड्रेस टू दि नोबिलिटी आफ जर्मन नेशन’, ‘आन दि लिबर्टी आफ दि क्रिश्चियन मैन’ और ‘आन दि बेबिलोनिश केप्विटी आफ दि चर्च’, प्रकाशित कर पोप का विरोध किया और जनसाधारण को सत्य से अवगत कराने का प्रयास किया।
लूथर के विरूद्ध पोप की कार्यवाही
लूथर के 95 प्रश्नों के जवाब में पोप ने एक हुक्मनामा भेजा कि यदि वह अपनी प्रश्नों को वापस लेकर माफी नहीं माँगेगा, तो उसे चर्च से बहिष्कृत कर दिया जायेगा। इस धमकी के बावजूद भी लूथर टस-से-मस नहीं हुआ और उसने खुलेआम पोप के हुक्मनामे को जला दिया। फलतः 1521 ई. में पोप लियो दशम ने लूथर को धर्म-बहिष्कृत कर दिया।
पोप ने लूथर से निपटने के लिए अपने परम भक्त सम्राट चार्ल्स पंचम से कहा। चार्ल्स पंचम ने 1529 ई. में वम्र्स में शाही लोगों की एक बैठक बुलाई और लूथर को अपनी सफाई देने का आदेश दिया। संभव था कि वहाँ जाने पर लूथर को भी अन्य धर्म-सुधारकों तरह जीवित जला दिया जाता, क्योंकि इसके पहले 1415 ई. में कान्सटन्स में जान हस की इसी तरह सुनवाई हुई थी और बाद में उसे जिंदा जला दिया गया था। किंतु निडर लूथर ने बैठक में उपस्थित होकर कहा, ‘‘जब तक मुझे बाइबिल अथवा तर्क से गलत न प्रमाणित कर दें, मैं अपनी बात वापस लेने को तैयार नहीं हूँ क्योंकि अंतःकरण के विरूद्ध आचरण करना न तो पवित्र है और न ही उचित।’’ फलतः चार्ल्स और लूथर में समझौता नहीं हो सका। अब चार्ल्स ने लूथर को एक अपराधी करार दिया और उसकी रचनाओं पर प्रतिबंध लगा दिया।
लूथर को जान का खतरा था, लेकिन सेक्सनी के फ्रेडरिक ने लूथर को संरक्षण दिया। उसके संरक्षण में लूथर युनकायोर्ग नाम से दस महीने रहा और इसी समय लूथर ने जर्मन भाषा में बाइबिल का अनुवाद किया। 1525 में मार्टिन लूथर ने काटारीना फान बोरा से शादी कर ली, जो पहले एक नन थी। लूथर ने अपने घर में ‘लूटर्स टिशरेडन’ (लूथर्स टेबल टाक) को पूरा किया, जो बाइबिल के बाद जर्मन भाषा की दूसरी सबसे मशहूर किताब थी।
प्रोटेस्टेंट संप्रदाय का जन्म
लूथर और पोप के बीच के धार्मिक वाद-विवाद को हल करने के लिए पवित्र रोमन साम्राज्य की एक सभा 1526 ई. में स्पीयर में बुलाई गई, लेकिन यह सभा किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकी। इसके बाद 1529 ई. में स्पीयर में दूसरी धार्मिक सभा का आयोजन किया गया, जिसमें लूथरवाद में विरोध में कठोर आदेश जारी किये गये। सभा द्वारा एकपक्षीय निर्णय दिये जाने के कारण लूथर के समर्थकों ने दूसरी धार्मिक सभा के निर्णयों का घोर विरोध किया और सभा के आदेशों को मानने से इनकार कर दिया। चूंकि लूथर के समर्थकों ने पोप के आदेशों का विरोध (प्रोटटेस्ट) किया था, इसलिए उसके समर्थकों द्वारा चलाया गया संप्रदाय ‘प्रोटेस्टेंट आंदोलन’ कहलाया। इस संप्रदाय की विधिवत् स्थापना 1530 ई. में की गई, जिसमें लूथरवाद के सिद्धांतों को मान्यता दी गई।
लूथरवाद के सिद्धांत
मार्टिन लूथर द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत और विचार बहुत सुगम थे। लूथरवाद के कुछ प्रमुख सिद्धांत निम्नलिखित हैं-
- ईसा और बाइबिल की सत्ता स्वीकार की गई, लेकिन पोप और चर्च की दिव्यता और निरंकुशता को नकार दिया गया।
- मुक्ति के लिए चर्च द्वारा निर्धारित कर्मों के स्थान पर आस्था और श्रद्धा को मुक्ति का साधन बताया गया।
- चर्च के सात संस्कारों में से केवल तीन- नामकरण, प्रायश्चित और प्रसाद (बैप्टिज्म, पेनैंस और यूकेरिस्ट) ही स्वीकार किये गये।
- चर्च में चमत्कार, ईसा को समर्पित रोटी और शराब का माँस और खून में परिवर्तित हो जाना जैसे अंधविश्वासों को स्वीकार नहीं किया गया।
- रोम के चर्च के प्रभुत्व को समाप्त करके राष्ट्रीय चर्च की शक्ति को मान्यता दी गई।
- धर्मग्रंथ सबके लिए समान हैं, इसलिए किसी को उनका अध्ययन किये जाने से नहीं रोका जाना चाहिए।
- सभी के लिए समान न्याय-व्यवस्था मानी गई, चाहे वह पोप ही क्यों न हो।
- चर्च में भ्रष्टाचार को रोकने के लिए पादरियों को भी विवाह करने की अनुमति दी गई।
इस प्रकार लूथरवाद के सिद्धांत सात्विक और धार्मिक भाव से प्रेरित थे। शीघ्र ही प्रोटेस्टेंट संप्रदाय जर्मनी में लोकप्रिय हो गया और कैथोलिक धर्म का विरोध होने लगा। उस समय समस्त जर्मनी लगभग चार सौ स्वतंत्र राज्यों में विभक्त था। उनके अधिकांश छोटे-छोटे शासकों ने कैथोलिक सम्राट् चार्ल्स पंचम के विरोध में लूथरवाद को सरंक्षण दिया। प्रोटेस्टेंट संप्रदाय के समर्थकों ने कैथोलिक चर्च के विरूद्ध विद्रोह कर दिया और चर्च की संपत्ति को छीन लिया।
आग्सबर्ग की संधि, 1555 ई.
लूथरवाद के बढ़ते प्रभाव से चिंतित सम्राट चार्ल्स पंचम ने लूथरवादियों का दमन करना आरंभ कर दिया। समस्या के समाधान के लिए आग्सबर्ग में एक सभा आयोजित की गई जहाँ लूथरवादियों ने अपने सिद्धांत को सम्राट के समक्ष रखा, किंतु चार्ल्स पंचम ने उन्हें मानने से इनकार कर दिया। 1546 ई. में लूथर की मृत्यु हो गई। लूथर की मृत्यु के बाद प्रोटेस्टेंट आंदोलन ने गृह-युद्ध का रूप धारण कर लिया, जो 1555 ई. तक चलता रहा। अंततः1555 ई. में प्रिंस फर्डिनेंड, जो चार्ल्स पंचम का छोटा भाई था, ने प्रोटेस्टेंट अनुयायियों के साथ आग्सबर्ग की संधि (Treaty of Augsburg) की।
आग्सबर्ग की संधि (Treaty of Augsburg) के अनुसार प्रत्येक शासक को अपना और अपनी जनता की धर्म चुनने का अधिकर मिला, प्रोटेस्टेंटों द्वारा छीनी गई संपत्ति और जागीर उनकी मान ली गई, साम्राज्य की परिषद् में कैथोलिकों और प्रोटेस्टों को समान प्रतिनिधित्व देने की बात कही गई और यह तय किया गया कि लूथरवाद (प्रोटेस्टेंट) के अतिरिक्त किसी अन्य संप्रदाय को मान्यता नहीं दी जायेगी। किंतु इस संधि का एक प्रमुख दोष यह था कि इस संधि द्वारा काल्विनवाद और ज्विंगलीवाद को मान्यता नहीं दी गई जिसके कारण पुनः धार्मिक संघर्ष आरंभ हो गया, जो तीसवषीय युद्ध के बाद वेस्टफेलिया की संधि से 1748 ई. में समाप्त हुआ।
लूथर का महत्व मात्र इतना ही नहीं है कि उसने धर्म सुधार आंदोलन को आरंभ किया, बल्कि इसलिए भी है कि उसने पोप के खिलाफ राजाओं और मध्यमवर्ग की राष्ट्रीय भावना को उभारा। उसने जर्मन भाषा में अपने विचारों का प्रचार कर जर्मन भाषा को लोकप्रिय बनाया तथा जर्मन राष्ट्रवाद को जीवंत और संगठित किया।
स्विटजरलैंड में धर्मसुधार : काल्विनवाद
स्विटजरलैंड में धर्म सुधार आंदोलन का रूप लूथरवाद से थोड़ भिन्न था। स्विटजरलैंड में धर्म सुधार आंदोलन के दो नेता सर्वप्रधान थे- जूरिक में ज्विंगली (1424-1436 ई.) और जिनेवा में काल्विन (1509-1564 ई.), दोनों के अनुयायी बाद में एक ही केल्विनिस्ट चर्च में सम्मिलित हो गये।
ज्विंगली
ज्विंगली (1484-1531 ई.) का जन्म स्विटजरलैंड के टोगेनबर्ग नामक प्रांत में एक समृद्ध किसान के घर हुआ था। उसने वियेना और बासेल के विश्वविद्यालयों में शिक्षा पाई थी। अध्ययन के दौरान ही ज्विंगली की रूचि प्राचीन साहित्य ओर मानववाद की ओर हो गई थी। यद्यपि वह एक कैथोलिक था, लेकिन उसने चर्च के दोषों एवं अपने देश की राजनीतिक विसंगतियों और गलत नीतियों का विरोध किया। ज्विंगली को अपने विचारों का प्रसार करने का अवसर उस समय मिला जब वह कैथेड्रेल के धर्मोपदेशक के पद पर था। उसने पोप की सर्वोच्चता को अस्वीकार कर बाइबिल की सर्वोच्चता पर जोर दिया। 1523 ई. में उसने कैथोलिक-चर्च से अपना नाता तोड़ लिया और एक नये प्रोटेस्टेंट चर्च की स्थापना की।
ज्विंगली के विचार स्विटजरलैंड में तेजी से फैलने लगे जिसके कारण 1529 में गृहयुद्ध शुरू हो गया। एक ओर ज्विंगलीवादी तो दूसरी ओर कैथोलिक। इस गृहयुद्ध में 1531 ई. में ज्विंगली मारा गया। इसके बाद दोनों संप्रदायों में 1531 ई. में कापेल की संधि हुई जिसके अनुसार प्रत्येक कैंटन को अपना धर्म निर्धारित करने का अधिकार मिला।
काल्विन
यदि स्विटजरलैंड में धर्म सुधर आंदोलन शुरू करने का श्रेय ज्विंगली को है, लेकिन ज्विंगली के सुधार आंदोलन को पुनर्जीवित कर उसे अंतर्राष्ट्रीय प्रोटेस्टेंट संप्रदाय का स्वरूप प्रदान करने का श्रेय काल्विन को प्राप्त है।
काल्विन का जन्म 1509 ई. में फ्रांस के नीओ नगर में हुआ था। उसका पिता एक वकील और नोयों के बिशप का सचिव था। काल्विन ने पेरिस विश्वविद्यालय से धर्म और साहित्य की शिखा प्राप्त करने के बाद अर्लेआं विश्वविद्यालय से कानून की पढ़ाई की। लूथर के विचारों को पढ़कर चौबीस साल की उम्र में काल्विन ने 1533 ई. प्रोटेस्टेंट धर्म को अपना लिया और चर्च से संबंध तोड़ लिया।
जब फ्रांस की धार्मिक उथल-पुथल को समाप्त करने के लिए फ्रांस के फ्रांसिस प्रथम ने प्रोटेस्टेंटों को कुचलना आरंभ किया तो काल्विन ने भागकर स्विटजरलैंड के वासेल नगर में शरण ली। वहीं काल्विन ने 1536 ई. में ‘ईसाई धर्म की स्थापनाएँ’ (इंस्टीट्यूट्स आफ द क्रिश्चियन रिलीजन) नामक पुस्तक लिखी, जिसमें उसने प्रोटेस्टेंट विचारधारा के सिद्धांतों का समन्वित संकलन किया। यह पुस्तक बाद में प्रोटेस्टेंटवाद के इतिहास की सबसे प्रभावशाली पुस्तक सिद्ध हुई। फ्रांसीसी भाषा में इस पुस्तक का वही स्थान है जो जर्मन भाषा में लूथर के बाइबिल के अनुवादों को है।
काल्विन के विचार बड़े उग्र थे। उसकी माँग थी कि त्योहार नहीं मनाये जायें, आमोद-प्रमोद की मंडलियाँ न बैठें और थियेटरों को बंद कर दिया जाये। वह चाहता था कि यौन-व्यभिचार के अपराध में मृत्युदंड दिया जाये। उसमें उदारता का नितांत अभाव था और वह इतना असहिष्णु था कि बहुत से लोगों को उसने सिर्फ इसलिए जलवा दिया था कि वे उससे सहमत नहीं थे। यद्यपि काल्विन फ्रांसीसी था, लेकिन उसने जिनेवा को अपना कार्यक्षेत्र बनाया। 1536 ई. से अपनी मृत्यु के समय 1564 ई. तक वह वहीं रहा।
काल्विन ने बाइबिल की सर्वोच्च सत्ता और ईश्वर की इच्छा के सम्मुख सभी प्राणियों की असहाय स्थिति को स्वीकार किया है। उसके अनुसार ईश्वर की इच्छा से ही सब कुछ होता है, इसलिए मनुष्य की मुक्ति न कर्म से हो सकती है न आस्था से। काल्विन ने ‘पूर्व नियति का सिद्धांत’ पर बल देते हुए स्वीकार किया है कि मनुष्य के पैदा होते ही यह तय हो जाता है कि उसका उद्धार होगा या नही। वैसे देखने पर इससे घोर भाग्यवादिता बढ़नी चाहिए थी, किंतु काल्विनवाद ने ठीक इसके विपरीत अपने अनुयायियों, विशेषकर व्यापारियों में एक नवीन उत्साह और दैविक प्रेरणा का संचार किया। काल्विनवाद को व्यापारियों का समर्थन इसलिए मिला कि क्योंकि उसके सिद्धांतों से व्यापारियों को बड़ा लाभ हुआ। जिस प्रकार लूथर ने अपने धर्म को जर्मन राजकुमारों और किसानों की सहायता से प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया, उसी प्रकार काल्विन ने व्यापारियों और मध्यम वर्ग के लोगों के समर्थन से अपने धर्म को मजबूत किया। काल्विन ने बताया कि सूद लेना उचित है, किंतु इसे एक निश्चित सरकारी सीमा से अधिक नहीं होना चाहिए।
काल्विनवाद का प्रचार स्विट्जरलैंड, डच नीदरलैंड, स्काॅटलैंड और जर्मन पैलेटिनेट में हुआ। इंग्लैंड और फ्रांस में भी काल्विन के अनुयायी थे। संयुक्त राज्य अमेरिका की स्थापना में काल्विन के अनुयायियों का बड़ा हाथ था। आधुनिक अमेरिका में पाये जानेवाले कांग्रेसनेलिस्ट, प्रेस्बीटेरियन ओर बैपटिस्ट काल्विन के ही अनुयायी हैं। यद्यपि काल्विन लूथर की तुलना में अधिक कट्टर था, किंतु उसके उपदेश और विधि-विधान लूथर से अधिक सरल थे। दोनों ने आडंबर का विरोध किया, लेकिन उनके सुधार के तरीके सर्वथा भिन्न थे।
इंग्लैंड में धर्मसुधार : एंग्लिकनवाद
इंग्लैंड में प्रोटेस्टैंट चर्च की स्थापना सर्वथा भिन्न परिस्थिति में हुई। वहाँ लूथर या काल्विन जैसा कोई सुधारक नहीं हुआ। सोलहवीं शताब्दी में इंग्लैंड में एक के बाद एक ऐसी घटनाएँ हुईं जिनके परिणामस्वरूप इंग्लैंड में रोमन कैथलिक चर्च से अलग एंग्लिकनवाद की स्थापना हुई।
इंग्लैंड के शासक बहुत पहले से ही पोप का विरोध करना आरंभ कर दिये थे। सबसे पहले विलियम ने पोप के प्रभाव को कम करने का प्रयास किया, यद्यपि वह स्वयं कैथोलिक था। हेनरी द्वितीय ने ‘क्लेरेंडन कोड‘ पारित करके इंग्लैंड से पोप की सत्ता समाप्त करनी चाही, लेकिन असफल रहा। चौदहवीं सदी मे वाइक्लिफ ने इंग्लैंड में पोप और गिरजाघरों की बुराइयों का प्रचार किया और एडवर्ड तृतीय ने भी पोप का प्रभुत्व समाप्त करने का प्रयास किया। हेनरी सप्तम और प्रारंभ में हेनरी अष्टम पोप के समर्थक थे। इस प्रकार 1529 ई. तक पोप का प्रभाव इंग्लैंड में बना रहा, यद्यपि कई धर्म-सुधारकों ने वाइक्लिफ के सिद्धांतों को अपना लिया था।
हेनरी अष्टम और धर्मसुधार आंदोलन
इंग्लैंड में धर्मसुधार आंदोलन की शुरूआत सम्राट हेनरी अष्टम के पुत्र-प्राप्ति की इच्छा से शुरू हुई। उसकी पहली पत्नी कैथरिन ऑफ ऐरागान 18 वर्ष में सिर्फ एक पुत्री ही पैदा कर सकी थी। जब उसे विश्वास हो गया कि कैथरिन दूसरा बच्चा नहीं पैदा कर सकती, तो उसने पोप से आग्रह किया कि वह कैथरिन के साथ उसके विवाह को अमान्य घोषित कर दे। पोप हेनरी के लिए यह कर तो सकता था, किंतु उसे डर था कि कैथरिन के त्याग को उसका भतीजा सम्राट चार्ल्स पंचम कभी पसंद नहीं करेगा। पोप सम्राट पंचम से डरता था, क्योंकि रोम की रक्षा सम्राट चार्ल्स पंचम की सेना ही करती थी और कैथरिन सम्राट चार्ल्स पंचम की बुआ थी। जब पोप ने हेनरी अष्टम के आग्रह को टाल दिया, तो हेनरी ‘ऐक्ट आफ सुपरमेसी’ पारितकर स्वयं इंग्लैंड के चर्च का सर्वोच्च अधिकारी हो गया। इस प्रकार उसने पोप से संबंध-विच्छेद कर लिया और कैथोलिक मठों की धन-संपत्ति भी हथिया ली। फिर उसने क्रैमर को कैंटरबरी का बिशप बनाया, जिसने कैथरिन के साथ उसके विवाह को गैर-कानूनी घोषित कर दिया। अब हेनरी अष्टम् ने एन बोलिन के साथ विवाह किया।
वास्तव में हेनरी अष्टम का उद्देश्य धर्म में सुधार नहीं था, उसकी सहानुभूति न तो लूथरवाद के प्रति थी और न काल्विनवाद के प्रति। उसने पोप से संबंध-विच्छेद करने पर भी कैथोलिक धर्म के सिद्धांतों को बनाये रखा। उसका विरोध केवल पोप से था, इसलिए इंग्लैंड में उसने पोप की सत्ता को नष्ट किया। हेनरी रोम से अलग होकर इंग्लैंड का स्वतंत्र कैथोलिक चर्च बनाये रखना चाहता था। उसके समय में आंग्ल चर्च न पूरी तरह कैथोलिक रह सका और न ही प्रोटेस्टेंट। हेनरी अष्टम ने ‘गोल्डेन बुक’ नामक पुस्तक लिखी थी।
एडवर्ड षष्ठ और धर्मसुधार
हेनरी का उत्तराधिकारी एडवर्ड षष्ठ (1547-1553 ई.) अवयस्क था, इसलिए उसके शासनकाल में उसके संरक्षक ड्यूक आफ सोमरसेट और ड्यूक आफ नार्थम्बरलैंड ने प्रोटेस्टेंट धर्म के सिद्धांतों का प्रचार किया। सोमरसेट ने राजद्रोह नियम व हेनरी अष्टम के शासनकाल में पारित छः धाराओंवाले कानून को समाप्त कर दिया, जिससे यूरोप के अनेक धर्म-प्रचारक इंग्लैंड पहुँच गये। सोमरसेट ने क्रेनमर की सहायता से गिरजाघरों में व्याप्त बुराइयों को दूर करने का प्रयास किया। 1549 ई. में क्रेनमर ने अंग्रेजी भाषा में एक नई प्रार्थना-पुसतक ‘बुक आफ कामन प्रेयर’ तैयार की, जो पूर्णतः प्रोटेस्टेंट धर्म के अनुकूल थी।
ड्यूक आफ नार्बम्बरलैंड ने 1552 ई. में ‘द्वितीय प्रार्थना पुस्तक’ (बुक आफ कामन प्रेयर) निकाली जो पहली पुस्तक से भी अधिक प्रोटेस्टेंट सिद्धांतों और कुछ हद तक काल्विनवादी विचारों पर आधारित थी। इस प्रकार इंग्लैंड के चर्च की आराधना-पद्धति में कई परिवर्तन किये गये और इंग्लैंड का चर्च ‘एंग्लिकन चर्च’ कहा जाने लगा।
मेरी ट्यूडर और धर्मसुधार आंदोलन
एडवर्ड की मृत्यु के बाद प्रोटेस्टेंट सुधार की नीति को एक धक्का लगा। कैथरिन की पुत्री मेरी ट्यूडर (1553 ई.-1558 ई.) कट्टर कैथोलिक थी, इसलिए उसने अपने पूर्ववर्ती शासकों के कार्यों को पूरी तरह नकार दिया और कैथोलिक धर्म और पोप की सर्वोच्चता को पुनः इंग्लैंड में प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया। संसद को अपने द्वारा पास किये गये कानून बदलने पड़े और क्रेनमर, रिडले, लेटीमर जैसे 300 धर्मसुधारकों जला दिया गया। इस अत्याचार के कारण मेरी ट्यडर को ‘खूनी मेरी’ कहा जाता है। अपनी कैथोलिक प्रवृत्तियों को पुष्ट करने के लिए मेरी ने उस समय के सबसे कट्टर कैथोलिक समर्थक शासक स्पेन के फिलिप द्वितीय से विवाह किया, जिसका इंग्लैंड के लोगों ने भारी विरोध किया था। किंतु इससे प्रोटेस्टेंट आंदोलन और धर्म प्रचार का दमन नहीं हो सका।
एलिजाबेथ और धर्म-सुधारआंदोलन
मेरी निस्संतान मृत्यु के बाद शासन की बागडोर हेनरी तथा एन बोलिन की पुत्री एलिजाबेथ (1533-1603 ई.) के हाथों में आ गई। किंतु एलिजाबेथ को धर्म से उतना ही लगाव था जितना कि राजनीतिक हितों के लिए आवश्यक हो। एलिजाबेथ व्यक्तिगत कारणों से पोप की विरोधी थी क्योंकि पोप ने उसे हेनरी अष्टम की अवैध संतान घोषित किया था। इसके अलावा पोप और उसके कैथालिक समर्थक एलिजाबेथ के स्थान पर मेरी स्कॉट को इंग्लैंड की शासिका बनाना चाहते थे।
एलिजाबेथ ने पोप के प्रभुत्व को समाप्त करने के लिए ‘सर्वोच्चता और एकरूपता का कानून‘ पारित किया और स्वयं चर्च की प्रधानअधिकारी बन गई। उसने मध्यम मार्ग अपनाते हुए एडवर्ड षष्ठमकालीन प्रार्थना-पुस्तक के 42 सिद्धांतों में से कैथोलिकों को चुभनेवाली धाराएँ निकालकर उसे 39 सिद्धांतों के नाम से फिर से लागू किया। रविवार को प्र्रत्येक व्यक्ति के लिए चर्च में प्रार्थना करना आवश्यक कर दिया और ऐसा न करनेवालों को एक शिलिंग प्रति रविवार दंड देना पड़ता था।
इस प्रकार एलिजाबेथ के शासनकाल में आंग्ल धर्म का अंतिम स्वरूप निश्चित हुआ, जिसे ‘एंग्लिकन चर्च, कहते हैं। वास्तव में एलिजाबेथ इंग्लैंड को उग्र प्रोटेस्टेंट नहीं बनाना चाहती थी, और न ही वह कैथोलिक लोगों का अंत करने के पक्ष में थी, जिससे धीरे-धीरे इंग्लैंड की जनता ने प्रोटेस्टेंटवाद को स्वीकार कर लिया।
इस प्रकार 16वीं शताब्दी के अंत तक इंग्लैंड में एक ऐसे राष्ट्रीय चर्च की स्थापना हो गई, जो इतिहासकार फिशर के अनुसार ‘प्रशासनिक रूप से इरेस्टीयन, कर्मकांड में रोमन और धर्मशास्त्रीय संदर्भ में काल्विनवादी था।’ आंग्ल चर्च का यह मिश्रित स्वरूप उसके स्थायित्व का आधार बना। यद्यपि कुछ उग्र प्रोटेस्टेंट विशुद्धतावादी प्युरिटन और कट्टर कैथोलिक असंतुष्ट ही रहे, लेकिन एलिजाबेथ की योग्यता और दूरदर्शिता के कारण आंग्ल चर्च स्थायी साबित हुआ।
धर्मसुधार आंदोलन की प्रकृति
इंग्लैंड में हुए धर्म सुधार आंदोलन और यूरोप के अन्य देशों में हुए धर्म सुधार आंदोलन की प्रकृति में पर्याप्त अंतर था। इंग्लैंड में घार्मिक आंदोलन यूरोप के अन्य राष्ट्रों की तरह मात्र धार्मिक ही नहीं था, बल्कि उसके राजनीतिक और सामाजिक पहलू भी थे। यूरोप के अन्य देशों में धर्मसुधार आंदोलन की मूल भावना का जन्म जनता में हुआ था जबकि इंग्लैंड में यह राजाओं से प्रारंभ हुआ। हेनरी अष्टम का उद्देश्य धर्म में सुधार करना नहीं था, वह तो मात्र पोप के प्रभाव को समाप्त करना चाहता था।
इस प्रकार जर्मनी या अन्य यूरोपीय देशों में यह धार्मिक आंदोलन था, जबकि इंग्लैंड में यह प्रायः शासकों और पोप की प्रतिद्वंद्विता का परिणाम था। वास्तव में इंग्लैंड में धर्म सुधार आंदोलन एक व्यक्तिगत और राजनीतिक आंदोलन था, जिसे धार्मिकता का रंग और आधार देकर सफल बनाया गया।
धर्म सुधार आंदोलन के परिणाम
प्रोटेस्टेंट संप्रदायों का उदय और विस्तार
धर्म सुधार आंदोलन के परिणामसवरूप यूरोप में प्रोटेस्टेंट संप्रदाय का जन्म हुआ। सोलहवीं सदी के अंत तक प्रोटेस्टेंटवाद उत्तरी जर्मनी, स्केंडेनेविया, बाल्टिक प्रांतों, अधिकांश स्विट्जरलैंड, डच नीदरलैंड, स्काटलैंड और इंग्लैंड में फैल चुका था। इसके अतिरिक्त फ्रांस, बोहेमिया, पोलैंड और हंगरी में भी इसके काफी अनुयायी हो गये थे। यद्यपि विभिन्न प्रोटेस्टेंट शाखाओं के बीच काफी मतभेद था, परंतु वे सभी रोमन कैथोलिक चर्च के विरोधी थे।
कैथोलिक चर्च में सुधार
धर्म सुधार आंदोलन के कारण कैथोलिक चर्च में भी सुधार का प्रवर्तन हुआ। ट्रेंट नामक नगर में कैथोलिकों की 19वीं विश्वसभा का आयोजन हुआ, जिसमें कैथोलिक चर्च के नये संगठन के अतिरिक्त पुरोहितों के शिक्षण का प्रबंध किया गया। इस शताब्दी में पोप के रूप में प्रतिभाशाली व्यक्तियों का चुनाव हुआ, जिससे समस्त कैथलिक संसार में पोप का पद पुनः सम्मानित हो सका। बिशपों की सामंतशाही को समाप्त कर साधुस्वभाव के व्यक्तियों की नियुक्ति से जनता के सामने बिशप का प्राचीन आदर्श उभरने लगा। इस प्रकार धर्म सुधार का संभवतः सबसे गहरा एवं हितकरी प्रभाव पुराने कैथोलिक संप्रदाय पर ही पड़ा।
राजाओं की शक्ति में वृद्धि
धर्म सुधार आंदोलन के कारण पोप और चर्च राजाओं के अधीन हो गये जिससे राजाओं की शक्ति में वृद्धि हुई। अब शासकों को पोप या चर्च का कोई भय नहीं रहा। मठों या चर्च की संपत्ति पर राज्य के अधिकार से राज्यों की आर्थिक समृद्धि में बढोत्तरी हुई।
राष्ट्रीय भावनाओं का उदय
धार्मिक आंदोलनों के फलस्वरूप यूरोप के विभिन्न राष्ट्रों में राष्ट्रीय भावना का उदय और विकास हुआ। ईसाई धर्म का राष्ट्रीयकरण हो गया। कैथोलिक चर्च और पोपशाही के विरुद्ध आंदोलन को राष्ट्रीयता की अभिव्यक्ति माना गया। प्रोटेस्टेंटवाद का समीकरण राष्ट्रवाद में हो गया। लूथरवाद ने जर्मन राष्ट्रीयता, काल्विनवाद ने डच और स्काटिश राष्ट्रीयता और एंग्लिकन चर्च ने ब्रिटिश राष्ट्रीयता का विकास किया। इसी प्रकार अन्य देशों में भी कैथोलिक चर्च का स्वरूप राष्ट्रीय हो गया। धर्म सुधारों से जन-जागृति और स्वतंत्र वातावरण निर्मित हुआ और स्वतंत्र विचारों की अभिव्यक्ति हुई तथा मनन-चिंतन की प्रवृत्ति अधिक बलवती हुई।
राजनीतिक परिणाम
धर्मसुधार आंदोलन के कारण ने ईसाई धर्म के अनुयायी दो परस्पर-विरोधी खेमों में बँट गये- कैथोलिक और उनके विरोधी प्रोटेस्टेंट। यूरोप के शासकों को अनिवार्य रूप से इस धार्मिक उथल-पुथल में सक्रिय रूप से भाग लेना पड़ा। यूरोपीय शासकों को अपनी प्रजा को अपने धर्म में सम्मिलित करने अथवा बनाये रखने के उद्देश्य से युद्ध करने पड़े और इस प्रकार यूरोप के इतिहास में धर्म के नाम पर अनेक युद्धों लड़े गये, जैसे- जर्मनी में तीसवर्षीय युद्ध, फ्रांस में युगनो युद्ध और हालैंड में राजा चार्ल्स पंचम के विरुद्ध सफल स्वतंत्रता संग्राम आदि।
सामाजिक परिणाम
पोप और चर्च की शक्ति और संपत्ति पर नियंण के कारण सामाजिक संतुलन में भी परिवर्तन आया। जहाँ एक ओर चर्च के अधिकारियों के धन और प्रभाव में कमी आई वहीं दूसरी ओर एक नये भू-स्वामी वर्ग का उदय हुआ।
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