तीसवर्षीय युद्ध (Thirty Year War, 1618-1648 AD)

तीसवर्षीय युद्ध (1618-1648 ई.)

यूरोप के इतिहास में तीसवर्षीय युद्ध एक मील का पत्थर है जहाँ से मध्यकाल के समस्त अवशेष समाप्त हो जाते हैं और आधुनिक काल की वास्तविक यात्रा आरंभ होती है। 1618 ई. में आरंभ होनेवाला यह युद्ध, एक युद्ध न होकर अनेक युद्धों की श्रृंखला के समान था, जिसमें युद्ध तो जर्मनी की भूमि पर लड़ा गया, किंतु युद्ध में भाग लेनेवाले योद्धा अधिकांशतः गैर-जर्मन थे। एक प्रकार से तीसवर्षीय युद्ध पहला अखिल यूरोपीय युद्ध था जिसमें यूरोप के सभी बड़े देशों ने भाग लिया था। जर्मन भूमि पर लड़े जानेवाले इस युद्ध में जर्मनी के अलावा स्पेन, डेनमार्क, स्वीडेन, हालैंड और फ्रांस की सेनाओं ने भाग लिया था।

तीसवर्षीय युद्ध यूरोप का सबसे भीषण अंतिम धार्मिक युद्ध था। इस युद्ध की एक अन्य विशेषता यह भी थी कि यह युद्ध धार्मिक कारणों से आरंभ हुआ था जिसमें एक ओर कैथोलिक देश और दूसरी ओर प्रोटेस्टेंट देश थे, लेकिन युद्ध के अंतिम चरण में धार्मिक कारण पृष्ठभूमि में चले गये और राजनैतिक दृष्टिकोण महत्त्वपूर्ण हो गये। इसका कारण यह था कि कैथोलिक देश फ्रांस ने कैथोलिक राज्यों का पक्ष न लेकर जर्मनी के प्रोटेस्टेंट राज्यों का समर्थन करते हुए युद्ध में हस्तक्षेप किया। फ्रांस का प्रधानमंत्री रिशलू हैप्सबर्ग राजवंश की शक्ति को दुर्बल करके यूरोप में फ्रांस के बूर्बा राजवंश की सर्वोच्चता स्थापित करना चाहता था।

तीसवर्षीय युद्ध 1618-1648 ई. (Thirty Year War, 1618-1648 AD)
पवित्र रोमन साम्राज्य 1618

तीसवर्षीय युद्ध की पृष्ठभूमि

कैथोलिकों व प्रोटेस्टेंटों के मध्य चल रही प्रतिस्पर्धा को आग्सबर्ग संधि की धाराएँ नियंत्रण करने में असफल रहीं। दरअसल अधिक से अधिक चर्चों पर अधिकार कर उनकी अकूत संपत्ति पर कब्जा करने की होड़ ने आग्सबर्ग की संधि को निष्प्रभावी बना दिया था। कैथोलिकों व प्रोटेस्टेंटों के बीच की यह प्रतिस्पर्धा 1606 ई. में डोनावर्थ नगर के सांप्रदायिक दंगों का कारण बनी। इस नगर में प्रोटेस्टेंट मतावलंबियों का बहुमत था, किंतु धीरे-धीरे कैथोलिकों की संख्या भी बढ़ने लगी थी। 1603 ई. में जब कैथोलिकों ने झंडों के साथ धार्मिक जुलूस निकालना आरंभ किया, तो इस प्रोटेस्टेंट नगर की परिषद ने इसका विरोध किया। कैथोलिकों ने साम्राज्यिक न्यायालय से एक तात्कालिक आदेश लेकर सितंबर 1606 ई. में एक उत्तेजक जुलूस निकाला, जिसके कारण नगर में दंगा हो गया। इस समय रूडोल्फ पवित्र रोमन सम्राट था। उसने इस दंगे की जाँच कराने तथा अल्पसंख्यक कैथोलिकों को सुरक्षा प्रदान करने की जिम्मेदारी बवेरिया के ड्यूक मैक्सीमिलियन को सौंप दी।

मैक्सीमिलियन एक कट्टर कैथोलिक था और उसने बिना समय गँवाये अप्रैल 1607 ई. में नगर परिषद को यह निर्देश दिया कि वह कैथोलिकों की धार्मिक स्वतंत्रता में हस्तक्षेप नहीं करेगी तथा उन्हें धार्मिक जुलूस निकालने देगी। नगर परिषद ने जब इस आदेश को मानने से इनकार कर दिया तो 12 नवंबर को नगर पर साम्राज्यिक प्रतिबंध लागू कर दिया गया। सितंबर में सेना की सहायता से मैक्सीमिलियन ने इस नगर पर अधिकार कर लिया। मैक्सीमिलियन की कार्यवाही से असंतुष्ट जर्मनी के प्रोटेस्टेंट राजाओं ने 16 मई 1608 ई. को ‘प्रोटेस्टेंट यूनियन’ की स्थापना की। इस प्रोटेस्टेंट यूनियन को फ्रांस के सम्राट हेनरी चतुर्थ का भी संरक्षण प्राप्त था। इसके जवाब में एक वर्ष के अंदर ही बवेरिया के मैक्सीमिलियन ने कैथोलिकों को संगठित कर ‘कैथोलिक लीग’ की स्थापना कर ली। इस लीग को स्पेन के सम्राट का भी समर्थन प्राप्त था।

इसी समय क्लीवस-जूलिच में उत्तराधिकार की समस्या ने युद्ध की संभावना को जन्म दिया क्योंकि वहाँ का राजा ड्यूक बिना किसी पुरुष उत्तराधिकारी के स्वर्गवासी हो गया था। उसके दोनों निकटस्थ उत्तराधिकारी प्रोटेस्टेंट थे, जिससे इस क्षेत्र में प्रोटेस्टेंट प्रभाव बढ़ने की आशंका उत्पन्न हो गई। प्रोटेस्टेंट यूनियन और सम्राट हेनरी चतुर्थ ने युद्ध की तैयारी आरंभ कर दी थी, किंतु उसी समय हेनरी चतुर्थ की हत्या हो गई जिसके कारण प्रोटेस्टेंट युद्ध की स्थिति में नहीं रह गये। यह संकट 1614 ई. में एक संधि के द्वारा समाप्त करने का प्रयास किया गया, जिसके अनुसार जूलिच एक कैथोलिक राजा लुई फिलिप को और क्लीव्स एक प्रोटेंस्टेंट शासक ब्रेडनबर्ग के इलेक्टर को दे दिया गया। किंतु इससे संकट टला नहीं और शीघ्र ही जर्मनी में ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई, जिससे तीसवर्षीय युद्ध अनिवार्य हो गया।

तीसवर्षीय युद्ध के कारण

धर्म सुधार आंदोलन के कारण जर्मनी दो धार्मिक गुटों में विभाजित हो गया था- कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट। 1555 ई. की आग्सबर्ग की संधि के द्वारा जर्मनी में रोमन कैथोलिक और लूथरवादियों के मध्य संघर्ष को समाप्त किया गया था, लेकिन इस संधि के बाद जर्मनी में वास्तविक और स्थायी धार्मिक समझौता संभव नहीं हो सका। आग्सबर्ग की संधि में सिर्फ रोमन कैथोलिकों तथा लूथरवादियों को मान्यता मिली थी, जबकि 1555 ई. के बाद जर्मनी में काल्विनवादियों का भी प्रभाव बढ़ता जा रहा था और वे भी समानता की माँग कर रहे थे। आग्सबर्ग की संधि के द्वारा रोमन कैथोलिक चर्च की संपत्ति को छीनने या जब्त करने पर रोक लगाई गई थी, लेकिन जर्मनी के प्रोटेस्टेंट इस प्रावधान कर उल्लंघन करते हुए कैथोलिक चर्च की संपत्ति जब्त कर रहे थे। दूसरी ओर, जर्मनी के कैथोलिकों का दृष्टिकोण भी आक्रामक होता जा रहा था और वे चाहते थे कि जर्मनी से प्रोटेस्टेंटवाद को पूर्णरूप से समाप्त कर दिया जाये। इसके अलावा, जर्मनी के प्रोटेस्टेंट राजा भी पवित्र रोमन सम्राट के राजनैतिक नियंत्रण से मुक्त होने के लिए मचलने लगे थे। इस उत्तेजनात्मक वातावरण में बोहेमिया का प्रश्न उत्पन्न हो गया, जिससे अंततः तीसवर्षीय युद्ध आरंभ हो गया। तीसवर्षीय युद्ध के कारणों को सामान्यतः तीन भागों में बाँटा जा सकता है- धार्मिक कारण, राजनीतिक कारण और तात्कालिक कारण।

धार्मिक कारण

तीसवर्षीय युद्ध धार्मिक कारणों से आरंभ हुआ था। 1555 ई. की आग्सबर्ग की संधि से धार्मिक विवाद समाप्त नहीं हुए बल्कि इसी संधि में भावी विवाद के बीज मौजूद थे। इस संधि के अनुसार- जर्मनी के प्रत्येक शासक को अपने राज्य का धर्म निश्चित करने का अधिकार मिल गया था। इसका अर्थ था कि शासक के द्वारा जनता के धर्म का निर्धारण किया जाता था। दूसरे, शासक के लिए यह आवश्यक था कि वह या तो रोमन कैथोलिक धर्म को अपनाये या लूथरवाद को। वह किसी अन्य धर्म को नहीं अपना सकता था। तीसरे, संधि में कहा गया था कि अगर कोई कैथोलिक विशप लूथरवाद को अपना लेता है तो उसे अपने बिशप पद के समस्त अधिकारों को त्यागना पड़ेगा। चैथे, संधि में कैथोलिक चर्च की संपत्ति की रक्षा की व्यवस्था की गई थी। संधि में कहा गया था कि 1 जनवरी, 1552 ई. के पश्चात् रोमन कैथोलिक चर्च की संपत्ति को सुरक्षित रखा जायेगा, लेकिन इसके पहले कैथोलिक चर्च की संपत्ति जो प्रोटेस्टेंटों के हाथों में चली गई थी, उसमें कोई परिवर्तन नहीं होगा और वह प्रोटेस्टेंटों के पास ही बनी रहेगी।

संधि के इन प्रावधानों से अनेक समस्याएँ उत्पन्न हुईं- एक समस्या यह थी कि राजाओं को अपनी प्रजा के धर्म को निर्धारित करने का अधिकार मिल गया। इसमें जनता के अधिकारों के बारे में कुछ नहीं कहा गया था। दूसरी समस्या यह थी कि संधि ने प्रोटेस्टेंट धर्म के केवल लूथरवाद को मान्यता दी थी, जबकि काल्विनवाद का प्रभाव बढ़ता जा रहा था और उसे मान्यता नहीं मिली थी। इसका परिणाम यह हुआ कि कालांतर में काल्विनवादियों ने अपनी सुरक्षा के लिए एक लीग बनाई, जिसके कारण तीसवर्षीय युद्ध आरंभ हुआ। तीसरी समस्या यह थी कि संपत्ति के धार्मिक रक्षण प्रावधान का ठीक तरह से पालन नहीं किया गया और इससे अनेक विवाद उत्पन्न हो गये। कैथोलिकों का कहना था कि 1 जनवरी, 1552 ई. के पश्चात् जो बिशप प्रोटेस्टेंट धर्म के अनुयायी हो गये थे, उनकी संपत्ति वापस की जाये। इसके विपरीत, प्रोटेस्टेंट शासक इस संपत्ति को वापस करने को तैयार नहीं थे। इस प्रकार दोनों संप्रदायों में कटुता बढ़ती गई।

इस प्रकार 1555 ई. की आग्सबर्ग की संधि द्वारा पवित्र रोमन साम्राज्य की धार्मिक समस्या के समाधान की प्रत्याशा की गई थी, परंतु दो महत्वपूर्ण विषयों में यह प्रत्याशा विफल हुई। प्रथम, कैथोलिक चर्च संपत्ति लौकिकीकरण प्रतिबंध की सर्वथा उपेक्षा की गई। दूसरे, इसने केवल कैथोलिकों व लूथरवादियों को मान्यता दी थी, परंतु काल्विनवादियों को कोई मान्यता नहीं दी थी। कालांतर में मध्य तथा दक्षिणी जर्मनी व बोहेमिया में काल्विनवादियों का प्रभाव बढ़ा और उन्होंने समान अधिकारों की माँग की, जिसके फलस्वरूप तीसवर्षीय युद्ध आरंभ हुआ।

राजनीतिक कारण

तीसवर्षीय युद्ध के कारण केवल धार्मिक ही नहीं थे, बल्कि आरंभ से ही इसमें राजनीतिक कारण भी जुड़े हुए थे। इन राजनीतिक कारणों में राजवंशों की वंशानुगत महत्वाकांक्षाएँ भी जुड़ गई थीं, जैसे- आस्ट्रिया का हैब्सवर्ग वंशीय शासक पवित्र रोमन साम्राज्य (जर्मनी) का भी सम्राट था। वह पवित्र रोमन साम्राज्य पर अपनी निरंकुश और सार्वभौम सत्ता स्थापित करना चाहता था, लेकिन जर्मनी में राजागण अपनी परंपरागत स्वतंत्रता तथा अधिकारों को सुरक्षित रखना चाहते थे। किंतु इन राजाओं में एकता नहीं थी और कुछ राजा तो अपने स्वार्थों के लिए सम्राट का समर्थन करते थे। सम्राट को स्पेन के हैब्सवर्गवंशीय शासक से भी सहायता मिलती थी। दूसरे, हैब्सवर्ग वंश के विस्तार से फ्रांस को अपनी सुरक्षा की चिंता हो रही थी। इस वंश के शासक आस्ट्रिया के अतिरिक्त स्पेन, नीदरलैंड, फ्रेंच काम्टे, मिलान, सिसली पर राज्य करते थे। फ्रांस को लगता था कि वह हैप्सबर्ग क्षेत्रों से घिर रहा था। अतः फ्रांस इस घेरे को तोड़ना चाहता था। फ्रांस का प्रधानमंत्री रिशलू जर्मनी में राइन नदी तक फ्रांस का विस्तार करना चाहता था। उसका उद्देश्य फ्रांस को यूरोप का सर्वशक्तिशाली राज्य बनाना था। अतः वह जर्मनी में हस्तक्षेप करके आस्ट्रिया के सम्राट की शक्ति को दुर्बल करना चाहता था।

तीसरे, बाल्टिक राज्यों की महत्वाकांक्षा और बाल्टिक सागर में बढ़ता हुआ व्यापार भी इस युद्ध का एक कारण था। इस व्यापार पर डेनमार्क का नियंत्रण था। स्वीडेन ने भी इस समय बाल्टिक सागर के पूर्वी तट पर अधिकार कर लिया था और अब वह जर्मनी के उत्तरी भाग पर अधिकार करके बाल्टिक सागर को स्वीडिश झील बनाना चाहता था। डेनमार्क भी जर्मनी में अपना विस्तार चाहता था। अतः इन राजनीतिक स्वार्थों का भी तीसवर्षीय युद्ध पर प्रभाव पड़ा।

तात्कालिक कारण
बोहेमिया का विद्रोह

तीसवर्षीय युद्ध का तात्कालिक कारण आस्ट्रियन साम्राज्य के विरूद्ध बोहेमिया का विद्रोह था। बोहेमिया की जनता चेक जाति की थी और काल्विन धर्म की अनुयायी थी। राजनीतिक दृष्टि से बोहेमिया आस्ट्रियन साम्राज्य का एक राज्य था और एक शताब्दी से अधिक समय से आस्ट्रिया के कैथोलिक सम्राट बोहेमिया पर शासन कर रहे थे। 1618 ई. में सम्राट मैथियास की मृत्यु के पश्चात् फर्डिनेंड आस्ट्रिया का सम्राट बना। फर्डिनेंड कट्टर कैथोलिक था और प्रोटेस्टेंटों को किसी भी प्रकार की सुविधा देने के विरूद्ध था।

बोहेमिया की चेक जनता को भय हुआ कि उनको बलपूर्वक कैथोलिक बना लिया जायेगा। इसी समय सम्राट ने प्रोटेस्टेंट लोगों की सभाओं पर प्रतिबंध लगा दिया और प्रशासनिक पदों पर से प्रोटेस्टेंटों को हटा दिया। उसने सार्वजनिक रूप से ‘लेटर आफ मैजेस्टी’ की आलोचना आरंभ कर दिया और राजसी भूमि पर खेती करनेवाले उन किसानों को निष्कासित कर दिया, जिन्होंने ने कैथोलिक धर्म स्वीकार नहीं किया था। इससे बोहेमिया के लोगों की आशंका दृढ़ हो गई और उन्होंने विद्रोह करने का निर्णय किया। तनाव के इसी वातावरण में 22 मार्च, 1618 ई. को सम्राट फर्डिनेंड ने चेक लोगों से वार्ता करने के लिए अपने दो प्रतिनिधि बोहेमिया की राजधानी प्राग भेजा, लेकिन वातावरण इतना कटुतापूर्ण हो गया कि क्रोध में आकर चेक प्रोटेस्टेंटों ने सम्राट के दोनों प्रतिनिधियों- जारोस्लाव मार्टिनिट्ज तथा विलियम स्लावाटा को खिड़की से नीचे फेंक दिया। यद्यपि वे दोनों बच गये, लेकिन यह सम्राट की सत्ता और कैथोलिक लीग को खुली चुनौती थी।

तीसवर्षीय युद्ध 1618-1648 ई. (Thirty Year War, 1618-1648 AD)
बोहेमिया के विद्रोह का आरंभ

सम्राट फर्डिनेंड ने बोहेमिया के विद्रोह को कुचलने के लिए सेना भेजी। इस पर बोहेमिया के प्रोटेस्टेंटों ने फर्डिनेंड को पदच्युत करने की घोषणा कर दी और 26 अगस्त, 1618 ई. को पेलिटनेट के इलेक्टर फ्रेडरिक को बोहेमिया का राजा घोषित कर दिया। पेलिटनेट का इलेक्टर फ्रेडरिक प्रोटेस्टेंट था और प्रोटेस्टेंट लीग का नेता था। फ्रेडरिक इंग्लैंड के सम्राट जेम्स प्रथम की पुत्री एलिजाबेथ का पति था। इससे विद्रोही प्रोटेस्टेंटों को भरोसा था कि उन्हें इंग्लैंड का सहयोग मिलेगा। इस प्रकार बोहेमिया के विद्रोह से प्रोटेस्टेंट और कैथोलिक लीगों के मध्य युद्ध आरम्भ हो गया जो तीस वर्षों तक चला।

युद्ध की घटनाएँ

तीसवर्षीय युद्ध को घटनाओं की दृष्टि से चार भागों में विभक्त किया जा सकता है- 1. बोहेमियन या पेलिटनेट काल (1618-1624 ई.), 2. डेनिश काल (1625-1629 ई.), 3. स्वीडिश काल (1630-1635 ई.) और 4. फ्रांसीसी काल (1635-1648 ई.)।

1-बोहेमियन या पेलेटिनेट काल (1618-1624 ई.)

प्रारंभ के छः वर्षों में युद्ध बोहेमिया तथा पेलिटनेट में हुआ। सम्राट फर्डिनेंड द्वितीय ने स्पेन के राजा फिलिप द्वितीय से सहायता माँगी। फिलिप द्वितीय ने बबेरिया के सेनापति काउंट टिली के सेनापतित्व में एक विशाल सेना भेजी। फ्रेडरिक को अपने श्वसुर इंग्लैंड के राजा जेम्स प्रथम से सहायता प्राप्त होने की आशा थी, लेकिन आंतरिक समस्याओं के कारण जेम्स प्रथम सहायता नहीं भेज सका। दूसरी ओर, फ्रेडरिक को जर्मनी के प्रोटेस्टेंट शासकों से भी सहायता नहीं मिली। ऐसी स्थिति में टिली ने फ्रेडरिक को 1620 में व्हाइट हिल के युद्ध में पूर्णरूप से पराजित कर दिया। टिली ने संपूर्ण बोहेमिया पर अधिकार कर लिया। प्रोटेस्टेंट लीग को भंग कर दिया गया। अनेक चेक नेताओं को प्राणदंड दिया गया और बोहेमिया पर बलपूर्वक कैथोलिक धर्म थोप दिया गया। पेलिटनेट भी प्रेडरिक के हाथों से निकल गया और उस पर बवेरिया के राजा मैक्सीमिलियन की सेनाओं ने अधिकार कर लिया। इन विजयों से कैथोलिकों का उत्साह बढ़ गया और स्पेन ने डचों से पुनः युद्ध आंरभ कर दिया ताकि खोये हुए नीदरलैंड को पुनः स्पेनिश अधिकार में लाया जा सके। इस काल में सर्वत्र केथोलिकों को विजय मिली।

तीसवर्षीय युद्ध 1618-1648 ई. (Thirty Year War, 1618-1648 AD)
1620 में व्हाइट हिल के युद्ध में प्रोटेस्टेंट शासक फ्रेडरिक की पराजय
2. डेनिश काल (1625-1629 ई.)

कैथोलिकों की विजय से जर्मनी के लूथरवादी राजकुमारों में भय उत्पन्न हो गया। वे अभी तक तटस्थ रहे थे, लेकिन बोहेमिया पर फर्डिनेंड तथा पेलिटनेट पर बवेरिया के अधिकार से जर्मनी में ’शक्ति संतुलन’ नष्ट हो गया था। इसके अलावा, फर्डिनेंड ने इन राजंकुमारों को किसी प्रकार की स्वतंत्रता व धार्मिक अधिकार देना भी अस्वीकार कर दिया। ऐसे संकट काल में डेनमार्क के राजा क्रिश्चियन चतुर्थ ने अपने सहधर्मियों की सहायता से युद्ध में हस्तक्षेप किया। इसके कई कारण थे- एक तो, प्रोटेस्टेंट धर्म की रक्षा का प्रश्न था। वह जानता था कि यदि कैथोलिकों ने जर्मनी में पूर्ण सफलता प्राप्त कर ली तो वह भी सुरक्षित नहीं रहेगा। इसके अतिरिक्त उसके राज्य का एक हिस्सा हाल्सटीन जर्मनी साम्राज्य में पड़ता था। उसकी साम्राज्यवादी आकांक्षाएँ भी थीं। वह जर्मनी के कुछ छोटे धर्म राज्यों को जीतकर वहाँ अपने द्वितीय पुत्र को राजा बनाना चाहता था। वह उत्तरी सागर के तटीय क्षेत्रों पर अपन प्रभाव का विस्तार करना चाहता था। उसकी आकांक्षाएँ तभी पूरी हो सकती थीं जब प्रोटेस्टेंट लोगों को विजय प्राप्त हो। 1625 ई. में क्रिश्चियन चतुर्थ ने उत्तरी जर्मनी पर आक्रमण किया। इस आक्रमण में उसे इंग्लैंड के राजा चाल्र्स प्रथम, नीदरलैंड के डचों और जर्मनी के प्रोटेस्टेंट राजकुमारों से सहायता मिली। सम्राट फर्डिनेंड ने उसके विरूद्ध प्रतिभाशाली सेनापति वेलेंस्टाइन को भेजा। वेलेंस्टाइन और टली की सेनाओं ने लट्टर नामक स्थान पर क्रिश्चियन चतुर्थ को पराजित कर दिया। इस प्रकार उत्तरी जर्मनी से डेनिश सेना को निकाल दिया गया, लेकिन नौसेना के अभाव के सम्राट डेनमार्क पर आक्रमण नहीं कर सका। अंततः क्रिश्चियन चतुर्थ ने ल्यूेक की संधि करके युद्ध समाप्त कर दिया।

इस सफलता से प्रोत्साहित होकर फर्डिनेंड मे कठोर कदम उठापा। उसने 1629 ई. में ‘संपत्ति वापसी की घोषणा’ की, जिसके अनुसार 1555 ई. के बाद कैथोलिक चर्च की जो भी संपत्ति जब्त की गई थी, वह सब कैथोलिक चर्च को वापस कराई गई। इस कार्य से सभी प्रोटेस्टेंट अत्यंत भयभीत हो गये और उन्होंने कठोर प्रतिरोध का निश्चय किया। इस समय स्वीडन के राजा गस्टवस एडोल्फस ने, जो लूथरवादी था, जर्मनी के प्रोटेस्टेंटों के पक्ष में हस्तक्षेप किया।

3. स्वीडिश काल (1630-1635 ई.)

स्वीडन का शासक गस्टवस एडोल्फस योग्य तथा महत्वाकांक्षी शासक था। उसने रूस और पोलैंड को पराजित कर बाल्टिक सागर के पूर्वी तट पर विशाल क्षेत्र प्राप्त कर लिया था। वह उत्तरी जर्मनी के तटीय प्रदेशों को अधिकृत करके बाल्टिक सागर को स्वीडिश झील बनाना चाहता था। उसकी प्रोटेस्टेंट धर्म में अपूर्व आस्था थी और जर्मनी के प्रोटेस्टेंटों की रक्षा करना वह अपना कर्तव्य समझता था। इस समय फ्रांस के प्रधानमंत्री रिशलू ने तीसवर्षीय युद्ध में सक्रिय रुचि लेना आरंभ कर दिया था। रिशलू कैथोलिक था और एक धार्मिक अधिकारी कार्डिनल के पद पर था। किंतु तीसवर्षीय युद्ध में उसके हस्तक्षेप का उद्देश्य हैब्सबर्ग राजवंश को नीचा दिखाना था, ताकि फ्रांस के बूर्बा राजवंश की सर्वोच्चता का मार्ग प्रशस्त हो सके। उसने गस्टवस एडोल्फस के साथ संधि की और उसे धन तथा अस्त्र-शस्त्रों की सहायता दी। 1630 ई. में गस्टवस ने उत्तरी जर्मनी में अपनी सेना के बल पर युद्ध का रुख बदल दिया। कैथोलिकों ने मेग्डेबर्ग को जीतकर बुरी तरह लूटा। इससे जर्मनी के प्रोटेस्टेंट शासक आतंकित हो गये और उन्होंने गस्टवस से सहयोग करने की घोषणा कर दी। गस्टवस ने बवेरिया पर आक्रमण किया, जिसमें टिली पराजित हुआ और मारा गया।

अब गस्टवस वियेना की ओर बढ़ा। भयभीत होकर सम्राट ने वेलेंस्टाइन को पुनः सेनापति नियुक्त किया। 1632 ई. में गस्टवस ने वेलेंस्टाइन को पराजित कर दिया, लेकिन अपने दुस्साहस के कारण गस्टवस भी मारा गया। इस प्रकार जीत हार में बदल गई। अब स्वीडिश सेना युद्ध जारी रखने की स्थिति में नहीं थी। 1634 में सम्राट की सेना ने उसे पराजित कर दिया और उसे जर्मनी छोड़कर वापस लौटना पड़ा। 1632 ई. के बाद वेलेंस्टाइन ने प्रोटेस्टेंटों से समझौता करने के लिए जो वार्ता आरंभ की थी, उसे कैथोलिकों ने पसंद नहीं किया। फलस्वरूप उन्होंने षड्यंत्र करके वेलेंस्टाइन की हत्या करवा दी।

तीसवर्षीय युद्ध 1618-1648 ई. (Thirty Year War, 1618-1648 AD)
स्वीडन का शासक गस्टवस एडोल्फस

इस समय तक दोनों पक्ष युद्ध से थक चुके थे। जर्मनी का पूर्ण आर्थिक विनाश हो गया था, अतः दोनों पक्षों में प्राग की संधि हो गई। संभवतः इस संधि से युद्ध समाप्त हो जाता, लेकिन फ्रांस के प्रधानमंत्री रिशलू ने युद्ध जारी रखने का निर्णय किया। इससे शांति स्थापित नहीं हो सकी।

4. फ्रांसीसी काल (1635-1648 ई.)

फ्रांस के प्रधानमंत्री रिशलू प्राग की संधि के पक्ष में नहीं धा। इसलिए उसने प्रत्यक्ष हस्तक्षेप का निर्णय किया। अभी तक उसने स्वीडेन तथा जर्मनी के प्रोटेस्टेंटों को धन व अस्त्र-शस्त्रों की सहायता दी थी। युद्ध की घोषणा करने से पूर्व उसने स्वीडेन, हालैंड तथा सेवाय से संधि कर ली थी। फ्रांस के हस्तक्षेप से अब युद्ध का रूप बदल गया। फ्रांस एक कैथोलिक देश था जो जर्मनी के प्रोटेस्टेंटों के पक्ष में आस्ट्रिया तथा स्पेन जैसे कैथोलिक देशों से युद्ध कर रहा था। स्पष्ट था कि युद्ध अब धार्मिक के बजाय राजनीतिक हो गया था। प्रारंभ में फ्रांसीसी सेना को पराजित होना पड़ा, लेकिन 1637 में उसने स्पेनी सेना को पराजित करके नीदरलैंड्स तथा राइन प्रदेश से निकाल दिया। इसके बाद फ्रांसीसी सेना ने कई स्पेनी प्रदेशों को जीत लिया। स्पेन के विरुद्ध पुर्तगाल, नेपल्स और अरागान में विद्रोह हो गये। 1643 ई. में फ्रांसीसी प्रतिभाशाली सेनापति कोंडे ने निर्णायक रूप से स्पेनी सेना को पराजित कर दिया। स्पेन की पराजय के पश्चात् फ्रांस और स्वीडेन की संयुक्त सेनाओं ने जर्मनी में प्रवेश किया। 1648 ई. में उन्होंने सम्राट और बवेरिया की सेना को बुरी तरह पराजित किया। इससे आस्ट्रिया की राजधानी वियेना के लिए संकट उत्पन्न हो गया। सम्राट युद्ध से थक गया था और अब जीत की कोई संभावना नहीं थी। अंत में, संधि वार्ताएँ आरंभ हुईं जिनके फलस्वरूप 1648 ई. में वेस्टफेलिया की संधि से युद्ध समाप्त हो गया।

1642 ई. में रिशलू को मृत्यु हो चुकी थी। उसकी नीति को उसके उत्तराधिकारी मैजरिन ने जारी रखा और रिशलू के उद्देश्यों के अनुसार ही उसने संधि की शर्तों को तय किया।

वेस्टफेलिया की संधि (1648 ई.)

1648 ई. की वेस्टफेलिया की संधि के द्वारा तीसवर्षीय युद्ध समाप्त हो गया। इस संधि की धाराएँ निम्नलिखित थीं-

पवित्र रोम साम्राज्य का बाह्य स्वरूप तो वैसा ही बना रहा, लेकिन प्रत्येक सदस्य राज्य को सार्वभौमिक अधिकार प्रदान कर दिये गये। कोई भी राज्य युद्ध और शांति का निर्णय कर सकता था, लेकिन यह सम्राट के विरुद्ध न हो।

फ्रांस को अल्सास प्रांत और मेट्ज, तूल और वर्दुन के किले प्राप्त हुए। स्ट्रासबर्ग को नगर रखा गया।

स्वीडन को पश्चिमी पोमेरेनिया, ब्रेमन तथा वडेंन के प्रदेश प्रदान किये गये।

फ्रांस और स्वीडेन को जर्मनी डायट में अपने प्रतिनिधि भेजने का अधिकार मिला।

बेंडेनबर्ग को पूर्वी पोमेरेनिया, मेंडेबर्ग तथा कुछ विशपरकें प्राप्त हुईं।

पेलिटनेट के दो भाग किये गये- उत्तरी भाग बवेरिया तथा दक्षिणी भाग प्रेडिरक के पुत्र को दिया।

स्विट्जरलैंड और नीदरलैंड्स को पूर्ण स्वतंत्र राज्य माना गया।

काल्विनवादियों को भी मान्यता प्रदान की गई।

1624 ई. के पूर्व कैथोलिक या प्रोटेस्टेंट चर्चों के पास जो संपत्ति थी, वह उन्हीं की मानी जायेगी।

साम्राज्य के न्यायालयों में कैथोलिक तथा प्रोटेस्टेंट न्यायाधीश समान संख्या में होंगे।

तीसवर्षीय युद्ध 1618-1648 ई. (Thirty Year War, 1618-1648 AD)
1648 ई. में यूरोप
तीसवर्षीय युद्ध का परिणाम

तीसवर्षीय युद्ध और वेस्टफेलिया की संधि का आधुनिक यूरोप के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है। इस युद्ध से यूरोप में व्यापक राजनीतिक परिवर्तन हुए। इसने मध्ययुगीन परंपराओं को समाप्त करके आधुनिक प्रवृत्तियों को आरंभ किया-

नवयुग का आरंभ

इस युद्ध ने धार्मिक समस्याओं को हल कर दिया। काल्विनवादियों के मान्यता प्राप्त हुई। कैथोलिकों की संपत्ति के अपहरण को रोका गया। कैथोलिक तथा प्रोटेस्टेट धर्मों का संघर्ष समाप्त हो गया। युद्ध ने धर्म-सुधार युग को समाप्त कर दिया। इससे स्पष्ट हो गया कि राजनीतिक प्रश्न धार्मिक प्रश्नों से अधिक महत्वपूर्ण थे। इस प्रकार यूरोप में एक नवीन युग आरंभ हुआ, जिसमें राजनीतिक तथा आर्थिक प्रश्नों की प्रधानता थी।

आधुनिक राज्य व्यवस्था का आरंभ

इस युद्ध ने अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति और कानून पर आधारित आधुनिक राज्य व्यवस्था के उदय का मार्ग प्रशस्त किया। वेस्टफेलिया ने जर्मनी के सभी शासकों को स्वतंत्र तथा संप्रभु स्वीकार किया। इससे यह सिद्धांत स्थापित हुआ कि राज्यों का आकार चाहे छोटा हो या बडा, वे सभी समान हैं। इससे यह भी स्थापित हुआ कि पोप अब राजाओं की संप्रभुता में हस्तक्षेप नहीं कर सकता है। युद्ध की विभीषिका के कारण ‘युद्ध और शांति’ के अंतर्राष्ट्रीय नियमों को भी आरंभ किया गया।

राजनीतिक परिवर्तन

युद्ध के पश्चात् स्पष्ट हो गया कि स्पेन और आस्ट्रिया के हैब्सबर्ग राजवंश पतनशील है। दूसरी ओर युद्ध से फ्रांस के बूर्बो वंश उत्थान आरंभ हुआ। जर्मनी पर भी आस्ट्रिया का नियंत्रण ढीला हो गया। स्पेन की महानता का युग समाप्त हो गया।

बाल्टिक सागर की स्थिति

स्वीडन को सफलता प्राप्त हुई और उसने बाल्टिक सागर को स्वीडिश झील बना लिया, लेकिन स्वीडन के संसाधन इतने नहीं थे कि वह अपनी स्थिति को बनाये रखता। अतः जब रूस और प्रशा का उत्थान हुआ, स्वीडन की यह स्थिति समाप्त हो गई। तीसवर्षीय युद्ध का व्यापार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और डच इस क्षेत्र में हावी रहे।

जर्मनी पर घातक प्रभाव

इस युद्ध ने जर्मनी का आर्थिक विनाष कर दिया। विदेशी सेनाएँ जर्मनी की भूमि को रौंदती रहीं । इससे जर्मनी का आर्थिक विकास नहीं हो पाया और वह पश्चिमी देशों से सौ साल पिछड़ गया।

संक्रमण काल

तीसवर्षीय युद्ध यूरोप में मध्य युग तथा आधुनिक युग का संक्रमण काल था। इसने मध्ययुगीन दृष्टिकोण तथा परंपराओं को दुर्बल किया और आधुनिक दृष्टिकोण का विकास किया। धर्म का प्रभाव समाप्त हो गया और राजनीतिक प्रश्न निर्णायक हो गये।

इस प्रकार तीसवर्षीय युद्ध का आरंभ धार्मिक विवाद से हुआ, किंतु कालांतर में उसका स्वरूप राजनीतिक हो गया, जिसमें अंततः हैब्सबर्ग राजवंश की पराजय हुई और फ्रांस के बूर्बो वंश का गौरव यूरोप में प्रतिस्थापित हो गया। तीसवर्षीय युद्ध ने एक नवयुग का सूत्रपात किया जिसका आधार धर्म न होकर राजनीतिक एवं आर्थिक प्रश्न थे। उल्लेखनीय है कि वेस्टफेलिया की संधि ने स्पेन और फ्रांस के मध्य चलनेवाले युद्ध का अंत नहीं किया, बल्कि इस युद्ध की समाप्ति 1659 ई. में पिरेनीज की संधि से हुई। दरअसल, तीसवर्षीय युद्ध के बाद भी लगभमग 11 वर्षों तक फ्रांस व स्पेन में युद्ध चलता रहा। अंततः विवश होकर स्पेनी शासक फिलिप द्वितीय को फ्रांस के साथ पिरेनीज की संधि करनी पड़ी।

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