भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की पूर्ववर्ती संस्थाएँ (Former Institutions of the Indian National Congress)

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की पूर्ववर्ती संस्थाएँ

उन्नीसवीं सदी के चौथे दशक से ही कुछ उच्च शिक्षा प्राप्त आधुनिक बुद्धिजीवी राष्ट्रीय चेतना का प्रचार एवं प्रसार करने के लिए बंगाल, मुंबई और मद्रास में अनेक राजनैतिक संस्थाओं की स्थापना करने लगे थे। यद्यपि इन संस्थाओं का स्वरूप स्थानीय था और इनके पास कोई ठोस कार्यक्रम नहीं था, फिर भी इन संस्थाओं ने न केवल अंग्रेजी शासन की भेदभावपूर्ण नीतियों, शोषण के प्रकारों और लोक के आधुनिक सिद्धांतों का प्रचार किया, बल्कि अपने प्रार्थना-पत्रों, प्रत्यावेदनों आदि के माध्यम से भारत में प्रशासनिक सुधार करने, प्रशासन में भारतीयों को उचित भागीदारी देने और देश में शिक्षा का प्रसार करने जैसी माँगें भी अंग्रेजों के समक्ष रखी। इन प्रांतीय संस्थाओं ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध राष्ट्रवादी चेतना को गति और शक्ति प्रदान की।

राजा राममोहन रॉय पहले ऐसे भारतीय नेता थे जिन्होंने भारतीयों की शिकायतों की ओर अंग्रेजों का ध्यान आकर्षित कराने का प्रयत्न किया और उनका समाधान माँगा। उन्होंने समाचारपत्रों की स्वतंत्रता, शक्तियों के पृथक्करण, प्रेस की स्वतंत्रता, जूरी द्वारा मुकदमों की सुनवाई और सरकारी सेवाओं के भारतीयकरण जैसी माँगों पर हल्का-सा संवैधानिक आंदोलन आरंभ कर दिया था।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की पूर्ववर्ती संस्थाएँ (Former Institutions of the Indian National Congress)
राजा राममोहन रॉय

बंगभाषा प्रकाशक सभा

राममोहन राय के सहयोगी एवं अनुयायी गौरीशंकर तरकाबागीश ने ही सबसे पहले बंगाल में 1836 में ‘बंगभाषा प्रकाशक सभा’ नामक राजनीतिक संगठन का गठन किया था। संगठन का मुख्य कार्य प्रशासनिक क्रियाकलापों की समीक्षा कर उनमें सुधार लाने के लिए याचनाएं भेजना एवं देशवासियों को उनके राजनीतिक अधिकारों के प्रति जागरूक बनाना था।

इसके अलावा ‘अकादमिक एसोसिएशन’ तथा ‘साधारण ज्ञान सभा’ (कलकत्ता, 1838), पैट्रियाटिक एसोसिएशन (कलकत्ता, 1839) और स्टूडेंट लिटरेरी एंड साइंटीफिक एसोसिएशन (मुंबई) जैसी संस्थाएँ भारतीयों में लोकतांत्रिक चेतना का प्रचार कर रही थीं।

जमींदारी एसोसिएशन

भारत के अंग्रेज और भारतीय भूमिपतियों, व्यापारियों, वकीलों तथा संपादकों द्वारा स्थापित कलकत्ता की जमींदारी एसोसिएशन, जिसे ‘लैंड होल्डर्स सोसायटी‘ भी कहा जाता है, एक प्रारंभिक संस्था थी। इसकी स्थापना 19 मार्च 1938 को कलकत्ता के प्रसन्नकुमार ठाकुर, राजा राधाकांत देव, राजा कालीकृष्ण, बेद्वारकानाथ ठाकुर, रामकमल सेन, थियोडोर डिकेंस, विलियम काब हैरी, विलियम थियोबाल्ड तथा जी.ए. प्रिसेंप ने की थी। इस संगठन का मुख्य लक्ष्य प्रत्येक प्रकार के जमींदारों के स्वार्थों की रक्षा करना था। यद्यपि इस संस्था के उद्देश्य सीमित थे, किंतु यह पहली संस्था थी जिसने संगठित राजनीतिक चेतना का शुभारंभ किया और अपनी शिकायतों के निवारण के लिए संवैधानिक उपचारों का प्रयोग किया। इस सोसायटी ने अदालत में बंगला भाषा के प्रयोग, स्टैंप ड्यूटी कम करने तथा भारतीय कुलियों को माॅरीशस में भेजने की प्रथा को बंद करने जैसी माँगें अंग्रेजी शासन के समक्ष रखी। भूपतियों की यह संस्था इंग्लैंड की ‘ब्रिटिश इंडिया सोसायटी’ से भी सहयोग करती थी।

बंगाल ब्रिटिश इंडिया सोसायटी

द्वारकानाथ ठाकुर के आग्रह पर 1842 में इंग्लैंड के जार्ज टामसन दासता के विरुद्ध आंदोलन संगठित करने के उद्देश्य से भारत आये और ताराचंद्र चक्रवर्ती, कृष्णमोहन बनर्जी एवं अलेक्जेंडर डफ के साथ मिलकर 20 अप्रैल 1843 को ‘बंगाल ब्रिटिश इंडिया सोसायटी’ की स्थापना की। इसका उद्देश्य भारतीयों में राष्ट्रवाद की भावना जगाना तथा राजनीतिक शिक्षा को प्रोत्साहित करना था। यह सोसायटी ब्रिटिश शासन के प्रभाव से समाज के सभी वर्ग के लोगों की कठिनाइयों एवं दुःखों पर विचार कर उनके समाधान ढूढ़ने का प्रयत्न करती थी।

ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन

एक अखिल भारतीय मंच की स्थापना का प्रयास सबसे पहले 1851 में किया गया, जब ब्रिटिश संसद को एक संयुक्त ज्ञापन देने के लिए ‘लैंड होल्डर्स सोसाइटी’ एवं ‘बंगाल ब्रिटिश एसोसिएशन’ का विलय कर 28 अक्टूबर 1851 को ‘ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन’ की स्थापना की गई। इसके प्रमुख नेताओं में राधाकांत देव (अध्यक्ष), देवेंद्रनाथ टैगोर (महासचिव), राजेंद्रलाल मित्रा, गोपालपाल घोष, प्यारेचंद्र मित्र एवं हरिश्चंद्र मुखर्जी थे। इस संस्था ने पहली बार भारतीयों के लिए राजनीतिक अधिकारों की माँग करते हुए 1852 में ब्रिटिश संसद को एक स्मृति-पत्र भेजा, जिसमें विधायी परिषदों में भारतीयों को शामिल करने, भारत में आई.सी.एस. परीक्षा आयोजित करने, नमक कर, आबकारी कर एवं डाक शुल्क को समाप्त करने एवं प्रांतीय सरकार को स्वतंत्रता आदि दिये जाने माँग की गई थी। एसोसिएशन के कुछ सुझावों पर अमल करजे हुए 1853 के चार्टर ऐक्ट में गवर्नर जनरल की विधायी परिषद् में कानून-निर्माण में सहायता देने के लिए छः नये सदस्यों को मनोनीत करने का प्रावधान किया गया।

बाद में इस एसोसिएशन से ‘हिंदू पैट्रियट’ तथा ‘बंगाली’ के संपादक व्योमेशचंद्र बनर्जी, शंभूचंद्र मुखर्जी, रमेशचंद्र दत्त तथा बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय जैसे व्यक्ति भी जुड़ गये। यह संस्था बीसवीं सदी तक चलती रही और बाद में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा आच्छादित हो गई।

ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन के सचिव देवेंद्रनाथ ठाकुर के प्रोत्साहन से मुंबई, पूना तथा मद्रास में भी इसी तरह के संस्थाएँ स्थापित की गईं। 1852 में पूना में ‘दकन एसोसिएशन’, मद्रास में ‘मद्रास नेटिव एसोसिएशन’ तथा मुंबई में ‘बाम्बे एसोसिएशन’ की स्थापना हुई। इन सभी संस्थाओं ने 1857 के विद्रोह की खुली निंदा की और अंग्रेजों के प्रति अपनी वफादारी दिखाई।

बाम्बे एसोसिएशन

मुंबई में सर्वप्रथम राजनीतिक संस्था बाम्बे एसोसिएशन थी, जिसका गठन 26 अगस्त 1852 को कलकत्ता के ‘ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन’ के नमूने पर किया गया था। इसका उद्देश्य भेदभावपूर्ण सरकारी नियमों के विरुद्ध सरकार को सुझाव देना तथा विभिन्न बुराइयों को दूर करने हेतु सरकार को ज्ञापन देना था। किंतु 1861 के आसपास यह संस्था बिखर गई।

14 दिसंबर 1867 को विनायकराव जगन्नाथ सेठ शंकर, मंगलदास नाथूभाई तथा नौरोजी फरदूनजी ने बाम्बे एसोसिएशन को फिर से प्रारंभ किया। इस एसोसिएशन ने सिविल सर्विस की परीक्षा के लिए भारत में भी परीक्षा केंद्र खोलने, सरकारी पदों पर भारतीयों को नियुक्त करने तथा भारत के वित्तीय प्रशासन में सुधार लाने के प्रश्नों को उठाया। इस एसोसिएशन की समझौतापरस्त नीतियों के कारण जब युवा वर्ग में असंतोष बढ़ने लगा, तो महादेव गोविंद रानाडे, फिरोजशाह मेहरवानजी मेहता तथा के.टी. तैलंग जैसे पश्चिमी शिक्षा प्राप्त नेताओं की नई पीढ़ी ने इस संस्था से विद्रोह कर 1871 में ‘टाउन एसोसिएशन’ नामक संस्था स्थापित की।

ईस्ट इंडिया एसोसिएशन

भारत में स्थापित इन संगठनों के साथ-साथ लंदन के भारतीयों ने भी संगठन बनाकर भारतीय समस्याओं से जुड़े प्रश्नों को उठाने का प्रयास किया था। लंदन में इस तरह के कुल तीन संगठन बनें। सी. पुरुषोत्तम मुदालियर ने 1862 में ‘लंदन इंडियन कमेटी’ बनाई तो 1865 में भारतीय व्यापारियों तथा विद्यार्थियों ने लंदन इंडिया सोसायटी की स्थापना की। इसके प्रमूख सदस्यों में दादाभाई नौरोजी (ग्रैंड ओल्डमैन आफ इंडिया), फिरोजशाह मेहता, ज्ञानेंद्रमोहन ठाकुर तथा एच. पेस्टनजी आदि थे।

एक वर्ष बाद 1866 में दादाभाई नौरोजी ने लंदन में ‘ईस्ट इंडिया एसोसिएशन’ का गठन किया, जिसमें लंदन इंडिया सोसायटी भी शामिल हो गई। नौरोजी के इस एसोसिएशन में गैर-भारतीय भी सदस्य बन सकते थे। इस संगठन का उद्देश्य भारत के लोगों की समस्याओं और माँगों से अंग्रजों को अवगत कराना तथा भारतवासियों के पक्ष में ब्रिटेन में जनमत तैयार करना था। किंतु यह संस्था 1883 तक ही चल सकी, क्योंकि इल्बर्ट बिल का समर्थन करने के कारण यह भारतीयों की नजर में गिर गई।

स्वदेशी मेला

ब्रिटिश औद्योगीकरण से उत्प्रेरित भारत के आर्थिक शोषण के विरुद्ध बंगाल प्रांत में राजनारायण वसु तथा नवगोपाल मित्र (नेशनल मित्र) ने 1867 में देसी उद्योग-धंधों को प्रोत्साहित करने के लिए तथा स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग की भावना को बढ़ाने के उद्देश्य से राष्ट्रीय मेला, हिंदू मेला अथवा चैत मेला के नाम से ‘स्वदेशी मेला’ लगाना आरंभ कर दिया था। इस स्वदेशी आंदोलन का प्रचार शीघ्र ही लाहौर, मुंबई प्रांत तथा हिंदीभाषी प्रांतों तक हो गया था।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की पूर्ववर्ती संस्थाएँ (Former Institutions of the Indian National Congress)
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (9 सितंबर 1850-6 जनवरी 1885)

राजनारायण वसु तथा नवगोपाल मित्र के ‘स्वदेशी मेला’ (1867) से प्रभावित होकर बनारस के प्रसिद्ध साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र (1850-1885) ने 23 मार्च 1874 को ‘कविवचन सुधा’ नामक पत्रिका में एक प्रतिज्ञा प्रकाशित किया था: ‘‘कि हम लोग आज के दिन से कोई विलायती कपड़ा नहीं पहिरेंगे और जो कपड़ा पहले से मोल ले चुके हैं और आज की मिती तक हमारे पास है, उनको तो उनके जीर्ण होने जाने तक काम में लावेंगे, पर नवीन मोल लेकर किसी भांति का भी विलायती कपड़ा न पहिरेंगे, हिंदुस्तान ही का बना कपड़ा पहिरेंगे।’’

पूना सार्वजनिक सभा

मराठा संस्कृति की पुरानी राजधानी पूना में 2 अप्रैल 1870 को महादेव गोविंद रानाडे ने ‘पूना सार्वजनिक सभा‘ नामक एक नया संगठन शुरू किया। इस सभा के प्रमुख व्यक्तियों में गणेश वासुदेव जोशी, एस.एच. साठे आदि थे। गोविंद रानाडे जहाँ अपनी विद्वता के लिए प्रसिद्ध थे, वहीं गणेश वासुदेव जोशी अपनी सादगी भरे नेतृत्व की क्षमता के लिए। इनके त्यागपूर्ण कार्यों के कारण लोग इन्हें ‘सार्वजनिक काका’ कहते थे। इस संस्था ने स्वदेशी आंदोलन, अकाल पीडि़तों की सहायता तथा राजनैतिक चेतना फैलाने जैसे कार्यों से अत्यंत लोकप्रियता प्राप्त की। किंतु अपने मध्यमवर्गीय चरित्र, जमींदारों तथा व्यापारियों के प्रतिनिधित्व और अंग्रेजी शासन के प्रति नरम रवैये के कारण यह संस्था भी जनता का प्रतिनिधित्व करने में असफल रही।

1870 तक भारतीय समाज में परिवर्तन के संकेत मिलने लगे थे। तीनों प्रेसीडेंसी नगरों- बंगाल, मुंबई और मद्रास में उच्च शिक्षा भलीभाँति प्रचलित हो गई थी और वहाँ एक जैसा एक नया लोकसमूह बन गया था जो कि एक अधिक लोकप्रिय और विस्तृत आधार के संगठनों के लिए उपयुक्त था।

25 सितंबर 1875 को बाबू शिशिरकुमार घोष ने बंगाल में’इंडियन लीग’ का गठन किया, जिसका उद्देश्य लोगों में राष्ट्रवाद की भावना जगाना था और लोगों में राजनीतिक शिक्षा को प्रोत्साहित करना था। 26 जुलाई 1876 को इंडियन लीग का स्थान ‘इंडियन एसोसिएशन ऑफ कलकत्ता’ ने ले लिया।

इंडियन एसोसिएशन ऑफ कलकत्ता

कांग्रेस पूर्व राष्ट्रवादी संगठनों में सबसे महत्त्वपूर्ण कलकत्ता का इंडियन एसोसिएशन था। युवा राष्ट्रवादी जमींदार तत्वों द्वारा नियंत्रित ‘ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन’ की रूढ़िवादी और जमींदार-समर्थक नीतियों से ऊब चुके थे। उन्हें बंगाल के प्रतिभाशाली लेखक-वक्ता सुरेंद्रनाथ बनर्जी के रूप में एक नेता भी मिल गया। बनर्जी सरकारी अधिकारियों द्वारा अन्यायपूर्ण ढ़ंग से इंडियन सिविल सर्विस से बाहर कर दिये गये थे। सुरेंद्रनाथ बनर्जी तथा आनंदमोहन बोस जैसे लोगों ने 26 जुलाई 1876 को कलकत्ता के इल्बर्ट हाल की एक सार्वजनिक सभा में ‘जनता का प्रतिनिधित्व करने’ की घोषित आकांक्षा के साथ ‘इंडियन एसोसिएशन ऑफ कलकत्ता‘ नाम से एक नया संगठन बनाया, जिसका लक्ष्य था- राजनीतिक प्रश्नों पर भारतीय जनता को एकताबद्ध करना। बंगाल में और बंगाल से बाहर कई नगरों में इसकी शाखाएँ खोली गईं। इस संस्था ने सरकार के विभिन्न अनुचित कार्यों की आलोचना कर एक प्रकार से कांग्रेस की नींव डाल दी।

‘इंडियन एसोसिएशन ऑफ कलकत्ता’ ने 1876 में भारतीय नागरिक सेवा परीक्षा में प्रवेश की आयु 21 वर्ष से घटाकर 19 वर्ष कर देने पर सरकार के खिलाफ ‘भारतीय जानपाद सेवा आंदोलन‘ चलाया। इस आंदोलन ने उच्च तथा मध्यमवर्गीय शिक्षित वर्ग में राष्ट्रवादी चेतना को विकसित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। यद्यपि 1853 के चार्टर अधिनियमों, 1858 के विक्टोरिया घोषणा-पत्र तथा 1861 के सिविल सर्विस अधिनियम में यह व्यवस्था की गई थी कि किसी भी नियुक्ति में भारतीयों के साथ किसी भी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं किया जायेगा, किंतु ब्रिटिश शासन की सदैव यह कोशिश रही कि किसी भी प्रकार से कोई भारतीय इस महत्त्वपूर्ण पद नियुक्त न हो सके।

सिविल सेवा की परीक्षाएँ लंदन में होती थीं और इस प्रतियोगी परीक्षा में बैठने की अधिकतम आयु 22 वर्ष निश्चित थी, किंतु 1863 में जब सत्येंद्रनाथ ठाकुर ने यह परीक्षा उत्तीर्ण कर ली, तो इसमें बैठने की अधिकतम आयु घटाकर 21 वर्ष कर दी गई। परंतु फिर जब 1869 में सुरेंद्रनाथ बनर्जी सहित चार भारतीयों ने यह परीक्षा उत्तीर्ण कर ली, तो 1877 में यह सीमा घटाकर 19 वर्ष कर दी गई। भारतीय 1874 में सुरेंद्रनाथ के निष्कासन से पहले से ही क्षुब्ध थे, परिणामतः जब 1877 में प्रतियोगिता की आयु घटाकर 19 वर्ष कर दी गई तो शिक्षित भारतीयों में रोष उत्पन्न होना स्वाभाविक था।

मद्रास महाजन सभा

बी. सुब्रह्मण्यम अय्यर एवं पी. आनंद चारलू द्वारा 17 मई 1884 को पी. रंगिया नायडू की अध्यक्षता में ‘मद्रास महाजन सभा‘ की स्थापना की गई। इसका उद्देश्य स्थानीय संगठनों व संस्थाओं के कार्यों को समन्वित करना था। इस संस्था ने अपने 29 दिसंबर 1884 से 2 जनवरी 1885 तक होनेवाले सम्मेलन में विधान-परिषदों का विस्तार करने, उनमें भारतीयों को प्रतिनिधित्व देने तथा न्यायपालिका और राजस्व एकत्र करनेवाली संस्थाओं के पृथक्कीकरण की माँग की थी।

बाम्बे प्रेसीडेंसी एसोसिएशन

1878 की आर्थिक मंदी के कारण समाप्त हो चुकी बाम्बे एसोसिएशन के बाद मुंबई में एक राजनैतिक संगठन की स्थापना का ध्येय 31 जनवरी 1885 को पूरा हुआ जब फिरोजशाह मेहता, के.टी. तैलंग एवं बदरूदीन तैय्यब ने एक नागरिक सभा में ‘बाम्बे प्रेसीडेंसी एसोसिएशन’ नामक संगठन की स्थापना की। इस संस्था का उद्देश्य भारत में सिविल सर्विस परीक्षा को आयोजित कराना एवं सरकारी पदों पर भारतीयों की नियुक्ति कराना आदि था। इस एसोसिएशन के सदस्यों ने ब्रिटिश संसद के तत्कालीन चुनावों में उदारपंथी दल को सहायता देने का निश्चय किया। पहली बार एक भारतीय लालमोहन घोष उदारपंथियों के उम्मीदवार के रूप में ब्रिटिश संसद का चुनाव लड़ रहे थे, किंतु उदारपंथियों की भारी पराजय के कारण इनकी आशाओं पर पानी फिर गया।

प्रेसीडेंसियों के बाहर भी संगठित राजनीतिक जीवन पंजाब में लाहौर इंडियन एसोसिएशन या संयुक्त प्रांत में इलाहाबाद पीपुल्स एसोसिएशन जैसे नये संगठनों के आसपास घूमता रहा था। इस प्रकार उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक बौद्धिक जागरण और स्थानीय संगठनों की स्थापना के कारण भारतीय राष्ट्रवादी एक साझे शत्रु अर्थात् विदेशी शासन और उसके शोषण के खिलाफ राजनीतिक एकता की आवश्यकता महसूस करने लगे थे।

आरंभिक राष्ट्रवाद की सीमाएँ

1870 के दशक में भारत के संगठित राजनीतिक जीवन में एक और बड़ा परिवर्तन आने लगा था। भूस्वामी कुलीनों के नियंत्रणवाले पुराने संगठनों का स्थान धीरे-धीरे वे नये संगठन लेने लगे थे, जिन पर मध्य वर्ग के पेशेवर लोगों का वर्चस्व था। इन नये सगठनों ने जो नई माँगें उठाई, उनका चरित्र कभी-कभी स्थानीय या क्षेत्रीय होता था, लेकिन उनका महत्त्व प्रायः राष्ट्रीय होता था, जैसे- विधायिका में भारतीय प्रतिनिधित्व, सरकार के कार्यकारी और न्यायिक कार्यों के पृथक्करण, सिविल सेवा के भारतीयकरण और इसके लिए भारत और इंग्लैंड में भारतीय सिविल सेवा की एक साथ परीक्षा कराने, सूती कपड़ों पर आयात शुल्क लगाये जाने की, घरेलू खर्चों और महँगे विदेशी युद्धों पर खर्च में कमी करने और ब्रिटिश भारत के दूसरे भागों तक स्थायी बंदोबस्त के विस्तार की माँग आदि। पूना सर्वजनिक सभा जैसे संगठन किसानों के बीच रहकर अकाल में राहत-कार्य पहुँचाने या मध्यस्थता की अदालतों का आयोजन करने में लगे रहे।

किंतु सवर्ण हिंदू नेताओं में से अनेक अपने सामाजिक रूढ़िवाद से पूरी तरह ऊपर नहीं उठ सके। हिंदू स्वर्णकाल की धारणा पर आधारित एक राष्ट्रवादी विचारधारा तैयार करने की उनकी कोशिशों ने जनता के एक बड़े भाग को तुरंत प्रेरित किया, किंतु इन्हीं कोशिशों ने कुछ दूसरे लोगों को दूर भी धकेल दिया। सामाजिक बहसों ने पूना सार्वजनिक सभा को दो गुटों में बाँट दिया- एक ओर रूढिवादी बाल गंगाधर तिलक थे, दूसरी ओर उदारपंथी गोपालकृष्ण गोखले। 1891 के ‘एज ऑफ कंसेंट ऐक्ट’ द्वारा जब कन्याओं के लिए विवाह की आयु 10 वर्ष से बढ़ाकर 12 वर्ष कर दी गई, तो यह विवाद पैदा हो गया कि अंग्रेजों को हिंदुओं के सामाजिक धार्मिक जीवन में हस्तक्षेप का कोई अधिकार नहीं है। इस प्रकार भारतीय राष्ट्रवाद का संबंध हिंदू धर्म की रक्षा से जुड़ गया और भारतीय राष्ट्रवाद को हिंदू बिंबों के रूप में प्रस्तुत किया जाने लगा। इस विकासक्रम से राष्ट्रवाद की धारा से मुसलमान कटने लगे, क्योंकि उनमें भी एक नई चेतना का विकास हो रहा था।

यही नहीं, निचली जातियों और अछूतों का समर्थन पाने के लिए ब्राह्मणों और दूसरे सवर्ण हिंदुओं ने, जिनका नई शिक्षा, नये पेशों और नये संगठनों पर वर्चस्व था, कुछ भी नहीं किया। फिर भी, इन निचले वर्गों में औपनिवेशिक शैक्षिक नीतियों, ईसाई मिशनरियों के सेवा-भाव और उनकी पहल के कारण जागरूकता और सामाजिक चेतना के लक्षण दिखाई देने लगे थे। इससे वे ब्राह्मण-विरोधी भावनाओं के आधार पर वैकल्पिक राजनीतिक विचारधाराओं की रचना के लिए प्रेरित हुए, जिनके बल पर महाराष्ट्र और मद्रास में अछूतों और गैर-ब्राह्मण जातियों ने शक्तिशाली आंदोलन संगठित किये। इस प्रकार आरंभ से ही भारतीय राष्ट्रवाद को विविधता और विभिन्नता के कठिन मुद्दों का सामना करना पड़ा।

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