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चौरी चौरा की घटना
4 फरवरी 1922 की चौरी चौरा की घटना भारत के राष्ट्रीय आंदोलन की एक दंतकथा बन चुकी है। जब महात्मा गांधी के नेतृत्व में पूरे भारत में असहयोग सत्याग्रह पूरे उफान पर था, उसी दौरान उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के चौरी चौरा नामक स्थान पर शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने वाले स्वयंसेवकों के एक बडे जुलुस पर पुलिस द्वारा गोली चलाई गई। जबाबी कार्रवाई में आक्रोशित स्वयंसेवकों ने चौरी चौरा के पुलिस थाने को घेरकर उसमें आग लगा दी, जिसमें तीन नागरिकों और 22 पुलिसकर्मियों की मौत हो गई थी। इस हिंसात्मक घटना के बाद महात्मा गांधी ने व्यथित होकर अपना असहयोग सत्याग्रह स्थगित कर दिया था।
खिलाफत और असहयोग (Khilafat and Non-Cooperation Movement)
चौरी चौरा की घटना की पृष्ठभूमि
वास्तव में चौरी चौरा की घटना की पृष्ठभूमि उन घटनाओं की शृंखला में निहित थी, जो प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान और उसके के बाद अंग्रेजी हुकुमत द्वारा भारतीय संदर्भ में उठाये गये कदमों के कारण घटित हुई थीं। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद खाद्यान्नों की भारी कमी हो गई थी, मुद्रास्फीति बढ़ने लगी थी, औद्योगिक उत्पादन कम हो गया था और लोग भारी करों के बोझ से दब गये थे। गाँवों, कस्बों और नगरों में रहनेवाले मध्यम एवं निम्न मध्यवर्ग के किसान, दस्तकार, मजदूर सभी महँगाई और बेराजगारी से परेशान थे और इन परेशानियों को सूखों और महामारियों ने और भी बढ़ा दिया था।
रौलट ऐक्ट, जालियाँवाला बाग हत्याकांड और पंजाब में मार्शल ला ने जनता की सारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया था। जनता समझ गई थी कि अंग्रेजी हुकूमत दमन के सिवा उसे और कुछ नहीं दे सकती है। आठ सदस्योंवाली हंटर समिति भी जाँच के नाम पर संपूर्ण प्रकरण पर केवल लीपापोती कर रही थी। इन्हीं कारणों से क्षुब्ध होकर 1920 के दशक के आरंभ में महात्मा गांधी के नेतृत्व में राष्ट्रव्यापी असहयोग सत्याग्रह चलाया जा रहा था।
जब ब्रिटिश सरकार ने सत्याग्रहियों के विरुद्ध दमनचक्र तेज कर दिया और गांधीजी को छोड़कर सभी महत्त्वपूर्ण राष्ट्रवादी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया तो 1 फरवरी 1922 को गांधीजी ने ब्रिटिश सरकार को चेतावनी दी कि यदि सरकार राजनीतिक बंदियों को रिहाकर नागरिक स्वतंत्रता बहाल नहीं करती है और प्रेस पर से नियंत्रण नहीं हटाती है, तो वे देशव्यापी सविनय अवज्ञा आंदोलन छेड़ने के लिए बाध्य हो जायेंगे। उन्होंने फरवरी 1922 में गुजरात के बारदोली में प्रयोग के तौर पर मालगुजारी की ‘गैर-अदायगी’ का एक अभियान शुरू करने का भी निर्णय लिया। इसी बीच 4 फरवरी 1922 को चौरी चौरा की घटना हो गई।
चौरी चौरा की घटना, 4 फरवरी, 1922
चौरी चौरा की घटना के दो दिन पहले 2 फरवरी 1922 को एक सेवानिवृत्त सिपाही भगवान अहीर के नेतृत्व में स्वयंसेवकों ने पुलिस दमन, अनाज की बढ़ती हुई कीमतों और शराबखोरी के विरुद्ध प्रदर्शन करने के लिए स्थानीय बाजार में एक जुलूस निकाला। चौरी चौरा थाने की पुलिस ने भगवान अहीर की पिटाई कर दी और कई स्वयंसेवकों को गिरफ्तार कर लिया।
4 फरवरी 1922 को स्वयंसेवकों के एक बड़े जत्थे ने, जिसमें लगभग 3,000 किसान और मजदूर शामिल थे, अपने नेताओं की रिहाई और पुलिस के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करने के लिए जुलूस निकाला। ब्रितानी हुकूमत किसी भी तरह के आंदोलन को कुचलने के लिए कटिबद्ध थी। स्वयंसेवकों का जत्था चौरी चौरा पुलिस थाने के सामने अपने नेताओं की रिहाई की माँग करते हुए नारे लगा रहा था। भीड़ को डराने और तितर-बितर करने के प्रयास में चौरी चौरा थाने की पुलिस ने स्वयंसेवकों पर गोलियाँ चलाई, जिसमें खेलावन भर मारे गये।
खेलावन भर की मौत के बाद स्वयंसेवकों का उत्तेजित हो जाना स्वाभाविक था। उत्तेजित भीड़ ने पुलिस वालों पर ईट-पत्थरों से हमला बोल दिया। भीड़ से बचने के लिए पुलिस के जवानों ने भागकर थाने में शरण ली। आक्रोशित और अनियंत्रित भीड़ ने थाने को घेरकर उसमें आग लगा दी, जिसमें थानेदार गुप्तेश्वर सिंह सहित 22 पुलिसकर्मी और चपरासी मारे गये।
स्वराज पार्टी और अपरिवर्तनवादी (Swaraj Party and No Changers)
असहयोग सत्याग्रह का स्थगन
महात्मा गांधी हिंसा के सख्त खिलाफ थे। चौरी चौरा की घटना की सूचना मिलते ही उन्होंने असहयोग सत्याग्रह को वापस लेने की घोषणा कर दी। वास्तव में गांधीजी को भय था कि जन-उत्साह और जोश के इस वातावरण में आंदोलन हिंसक मोड़ ले सकता है और देश में हिंसा का दौर प्रारंभ हो सकता है। गांधीजी की अहिंसा अंग्रेजी शासन के असीम ताकत के विरुद्ध एक कारगर शस्त्र के समान थी। इस शस्त्र (अहिंसा) के हाथ से निकलने का अर्थ था आंदोलन में हिंसा का आगमन। सरकार की सशस्त्र सेना हिंसक आंदोलन को आसानी से कुचल देती और इसके बाद वर्षों तक अंग्रेजी राज से लड़ पाना संभव नहीं रह जाता। कांग्रेस कार्यकारिणी समिति ने 12 फरवरी 1922 की बैठक में आंदोलन वापसी की पुष्टि कर दी और तत्काल प्रत्येक प्रकार के आंदोलन को समाप्त कर देने की घोषणा की।
नेहरू, सुभाषचंद्र बोस और कांग्रेस के अधिकांश कार्यकर्ताओं ने गांधीजी के इस फैसले को जल्दबाजी में लिया गया गलत निर्णय बताया। सुभाषचंद्र बोस का कहना था: ‘‘जिस समय जनता का उत्साह अपने चरमोत्कर्ष पर था, उस समय पीछे हटने का आदेश देना राष्ट्रीय दुर्भाग्य से कम नहीं था।’’ आंदोलन के अचानक स्थगन पर जवाहरलाल नेहरू की प्रतिक्रिया थी कि ‘‘यदि कन्याकुमारी के एक गाँव ने अहिंसा का पालन नहीं किया, तो इसकी सजा हिमालय के एक गाँव को क्यों मिलनी चाहिए?’’ आंदोलन की वापसी के कुछ महीने बाद ही ब्रितानी सरकार ने गांधी को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया।
परीक्षण और सजाएँ
चूंकि चौरी चौरा की घटना ब्रितानी सरकार के लिए एक चुनौती थी, इसलिए चौरी चौरा और उसके आसपास के क्षेत्रों में तत्काल मार्शल लॉ लगा दिया गया। कई स्थानों पर छापे मारे गये और सैकड़ों लोग गिरफ्तार किये गये। ‘दंगा और आगजनी’ के आरोप में कुल 228 लोगों पर मुकदमें चलाये गये। इनमें से 6 लोगों की मुकदमे के दौरान पुलिस की हिरासत में ही मौत हो गई। सेशन कोर्ट ने चौरी चौरा कांड के शेष 222 अभियुक्तों में से 172 को फांसी की सजा सुनाई। बड़े दुख की बात है कि 22 पुलिसकर्मियों की जान के बदले 172 जानें लेने के प्रयास का राष्ट्रीय स्तर कोई विरोध नही किया गया। पंडित मदन मोहन मालवीय ने चौरी चौरा कांड के अभियुक्तों का मुक़दमा लड़ा। 20 अप्रैल 1923 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 19 लोगों के फांसी की सजा की पुष्टि की और 110 को आजीवन कारावास की सजा सुनाई, शेष को देशनिकाला और कालापानी की सजा दी गई।
चौरी चौरा की जनता अपने शहीद रणबांकुरों को भला कैसे भुला पाती? आजादी के बाद स्थानीय देशप्रेमियों ने शहीदों की समृति सँजोये रखने के लिए 1971 में ‘चौरी चौरा शहीद स्मारक समिति’ का गठन किया। इस स्मारक समिति ने स्थानीय जनता के सहयोग से 1973 में 12.2 मीटर ऊँचे त्रिकोणीय मीनार का निर्माण करवाकर चौरी चौरा के वीर शहीदों की स्मृति को अजर-अमर बना दिया। बाद में, इस घटना से संबंधित लोगों को सम्मानित करने के लिए भारत सरकार ने एक और शहीद स्मारक बनवाया। स्मारक के पास ही स्वतंत्रता संग्राम से संबंधित एक पुस्तकालय और संग्रहालय भी स्थापित किया गया है। इस प्रकार चौरी चौरा के वीर सपूतों ने अपनी शहादत की शौर्यगाथा से भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास में चौरी चौरा के साथ गोरखपुर का नाम भी स्वर्ण अक्षरों में अंकित करवा दिया।
सविनय अवज्ञा आंदोलन और गांधीजी
चौरी चौरा की शौर्यगाथा का महत्त्व
चौरी चौरा की घटना का राष्ट्रीय आंदोलन पर शांति की दृष्टि से नकारात्मक, किंतु प्रभाव की दृष्टि से सकारात्मक प्रभाव पड़ा। इस घटना ने सिद्ध कर दिया कि अब राष्ट्रवादी प्रवृत्तियाँ देश के दूर-दराज के क्षेत्रों में भारतीय समाज के प्रायः सभी वर्गों में फैल चुकी हैं। इस घटना ने अंग्रेजों की इस धारणा को तोड़ दिया कि भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना का अभाव है और दासता की त्रासदी को वे अपने भाग्य की नियति मानत हैं। इस घटना ने ब्रिटिश शासन की अजेयता की धारणा को को गंभीर चुनौती दिया और अब भारतीय जनता के मन से भय की भावना दूर होने लगी।
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