चौरी चौरा की घटना: एक ऐतिहासिक मोड़
चौरी चौरा की घटना भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक दुखद और निर्णायक मोड़ थी, जो 4 फरवरी 1922 को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के छोटे से कस्बे चौरी चौरा में घटी थी। यह घटना महात्मा गांधी द्वारा चलाए जा रहे असहयोग आंदोलन (1920-1922) के दौरान हुई, जब आंदोलन ब्रिटिश शासन के खिलाफ अहिंसक रूप से अपने चरम पर था। इस आंदोलन का मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश वस्तुओं, संस्थाओं और सेवाओं का बहिष्कार करके स्वराज (स्वशासन) प्राप्त करना था। आंदोलन के दौरान उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के चौरी चौरा में स्थानीय स्वयंसेवक शराब की दुकानों का बहिष्कार, ब्रिटिश वस्तुओं की होली और नशामुक्ति जैसे अहिंसक कार्यक्रम चला रहे थे। जब शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने वाले स्वयंसेवकों के एक बड़े जुलूस पर पुलिस ने गोली चलाई, तो प्रदर्शन हिंसात्मक हो गया। जवाबी कार्रवाई में आक्रोशित स्वयंसेवकों ने चौरी चौरा के पुलिस थाने को घेरकर उसमें आग लगा दी, जिसमें 22 पुलिसकर्मी जिंदा जल गए और 3 नागरिक मारे गए। इस हिंसक घटना से दुखी होकर गांधीजी ने असहयोग आंदोलन को अचानक स्थगित कर दिया।
चौरी चौरा की घटना की पृष्ठभूमि
चौरी चौरा की घटना की पृष्ठभूमि उन घटनाओं की श्रृंखला में निहित थी, जो प्रथम विश्वयुद्ध (1914-1918) के दौरान और उसके बाद ब्रिटिश शासन द्वारा भारत में उठाए गए कदमों के कारण घटित हुई थी। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद खाद्य पदार्थों की भारी कमी हो गई थी, मुद्रास्फीति बढ़ गई थी, औद्योगिक उत्पादन में गिरावट आ गई थी और लोग भारी करों के बोझ तले दब गए थे। गाँवों, कस्बों और नगरों में रहने वाले मध्यम और निम्न मध्यवर्ग के किसान, दस्तकार, मजदूर सभी महँगाई और बेरोजगारी से पीड़ित थे। सूखे और महामारियों ने इस संकट को और गहरा कर दिया था। रॉलट एक्ट (1919), जालियाँवाला बाग हत्याकांड (13 अप्रैल 1919) तथा पंजाब में मार्शल लॉ ने जनता की सारी आशाओं पर पानी फेर दिया था। आठ सदस्यों वाली हंटर समिति की जाँच भी औपचारिकता साबित हुई, जिससे ब्रिटिश शासन की दमनकारी छवि उजागर हो चुकी थी। इन घटनाओं से क्षुब्ध होकर गांधीजी ने 1 अगस्त 1920 को असहयोग सत्याग्रह शुरू किया। 1922 तक आंदोलन पूरे देश में फैल चुका था। ग्रामीण क्षेत्रों में किसान और मजदूर आर्थिक शोषण, जैसे उच्च अनाज कीमतें, शराब की बिक्री और पुलिस अत्याचार से त्रस्त थे। जब ब्रिटिश सरकार ने दमनात्मक कार्यवाही तेज करते हुए प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार कर लिया, तो 1 फरवरी 1922 को गांधीजी ने चेतावनी दी कि यदि राजनीतिक बंदी न रिहा हुए, नागरिक स्वतंत्रता बहाल न हुई और प्रेस पर नियंत्रण न हटाया गया, तो वह सविनय अवज्ञा शुरू करेंगे। उन्होंने गुजरात के बारदोली में प्रयोग के तौर पर मालगुजारी की ‘गैर-अदायगी’ का अभियान शुरू करने का भी निर्णय लिया। इसी बीच 4 फरवरी 1922 को चौरी चौरा की घटना घटित हो गई।
चौरी चौरा की घटना (4 फरवरी 1922)
घटना से दो दिन पहले 2 फरवरी 1922 को चौरी चौरा के निकट गौरी बाजार में एक छोटा लेकिन महत्त्वपूर्ण प्रदर्शन हुआ, जिसका नेतृत्व एक सेवानिवृत्त ब्रिटिश भारतीय सेना के सिपाही भगवान अहीर ने किया। लगभग 200-300 स्वयंसेवक बाजार में जुलूस निकाल रहे थे, जिसमें पुलिस अत्याचारों, अनाज की बढ़ती कीमतों और शराबखोरी के खिलाफ ‘शराब बंद करो’ और ‘अंग्रेजी राज मुर्दाबाद’ जैसे नारे लगाए जा रहे थे। चौरी चौरा में स्थानीय थानेदार गुप्तेश्वर सिंह के नेतृत्व में पुलिस ने जुलूस को रोकने का प्रयास किया और जब स्वयंसेवक नहीं रूके तो लाठीचार्ज कर दिया। भगवान अहीर सहित कई नेताओं को बुरी तरह पीटा गया तथा गिरफ्तार कर थाने में बंद कर दिया गया। पुलिस की इस दमनात्मक कार्रवाई से स्थानीय किसानों और मजदूरों में आक्रोश पैदा हो गया। गिरफ्तार नेताओं की रिहाई की माँग तेज हो गई और खबर पूरे इलाके में फैल गई। यह प्रारंभिक संघर्ष था, जो दो दिनों बाद हिंसा में बदल गया।
4 फरवरी 1922 को सुबह भगवान अहीर सहित सभी गिरफ्तार नेताओं की रिहाई और पुलिस अत्याचारों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के लिए एक बड़ा जुलूस निकाला गया, जिसमें ग्रामीण इलाकों से आए 2,000 से 3,000 किसान, मजदूर, स्वयंसेवक और महिलाएँ तथा बच्चे भी थे। प्रदर्शनकारी शांतिपूर्ण तरीके से ‘नेताओं को रिहा करो’, ‘पुलिस उत्पीड़न बंद करो’ और ‘अंग्रेजी राज का बहिष्कार करो’ के नारे लगा रहे थे। जब प्रदर्शनकारी चौरी चौरा थाने के जब खड़े होकर अपने नेताओं की रिहाई की माँग करने लगे तो पुलिस ने भीड़ को तितर-बितर करने का प्रयास किया। थानेदार गुप्तेश्वर सिंह ने चेतावनी दी, लेकिन जब भीड़ नहीं मानी, तो पुलिस ने गोलीबारी शुरू कर दी। इस गोलीबारी में खेलावन भर नामक युवा स्वयंसेवक की मौत हो गई और कुछ स्रोतों के अनुसार 3 नागरिक मारे गए। खेलावन भर की मौत से भीड़ उत्तेजित हो गई और शांतिपूर्ण प्रदर्शन हिंसा में बदल गया। उत्तेजित और अनियंत्रित भीड़ ने पुलिस पर ईंट-पत्थरों और लाठियों से हमला बोल दिया। थानेदार गुप्तेश्वर सिंह और पुलिस के 22 जवान तथा चपरासी सभी ने भागकर थाने में शरण ली। आक्रोशित भीड़ ने थाने को घेर लिया और आग लगा दी। थाने में फँसे पुलिसकर्मी बाहर नहीं निकल सके, और आग से जिंदा जल गए। थाने के बाहर भी कुछ पुलिसकर्मी मारे गए। यह हिंसा गांधीजी के असहयोग आंदोलन के अहिंसक सिद्धांतों के विपरीत थी।
असहयोग आंदोलन का स्थगन
गांधीजी अहिंसा के सिद्धांत के प्रति अडिग थे। घटना की खबर जब गांधीजी तक पहुँची, तो उन्होंने इस घटना को ‘हिमालयी भूल’ कहा और 5 फरवरी को उपवास शुरू कर दिया। 12 फरवरी 1922 को गांधीजी ने असहयोग आंदोलन को पूरे देश में स्थगित कर दिया। वास्तव में, गांधीजी को डर था कि जन-उत्साह और जोश के इस माहौल में आंदोलन हिंसक रूप ले सकता है और देश में हिंसा का दौर शुरू हो सकता है। उनका तर्क था कि जनता अभी अहिंसा के लिए तैयार नहीं है, और हिंसा आंदोलन को कमजोर कर सकती है। गांधीजी की अहिंसा ब्रिटिश शासन की अपार ताकत के खिलाफ एक प्रभावी हथियार थी। इस हथियार (अहिंसा) के हाथ से निकलने का मतलब था आंदोलन में हिंसा का प्रवेश। सरकार की सशस्त्र सेना हिंसक आंदोलन को आसानी से कुचल सकती थी और इसके बाद वर्षों तक ब्रिटिश राज से लड़ना संभव नहीं रह जाता। कांग्रेस कार्यकारिणी समिति ने 12 फरवरी 1922 की बैठक में आंदोलन की वापसी की पुष्टि की और तत्काल हर प्रकार के आंदोलन को समाप्त करने की घोषणा की। चित्तरंजन दास, मोतीलाल नेहरू ने स्थगन का विरोध किया। नेहरू, सुभाषचंद्र बोस और कांग्रेस के अधिकांश कार्यकर्ताओं ने गांधीजी के इस निर्णय को जल्दबाजी में लिया गया गलत कदम माना। सुभाषचंद्र बोस का कहना था कि जब जनता का उत्साह अपने चरम पर था, उस समय पीछे हटने का आदेश देना राष्ट्रीय दुर्भाग्य से कम नहीं था। आंदोलन के अचानक स्थगन पर जवाहरलाल नेहरू की प्रतिक्रिया थी कि अगर कन्याकुमारी के एक गाँव ने अहिंसा का पालन नहीं किया, तो हिमालय के एक गाँव को उसकी सजा क्यों मिलनी चाहिए? लेकिन गांधीजी का निर्णय अंतिम था।
परीक्षण और सजाएँ
चूंकि चौरी चौरा की घटना ब्रिटिश सरकार के लिए एक चुनौती थी, इसलिए चौरी चौरा और उसके आसपास के क्षेत्रों में तत्काल मार्शल लॉ लागू कर दिया गया। कई स्थानों पर छापेमारी की गई और सैकड़ों स्वयंसेवक गिरफ्तार किए गए। ‘दंगा और आगजनी’ के आरोप में कुल 228 लोगों पर मुकदमे चलाए गए, जिनमें से 6 लोगों की मुकदमे के दौरान पुलिस हिरासत में ही मृत्यु हो गई। सेशन कोर्ट ने चौरी चौरा कांड के शेष 222 अभियुक्तों में से 172 को फाँसी की सजा सुनाई। दुर्भाग्यपूर्ण बात यह थी कि 22 पुलिसकर्मियों की जान के बदले 172 जानें लेने के प्रयास का राष्ट्रीय स्तर पर कोई विरोध नहीं हुआ। पंडित मदन मोहन मालवीय ने चौरी चौरा कांड के अभियुक्तों का मुकदमा लड़ा। 20 अप्रैल 1923 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 19 लोगों की फाँसी की सजा की पुष्टि की और 110 को आजीवन कारावास की सजा सुनाई, शेष को देशनिकाला और कालापानी की सजाएँ दी गईं।
चौरी चौरा की शौर्यगाथा का महत्त्व
चौरी चौरा की जनता अपने शहीद रणबांकुरों को कैसे भूल सकती थी? आजादी के बाद स्थानीय देशभक्तों ने शहीदों की स्मृति को संजोए रखने के लिए 1971 में ‘चौरी चौरा शहीद स्मारक समिति’ का गठन किया। इस स्मारक समिति ने स्थानीय जनता के सहयोग से 1973 में 12.2 मीटर ऊँची त्रिकोणीय मीनार का निर्माण करवाकर चौरी चौरा के वीर शहीदों की स्मृति को अमर बना दिया। बाद में, इस घटना से संबंधित लोगों को सम्मानित करने के लिए भारत सरकार ने एक और शहीद स्मारक बनवाया। स्मारक के पास ही स्वतंत्रता संग्राम से संबंधित एक पुस्तकालय और संग्रहालय भी स्थापित किया गया है। चौरी चौरा स्मारक आज भी पर्यटकों और इतिहास प्रेमियों के लिए प्रेरणा स्रोत है। चौरी चौरा की घटना का राष्ट्रीय आंदोलन पर शांति की दृष्टि से नकारात्मक, किंतु प्रभाव की दृष्टि से सकारात्मक प्रभाव पड़ा। इस घटना ने यह सिद्ध कर दिया कि अब राष्ट्रवादी भावनाएँ देश के दूर-दराज के क्षेत्रों में भारतीय समाज के लगभग सभी वर्गों में फैल चुकी हैं। इसने अंग्रेजों की उस धारणा को तोड़ दिया कि भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना का अभाव है और वे दासता को अपने भाग्य की नियति मानते हैं। इस घटना ने ब्रिटिश शासन की अजेयता की धारणा को गंभीर चुनौती दी और भारतीय जनता के मन से भय की भावना दूर होने लगी। इस प्रकार चौरी चौरा के वीर सपूतों ने अपनी शहादत की शौर्यगाथा से भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास में चौरी चौरा और गोरखपुर का नाम स्वर्ण अक्षरों में अंकित करवा दिया।










