आज़ाद हिंद फौज के कैदियों के मुक़दमें (The Trials of the Prisoners of INA)

आज़ाद हिंद फौज के कैदियों के मुक़दमें

बर्मा की टोपा पहाड़ी पर समर्पण के बाद आजाद हिंद फौज के 20,000 सैनिकों को वापस भारत लाया गया था। कुछ सैनिकों को जापानी या आजाद हिंद फौज के प्रचार से भटका हुआ मानकर उन्हें ‘सफेद’ और ‘भूरे’ में वर्गीकृत किया गया और उन्हें या तो रिहा कर दिया गया या सेना में बहाल कर किया गया। लेकिन जो सबसे प्रतिबद्ध माने गये, उनको ‘काले’ की श्रेणी में रखा गया और अंग्रेजी हुकूमत ने उनका कोर्ट मार्शल करने का फैसला किया।

ब्रिटिश सरकार को लगा कि प्रतिबद्ध ‘काले’ युद्धबंदियों पर मुकदमा न चलाना सरकार की कमजोरी मानी जायेगी और उनके विश्वासघात को बर्दाश्त करने पर भारतीय सेना की वफादारी खतरे में पड़ जायेगी। इसलिए आजाद हिंद फौज के बंदियों पर कुल मिलाकर दस मुकदमे चलाये गये।

लालकिले का मुकदमा

पहला और सबसे प्रसिद्ध मुकदमा 5 नवंबर 1945 को दिल्ली के लालकिले में आजाद हिंद फौज के तीन अफसरों- प्रेमकुमार सहगल, गुरदयाल सिंह ढिल्लों और शाहनवाज खाँ पर शुरू हुआ और दो माह तक चला। ये तीनों अफसर पहले ब्रिटिश भारतीय सेना के अधिकारी थे। इन पर ब्रिटिश सिंहासन के प्रति निष्ठा की शपथ भंग करने और इस प्रकार ‘गद्दार’ होने के आरोप लगाये गये थे।

आज़ाद हिंद फौज के कैदियों के मुक़दमें (The Trials of the Prisoners of INA)
लालकिले के परीक्षण के दौरान सर टीबी सप्रू और डॉ. काटजू के साथ पं. नेहरू

कांग्रेस ने आजाद हिंद फौज के इन ‘गुमराह देशभक्तों’ के बचाव के लिए ‘आजाद हिंद फौज सुरक्षा समिति’ का गठन किया और उनका मुकदमा लड़ने का फैसला किया। इस ऐतिहासिक मुकदमे में सुप्रसिद्ध विधिवेत्ता भूलाभाई देसाई ने बचाव पक्ष के वकीलों की अगुवाई की। सर तेजबहादुर सप्रू, कैलाशनाथ काटजू एवं आसफ अली उनके सहायक थे। कार्यवाही के पहले दिन नेहरू भी वकीलों की पोशाक पहनकर अदालत में मौजूद थे। युद्धबंदियों को आर्थिक सहायता तथा रोजगार देने के लिए ‘आजाद हिंद फौज राहत एवं जाँच समिति’ बनाई गई।

मुकदमे के विरुद्ध जन-उभार

ब्रिटिश सरकार द्वारा आजाद हिंद फौज के युद्धबंदियों पर मुकदमा चलाये जाने के निर्णय के विरुद्ध पूरे देश में एक ‘जन-उभार’ फूट पड़ा। इस जन-उभार के कई कारण थे। एक तो सरकार ने युद्धबंदियों पर सार्वजनिक मुकदमा चलाने का निर्णय लिया। दूसरे, यह मुकदमा ऐतिहासिक लालकिले में चला, जिसे अंग्रेजों के साम्राज्यिक प्रभुत्व का सबसे प्रामाणिक प्रतीक समझा जाता था, क्योंकि आखिरी मुगल बादशाह और 1857 के विद्रोह के सर्व-स्वीकृत नेता बहादुरशाह जफर पर 1858 में यहीं मुकदमा चलाया गया था। तीसरे, कांग्रेस के साथ-साथ भारत के प्रायः सभी राजनीतिक दलों ने युद्धबंदियों के बचाव का समर्थन किया। चौथे, समाचार-पत्रों ने मुकदमे की रिपोर्टों, सभाओं और प्रदर्शनों को प्रमुखता से प्रकाशित किया, जिससे आजाद हिंद फौजियों के बलिदानों के बारे में जागरूकता और बढ़ी और कुछ हद तक भावनाएँ भी और भड़कीं। इसके अलावा, संयोग से तीनों अभियुक्त तीन अलग-अलग धर्मों के थे- एक हिंदू (प्रेम कुमार सहगल), एक सिख (गुरुबख्श सिंह ढिल्लो) और एक मुसलमान (शाहनवाज खान) और तीनों को एक ही कटघरे में खड़ा करके मुकदमा चलाया गया।

मुकदमे के विरुद्ध आंदोलन का प्रसार

आजाद हिंद फौज के युद्धबंदियों की रिहाई की माँग को लेकर भारतवासियों ने जिस अभूतपूर्व एकता का परिचय दिया, वह अप्रत्याशित था। चूँकि युद्ध के बाद प्रेस सेंसरशिप को हटा दिया गया था, इसलिए आजाद हिंद फौज के अभियान के ब्यौरे प्रतिदिन भारतीय जनता के सामने आते रहे और ये अफसर किसी भी तरह गद्दार न लगकर, उच्चकोटि के देशभक्त नजर आने लगे। फलतः मुकदमे बंद करने की माँग दिन-ब-दिन जोर पकड़ती गई।

देश के प्रायः सभी क्षेत्रों और सभी वर्गों की जनता ने सरकार के विरुद्ध इस आंदोलन का समर्थन किया और विभिन्न तरीकों से अपने रोष का प्रदर्शन किया। समाचार-पत्रों के संपादकों ने अपने लेखों और पैम्फलेट्स के माध्यम से जनता को आंदोलन के समर्थन में आगे आने का आह्वान किया। पूरे देश में हिंदू, मुसलमान, सिख, छात्र, मजदूर तथा आम जनता मुकदमे के विरोध में सड़क पर उतर आये। 5 से 11 नवंबर तक ‘आजाद हिंद फौज सप्ताह’ और देश भर के नगरों में 12 नवंबर को ‘आजाद हिंद फौज दिवस’ मनाया गया। छात्र सबसे अधिक सक्रिय थे। छात्रों ने न केवल शिक्षण संस्थाओं का बहिष्कार किया, अपितु सभाओं, प्रदर्शनों एवं हड़तालों का आयोजन भी किया और पुलिस से उनकी हिंसक मुठभेडें भी हुईं। कुछ जगहों पर दीवाली तक नहीं मनाई गई। दुकानदारों ने अपनी दुकानें बंद कर दी। उनमें से कई सभाओं और जुलूसों में भी चलते थे। जिनमें इतना साहस नहीं था, वे आजाद हिंद फौज राहत कोष में चंदा देते और दिलवाते थे। जिला बोर्डों, नगर पालिकाओं, प्रवासी भारतीयों, गुरुद्वारा समितियों, कैंब्रिज मजलिस, बंबई और कलकत्ता के फिल्मी सितारों के अलावा अमरावती के तांगे वालों ने भी चंदा दिया। अखिल भारतीय महिला सम्मेलन ने भी आजाद हिंद फौज के युद्धबंदियों के रिहाई की माँग की। कलकत्ता के गुरुद्वारे युद्धबंदियों के पक्ष में प्रचार के केंद्र बन गये।

भौगोलिक दृष्टि से दिल्ली, पंजाब, बंगाल, बंबई, मद्रास तथा संयुक्त प्रांत आंदोलन के प्रमुख केंद्र्र तो थे ही, अजमेर, बलूचिस्तान, असम, कुर्ग, ग्वालियर तथा दूर-दराज के गाँवों में भी संवेदना और समर्थन का वातावरण था। गुप्तचर ब्यूरो के निदेशक की मानें तो ‘नागरिक संघर्ष दूर-दूर के गाँवों’ तक फैल गया था। स्थान-स्थान पर सभाओं व प्रदर्शनों की बाढ़ आ गई थी और पूरे देश में ‘लाल किले को तोड़ दो, आजाद हिंद फौज को छोड़ दो’ के नारे गूँजने लगे थे।

राजनीतिक दलों में, वायसरॉय के अनुसार, युद्धबंदियों के बचाव में कांग्रेस सबसे मुखर थी, किंतु कांग्रेस समाजवादी पार्टी, अकाली दल, यूनियनवादी, जस्टिस पार्टी, सिख लीग, अहरार पार्टी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदू महासभा जैसे सभी प्रमुख राजनीतिक दलों ने, यहाँ तक कि मुस्लिम लीग ने भी, युद्धबंदियों के बचाव आंदोलन का समर्थन किया। प्रदर्शनों में स्वतंत्र रूप से अनेक साम्यवादी, जैसे कलकत्ता के छात्र नेता गौतम चट्टोपाध्याय और सुनील जोशी ने भी उत्साह से भाग लिया, जबकि उनकी पार्टी की प्रतिक्रिया ढुलमुल थी।

आजाद हिंद फौज आंदोलन इतना व्यापक था कि ब्रिटिश राज के परंपरागत समर्थक माने जाने वाले सरकारी कर्मचारी एवं सशस्त्र सेनाओं के लोग भी आंदोलनकारियों का समर्थन किये। उत्तर-पश्चिम सीमाप्रांत के राज्यपाल कनिंघम ने वायसरॉय को आगाह किया था कि ‘‘ब्रिटिश-विरोधी शिविर में शामिल होनेवाले अच्छे-भले लोगों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है।’’ गुप्तचर ब्यूरो के निदेशक ने भी सरकार को चेतावनी दी थी कि ‘‘आजाद हिंद फौज के प्रति संवेदना सिर्फ उन्हीं लोगों तक सीमित नहीं है, जो आमतौर पर सरकार के खिलाफ हैं।’’ उसका मानना था कि आजाद हिंद फौज के लोग प्रायः उन परिवारों से आये हैं, जो पीढ़ियों से सरकार के प्रति वफादार रहे हैं। कमांडर इन चीफ ऑचिनलेक ने भी स्वीकार किया था कि भारतीय अधिकारियों में शत-प्रतिशत की और जवानों में अधिकांश की सहानुभूति आजाद हिंद फौज के साथ है। इस प्रकार इस आंदोलन ने भारत में ब्रिटिश सरकार के अपने कानून चलाने के अधिकार के आगे प्रश्नचिन्ह लगा दिया।

हिंसक मुठभेड़ें

इस समय राष्ट्रवादी भावना का उभार इतना तीव्र था कि आजाद हिंद फौज के मुकदमे को लेकर कलकत्ता में आंदोलनकारियों और पुलिस में हिंसक मुठभेड़ भी हुई। 7 नवंबर को हिंसा तब भड़की, जब मदुरै के एक विरोध-प्रदर्शन में शामिल भीड़ पर पुलिस ने गोलियाँ चलाई। फिर 21 और 24 नवंबर के बीच देश के विभिन्न भागों में हंगामे हुए। पहली हिंसक मुठभेड़ बोस के अपने नगर कलकत्ता में 21 नवंबर 1945 को हुई जब छात्रों का एक जुलूस, जो मुख्यतया फॉरवर्ड ब्लॉक का था, सरकारी सत्ता के प्रतीक डलहौजी स्क्वायर की ओर बढ़ा। पुलिस और छात्रों के हिंसक टकराव में पुलिस की गोली से 2 छात्र मारे गये और 52 घायल हो गये। जुलूस ने शीघ्र ही एक आम अंग्रेज-विरोधी रूप धारण कर लिया, जिसमें हड़ताली टैक्सी चालक और ट्राम मजदूर भी शामिल हो गये। प्रदर्शनकारियों ने अभूतपूर्व सांप्रदायिक सद्भाव का प्रदर्शन करते हुए कांग्रेस, लीग और कम्युनिस्ट पार्टी के झंडे एक साथ लहराये। अंततः तीन दिन बाद 33 के मरने और 200 लोगों के घायल होने के बाद ही व्यवस्था बहाल हो सकी।

कलकत्ता के उपद्रव के बाद जल्द ही बंबई, कराची, पटना, इलाहाबाद, बनारस, रावलपिंडी में और दूसरी जगहों पर, या दूसरे शब्दों में, पूरे देश में ऐसे ही प्रदर्शन हुए। सरकार का दृढ़-निश्चय अब हिल गया। मुकदमे में बचाव पक्ष ने तर्क दिया कि अपने देश की स्वतंत्रता के लिए लड़नेवाले लोगों पर गद्दारी का मुकदमा नहीं चलाया जा सकता। लेकिन उसके बाद भी उन्हें दोषी पाया गया। राष्ट्रवादी जन-उभार से घबड़ाये कमांडर-इन-चीफ ने उनकी सजाएं रद्द करके उनको 3 जनवरी 1946 को मुक्त कर दिया। जब ये तीनों अफसर लालकिले से बाहर निकले तो दिल्ली और लाहौर की जनसभाओं में उनका स्वागत शूरवीरों की तरह किया गया, और यह सब अंग्रेजों पर नैतिक विजय का जश्न था।

कैप्टन अब्दुर्रशीद का मुकदमा

एक दूसरे मुकदमे में 4 फरवरी को आजाद हिंद फौज के कैप्टन अब्दुर्रशीद को, जिन्होंने कांग्रेस की बजाय मुस्लिम लीग की एक बचाव कमेटी को प्राथमिकता दी थी, सात वर्ष के कैद बा-मुशक्कत की सजा सुनाई गई। 11 फरवरी 1946 को कलकत्ता में एक प्रतिवादी जुलूस निकाला गया, जिसका नेतृत्व मुख्यतः मुस्लिम लीग के छात्रों ने किया था, किंतु बाद में उसमें कांग्रेस, साम्यवादी नेतृत्ववाले स्टूडेंट फेडरेशन के सदस्य और औद्योगिक मजदूर भी शामिल हो गये। कांग्रेस, लीग और कम्युनिस्टों के लाल झंडे एक बार फिर साथ-साथ लहराये और बड़ी-बड़ी सभाएँ हुईं, जिनको लीग, साम्यवादी और कांग्रेसी नेताओं ने संबोधित किया। जब पुलिस ने धर्मतल्ला स्ट्रीट पर कुछ प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार कर लिया, तो छात्र उत्तेजित हो गये और विरोधस्वरूप उन्होंने डलहौजी स्क्वायर क्षेत्र में धारा 144 का उल्लंघन किया। इस बार भी तीन दिन के निर्मम दमन के बाद व्यवस्था बहाल हुई, जिसमें 84 मारे गये और 300 घायल हुए। एक इतिहासकार के अनुसार, जिसने एक छात्र नेता के रूप में इन प्रदर्शनों में भाग लिया था, ‘स्थिति क्रांति के समान लग रही थी।’ यह आग शीघ्र ही पूर्वी बंगाल में भी फैल गई और विद्रोह की भावना ने देश के दूसरे हिस्सों को भी प्रभावित किया, जब देश के लगभग सभी बड़े नगरों में सहानुभूतिपूर्ण विरोध-प्रदर्शन और हड़तालों के आयोजन हुए।

आंदोलनों का महत्त्व

विश्वयुद्ध के दौरान और बाद में सैन्यकर्मियों में बढ़ती राजनीतिक चेतना अंग्रेज अधिकारियों के लिए पहले ही चिंता का कारण बनी हुई थी। किंतु आजाद हिंद फौज के मुकदमों ने और उसके सैनिकों के प्रति सेना की बढ़ती सहानुभूति ने ब्रिटिश हुकूमत को पूरी तरह झकझोर दिया, क्योंकि ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन के बाद तो यही सेना ही उनके शासन का एकमात्र विश्वसनीय सहारा थी। संभवतः इसलिए कमांडर-इन-चीफ जनरल ऑचिनलेक ने आजाद हिंद फौज के तीनों अफसरों की सजा को रद्द कर दिया था। उसने स्वयं वरिष्ठ अंग्रेज अधिकारियों के सामने स्वीकार किया था कि इन सजाओं को लागू करने की कोई भी कोशिश पूरे देश में अराजकता और संभवतः विद्रोह को भी जन्म देती, और सेना में असंतोष को भी, जिसके कारण उसका विघटन हो। विभिन्न केंद्रों में शाही भारतीय वायुसेना के सदस्यों और दूसरे सैन्यकर्मियों को न केवल अभियुक्तों से सहानुभूति थी, बल्कि वे राहत कोष में चंदा दिये और कुछ अवसरों पर तो पूरी वर्दी पहनकर विरोध सभाओं में शामिल हुए थे।

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