शाक्त संप्रदाय
शाक्त संप्रदाय भारत में अत्यंत प्राचीनकाल से प्रचलित रहा है। इस संप्रदाय का संबंध प्रागैतिहासिक काल के आदिम कबीलों से जोड़ा जा सकता है। हड़प्पा से प्राप्त मातृदेवी की मूर्तियाँ और छिद्रित पत्थरों से भी इस पूजा के प्रचलित होने का संकेत मिलता है। गुप्त काल में यह शाक्त पूजा उत्तर-पूर्वी भारत, कंबोडिया, जावा, बोर्निया और मलाया प्रायद्वीपों के देशों में लोकप्रिय थी। अधिकांश इतिहासकार मानते हैं कि शाक्त संप्रदाय मुख्य रूप से अनार्यों की देन है और सिंधुघाटी सभ्यता की मातृदेवी पूजा को शक्ति पूजा का एक रूप माना जा सकता है।
शाक्त संप्रदाय में देवी को सर्वशक्तिमान माना जाता है। शाक्त संप्रदाय के अनुयायी इस परंपरा को वैदिक धर्म जितना प्राचीन मानते हैं। यद्यपि ऋग्वेद में ऊषा, वाक्, अदिति, सविता, पृथ्वी आदि देवियों का उल्लेख अत्यंत सादर के साथ किया गया है और दशवें मंडल का एक सूक्त ‘देवी सूक्त’ शाक्त उपासना को समर्पित है, किंतु ऋग्वेद में देवियों की स्थिति देवताओं जैसी महत्वपूर्ण नहीं है। परवर्ती काल में भी शाक्त उपासना पद्धति ने लोगों का ध्यान कम आकर्षित किया, किंतु पूर्वमध्यकाल में पौराणिक धर्म के उदय के साथ-साथ शाक्त धर्म की लोकप्रियता में भी वृद्धि हुई और शक्ति के स्वरूप को इतनी व्यापक मान्यता मिली कि इसने न केवल समकालीन सभी धर्मों को प्रभावित किया, बल्कि स्वयं प्रधानता की स्थिति में आ गया। इसी समय शाक्त पूजा को विस्तारवादी ब्राह्मण धर्म में एक निश्चित स्थान प्राप्त हुआ और भारतवर्ष में अनेक शक्तिपीठों- कामाख्या, मिथिला, विंध्यावटी आदि की स्थापना हुई, जहाँ शाक्त पूजा मंदिरों में की जाने लगी।
देश के विभिन्न भागों में मातृदेवी को विभिन्न नामों से जाना जाता था, जैसे दक्षिण में काली चंडी, उत्तर में शाकंभरी, पश्चिम मे अंबा तथा पूर्व मे काली। कुछ शाक्त संप्रदाय अपनी देवी का संबंध शिव या विष्णु से बताते हैं। देवी के अनेक नाम उनकी आदिवासी उत्पत्ति के भी बोधक हैं, जैसे- शबरी, पर्णेश्वरी, विंध्यवासिनी, शाकंभरी, आमरी इत्यादि। बाण की ‘कादंबरी’ से पता चलता है कि विंध्यवासिनी की पूजा शबर, भील आदि आदिवासी लोग करते थे। बंगाल में शबर जाति के लोग पत्तों से आच्छादित पर्णेश्वरी देवी की उपासना करते थे। इसी प्रकार रौद्री, भैरवी भी आदिवासियों की मातृदेवियाँ थीं। सभी आदिवासी देवियाँ दुर्गा का विभिन्न रूप मानी जाती थी, जिन्हें आमतौर पर ‘शक्ति’ कहा जाता है। इस उपासना पद्धति के अधिकृत ग्रंथों का प्रणयन 12वीं शती में ही हुआ इसलिए इसको स्थायित्य प्रदान करके लोकप्रिय बनाने का श्रेय तत्कालीन मनीषियों को ही दिया जाना चाहिए।
शक्ति के तीन प्रधान रूप हैं- सौम्य, उग्र और काम। सौम्य रूप में शिव की शक्ति के रूप में उमा, गौरी, पार्वती, अर्धनारीश्वर, दुर्गा हैं, जिनकी उपासना जनसाधारण द्वारा की जाती थी। उग्र रूप में काली, भैरवी, चामुंडा, रक्तचंडिका इत्यादि की उपासना कापालिक, कालामुख और आदिवासी लोग करते थे। यह देवी महिषासुर राक्षस का वध सेंटजार्ज और ड्रेगन की भाँति करती है। कामरूपिणी देवी की उपासना शाक्त लोग करते थे, जो देवी को आनंदभैरवी, त्रिपुरसुंदरी, ललिता आदि कहते थे। शंकराचार्य ने ‘सौंदर्यलहरी’ में मातृदेवी के इसी रूप का वर्णन किया है। दुर्गा उपासना को प्रचलित कराने का श्रेय ‘मारकंडेय पुराण’ को है।
मध्य प्रदेश और उड़ीसा में चौसठ योगिनियों के मंदिर है, जहाँ शक्ति को चौसठ रूपों में दिखाया गया है। असम स्थित कामाख्या देवी का मंदिर शक्ति के कामरूप को अभिव्यक्त करता है। कश्मीर का शारदा देवी का मंदिर शक्ति के सौम्य रूप का प्रतीक है, जिसे वैष्णोदेवी कहा जाता है। इसका उल्लेख कल्हण, बिल्हण, अल्बरूनी और अबुल फजल तक ने किया है। कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ से ज्ञात होता है कि गौड़ नरेश शशांक ने शारदा देवी के पूजन के बहाने ही कश्मीर में प्रवेश किया था।
राजस्थान, मध्य प्रदेश के अनेक स्थानों से सप्तमात्रृकाओं- ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, नरसिंही, एंद्री के साथ-साथ दुर्गा की भी मूर्तियाँ पाई गई हैं, जिन्हें प्रतिहार शासक महेंद्रपाल के अभिलेखों में ‘महिषासुरमर्दिनी’ कहा गया है। एक दूसरे अभिलेख में कांचन देवी, सर्वमंगला देवी, अंबा आदि नामों से देवी का उल्लेख मिलता है। अभिलेखों से पता चलता है कि इन शक्तिदेवियों का गुणगान किया जाता था। चामुंडा, काली, दुर्गा आदि रूप में दुर्गा की मूर्तियाँ बंगाल से मिली हैं जो शाक्त पूजा की लोकप्रियता का प्रमाण है।
शक्ति पूजा के मूल में यह दार्शनिक विचार निहित है कि शक्ति के बिना शिव, शव के समान है। सहचर नारी तत्व में एक प्रकार की सक्रियता और व्यक्तित्व विद्यमान है। ईश्वर अपनी शक्ति की सहायता से सृष्टि को धारण करता है और उसका संहार करता है। इसीलिए ईश्वरवादी संप्रदायों ने शक्ति को परमदेवता की अर्धांगिनी स्वीकार कर लिया। यह माना गया कि देवता अपने क्रियात्मक पक्ष के लिए शक्ति पर निर्भर रहता है। शक्ति की परिकल्पना स्त्री के रूप में की गई और उसे जगत्माता माना गया। प्रत्येक जीव स्त्री के गर्भ से ही उत्पन्न होता है। सृष्टि का मूलभूत सिद्धांत स्त्री में है, इसे चाहे ब्रह्म की शक्ति माया कहें या पौराणिक पार्वती, दुर्गा, लक्ष्मी। वस्तुतः ये सभी जगत्माता के ही विभिन्न नाम और स्वरूप हैं।
पूर्व मध्यकाल में तांत्रिक पूजा की अभिवृद्धि के साथ-साथ शक्ति मत का और अधिक विस्तार हुआ और शाक्त आगम तथा तांत्रिक ग्रंथों- ‘शारदा तिलक तंत्र’, ‘प्रपंच सारतंत्र’ आदि की रचना हुई। इस समय शक्तिमत और तांत्रिक मत बहुधा पर्यायवाची माने जाते थे। तांत्रिक क्रियाओं के प्रभाव से शाक्त संप्रदाय मानक, उच्चारण, वशीकरण, स्तंभन जैसे षड्कर्मों की ओर उन्मुख हुआ और तांत्रिक पंचमकारों- मद्य, मांस, मैथुन, मुद्रा एवं मत्स्य तथा भैरवी के रूप में शक्ति साधना के लिए स्त्री का प्रयोग होने लगा, जिसकी चरम परिणति खजुराहो और कोणार्क के मंदिरों में हुई है।
शाक्त एवं तांत्रिक विचारधारा ने 12वीं शती तक परंपरागत प्राचीन धार्मिक संप्रदायों को प्रभूतरूपेण प्रभावित कर लिया था। कश्मीर का शैव संप्रदाय पूर्णतः तांत्रिक हो गया। बौद्ध धर्म में भी तांत्रिक धारणाओं का प्रवेश हुआ। वैष्णव धर्म में भी तंत्र को महत्वपूर्ण स्थान मिल गया और जैन धर्म की देवी सचिवा देवी की पूजा शाक्त विधि से की जाने लगी। तांत्रिक प्रभाव की इस गतिशील वृद्धि में मंत्रों की प्रमुख भूमिका रही। गुजरात नरेश कुमारपाल की श्रद्धा एक जैन ‘नमस्कार मंत्र’ में थी, जिससे उन्हें सर्वत्र सफलता मिलती थी।
शाक्त तथा तांत्रिक विचारधाराओं का तत्कालीन सामाजिक जीवन के विविध पक्षों पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। ‘रसार्णव’ के अनुसार तंत्र ने भारतीय रसायनशास्त्र के विकास में योगदान दिया। तांत्रिक मत की रूचि जादू में होने के परिणामस्वरूप विशेष रूप से रसायनों और धातुओं के साथ प्रयोग किये जाने के कारण कुछ अर्द्ध वैज्ञानिक किस्म की खोजें भी हुईं। एक देवता की पूजा की अवधारणा से भक्ति की अवधारणा को बल मिला।
शाक्त संप्रदाय के व्यापक प्रचलन के पीछे अनेक जनजातियों और आदिवासियों का भारतीय समाज में समाविष्ट होना था। शक्ति संक्रमण की क्रियाविधि में आदिवासियों की मातृदेवी हिंदू तथा बौद्ध धर्म में शक्ति तथा तारा के रूप में ग्रहण की गई। चूंकि शक्ति संप्रदाय सभी वर्गों और जातियों को स्थान देता था, इसलिए यह एक प्रकार से हिंदू कर्मकांड और समाज की ब्राह्मणी व्यवस्था के विरोध में था। आज भी देवी-उपासना असम और बंगाल के अलावा भारत के अन्य भागों में भी प्रबल रूप से प्रचलित है।
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