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1858 का भारतीय प्रशासन-सुधार अधिनियम
ब्रिटिश उपनिवेशवाद का अंतिम चरण (1858-1947) भारत के संवैधानिक विकास का सबसे महत्त्वपूर्ण चरण है। इस चरण में ब्रिटिश पूँजीपतियों और भारत के विभिन्न वर्गों के हितों में लगातार संघर्ष होता रहा। कंपनी के भ्रष्ट कुशासन के विरुद्ध इंग्लैंड में असंतोष चरमसीमा पर पहुँच चुका था। कंपनी से ब्रिटेन की सरकार को आर्थिक लाभ भी नहीं हो रहा था। इंग्लैंड के उदारपंथी, सुधारवादी और संसदीय शासन के समर्थक कंपनी के व्यापारिक एकाधिकार के विरुद्ध आंदोलनरत थे और वे बराबर यह माँग कर रहे थे कि कंपनी जैसी व्यापारिक संस्था के हाथों में भारत जैसे विशाल देश के शासन का भार नहीं सौंपा जाना चाहिए।
ब्रिटेनवासियों के साथ-साथ कंपनी द्वारा किये जाने वाले आर्थिक शोषण के कारण भारत के विभिन्न वर्ग- बुद्धिजीवी, उद्योगपति, कृषक तथा श्रमिक- सभी असंतुष्ट थे। इस हेतु उन्होंने ब्रिटिश संसद को एक प्रार्थना-पत्र भी दिया था। संभवतः यही कारण था कि 1853 के अधिनियम में कंपनी के कार्यकाल को अनिश्चित रखा गया था। इस प्रकार कंपनी के शासन की समाप्ति की पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी थी।
1857 की क्रांति ने कंपनी के सुशासन का भ्रम तोड़ दिया, जिससे संसद को कंपनी को पदच्युत् करने का बहाना मिल गया। यद्यपि क्रांति का निर्दयतापूर्वक दमन कर दिया गया, किंतु इसके परिणामों से ब्रिटिश ‘राष्ट्र का सद्विवेक जाग उठा और उसने ईस्ट इंडिया कंपनी को तोड़ देने का निर्णय किया।’
इसी समय ब्रिटेन में आम चुनाव हुए और पॉमस्टर्न प्रधानमंत्री बने। उन्होंने तत्काल कंपनी के भारत पर शासन करने के अधिकार को ब्रिटिश क्राउन के अधीन करने का निर्णय किया। साम्राज्य की सुरक्षा के लिए ब्रिटिश संसद में कई प्रस्ताव रखे गये। अंततः 30 अप्रैल 1858 को कॉमन्स सभा में स्टैनले द्वारा प्रस्तुत चौदह प्रस्तावोंवाले विधेयक को 2 अगस्त 1858 को साम्राज्ञी की अनुमति मिल गई। दिसंबर 1858 को संचालक मंडल ने अपनी अंतिम सभा में भारी मन से विशाल भारतीय साम्राज्य ब्रिटिश साम्राज्ञी को सौंप दिया। अब भारत का शासन कंपनी के हाथों से निकल कर ब्रिटिश क्राउन के हाथों में पहुँच गया। इस अधिनियम को ‘भारतीय प्रशासन सुधार-संबंधी अधिनियम’ के नाम से जाना जाता है।
1858 के अधिनियम के मुख्य उपबंध
1858 का अधिनियम ‘फॉर बेटर गवर्नमेंट ऑफ इंडिया’ (भारत के उत्कृष्ट शासन के लिए) के नाम से प्रसिद्ध है। इस अधिनियम द्वारा भारतीय प्रदेशों पर से कंपनी के शासन को समाप्त कर इसका उत्तरदायित्व ब्रिटिश संसद को सौंप दिया गया। अब भारत का प्रशासन साम्राज्ञी और उसके नाम पर चलाया जाने लगा। भारत के गवर्नर जनरल को ‘वायसरॉय’ (क्राउन का प्रतिनिधि) कहा जाने लगा और उसे भारत सचिव की आज्ञा के अनुसार कार्य करना था। भारत का प्रथम वायसरॉय लॉर्ड कैनिंग बना। भारत की या भारत से प्राप्त होने वाली सभी प्रादेशिक तथा अन्य आमदनी और देशी राज्यों पर प्रभुसत्ता तथा उनसे कर वसूल करने का अधिकार सम्राट में निहित कर दिया गया।
इस अधियनिम ने संचालक मंडल, नियंत्रण मंडल तथा गुप्त समिति का अंत कर दिया और उनके सारे कार्य तथा अधिकार भारत सचिव को सौंप दिया।
भारत सचिव ब्रिटिश मंत्रिमंडल का एक सदस्य होता था, जिसकी सहायता के लिए ‘भारत परिषद्’ (इंडिया कौंसिल) नामक पंद्रह सदस्यों की एक परिषद् बनाई गई। इस परिषद् के आठ सदस्य इंग्लैंड के सम्राट के द्वारा नियुक्त किये जाने थे और शेष सात सदस्यों की नियुक्ति कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स में से की जानी थी। इन सदस्यों में कम से कम नौ ऐसे सदस्य होने जरूरी थे, जो भारत में कम से कम दस वर्ष तक किसी पद पर रहे हों और उनकी नियुक्ति के समय भारत छोडे़ हुए दस वर्ष से अधिक समय न हुआ हो।
संचालकों को केवल एक ही बार सात सदस्यों को नियुक्त करने का अधिकार दिया गया और यह स्पष्ट कर दिया गया कि भविष्य में रिक्त होने वाले स्थानों की पूर्ति सम्राट द्वारा की जायेगी।
भारत सचिव, उसकी परिषद् के सदस्यों के वेतन, इंडिया ऑफिस के समस्त व्यय, ईस्ट इंडिया कंपनी के ऋण आदि का भुगतान भारतीय राजस्व से करने की व्यवस्था की गई।
भारत परिषद् (इंडिया कौंसिल) के सदस्यों को संसद के दोनों सदस्यों के कहने पर सम्राट पदच्युत् कर सकता था। सदस्यों को इंग्लैंड की राजनीति से अलग रखने के लिए संसद की बैठकों में भाग लेने तथा मत देने के अधिकार से वंचित कर दिया गया। प्रत्येक सदस्य का वार्षिक वेतन 1,200 पौंड निश्चित किया गया। भारत परिषद् (इंडिया कौंसिल) की बैठक न्यूनतम् पाँच सदस्यों की उपस्थिति में सप्ताह में कम से कम एक बार होना आवश्यक था।
अधिनियम के अनुसार भारत सचिव को प्रतिवर्ष भारतीय प्रदेशों की आय-व्यय का ब्यौरा ब्रिटिश संसद के समक्ष प्रस्तुत करना था। भारत सचिव को एक निगम निकाय घोषित किया गया, जो भारत और इंग्लैंड में मुकदमा चलाने का अधिकार रखता था और उसके विरुद्ध भी मुकदमा चलाया जा सकता था। अब इंग्लैंड में भारतीय मामलों का निर्देशन भारत सचिव को करना था और प्रत्येक आदेश-पत्र पर उसी के हस्ताक्षर होने थे। भारत सरकार की ओर से ब्रिटिश सरकार को भेजे जाने वाले सभी प्रलेख उसी के नाम से संबोधित किये जाने थे।
भारत सचिव को परिषद् की बैठकों की अध्यक्षता करनी थी। परिषद् के निर्णय साधारणतः बहुमत से लिए जाने थे, किंतु मतों के बराबर होने पर भारत सचिव को निर्णायक वोट देने का अधिकार था। विशेष मामलों में भारत सचिव परिषद् के निर्णय के विरुद्ध भी निर्णय ले सकता था। तात्कालिक मामलों में वह बिना परिषद् से परामर्श किये भी आदेश जारी कर सकता था, किंतु उसे ऐसे मामलों के कारण लिखित रूप में बताना था और उसकी सूचना अपनी परिषद् को देनी थी। युद्ध, शांति तथा रियासतों से समझौते के मामलों में भारत सचिव परिषद् की अनुमति के बिना भी आदेश जारी कर सकता था। किंतु भारतीय राजस्व, नियुक्तियों, भारत सरकार की ओर से ऋण लेने और भारतीय संपत्ति को खरीदने, बेचने अथवा गिरवी रखने के लिए उसे परिषद् का निर्णय मानना आवश्यक था। परिषद् के कार्यों के संचालन के लिए भारत सचिव समितियों का गठन कर सकता था और उन्हें आवश्यक निर्देश दे सकता था।
सम्राट, भारत सचिव और उसकी परिषद् के परामर्श से भारत के गवर्नर जनरल और प्रेसीडेंसियों के गवर्नरों की नियुक्ति करता था। लेफ्टिनेंट गवर्नरों की नियुक्ति का अधिकार गवर्नर जनरल को दिया गया, किंतु इसके लिए उसे ब्रिटिश सरकार से अंतिम स्वीकृति लेनी थी। भारत सचिव तथा उसकी परिषद् को भारत की अनेक परिषदों के सदस्यों की नियुक्ति का अधिकार दिया गया। अनुबंधित लोकसेवकों (संश्रावित जानपद सेवा) की नियुक्तियाँ भारत सचिव द्वारा निर्मित नियमों के अंतर्गत खुली प्रतियोगिता के द्वारा की जानी थी।
इस अधिनियम द्वारा कंपनी की सेनाएँ तथा उनका प्रबंध ब्रिटिश सम्राट के अधीन कर दिया गया, किंतु सेवा-शर्तें वही रहीं, जिन पर उनकी भर्ती हुई थी। इसके बाद जो व्यक्ति साम्राज्ञी की भारतीय सेना में भर्ती होंगे, उनकी सेवा-शर्तों में सम्राट परिवर्तन कर सकता था।
इस अधिनियम में यह स्पष्ट किया कि संसद के दोनों सदनों की सहमति के बिना भारतीय राजस्व से भारत की सीमा के बाहर सैनिक कार्यवाहियों पर व्यय नहीं किया जायेगा। केवल बाहरी आक्रमण को रोकने या अन्य किसी आकस्मिकता पर ही भारतीय राजस्व का उपयोग किया जायेगा ।
इस अधिनियम से पिट ऐक्ट (1784) द्वारा स्थापित द्वैध शासन-पद्धति का अंत हो गया, देशी राजाओं का सम्राट से प्रत्यक्ष संबंध हुआ और डलहौजी की राज्य हड़प-नीति निष्प्रभावी हो गई। अधिनियम में कहा गया कि जब कभी किसी झगड़े या युद्ध के संबंध में भारत सरकार को आदेश दिया जाये, तो उसे तीन महीने के अंदर या संसद की बैठक शुरू होने के एक माह के अंदर संसद के दोनों सदनों के समक्ष अवश्य प्रस्तुत किया जाये।
सम्राट कंपनी द्वारा की गई संधियों का आदर करेगा तथा सपरिषद् भारत सचिव कंपनी के सभी अनुबंधों, समझौतों और उत्तरदायित्त्वों को पूर्ण करेगा। सत्ता-परिवर्तन के संबंध में महारानी देसी राजाओं और भारतीय जनता के नाम शीघ्र ही एक घोषणा करेंगी।
1857 की क्रांति : कारण और प्रसार
महारानी विक्टोरिया का घोषणा-पत्र
सत्ता के हस्तांतरण के संबंध में महारानी विक्टोरिया ने 1 नवंबर 1858 को शाही घोषणा की। अनेक प्रतिज्ञाओं और आश्वासनों से युक्त इस घोषणा की भाषा सुंदर तथा प्रतिष्ठापूर्ण थी। इस घोषणा को लॉर्ड कैनिंग ने 1 नवंबर 1858 को इलाहाबाद में एकत्रित हुए राजाओं और जनता को पढ़कर सुनाया। महारानी ने अपनी घोषणा में कहा था:
‘हमने उन समस्त भारतीय प्रदेशों को अपने अधिकार में ले लेने का निर्णय कर लिया है, जो इससे पूर्व कंपनी के अधिकार में थे और जिन पर वह हमारी ओर से राज्य कर रही थी। हम इन प्रदेशों में रहनेवाली प्रजा से अपने, अपने वारिसों तथा उत्तराधिकारियों के प्रति राजभक्ति की आशा करते हैं। हम लॉर्ड केनिंग को अपने भारतीय प्रदेशों का प्रथम वायसरॉय तथा गवर्नर जनरल नियुक्त करते हैं। हम उन समस्त संधियों को, जो कंपनी ने भारतीय राजाओं के साथ की है, प्रसन्नता से स्वीकार करते हैं और उन्हें पूरा करने का विश्वास दिलाते हैं।
हम कंपनी द्वारा नियुक्त किये गये समस्त सैनिक तथा असैनिक पदाधिकारियों को उनके पदों पर विनियमित करते हैं। हमें अपने भारतीय प्रदेशों को विस्तृत करने की इच्छा नहीं है। हम दूसरों के प्रदेशों या अधिकारों पर न तो स्वयं छापा मारेंगे और न ही किसी शक्ति को अपने प्रदेशों तथा अधिकारों पर छापा मारने की आज्ञा देंगे।
हम अपने अधिकार, प्रतिष्ठा तथा सम्मान की भाँति भारतीय नरेशों के अधिकार, प्रतिष्ठा तथा सम्मान का आदर करेंगे।
हम अपनी प्रजा पर अपने धार्मिक विचारों को नहीं थोपेंगे और न ही प्रजा के धार्मिक जीवन में किसी प्रकार का हस्तक्षेप करेंगे। सभी के साथ समान और निष्पक्ष न्याय किया जायेगा। नौकरियों में भर्ती का आधार एकमात्र योग्यता होगी, जाति और धर्म को किसी प्रकार का महत्त्व नहीं दिया जायेगा। कानून बनाने तथा उसको लागू करने में भारतीयों के प्राचीन अधिकारों, प्रथाओं और रीति-रिवाजों का ध्यान दिया जायेगा।’
इस घोषणा में महारानी ने विद्रोह की दुःखांत घटनाओं के प्रति खेद व्यक्त किया और अंग्रेजों की हत्या में भाग न लेने वाले सभी विद्रोहियों को बिना शर्त क्षमा कर दिया। बंदियों की रिहाई के संबंध में भी आदेश जारी कर दिये गये। अंत में, महारानी ने अपनी घोषणा में कहा कि ‘जब भगवान् की कृपा से आंतरिक शांति स्थापित हो जायेगी, तब हमारी हार्दिक अभिलाषा है कि भारत के शांतिपूर्ण व्यवसायों को प्रोत्साहन दिया जाये, सार्वजनिक उपयोगिता के कार्यों में वृद्धि की जाये और अंग्रेजी प्रदेशों में रहने वाली प्रजा के हितों को ध्यान में रखकर शासन किया जाये। उनकी (भारतीय जनता) समृद्धि में हमारी शक्ति है, उनके संतोष में हमारी सुरक्षा और उनकी कृतज्ञता में हमारा पुरस्कार। ईश्वर हमें और हमारे अधीन काम करने वाले अधिकारियों को शक्ति दे कि हम अपने प्रजाजनों की भलाई के लिए अपनी इच्छाओं को कार्यान्वित कर सकें।’
महारानी विक्टोरिया की घोषणा का भारतीयों ने स्वागत किया। इस घोषणा के माध्यम से भारतीयों को शांति, समृद्धि, स्वतंत्रता, समान व्यवहार तथा योग्यता के आधार पर पद प्रदान करने का वचन दिया गया था। वस्तुतः इस घोषणा-पत्र के द्वारा एक ऐसी शासकीय नीति का सूत्रपात किया गया, जो आगामी साठ वर्ष तक भारत मे ब्रिटिश शासन का मूल आधार बनी रही।
यद्यपि घोषणा-पत्र के कई महत्त्वपूर्ण उपबंधों पर अमल नहीं हुआ, फिर भी यह दीर्घकाल तक भारत में ब्रिटिश नीति का आदर्श बना रहा। लॉर्ड केनिंग ने इस घोषणा के संबंध में कहा कि इसके द्वारा भारत में एक नये युग का आरंभ हुआ है। कुछ इतिहासकार इस घोषणा को भारतीय स्वतंत्रता का सबसे बड़ा चार्टर मानते हैं।
1857 की क्रांति का स्वरूप, असफलता और परिणाम
1858 के अधिनियम का मूल्यांकन
इस अधिनियम द्वारा भारत की शासन-सत्ता कंपनी से छीनकर ब्रिटिश सम्राट को मिल गया, किंतु इससे भारतीयों को कोई राजनीतिक लाभ नहीं हुआ। वस्तुतः एक राजनीतिक शक्ति के रूप में कंपनी की शक्ति पहले ही समाप्त हो चुकी थी, 1858 के अधिनियम के द्वारा कंपनी के शव को अच्छी तरह दफना दिया गया। सच तो यह है कि 1784 के पिट्स इंडिया ऐक्ट के द्वारा ही ब्रिटिश सरकार का भारतीय प्रशासन पर वास्तविक नियंत्रण स्थापित हो गया था। नियंत्रण मंडल के अध्यक्ष के माध्यम से ब्रिटिश सरकार ही भारतीय प्रशासन की देख-रेख करती थी। ब्रिटिश सरकार ने नियंत्रण-मंडल की शक्तियों में इतनी वृद्धि कर दी कि कंपनी ब्रिटिश सरकार का एक विभाग बन गई थी और संचालक मंडल की स्थिति एक सलाहकार समिति जैसी हो गई थी। 1874 तथा 1858 के बीच पारित होने वाले प्रत्येक अधिनियम में संचालक मंडल के अधिकारों में कटौती की जाती रही।
1853 के चार्टर ऐक्ट से उसकी बची-खुची शक्तियों को भी नष्ट कर दिया गया था। इसके द्वारा कंपनी के कर्मचारियों की नियुक्ति का अधिकार भी संचालक मंडल से छीनकर नियंत्रण मंडल के अध्यक्ष को दे दिया गया। यही नहीं, संचालक मंडल के सदस्यों की संख्या चौबीस से घटाकर अठारह कर दी गई, जिनमें छः सदस्य सम्राट द्वारा मनोनीत किये जाने थे। इस प्रकार 1853 के ऐक्ट से ही संचालक मंडल की समाप्ति का रास्ता तैयार हो गया था। 1857 के विद्रोह ने ऐसी परिस्थिति का निर्माण कर दिया कि 1858 में यह कार्य पूर्णतया संपन्न हो गया।
1858 के अधिनियम द्वारा भारत के संवैधानिक इतिहास में एक नये युग का आरंभ हुआ। ईस्ट इंडिया कंपनी तो समाप्त हो गई, किंतु ‘अपने शासन का परित्याग करते समय ईस्ट इंडिया कंपनी ने महारानी विक्टोरिया को एक ऐसे साम्राज्य की भेंट दी, जो रोम के साम्राज्य से भी अधिक शानदार था।’
इस अधिनियम का महत्त्व इस बात में भी है कि इसने भारत में द्वैध शासन व्यवस्था को समाप्त कर दिया, जो पिछले 74 वर्षों से कंपनी के प्रशासन का आधार बनी हुई थी। ब्रिटिश सरकार की इस नई व्यवस्था से भारतीय प्रशासन के सुदृढ़ एवं स्वच्छ बनने की आशा उत्पन्न हुई।
अधिनियम का महत्त्व इस बात में भी है कि इसके द्वारा भारतीय परिषद् (इंडिया कौंसिल) की स्थापना की गई। भारतीय परिषद् एक स्वतंत्र संस्था थी, जिसके सदस्यों को भारतीय समस्याओं का पूरा ज्ञान होता था, क्योंकि उनके लिए यह शर्त थी कि वे नियुक्ति से पहले दस वर्ष तक भारत में या तो रह चुके हों या नौकरी कर चुके हों। यह नई व्यवस्था भारतीय प्रशासन के लिए उपयोगी हो सकती थी, किंतु इसकी स्थापना से कोई विशेष लाभ नहीं हुआ क्योंकि यह केवल एक परामर्शदायी संस्था बनकर रह गई।
इस अधिनियम के द्वारा भारत सचिव के पद की व्यवस्था की गई, जो संवैधानिक दृष्टिकोण से बहुत महत्त्वपूर्ण थी। भारत सचिव ब्रिटिश मंत्रिमंडल का सदस्य होता था। उसके पास बहुत अधिकार तथा शक्तियाँ होती थीं।
भारत सचिव तथा उसकी परिषद् के सदस्यों के वेतन और इंडिया ऑफिस का सारा खर्च भारतीय राजस्व से देने की व्यवस्था की गई जिससे भारत पर आर्थिक बोझ पड़ना स्वाभाविक था। इस परिषद् के सदस्य भारतीय लोक सेवा के रिटायर्ड व्यक्ति होते थे, जो सामान्यतया अपने वेतन और पद की लालच में परिषद् का ही समर्थन करते थे।
इस अधिनियम द्वारा ब्रिटिश सरकार ने विजय तथा अन्य राज्यों के विलय की नीति को त्याग देने की घोषणा की और भारतीय नरेशों को यह विश्वास दिलाया कि उनके अधिकार, गौरव और सम्मान का अपने राज्यों की तरह ध्यान रखा जायेगा। इससे देसी राजाओं में ब्रिटिश सरकार के प्रति सद्भावना का उदय हुआ।
इस अधिनियम द्वारा धार्मिक सहिष्णुता के सिद्धांत का प्रतिपादन किया गया और लोक सेवा में भर्ती के लिए जाति या धर्म के आधार पर भेदभाव समाप्त कर दिया गया। किंतु भारतीय शासन को अपने हाथ में लेने के बाद ब्रिटिश सरकार ने भारतीय मामलों में न कोई विशेष रुचि ली और न ही शासन में आवश्यक सुधार किया।
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