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उग्र राष्ट्रवाद का उदय
बीसवीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में कांग्रेस की कतारों से ही एक नये और युवा दल का उदय हुआ, जो पुराने नेताओं के आदर्श और ‘भिखमंगी’ राजनीति का कड़ा आलोचक था। इन ‘क्रुद्ध तरुण’ नेताओं को अंग्रेजों की न्यायप्रियता में कतई विश्वास नहीं था और उन्हें लगता था कि स्वराज्य माँगने से नहीं, बल्कि संघर्ष करने से ही प्राप्त होगा। इस दल को पुराने उदारवादियों की तुलना में ‘उग्रवादी’ कहा गया है, क्योंकि ये संघर्ष द्वारा स्वतंत्रता प्राप्त करना चाहते थे। यह उग्रपंथी आंदोलन तीन प्रमुख क्षेत्रों में तीन प्रमुख नेताओं के नेतृत्व में विकसित हुआ, बंगाल में विपिनचंद्र पाल, महाराष्ट्र में बाल गंगाधर तिलक और पंजाब में लाला लाजपत राय। दूसरे क्षेत्रों में गरमपंथ एकदम गायब नहीं, तो कम शक्तिशाली अवश्य था।
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में उग्र राष्ट्रवाद दो रूपों में प्रकट हुआ- एक ओर कांग्रेस के भीतर उग्रवादी आंदोलन चला, तो दूसरी ओर सशस्त्र क्रांतिकारी आंदोलन चले। किंतु दोनों का उद्देश्य एक था- अंग्रेजी राज्य से छुटकारा और पूर्ण स्वराज्य की प्राप्ति। दोनों ही विचारधाराओं के राष्ट्रवादी साहसी व्यक्ति थे, उनमें आत्म-बलिदान और स्वतंत्रता की भावना थी, प्रबल देशप्रेम था और विदेशी राज्य के प्रति घृणा थी। यद्यपि इन राष्ट्रवादियों की प्रेरक भावनाएँ एक ही थीं, किंतु उग्र राष्ट्रवादी शांतिपूर्ण, लेकिन सक्रिय राजनीतिक आंदोलन में विश्वास करते थे, जबकि क्रांतिकारी अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालने के लिए शक्ति और हिंसा का मार्ग अपनाने के पक्षधर थे। उग्रवादी ब्रिटिश वस्तुओं तथा संस्थाओं के बहिष्कार द्वारा राष्ट्रीय पुनर्निर्माण में विश्वास करते थे, जबकि क्रांतिकारी बम और पिस्तौल के द्वारा विदेशी शासन को नष्ट करना चाहते थे।
उग्र राष्ट्रवाद के उदय के कारण
ब्रिटिश शासन की सही पहचान
भारत की बिगड़ती हुई आर्थिक स्थिति उग्र राष्ट्रवाद के उदय में विशेष सहायक हुई। उदारवादी राष्ट्रवादियों की राजनीति इस विश्वास पर आधारित थी कि ब्रिटिश शासन को अंदर से सुधारा जा सकता है। लेकिन राजनैतिक और आर्थिक प्रश्नों से संबंधित ज्ञान जब फैला तो धीरे-धीरे यह विश्वास टूट गया। इसके लिए काफी हद तक उदारपंथियों का आंदोलन स्वयं उत्तरदायी था। राष्ट्रवादी लेखकों और आंदोलनकारियों ने अपने भाषणों तथा पुस्तकों के माध्यम से जनता को बताया कि भारत की निर्धनता का मूल कारण ब्रिटिश शासन है। राजनीतिक रूप से चेतन भारतीयों को विश्वास था कि ब्रिटिश शासन का उद्देश्य भारत का आर्थिक शोषण करना अर्थात् भारत की संपत्ति से इंग्लैंड को समृद्ध बनाना है। उन्हें महसूस हुआ कि जब तक भारतीयों द्वारा नियंत्रित और संचालित कोई सरकार ब्रिटिश साम्राज्यवाद की जगह नहीं लेती, आर्थिक क्षेत्र में भारत शायद ही कुछ प्रगति कर सके। राष्ट्रवादयिों ने विशेषकर यह भी देखा कि भारत के उद्योग तब तक फल-फूल नहीं सकते जब तक कि उन्हें सुरक्षा और प्रोत्साहन देनेवाली कोई भारतीयों की सरकार न हो। भारत में 1896 और 1900 के बीच जो भयानक अकाल पड़े और जिनमें लगभग 90 लाख लोग मारे गये, भारतीय जनता की दृष्टि में विदेशी शासन के आर्थिक दुष्परिणामों के जीत-जागते प्रतीक थे।
1892 से 1905 के बीच अनेक ऐसी राजनीतिक घटनाएँ घटीं, जिसने राष्ट्रवादियों को गरमपंथी राजनीति के बारे में सोचने पर विवश कर दिया। उदारवादियों की निरंतर माँग के परिणामस्वरूप ब्रिटिश सरकार ने 1892 में भारतीय परिषद् अधिनियम पारित किया था। इसके द्वारा भारतीयों की सदस्य संख्या में वृद्धि तो की गई थी, किंतु प्रत्यक्ष निर्वाचन के सिद्धांत को स्वीकार न करने से भारतीयों को कोई लाभ नहीं हुआ। दूसरी ओेर जनता को जो थोड़े-से राजनीतिक अधिकार प्राप्त थे, उन पर भी हमले किये गये। 1898 में एक कानून द्वारा विदेशी शासन के प्रति ‘असंतोष की भावना’ फैलाने को अपराध घोषित कर दिया गया। कलकत्ता नगर निगम पर सरकारी नियंत्रण बनाये रखने के लिए 1899 में एक कानून द्वारा निगम और उसकी समितियों में निर्वाचित भारतीय सदस्यों की संख्या घटा दी गई ताकि सरकारी सदस्यों का बहुमत हो जाये। 1904 में ‘इंडियन आफिसियल सीक्रेटस ऐक्ट’ द्वारा सरकारी कार्यालयों का भेद देना दंडनीय बना दिया गया और समाचार-पत्रों की स्वतंत्रता को सीमित कर दिया गया। 1897 में नाटू बंधुओं को केवल संदेह के आधार पर बिना कोई मुकदमा चलाये उनकी संपत्ति जब्त करके उन्हें देश से निष्कासित कर दिया गया। उसी वर्ष तिलक और दूसरे संपादकों को ब्रिटिश सरकार के प्रति जनता को भड़काने के आरोप में लंबी-लंबी सजाएँ दी गईं। जनता को लगा कि विदेशी सरकार और अधिक राजनीतिक अधिकार देने के बजाय थोड़े-से मिले अधिकारों को भी छीन रही है।
सामजिक-सांस्कृतिक रूप से अब अंग्रेजी शासन प्रगतिशील भी नहीं रहा। प्राथमिक और तकनीकी शिक्षा में कोई प्रगति नहीं हो रही थी। ब्रिटिश अधिकारी उच्च शिक्षा को संदेह की दृष्टि से देखते थे और देश में उसके प्रसार में बाधा डालने का प्रयास कर रहे थे। लार्ड कर्जन ने जब 1904 में भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम पारित कर विश्वविद्यालयों की स्वतंत्रता को नष्ट किया, तो राष्ट्रवादियों को लगा कि यह भारतीय विश्वविद्यालयों पर सरकारी नियंत्रण स्थापित करने तथा उच्च शिक्षा के प्रसार को रोकने का ही प्रयास है। इस प्रकार अब अधिकाधिक भारतीयों को विश्वास हो गया कि देश की आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रगति के लिए स्वशासन आवश्यक है।
आत्मसम्मान और आत्मविश्वास का प्रसार
राष्ट्रीय जागरण और सुधार आंदोलनों के परिणामस्वरूप भारतीय राष्ट्रवादियों को अपनी क्षमता में विश्वास हो गया था कि वे अपने देश और शासन का विकास स्वयं कर सकते हैं। तिलक, अरबिंद घोष और विपिनचंद्र पाल जैसे नेताओं ने भारतवासियों को आत्मविश्वास का संदेश दिया और जनता को बताया कि उनकी दासता से मुक्ति उनके अपने हाथों में है और इसके लिए उन्हें निर्भय और शक्तिशाली होना चाहिए। स्वामी विवेकानंद राजनीतिक नेता नहीं थे, फिर भी उन्होंने बार-बार यह संदेश दिया कि दुनिया में अगर कोई पाप है, तो वह निर्बलता है। उन्होंने जनता से कहा कि वह अतीत के महिमामंडन के सहारे जीना छोड़े और मर्दों की तरह भविष्य का निर्माण करे।
राष्ट्रीय जागरण और आत्म-विश्वास के कारण यह विचार फैला कि भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को ऊँचे वर्गों के थोड़े से शिक्षित भारतीयों तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए और साधारण जनता की राजनीतिक चेतना को भी उभारा जाना चाहिए। विवेकानंद के अनुसार ‘‘भारत की एकमात्र आशा उसकी जनता है। ऊँचे वर्ग शारीरिक और नैतिक दृष्टि से मृतप्राय हैं।’’ अब यह महसूस किया जाने लगा था कि स्वाधीनता पाने के लिए जो व्यापक बलिदान आवश्यक है, वह केवल जनता ही कर सकती है।
शिक्षा और बेरोजगारी में वृद्धि
उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में शिक्षित भारतीयों की संख्या में स्पष्ट वृद्धि हुई थी। सरकार की भारतीयों को उच्च पदों से वंचित रखने की नीति के कारण इनका एक बड़ा भाग प्रशासन में बहुत कम वेतन पर काम कर रहा था और दूसरे बहुत से लोग बेरोजगार घूम रहे थे। अपनी आर्थिक स्थिति के कारण उनमें निराशा तथा असंतोष फैला और ये लोग ब्रिटिश सरकार के चरित्र को आलोचनात्मक दृष्टि से देखने लगे थे। उनमें से अनेक उग्रवादी नीतियों की ओर आकर्षित हुए।
भारतीयों में शिक्षा-प्रसार के विचारधारात्मक पक्ष ने भी उग्रवाद के उदय में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। शिक्षित भारतीयों की संख्या बढ़ने के साथ-साथ लोकतंत्र, राष्ट्रवाद और आमूल परिवर्तन के पश्चिमी विचारों का प्रसार और प्रभाव भी बढ़ा। ये शिक्षित भारतीय गरमपंथी राष्ट्रवाद के अच्छे प्रचारक और अनुयायी साबित हुए। इसके दो कारण थे- वे अल्प वेतनभोगी या बेरोजगार थे और साथ ही आधुनिक विचार-प्रणाली और यूरोपीय तथा विश्व इतिहास की उन्हें शिक्षा मिली थी।
जातीय कटुता और नस्ली भेदभाव
भारतीयों के प्रति जातीय कटुता की भावना भी गरमपंथी राष्ट्रवाद के उदय का एक कारण थी। अंग्रेज भारतीयों को अपमानित करने का कोई अवसर नहीं छोड़ते थे, फिर भी उन्हें ब्रिटिश सरकार द्वारा कोई दंड नहीं दिया जाता था। यही नहीं, कोई अंग्रेज किसी भारतीय की हत्या भी कर देता, तो उसे नाममात्र का दंड दिया जाता था। लार्ड रोनाल्डशे ने उस समय की दो घटनाओं को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है। पहला, ब्रिटिश सैनिकों ने एक भारतीय महिला से बलात्कार किया, जिसके कारण उसकी मृत्यु हो गई, किंतु उन सैनिकों को कोई दंड नहीं मिला। दूसरा, 1902 में सियालकोट में घुड़सवार दल के सैनिकों ने एक भारतीय रसोइये को मात्र इसलिए मार डाला कि उसने उनके लिए एक भारतीय स्त्री का प्रबंध करने से इनकार कर दिया था। इन अपराधों और हत्याओं से अधिक दुर्भाग्यपूर्ण बात यह थी कि आंग्ल-भारतीय समाचार-पत्र खुले रूप में अंग्रेजों को भारतीयों के साथ दुर्व्यवहार करने की भावना को प्रोत्साहन देते थे। सरकार भी उन्हें दंड देने के स्थान पर प्रोत्साहन ही देती थी। लाहौर से प्रकाशित आंग्ल-भारतीय दैनिक ‘दि सिविल एंड मिलिटरी गजट’ तो भारतीयों को जी भरकर गालियाँ देता था और शिक्षित भारतीयों के लिए बी.ए., वर्णशंकर, गुलाम, घुड़सवार, भिखारी, दास जाति एवं कलंकी जाति जैसे अपमानजनक शब्दों का प्रयोग करता था।
ब्रिटिश उपनिवेशों, विशेष रूप से दक्षिणी अफ्रीका में रहनेवाले भारतीयों के साथ अन्यायपूर्ण, अभद्र एवं असभ्य व्यवहार किया जाता था। अंग्रेज भारतीयों को नीच व बर्बर जाति का समझते थे और ‘काला आदमी’ कहकर उन्हें अपमानित करते थे। यही नहीं, भारतीयों पर अनेक प्रकार के प्रतिबंध भी लगाये गये थे। 1903 में दक्षिणी अफ्रीका से लौटकर डा. बी.एस. मुंजे ने बड़े दुःख के साथ कहा था कि ‘‘हमारे शासक इस बात पर विश्वास नहीं करते कि हम मनुष्य हैं।’’ अपने देशवासियों की इस दुर्दशा के कारण भारतीयों में ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध घृणा की भावना बढ़ी। अब यह अनुभव किया जाने लगा कि भारतीयों के साथ दुर्व्यवहार भारत की पराधीनता के कारण ही किया जा रहा है।
राजनीतिक गुटबंदी
कुछ इतिहासकारों के अनुसार उग्रवाद के उदय का एक कारण कांग्रेस पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए कुछेक गुटों, जैसे ‘भीतरवालों’ एवं ‘बाहरवालों’ के आपसी झगड़े और गुटबंदी थी। बंगाल में ब्रह्म समाज के अंदर विभाजन था और दो समाचारपत्र समूहों- नरमपंथी नेता सुरेंद्रनाथ बनर्जी द्वारा संपादित ‘बंगाली’ और अधिक गरमवादी मोतीलाल घोष द्वारा संपादित ‘अमृत बाजार पत्रिका’ के बीच तीखी शत्रुता थी। ‘वंदेमातरम्’ के संपादक के पद को लेकर एक ओर अरबिंद घोष और दूसरी ओर विपिनचंद्र पाल और ब्रह्मबांधव उपाध्याय के बीच भी गुटबंदी थी। महाराष्ट्र में पूना सार्वजनिक सभा के नियंत्रण को लेकर गोखले और तिलक के बीच प्रतियोगिता थी। यह टकराव 1895 में सामने आया, जब तिलक ने संगठन पर कब्जा कर लिया और अगले साल गोखले ने एक विरोधी संगठन ‘दकन सभा’ आरंभ किया। मद्रास में भी तीन गुट आपस में लड़ रहे थे- माइलापुर गुट, एग्मोर गुट और उपनगरीय कुलीन। दयानंद की मृत्यु के बाद पंजाब में आर्य समाज अधिक नरमपंथी कालेज गुट और गरमपंथी पुनरुत्थानवादी गुट के बीच बँट गया था। इसलिए कहा जाता है कि उदारवादियों और उग्रवादियों के बीच कांग्रेस का विभाजन केवल गुटों का टकराव था, जो उन दिनों भारत में हर जगह संगठित सार्वजनिक जीवन में व्याप्त था।
उदारवादी राजनीति के प्रति कुंठा
उग्रवादी राजनीति के पीछे उदारवादी राजनीति को लेकर पैदा हुई कुंठा भी थी। उदारपंथी नेतृत्व में कांग्रेस का संचालन एक अलोकतांत्रिक संविधान से हो रहा था। यद्यपि तिलक की बार-बार की कोशिशों के बाद 1899 में एक नया संविधान तैयार हुआ था, किंतु उसे कभी सही ढंग से आजमाया नहीं गया। कांग्रेस वित्तीय दृष्टि से दिवालिया थी, क्योंकि पूँजीपति कुछ देते नहीं थे और राजाओं तथा भूस्वामियों का संरक्षण कभी पर्याप्त नहीं होता था। पाश्चात्य उदारवाद से प्रेरित उदारवादियों का सामाजिक सुधार भी लोगों में व्याप्त रूढि़वाद का विरोधी था। यह बात 1895 में पूना कांग्रेस में सामने आई, जब गरमवादियों ने कांग्रेस के नियमित अधिवेशनों के साथ-साथ एक राष्ट्रीय सामाजिक सम्मेलन के आयोजन का प्रस्ताव किया। तिलक जैसे अधिक रूढि़वादी नेताओं का तर्क था कि यह सामाजिक सम्मेलन कांग्रेस के दो फाड़ कर देगा, और यह प्रस्ताव आखिरकार छोड़ दिया गया। किंतु उदारवादी राजनीति एक अंघी गली में फँस चुकी थी क्योंकि उनकी अधिकांश माँगें अधूरी रहीं और यह गरम दल के उदय का कारण बनीं। इससे औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध गुस्सा बढ़ा और उपनिवेशवाद की आर्थिक समालोचना के द्वारा उदारवादियों ने स्वयं इस गुस्से को जन्म दिया था।
उग्रवादी विचार-संप्रदाय का अस्तित्व
राष्ट्रीय आंदोलन के आरंभ से ही भारत में गरम राष्ट्रवाद का एक संप्रदाय मौजूद था। इस संप्रदाय के प्रतिनिधि बंगाल में राजनारायण बोस और अश्वनीकुमार दत्त तथा महाराष्ट्र में विष्णुशास्त्री चिपलुणकर जैसे नेता थे। उग्र राष्ट्रवाद संप्रदाय के सबसे महत्त्वपूर्ण प्रतिनिधि महाराष्ट्र के बाल गंगाधर तिलक थे जो अंग्रजी में ‘मरहठा’ और मराठी में ‘केसरी’ नामक पत्रों के माध्यम से राष्ट्रवाद का प्रचार कर रहे थे। उन्होंने जनता को यह पाठ पढ़ाया कि सरकार के अत्याचारों का सामना शक्ति एवं उत्साह से करना चाहिए और मातृभूमि के लिए दंड भुगतने में भी गौरव का अनुभव करना चाहिए। 1893 में उन्होंने एक परंपरागत धार्मिक उत्सव (गणपति उत्सव) का और अप्रैल 1996 में महाराष्ट्र में शिवाजी उत्सव को आरंभ किया। यद्यपि इसका उद्देश्य महाराष्ट्रियन युवकों में राष्ट्रवाद की भावना को पैदा करना था, किंतु ये विचार शीघ्र ही बंगाल में भी लोकप्रिय हो गये और राष्ट्र-नायक पूजा का एक उन्माद शुरू हो गया। यही नहीं, तिलक ने 1896-97 में महाराष्ट्र में ‘कर न चुकाने’ का अभियान चलाया और महाराष्ट्र के अकाल-पीडि़त किसानों से अपील की कि यदि उनकी फसल नष्ट हो जाये, तो मालगुजारी न दें। 15 जून 1897 को उन्होंने लिखा था कि ‘‘यदि हमारे घर में चोर घुस आये और हममें उन्हें बाहर निकालने का सामर्थ्य न हो, तो हमें बिना किसी झिझक के उन्हें घर के अंदर बंद करके जला देना चाहिए।’’ जब सरकार के खिलाफ घृणा और असंतोष भड़काने के आरोप में 1897 में उन्हें गिरफ्तार किया गया, तो उन्होंने निडरता, देशभक्ति और आत्म-त्याग का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए सरकार से क्षमा माँगने से इनकार कर दिया, जिसके कारण उन्हें 18 महीने की कैद-बमुशक्कत की सजा हुई। इस तरह वे आत्म-बलिदान की नई राष्ट्रीय भावना के प्रतीक बन गये।
बीसवीं सदी के आरंभ में गरम राष्ट्रवादी संप्रदाय को एक अनुकूल राजनीतिक वातावरण प्राप्त हुआ। अब इसके समर्थक भी राष्ट्रीय आंदोलन के दूसरे चरण का नेतृत्व करने के लिए आगे बढ़े। तिलक के अलावा गरम राष्ट्रवाद के दूसरे महत्त्वपूर्ण नेता विपिनचंद्र पाल, अरबिंद घोष और लाला लाजपतराय थे। इन गरमपंथी नेताओं का मानना था कि भारतीयों को अपनी पतित स्थिति से उबरने के लिए स्वयं प्रयत्न करने होंगे। उन्होंने घोषणा की कि इस कार्य के लिए बड़े-बड़े बलिदान करने होंगे और तकलीफें सहनी होंगी। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में घोषणा की कि राष्ट्रीय आंदोलन का लक्ष्य स्वराज्य या स्वाधीनता है। उन्हें जनता की शक्ति में असीम विश्वास था और उनकी योजना जनता की कार्रवाई के द्वारा स्वराज्य प्राप्त करने की थी। इसलिए उन्होंने जनता के बीच राजनीतिक कार्य पर और जनता की सीधी राजनीतिक कार्रवाई पर जोर दिया।
बंगाल-विभाजन
1905 में बंगाल-विभाजन के साथ भारत के राष्ट्रीय आंदोलन का दूसरा चरण आरंभ हुआ। इस समय तक उग्र राष्ट्रवाद के उदय की परिस्थितियाँ विकसित हो चुकी थीं। 1905 में लार्ड कर्जन ने राजनीतिक विरोध को नष्ट करने के लिए प्रशासनिक कुशलता के नाम पर बंगाल को दो भागों में विभाजित कर दिया। नये प्रांत में मुसलमान बंगाली हिंदुओं से अधिक होते तथा पुराने प्रांत में वे एक भाषाई अल्पसंख्यक होते, जिनमें हिंदी और उडि़या बोलनेवालों की बड़ी संख्या होती। उदारवादी 1903 में विभाजन की घोषणा के बाद से ही प्रार्थना-पत्रों, ज्ञापनों और जनसभाओं के माध्यम से उसकी आलोचना करते आ रहे थे और बंग-भंग योजना को निरस्त कराने का प्रयास कर रहे थे। किंतु 20 जुलाई 1905 में जब बंगाल का विभाजन कर दिया गया, तो उसकी प्रतिक्रिया में भारतीय राजनीति में उग्रवाद का तीव्रता से विकास हुआ। पूरे बंगाल में जनसभाएँ की गईं, जिनमें स्वदेशी अर्थात् भारतीय वस्तुओं का उपयोग तथा ब्रिटिश वस्तुओं के बहिष्कार की शपथ ली गई।
बंग-भंग विरोधी स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन की कमान शीघ्र ही तिलक, विपिनचंद्र पाल और अरबिंद घोष जैसे उग्र राष्ट्रवादियों के हाथ में आ गई। इसके कई कारण थे। पहला, उदारवादियों के विरोध का कोई परिणाम नहीं निकला और उदार माने जानेवाले भारत-सचिव लार्ड मार्ले ने उदारवादियों को स्पष्ट कह दिया कि विभाजन एक अंतिम सत्य है, जिसे बदला नहीं जा सकता। दूसरे, बंगाल के दोनों भागों में, विशेषकर पूर्वी बंगाल की सरकार ने हिंदुओं और मुसलमानों में फूट डालने के कई प्रयास किये, जिससे राष्ट्रवादियों का मन खट्टा हो गया। तीसरा सबसे महत्त्वपूर्ण कारण था सरकार की दमन नीति, जिसने भारतीय जनता को जुझारू और क्रांतिकारी राजनीति की ओर घकेल दिया।
सरकार की दमनकारी नीतियाँ
बंगाल की सरकार ने राष्ट्रवादी आंदोलन को दबाने की हरसंभव कोशिश की। स्कूलों और कालेजों के आंदोलनकारी छात्रों को दंडित करने के आदेश जारी किये गये, उन्हें विश्वविद्यालय से असंबद्ध कर दिया गया और सरकारी नौकरी से वंचित रखने का निर्णय लिया गया। पूर्वी बंगाल की सड़कों पर ‘वंदेमातरम्’ का नारा लगाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। स्वदेशी कार्यकत्र्ताओं पर मुकदमे चलाकर उन्हें लंबी-लंबी सजाएँ दी गईं, छात्रों को शारीरिक दंड तक दिये गये। 1906 से 1909 के बीच बंगाल की अदालतों में 550 से अधिक राजनीतिक मुकदमे दर्ज हुए। प्रेस पर नियंत्रण के लिए कानून बनाये गये, राष्ट्रवादी अखबारों पर मुकदमे चलाये गये और प्रेस की स्वतंत्रता पूरी तरह समाप्त कर दी गई। सरकारी दमन का सबसे घिनौना रूप अप्रैल 1906 में बारीसाल सम्मेलन पर पुलिस के हमले में दिखा, जहाँ अनेक स्वयंसेवकों को बुरी तरह पीटा गया और सम्मेलन को जबरन बंद करा दिया गया।
समकालीन विदेशी घटनाओं का प्रभाव
इस काल में विदेशों में कुछ ऐसी घटनाएँ घटीं, जिन्होंने भारत में उग्रवाद के विकास को प्रोत्साहन मिला। 1868 के बाद जापान के आधुनिकीकरण ने दिखा दिया कि एक पिछड़ा हुआ एशियाई देश भी बिना किसी पश्चिमी नियंत्रण के अपना विकास कर सकता है। 1896 में अफ्रीका के पिछड़े एवं छोटे राष्ट्र इथियोपिया (अबीसीनिया) के हाथों इटली और 1905 में जापान के हाथों रुस की पराजय ने यूरोपीय श्रेष्ठता के भ्रम को तोड़कर रख दिया। एशिया में हर जगह एक छोटे से एशियाई देश के हाथों यूरोप की सबसे बड़ी सैनिक शक्ति की पराजय की खबर को उत्साह के साथ सुना गया। 18 जून 1905 को ‘कराची क्रानिकल’ ने लिखा था कि ‘‘जो कुछ एक एशियाई देश ने किया है, वह दूसरे भी कर सकते हैं। अगर जापान रूस की धुनाई कर सकता है, तो भारत भी उतनी आसानी से इंग्लैंड को धुन सकता है। आइए! हम अंग्रेजों को समुद्र में फेंक दें और विश्व की महान् शक्तियों के बीच जापान के बराबर अपना स्थान ग्रहण करें।’’ रूस पर जापान की विजय आधुनिक इतिहास में एक नया मोड़ था और यहीं से एशिया का वह पुनरुत्थान आरंभ हुआ जिससे भारत में राजनीतिक प्रगति की आशा जगी।
इसी समय मैजिनी, गैरीबाल्डी तथा कावूर जैसे राष्ट्रवादियों के प्रयासों से इटली का एकीकरण हुआ। इसका भी भारतीयों पर विशेष प्रभाव पड़ा। मैजिनी के जीवन और कृतियों पर भारतीय भाषाओं में पुस्तकें लिखी गईं, अनुवाद किये गये और भारत के राष्ट्रीय नेताओं ने अपने देशवासियों में स्वदेश-प्रेम जागृत करने के लिए इटली का उदाहरण दिये। आयरलैंड, रूस, मिस्र, तुर्की और जापान के क्रांतिकारी आंदोलनों तथा दक्षिण अफ्रीका के बोअर युद्ध से भारतीयों को यह विश्वास हो गया कि यदि जनता एकजुट होकर बलिदान के लिए तैयार हो तो शक्तिशाली निरंकुश सरकारों को भी चुनौती दी जा सकती है।
उग्र राष्ट्रवादियों के उद्देश्य
कांग्रेस के उग्रवादी नेताओं ने इस बात को मानने से इनकार कर दिया कि अंग्रेजों के ‘कृपापूर्ण मार्गदर्शन’ और नियंत्रण में ही भारत प्रगति कर सकता है। उन्होंने ‘स्वराज्य’ को राष्ट्रीय आंदोलन का प्रमुख लक्ष्य घोषित किया, जिसकी अलग-अलग नेताओं ने अलग-अलग व्याख्याएँ कीं। तिलक इसका अर्थ प्रशासन पर भारतीय नियंत्रण समझते थे, न कि ब्रिटेन से पूरा-पूरा संबंध-विच्छेद। विपिन पाल समझते थे कि ब्रिटिश सर्वोच्चता के अंतर्गत कोई भी स्वशासन संभव नहीं, इसलिए उनके लिए स्वराज्य का अर्थ ब्रिटिश नियंत्रण से एकदम मुक्त, पूर्ण स्वतंत्रता था। बंगाल के अरबिंद घोष भी स्वराज्य को पूर्ण स्वतंत्रता समझते थे। उनके अनुसार ‘‘राजनीतिक स्वतंत्रता, एक राष्ट्र का जीवन-श्वाँस है। बिना राजनीतिक स्वतंत्रता के सामाजिक तथा शैक्षिणक सुधार, औद्योगिक प्रसार, एक जाति की नैतिक उन्नति आदि की बात सोचना मूर्खता की चरमसीमा है।’’
किंतु अधिकांश दूसरे लोगों के लिए स्वराज्य का अर्थ ब्रिटिश साम्राज्यिक ढ़ाँचे के दायरों के अंदर ही स्वशासन था। वास्तव में उग्रवाद आंदोलन की विधि में देखा जाना चाहिए क्योंकि वे लोग प्रार्थना-पत्रों और ज्ञापनों की पुरानी विधियों से हटकर सविनय अवज्ञा की विधियों का उपयोग करते थे। इसका अर्थ अन्यायपूर्ण कानूनों के उल्लंघन के द्वारा उपनिवेशी शासन का विरोध, ब्रिटिश माँगों और संस्थाओं का बहिष्कार और उसके देसी विकल्पों का अर्थात् स्वदेशी और राष्ट्रीय शिक्षा का विकास था। स्वदेशी के स्वयंसेवकों के लिए भगवद्गीता आध्यात्मिक प्रेरणा की स्रोत बन गई और जनता को लामबंद करने के लिए अकसर हिंदू धार्मिक प्रतीकों का, खासकर शाक्त के बिंब का, उपयोग किया जाने लगा। भारतीय परंपरा को ग्रामीण स्वशासन पर बल देनेवाली तथा लोकतांत्रिक परंपरा घोषित किया गया। तर्क दिया गया कि धर्म की धारणा राजा की मनमानी शक्ति पर रोक लगाती थी तथा यौधेय और लिच्छवि जनगणों की गणतांत्रिक परंपराओं से संकेत मिलता है कि भारतीय जनता के पास पहले से ही स्वशासन की एक शक्तिशाली परंपरा थी। वास्तव में इसका उद्देश्य सीधे-सीधे उस उपनिवेशी और नरमपंथी तर्क की काट प्रस्तुत करना था कि ब्रिटिश शासन भारतवासियों को स्वशासन के लिए तैयार करने हेतु ईश्वर का एक वरदान था।
उग्र राष्ट्रवादियों का मानना था कि ब्रिटिश शासन में सुधार नहीं किया जा सकता, उसका अंत ही किया जाना चाहिए। इसके लिए जनता को जाग्रत करके राजनीतिक आंदोलन द्वारा सरकार पर दबाव डालना होगा। उनका मानना था कि ‘केवल प्रस्ताव पास करने और अंग्रेजों के सामने हाथ पसारने से राजनीतिक अधिकार प्राप्त नहीं होंगे, बल्कि उनके विरुद्ध युद्ध करना होगा।’ विपिनचंद्र पाल के अनुसार स्वराज्य स्वावलंबन से ही प्राप्त किया जा सकता है। वे कहा करते थे कि, ‘‘हमें अपनी राष्ट्रीय शक्तियों को इस प्रकार संगठित करना चाहिए कि कोई भी शक्ति जो हमारे विरुद्ध हो, हमारे सम्मुख झुकने के लिए बाध्य हो जाये। यदि सरकार मेरे पास आकर कहे कि स्वराज्य ले लो, तो मैं उपहार के लिए धन्यवाद देते हुए उससे कहूँगा कि मैं उस वस्तु को स्वीकार नहीं कर सकता, जिसको प्राप्त करने की सामथ्र्य मुझमें नहीं है।’’
उग्र राष्ट्रवादियों के कार्यक्रम
बहिष्कार, स्वदेशी और राष्ट्रीय शिक्षा
उग्र राष्ट्रवादियों ने बहिष्कार, स्वदेशी, राष्ट्रीय शिक्षा और निष्क्रिय प्रतिरोध को राष्ट्रीय आंदोलन का आधार बनाया। बहिष्कार से तात्पर्य विदेशी वस्तुओं, सरकारी नौकरियों, प्रतिष्ठानों तथा उपाधियों का बहिष्कार था। बहिष्कार के आंदोलन में निहित विचारधारा को स्पष्ट करते हुए लाला लाजपत राय ने लिखा था: ‘‘हम अपने मुख सरकारी भवनों से हटाकर साधारण जनों की कुटिया की तरफ ले जाना चाहते हैं।’’ स्वदेशी के माध्यम से स्वावलंबन या आत्मशक्ति के विकास पर जोर दिया गया। आर्थिक क्षेत्र में इसका अर्थ था- देसी उद्योग व अन्य उद्यमों को बढ़ावा देना। चूंकि उग्र राष्ट्रवादी नेता भारतीय धार्मिक और सांस्कृतिक नवजागरण के परिणाम थे, इसलिए वे राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली के समर्थक थे। साहित्यिक, तकनीकी और शारीरिक शिक्षा देने के लिए उग्र राष्ट्रवादियों ने अनेक राष्ट्रीय शैक्षिक संस्थाएँ स्थापित कीं, जैसे गुरुदास बनर्जी ने बंगाल में ‘राष्ट्रीय शिक्षा परिषद्’ एवं तिलक ने ‘दक्षिण शिक्षा समाज’ की स्थापना की।
निष्क्रिय प्रतिरोध
उग्र राष्ट्रवादियों ने बहिष्कार, स्वदेशी और राष्ट्रीय शिक्षा के साथ-साथ निष्क्रिय प्रतिरोध का भी आह्वान किया। उन्होंने जनता से आग्रह किया कि वह सरकार के साथ सहयोग न करे और सरकारी सेवाओं, अदालतों, सरकारी स्कूल-कालेजों, नगरपालिकाओं और विधान मंडलों का बहिष्कार करे अर्थात् अरबिंद घोष के शब्दों में ‘‘वर्तमान परिस्थितियों में प्रशासन चलाना असंभव बना दे।’’ इन राष्ट्रवादियों ने स्वदेशी और विभाजन-विरोधी आंदोलन को जन-आंदोलन बनाने की कोशिश की और विदेशी शासन से मुक्ति का नारा दिया। उग्र राष्ट्रवादियों ने आत्म-बलिदान का आह्वान किया कि इसके बिना कोई भी महान् उद्देश्य प्राप्त नहीं किया जा सकता है। इस प्रकार इस आंदोलन का लक्ष्य बंग-भंग की निरस्ति ही नहीं, पूर्ण स्वाधीनता या स्वराज्य हो गया।
उग्र राष्ट्रवाद का प्रसार
बंगाल
बंगाल में 1906 के आसपास ही उग्र राष्ट्रवाद बंगाल के उत्साही शिक्षित युवकों को आकर्षित करने लगा था। विपिन पाल (1858-1932) की ‘न्यू इंडिया’, अरबिंद घोष (1872-1950) की ‘वंदेमातरम्’, ब्रहमबांधव की उपाध्याय की ‘संध्या’ और ‘युगांतर’ जैसी पत्रिकाएँ स्वराज के लिए संघर्ष करने का आह्वान करने लगी थीं। अरबिंद घोष ने अप्रैल 1907 में ‘वंदेमातरम्’ में छपनेवाले लेखों की एक श्रृंखला में, जो बाद में डाक्ट्रिन आफ पैसिव रेरिस्टेंस शीर्षक से पुनर्मुद्रित हुई थीं, शांतिपूर्ण आश्रमों और स्वदेशीवाद एवं स्वावलंबन के आदर्श को अपर्याप्त बताकर उसकी खिल्ली उड़ाई गई थी।
गरमपंथीं नेता मानते थे कि स्वतंत्रता के बिना राष्ट्रीय जीवन का कोई पुनर्जीवन संभव नहीं है। उन्होंने एक ऐसे कार्यक्रम की परिकल्पना की जिसमें अंग्रेजी वस्तुओं, सरकारी शिक्षा, न्याय एवं कार्यकारी प्रशासन के ‘संगठित एवं निर्मम बहिष्कार’ की बात कही गई थी। साथ ही, इसमें अन्यायपूर्ण कानूनों की सविनय अवज्ञा करने, राजभक्तों का ‘सामाजिक बहिष्कार’ करने और अंग्रेजी दमन के सहन-सीमा से आगे बढ़ जाने पर सशस्त्र संघर्ष करने की योजना भी थी। यह एक प्रकार से गांधीजी के आंदोलन का पूर्वाभ्यास था जिसमें केवल उनका अहिंसा पर दिया जानेवाला जोर शामिल नहीं था और करों एवं लगानों की नाअदायगी के आह्वान का भी अभाव था। करों एवं लगानों की नाअदायगी की बात को अप्रैल 1907 के लेखों में अरबिंद ने स्पष्ट रूप से अस्वीकार कर दिया था क्योंकि यह बात बंगाल के जमींदार समुदाय के विरुद्ध जाती थी जो उनकी दृष्टि से मूलतः देशभक्त था।
बंगाल के उग्रवादियों ने जिला स्तर पर संगठनों अथवा समितियों की प्रभावपूर्ण श्रृंखला बनाने और श्रमिक असंतोष को कुछ नया राजनीतिक नेतृत्व प्रदान करने में योगदान दिया। बंगाल में 1907 में पुलिस ने 19 समितियों के होने की रिपोर्ट दी थी, जिसमें स्वदेश बांधव, ब्रती, ढाका अनुशीलन, सुहृद और साधना समितियाँ प्रमुख थीं। अश्विनीकुमार दत्त के नेतृत्ववाली बारीसाल की स्वदेश बांधव समिति की 159 शाखाएँ पूरे जिले के दूर-दराज इलाकों में फैली थीं। लेकिन इन समितियों की सदस्यता कभी भद्रलोक की कतारों से नहीं बढ़ी, और 1908-09 की अवधि में खुली समितियाँ या तो समाप्त हो गईं या गुप्त क्रांतिकारी समितियाँ बन गईं। इस प्रकार 1908 के अंत तक बंगाल की राजनीति पुनः उदारवादी भिखमंगेपन एवं वैयक्तिक क्रांतिकारिता के दो विरोधी ध्रुवों में सिमट गई।
महाराष्ट्र
1905 और 1908 के बीच महाराष्ट्र में उग्र राष्ट्रवादी आंदोलन के दौरान स्वदेशी की मानसिकता के फलस्वरूप जुझारू पत्रकारिता का तेजी से विकास हुआ और 1907 तक ‘केसरी’ की 20,000 प्रतियाँ बिकने लगी थीं। तिलक (1856-1920) और उनके सहयोगी महाराष्ट्र के साथ ही अन्य प्रांतों में भी स्वराज और विस्तृत बहिष्कार या अहिंसात्मक प्रतिरोध का व्यापक प्रचार किये। तिलक के ‘टेनेट्स आफ दि न्यू पार्टी’ (कलकत्ता, जनवरी 1907) जैसे व्याख्यान, पाल के मद्रास में दिये गये भाषण और ‘वंदेमातरम्’ में अरबिंद के लेख उग्रवादी आंदोलन के गौरव हैं। 1890 के दशक में तिलक द्वारा आरंभ किये गये धार्मिक-राजनीतिक उत्सव (गणपति, शिवाजी, रामदास उत्सव) पुनः प्रचलित हो गये, विदेशी कपड़ों की होलियाँ जलाई गईं, और नरमदलीय राजनीति का गढ़ बंबई नगर में इस नये संदेश को पहुँचाने के लिए एक ‘स्वदेशी वस्तु प्रचारिणी सभा’ की स्थापना की गई।
1907 के अंत एवं 1908 के आरंभ में महाराष्ट्र और बंबई शहर में दो बड़े कदम उठाये गये जो तिलक की गरमदलीय गतिविधियों से जुड़े थे, जैसे शराब की दुकानों पर सामूहिक धरने, और बंबई के मराठा-बहुल कामगार वर्ग से संपर्क स्थापित करने के प्रयास। इसमें पहली गतिविधि गांधीवादी तकनीक का पूर्वाभास थी। इससे एक ओर सरकार को मिलनेवाले उत्पादन-कर में कमी हुई और दूसरी ओर निम्नजातियाँ ब्राहमणवादी आचारों का अनुकरण करके संस्कृतिकरण की ओर आकर्षित हुईं। बंबई के कामगारों से संपर्क करना कलकत्ता की तुलना मे सरल था, क्योंकि कलकत्ता के कामगार अधिकांश गैर-बंगाली थे, जबकि 1911 में बंबई के कामगारों में 49.16 प्रतिशत तिलक के जिले रत्नागिरी के ही थे। फिर भी, तिलक ने दिसंबर 1907 और जून 1908 में बंबई के चिंचपुगली औद्योगिक क्षेत्र में जो भाषण दिये उनमे उनका समस्त बल विदेशी वस्तुओं एवं शराब के बहिष्कार पर ही था। स्वदेशी के पक्ष में कहा गया था कि इससे मिलों का काम बढ़ेगा और उनमें काम करनेवालों को लाभ होगा।’’ इसके बावजूद 1908 में जब ‘केसरी’ में छपे लेख के लिए सरकार ने तिलक पर मुकदमा चलाया और उन्हें छः साल की सजा मिली, तो श्रमिकों ने भारी पैमाने पर प्रदर्शन किये। इसके बाद महाराष्ट्र में उग्रवाद ने वैयक्तिक हिंसा का मार्ग पकड़ा। (भारत में उग्र राष्ट्रवाद का उदय )
मद्रास
बंगाल के साथ सहानुभूति दर्शाने के लिए 1906 के बाद से ही मद्रास प्रेसीडेंसी में आंध्र के मुहाना क्षेत्र के राजामुंदरी, काकीनाडा और मसुलीपट्टम जैसे शहरों में ‘वंदेमातरम’ आंदोलन चलाया जा रहा था। इस आंदोलन को अप्रैल 1907 में विपिन पाल के दौरे से बड़ा बल मिला। वंदेमातरम के बिल्ले लगाने और विपिन पाल की सभाओं में सम्मिलित होने पर विद्यार्थियों के विरुद्ध की जानेवाली दमनात्मक कार्रवाइयों के कारण आंध्र में राष्ट्रीय विद्यालयों का आंदोलन चल पड़ा। स्वदेशी आंदोलन तेलगू भाषा, साहित्य, और इतिहास के प्रति एक नई रुचि उत्पन्न करने में भी सहायक हुआ, जिसके परिणामस्वरूप 1910 में आंध्रलू चरितम अथवा आंध्र का इतिहास का प्रकाशन हुआ और उग्रवाद के पतन के बाद कई गांधीवादी नेताओं, जैसे-कोंडा वेंकेटपैया और पट्टाभि सीतारामैया ने एक अलग तेलगूभाषी राज्य की माँग करने के लिए आंध्र महासभा का संगठन आरंभ कर दिया।
किंतु मद्रास के तिरुनेवेली जिले में महत्त्वपूर्ण अंग्रेज-विरोधी भावनाओं का उदय हुआ। जी. सुब्रमण्य अयर ने 1906 और 1907 में अनेक बार इस जिले का दौरा किया और तूतीकोरीन के वकील वी.ओ. चिदंबरम पिल्लई जैसे प्रमुख उग्रवादी नेताओं का उदय हुआ। मदुरै के एक निम्नवर्गीय नेता शिवा, चिदंबरम पिल्लई के साथ तूतीकोरीन के समुद्रतट पर सभाओं को संबोधित करते थे वे लोगों को स्वराज का संदेश देते थे, बहिष्कार के ढ़ंग बतलाते थे, और कभी-कभी लोगों को और अधिक हिंसक तरीके अपनाने के लिए उकसाते थे।
पंजाब
1906 तक पंजाब में उग्र राष्ट्रवाद बंगाल की तुलना में पर्याप्त नरम रहा। व्यवहार में इसने बहिष्कार के स्थान पर रचनात्मक कार्य पर ही अधिक बल दिया। किंतु 1907 के कुछ महीनों में पंजाब में स्थिति एकदम ही बदल गई जिसका कारण अंग्रेज सरकार की ओर से लगातार भड़कानेवाली की गई कार्रवाइयाँ थीं। नस्ली भेदभाव पर लिखने पर ‘पंजाबी’ पर अभियोग चलाया गया जिसके फलस्वरूप प्रदर्शन हुए और लाहौर में फरवरी और पुनः मई 1907 में अंग्रेजों पर इक्के-दुक्के हमले हुए। नवंबर 1906 में बारी दोआब क्षेत्र में नहर के पानी की दर में और भू-राजस्व में 25 से 50 प्रतिशत तक की वृद्धि की गई। महामारी द्वारा ढाये गये विनाश ने एवं मूल्यों में आम वृद्धि से जनता में व्यापक असंतोष था। मजदूरों की बेचैनी रेवेन्यू क्लर्कों की अनेक हड़तालों में दिखाई पड़ी।
लाला लाजपत राय (1865-1928) और सरदार अजीतसिंह (1881-1947) जैसे गरमपंथियों ने चिनाबवासियों और बारी दोआब क्षेत्र के किसानों को भूराजस्व और पानी का शुल्क न देने का आंदोलन चलात रहे। किंतु जब मई 1907 में सरकार ने दमन आरंभ किया तो पंजाब में उग्रवाद शीघ्र ही समाप्त हो गया। अजीतसिंह और लाला लाजपत राय को देशनिकाला की सजा दी गई। बाद में सरकार ने बुद्धिमत्तापूर्वक कुछ रियायतें देकर और सितंबर 1907 में देशनिकाला की सजा पानेवालों की रिहाई करके दमनकारी कदमों का असर कुछ कम कर दिया। बाद मे अजीतसिंह और उनके सहयोगी क्रांतिकारी राष्ट्रवाद की ओर उन्मुख हो गये।
संयुक्त प्रांत
संयुक्त प्रांत में उग्र राष्ट्रवाद बहुत अधिक प्रभाव नहीं रहा। यहाँ जनवरी 1907 में तिलक द्वारा संयुक्त प्रांत के दौरे ने विद्याथियों में थोड़ी हलचल जरूर पैदा की, किंतु अधिक प्रभावशाली नेता इससे अलग ही रहे। संभवतः 1907 तक किसी भी बुद्धिजीवी समूह ने किसानों तक पहुँचने का कोई गंभीर प्रयास नही किया।
उग्र राष्ट्रवाद और कांग्रेस
भारतीय राजनीति में उग्र राष्ट्रवाद के उदय से कांग्रेस संगठन का प्रभावित होना नितांत स्वाभाविक था। 1905 में कांग्रेस के बनारस अधिवेशन में उग्र राष्ट्रवादी तिलक और उनके कुछ समर्थकों ने उदारवादियों की कार्य-विधियों की आलोचना करते हुए उसे ‘राजनीतिक भिक्षावृत्ति’ कहा और एक नई नीति अपनाने का सुझाव दिया था। अरबिंद घोष के शब्दों में ‘‘इस नीति का सार यह था कि सरकार के साथ उस समय तक असहयोग किया जाए, जब तक कि वह भारतीयों को प्रशासनिक तथा वित्तीय क्षेत्र में अधिक अधिकार न दे दे।’’ 1905-1907 के दौरान उदारवादी और उग्र राष्ट्रवादियों के पारस्परिक मतभेद उभर कर सामने आ गये। इस समय अखिल भारतीय राजनीति का वास्तविक मुद्दा यह था कि बंगाल में स्वदेशी आंदोलन से उत्पन्न अतिवादी वृत्ति को एक अखिल भारतीय सतह पर कांग्रेस की राजनीति में कहाँ तक खपाया जा सकता था। उग्र राष्ट्रवादियों ने स्वदेशी व बहिष्कार आंदोलन को बंगाल तक ही सीमित न रखकर उसे देश के अन्य हिस्सों में पहुँचा दिया था। 1905 के अंत तक संयुक्त प्रांत के 23, पंजाब के 20, मद्रास प्रेसीडेंसी के 13 जिलों से, बंबई प्रेसीडेंसी के 24 और मध्य प्रांत के 15 नगरों से राजनीतिक असंतोष की खबरें मिल चुकी थीं, रावलपिंडी और लाहौर से व्यापक खेतिहर दंगों की खबरें आ चुकी थीं। पूना में प्लेग और सरकारी हस्तक्षेपवादी, रोग-रोधक कदमों ने राजनीतिक भावनाएँ भड़का रखी थी, जिन्होंने सार्वजनिक जीवन को अतिवादी मोड़ दिया- यद्यपि अभी भी यह सब कुलीनों के स्तर तक ही था- और गोखले व तिलक के बीच मनमुटाव को और बढ़ाया।
बंगाल के उग्र राष्ट्रवादियों ने महाराष्ट्र के तिलक गुट से संपर्क किया और कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में उसके कार्यक्रम को एक नई दिशा देने की कोशिश की। 1906 में कलकत्ता कांग्रेस में अध्यक्ष के प्रश्न को लेकर पार्टी में विभाजन की स्थिति पैदा हो गई, किंतु 82 वर्ष के वयोवृद्ध भारत के पितामह दादाभाई नौरोजी को इंग्लैंड से बुलाकर कांग्रेस का अध्यक्ष बनाकर संभावित विभाजन को टाल दिया गया। यहाँ गोखले के विरोध और मेहता के जोड़-तोड़ के बावजूद गरमपंथियों ने स्वदेशी आंदोलन, बहिष्कार आंदोलन, राष्ट्रीय शिक्षा और स्वशासन से संबद्ध चार प्रस्ताव पारित कराये और बंग-भंग की निंदा की गई। मतभेदों को दबाकर कांग्रेस का अधिवेशन संपन्न तो हो गया, किंतु तिलक को नेता बनाकर यहीं उग्रवादी दल ने जन्म लिया और उसका मुख्य लक्ष्य कलकत्ता के चारों प्रस्तावों को यथावत् रखना था, जिन्हें कांग्रेस के अगले अधिवेशन में बदलवाने के लिए बंबई के उदारवादी कृतसंकल्प थे।
1907 तक उदारवादी और उग्र राष्ट्रवादी ‘स्वराज्य’ को अपने-अपने ढ़ंग से परिभाषित करते रहे और आपस में लड़ते रहे। स्थिति यह हो गई कि ये दोनों एक-दूसरे को ही अपना सबसे बड़ा राजनीतिक शत्रु समझने लगे। उग्रपंथियों ने उदारवादियों से नाता तोड़ने और उनके हाथ से कांग्रेस का नेतृत्व छीनने का निर्णय कर लिया। यह भी तय किया कि यदि इसमें सफलता नहीं मिली, तो कांग्रेस को विभाजित कर दिया जायेगा। अब उग्रपंथियों ने उदारवादियों के विरुद्ध बड़े पैमाने पर दुष्प्रचार करना शुरू कर दिया। उदारवादी भी विभाजन के लिए तैयार थे। फिरोजशाह मेहता जैसे नेता मानते थे कि ‘उग्रवादियों के साथ रहना बहुत ही खतरनाक है।’ गोखले ने उग्र राष्ट्रवादियों को समझाया कि ‘‘आप सत्ता की ताकत को महसूस नहीं करते। यदि कांग्रेस आपके सुझावों पर चलेगी, तो सरकार को इसे खत्म करने में पाँच मिनट भी नहीं लगेंगे।’’
सूरत का ‘बदनाम’ विभाजन (1907)
1905 से 1907 तक राष्ट्रीय आंदोलन के भीतर चलनेवाली विभिन्न प्रवृत्तियों का संघर्ष कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशनों में भी उभरता रहा जिसकी चरम परिणति हुई 1907 के सूरत में हुए बदनाम विभाजन में। फिरोजशाह मेहता ने अगले कांग्रेस का अधिवेशन का स्थान नागपुर (पूना) के स्थान पर सूरत तय करवाने में सफल रहे, और चूंकि परंपरा के अनुसार स्थानीय स्वागत समिति ही अध्यक्ष का चुनाव करती थी, इसलिए उन्होंने यह भी सुनिश्चित कर लिया था कि रासबिहारी घोष जैसा अत्यंत उदारवादी ही अध्यक्ष होगा। 26 दिसंबर 1907 को सूरत में ताप्ती नदी के किनारे कांग्रेस का अधिवेशन शुरू हुआ। इसी बीच लार्ड मिंटो ने प्रशासनिक सुधारों के संबंध में घोषणा कर दी, जिससे दोनों पक्षों में मतभेद और बढ़ गये। निर्वासित किये गये लाला लाजपत राय तब तक मांडले से वापस आ चुके थे और अगले कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में उनका नाम उग्रपंथियों ने प्रस्तावित किया, जबकि उदारवादियों के उम्मीदवार रासबिहारी घोष थे। किंतु लाजपत राय ने, जो विभाजन नहीं चाहते थे, उम्मीदवार बनने से इनकार कर दिया और इसलिए दोनों विरोधी गुटों के बीच टकराव आखिर घटकर कलकत्ता के चारों प्रस्तावों को बनाये रखने या रद्द करने के सवाल तक सीमित रह गया क्योंकि अफवाह थी कि कलकत्ता के चारों प्रस्तावों को रद्द कर दिया जायेगा। फिरोजशाह मेहता ने इन प्रस्तावों को कांग्रेस की कार्यसूची से बाहर रखने का षड्यंत्र रचा, जबकि इन प्रस्तावों को न रखे जाने पर उग्रपंथियों ने रासबिहारी घोष की उम्मीदवारी के विरोध का निर्णय लिया। सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने कांग्रेस की एकता बनाये रखने के लिए तिलक और गोखले के बीच समझौता कराने की असफल कोशिश की। सूरत में कांग्रेस के खुले अधिवेशन का समापन रासबिहारी घोष के चुनाव के सवाल पर एक हंगामे के साथ हुआ। कहा जाता है कि सदस्यों में आपस में जूते और लाठियाँ तक चलीं और पुलिस को बलपूर्वक कांग्रेस भवन को खाली कराना पड़ा। तिलक इस घटना के बाद भी कांग्रेस की एकता बहाल करने के पक्ष में थे, किंतु मेहता की जिद के कारण उग्र राष्ट्रवादी तत्त्व पार्टी से निकाल बाहर कर दिये गये। अब कांग्रेस स्पष्ट रूप से दो दलों में विभाजित हो गई। मिंटो ने तत्काल मार्ले को लिखा कि ‘‘सूरत में कांग्रेस का पतन हमारी बहुत बड़ी जीत है।’’
सूरत अधिवेशन के पश्चात् न केवल लाला लाजपत राय, बल्कि तिलक और उनके बंगाली मित्रों ने बारंबार प्रयत्न किया कि कांग्रेस फिर से एक हो जाए। किंतु बंबई का उदारवादी समूह अडिग रहा और अप्रैल 1908 के इलाहाबाद सम्मेलन में, जिसे ‘मेहता कांग्रेस’ कहा गया, केवल उदारवादी आये जिन्होंने राज के प्रति अपनी निष्ठा फिर दोहराई। इस कांग्रेस में ऐसा संविधान बनाया गया जिसमें कांग्रेस के तरीके को ‘शुद्धतः संवैधानिक’ एवं ‘वर्तमान प्रशासनिक व्यवस्था में निरंतर सुधार लाने तक’ ही सीमित रखा गया। प्रतिनिधियों का चुनाव भी सीमित कर दिया गया- केवल वे ही संगठन प्रतिनिधि भेज सकते थे जो ‘तीन वर्षों से अधिक समय से मान्यता प्राप्त हों।’ इस प्रकार उग्रवादियों को अगले कांग्रेस अधिवेशनों में सम्मिलित न होने के सभी प्रयास किये गये।
इस चरण में कांग्रेस निश्चित ही कमजोर हुई और अप्रभावी बन गई। दूसरी ओर उग्रपंथी राजनीति भी कोई एक नये राजनीतिक संगठन का रूप नहीं ले सकी, क्योंकि 1908 में तिलक गिरफ्तार करके मांडले जेल भेज दिये गये और अरबिंद घोष का रूझान अध्यात्म की ओर हो गया। उदारवादी नेताओं को अपने पक्ष में लाने के लिए सरकार ने 1909 के इंडियन कौंसिल ऐक्ट (मार्ले-मिंटो सुधार) के रूप में संवैधानिक सुधारों का जाल फेंका। 1911 में बंगाल-विभाजन के निरस्ति की घोषणा कर दी गई और इसी के साथ केंद्र सरकार की राजधानी कलकत्ता से दिल्ली लाई गई। दोनों गुट 1916 के लखनऊ अधिवेशन में फिर एक हुए और कांग्रेस को नई शक्ति तब मिली, जब 1919 में गांधी ने उसका नेतृत्व सँभाला।
उदारवादियों और उग्र राष्ट्रवादियों की तुलना
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की दोनों धाराओं- उदारवाद और उग्रवाद के लक्ष्य में बहुत-कुछ समानता थी, किंतु उसकी पूर्ति के साधनों में अंतर था। दोनों का मूल उद्देश्य भारतीय जनता का हित और स्वशासन की प्राप्ति था, किंतु स्वशासन से दोनों का आशय भिन्न था। उदारवादी ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत भारत में स्वशासन स्थापित करना चाहते थे। उनका विश्वास था कि ब्रिटिश शासन में सुधार किया जा सकता है और क्रमिक सुधार ही उपयुक्त तथा भारत के हित में है, इसलिए वे भारत में ब्रिटिश ढंग की प्रतिनिधि संस्थाओं की स्थापना के पक्ष में थे ताकि भारतीयों में उन संस्थाओं के कुशल संचालन की योग्यता एवं क्षमता का विकास हो सके। इसके विपरीत उग्र राष्ट्रवादियों को उदारवादियों के औपनिवेशिक स्वराज्य में विश्वास नहीं था। वे किसी भी रूप में ब्रिटिश शासन को बनाये रखने के विरुद्ध थे। उनकी स्वराज्य की धारणा में ब्रिटिश सम्राट के प्रति भक्ति के लिए कोई स्थान नहीं था। वे भारतीयता पर आधारित स्वराज्य चाहते थे और शीघ्रातिशीघ्र ब्रिटेन से संबंध विच्छेद करने के पक्ष में थे।
उदारवादियों को अंग्रेजों की न्यायप्रियता तथा परोपकारिता में पूर्ण विश्वास था। उनका सोचना था कि ब्रिटिश सरकार जैसे ही यह महसूस करेगी कि हमारी माँगें उचित हैं, वह तुरंत उन्हें स्वीकार कर लेगी। इसके विपरीत उग्र राष्ट्रवादियों का अंग्रेजों की नीयत और उदारता में जरा भी विश्वास नहीं था। उदारवादियों का मानना था कि ब्रिटेन तथा भारत के हित समान हैं और ब्रिटिश साम्राज्य भारत के हित में है। इसके विपरीत गरमवादियों की धारणा थी कि ब्रिटेन तथा भारत के हित एक-दूसरे के विरुद्ध हैं। अंग्रेजों का उद्देश्य अपने राष्ट्रीय हितों की पूर्ति करना है, वे भारत का हित बिल्कुल नहीं चाहते। अतः भारत के विकास के लिए अंग्रेजों से सहयोग की आशा करना व्यर्थ है।
उदारवादियों और उग्रवादियों के साधनों में भी अंतर था। उदारवादी संवैधानिक आंदोलनों में, अंग्रेजों की न्यायप्रियता में, वार्षिक सम्मेलनों में, भाषण देने में, प्रस्ताव पारित करने में और इंग्लैंड को शिष्टमंडल भेजने में विश्वास करते थे। वे अपनी माँगें मनवाने के लिए सरकार से प्रार्थना और याचना करते थे। इसके विपरीत उग्रवादी इन तरीकों को आत्म-सम्मान के विरुद्ध समझते थे और इसे ‘राजनीतिक-भिक्षावृत्ति’ की संज्ञा देते थे। वे आत्म-निर्भरता तथा जन-आंदोलन में विश्वास करते थे। उग्र राष्ट्रवादी अपनी माँगे मनवाने के लिए स्वदेशी का प्रचार, विदेशी माल का बहिष्कार, स्वदेशी संस्थाओं का निर्माण और विकास जैसे साधनों के अपनाने पर बल देते थे।
उदारवादी पश्चिमी सभ्यता एवं संस्कृति से प्रभावित थे, इसलिए वे पश्चिमीकरण के प्रबल समर्थक थे। उग्र राष्ट्रवादी प्राचीन हिंदू धर्म, सभ्यता एवं संस्कृति तथा उसके आधार पर विकसित हिंदू राष्ट्रीयता के पोषक थे। किंतु वैचारिक और सैद्धांतिक मतभेदों के बावजूद उदारपंथी और गरमपंथी दोनों एक-दूसरे के विरोधी नहीं थे, बल्कि दोनों ही सच्चे देशभक्त और देशप्रेमी थे।
उग्र राष्ट्रवाद आंदोलन का मूल्यांकन
स्वदेशी, बहिष्कार, राष्ट्रीय शिक्षा और निष्क्रिय प्रतिरोध के द्वारा जनता में आत्मनिर्भरता और राष्ट्रीयता की नई लहर उत्पन्न हुई। बाद में गांधीजी ने भी स्वदेशी तथा बहिष्कार के साधनों को असहयोग आंदोलन का मुख्य आधार बनाया। उग्रवादियों की राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली से भारत की युवा पीढ़ी में राष्ट्रीयता की भावना का संचार हुआ और उनमें अपनी सभ्यता एवं संस्कृति के प्रति निष्ठा उत्पन्न हुई। राष्ट्रीय आंदोलन की बागडोर उग्रवादियों के हाथ में जाने से रोकने के लिए ही ब्रिटिश सरकार को 1909 में मार्ले-मिंटो सुधार पारित करना पड़ा।
किंतु उग्र राष्ट्रवादी भी जनता को सकारात्मक नेतृत्व देने में असफल रहे। वे आंदोलन चलाने के लिए आवश्यक कुशल नेतृत्व और संगठन नहीं दे सके। उन्होंने जनता को जागृत तो कर दिया, किंतु यह नहीं समझ सके कि जनता की इस नई-नई निकली शक्ति का उपयोग कैसे करें या राजनीतिक संघर्ष के नये रूप क्या हों? निष्क्रिय प्रतिरोध और असहयोग भी मात्र विचार बनकर रह गये। वे देश की वास्तविक जनता अर्थात् किसानों तक पहुँचने में भी असफल रहे। उनका आंदोलन नगरों के निम्न, मध्य वर्गों तथा जमींदारों तक ही सीमित रह गया। उग्रवादी महाराष्ट्र में मजदूरों से संपर्क स्थापित करने में कुछ सफल इसलिए रहे क्योंकि वहाँ अधिकांश मजदूर तिलक के रत्नागिरी जिले से संबंधित थे, किंतु बंगाल में उग्रपंथियों ने केवल श्वेतों के नियंत्रणवाले उद्यमों में ही मजदूरों की आर्थिक कठिनाइयों को राजनीतिक स्तर पर उठाया, इसलिए उनका प्रभाव केवल राष्ट्रवादी मजदूरों तक ही सीमित रहा और उत्तर भारतीय मजदूर और बागानों तथा खदानों के मजदूर आंदोलन की धारा से प्रायः अलग ही रहे।
उग्र राष्ट्रवादी सामाजिक रूप से प्रतिक्रियावादी थे। उन्होंने भारतीय राष्ट्र का निरूपण भारत के सुस्पष्ट सांस्कृतिक मुहावरों में किया, जिससे एक स्वर्णयुग का स्मरण कराने वाला धार्मिक पुनरुत्थानवाद पैदा हुआ। जैसे उन्नीसवीं सदी के अंग्र्रेज प्राचीन यूनान को अपनी सांस्कृतिक धरोहर मानते थे, वैसे ही अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त भारतवासी भी वैदिक सभ्यता की उपलब्धियों पर गर्व करते थे। यह मूलतः एक परिकिल्पत इतिहास था, जिससे वे भारतवासियों के कुछ चुने समूहों को संगठित करने में तो सफल रहे, किंतु इससे मुसलमानों में राष्ट्रीय आंदोलन के प्रति उदासीनता आई। ब्रिटिश शासन और सरकारी अधिकारियों ने उग्र राष्ट्रवादियों की धार्मिक निष्ठा का मुसलमानों में प्रचार किया। उन्होंने ढाका के नवाब और दूसरे मुसलमानों को सांप्रदायिक दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया, जिसके कारण मध्य और उच्च वर्ग के मुसलमान राष्ट्रीय आंदोलन से कटने लगे। इस तरह उग्र राष्ट्रवादियों ने अनजाने में ही सही, सांप्रदायिकता का बीज-वपन कर दिया।
1908 के अंत तक उग्र राष्ट्रवादियों की राजनीति एक बंद गली में समा चुकी थी। ब्रिटिश सरकार उनका दमन करने में काफी हद तक सफल रही। यद्यपि तिलक की गिरफ्तारी व छः साल की कैद और विपिन पाल तथा अरबिंद घोष द्वारा सक्रिय राजनीति से संन्यास लेने के कारण यह आंदोलन लगभग समाप्त हो गया, लेकिन राष्ट्रवादी भावनाओं का उभार दब नहीं सका। जनता सदियों पुरानी नींद से जाग चुकी थी और राजनीति में निर्भीक तथा जुझारू रवैया अपनाना सीख चुकी थी। इस उग्रपंथी राष्ट्रवाद ने क्रांतिकारी राष्ट्रवाद के लिए रास्ता तैयार कर दिया। (भारत में उग्र राष्ट्रवाद का उदय )
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