फ्रांस में क्रांति क्यों हुई? (Why did the Revolution happen in France?)

फ्रांस में क्रांति क्यों हुई?

अठारहवीं शताब्दी में यूरोप की सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था न्याय और समानता के सिद्धांतों पर आधारित नहीं थी। शोषण और अन्याय ही समाज के आधार रह गये थे। समस्त यूरोपीय समाज शोषक और शोषित तथा संपन्न और विपन्न दो भागों में विभाजित था। ऐसी परिस्थिति में प्रत्येक वर्ग में पारस्परिक ईर्ष्या एवं द्वेष का उत्पन्न होना स्वभाविक था। यूरोपीय समाज में परिवर्तन की बड़ी आवश्यकता थी और इस व्यवस्था का विनाश अवश्यम्भावी था। यह परिवर्तन एक क्रांति द्वारा ही संभव था। फ्रांस में यह अन्यायपूर्ण व्यवस्था 1789 ई. में क्रांति के एक धक्के में ही धराशायी हो गई और फ्रांसीसी क्रांति की इस ज्वाला से समस्त यूरोप का प्रभावित होना भी अनिवार्य हो गया।

अकसर प्रश्न का उठाया जाता है कि अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में क्रांति का सूत्रपात फ्रांस में ही क्यों हुआ? ऐसी क्रांति यूरोप के किसी अन्य देश में क्यों नहीं हुई? अठारहवीं शताब्दी के यूरोपीय राज्यों के इतिहास के अध्ययन से स्पष्ट है कि उस समय फ्रांस की जो स्थिति थी, उससे भी खराब स्थिति कई अन्य यूरोपीय देशों की थी। निरंकुश राजतंत्र, सुविधायुक्त वर्ग और करों के असहनीय भार से दबा हुआ साधारण वर्ग प्रायः सभी यूरोपीय राज्यों में थे। कई दृष्टियों से यूरोप के अन्य राज्य तो फ्रांस से भी काफी पिछड़े हुए थे और वहाँ शोषण का बाजार फ्रांस से भी अधिक गर्म था।

फ्रांस की क्रांति सामंती व्यवस्था के विरूद्ध एक प्रतिक्रिया थी, किंतु सामंती व्यवस्था का स्वरूप फ्रांस में उतना विकृत नहीं था, जितना प्रशा, आस्ट्रिया और रूस जैसे देशों में था। फ्रांस में मध्यम वर्ग के सहयोग से सामंती पद्धति पर सोलहवीं और सत्तरहवीं शताब्दियों में ही प्रहार हो चुका था। फिर भी, क्रांति फ्रांस में ही हुई, क्यों?

फ्रांस में क्रांति होने के विशिष्ट कारण

तीन हेनरियों के युद्ध’ (1588-1589 ई.) के बाद 1589 ई. में नावारे का हेनरी ‘हेनरी चतुर्थ के नाम से फ्रांस का शासक बना और फ्रांस में बूर्बा राजवंश की सत्ता स्थापित की थी। हेनरी चतुर्थ ने फ्रांस में व्याप्त सामंती अराजकता का अंतकर देश में न केवल शांति और सुव्यवस्था स्थापित की, बल्कि अपने मंत्री सली की सहायता से अनेक सुधार करके फ्रांस के गौरव को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित करने का कार्य किया। यही कारण है कि हेनरी चतुर्थ को महान राजा नहीं, ‘लोकप्रिय राजा’ कहा जाता था। 14 मई, 1610 ई. को जब एक कट्टर कैथोलिक राबेलाक ने हेनरी चतुर्थ की हत्या की, तो उस समय तक फ्रांस एक सुसंगठित राज्य बन गया था।

हेनरी चतुर्थ की असामयिक मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र लुई तेरहवाँ (1610-1643 ई.) तीन वर्ष की आयु में फ्रांस का शासक बना था। आरंभ में उसने हेनरी चतुर्थ की विधवा ‘मेरी-डी-मेडिसी’ के संरक्षण (1610-1617 ई.) में शासन किया और बाद में उसने शासन की बागडोर स्वयं सँभाली।

लुई तेरहवें में प्रशासकीय क्षमता एवं योग्यता का अभाव था। वह संगीत एवं शिकार का प्रेमी था। लगता था कि फ्रांस के उत्थान का जो सपना हेनरी चतुर्थ और सली ने देखा था, वह साकार नहीं हो सकेगा, किंतु यह फ्रांस का सौभाग्य था कि 1624 ई. में लुई तेरहवें ने कार्डिनल रिशलू को अपना प्रधानमंत्री और सलाहकार नियुक्त किया। प्रधानमंत्री का पद संभालते समय कॉर्डिनल रिशलू (1624-1642 ई.) ने ह्यूगनोटों का विनाश करने, शक्तिशाली एवं अहंकारी सामंतों को नतमस्तक करने तथा समस्त प्रजा को आज्ञाकारी एवं कर्तव्य-परायण बनाने और विदेशों में फ्रांस के गौरवपूर्ण राजतंत्र को पूर्णरूप से यथोचित प्रतिष्ठा दिलाने के लिए अपनी समस्त शक्तियों और अधिकारों का प्रयोग करने की प्रतिज्ञा की।

इस प्रकार कॉर्डिनल रिशलू ने बूर्बा वंश की प्रतिष्ठा को सार्वभौम बनाने के लिए ह्यूगनोटों और सामंतों का दमन कर फ्रांस को एक सुसंगठित, सुव्यवस्थित एवं सुदृढ़ प्रशासन प्रदान किया। रिशलू की नीति के फलस्वरूप यद्यपि सामंतवाद का पूर्ण अंत नहीं हुआ, किंतु उसकी कमर अवश्य टूट गई और फ्रांस यूरोप की एक प्रथम श्रेणी की शक्ति बन गया।

रिशलू द्वारा स्थापित परंपरा को लुई चौदहवें (1661-1715 ई.) ने अच्छी तरह निभाया। कार्डिनल मेजारिन उसका प्रधानमंत्री था। यद्यपि मेजारिन में रिशलू जैसी क्षमता और योग्यता नहीं थी, फिर भी वह रिशलू का योग्य उत्तराधिकारी साबित हुआ। मेजारिन ने रिशलू के पदचिन्हों पर चलकर न केवल बूर्बा राजवंश की निरंकुशता को पुनर्स्थापित किया, बल्कि वेस्टफेलिया और पिरेनीज की संधियों द्वारा अपनी मृत्यु (1661 ई.) के पहले अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में बूर्बा राजवंश को प्रतिष्ठिापित भी कर दिया।

लुई चौदहवाँ स्वयं भी कोई कमजोर शासक नहीं था। वह बहुत महत्त्वाकाक्षी और शक्तिशाली राजा था। लुई चौदहवें ने स्थायी सेना रखने की व्यवस्था कर ली थी, जबकि सामंती युग में सशस्त्र सेना रखना लगभग एक व्यक्तिगत व्यवसाय था। उसके राजकाल में सामंतों ने विद्रोह किया, किंतु उसने विद्रोहियों का अत्यंत कठोरतापूर्वक दमन किया। इसके बाद उसके हाथ में आपार शक्ति आ गई। राज्य में कोई भी ऐसी शक्ति नहीं रह गई, जो उसका विरोध कर सके। कुलीनों के सभी महत्त्वपूर्ण अधिकार छीने जा चुके थे। इस तरह का परिवर्तन यूरोप के किसी अन्य देश में नहीं हुआ था। समस्त यूरोप में सामंतवाद का घोर अंधकार छाया हुआ था। आस्ट्रिया, प्रशा, रूस, स्पेन आदि देशों में सामंतवादी व्यवस्था अब भी अपनी चरम सीमा पर थी।

फ्रांस की राजनीतिक एकता

अठारहवीं सदी के प्रारंभ में जहाँ फ्रांस एक सुसंगठित ‘राष्ट्रीय राज्य’ (नेशन स्टेट) बन चुका था और संपूर्ण देश एक राजनीतिक सूत्र में बँध गया था, वहीं दूसरे पड़ोसी राज्य केवल क्षेत्रों के समूह मात्र ही थे। वह क्षेत्र जिसमें जर्मन भाषा-भाषी लोग निवास करते थे, पवित्र रोमन साम्राज्य कहलाता था, जिसकी स्थापना मध्ययुग में हुई थी। यह 338 जर्मन राज्यों का समूह था, जिसमें प्रशा और आस्ट्रिया प्रमुख थे। इतनी बड़ी संख्या में ये सभी जर्मन राज्य करीब-करीब संप्रभुतासंपन्न थे। इनमें से हरेक को संधि-समझौता करने का अधिकार प्राप्त था।

आस्ट्रिया का राजा पवित्र रोमन साम्राज्य का सम्राट होता था, लेकिन उसको ऐसा कोई अधिकार प्राप्त नहीं था जिसके द्वारा वह जर्मन राज्यों पर कोई नियंत्रण रख पाता। जर्मन राज्यों की एक ‘डायट’ (संसद) अवश्य थी; किंतु यह भी एक व्यर्थ की संस्था थी। दूसरे शब्दों में, पवित्र रोमन साम्राज्य एक ‘प्रभु-प्रदत्त उलझन’ था, जो राष्ट्रों के एक लघु संगठन से अधिक कुछ भी नहीं था।

आस्ट्रिया का राज्य स्वयं एक विशाल क्षेत्र में फैला हुआ था, जिसमें मध्य यूरोप, नीदरलैंडस, भूमध्यसागरीय क्षेत्र तथा दक्षिण इटली के क्षेत्र शामिल थे। किंतु आस्ट्रिया वास्तव में मध्य डैन्यूब का साम्राज्य था। इसमें बोहेमिया, हंगरी और आस्ट्रिया तीनों सम्मिलित थे। आस्ट्रिया के हैब्सबर्ग राजघराने ने बोहेमिया और हंगरी को पूर्ण रूप से आस्ट्रियाई साम्राज्य में विलय करने का प्रयास भी किया।

किंतु, इन सभी प्रयासों के बावजूद आस्ट्रिया का राज्य विभिन्न प्रदेशों का एक समूह मात्र ही था। इसके निवासियों के बीच कोई भावनात्मक संबंध नहीं था।

प्रशा की स्थिति आस्ट्रिया से कुछ अच्छी अवश्य थी, फिर भी उसने भी अभी ‘राष्ट्र’ का रूप ग्रहण नहीं किया था। कुछ ऐसी ही अव्यवस्था ‘इटली’ में भी थी। इतालवी भाषा-भाषी लोग कई स्वतंत्र राजनीतिक इकाइयों में विभक्त थे।

मध्य यूरोप में व्याप्त इस राजनीतिक अराजकता के विपरीत फ्रांस में एक अत्यंत केंद्रित राष्ट्रीय राज्य का विकास हो चुका था। फ्रांस की राजनीतिक एकता फ्रांस की राजनीतिक व्यवस्था की सर्वाधिक प्रमुख विशेषता थी और यह फ्रांस की क्रांति का एक विशेष कारण सिद्ध हुई।

यह सही है कि फ्रांस की सामाजिक अवस्था में बड़ी विभिन्नता थी, किंतु एक राष्ट्र के रूप में फ्रांस का अस्तित्व कायम हो चुका था, जहाँ एक राष्ट्रीय नीति अपनाई जा सकती थी। अठारहवीं शताब्दी के फ्रांसीसी लोग अपने को एक राजनीतिक इकाई का सदस्य मानते थे और संपूर्ण देश के उद्धार के लिए उतावले थे। इस तरह के तत्त्व अन्य यूरोपीय देशों में विद्यमान नहीं थे।

कृषकों की बेहतर स्थिति

कहा जाता है कि फ्रांस के कृषकों ने 1789 ई. में इसलिए विद्रोह किया कि सामंतशाही का अत्याचार उनके लिए असह्य हो गया था। किंतु फ्रांस के कृषक यूरोप के अन्य देशों के किसानों की तुलना में कहीं अधिक अच्छी स्थिति में थे।

रोमन साम्राज्य के पतनोपरांत यूरोप में सामंतवाद की उत्पत्ति हुई थी। मध्ययुगीन सामंतवादी व्यवस्था में स्वतंत्र किसान बहुत कम होते थे। अधिकांश लोग ‘अर्द्ध-दास’ थे, जिनकी स्थिति गुलामों जैसी थी। आस्ट्रिया, प्रशा और रूस जैसे देशों में ‘अर्द्ध-दास’ कुलीनों की निजी संपत्ति माने जाते थे। इनका सारा जीवन सामंतों की सेवा में बीतता था। वे अपने लिए कुछ नहीं कर सकते थे। चूँकि फ्रांस में रिशलू के समय से ही सामंतवादी व्यवस्था के बहुत से अवगुण समाप्त हो गये थे, इसलिए वहाँ फ्रांसीसी किसानों की स्थिति काफी अच्छी हो गई थी और अर्द्ध-दासों की संख्या नाममात्र ही रह गई थी। फ्रांस के अधिकतर किसान सामंतवादी पद्धति की इस सीमा को पारकर दूसरी अवस्था में पहुँच चुके थे। उन्हें कुछ स्वतंत्रता मिल गई थी। अब उनकी अपनी भूमि होती थी और अपना घर-बार भी।

यदि फ्रांस के कृषकों की स्थिति की तुलना अन्य यूरोपीय देशों के कृषकों की स्थिति से की जाए, तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि फ्रांसीसी कृषक अन्य यूरोपीय कृषकों की अपेक्षा अधिक खुशहाल थे। यूरोप के सभी प्रमुख देशों में ‘कम्मी प्रथा’ जोर-शोर से प्रचलित थी। यदि कृषकों का असंतोष फ्रांसीसी क्रांति का एक कारण था, तो इस तरह की क्रांति पहले अन्य यूरोपीय देशों में होनी चाहिए थी, क्योंकि उनकी दशा और भी खराब थी। फिर भी, क्रांति फ्रांस में ही हुई और इसका मुख्य कारण था कि फ्रांस के लोग अपनी स्थिति के प्रति जागरूक हो गये थे। क्रांति के लिए यह कोई आवश्यक नहीं था कि इसका विस्फोट उसी देश में हो, जहाँ के लोग अत्याचार, अनाचार और शोषण के प्रबल शिकार रहे हो। एक समृद्ध उन्नत देश में भी क्रांति हो सकती है, बशर्ते उसके निवासी यह अनुभव करें कि उनके साथ अन्याय हो रहा है और इस अन्याय का अंत करना उनका कर्त्तव्य है। फ्रांस के लोग यह अनुभव करने लगे थे और ‘पुरातन व्यवस्था’ की अनियमितताओं से छुटकारा पाना चाहते थे। अन्य देशों के निम्न वर्ग के लोग सदियों के अत्याचारों से अपनी आत्मा का हनन कर चुके थे और कुलीनों के अत्याचारों को ‘भगवान की देन’ समझकर स्वीकार करते थे। किंतु फ्रांस के कृषक उतने भाग्यवादी नहीं थे, वे अपनी स्थिति से अंसतुष्ट थे और इसका अंत करना चाहते थे।

सामंतवाद का परिवर्तित स्वरूप

फ्रांसीसी कृषकों की अपेक्षाकृत अच्छी दशा और फ्रांस में सामंतवाद का बदला हुआ स्वरूप ऐसे कारण थे, जिससे फ्रांस में क्रांति हुई। यूरोप के अन्य देश के कृषक अभी अर्द्ध-दास ही थे, लेकिन फ्रांस के अधिकांश कृषक स्वतंत्र हो चुके थे। उनकी अपनी जमीन और अपना घर हो गया था, किंतु इतनी स्वतंत्रता प्राप्त कर लेने के बाद भी उनके सामंती करों और सामंती अत्याचारों का अंत नहीं हुआ था। यद्यपि इनमें से बहुत खत्म हो चुके थे, किंतु अभी बहुत से बाकी थे। यह बात फ्रांसीसी किसानों को बहुत बुरी लगती थी।

कृषकों से संबंधित एक और कारण था, जिसको लेकर क्रांति का सूत्रपात फ्रांस में ही हुआ। अत्यधिक कर देने के बाद भी फ्रांस के कृषकों की अवस्था कुछ अच्छी थी। फ्रांसीसी कृषक निजी भूमि को बहुत महत्त्व देते थे और अत्यधिक कर देने के बाद भी वे किसी-न-किसी तरह जमीन खरीदने के लिए कुछ-न-कुछ पैसे बचा लेते थे। इसी हालत में फ्रांस के कृषक पिछले एक सौ साल के भीतर काफी जमीन खरीद चुके थे। 1789 में कृषकों के पास फ्रांस की एक तिहाई से अधिक जमीन थी।

अपनी जमीन होने से कृषकों को कुछ लाभ हुआ। उनकी आँखे खुल गईं। वे सोचने लगे कि उनके पास कुछ और जमीन होती, तो अच्छा होता। अन्य यूरोपीय देशों के कृषक, जो अभी अर्द्ध-दासत्व की अवस्था में थे, इस तरह की कोई कल्पना नहीं कर सकते थे। इस प्रकार फ्रांसीसी कृषक जमीन के भूखे होते गये थे। उनका असंतोष बढ़ता जा रहा था, उनकी भूमि खरीदने की भूख तीव्र होती जा रही थी, किंतु अधिक जमीन खरीदने के मार्ग में ‘सामंती कर’ और ‘बेगारी की प्रथा’ कंटक का काम कर रही थीं। सामंतवादी व्यवस्था के अंतर्गत उनके लिए कोई अवसर नहीं था और उनकी महत्त्वाकांक्षाएँ अवरूद्ध थीं।

लाभ के स्रोत और राष्ट्रीय उद्योग के रूप में खेती पर कुलीनों का नियंत्रण था। अतएव वे सामंती बोझ को हटाने की बात सोचने लगे थे। सामंती प्रथा के जीर्ण अवशेष उनकी महत्त्वाकांक्षा पर अंकुश लगाये हुए थे। फ्रांसीसी कृषक इन अवशेषों का नाश करना चाहते थे। वे थोड़ी-सी सुविधा और सहूलियत से संतुष्ट नहीं थे। उनकी अच्छी अवस्था उन्हें कुछ और प्राप्त करने के लिए प्रेरित कर रही थी। इसके लिए किसानों ने कई बार विद्रोह भी किये थे, किंतु उन्हें सफलता नहीं मिल सकी थी। इसके लिए उन्हें योग्य नेतृत्व की आवश्यकता थी।

विशेषाधिकारयुक्त वर्ग की अनुपयोगिता

विशेषाधिकार संपन्न सामंतों और पादरियों ने अपनी कुलीनता के नाम पर हर यूरोपीय देश में वरीयता प्राप्त कर रखा था। कुलीनों को विशेषाधिकार पहले इसलिए दिये गये थे कि बदले में वे समाज और सरकार का कुछ काम करते थे। पहले वे शासन चलाते थे और प्रजा की रक्षा करते थे। फ्रांस में अब इस काम को सीधे राजा के कर्मचारी करते थे और समाज में कुलीनों की कोई आवश्यकता नहीं रह गई थी। संपत्ति और प्रतिष्ठा के अनुपात में वे समाज की कोई सेवा नहीं करते थे, यहाँ तक कि कुलीन लोग अपनी प्रजा के साथ जागीर पर भी नहीं रहते थे। उनका कर्त्तव्य कुछ नहीं रह गया था, वे केवल भोग-विलास में जीवन बिताते थे और समाज पर अनावश्यक बोझ बनकर रह गये थे। इस कारण किसानों में बहुत क्षोभ था। अन्य यूरोपीय देशों के किसान क्षुब्ध होने की स्थिति में नहीं पहुँचे थे। सामंतों के विशेषाधिकार फ्रांस के स्वतंत्र कृषकों को बहुत अखरते थे।

प्रबुद्ध निरंकुशता की परंपरा का अभाव

सोलहवीं शताब्दी तक यूरोप में राष्ट्रीय राजाओं की शक्ति का काफी विकास हो चुका था। पोप की सर्वोच्च सत्ता ने मध्यकालीन यूरोप के निवासियों को एक प्रकार से अंतर्राष्ट्रीय सूत्र में बाँध रखा था, किंतु धर्म-सुधार आंदोलन से यह एकता नष्ट हो गई और राष्ट्रीयता की भावना का विकास हुआ। ऐसी परिस्थिति में यूरोप में शक्तिशाली निरंकुश राज्यों का उदय होना स्वाभाविक था। धीरे-धीरे इनके सम्राटों की शक्ति असीमित हो गई। उन्होंने अपना उद्देश्य जनता पर स्वेच्छाचारिता से शासन करना और पड़ोसी देशों के प्रदेशों को हड़पकर साम्राज्य का विस्तार करना बना लिया था, इसलिए यूरोप के इतिहास में सोलहवीं शताब्दी से अठारहवीं शताब्दी के काल को ‘निरंकुशवाद का युग’ कहते हैं।

सोलहवीं तथा सत्तरहवीं शताब्दियों में यूरोप में शासकों ने स्वेच्छाचारी शासन किया, परंतु उनकी निरंकुशता से जनता तंग आने लगी थी। अठारहवीं शताब्दी के प्रारंभ में यूरोप के विद्वान लेखकों के विचारों के प्रभाव से राजा और शासकों के राज्य-विषयक विचारों में पर्याप्त उदार परिवर्तन हुए। तत्कालीन लेखकों ने राजा के निरंकुश अधिकारों के पीछे समाज की स्वीकृति को सिद्ध करके समाज का महत्त्व बढ़ा दिया। ‘सामाजिक समझौते का सिद्धांत’ इसी मंत्र को लेकर प्रसिद्ध हुआ। रूसो की सामान्य इच्छा (जनरल विल) का सिद्धांत भी जनता की इच्छा को सर्वोपरि सिद्ध करने में सहायक सिद्ध हुआ। अब जनमत का उल्लंघन करके कोई शासक सत्ताधीश बना रह सकेगा, यह संदिग्ध हो गया। इसलिए कुछ बुद्धिमान शासकों ने समय की गति को पहचान कर जनता के हित का ध्यान रखते हुए स्वेच्छाचारी शासन किया, जिससे ‘प्रबुद्ध निरंकुशता’ की एक नई प्रथा विकसित हुई। प्रशा के फ्रेडरिक महान, आस्ट्रिया के जोसेफ द्वितीय और रूस की कैथरीन महान जैसे प्रबुद्ध निरंकुश शासकों ने अपनी निरंकुश सत्ता के साथ ही प्रजा-कल्याण को भी अपना उद्देश्य निर्धारित किया। इन शासकों ने किसानों के लाभ के लिए, व्यापार की उन्नति के निमित्त और जनता की आर्थिक एवं भौतिक बेहतरी के लिए कुछ प्रयास किये। फ्रांस को छोड़कर यूरोप के अधिकांश राज्यों में प्रबुद्ध निरकुंशवादी परंपरा का विकास हुआ।

प्रशा का राजा फ्रेडरिक महान (1740-1786 ई.) अपने युग का प्रथम महान प्रबुद्ध शासक था। वह कहा करता था: ‘राजा केवल निरंकुश सत्ताधारी ही नहीं, बल्कि राज्य का प्रथम सेवक भी है।’ फ्रेडरिक के आदर्श का अनुसरण यूरोप के कई अन्य शासकों ने किया। आस्ट्रिया के सम्राट जोजेफ द्वितीय (1780-1790), रूस की सम्राज्ञी कैथरीन (1762-1795), स्पेन के राजा चार्ल्स तृतीय (1769-1788), स्वीडेन के गस्टवस तृतीय, सार्डेनिया के चार्ल्स इमैनुअल तृतीय ने निरंकुश शासन में विश्वास करते हुए उदारतापूर्वक शासन किया। उन्होंने सामंतों और पादरियों के विशेषाधिकार को कम करने का प्रयत्न किया। यद्यपि ये निरकंशतंत्र के कट्टर समर्थक थे और शासन प्रबंध में जनता को भागीदारी देने को तैयार नहीं थे, फिर भी, उन्होंने जनता की भौतिक, आर्थिक तथा अन्य क्षेत्रों में उन्नति करने के लिए भरसक प्रयत्न किये।

फ्रांस में क्रांति के विस्फोट के लिए एक प्रमुख कारण यह था कि वहाँ ‘प्रबुद्ध निरंकुशता’ की परंपरा विकसित ही नहीं हो सकी। लुई चौदहवाँ प्रबुद्ध राजाओं का समसामयिक था, किंतु शासन-प्रबंध के संबंध में उसकी धारणा प्रबुद्ध निरंकुशता के सिद्धांत के विरुद्ध थी। वह सदैव युद्धों और विषय-वासना में व्यस्त  रहा।

क्रांति के पूर्व उसके दो अयोग्य उत्तराधिकारियों- लुई पंद्रहवें (1715-1774 ई.) और लुई सोलहवें (1774-1789 ई.) का भी यही हाल रहा। यदि फ्रांस के शासक भी समय की गति को पहचान कर ‘प्रबुद्ध निरंकुशता’ को अपना लिए होते और अपनी प्रजा के कष्टों को दूर करने का प्रयत्न करते, तो संभव था कि उदारवादी सुधारों से संतुष्ट होकर फ्रांस की जनता क्रांति की ओर कदम नहीं बढ़ाती। जिन-जिन राज्यों में शासकों ने अपनी प्रवृत्तियों में समयानुकूल परिवर्तन का परिचय दिया, वे क्रांति के आग में जलने से बच गये। किंतु फ्रांस में ऐसा नहीं हुआ। इस प्रकार कहा जा सकता है कि फ्रांस में क्रांति होने का एक प्रमुख कारण यह था कि यहाँ के सम्राटों ने उदार एवं प्रबुद्ध निरंकुशता को नहीं अपनाया।

जागरूक मध्यम वर्ग का अस्तित्व

फ्रांस में ही क्रांति का आरंभ होने का एक दूसरा कारण था- जागरूक मध्यम वर्ग का अस्तित्व। ऐसा नहीं था कि अन्य यूरोपीय देशों के समाज में किसी मध्यम वर्ग का अस्तित्व नहीं था। अठारहवीं शताब्दी के मध्य तक सभी यूरोपीय देशों में इस वर्ग का विकास हो चुका था, किंतु फ्रांस के मध्यम वर्ग की अपनी विशेषता थी। वह अत्यंत सुसंस्कृत, धनी और शिक्षित था, किंतु कुलीनों की उद्दंडता और मिथ्याभिमान से उसे चिढ़ थी। इंग्लैंड को छोड़कर, यूरोप के किसी भी अन्य देश में इस तरह के जागरूक मध्यम वर्ग का प्रादुर्भाव नहीं हुआ था। अनेक कारणों से प्रेरित होकर फ्रांस के मध्यम वर्ग के लोग क्रांति आरंभ करने के लिए कमर कसकर तैयार हो गये थे। वास्तव में, फ्रांस का मध्यम वर्ग कई विशेष कारणों से अंसतुष्ट था और अपने स्वार्थों की रक्षा के लिए राजसत्ता पर नियंत्रण कायम करने के लिए अधीर था। अन्य यूरोपीय राज्यों में इस तरह की स्थिति नहीं थी।

अशिक्षित और शोषित कृषक क्रांति के मार्ग पर अग्रसर नहीं हो सकते हैं, जब तक एक जागरूक और शिक्षित वर्ग उन्हें मार्ग न दिखाये। किसी अन्य यूरोपीय देश में भीरू कृषकों का नेतृत्व करने वाला मध्यम वर्ग समाज में नहीं था। यूरोप के दूसरे देशों के लोग तकलीफ में तो थे, किंतु उनका मार्ग-प्रदर्शन करने और उनके सामने ऊँचा आदर्श रखने वाला कोई नहीं था। इसलिए उन देशों में किसी तरह की क्रांति नहीं हुई, किंतु फ्रांस में एक जागरूक मध्यम वर्ग उस समय विद्यमान था। इसलिए क्रांति फ्रांस में हुई, अन्य किसी यूरोपीय देश में नहीं।

विचारकों और दार्शनिकों का प्रभाव

अठारहवीं शताब्दी में यूरोप में एक बौद्धिक आंदोलन चल रहा था, जिसका का मुख्य केंद्र पेरिस था। पेरिस के बुद्धिजीवी समाज में गंभीर गोष्ठियों का ताँता लगा रहता था। अनेक दार्शनिक, वैज्ञानिक और विचारक मध्ययुगीन अंधविश्वासों से मुक्त होकर स्वतंत्र रूप से विचार करने और प्रत्येक बात को बुद्धि की कसौटी पर कसने लगे थे। वे परंपरा से चली आ रही राजनीतिक, आर्थिक सामाजिक, धार्मिक और न्यायिक संस्थाओं के दोषों का उद्घाटन कर समाज का ध्यान उनकी ओर आकर्षित कर रहे थे। यद्यपि ऐसे विचारक यूरोप के प्रायः सभी देशों में थे, परंतु मांटेस्क्यू, वाल्तेयर, रूसो और दिदरो जैसे सबसे प्रमुख विचारकों का मुख्य कार्यक्षेत्र फ्रांस ही था, आस्ट्रिया, प्रशा या रूस नहीं। इन दार्शनिकों और विचारकों के साहित्य ने फ्रांसीसी क्रांति के विस्फोट में बारूद में चिनगारी का काम किया। इन दार्शनिकों और विचारकों ने न केवल क्रांति का मनोवैज्ञानिक आधार तैयार किया, बल्कि जनता का ध्यान फ्रांस में व्याप्त बुराइयों की ओर आकृष्ट किया और फ्रांस की मूक जनता को वाणी दी। क्रांतिकारी परिवर्तनों के लिए जनता को उन्होंने ही तैयार किया। इस तरह का प्रभाव यूरोप के किसी अन्य देश में नहीं पड़ रहा था। यूरोप के सभी पिछड़े देशों पर जहाँ का साधारण वर्ग पीड़ित था, उस समय के दार्शनिकों की विचारधाराओं का प्रभाव उतना नहीं पड़ा, जितना फ्रांस की जनता पर पड़ा। नवीन और क्रांतिकारी विचारधाराओं को पढ़ने और समझने के लिए जागृत समुदाय की आवश्यकता होती है और इस तरह का समुदाय फ्रांस में ही मौजूद था। यूरोप के किसी भी अन्य देश का बौद्धिक वातावरण इतना संवेदनशील नहीं था, जितना कि फ्रांस का। इस प्रकार फ्रांस में क्रांति के विस्फोट होने का एक प्रमुख कारण बौद्धिक आंदोलन भी था।

फ्रांस में क्रांति क्यों हुई? (Why did the Revolution happen in France?)
रूसो, मांटेस्क्यू और वाल्तेयर
अमेरिका के स्वतंत्रता संग्राम की प्रेरणा

जिस समय यूरोप की ‘पुरातन व्यवस्था’ अपनी अंतिम घडियाँ गिन रही थीं, उस समय ‘नई दुनिया’ (संयुक्त राज्य अमेरिका) में एक महत्त्वपूर्ण घटना की तैयारी हो रही थी। इंग्लैंड के अमेरिकी उपनिवेशों ने आर्थिक शोषण और राजनीतिक पराधीनता के विरूद्ध 1774 में विद्रोह कर दिया। फ्रांस ने अपने घृणित दुश्मन इंग्लैंड की विवशता से लाभ उठाने का निश्चय किया और बहुत-से फ्रांसीसी स्वयंसेवक के रूप में अमरीकियों की सहायता के लिए अमेरिका पहुँच गये। इस प्रकार शोषण और पराधीनता के विरूद्ध छिड़े हुए भीषण संघर्ष से उनका प्रत्यक्ष संपर्क हुआ और उनके मन में एक नवीन उत्साह का संचार हुआ।

फ्रांस में क्रांति क्यों हुई? (Why did the Revolution happen in France?)
अमेरिका की आजादी की लड़ाई

अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेकर फ्रांसीसी घर वापस लौटे तो वे अपने साथ स्वतंत्रता की भावना और क्रांतिकारी विचारधारा भी लेकर आये। अमेरिकी क्रांति ने उनके मनोबल को दृढ़ किया और वे फ्रांस में भी क्रांति के लिए उतावले हो उठे। इस तरह का विशेष अवसर यूरोप के किसी अन्य देश की जनता को नहीं प्राप्त हुआ। यूरोपीय देशों में फ्रांस ही एक ऐसा देश था, जो स्वतंत्रता के नाम पर लड़ी गई अमेरिका की आजादी की लड़ाई के प्रत्यक्ष संपर्क में आया था। लॉर्ड एक्टन ने लिखा था: ‘फ्रांस की दुरावस्था से राजतंत्र का अंत और क्रांति नहीं हुई। फ्रांस की जनता उतनी ही पीड़ित थी, जितना यूरोप के किसी और देश की, परंतु फ्रांसीसी सिद्धांत और अमेरिकी उदाहरण के समन्वय से फ्रांस में ही क्रांति हुई।

फ्रांसीसी सभ्यता की श्रेष्ठता

फ्रांस में ही क्रांति होने का एक विशेष कारण यह भी था कि यहाँ सभ्यता-संस्कृति तथा राज्य-संगठन यूरोप के अन्य देशों की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ था। इनमें कोई संदेह नहीं कि फ्रांस की ‘पुरातन व्यवस्था’ एकदम खोखली हो गई थी, किंतु अब भी उसमें ऐसी तड़क-भड़क विद्यमान थी, जिसके लिए यूरोप के सभी मध्यकालीन राज्य लालायित रहते थे। यूरोप के अन्य राज्यों की अपेक्षा लुई सोलहवें का राज्य फ्रांस अभी सबसे अधिक समृद्ध और वैभवपूर्ण था।

शासन-व्यवस्था के दृष्टिकोण से फ्रांस का शासन बहुत ही सुव्यवस्थित था। उसकी सेना अन्य राजाओं की सेनाओं की अपेक्षा अच्छी सुसज्जित और अनुशासित थी। फ्रांस की सभ्यता और संस्कृति यूरोपीय सभ्यता और संस्कृति का प्रतीक थी। कूटनीतिक और सभ्य समाज में विचारों के आदान-प्रदान की भाषा अब फ्रांसीसी हो रही थी। फ्रांस की राजधानी पेरिस के समाज में आमोद-प्रमोद, मनोरजन तथा दार्शनिक गोष्ठियों का तांता लगा रहता था। संपूर्ण यूरोप में पेरिस साहित्य और चिंतन का सबसे बड़ा केंद्र बन गया था। एक भद्र फ्रांसीसी का सम्मान यूरोप के सभी समाजों में होती थी। इस समय फ्रांसीसी सभ्यता तथा संस्कृति का चरम विकास हो चुका था और फ्रांस के लोग अन्य देशों के लोगों की अपेक्षा विचार में अधिक उन्नत और प्रगतिशील हो चुके थे। इस कारण उन्हें समाज की बुराइयाँ सबसे ज्यादा अखरती थी। एक सजग और संवेदनशील राष्ट्र ही मांटेस्क्यू, वाल्तेयर, रूसो और दिदरो जैसे व्यक्तियों को पैदा कर सकता था और उनकी बातों को सुन सकता था। फ्रांस का जनमत अन्य यूरोपीय देशों की अपेक्षा अधिक जाग्रत और आलोचनात्मक था। यही कारण है कि क्रांति यूरोप के किसी अन्य राज्य में न होकर फ्रांस में ही हुई।

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प्रथम विश्वयुद्ध, 1914-1918 ई. 

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द्वितीय विश्वयुद्ध : कारण, प्रारंभ, विस्तार और परिणाम 

भारत में राष्ट्रवाद का उदय

यूरोप में पुनर्जागरण पर बहुविकल्पीय प्रश्न-1 

प्राचीन भारतीय इतिहास पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-1 

जैन धर्म पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-1 

बौद्ध धर्म पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-1

आधुनिक भारत और राष्ट्रीय आंदोलन पर आधारित बहुविकल्पीय प्रश्न-1

भारत के प्राचीन इतिहास पर आधारित क्विज-1 

भारत के मध्यकालीन इतिहास पर आधारित क्विज-1 

सिंधुघाटी की सभ्यता पर आधारित क्विज 

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