यूरोप में राष्ट्र-राज्यों का उदय (Rise of Nation-States in Europe)

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यूरोप में राष्ट्र-राज्यों का उदय

यूरोप के इतिहास में मध्ययुग में सर्वत्र सामंतवाद का वर्चस्च था और राजाओं की शक्ति अत्यंत दुर्बल थी। सामंत, राजा की ही तरह अनेक शक्तियों का उपयोग करते हुए स्वयं को लगभग स्वतंत्र मानते थे। राज्यों की स्वतंत्र सत्ता नहीं थी, उन्हें ईसाई जगत का एक भाग समझा जाता था और उन पर पोप का नियंत्रण था। किंतु पंद्रहवी-सोलहवीं शताब्दी में पुनर्जागरण और धर्म सुधार के कारण राष्ट्रीयता की भावना का विकास हुआ, जिसने मध्य युग का अंतकर आधुनिक युग की घोषणा की। बौद्धिक, सामाजिक, आर्थिक कारणों से सामंतों की शक्ति समाप्त हो गई, चर्च की सत्ता भी दुर्बल हो गई, जिसने आधुनिक राज्य के विकास के द्वार खोल दिये। आधुनिक युग के आरंभ में जहाँ एक ओर पश्चिमी यूरोप में स्पेन, फ्रांस, इंग्लैंड, पुर्तगाल और स्कॉटलैंड जैसे नये प्रतिस्पर्धी राजतंत्रों का उदय हुआ, वही दूसरी ओर दक्षिणी, पूर्वी और मध्य यूरोप में जर्मनी, इटली, बोहेमिया, पोलैंड, स्वीडेन, नार्वे, डेनमार्क, तुर्की, रूस, लिथुआनिया आदि अपनी अविकसित व्यवस्थाओं के कारण उतने संगठित एवं सशक्त नहीं हो पाये, जितने पश्चिमी यूरोप के राष्ट्र। इस प्रकार राष्ट्रीय राज्यों का उत्कर्ष आधुनिक युग की एक बहुत बड़ी विशेषता है।

राष्ट्रीय राजतंत्रों के उदय के कारण

सामंतवाद का पतन

मध्ययुगीन यूरोप की प्रमुख विशेषता सामंतवादी व्यवस्था थी। सामंतों ने शनै-शनैः अपनी शक्ति में वृद्धि कर छोटे-छोटे राज्यों के समान शासन करना आरंभ कर दिया था। वास्तव में सामंत लोग ही छोटे-छोटे राजा थे जो परस्पर युद्ध किया करते थे। यही नहीं, वे राजा से भी युद्ध ठान लेते थे। सामंतों का प्रभाव इतना अधिक था कि इंग्लैंड में गुलाब के फूलों का युद्ध’ तीस वर्षों तक चलता रहा। कृषकों की स्थिति भी अत्यंत शोचनीय थी, शोषण अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच चुका था। जनसाधारण सामंतवादी व्यवस्था से अत्यंत पीडि़त था और सामंतवाद के पतन के लिए प्रयत्नशील था। जब सामंती व्यवस्था का दमन करने के लिए शासकों ने अपनी शक्ति में वृद्धि कर सामंतों के विरूद्ध अभियान आरंभ किया, तो जनता एवं राजा के मध्य सीधा संपर्क स्थापित हो गया। जनता द्वारा राजा का साथ दिये जाने से सामंतवाद का पतन हुआ। इस प्रकार राजा की शक्ति में वृद्धि हुई, जिसके फलस्वरूप निरकुंश राजतंत्रों की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हुआ।

व्यापार-वाणिज्य का विकास

व्यापारिक क्रांति ने भी निरंकुश राजतंत्र के उदय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वाणिज्यवादी नीतियों के कारण राजाओं को प्रचुर धनराशि मिली, जिसका प्रयोग वे सेना को संगठित करने और अपनी राजनीतिक सत्ता के विस्तार के लिए कर सकते थे। व्यापार के विस्तार ने भी सुदृढ़ सरकार की अनिवार्यता को बढ़ावा दिया। व्यापार-वाणिज्य की उन्नति के साथ-साथ मध्यम वर्ग की सामाजिक-आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होती गई। मध्यम वर्ग ने अपने व्यापार-वाणिज्य के उत्थान तथा सुरक्षा हेतु सुदृढ़ राजतंत्र के स्थापना में बड़ा सक्रिय सहयोग दिया। मध्यम वर्ग ने सामंतो के विरूद्ध राजतंत्रों की बड़ी सेवाएँ की एवं राष्ट्रीयता की भावना का सृजन किया। इसके बदले में राजाओं ने व्यापार-वाणिज्य को संरक्षण प्रदान किया।

मध्यम वर्ग का उत्थान

मध्यम वर्ग का उत्थान सामंती व्यवस्था का पतन की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ। सोलहवीं शताब्दी के आरंभ में मध्यम वर्ग की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति अत्यंत सुदृढ़ हो गई। इस नवोदित मध्यम वर्ग ने अपने व्यापार एवं वाणिज्य के विकास एवं सुरक्षा की दृष्टि से राजतंत्र का समर्थन किया। राजाओं ने भी व्यापार एवं वाणिज्य को संरक्षण प्रदान कर मध्यम वर्ग की सहानुभूति प्राप्त कर ली। इससे न केवल उपनिवेशों की स्थापना को बढ़ावा मिला, बल्कि प्रबुद्ध वर्ग ने राष्ट्रीयता की भावना के विकास में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। हेज के शब्दों में, ‘मध्यम वर्ग का विकास और राजतंत्र से उसका निकटता का संबंध संभवतः मध्ययुग से आधुनिक युग के परिवर्तन का सबसे अधिक और महत्वपूर्ण तथ्य था।’

धर्म सुधार आंदोलन

मध्यकाल के अंत तक चर्च में अनेक दोष उत्पन्न हो गये थे और पोप धार्मिक क्षेत्र के अतिरिक्त राजनीतिक क्षेत्र में भी हस्तक्षेप करने लगा था। किंतु आधुनिक युग के आगमन एवं पुनर्जागरण के कारण यूरोप की जनता तर्कवादी हो चुकी थी। उसने पोप की आचारहीनता, भ्रष्टता एवं विलासिता का विरोध किया। पश्चिमी यूरोप के शासकों ने, जो राजनीतिक कारणों पोप की सत्ता के विरोधी थे, जनता की भावनाओं का लाभ उठाया और पोप की सत्ता का जबरदस्त विरोध किया। कुछ यूरोपीय देशों ने प्रोटेस्टेट आंदोलन के विकास में सक्रिय सहयोग किया। धर्म सुधार आंदोलन के फलस्वरूप कैथोलिक चर्च की एकता को भंग हो गई और चर्च पूर्णतः राजा के अधीन हो गया। इससे राजा के सम्मान एवं पद की प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई और राष्ट्रीयता की भावना को बल दिया।

राष्ट्रीयता की भावना का विकास

राजतंत्रों के उत्कर्ष का एक प्रधान कारण राष्ट्रीयता की भावना था। धर्मयुद्ध, पुनर्जागरण, धर्मसुधार और देशज साहित्य ने राष्ट्रीयता की भावना को शक्तिशाली बनाया। मठों के टूटने से राष्ट्रीय राज्यों की आय तथा शक्ति में वृद्धि हुई। जो सभ्यता पहले धर्मप्रधान थी, अब वह राष्ट्रप्रधान बन गई। राष्ट्रीय गौरव तथा सम्मान की भावना के कारण जनता ने राजाओं को शक्तिशाली बनया। समुद्रपार सुदूर प्रदेशों में व्यापार और उपनिवेशों की स्थापना के लिए शक्तिशाली नाविक तथा सैन्य-शक्ति की आवश्यकता थी, जो एक शक्तिशाली राजतंत्र ही प्रदान कर सकता था। अब व्यापार और उपनिवेश भी राष्ट्रीय गौरव के प्रतीक बन गये, जिससे सुदृढ़ राजतंत्र को बल मिला।

नवीन आविष्कार

पुनर्जागरण काल में हो रहे नये आविष्कारों ने राजतंत्रों के उत्थान में विशेष योगदान दिया। बारूद का आविष्कार, तोपों का प्रयोग, युद्धकाल में परिवर्तन, नये-नये उपनिवेशों की खोज एवं छापेखाने के आविष्कार इस दृष्टि से अत्यंत कारगर हथियार सिद्ध हुए। बारूदों और बंदूकों के सामने सामंतों के दुर्ग और उनकी अश्वारोही सेना व्यर्थ साबित हो गई, जिससे शक्तिशाली राजाओं का उदय हुआ।

दैवी उत्पत्ति का सिंद्धांत

निरंकुश राजतंत्र के विकास में राज्य के दैवीय उत्पत्ति के सिद्धांत ने भी बड़ा योगदान दिया। पुनरुत्थान एवं धर्मसुधार काल के कुछ विद्वान लेखकों ने भी राजसत्ता को सुदृढ़ करने में सहयोग दिया। इटालियन लेखक मैकियावेली ने अपने ग्रंथ ‘दि प्रिंस’ में इस सिद्धांत की स्थापना की कि राज्य का उद्देश्य व्यक्ति तथा संपत्ति की सुरक्षा होनी चाहिए। उसका विचार था कि प्रजातंत्र इन कार्यों को करने के लिए पर्याप्त नहीं था और इस प्रकार की सुरक्षा निरंकुश राजतंत्र में ही संभव है। फ्रांसीसी लेखक बोडिन ने अपने ग्रंथ ‘दि स्टेट’ में संप्रभुता के सिद्धांत की व्याख्या करते हुए कहा कि संप्रभु की सत्ता असीमित होनी चाहिए। उसका कहना था कि राजा समस्त कानूनों का स्रोत होता है और वह केवल ईश्वर के प्रति उत्तरदायी होता है। इसी प्रकार अंग्रेज लेखक हाॅब्स ने ‘लेवियाथन’ नामक पुस्तक में शक्तिशाली निरंकुश राजतंत्र का समर्थन किया।

प्रमुख निरंकुश राजतंत्र और उनका विकास

सामंतवाद के पतन, व्यापार-वाणिज्य की उन्नति, मध्यमवर्ग के उत्थान, धर्म सुधार आंदोलन, राष्ट्रीय भावना के विकास, नवीन आविष्कारों एवं राजा के दैवी उत्पत्ति के सिद्धांत ने निरंकुश राजतंत्रों के विकास के द्वार खोल दिये। अब पश्चिमी यूरोप प्रमुख देश, जिनमें स्पेन, फ्रांस, इंग्लैंड, पुर्तगाल एवं स्काटलैंड थे, निरंकुश राष्ट्रीय राजतंत्र के विकास के मार्ग पर चल पड़े। आधुनिक युग के कुछ प्रमुख राष्ट्रीय राजतंत्रों का वर्णन इस प्रकार है-

स्पेन

पिरेनीज पहाड़ के दक्षिण में भूमध्य सागर, अटलांटिक सागर और पुर्तगाल से घिरा पठारी इलाका स्पेन है। पंद्रहवीं शताब्दी से पूर्व स्पेन में राजनीतिक एकता नहीं थी और वह कई क्षेत्रीय राज्यों में विभाजित था। आठवीं शताब्दी में उत्तरी अफ्रीका में रहनेवाले मूर मुसलमानों ने स्पेन पर अधिकार कर लिया था और वहाँ के निवासियों को, जो ईसाई थे, पहाड़ों में शरण लेने के लिए विवश कर दिया था। किंतु कालांतर में दीर्घकालीन एकीकरण के प्रयासों के पश्चात् ईसाइयों ने 15वीं शताब्दी तक ग्रेनाडा को छोड़कर स्पेन के शेष भागों में अपना अधिकार स्थापित कर लिया। इस प्रकार सोलहवीं सदी के प्रारंभ में स्पेन में राष्ट्रीय राजतंत्र का उत्कर्ष संभव हुआ।

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कैस्टील और आरागान के राज्य

पंद्रहवीं शताब्दी के अंत तक स्पेन मुख्यतया दो प्रमुख राज्यों में विभक्त था- एक, अरागान एवं दूसरा, कैस्टील1479 ई. में अरागान के युवराज फर्डिनेंड एवं कैस्टील की उत्तराधिकारिणी राजकुमारी इसाबेला के मध्य विवाह हुआ। इस विवाह के फलस्वरूप अरागान एवं कैस्टील राज्य मिलकर एक हो गये जिससे स्पेन का राजनीतिक एकीकरण हो गया। ग्रेनाडा ही एक ऐसा राज्य था, जो मूरों के अधीन था। अंततः 1492 ई. में फर्डीनेंड व ईसाबेला की संयुक्त सेनाओं ने मूरों को परास्त कर ग्रेनाडा पर अधिकार कर लिया। इसी के साथ स्पेन को पूर्ण धार्मिक एवं राष्ट्रीय एकता प्राप्त हुई। अब स्पेन एक पूर्ण स्वतंत्र राष्ट्र बन गया।

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अरागान के युवराज फर्डिनेंड एवं कैस्टील की उत्तराधिकारिणी राजकुमारी इसाबेला

उल्लेखनीय है कि 14वीं एवं 15वीं शताब्दी में तुर्को के बढ़ते प्रभाव से आक्रांत ईसाई जगत में जहाँ पूर्व में मुसलमानों का प्रभाव बढ़ता जा रहा था और साम्राज्य की राजधानी वियेना भी सुरक्षित नहीं थी, वहीं पश्चिम में स्पेन के सैनिकों ने मुसलमानों के सदियों पुराने प्रभाव का अंत कर दिया और ईसाई प्रभाव की पुर्नस्थापना की।

फर्डिनेंड एवं ईसाबेला

फर्डिनेंड एवं ईसाबेला की जोड़ी ने स्पेन में निरंकुश राजतंत्र की स्थापना के लिए राज्य के समस्त राजनीतिक अधिकारों को केंद्रित करने तथा समस्त राज्य में धार्मिक एकता स्थापित करने की नीति अपनाई। उन्होंने राजपद की गौरव वृद्धि के लिए एक शक्तिशाली केंद्रीय शासन स्थापित किया। उन्होंने स्वतंत्र नगरों की सत्ता को समाप्त कर दिया, उदंड स्वतंत्र सामंतों को दबाकर राज्य में शांति एवं सुव्यवस्था स्थापित की। फर्डिनेंड ने व्यापार-वाणिज्य को राजकीय संरक्षण में ले लिया और लुटेरों का दमन कर व्यापार-वाणिज्य तथा आवागमन के साधनों में वृद्धि की। शक्तिशाली जहाजी बेड़े का निर्माण किया गया जिससे उपनिवेशों की स्थापना हुई।

फर्डिनेंड एवं ईसाबेला ने राष्ट्रीय एकता के लिए धार्मिक एकता के महत्व को भी समझा। उन्होंने कैथोलिक चर्च के प्रति निष्ठा प्रकट की जिससे प्रसन्न होकर पोप अलेक्जेंडर षष्ठ ने उन्हें ‘कैथोलिक सम्राट’ की उपाधि प्रदान की। पोप ने स्वीकार कर लिया कि स्पेन में चर्च के अधिकारियों की नियुक्ति स्पेन के राजा के हाथों में होगी। धार्मिक एकता को स्थापित करने के लिए ‘इनक्वीजीशन’ या धार्मिक न्यायालय स्थापित किये गये, जो धर्म-विरोधियों को दंड देते थे। इसके माध्यम से अनेक विरोधियों को मृत्युदंड दिया गया और मुसलमानों तथा यहूदियों को स्पेन से निकाल दिया गया।

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कोलंबस, नई दुनिया की खोज करने के बाद बर्सीलोना के राजदरबार में

स्पेन ने यूरोपीय राजनीति में अपनी महत्वपूर्ण स्थिति बनाने के लिए अपना ध्यान वैदेशिक तथा औपनिवेशिक विस्तार की ओर आकृष्ट किया। 1492 ई. कोलंबस की खोज ने नई दुनिया (अमेरिका) में वृहत्तर स्पेनिश साम्राज्य स्थापित करने का मार्ग प्रशस्त किया। शीघ्र ही अमेरिका के अधिकांश भाग पर स्पेन का प्रभुत्व स्थापित हो गया। इन प्रदेशों में सोने-चाँदी की बहुलता थी। अमेरिका के रूप में स्पेन को एक ऐसा कल्पवृक्ष मिल गया, जिसने आधुनिक काल के प्रारंभ में स्पेन को यूरोप के सबसे शक्तिशाली एवं उन्नति देशों की श्रेणी में खड़ा कर दिया।

फर्डीनेंड ने पुर्तगाल, आस्ट्रिया एवं इंग्लैंड से स्पेन के संबंधों को मधुर बनाने के लिए अपनी द्वितीय पुत्री मेरिया का विवाह पूर्तगाल के शासक से, अपनी ज्येष्ठ पुत्री जोआना का विवाह आस्ट्रिया के युवराज फिलिप प्रथम से एवं अपनी कनिष्ठ पुत्री कैथरीन का विवाह इंग्लैंड के युवराज आर्थर से एवं आर्थर की मृत्यु के बाद हेनरी अष्टम् से किया। इन विवाहों से स्पेन के प्रभाव में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। इस प्रकार जनसंख्या तथा घरेलू संसाधनों के क्षेत्र में फ्रांस के बराबर न होते हुए भी स्पेन ने अपना प्रभाव बनाये रखा।

स्पेन के एकीकरण के लिए अंतिम कदम 1512 ई. में उठाया गया, जब स्पेन ने फ्रांस को परास्त कर नावारे पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार ईसाबेला और फर्डिनेंड के संयुक्त प्रयासों के परिणामस्वरूप स्पेन का एकीकरण संभव हो सका। अब स्पेन को यूरोपीय राजनीति में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हो गया।

चार्ल्स प्रथम (1516-1556 ई.)

फर्डिनेंड की मृत्यु के बाद उसकी बड़ी पुत्री का पुत्र चार्ल्स प्रथम (1516-1556 ई.) के नाम से स्पेन की गद्दी पर बैठा। 1519 ई. में चार्ल्स प्रथम पवित्र रोमन साम्राज्य का सम्राट चुना गया। पवित्र सम्राट के रूप में वह चार्ल्स पंचम कहलाया। उसने स्पेन के अतिरिक्त पवित्र रोमन साम्राज्य, नीदरलैंड्स, बर्गडी, नेपल्स, सिसली, सार्डीनिया, संपूर्ण स्पेनिश अमेरिका, फिलिपींस और अफ्रीका के कुछ भागों पर शासन किया। चार्ल्स के शासनकाल में स्पेन अपने गौरव की पराकष्ठा पर पहुँच गया। किंतु स्पेन का यह गौरव स्थायी नहीं रह सका।

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चार्ल्स प्रथम (पवित्र रोमन सम्राट चार्ल्स पंचम)

इंग्लैंड

इंग्लैंड में राष्ट्रीय एकता एवं राष्ट्रीय सरकार की स्थापना का कार्य पश्चिमी यूरोप के अन्य राज्यों की अपेक्षा अधिक तेजी से हुआ। 1337 से 1453 ई. तक फ्रांस और इंग्लैंड के बीच हुए दीर्घकालीन सामंतीय एवं राजवंशीय युद्धों (शतवर्षीय युद्ध) के परिणाम बड़े महत्वपूर्ण सिद्ध हुए। प्रारंभ में तो इंग्लैंड को सफलता प्राप्त हुई, किंतु अंततः इंग्लैंड को पराजय का मुँह देखना पड़ा। शतवर्षीय युद्ध के समाप्त होने के दो वर्ष पश्चात् ही इंग्लैंड को भयंकर सामंती युद्ध, जिसे इतिहास में ‘गुलाबों के युद्ध’ (1455-1485 ई.) के नाम से जाना जाता है, की भयंकर ज्वाला में जलना पड़ा। यह गृह युद्ध यार्क राजवंश, जिनका प्रतीक श्वेत गुलाब था और लंकास्टर राजवंश, जिनका प्रतीक लाल गुलाब था, के सामंतों व उनके अनुयायियों के बीच लड़ा गया था। यह संघर्ष 1485 ई. में समाप्त हुआ जब लंकास्टर वंश की ओर से सिंहासन के दावेदार हेनरी ट्यूडर को वासवर्थ के युद्ध में निर्णायक विजय मिली

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यार्क राजवंश का प्रतीक श्वेत गुलाब और लंकास्टर राजवंश का प्रतीक लाल गुलाब
हेनरी सप्तम

हेनरी ट्यूडर 1485 ई. में हेनरी सप्तम (1485-1509 ई.) के नाम से इंग्लैंड के सिंहासन पर बैठा और एक नये राजवंश ‘ट्यूडर वंश’ (1485-1603 ई.) की स्थापना की। हेनरी सप्तम ने इंग्लैंड में न केवल एक शक्तिशाली राजवंश की स्थापना की, वरन् इंग्लैंड के समाज में व्याप्त मध्ययुगीन कुरीतियों एवं अंधविश्वासों, सामंती अत्याचारों से मुक्तकर उसे आधुनिक युग में प्रविष्ट कराते हुए बौद्धिकता एवं तर्कवादिता के पथ पर अग्रसर किया। यही कारण है कि उसके शासनकाल को इंग्लैंड के इतिहास में ‘बीजारोपण एवं सुधारों का समय’ कहा जाता है।

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ट्यूडर वंश का प्रथम शासक हेनरी सप्तम (1485-1509 ई.

गुलाब के फूलों के युद्ध से हेनरी सप्तम् को दो बड़े लाभ हुए- एक तो इस युद्ध के परिणामस्वरूप इंग्लैंड में अनेक शक्तिशाली तथा प्रभावशाली सामंतगण मारे गये, या अशक्त हो गये। हेनरी ने विभिन्न अधिनियमों के द्वारा सामंतों का दमन किया, उनसे सैन्य-अधिकार छीन लिये तथा सामंतों के स्थान पर मध्य वर्ग के लोगों को ऊँचे पदों पर नियुक्त किया। इस प्रकार उसने इंग्लैंड में सामंत-तंत्र को हमेशा के लिए समाप्त करके निरंकुशता को परिपुष्ट किया। दूसरे, हेनरी द्वारा सामंतों के दमन से एक नये वर्ग अर्थात् मध्यवर्ग को जन्म हुआ, जिसने अपने हितों के लिए राजा का साथ दिया। इसी जन-समर्थन के आधार पर ट्यूडर राजाओं ने सोलहवीं शताब्दी में निरंकुश राजतंत्र स्थापित किया।

हेनरी सप्तम ने एक ओर एलिजाबेथ से विवाह करके गुलाब के फूलों के युद्ध को सदैव के लिए समाप्त कर इंग्लैंड में शांति स्थापित की, वहीं दूसरी ओर इंग्लैंड में शक्तिशाली राजतंत्र की स्थापना करके अपने सिंहासन की रक्षा भी की। हेनरी सप्तम द्वारा नवीन राजतंत्र को सुदृढ़ करने से एक महत्वपूर्ण लाभ यह हुआ कि इसने देश के सभी छोटे-बड़े भागों को आपस में मिलाकर लोगों में राष्ट्रवाद की भावना को जन्म दिया। लंकास्टर तथा यार्क में होनेवाले युद्धों के कारण शासन में जो शिथिलता आई थी, उसे दूर करके हेनरी ने राजा की शक्ति को बढ़ाया।

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हेनरी अष्टम्
हेनरी अष्टम्

हेनरी सप्तम् के बाद हेनरी अष्टम् (1509-1547 ई.) के शासनकाल में इंग्लैंड में धर्मसुधार आंदोलन हुआ, जिसके महत्वपूर्ण संवैधानिक एवं धार्मिक प्रभाव पड़े। इस आंदोलन ने राजा और पार्लियामेंट को देश के धार्मिक जीवन पर नियंत्रण का अधिकार दे दिया। इसके कुछ वर्षो बाद मठों एवं समर्पित पूजागृहों के विसर्जन ने राजा को धन एवं समर्थन दोनो ही प्रदान किये।

ट्यूडर वंश की अंतिम शासिका एलिजाबेथ I ने भी राजा की शक्ति में वृद्धि की। उसने इंग्लैंड को समुद्रों का स्वामी और संसार का सबसे प्रमुख व्यापारिक राष्ट्र बनाने में सहायता दी। ट्यूडर काल में इंग्लैंड की व्यापारिक प्रगति तो हुई ही, दुनिया के देशों में उसका महत्व भी बढ़ा। अंग्रेजों को अपने देश पर गर्व था और ट्यूडर लोग दुनिया में इंग्लैंड की शक्ति और गौरव के प्रतीक थे। ट्यूडर शासकों के शासनकाल में संसद सशक्त राजाओं के प्रभाव में रही। परंतु स्टुअर्ट शासनकाल (1603-1688 ई.) के अंतिम शासक जेम्स द्वितीय के समय इंग्लैंड में रक्तहीन गौरवपूर्ण क्रांति (1688 ई.) हुई, जिसमें संसद की जीत हुई। इस प्रकार लोकतंत्र ने निरंकुशता पर विजय पाना आरंभ कर दिया।

स्कॉटलैंड

16वीं शताब्दी के आरंभ तक स्कॉटलैंड में भी राष्ट्रीय राजतंत्र अस्तित्व में आ चुका था, किंतु यह इंग्लैंड की तुलना में अत्यंत कमजोर राजतंत्र था। इसका सबसे प्रबल कारण यह था कि स्काटलैंड के स्टुअर्ट शासक अपने सामंतों का दमन करने में सफल नहीं हो पाये थे। अपनी इसी कमजोरी के कारण यहाँ के स्टुअर्ट शासक सदा ही फ्रांस की सहायता के मोहताज बने रहे। यही कारण है कि स्कॉटलैंड का राष्ट्रीय राजतंत्र सोलहवीं शताब्दी के अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक दाँव-पेचों में मात्र कठपुतली बना रहा।

फ्रांस

फ्रांस का विकास इंग्लैंड से भिन्न तरीके से हुआ था। फ्रांस की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि इस पर आसानी से आक्रमण हो सके, क्योंकि यह इंग्लैंड की तरह चारों ओर से समुद्र द्वारा सुरक्षित नहीं है। 1500 ई. में फ्रांस एक राष्ट्रीय राजतंत्र था तथा वहाँ राष्ट्रीय साहित्य का अभ्युदय हुआ। राष्ट्रीय भावनाओं के विकास की विशेषता यह थी कि इसका केंद्र राजा था। शतवर्षीय युद्ध में यद्यपि फ्रांस की बड़ी बर्बादी हुई, किंतु राज्य की शक्ति पहले किसी भी समय की अपेक्षा अधिक हो गई। फ्रांसीसी राजाओं ने युद्ध की आवश्यकताओं के कारण ‘स्टेट्स जनरल’ को बुलाये बिना भी लोगों पर कर लगाने का अधिकार प्राप्त कर लिया जिससे वे एक स्थायी सेना रखने में समर्थ हुए। अब राजा के अलावा किसी दूसरे को सेना खड़ी करने और उसे बनाये रखने का अधिकार नहीं था। एक नियमित सेना और उसके निर्वाह के लिए उचित धन के द्वारा फ्रांस के राजा असीम शक्ति के रास्ते पर अग्रसर थे।

लुई ग्यारहवाँ (1461-1483 ई.)

फ्रांस में निरंकुश राजसता की स्थापना को सुदृढ़ आधार प्रदान किया- लुई ग्यारहवें (1461-1483 ई.) ने। लुई ग्यारहवें के शासनकाल में साधारण जनता, विशेषकर मध्यम वर्ग ने फ्रांस में वाणिज्य की उन्नति और देश में शांति व्यवस्था की स्थापना के उद्देष्य से सामंतों के विरूद्ध राजतंत्र का समर्थन किया। अतः लुई ने व्यावहारिक बुद्धि कुशलता तथा सफल कूटनीति द्वारा सामंतों की शक्तियों एवं जागीरों को छीन लिया। साथ ही, उसने सामंतीय न्यायालयों को समाप्त कर राजकीय न्यायालयों की स्थापना की। इसके अलावा, उसने फ्रांस को सुदृढ़ राष्ट्र बनाने के लिए कुछ विशेष कदम भी उठाये, जैसे- चर्च पर अंकुश, उद्योग धंधों को संरक्षण, जहाजों का निर्माण, बंदरगाहों को विकास, पूरे राज्य में एक-सी मुद्रा का प्रचलन एवं नाप-तौल कानून आदि। इस प्रकार लुई ग्यारहवें ने न केवल फ्रांसीसी राज्य की सीमाएँ विस्तृत की, बल्कि एक सुदृढ़ निरंकुश राजतंत्र की नींव भी डाली।

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लुई ग्यारहवाँ
हेनरी चतुर्थ (1589-1610 ई.)

सोलहवीं शताब्दी में धार्मिक युद्धों से उत्पन्न अराजकता ने निरंकुश राजतंत्र को और बल प्रदान किया। हेनरी चतुर्थ (1589-1610 ई.) फ्रांस के इतिहास में महान् राजा के रूप में ही नहीं, लोकप्रिय राजा के रूप में भी प्रसिद्ध है। हेनरी चतुर्थ ने एक नये बूर्बाे राजवंश की स्थापना की, जो दो सौ वर्षो तक फ्रांस पर शासन करता रहा। उसके सबसे महत्वपूर्ण कार्यो में एक था- राजाओं की शक्ति की प्रभुता को पुनः स्थापित करना।

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हेनरी चतुर्थ

हेनरी चतुर्थ के बाद 1617 ई. में बालिग होने पर लुई तेरहवें ने राज्य की बागडोर अपने हाथ में ली। लुई तेरहवें में प्रशासकीय क्षमता एवं योग्यता का अभाव था, किंतु सौभाग्य से उसे कार्डिनल रिशलू नामक एक असाधारण व्यक्ति की अमूल्य सेवाएँ प्राप्त थीं, जिसे उसने 1624 ई. में प्रधानमंत्री बनाया। रिशलू मृत्युपर्यंत (1642 ई.) अपने पद पर बना रहा। योग्य और ओजस्वी रिशलू के दो लक्ष्य थे-एक तो राजा को फ्रांस में संप्रभु बनाना, दूसरे फ्रांस को यूरोप में सर्वश्रेष्ठ बनाना। रिशलू ने सामंतों को नष्ट कर तथा काल्विनवादी प्रोटेस्टेंटों ‘ह्यूगनोटों’ का दमन कर राजा की निरंकुश सत्ता को स्थापित किया। इसके अलावा, रिशलू ने स्टेट्स जनरल की बैठक बुलाने से इनकार कर दिया, जिससे राजा मनमाना काम करने लिए स्वतंत्र हो गया। अब राजा को कानून बनाने, उन्हें लागू करने, कर लगाने और उन्हें खर्च करने का अधिकार मिल गया। इस प्रकार रिशलू निरंकुश राजतंत्र का प्रमुख निर्माता था।

रिशलू की मृत्यु के बाद अगले राजा लुई चौदहवें (1643-1715 ई.) की अल्पवयस्कता के समय, कार्डिनल मैजारिन ने 1661 ई. फ्रांस तक फ्रांस का कार्यभार सँभाला। उसने सामंतवाद को नष्ट करने और राजा की सत्ता को निरंकुश बनाने के लिए रिशलू की नीतियों को जारी रखा। रिशलू ने फ्रांस को शक्तिशाली बनाने के लिए कैथोलिक होकर भी तीसवर्षीय युद्ध (1618-1648 ई.) में प्रोटेस्टेंटों की ओर से हस्तक्षेप किया। लुई चौदहवें के काल में निरंकुश राजतंत्र अपने चरम पर पहुँच गया। लुई चौदहवाँ कहा करता था: ‘‘मैं ही राज्य हूँ।’’ इस प्रकार रिशलू एवं मैजारिन के प्रयासों ने निरंकुश राजतंत्र को शक्तिशाली बना दिया। किंतु लुई सोलहवें (1774-1793 ई.) के समय होनेवाली फ्रांसीसी क्रांति ने फ्रांस में निरंकुश राजसत्ता का अंत कर दिया।

अन्य निरंकुश राष्ट्रीय राज्य

प्रशा

प्रशा का उत्थान भी सत्रहवीं एवं अठारहवीं सदी में हुआ। ब्रैडेनबर्ग की डची के आधार पर इसका विकास हुआ और एक साम्राज्य के रूप में परिवर्तित हो गया। सत्रहवीं सदी में फ्रेडरिक विलियम (1640-1688 ई.) प्रशा का शासक बना। उसे ‘‘इलेक्टर महान्’ भी कहा जाता था। फ्रेडरिक विलियम ने प्रशा को सुदृढ़ करने एवं निरंकुश राजतंत्र स्थापित करने के लिए प्रशासनिक सुधारों की शुरूआत की। उसने कृषकों को ऐसी जमीनों पर काम करने के लिए छः वर्ष तक करों से मुक्ति दी जो तीस वर्षीय युद्ध के कारण बंजर हो गई थी। उसने सरकारी नियंत्रण के अंतर्गत कारखानों को बढ़ावा दिया। निरंकुश राजतंत्र हेतु उसने एक विशाल सेना का संगठन किया और धीरे-धीरे प्रांतीय प्रशासन में लोकप्रिय स्टेट्स को नष्ट कर दिया। प्रशा के शासकों में फ्रेडरिक महान् (1740-1786 ई.) सर्वाधिक उल्लेखनीय है। उसके समय प्रशा का विकास चरम सीमा पर पहुँच गया।

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फ्रेडरिक महान्
पुर्तगाल

पुर्तगाल आरंभ में कैस्टील राज्य का भाग था जो 1095 ई. में कैस्टील राज्य से स्वतंत्र हो गया था। इसके बाद भी कैस्टील के राजा इसको हथियाने का प्रयस करते रहे। 1385 ई. में पुर्तगाल के राजा जान प्रथम ने अंग्रेज धनुर्धरों की सहायता से कैस्टील के राजा को अंतिम बार पराजित किया और स्वतंत्र पुर्तगाल राज्य की स्थापना की। इसके बाद पुर्तगाल में कई योग्य शासक हुए। इनमें ‘हेनरी दि नेवीगेटर’ सबसे प्रसिद्ध है, जिसने समुद्री अभियानों और भौगोलिक खोजों को प्रोत्साहित किया। हेनरी की योजना के अनुसार ही वास्कोडिगामा केप ऑफ गुडहोप होते हुए भारत आया था। 1500 ई. तक पुर्तगाल अपने योग्य शासकों के प्रयत्नों, नवीन आविष्कारों एवं भौगोलिक खोजों के कारण यूरोपीय राजनीति में एक प्रमुख राष्ट्रीय राज्य के रूप में उभर चुका था। इधर, स्पेन के कैस्टील राजवंश से पुर्तगाली राजवंश की घनिष्ठता से लगता था कि दोनों राज्यों का एकीकरण कभी भी हो सकता है। इस संभावना को 1580 ई. में स्पेन के शासक फिलिप द्वितीय ने पुर्तगाल को स्पेन में विलीन कर यथार्थ रूप दे दिया।

जर्मनी

यूरोप के इतिहास में पवित्र रोमन साम्राज्य का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। प्रारंभ में पवित्र रोमन साम्राज्य के अंतर्गत मध्य एवं पश्चिमी स्पेन, पोलैंड, इटली, बर्गंडी एवं हंगरी आदि राज्य थे, किंतु बाद में उन्होंने पवित्र रोमन साम्राज्य से अपने को स्वतंत्र कर लिया। पंद्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में जर्मनी साम्राज्य ही पवित्र रोमन साम्राज्य था। यद्यपि पवित्र रोमन साम्राज्य का सम्राट धार्मिक दृष्टि से यूरोप में सर्वोच्च माना जाता था, किंतु उसकी राजनीतिक स्थिति अच्छी नहीं थी। जर्मनी प्रायः 300 छोटी-बड़ी रियासतों में विभक्त था, जो एक-दूसरे के प्रति ईर्ष्या रखते थे। जर्मनी का सम्राट यद्यपि सर्वोच्च अधिकारी था, किंतु वास्तव में वह अत्यंत कमजोर था तथा सामंतों पर नियंत्रण रखने में असमर्थ था। यही कारण है कि जब पश्चिमी यूरोप के विभिन्न राज्यों में राष्ट्रीय राजतंत्रों की स्थापना हो रही थी, जर्मनी इस दौड़ में अत्यंत पिछड़ गया।

15वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में जर्मनी में भी राष्ट्रवादी भावनाएँ प्रबल होने लगीं। समय हैप्सवर्ग वंश जर्मनी में सर्वाधिक शक्तिशाली था तथा इसी वंश के राजकुमार काफी समय से जर्मनी के सम्राट बनते आ रहे थे। 1493 ई. में इसी वंश का मैक्सिमिलियन जर्मनी का सम्राट बना। उसने 1519 ई. तक जर्मनी में शासन किया। किंतु मैक्सिमिलियन के सुधार सामंतों की स्वार्थपरता एवं सम्राट के पास स्थायी एवं शक्तिसंपन्न सेना के अभाव में कारगर सिद्ध नहीं हो सके। यद्यपि मैक्सिमिलियन ने नीदरलैंड्स की राजकुमारी से स्वयं विवाह किया और अपने पुत्र फिलिप प्रथम का विवाह स्पेन की राजकुमारी जोआना से किया, किंतु पवित्र रोमन साम्राज्य अथवा जर्मन साम्राज्य के राष्ट्रीय एकीकरण की दिशा में कोई विशेष प्रगति नहीं हो सकी।

इटली

मध्य युग की समाप्ति के समय इटली में एकता का पूर्ण अभाव था। इटली अनेक राज्यों में विभक्त था जो परस्पर वैमनस्य के कारण सदैव झगड़ते थे। इटली के राज्यों की पारस्परिक फूट का लाभ उठाकर यूरोप के अन्य राज्य इटली पर अधिकार करने का प्रयत्न करने लगे थे। इटली पर अधिकार करने के लिए फ्रांस व स्पेन विशेष रूप से उत्सुक थे। इटली यद्यपि अनेक राज्यों में विभक्त था, किंतु प्रमुख पाँच राज्य मिलान, वेनिस, फ्लोरेंस, नेपल्स और रोम थे।

तुर्की

15वीं शताब्दी के प्रारंभ में तुर्कों ने पवित्र रोमन साम्राज्य के पूर्वी भागों पर अधिकार करना आरंभ कर दिया। 1453 ई. में मुहम्मद द्वितीय ने कुस्तुन्तुनिया पर भी अधिकार कर लिया। इस प्रकार पूर्वी रोमन साम्राज्य का पतन हो गया। बाद में मुहम्मद द्वितीय के पौत्र सिलिम ने ईरान, सीरिया तथा मिस्र पर भी विजय प्राप्त की। इस प्रकार एक विशाल तुर्क-साम्राज्य की स्थापना हुई। सिलिम की मृत्यु 1590 ई. में हुई। उसके पश्चात् उसके पुत्र सौलिमन के समय में तुर्क-साम्राज्य उन्नति की चरम सीमा पर पहुँच गया।

रूस

आधुनिक काल की पूर्व संध्या पर रूस एक सुदृढ़ केंद्रीय शक्ति से रहित था और वह आंतरिक सामंतीय संघर्षों एवं डेनमार्क, नार्वे के आक्रमणों एवं तातारों की विजय के कारण एक कमजोर एवं प्रभावहीन राज्य था। सोलहवीं शताब्दी में पुनर्जागरण की जो लहरें पश्चिमी यूरोप में प्रवाहित हो रही थी, रूस उन परिवर्तनों से अछूता रहा। उसका यूरोप के देशों में कोई संबंध नहीं था। वह लंबे समय तक पिछड़ा हुआ राज्य बना रहा।

किंतु सोलहवीं सदी के आरंभ में, ईवान महान् (1492-1505 ई.) ने रूस की यथास्थिति को समाप्त किया और रूस को एक राष्ट्रीय राज्य के रूप में अग्रसर करने का महत्वपूर्ण कार्य किया। उसने सर्वप्रथम तातार मुसलमानों की सत्ता का अंत किया एवं रूस में मस्कोवी निरंकुश साम्राज्य की स्थापना की। उसने पहले-पहल जार की उपाधि धारण की, जिसका रूसी भाषा में अर्थ है- सर्वोच्च सत्ताधारी स्वतंत्र शासक। ईवान महान् के पश्चात् ईवान भयंकर (1505-1584 ई.) ने जारशाही की शक्ति में पर्याप्त वृद्धि के साथ ही रूसी सीमा का विस्तार भी किया। इस प्रकार 16वीं शताब्दी के आरंभ में ईवान ने रूस को उत्कर्षरत राष्ट्रीय राज्यों की पंक्ति में लाकर खड़ा कर दिया।

ईवान भयंकर की मृत्यु (1584 ई.) के पश्चात् रूस में 1613 ई. तक का काल गृहयुद्ध एवं अराजकता का रहा। 1613 ई. में इस दुर्व्यवस्था का अंत करने के उद्देश्य से रूसी समांतों ने परस्पर सहमति से सोलह वर्षीय माइकेल रोमानोम को जार पद पर नियुक्त किया। इस वंश का शासन रूसी क्रांति (1917 ई.) तक चलता रहा।

बोहेमिया, हंगरी, पोलैंड तथा लिथुआनिया

परंपरागत रूप में बोहेमिया पवित्र रोमन साम्राज्य का अंग माना जाता था। बोहेमिया में राजा का निर्वाचन होता था, इसलिए राजनीति में अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए सामंतवर्ग विदेशी राजकुमारों को ही अपना राजा चयनित करते थे। इस प्रथा ने बोहेमिया को विदेशी शक्ति हंगरी के अधीन कर दिया, परंतु तब भी अनेक विषमताओं के कारण हंगरी में राष्ट्रीय राज्य की स्थापना नहीं हो सकी। 1547 ई. में तो तुर्कों की विजय ने हंगरी का विभाजन ही कर दिया।

पोलैंड एवं लिथुआनिया ने पवित्र रोमन साम्राज्य से अपने को स्वतंत्र करने की घोषणा तो कर ली थी, किंतु सामंतों के पारस्परिक विरोध के कारण वहाँ भी राष्ट्रीयता के विकास में बाधा पड़ी।

नार्वे, डेनमार्क एवं स्वीडन

नार्वे, डेनमार्क एवं स्वीडन उत्तर-पश्चिमी यूरोप के तीन प्रमुख राज्य थे। 1397 ई. से नार्वे एवं स्वीडन में भी डेनमार्क के राजा का शासन चला आ रहा था। 1523 ई. में स्वीडन ने स्वतः को डेनमार्क से स्वतंत्र करा लिया, किंतु नार्वे पर डेनमार्क का ही प्रभुत्व बना रहा। 16वीं शताब्दी के आरंभ में डेनमार्क, नार्वे एवं स्वीडन निरंकुश राजतंत्र की स्थापना की ओर अग्रसर होने लगे थे।

इस प्रकार संपूर्ण यूरोप के इतिहास में 16वीं शताब्दी के आरम्भ में जहाँ एक ओर पश्चिमी यूरोप में नवीन एवं शक्तिशाली राजतंत्रों का द्रुतगति से विकास हो रहा था, वहीं दूसरी ओर दक्षिणी-पूर्वी एवं मध्य यूरोप में अप्रगतिशील राज्यों का अस्तित्व दृष्टिगोचर होता है।

राष्ट्रीय राज्यों का पतन

दुर्भाग्य से राष्ट्रीय राज्यों के उदय से यूरोप में शांति स्थापित नहीं हो सकी। मध्यम वर्ग द्वारा समर्पित राष्ट्रीय राजाओं ने सामंती युद्धों को समाप्त करने तथा आंतरिक शांति और व्यवस्था के नाम पर युद्ध किया। परंतु सामंती युद्धों के बाद राष्ट्रीय और वंशानुगत युद्धों की शुरूआत हुई। युद्धों में बढ़ते व्यय ने सभी देशों में कर को अधिकाधिक बढ़ा दिया जिसके कारण राजतंत्रीय राज्यों का समाज की नवोदित शक्तियों के साथ संघर्ष आरंभ हुआ।

अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में लोकप्रिय सरकारों की माँग ने भी निरंकुशता की जड़े कमजोर कीं। जनता ने अनुचित कानूनों तथा राजा के असीमित अधिकारों का विरोध करना प्रारंभ कर दिया। विरोध करनेवालों में समाज के वे हिस्से भी शामिल थे, जिन्होंने पहले शक्तिशाली राजाओं का समर्थन किया था। अब जनता ने शासकों के निरंकुश अधिकारों में कटौती तथा राजसत्ता में हिस्सा देने की माँग शुरू की। शासकों और जनता का परस्पर-विरोध सबसे पहले इंग्लैंड में सामने आया। इसके बाद अमेरिका की क्रांति एवं फ्रांस की क्रांति ने निरंकुशता को एक जोरदार धक्का दिया।

राष्ट्रीय राज्यों के उदय से कुछ अच्छे परिणाम भी सामने आये। सामंतवाद समाप्त हुआ, आर्थिक विकास के कारण उत्पादन बढ़ा, तकनीकी क्षेत्र में नवीन प्रणालियाँ खोजी गई। अब राष्ट्रों की सीमाएँ भी अधिकाधिक निश्चित और तर्कसंगत हो गई और सबसे बड़ी बात यह कि आज की राष्ट्रीय चेतना कल के निरंकुशवाद की ही देन है।

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