अगस्त क्रांति  : ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन (August Revolution: ‘Quit India’ Movement)

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अगस्त क्रांति  : ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन

भारत छोड़ो आंदोलन, जिसे ‘अगस्त क्रांति’ भी कहा जाता है, भारतीय जनता की वीरता और लड़ाकूपन की अद्वितीय मिसाल है। जिन परिस्थितियों में यह संघर्ष छेड़ा गया, वैसी प्रतिकूल परिस्थितियाँ राष्ट्रीय आंदोलन में अभी नहीं आई थीं। विश्वयुद्ध की आड़ लेकर सरकार ने अपने को सख्त से सख्त कानूनों से लैस कर लिया था और शांतिपूर्ण राजनीतिक गतिविधियाँ को भी प्रतिबंधित कर दिया था। इस प्रतिकूल विकट परिस्थिति में, जब कठोर दमन लगभग निश्चित था, तो इतना बड़ा संघर्ष छेड़ना जरूरी क्यों हो गया? इस गरम गांधीवादी ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन के कई कारण थे।

क्रिप्स मिशन की असफलता

मार्च, 1942 में क्रिप्स मिशन की असफलता से यह स्पष्ट हो गया था कि ब्रिटिश सरकार युद्ध में भारत की अनिच्छुक साझेदारी को तो बरकरार रखना चाहती है, किंतु किसी सम्मानजनक समझौते के लिए तैयार नहीं है। गांधी और नेहरू जैसे लोग, जो इस फासिस्ट-विरोधी युद्ध को किसी भी तरह कमजोर करना नहीं चाहते थे, अब इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि अब और अधिक चुप रहना यह स्वीकार लेना है कि ब्रिटिश सरकार को भारतीय जनता की इच्छा जाने बिना भारत का भाग्य तय करने का अधिकार है।

राजनीतिक अनिश्चितता का वातावरण

आमतौर पर फासीवादी शक्तियों से घृणा होने के बाद भी मित्रराष्ट्रों की लगातार पराजय और ब्रिटेन के साम्राज्यवादी रवैये ने भारत के तत्कालीन राजनीतिक वातावरण को अनिश्चितता के घोर अंधेरे में खड़ा कर दिया था। अब तो यह भय भी उत्पन्न हो गया था कि यदि जापान भारत पर अधिकार कर लेता है, तो वह आजादी देगा या नहीं। अपने ‘करो या मरो’ वाले भाषण में गांधी ने साफ-साफ कहा था कि ‘‘मैं रूस या चीन की हार का औजार नहीं बनना चाहता।’’

आजाद हिंद फौज और सुभाषचंद्र बोस 

भारत पर जापानी आक्रमण का भय

1942 के बसंत तक गांधी को लगने लगा कि संघर्ष अपरिहार्य है। क्रिप्स मिशन की वापसी के एक पखवाड़े के बाद ही अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक संपन्न हुई। महात्मा गांधी ने एक पत्र के माध्यम से अपने विचार प्रेषित किये। उन्होंने लिखा: ‘‘क्रिप्स प्रस्ताव ने साम्राज्यवाद को उसके नग्न रूप में उपस्थित कर दिया है। ब्रिटेन भारत की रक्षा करने में अक्षम है। जापान की लड़ाई भारत से नहीं, ब्रिटिश साम्राज्य से है। अंग्रेजों को भारत से चले जाना चाहिए, ताकि भारत अपनी रक्षा कर सके। जापान यदि भारत पर हमला करेगा, तो उससे पूर्णरूप से असहयोग किया जायेगा। जापान से खतरा इसलिए है, क्योंकि भारत ब्रिटेन के साम्राज्य का एक अंग है।’’ कांग्रेस कार्यसमिति ने गांधीजी के विचारों के अनुरूप प्रस्ताव पारित किया। गांधीजी ने भारतवासियों को निर्देश दिया कि वे अंग्रेजों को पूरी शक्ति के साथ कह दें, ‘भारत छोड़ दो’। यही नारा उनके आगामी आंदोलन का आधार बनने वाला था।

दुर्लभता का संकट

इस समय बर्मा पर जापानी आधिपत्य के कारण चावल की आपूर्ति में कमी से ‘दुर्लभता का संकट’ पैदा हो गया था। अप्रैल और अगस्त के बीच उत्तर भारत में खाद्यान्न के कीमतों का सूचकांक 60 अंक बढ़ गया। यह अंशतः मौसम की खराब दशा के कारण, अंशतः बर्मी चावल की आपूर्ति बंद होने के कारण और अंशतः अंग्रेजों की कठोर खरीद-नीति के कारण हुआ था। चावल के दाम आसमान छूने लगे तो काला बाजारियों की चाँदी हो गई। कलकत्ता के सेठों और साहूकारों ने अपने गोदामों में चावल भरना आरंभ कर दिया। भूख से मरते लोग गाँव से भाग-भागकर कलकत्ता आने लगे। बंगाल ऐतिहासिक अकाल की चपेट में आ चुका था। मूल्यों में बेतहाशा वृद्धि तथा चावल, नमक जैसी आवश्यक वस्तुओं के कारण सरकार के विरुद्ध जनता में तीव्र असंतोष पैदा हो गया।

अंग्रेजों की दमनकारी एवं भेदभावपूर्ण नीतियाँ

बर्मा और मलाया को खाली करने के ब्रिटिश सरकार के तौर-तरीकों से भी जनता में काफी असंतोष फैला। सरकार ने यूरोपियनों की बस्तियों को खाली करा लिया और स्थानीय निवासियों को उनके भाग्य के भरोसे छोड़ दिया। यहाँ दो तरह की सड़कें बनाई गईं- भारतीय शरणार्थियों के लिए काली सड़क और यूरोपीय शरणार्थियों के लिए सफेद सड़क। ब्रिटिश सरकार की इन हरकतों से अंग्रेजों की प्रतिष्ठा की गहरा आघात लगा और उनकी सर्वश्रेष्ठता की मनोवृति उजागर हो गई।

मलाया और बर्मा से भारत वापस आने वाले शरणार्थियों ने न केवल जापानी अत्याचारों की कहानियाँ बताई, बल्कि यह भी बताया कि दक्षिण-पूर्व एशिया में अंग्रेजों की सत्ता ढह गई है और अंग्रेज अधिकारियों ने भारतीय शरणार्थियों को उनके हाल पर छोड़ दिया है। दूसरी ओर जापानियों द्वारा दुरुपयोग किये जाने के भय से सरकार तटीय बंगाल में एक कठोर ‘वंचित करो’ की नीति के तहत बंगाल और उड़ीसा की नावों और साइकिलों समेत संचार के साधनों को नष्ट करने लगी थी और इसके बदले में मुआवजे बहुत कम दे रही थी। यही नहीं, सरकार असम, बंगाल एवं उड़ीसा में दमनकारी एवं भेदभावपूर्ण भू-नीति का सहारा भी ले रही थी।

अंग्रेजी राज के पतन के अफवाहें

अप्रैल-अगस्त, 1942 में तनाव निरंतर बढ़ता गया। दक्षिण-पूर्व एशिया में ब्रिटेन की पराजय और शक्तिशाली ब्रिटेन के पतन के समाचार ने भारतीयों में असंतोष को व्यक्त करने की इच्छाशक्ति को जगा दिया। भारतीय जनता में यह विश्वास फैल गया कि अंग्रेजी राज का शीघ्र ही पतन होने वाला है। लोग डाकघरों एवं बैंकों से अपना रुपया वापस निकालने लगे। जैसे-जैसे जापानी फौजें सफलतापूर्वक सिंगापुर, मलाया और बर्मा पर कब्जा कर भारत की ओर बढ़ रही थीं, वैसे-वैसे गांधीजी का जुझारूपन भी बढ़ता जा रहा था। उनका मानना था कि जापानी भारत के मुक्तिदाता नहीं होंगे, भारत का भारतवासियों के ही हाथ में होना फासीवादी हमले के विरुद्ध सबसे अच्छी गारंटी होगा। मई, 1942 में गांधी ने लिखा था: ‘‘भारत को भगवान भरोसे छोड़ दीजिए। अगर यह कुछ ज्यादा हो, तो उसे अराजकता के भरोसे छोड़ दीजिए। यह व्यवस्थित और अनुशासित अराजकता समाप्त होनी चाहिए और अगर पूरी गैर-कानूनियत फैलती है, तो मैं इसका जोखिम उठाने को तैयार हूँ।‘‘ 5 जुलाई, 1942 को उन्होंने ‘हरिजन’ में लिखा: ‘‘अंगेजों! भारत को जापान के लिए मत छोड़ो, बल्कि भारत को भारतीयों के लिए व्यवस्थित रूप से छोड़कर चले जाओ।’’

हालांकि कांग्रेस के अंदर आंदोलन प्रारंभ करने के विषय पर मतभेद था। लेकिन गांधीजी ने स्पष्ट कर दिया था कि यदि उनका प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया जायेगा, तो वे कांग्रेस छोड़ देंगे और देश की मिट्टी से एक ऐसा आंदोलन खड़ा कर देंगे जो कांग्रेस से भी बड़ा होगा।’’ इस तरह गांधीजी ने पार्टी को अपने जीवन के अंतिम और सबसे बड़े संघर्ष के लिए तैयार किया।

आज़ाद हिंद फौज के कैदियों के मुक़दमें 

‘भारत छोड़ो’ का प्रस्ताव

14 जुलाई, 1942 को वर्धा में कांग्रेस कार्यकारी समिति ने वैयक्तिक की जगह लोक सविनय अवज्ञा ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ का ऐतिहासिक प्रस्ताव पारित किया। आंदोलन की सार्वजनिक घोषणा से पूर्व 1 अगस्त, 1942 को इलाहाबाद में ‘तिलक दिवस’ मनाया गया। इस अवसर पर जवाहरलाल नेहरू ने कहा कि ‘‘हम आग से खेलने जा रहे हैं। हम दुधारी तलवार का प्रयोग करने जा रहे हैं, जिसकी चोट उल्टी हमारे ऊपर भी पड़ सकती है।’’

बंबई में 7 अगस्त को अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की बैठक बुलाई गई। इसके पहले 25 जुलाई, 1942 को चीन के तत्कालीन मार्शल च्यांगकाई शेक ने संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति रूजवेल्ट को पत्र लिखा था: ‘‘अंग्रेजों के लिए सबसे श्रेष्ठ नीति यह है कि वे भारत को पूर्ण स्वतंत्रता दे दें।’’ रूजवेल्ट और च्यांग काई शेक ने ब्रिटेन को परामर्श दिया था कि वह भारत की स्थिति पर उदारतापूर्वक निर्णय ले। किंतु ब्रिटेन के प्रधानमंत्री चर्चिल ने स्पष्ट कह दिया था कि वह ‘‘ब्रिटिश साम्राज्य के विघटन की अध्यक्षता करने वाले प्रथम मंत्री नहीं होंगे।’’

‘भारत छोड़ो’ आंदोलन की घोषणा

अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक 8 अगस्त, 1942 को बंबई के ऐतिहासिक ग्वालिया टैंक में हुई। जवाहरलाल नेहरू ने ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन का प्रस्ताव रखा, जिसका अनुमोदन वल्लभभाई पटेल ने किया। इस प्रस्ताव का विरोध 13 सदस्यों ने किया, जिसमें 12 कम्युनिस्ट थे। कांग्रेस कार्यसमिति ने कुछ संशोधनों के बाद गांधी के ऐतिहासिक ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। इसमें यह तय किया गया कि अगर भारतवासियों को तुरंत सत्ता नहीं सौंपी जाती, तो गांधी के मार्गदर्शन में लोक सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू किया जायेगा। भारत अपनी सुरक्षा स्वयं करेगा और साम्राज्यवाद तथा फासीवाद के विरुद्ध रहेगा। यदि अंग्रेज भारत छोड़ देते हैं, तो भारत की स्वतंत्रता की घोषणा के साथ एक स्थायी सरकार गठित की जायेगी और स्वतंत्र भारत संयुक्त राष्ट्रसंघ का एक मित्र बनेगा। मुस्लिम लीग से वादा किया गया कि ऐसा संविधान बनेगा, जिसमें संघ में शामिल होनेवाली इकाइयों को अधिकाधिक स्वायत्तता मिलेगी और बचे हुए अधिकार उसी के पास रहेंगे।

प्रस्ताव का अंतिम अंश था कि ‘‘देश ने साम्राज्यवादी सरकार के विरुद्ध अपनी इच्छा जाहिर कर दी है। अब उसे उस बिंदु से लौटने का बिल्कुल औचित्य नहीं है। अतः समिति अहिंसक ढंग से, व्यापक धरातल पर गांधीजी के नेतृत्व में जन-संघर्ष शुरू करने का प्रस्ताव स्वीकार करती है।’’ ब्रितानी हुकूमत के विरुद्ध इस अहिंसक जन-संघर्ष को गांधीजी के नेतृत्व में संपूर्ण भारत में चलाने का निर्णय लिया गया।

‘करो या मरो’ की घोषणा

8 अगस्त की रात इस ऐतिहासिक सम्मेलन में गांधी ने लगभग सत्तर मिनट तक अपना प्रसिद्ध ‘करो या मरो’ वाला भाषण दिया: ‘‘मैं, अगर हो सके तो तत्काल, इसी रात, प्रभात से पहले स्वाधीनता चाहता हूँ।…..आज दुनिया में झूठ और मक्कारी का बोलबाला है।…..आप मेरी बात पर भरोसा कर सकते हैं कि मैं मंत्रिमंडल या ऐसी दूसरी माँगों के लिए वायसरॉय से सौदा करने वाला नहीं हूँ।…….अब मैं आपको छोटा-सा मंत्र दे रहा हूँ; आप इसे अपने हृदय में संजोकर रख लें और हर एक साँस में इसका जाप करें। वह मंत्र है- ‘करो या मरो’हम या तो भारत को स्वतंत्र कराएंगे या इस प्रयास में मारे जायेंगे, किंतु हम अपनी पराधीनता को जारी रहते देखने के लिए जीवित नहीं रहेंगे।’’

वास्तव में गांधी उस दिन अवतार और पैगम्बर की प्रेरक शक्ति से प्रेरित होकर भाषण दे रहे थे। उन्होंने सत्याग्रहियों को निर्देश दिया कि वे इस अहिंसात्मक सत्याग्रह में करने-मरने के लिए जायें; जो कुर्बानी देना नहीं जानते, वे आजादी प्राप्त नहीं कर सकते। गांधी के इन शब्दों ने भारतीय जनता पर जादू-सा असर किया और वह नये जोश, नये साहस, नये संकल्प, नई आस्था, दृढ़-निश्चय और आत्म-विश्वास के साथ स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़ी। गांधी ने सत्याग्रहियों को यह कहकर एक मनोवैज्ञानिक बढ़ावा दिया कि हर कोई अब स्वयं को स्वतंत्र पुरुष या स्त्री समझे और अगर नेतागण गिरफ्तार कर लिये जायें, तो अपनी कार्रवाई का रास्ता खुद तय करे। यह गांधी की अहिंसा का सर्वाधिक गरम रूप था, जो अब ‘खुली बगावत’ तक पहुँच गई थी।

‘भारत छोड़ो’ आंदोलन को राष्ट्रवादी दंतकथाओं में ‘अगस्त क्रांति’ कहा गया है। वायसरॉय लिनलिथगो ने इसे 1857 के बाद का सबसे ‘गंभीर विद्रोह’ बताया है। यह विद्रोह आरंभ से ही हिंसक और पूरी तरह अनियंत्रित रहा, क्योंकि कांग्रेस के नेतृत्व की पूरी पहली कतार इसके आरंभ होने से पहले ही सलाखों के पीछे कर दी गई थी। इसे ‘स्वतःस्फूर्त क्रांति’ भी कहा जाता है, क्योंकि कोई भी पूर्व-निर्धारित योजना ऐसे तात्कालिक और एकरस परिणाम नहीं दे सकती थी। यद्यपि कांग्रेस से जुड़े विभिन्न संगठनों, जैसे- एटक, कांसपा, किसान सभा और फॉरवर्ड ब्लॉक ने ऐसे टकराव के लिए पहले ही जमीन तैयार कर रखी थी और 9 अगस्त से पहले कांग्रेसी नेतृत्व ने एक बारहसूत्री कार्यक्रम तैयार कर रखा था, जिसमें सत्याग्रह की सुपरिचित गांधीवादी विधियों के साथ औद्योगिक हड़तालों को बढ़ावा देने, रेल रोकने और तार काटने, करों की अदायगी रोकने और समानांतर सरकारें स्थापित करने की एक योजना भी शामिल थी, किंतु जो कुछ वास्तव में हुआ, उसकी तुलना में यह भी एक नरम कार्यक्रम था।

दरअसल अहिंसा के प्रश्न पर गांधीजी स्वयं अस्पष्ट थे। 5 अगस्त को उन्होंने कहा था: ‘‘मैं आपसे अपनी अहिंसा की माँग नहीं कर रहा। आप तय करें कि आपको इस संघर्ष में क्या करना है। तीन दिन बाद 8 अगस्त को ए.आई.सी.सी. के प्रस्ताव पर बोलते हुए उनका आग्रह था: ‘‘मुझे आज पूरे भारत पर विश्वास है कि वह एक अहिंसक संघर्ष शुरू करेगा। लेकिन अहिंसा के इस रास्ते से अगर जनता विचलित हो जाए तो भी मैं नहीं डिगूँगा। मैं पीछे नहीं हटूँगा।’’ दूसरे शब्दों में, 1942 में ‘करो या मरो’ के आह्वान की या देश की आजादी के लिए परम बलिदान करने के आह्वान की अपेक्षा लगता है अहिंसा का मुद्दा कम महत्त्वपूर्ण हो गया था। फिर भी, इस महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक मोड़ पर कांग्रेस और गांधी को लोकमानस में असंदिग्ध प्रतीकात्मक वैधता प्राप्त थी और जो कुछ हुआ, उनके नाम पर हुआ। इस प्रकार गांधीजी ऐसे आंदोलन के निर्विवाद नेता थे, जिन पर उनका कम ही नियंत्रण था।

गांधीजी ने एक सोची-समझी रणनीति के तहत ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन के लिए 9 अगस्त, 1942 का दिन चुना था। ब्रिटिश सरकार का तख्ता पलटने के उद्देश्य से बिस्मिल के नेतृत्व में हिंदुस्तान प्रजातांत्रिक संघ के दस जुझारू कार्यकर्ताओं ने 9 अगस्त, 1925 को काकोरी ट्रेन एक्शन को अंजाम दिया था और उसकी स्मृति बनाये रखने के लिए भगतसिंह ने पूरे देश में प्रतिवर्ष 9 अगस्त को ‘काकोरी कांड स्मृति-दिवस’ मनाने की परंपरा प्रारंभ कर दी थी। इस दिन बड़ी संख्या में नौजवान एकत्र होते थे, इसलिए यह आंदोलन 9 अगस्त को आरंभ किया गया।

भारत छोड़ो आंदोलन का आरंभ

गांधी सांगठनिक कार्यों और लगातार प्रचार-अभियान से आंदोलन का वातावरण निर्मित कर चुके थे। लेकिन सरकार न तो कांग्रेस से किसी तरह के समझौते के पक्ष में थी, न ही वह आंदोलन के औपचारिक शुभारंभ की प्रतीक्षा कर सकती थी। फलतः 9 अगस्त 1942 को सूरज निकलने से पहले भोर में ही ‘ऑपरेशन जीरो ऑवर’ के तहत गांधी और दूसरे कांग्रेसी नेता गिरफ्तार कर लिये गये। गांधी के साथ ‘भारत कोकिला’ सरोजिनी नायडू को यरवदा (पुणे) के आगा खाँ पैलेस में, डॉ. राजेंद्र प्रसाद को पटना जेल में व अन्य सभी सदस्यों को अहमदनगर के किले में नजरबंद कर दिया गया।

गांधी और दूसरे कांग्रेसी नेताओं की गिरफ्तारी से पूरे देश में ‘खुली बगावत’ आरंभ हो गई। ब्रिटिश सरकार ने कांग्रेस को अवैधानिक (गैरकानूनी) संस्था घोषित कर उसकी संपत्ति को जब्त कर लिया और समाचार-पत्रों, जुलूसों आदि पर प्रतिबंध लगा दिया। सरकार के इस दमनात्मक कृत्य से जनता में आक्रोश फैल गया और शीघ्र ही बंबई, उत्तर प्रांत, दिल्ली और बिहार तक एक स्वतःस्फूर्त जन-आंदोलन फूट पड़ा। 9 अगस्त, 1942 को लालबहादुर शास्त्री ने ‘मरो नहीं, मारो’ का नारा दिया, जिससे आंदोलन की आग पूरे देश में फैल गई। 19 अगस्त, 1942 को शास्त्री गिरफ्तार कर लिये गये।

क्रांतिकारी आंदोलन का पुनरोदय : भगतसिंह और चंद्रशेखर आजाद 

आंदोलन का प्रसार और विस्तार

शीर्षस्थ नेताओं की गिरफ्तारी से आंदोलन की बागडोर युवा गरमवादी तत्त्वों के हाथों में आ गई। नेताविहीन और संगठनविहीन जनता ने स्वयं अपना नेतृत्व संभाल लिया और जिस ढ़ंग से ठीक समझा, अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की। इस आंदोलन के मुख्यतः तीन चरणों की पहचान की गई है।

पहला चरण

पहले चरण का आरंभ हड़तालों, बहिष्कार और धरनों के साथ एक शहरी विद्रोह के रूप में हुआ। पूरे देश में कारखानों में, स्कूलों और कॉलेजों में हड़तालें और कामबंदी हुई और प्रदर्शन हुए। बंबई, अहमदाबाद एवं जमशेदपुर में मजदूरों ने संयुक्त रूप से विशाल हड़ताल की। शिक्षण संस्थाओं में छात्रों ने हड़तालें की, जुलूस निकाले, गैर-कानूनी पर्चे लिखकर जगह-जगह बाँटे। सरकार ने आंदोलन को दबाने के लिए लाठी और बंदूक का सहारा लिया। वायसरॉय लिनलिथगो ने उपद्रवी तत्वों को देखते ही गोली मारने का आदेश दे दिया था। सरकारी आंकड़ों के अनुसार 15 अगस्त तक अकेले बंबई में ही 30 लोग मारे जा चुके थे।

दूसरा चरण

अगस्त के मध्य में आंदोलन गाँवों में केंद्रित हो गया। बार-बार की गोलीबारी और दमन से क्रुद्ध होकर जनता ने अनेक स्थानों पर हिंसक कार्रवाइयाँ की। अनेक स्थानों पर रेल लाइनें उखाड़ दी गईं, टेलीफोन के खम्भे गिरा दिये गये, तार काट दिये गये और सरकारी इमारतों में आग लगा दी गई। सत्याग्रहियों ने सरकारी इमारतों और उपनिवेशी सत्ता के दूसरे गोचर प्रतीकों, जैसे- पुलिस थानों, डाकखानों, रेलवे स्टेशनों पर हमले किये और बलपूर्वक तिरंगा फहराये। संयुक्त प्रांत, बिहार, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, आंध्र, तमिलनाडु और महाराष्ट्र के अनेक भागों में ब्रिटिश शासन लुप्त हो गया और राष्ट्रीय सरकारों की स्थापना हुई। इसका जवाब सरकार ने भयानक दमन से दिया जिससे आंदोलन भूमिगत हो गया।

तीसरा चरण: तीसरे चरण की विशेषता थी-हिंसात्मक गतिविधियाँ, जिनके अंतर्गत मुख्यतः संचार व्यवस्था को भंग करके युद्ध-प्रयासों में रुकावट डालना और विभिन्न साधनों का उपयोग करके प्रचार-कार्य चलाना भी शामिल थे। इन साधनों में ऊषा मेहता द्वारा चलाया जा रहा गुप्त रेडियो स्टेशन भी शामिल था। ऐसे कार्यों में केवल शिक्षित युवकों ने ही भाग नहीं लिया, बल्कि साधारण किसानों के दस्तों ने भी रात के अँधेरे में तोड़फोड़ की कार्रवाइयाँ कीं, जिनको ‘कर्नाटक का तरीका’ कहा जाता था।

आंदोलन की क्षेत्रवार तीव्रता

भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान पूरा देश एक ही ढंग से उद्वेलित नहीं हुआ, क्योंकि अलग-अलग क्षेत्रों में आंदोलन की तीव्रता अलग-अलग थी।

बिहार

 हाल के अध्ययनों से पता चलता है कि यह आंदोलन सबसे मजबूत बिहार में था। 11 अगस्त को पटना नगर में छात्रों ने सचिवालय पर एक विशाल रैली की और असेंबली की इमारत पर कांग्रेस का झंडा फहराने की कोशिश की। इसके बाद जनता ने रेलवे स्टेशनों, नगरपालिका की इमारतों और डाकखानों को आग लगा दिया। स्थानीय पुलिस को 12 तारीख को सेना बुलानी पड़ी। जमशेदपुर में आंदोलन 9 अगस्त को स्थानीय कांस्टेबुलरी की हड़ताल के साथ शुरू हुआ, इसके बाद 10 को और फिर 20 को टिस्को में हड़तालें हुई, जिनमें लगभग 30,000 मजदूरों ने भाग लिया।

डालमिया नगर में भी 12 तारीख को मजदूरों की हड़ताल हुई। लेकिन इसके बाद बिहार के लगभग हर जिले में ग्रामीण जनता के विद्रोह हुए, जिसे जमींदारों और व्यापारियों का भी गुप्त समर्थन मिला। यहाँ निचली जातियों ने भी आंदोलन में भागीदारी की, जैसे बाढ़ में गोपों और दुसाधों ने एक समानांतर सरकार का गठन कर अपना राज कायम किया और कर वसूल किया। अंग्रेजी सेना निर्मम दमन पर उतारू थी और पूरे गाँव के गाँव जला दिये गये। उसके बाद आंदोलन भूमिगत हो गया। पुनः 1943 के आसपास आंदोलनकारी ‘आजाद दस्ते’ या ‘छापामार दस्ते’ के रूप में काम करने लगे। अंततः 1944 में आंदोलन पूरी तरह कुचल दिया गया।

पूर्वी संयुक्त प्रांत

पूर्वी संयुक्त प्रांत के गाजीपुर और आजमगढ़ जिलों में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के छात्रों के साथ स्थानीय ग्रामीणों ने रेल लाइनों और स्टेशनों पर तोड़-फोड़ की। इन जिलों के शेरपुर-मुहम्मदपुर जैसे क्षेत्रों में कुछ प्रतिबद्ध गांधीवादी नेताओं ने अहिंसा की शुद्धता बनाये रखने की कोशिश की।

आंदोलन बलिया जिले में सबसे अधिक तीव्र था, जहाँ कुछ दिनों तक अंग्रेजी राज का अस्तित्व ही नहीं रहा। यहाँ बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र-नेताओं ने आंदोलन को तीव्रता प्रदान की। इलाहाबाद के छात्र तो एक कब्जा की गई ‘आजाद रेलगाडी’ में आये थे। हजारों आंदोलनकारी ग्रामीणों ने पहले एक सैनिक आपूर्ति की गाड़ी को लूटा, फिर बाँसडीह कस्बे में थाना और तहसील की इमारतों पर कब्जा कर लिया। 19 अगस्त को एक भारी भीड़ ने बलिया नगर पर कब्जा कर लिया और जिला मजिस्ट्रेट को बंधक बनाकर सरकारी खजाने के सारे नोट जला दिये। सभी राजनीतिक कैदी छोड़ दिये गये और रिहा किये गये गांधीवादी नेता चित्तू पांडे को ‘स्वराज्य जिलाधीश’ घोषित किया गया।

उड़ीसा

बिहार और पूर्वी संयुक्त प्रांत के विपरीत भारत के दूसरे क्षेत्रों में भारत छोड़ो आंदोलन कम स्फूर्त और कम तीव्र रहा, किंतु लंबे समय तक चला। उड़ीसा में आंदोलन का आरंभ कटक जैसे नगरों में हुआ, जहाँ हड़तालें हुईं और शिक्षण संस्थाएँ बंद रहीं, और फिर आंदोलन कटक, बालासोर (बालेश्वर) और पुरी जैसे तटवर्ती जिलों के गाँवों में फैल गया। यहाँ किसानों ने उपनिवेशी सत्ता के सभी गोचर प्रतीकों पर हमले किये, थानों से कैदियों को रिहा करा लिये और स्थानीय पुलिसवालो की वर्दियाँ उतरवा लिये। उन्होंने ‘चौकीदारी कर’ देना बंद कर दिया और कुछ मामलों में जमींदारों की कचहरियों पर हमले किये और सूदखोरों से धन की वसूली की। किंतु यह ग्रामीण विद्रोह पुलिस दमन और सामूहिक जुर्माने के कारण अक्तूबर-नवंबर तक लगभग समाप्त हो गया।

नीलगिरि और धेनकनाल रजवाड़ों में दलित और आदिवासी किसानों ने जंगल कानूनों के उल्लंघन किये। तलचर रजवाड़े में स्थानीय प्रजामंडल के नेताओं ने स्थानीय राजा और उसके अंग्रेज संरक्षकों का राज खत्मकर रजवाड़े के अधिकांश भाग में ‘चासी-मुलिया राज’ कायम कर लिया। वहाँ शाही वायुसेना के विमानों से आंदोलनकारियों पर मशीनगनों से गोलियाँ चलाई गईं और निर्मम दमन का चक्र चला। फिर भी, इस क्षेत्र में मई, 1943 तक छापामार युद्ध जारी रहा।

मलकानगिरि और नवरंगपुर में करिश्माई नेता लक्ष्मण नायक ने आदिवासी और गैर-आदिवासी ग्रामीणों को जमा करके शराब और अफीम की दुकानों पर हमले किये और सभाओं में गर्व के साथ घोषणा की कि अंग्रेजी राज खत्म हो गया। अब उसकी जगह गाँधीराज आ गया है, जिसमें ‘मद्य-कर’ और ‘जंगल-कर’ देने की जरूरत नहीं है। बस्तर रजवाड़े से बुलाये गये सैनिकों ने सितंबर के अंत तक इस आंदोलन को भी कुचल दिया।

महाराष्ट्र

देश के अन्य भागों में जब आंदोलन अपने अंतिम अवस्था में पहुँच चुका था, तो महाराष्ट्र के सतारा में प्रति-सरकार (समानांतर सरकार) ने जन्म लिया। बिहार के आजाद दस्तों के विपरीत सतारा की सरकार ने अपनी सत्ता और वैधता स्थापित करने के लिए स्थानीय डाकू गिरोहों का सफाया करने का प्रयास किया। यद्यपि इसमें मध्य श्रेणी के कुनबी किसानों का वर्चस्व था, किंतु सामंतवाद-विरोधी और जाति-विरोधी रुझान के कारण इसमें गरीब दलित किसानों की भी भागीदारी रही। इस प्रति-सरकार को कांसपा का समर्थन तो था, लेकिन कांग्रेस कभी उस पर अपना वर्चस्व स्थापित नहीं कर सकी। अगस्त, 1944 में, जब गांधी ने समर्पण का आह्वान किया तो मेदिनीपुर के विपरीत सतारा की प्रति-सरकार के अधिकांश सदस्यों ने महात्मा के आदेश को ठुकरा दिया और वे उनके ‘करो या मरो’ वाले पिछले आह्वान पर कायम रहे। ब्रिटिश सरकार के तमाम प्रयासों के बावजूद सतारा की समानांतर सरकार 1946 के चुनाव तक काम करती रही।

पश्चिमी भारत

पश्चिमी भारत में गुजरात के खेड़ा, सूरत और भड़ौच जिलों में और बड़ोदरा रजवाड़े में आंदोलन सबसे मजबूत था। यहाँ आंदोलन का आरंभ मजदूरों की हड़तालों, कामबंदी और झगड़ों के साथ अहमदाबाद और बड़ोदरा नगरों में हुआ। अहमदाबाद में एक समानांतर आजाद सरकार स्थापित हुई और यहाँ कांग्रेस के शीघ्र सत्ता में आने की आशा में उद्योगपतियों ने भी राष्ट्रवादी लक्ष्य से सहानुभूति जताई। किंतु इस क्षेत्र में पहले के आंदोलनों के विपरीत इस बार कोई ‘मालगुजारी रोको अभियान’ नहीं चला। भड़ौच, सूरत और नवसरी जिलों में ग्रामीण एकता ने जाति और वर्ग की सीमाओं को तोड़ दिया। अंग्रेजी राज को निर्मम दमन के बल पर ही दोबारा स्थापित किया जा सका। यद्यपि कई स्थानों पर आदिवासी किसानों ने आंदोलन में हिस्सा लिया, किंतु खेडा और मेहसाना जिलों में कांग्रेसी मंत्रिमंडल से असंतुष्ट दलित बड़ैया और पट्टनवाडिया किसानों ने भारत छोड़ो’ आंदोलन का सक्रिय विरोध किया।

मद्रास प्रेसीडेंसी

मद्रास प्रेसीडेंसी जैसे कुछ क्षेत्रों में भारत छोड़ो आंदोलन बिलकुल धीमा रहा। इसके कई कारण थे, जैसे- राजगोपालाचारी जैसे नेताओं का विरोध, संविधानवाद का प्रभाव, समाजवादियों की अनुपस्थिति, केरल के साम्यवादियों का विरोध, गैर-ब्राह्मणों की उदासीनता और उत्तर के प्रभुत्ववाले एक राजनीतिक अभियान के लिए दक्षिण की एक जोरदार चुनौती आदि।

आंदोलन की प्रमुख विशेषताएँ

भूमिगत गतिविधियाँ

भारत छोड़ों आंदोलन की एक प्रमुख विशेषता थी- भूमिगत गतिविधियाँ। पुलिस का दमन बढ़ने के बाद राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, अरुणा आसफ अली, ऊषा मेहता, बीजू पटनायक, छोटूभाई पुराणिक, अच्युत पटवर्धन, सुचेता कृपलानी तथा आर.पी. गोयनका जैसे युवा समाजवादियों ने भूमिगत रहकर इस आंदोलन को नेतृत्व प्रदान किया। बंबई, पूना, सतारा, बड़ौदा तथा गुजरात के अन्य भाग, कर्नाटक, आंध्र, सयुंक्त प्रांत, बिहार एवं दिल्ली इन गतिविधियों के मुख्य केंद्र थे।

ऊषा मेहता और उनके कुछ साथियों ने बंबई में भूमिगत रेडियो स्टेशन की स्थापना की और कई महीनों तक कांग्रेस रेडियो का प्रसारण किया। राममनोहर लोहिया नियमित रूप से रेडियो पर बोलते थे। नवंबर 1942 में पुलिस ने इसे खोज निकाला और जब्त कर लिया। भूमिगत गतिविधियों में संलग्न लोगों को व्यापक जन-सहयोग मिल रहा था। समय के साथ भूमिगत गतिविधियाँ तीन धाराओं में व्यवस्थित हो गईः इनमें से जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व वाले एक उग्रदल ने भारत-नेपाल सीमा पर छापामार युद्ध का संचालन किया, अरुणा आसफ अली जैसे कांग्रेस समाजवादियों के एक दूसरे दल ने तोड़-फोड़ के लिए पूरे भारत में स्वयंसेवक भरती किये, और सुचेता कृपलानी व अन्य के नेतृत्व में तीसरे गांधीवादी दल ने अहिंसक कार्रवाई और रचनात्मक कार्यक्रम पर जोर दिये।

समानांतर सरकारों की स्थापना

‘भारत छोड़ो’ आंदोलन की दूसरी महत्वपूर्ण विशेषता थी- देश के कई स्थानों में समानांतर सरकारों की स्थापना। पूर्वी संयुक्त प्रांत (उत्तर प्रदेश) के बलिया एवं बस्ती, बंगाल के कोंटाई व मिदनापुर, बंबई में सतारा एवं बिहार के कुछ क्षेत्रों में क्रांतिकारियों ने समानांतर सरकारों का गठन किया। पहली समानांतर सरकार बलिया में एक सप्ताह के लिए गांधीवादी नेता चित्तू पांडेय के नेतृत्व में बनी। बंगाल में आंदोलन सबसे मजबूत मेदिनीपुर जिले के कोंटाई (कंठी) और तामलुक संभागों में था जहाँ राष्ट्रीय आंदोलन 1930 से ही किसानों की लोक-संस्कृति का अंग बन चुका था। इन दोनों संभागों में अंग्रेजों का प्रशासन लगभग समाप्त हो गया, किंतु अंग्रेजी दमन और समुद्री चक्रवात से स्थिति विकराल हो गई थी।

बंगाल में कोंटाई संभाग में नवंबर में ‘कंठी स्वराज्य पंचायत’ का आरंभ हुआ, जबकि तामलुक में 17 दिसंबर से सतीश सावंत के नेतृत्व में ‘ताम्रलिप्त जातीय सरकार’ काम करने लगी थी। तामलुक की जातीय सरकार के पास प्रशिक्षित स्वयंसेवकों की ‘विद्युतवाहिनी’ थी, स्वयंसेविकाओं की ‘भगिनी सेना’ थी और ‘विप्लवी’ नाम का मुखपत्र था। इस सरकार ने असैनिक प्रशासन चलाया, तूफान पीड़ितों के लिए राहत कार्य आरंभ किये, मध्यस्थता की अदालतों में 1681 मामले हल किये, स्कूलों को अनुदान दिया, शक्तिशाली निष्ठावान जमींदारों, व्यापारियों और स्थानीय अधिकारियों का अतिरिक्त धन गरीबों में बाँटा। निर्मम दमन के बावजूद यह सरकार अगस्त 1944 तक काम करती रही। ‘कंठी स्वराज्य पंचायत’ भी लगभग उन्हीं दिनों भंग कर दी गई।

सतारा में प्रति-सरकार का औपचारिक रूप से गठन फरवरी और जून 1943 के बीच हुआ जब दूसरे प्रांतों में भारत छोड़ो आंदोलन लगभग समाप्त हो चुका था। महाराष्ट्र में वैकल्पिक राष्ट्रीय सरकार की स्थापना का यह प्रयोग सबसे सफल रहा, क्योंकि बीसवीं सदी के आरंभ में गैर-ब्राह्मण आंदोलन ने बहुजन समाज को जाति-विरोधी और सामंत-विरोधी कार्रवाइयों के लिए तैयार कर दिया था और 1930 के दशक के दौरान उसने राष्ट्रवाद और कांग्रेस के साथ संबंध स्थापित कर लिये थे। सतारा की सरकार का एक लंबा-चौड़ा सांगठनिक ढाँचा था, जिसमें सेवा दल (स्वयंसेवक दल) और तूफान दल (ग्रामीण दल) थे, और नाना पाटिल व वाई.बी. चाह्वाण उसके प्रमुख प्रेरणा-स्रोत थे। इस सरकार ने ग्रामीण पुस्तकालयों की स्थापना की, न्यायदान मंडलों (लोक अदालतों) का गठन किया और रचनात्मक कार्यक्रमों, जैसे शराब-बंदी अभियान तथा गांधी-विवाहों के आयोजन किये। ब्रिटिश सरकार के तमाम प्रयासों के बावजूद यह समानांतर सरकार 1946 के चुनाव तक काम करती रही।

कांग्रेस समाजवादी पार्टी 

सरकारी प्रतिक्रिया और दमनचक्र

सरकार ने आंदोलन को कुचलने के लिए क्या कुछ नहीं किया। आंदोलन के हिंसात्मक होने के कारण सरकार को दमन का उचित बहाना भी मिल गया था। युद्धकालीन आपात-शक्तियों का प्रयोग करके पहली बार सेना का उपयोग किया गया और अंग्रेजी सेना की पूरी 57 बटालियनें लगाई गईं। प्रेस का गला पूरी तरह घोंट दिया गया; प्रदर्शन कर रही भीड़ पर मशीनगनों से गोलियाँ चलाई गईं; हवा में बम बरसाये गये, कैदियों को कठोर यातनाएँ दी गईं, चारों ओर पुलिस और खुफिया पुलिस का राज था। गाँव के गाँव जला दिये गये, अनेक नगरों और कस्बों को सेना ने अपने नियंत्रण में ले लिया। विद्रोही गाँवों को जुर्माने के रूप में भारी-भारी रकमें देनी पड़ीं और गांववालों पर सामूहिक रूप से कोड़े लगाये गये। दिल्ली की सेंट्रल असेंबली में ऑनरेबुल होम मेम्बर द्वारा प्रस्तुत सरकारी आँकड़ों के अनुसार इस जन-आंदोलन में 940 लोग मारे गये, 1,630 घायल हुए, 18,000 डी.आई.आर. में नजरबंद हुए तथा 60,229 गिरफ्तार हुए। गैर-सरकारी आँकड़े बताते हैं कि पुलिस और सेना की गोलीबारी में 10,000 से भी अधिक लोग मारे गये थे। 1857 के महान् विद्रोह के बाद भारत में इतना निर्मम दमन कभी देखने को नहीं मिला था। युद्ध की आवश्यकताओं का नाम लेकर चर्चिल ने इस त्वरित और निर्मम दमन को उचित ठहराया और आलोचनात्मक विश्व-जनमत को शांत किया।

आंदोलन के प्रति दलों के दृष्टिकोण

अंततः 1942 के अंत तक सरकार अगस्त क्रांति को कुचलने में सफल रही। मुस्लिम लीग ने ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन को मुसलमानों के लिए घातक बताकर मुसलमानों को इसमें भाग न लेने का निर्देश दिया था। किंतु मुसलमानों ने संभवतः गुजरात के कुछ भागों को छोड़कर कहीं भी आंदोलन का सक्रिय विरोध नहीं किया और इस पूरे काल में सांप्रदायिक हिंसा का नामो-निशान नहीं था। डॉ. भीमराव आंबेडकर भी आंदोलन को ‘अनुत्तरदायित्त्वपूर्ण और पागलपन भरा’ कहकर इससे अलग रहे, फिर भी, इस आंदोलन में विभिन्न क्षेत्रों में दलितों की भागीदारी के साक्ष्य मिलते हैं और जातिगत एकता इस अभियान में कभी एक दुर्लभ वस्तु नहीं रही। हिंदू महासभा ने भी ‘व्यर्थ, पौरुषहीन और हिंदुत्व के ध्येय के लिए हानिकर’ कहकर भारत छोड़ो आंदोलन की निंदा की और प्रमुख हिंदू नेताओं ने अंग्रेजों के युद्ध-प्रयासों का समर्थन किया। इसके बावजूद एन.सी. चटर्जी के नेतृत्व में एक गुट के दबाव में महासभा की कार्यकारी समिति को एक प्रस्ताव पारित करना पड़ा कि भारत की प्रतिरक्षा में तब तक समर्थन नहीं दिया जा सकता, जब तक कि भारत की स्वतंत्रता को तत्काल मान्यता न दी जाए। दूसरा हिंदू संगठन आर.एस.एस. भी अलग-थलग पड़ा रहा। बंबई की सरकार ने एक मेमो में दर्ज किया कि संघ ने सावधानी के साथ अपने को कानून के दायरे में रखा है और खासतौर पर उस उथल-पुथल में स्वयं को शामिल होने से रोके रखा है, जिसका आरंभ अगस्त, 1942 में हुआ। दिसंबर, 1941 में सोवियत संघ के विश्वयुद्ध में शामिल होने के बाद भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने भी भारत छोड़ो आंदोलन का समर्थन नहीं किया। फिर भी, कुछ देशप्रेमी कम्युनिस्ट इस आंदोलन में सक्रिय भाग लिये।

विभिन्न वर्गों की भागीदारी

वास्तव में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में यह पहला जन-आंदोलन था, जो नेतृत्व-विहीनता के बाद भी उत्कर्ष पर पहुँचा और अंग्रेजों के विरुद्ध संयुक्त कार्रवाई के प्रश्न पर विभिन्न वर्ग और समुदाय एकजुट थे। यद्यपि समाज का कोई भी वर्ग सहायता एवं समर्थन देने में पीछे नहीं रहा, लेकिन इस आंदोलन ने युवाओं को बड़ी संख्या में अपनी ओर आकृष्ट किया। आमतौर पर छात्र, मजदूर और किसान ही इस आंदोलन के आधार थे, जबकि उच्च वर्गों के लोग और नौकरशाही सरकार के वफादार रहे। 11 अगस्त को पटना में साम्यवादी नेता राहुल सांकृत्यायन ने घोर आश्चर्य से कहा था कि नेतृत्व रिक्शाचालकों, इक्कावानों और ऐसे ही दूसरे लोगों के हाथ में जा चुका था, जिनका राजनीतिक ज्ञान बस इतना ही था कि अंग्रेज उनके दुश्मन हैं। उद्योगपतियों ने अनुदान, प्रश्रय एवं अन्य वस्तुओं के रूप में सहयोग देकर, छात्रों ने संदेशवाहक के रूप में, सामान्य ग्रामीणों ने सरकारी अधिकारियों को आंदोलनकारियों के संबंध में सूचनाएँ देने से इनकार करके तथा ट्रेन चालकों ने ट्रेन में बम एवं अन्य आवश्यक वस्तुएँ ले जाकर आंदोलनकारियों का सहयोग दिया। यहाँ तक कि कुछेक जमींदारों, विशेषकर दरभंगा के राजा ने भी आंदोलन में भाग लिया।

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन और पूँजीपति वर्ग 

भारत छोड़ो आंदोलन का मूल्यांकन

भारत छोड़ो आंदोलन से भारत को स्वतंत्रता भले ही न मिली हो, किंतु यह भारत की स्वाधीनता के लिए किया जाने वाला अंतिम ‘महान् प्रयास’ था। इस आंदोलन ने दिखा दिया कि देश में राष्ट्रवादी भावनाएँ किस गहराई तक अपनी जड़ें जमा चुकी हैं और जनता संघर्ष और बलिदान की कितनी बड़ी क्षमता प्राप्त कर चुकी है। इस आंदोलन का महत्त्व इस बात में भी है कि इसके द्वारा स्वतंत्रता की माँग राष्ट्रीय आंदोलन की पहली माँग बन गई। इस आंदोलन की व्यापकता ने यह स्पष्ट कर दिया कि अब अंग्रेजों के लिए भारत पर शासन करना संभव नहीं है। आंदोलन की तीव्रता और विस्तार से अंग्रेजों को भी विश्वास हो गया कि उन्होंने भारत पर शासन करने का वैध अधिकार खो दिया है। यही नहीं, इस आंदोलन ने विश्व के कई देशों को भारतीय जनमानस के साथ खड़ा कर दिया।

सरकार ने 13 फरवरी, 1943 को भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान हुए विद्रोहों के लिए महात्मा गांधी और कांग्रेस को दोषी ठहराया। गांधीजी ने इस आरोप को अस्वीकार करते हुए कहा था कि मेरा वक्तव्य अहिंसा की सीमा में था। स्वतंत्रता संग्राम के प्रत्येक अहिंसक सिपाही को कागज या कपड़े के एक टुकड़े पर ‘करो या मरो’ का नारा लिखकर चिपका लेना चाहिए, जिससे यदि सत्याग्रह करते समय उसकी मृत्यु हो जाए तो उसे इस चिन्ह के आधार पर दूसरे तत्त्वों से अलग किया जा सके, जिनका अहिंसा में विश्वास नहीं है। उन्होंने अपने ऊपर लगे आरोप को सिद्ध करने के लिए सरकार से निष्पक्ष जाँच की माँग की।

जब सरकार के गांधी की माँग पर ध्यान नहीं दिया तो उन्होंने 10 फरवरी, 1943 को इक्कीस दिन का उपवास शुरू कर दिया। गांधी के उपवास की खबर से पूरे देश में आक्रोश फैल गया। पूरे देश में प्रदर्शनों, हड़तालों एवं जुलूसों के आयोजन किये गये। वायसरॉय की कार्यकारिणी परिषद् के तीन सदस्यों- सर मोदी, सर ए.एन. सरकार एवं आणे ने इस्तीफा दे दिया। विदेशों में भी गांधी के उपवास की खबर से व्यापक प्रतिक्रिया हुई तथा सरकार से उन्हें तुरंत रिहा करने की माँग की गई। उपवास के तेरहवें दिन गांधी की स्थिति बहुत बिगड़ गई। ब्रिटिश सरकार शायद यह मानकर चल रही थी कि यदि उपवास के कारण गांधी की मृत्यु हो जायेगी तो उसकी साम्राज्यवादी नीति का सबसे बड़ा कंटक दूर हो जायेगा। कहते हैं कि आगा खाँ महल में उनके अंतिम संस्कार के लिए चंदन की लकड़ी की व्यवस्था भी कर दी गई थी। किंतु गांधी हमेशा की तरह अपने विरोधियों पर भारी पड़े और 6 मई, 1944 को बीमारी के आधार पर रिहा कर दिये गये।

रिहाई के बाद गांधी ने आत्मसमर्पण का आह्वान किया, किंतु हर किसी ने उनकी बात नहीं मानी। उन्होंने ऐसे लोगों की जमकर प्रशंसा तक की, जो उनके अहिंसा के मार्ग से स्पष्ट तौर पर दूर चले गये थे। सतारा की प्रति-सरकार के प्रसिद्ध नेता नाना पाटिल से उन्होंने कहा कि ‘‘मैं उन लोगों में से एक हूँ, जो यह मानते हैं कि वीरों की हिंसा कायरों की अहिंसा से बेहतर होती है।’’ किंतु कांग्रेसी नेतृत्व ने, जिस पर अब दक्षिणपंथियों का कब्जा था, जनता के इस उग्र व्यवहार की निंदा की। इसके बाद कांग्रेस लगातार आंदोलन का रास्ता छोड़कर संविधानवाद की ओर झुकती चली गई। दूसरे शब्दों में ‘‘राज से टकराने की प्रक्रिया में कांग्रेस स्वयं ही राज बनती जा रही थी।’’ अंग्रेजी राज ने भी महसूस किया कि युद्धकालीन सह-शक्तियों के बिना ऐसे उग्र जन-आंदोलनों से निबटना मुश्किल होगा, इसलिए सम्मानजनक और सुव्यवस्थित ढंग से अलग होने के लिए समझौता-वार्ता के प्रति अधिक तत्परता दिखाई।

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