गदर आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्त्वपूर्ण अध्याय है। इस आंदोलन की नींव संयुक्त राज्य अमेरिका और कनाडा में बसे प्रवासी भारतीयों द्वारा रखी गई थी, जो ब्रिटिश उपनिवेशवाद के अत्याचारों से त्रस्त थे और अपनी मातृभूमि को स्वतंत्र कराने का सपना देख रहे थे। इस आंदोलन का मुख्य उद्देश्य सशस्त्र क्रांति और राष्ट्रवादी विचारों का प्रसार करके भारत को ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से मुक्त कराना था।
गदर आंदोलनकारी स्वतंत्रता और आत्मनिर्णय के आदर्शों से प्रेरित थे और अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हिसंक कार्रवाई करने को तैयार थे। गदर क्रांतिकारियों ने 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान भारत में बड़े पैमाने पर सशस्त्र विद्रोह की योजना बनाई, किंतु ब्रिटिश सरकार ने विद्रोह के पहले ही गदर आंदोलन का दमन कर दिया।
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गदर आंदोलन की पृष्ठभूमि
ब्रिटेन और यूरोप में भारतीय अलग-थलग पड़े प्रवासी समूहों से अधिक कुछ भी नहीं थे। फिर भी, ब्रिटिश कोलंबिया और अमरीका के प्रशांत तटीय राज्यों में क्रांतिकारी आंदोलन ने पहली बार एक जनाधार-सा बनाया। यहाँ 1914 तक लगभग 15,000 भारतीय बस चुके थे, जिनमें अधिकांश पंजाब, विशेषकर जालंधर और होशियारपुर इलाके के ऋणग्रस्त सिख किसान थे तथा कुछ ब्रिटिश भारतीय सेना में नौकरी कर चुके थे। इन व्यापारियों और कामगारों को कनाडा और अमेरिका दोनों स्थानों पर खुले रूप में नस्ली भेदभाव का शिकार होना पड़ता था।
ब्रिटिश सरकार के हितैषी इन देशों के सौतेले व्यवहार से भारतीयों के मन में राजनीतिक संघर्ष की चिनगारी 1907 से ही सुलगने लगी थी जब पश्चिमी तट पर निर्वासित जीवन बिता रहे रामनाथ पुरी ने सैन फ्रांसिस्को में ‘हिंदुस्तान एसोसिएशन’ का गठनकर स्वदेशी आंदोलन के समर्थन में ‘सर्कुलर-ए-आजादी’ (आजादी का परिपत्र) नामक एक पर्चा प्रकाशित किया था।
भारतीय समुदाय के आरंभिक नेताओं में से एक भारतीय विद्यार्थी तारकनाथ दास ने बैंकोवर में ‘फ्री हिंदुस्तान’ नामक अखबार शुरू किया और जी.डी. कुमार ‘स्वदेश सेवकगृह’ का गठनकर गुरुमुखी लिपि में ‘स्वदेश सेवक’ नामक अखबार निकालने लगे। जी.डी. कुमार स्वदेश सेवक में सामाजिक सुधारों की वकालत करते थे और हिंदुस्तानी सिपाहियों को विद्रोह करने का आह्वान करते थे।
1910 में तारकनाथ और जी.डी. कुमार ने अमेरिका के सिएटल में ‘यूनाइटेड इंडिया हाउस’ की स्थापना की, जहाँ हर हफ्ते भारतीय मजदूरों की साप्ताहिक बैठकें आयोजित होती थीं। धीरे-धीरे ‘खालसा दीवान सोसायटी’ से भी उनका घनिष्ट संबंध हो गया। 1913 में इन दोनों संगठनों ने संयुक्त रूप से कड़े अप्रवासी कानूनों को बदलवाने के लिए लंदन और भारत में अंग्रेजों से वार्ता करने के लिए अपने प्रतिनिधिमंडल भेजे, किंतु कोई सफलता नहीं मिली। लेकिन इससे इतना लाभ अवश्य हुआ कि प्रतिनिधिमंडल ने अपनी भारत यात्रा के दौरान लाहौर, लुधियाना, अंबाला, फीरोजपुर, जालंधर और शिमला में कई सार्वजनिक सभाएँ की, जिनमें उन्हें जनता तथा प्रेस का भारी समर्थन मिला था। इस प्रकार भारतीयों के इन आरंभिक प्रयासों से प्रवासी भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना का संचार हुआ और उनमें एकता की भावना का उदय हुआ।
किंतु ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध स्वतंत्रता के संघर्ष की शुरूआत सबसे पहले मलाया में काम करने वाले एक सिख ग्रंथी भगवानसिंह ने शुरू किया। उन्होंने 1913 के आरंभ में कनाडा के बैंकोवर में खुलेआम अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ फेंकने का आह्वान किया और जनता से अपील की कि ‘वंदेमातरम्’ को क्रांतिकारी सलाम माना जाए। यद्यपि तीन महीने में ही सरकार ने उन्हें निष्कासित कर दिया, लेकिन उनके विचारों ने भारतीयों में नई चेतना जगा दी।
गदर पार्टी की स्थापना
उत्तरी अमरीका में रहने वाले प्रवासी भारतीयों को संगठित और एकजुट करने में लाला हरदयाल ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। हरदयाल दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कॉलेज के प्रतिभाशाली बुद्धिजीवी थे, जो 1911 से अमेरिका में राजनीतिक निर्वासन का जीवन बिता रहे थे। उन्होंने ‘युगांतर’ नामक एक पर्चा जारी कर चाँदनी चौक कांड ( दिसंबर 1912) का समर्थन किया था।
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लाला हरदयाल ने पश्चिमी अमरीकी तट पर बसे पोर्टलैंड में मई 1913 में ‘हिंदुस्तान एसोसिएशन ऑफ द पैसेफिक कोस्ट’ (हिंदी एसोसिएशन) की स्थापना की। हिंदी एसोसिएशन की पहली बैठक में बाबा सोहनसिंह भकना अध्यक्ष, केसरसिंह उपाध्यक्ष, लाला हरदयाल महामंत्री, लाला ठाकुरदास धुरी संयुक्त सचिव और पं. कांशीराम कोषाध्यक्ष चुने गये। इस बैठक में अन्य लोगों के अलावा भाई परमानंद तथा हरनामसिंह दंडीलाट ने भी भाग लिया था।
गदर आंदोलन का आरंभ नवंबर 1913 में सैन फांसिस्को में हुआ, जब रामचंद्र और बरकतुल्लाह के सक्रिय सहयोग से हिंदुस्तान एसोसिएशन ऑफ द पैसेफिक कॉस्ट ने कैलीफोर्निया के सैन फ्रांसिस्को में ‘युगांतर आश्रम’ को अपना मुख्यालय बनाया और ‘युगांतर प्रेस’ की स्थापना कर ‘गदर’ नामक साप्ताहिक (बाद में मासिक) पत्र निकालना आरंभ किया। इसी ‘गदर’ साप्ताहिक पत्र के नाम पर हिंदुस्तान एसोसिएशन ऑफ द पैसेफिक कॉस्ट (हिंदी एसोसिएशन) को गदर पार्टी के नाम से जाना जाने लगा।
गदर साप्ताहिक का प्रकाशन
गदर पार्टी ने अपने उद्देश्यों को प्रसारित करने के लिए ‘गदर’ नामक साप्ताहिक पत्र भी प्रकाशित किया, जो 1857 की विद्रोह की स्मृति में था। इस पत्र का उद्देश्य भारतीयों के बीच राष्ट्रीय चेतना को जागृत करना और उन्हें ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह के लिए प्रेरित करना था।
‘गदर’ साप्ताहिक का पहला अंक 1 नवंबर 1913 को उर्दू में छपा, लेकिन एक महीने बाद उसका गुरुमुखी अंक भी छप गया। बाद में यह हिंदी, गुजराती तथा अन्य अनेक भाषाओं में भी प्रकाशित किया जाने लगा। उर्दू भाषा में ‘गदर’ का शाब्दिक अर्थ है- विद्रोह। ‘गदर’ के नाम के साथ ऊपर लिखा होता था: ‘अंग्रेजी राज का दुश्मन’। इसके अलावा, गदर के हर अंक के पहले पृष्ठ पर चौदहसूत्रीय ‘अंग्रेजी राज्य का कच्चा चिट्ठा’ छपता था, जो वास्तव में अंग्रेजी शासन की समस्त आलोचना का सारांश होता था।
गदर पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से एक करतारसिंह सराभा ने पहले अंक में लिखा था: ‘‘आज विदेशी धरती पर गदर शुरू हो रहा है, लेकिन हमारे देश की भाषा में ब्रिटिश राज के खिलाफ युद्ध शुरू हो रहा है। हमारा नाम क्या है? विद्रोह। हमारा काम क्या है? विद्रोह। विद्रोह कहाँ होगा? भारत में।“ इस प्रकार गदर आंदोलन ने स्पष्ट कर दिया कि उनका लक्ष्य ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकना है।
‘गदर’ साप्ताहिक पत्र क्रांतिकारी विचारों को फैलाने और विदेशों में रहने वाले प्रवासी भारतीयों को एकजुट करने का एक शक्तिशाली उपकरण सिद्ध हुआ। इस पत्रिका में क्रांतिकारी लेख, कविताएँ, और ब्रिटिश विरोधी सामग्री प्रकाशित होती थी, जिससे पार्टी के संदेश तेजी से फैलते थे। गदर’ की लोकप्रियता इतनी थी कि कुछ ही महीनों के भीतर यह पत्र भारत के साथ-साथ फिलीपींस, हाँगकांग, चीन, मलाया, सिंगापुर, थाईलैंड, त्रिनिदाद व हाडुरास में बसे भारतीयों के बीच पहुँच गया, जिससे प्रवासी समुदायों में राजनीतक चेतना का संचार हुआ। किंतु जनता को सर्वाधिक प्रभावित किया ‘गदर’ में छपनेवाली कविताओं ने, जिनका एक संकलन बाद में ‘गदर दी गूँज’ (गदर की गूँज) शीर्षक से प्रकाशित हुआ। इन क्रांतिकारी तथा धर्मनिरपेक्ष कविताओं को भारतीयों के सम्मेलनों में बड़े उत्साह से पढ़ा और गाया जाता था।
गदर पार्टी की योजना
राजनैतिक कार्यवाही के संबंध में हिंदी एसोसिएशन की योजना इस विचार पर आधारित थी कि ब्रिटिश शासन को केवल सशस्त्र विद्रोह द्वारा ही उखाड़ फेंका जा सकता था और ऐसा करने के लिए जरूरी था कि बड़ी संख्या में प्रवासी भारतीय भारत जायें और यह संदेश जनता तथा ब्रिटिश भारत के सिपाहियों तक पहुँचाया जाए। इस योजना के अनुसार गदर पार्टी के कार्यकर्त्ताओं ने खेतों और कारखानों में जाकर प्रवासी भारतीयों से संपर्क कर उन्हें संगठित किया, जिसके परिणामस्वरूप गदर पार्टी को संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, पूर्वी अफ्रीका और एशिया में रहने वाले भारतीयों का व्यापक समर्थन मिला।
गदर आंदोलन की मुख्य घटनाएँ
गदर पार्टी की भावी रणनीति को तीन मुख्य घटनाओं ने बहुत प्रभावित किया- लाला हरदयाल की गिरफ्तारी, कामागाटामारू कांड और प्रथम विश्वयुद्ध की शुरूआत।
लाला हरदयाल की गिरफ्तारी
25 मार्च 1914 को लाला हरदयाल अराजकतावादी गतिविधियों में संलिप्त होने के आरोप में गिरफ्तार कर लिये गये। दरअसल, यह गिरफ्तारी ब्रिटिश सरकार के इशारे पर की गई थी, ताकि हरदयाल को गदर पार्टी से दूर किया जा सके। जमानत पर रिहा होने के बाद लाला हरदयाल अपने मित्रों की सलाह पर अमेरिका से भागकर स्विट्जरलैंड चले गये। बाद में, हरदयाल ने जर्मनी जाकर बर्लिन में भारतीय स्वतंत्रता समिति की स्थापना में सहयोग दिया।
कामागाटामारू कांड
कनाडा में भारतीयों को पसंद नहीं किया जाता था, इसलिए कनाडा सरकार ने उन भारतीयों को कनाडा में घुसने पर प्रतिबंध लगा दिया, जो भारत से सीधे कनाडा न आया हो। यह बहुत सख्त कानून था, क्योंकि इस नये कानून के अनुसार भारतीयों का कनाडा पहुँचना संभव नहीं था। किंतु नवंबर 1913 में कनाडा की सुप्रीमकोर्ट ने 35 ऐसे भारतीयों को कनाडा में प्रवेश की अनुमति दे दी जो लगातार यात्रा करके नहीं आये थे। अदालत के फैसले से उत्साहित होकर सिंगापुर में ठेकेदारी करनेवाले अमृतसर के धनाढ्य व्यापारी बाबा गुरदत्तसिंह ने गुरुनानक स्टीम नेवीगेशन कंपनी की स्थापना की और कामागाटामारू नामक एक जापानी जहाज किराये पर लेकर पूर्वी तथा दक्षिण पूर्वी एशिया में रहने वाले 376 यात्रियों को लेकर कनाडा के बैंकोवर बंदरगाह के लिए रवाना हुए, जिसमें गदर पार्टी के कई नेता और सदस्य सवार थे।
इस बीच कनाडा सरकार ने अप्रवासी कानून की उन कमियों को दूर कर दिया जिसके कारण 35 भारतीयों को कनाडा में प्रवेश की अनुमति मिली थी। जब यह जहाज 22 मई 1914 को कनाडा के तट पर पहुँचा तो कनाडा की पुलिस ने इसे बंदरगाह से दूर ही रोक दिया। बैंकोवर में ‘शोर कमेटी’ (तटीय समिति) के नेता हुसैन रहीम, सोहनलाल पाठक तथा बलवंतसिंह और अमरीका में बरकतुल्ला, भगवानसिंह, रामचंद्र और सोहनसिंह भकना ने यात्रियों के अधिकारों की लड़ाई लड़ने के लिए चंदा इकट्ठा किया, विरोध में बैठकें कीं और भारत में ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध विद्रोह करने की धमकी भी दी। अंततः कनाडा की सरकार पर शोर कमेटी के आंदोलन का कोई असर नहीं हुआ और कामागाटामारू को कनाडा की जलसीमा से बाहर कर दिया गया।
वापसी में जहाज के याकोहामा पहुँचने से पहले ही प्रथम विश्वयुद्ध प्रारंभ हो गया। ब्रिटिश सरकार ने आदेश दिया कि जहाज के कलकत्ता पहुँचने से पहले किसी यात्री को उतरने न दिया जाए। किसी तरह जहाज 26 दिसंबर 1914 को जब कलकत्ता के बजबज बंदरगाह पर पहुँचा, तो पुलिस और क्षुब्ध यात्रियों के बीच संघर्ष हो गया। इस संघर्ष में पुलिस की गोली से 18 यात्री मारे गये और 202 बंदी बनाकर जेल में डाल दिये गये। बाबा गुरदत्तसिंह और कुछ अन्य लोग किसी तरह भाग निकले।
कामागाटामारू की घटना का गदर क्रांतिकारियों ने ब्रिटेन-विरोधी भावनाओं को उभारने में प्रयोग किया, जिसके परिणामस्वरूप संयुक्त राज्य अमेरिका में रहने वाले हजारों भारतीय अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने के लिए तैयार हो गये।
प्रथम विश्व युद्ध का आरंभ
गदर आंदोलन को गति प्रदान करनेवाली तीसरी और सबसे महत्त्वपूर्ण घटना थी- 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध आरंभ। तत्काल पूर्ण स्वाधीनता पाने के लिए प्रयत्नशील गदर क्रांतिकारियों के लिए प्रथम महायुद्ध ईश्वर का वरदान प्रतीत हुआ। इस समय अंग्रेज और भारतीय सेना की कई टुकड़ियाँ भारत से बाहर जा रही थीं और ब्रिटेन के जर्मन एवं तुर्क शत्रुओं से सैन्य एवं वित्तीय मदद मिलने की उम्मीद बढ़ गई थी। तुर्की के विरुद्ध ब्रिटेन के युद्ध ने हिंदू राष्ट्रवादियों और जुझारू अखिल-इस्लामवादियों को एक-दूसरे के निकट ला दिया था।
युद्ध की घोषणा (जंग द होका)
यद्यपि गदर आंदोलनकारियों की तैयारी पूरी नहीं हुई थी, फिर भी नये घटनाक्रम से उत्साहित गदर पार्टी की एक विशेष सभा में यह फैसला लिया गया कि कुछ न करने से, कुछ करते हुए मर जाना ही बेहतर है। हथियारों की कमी को देखते हुए निश्चय किया गया कि भारत वापस जाकर भारतीय सैनिकों की सहायता ली जाए। गदर पार्टी ने एक पत्र ‘ऐलाने-जंग’ (युद्ध की घोषणा) जारी किया जिसे विदेशों में रहने वाले भारतीयों में बाँटा गया। अब गदर पार्टी के सदस्य हथियार और धन भारत भेजने लगे ताकि यहाँ के सैनिकों और स्थानीय क्रांतिकारियों की सहायता से सशस्त्र क्रांति को आरंभ किया जा सके।
मोहम्मद बरकतुल्लाह, रामचंद्र और भगवानसिंह के आह्वान पर हजारों भारतीय, जो अमेरिका, कनाडा, जापान और अन्य देशों में रहते थे, भारत जाने के लिए आगे आये। भारत वापस जानेवाले क्रांतिकारियों को संबोधित करते हुए रामचंद्र ने कहा कि ‘‘भारत जाओ और देश के कोने-कोने में विद्रोह भड़का दो। अमीरों को लूटो और गरीबों की मदद करो। इस तरह पूरी दुनिया की सहानुभूति प्राप्त करो। भारत पहुँचने पर तुम्हें हथियार दे दिये जायेंगे। हथियार न मिले तो राइफल प्राप्त करने के लिए पुलिस चौकियों को लूटो।’’ 1914 के पूर्वार्ध से क्रांतिकारियों के जत्थे विभिन्न रास् तों से होकर हिंदुस्तान पहुँचने लगे। करतारसिंह सराभा और रघुवीरदयाल गुप्त जैसे अति गरमपंथी नेता पहले ही भारत रवाना हो चुके थे।
गदर आंदोलनकारियों को कुचलने के लिए ब्रिटिश सरकार ने 29 अगस्त 1914 को अध्यादेश जारी कर विधायी उपायों से स्वयं को सशस्त्र कर लिया था। 5 सितंबर 1914 को भारत में प्रवेश करने वाले प्रवासियों की जाँच करने के लिए भारत में अध्यादेश लाया गया और प्रांतीय सरकारों को उन्हें दंडित करने या बिना मुकदमा चलाये जेल में रखने का भी अधिकार दिया गया थ। इस प्रकार प्रवासी भारतीयों के भारत लौटने पर पूरी जाँच-पड़ताल की जाने लगी। लगभग 8,000 प्रवासी भारतीय कामागाटामारू और तोसामारू जहाजों से स्वदेश लौटे, जिनमें से 5,000 को ‘सुरक्षित’ मानकर बिना रोक-टोक के अपने-अपने घर जाने दिया गया और 1,500 लोग कड़ी निगरानी में रखे गये। फरवरी, 1915 तक 189 व्यक्ति नजरबंद किये गये और 704 व्यक्तियों को अपने ही गाँव में रहने के आदेश दिये गये। ब्रिटिश सरकार की इस सतर्कता के बावजूद, श्रीलंका और दक्षिण भारत से आने वाले कुछ आंदोलनकारी प्रशासन को चकमा देकर पंजाब पहुँच गये। अक्टूबर 1914 से लेकर नवंबर 1914 के आरंभ तक पंजाब में सुरक्षित पहुँचने वालों में पं जगतराम, सोहनसिंह भकना और करतारसिंह सराभा जेसे गदर पार्टी के केंद्रीय नेता भी थे।
18 वर्षीय करतारसिंह सराभा लौटने वाले प्रवासियों से संपर्क कर उन्हें संगठित करने लगे। गाँवों में जाकर गदर साहित्य तथा ऐलान-ए-जंग के पर्चे बाँटे गये, मेलों में लोगों को प्रोत्साहित करने के लिए भाषण दिये गये और अन्य कई तरीकों से लोगों को विद्रोह के लिए प्रेरित किया गया। किंतु सभी कोशिशों के बाद भी पंजाबी गदर क्रांतिकारियों का साथ देने को तैयार नहीं हुए। यही नहीं, गदर के कार्यकत्ताओं को सरकार के विश्वासपात्र तत्वों के विरोध का भी सामना करना पड़ा, जिनमें ब्रिटिश सरकार का प्रबल समर्थक खालसा दीवान भी था। खालसा दीवान ने गदर क्रांतिकारियों को ‘पतित और अपराधी’ सिख घोषित कर उनके दमन में ब्रिटिश सरकार को पूरा सहयोग दिया।
सैनिक विद्रोह के प्रयास
पंजाब की जनता के व्यवहार से क्षुब्ध होकर गदर आंदोलनकारियों ने भारतीय सैनिकों के समर्थन से नवंबर 1914 में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ सैनिक विद्रोह का प्रयास किया। किंतु संगठित नेतृत्व और केंद्रीय नियंत्रण के अभाव में यह प्रयास विफल हो गया।
इसके बाद, एक कुशल नेतृत्व की तलाश में गदर आंदोलनकारियों ने बंगाली क्रांतिकारियों से संपर्क किया। अंततः सचिन सान्याल और विष्णु गणेश पिंगले के अनुरोध पर वायसरॉय हार्डिंग पर बम फेंकनेवाले बंगाली क्रांतिकारी रासबिहारी बोस सशस्त्र विद्रोह को संगठित करने के लिए जनवरी, 1915 में पंजाब पहुँच गये। उन्होंने एक संगठन का प्रारूप तैयार किया, जिसके क्रम में सुदूर पूर्व, दक्षिण पूर्व एशिया और पूरे भारत में भारतीय सैनिकों से संपर्क किया गया।
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करतारसिंह सराभा जैसे क्रांतिकारियों ने लाहौर, मियांमीर, फिरोजपुर, मेरठ, कानपुर, आगरा, इलाहाबाद, दीनापुर, बनारस, लखनऊ और फैजाबाद की सैनिक छावनियों में भारतीय सैनिकों से संपर्क किये और फिरोजपुर, लाहौर व रावलपिंडी की रेजिमेंटों को विद्रोह करने के लिए राजी किये। विष्णु गणेश पिंगले को मेरठ छावनी में काम सौंपा गया था।
21 फरवरी 1915 (जिसे बाद में बदलकर 19 फरवरी कर दिया गया) को विद्रोह की सारी तैयारियाँ पूरी हो चुकी थीं, किंतु अंतिम क्षण में ब्रिटिश खुफिया तंत्र की सक्रियता और एक साथी कृपालसिंह के विश्वासघात ने सारे किये-कराये पर पानी फेर दिया और अखिल भारतीय विद्रोह की योजना विफल हो गई।
गदर आंदोलन का दमन
ब्रिटिश सरकार ने युद्धकालीन खतरे का सामना करने के लिए अत्यंत दमनकारी कदम उठाये, जैसे मार्च 1915 का भारत सुरक्षा कानून, जिसका प्रमुख लक्ष्य गदर आंदोलन को कुचलना था। विद्रोह के लिए तत्पर रेजिमेंटें विघटित कर दी गईं और उनके नेता या तो जेल में बंद कर दिये गये या फाँसी पर लटका दिये गये। 23वें रिसाले के 12 लोगों को मौत की सजा दी गई। रासबिहारी किसी तरह बचकर जापान चले गये और सचिन सान्याल को बनारस और दानापुर में फौजियों को बरगलाने के अपराध में आजीवन कारावास की सजा दी गई। ब्रिटिश सरकार ने करतार सिंह सराभा और उनके साथियों को 2 मार्च 1915 को और विष्णु गणेश पिंगले को 23 मार्च 1915 को गिरफ्तार कर लिया। इस प्रकार व्यावहारिक रूप से गदर आंदोलन समाप्त हो गया।
लाहौर षड्यंत्र केस (लाहौर कांस्पिरेसी केस)
बंगाल और पंजाब में संदेह के आधार पर बड़ी संख्या में लोग बंदी बनाये गये, जिन पर ‘लाहौर षड्यंत्र केस’ (अप्रैल 1915-जनवरी 1917) के अलावा कई आपराधिक मुकदमे चलाये गये। पंजाब के गवर्नर माइकल ओ’डायर की माँग पर “डिफेंस ऑफ इंडिया एक्ट” लागू किया गया ताकि गदर पार्टी के नेताओं को बिना अपील का अधिकार दिये तुरंत सजा दी जा सके। एक अनुमान के मुताबिक गदर से संबंधित अभियुक्तों में 42 को मृत्युदंड और 114 को आजीवन कारावास की सजा दी गई। 93 क्रांतिकारियों को अलग-अलग अवधि के लिए कैद की सज़ा मिली और 42 बरी कर दिये गये। ब्रिटिश हुकूमत को बंगाली क्रांतिकारियों और पंजाब के गदर क्रांतिकारियों के अलावा जुझारू अखिल-इस्लामवादियों से भी खतरा था, इसलिए अलीबंधु, हसरत मोहानी और आजाद जैसे नेता भी नजरबंद रखे गये।
गदर आंदोलन की विशेषताएँ
गदर आंदोलन की सबसे प्रमुख विशेषता थी कि उसने उपनिवेशवाद के खिलाफ वैचारिक संघर्ष छेड़ा। आरंभिक राष्ट्रवादियों ने औपनिवेशिक सरकार के चरित्र का जो विश्लेषण और पर्दाफाश किया था कि भारत की गरीबी और पिछड़ेपन का मुख्य कारण ब्रिटिश शासन है, उसे गदर अखबार ने सीघी-सीधी, किंतु प्रभावशाली भाषा में भारतीय अप्रवासी जन-समूह तक पहुँचाया। इस व्यापक प्रचार के कारण ही ऐसे जुझारू राष्ट्रवादियों का आविर्भाव हुआ, जो बाद में कई दशकों तक राष्ट्रीय आंदोलन में तथा बाद में पंजाब और देश के अन्य भागों में वामपंथी तथा किसान आंदोलनों में सक्रिय रहे।
गदर आंदोलन की दूसरी प्रमुख विशेषता इसकी धर्मनिरपेक्ष विचारधारा थी। यद्यपि इस आंदोलन के अधिकांश नेता सिख थे, किंतु ‘गदर’ और ‘गदर की गूँज’ कविता-संग्रह ने जिस विचारधारा का प्रचार किया, उसका चरित्र मूलतः धर्मनिरपेक्ष था। वास्तव में, उस जमाने में विभिन्न धर्मों और वर्गों के लोगों को संकीर्ण मानसिकता से दूर रखना और उन्हें एक मंच पर लाकर संघर्ष के लिए तैयार करना एक महान् उपलब्धि थी। लाला हरदयाल, रामचंद्र व कई अन्य लोग हिंदू थे, बरकतुल्ला मुसलमान थे और रासबिहारी बोस बंगाली हिंदू थे। सोहनसिंह भकना, जो बाद में गदरी बाबा के नाम से प्रसिद्ध हुए और पंजाब के एक प्रमुख किसान नेता बने, के अनुसार ‘‘हम सिख या पंजाबी नहीं थे। हमारा धर्म देशभक्ति था।’’
गदर क्रांतिकारियों में किसी प्रकार की क्षेत्रीय भावना भी नहीं थी। तिलक, अरबिंद घोष, खुदीराम बोस, कन्हाईलाल दत्त और सावरकर जैसे क्रांतिकारी नेता गदर आंदोलनकारियों के आदर्श थे। यही नहीं, आंदोलनकारियों ने बंगाल के क्रांतिकारी रासबिहारी घोष को सर्वसम्मति से अपना नेता चुना था। गदर आंदोलनकारियों ने कभी सिखों व पंजाबियों के धर्मगुरुओं का गुणगान नहीं किया, उल्टे उन्होंने 1857 के विद्रोह के दौरान पंजाबियों द्वारा अंग्रेजी हुकूमत के प्रति वफादारी जताने की निंदा की और ‘सतश्री अकाल’ के बजाय ‘वंदेमातरम्’ को आंदोलन के नारे के रूप में लोकप्रिय बनाया।
गदर आंदोलन की विचारधारा की एक अन्य विशेषता इसका लोकतांत्रिक और समतावादी चरित्र था। गदर क्रांतिकारी एक स्वतंत्र भारतीय गणतंत्र की स्थापना करना चाहते थे। लाला हरदयाल आरंभ में अराजकतावादी, श्रमिक संघवादी और कुछ हद तक समाजवादी विचारधारा से प्रभावित थे। किंतु उन्होंने गदर क्रांतिकारियों को अंतर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रेरित किया। वे अपने भाषणों और लेखों में आयरलैंड, मैक्सिको और रूसी क्रांतिकारियों का गुणगान करते थे। यही कारण है कि कालांतर में अनेक गदर क्रांतिकारियों ने पंजाब में किरती और कम्युनिस्ट आंदोलनों की नींव रखी।
गदर आंदोलन का मूल्यांकन
यद्यपि गदर आंदोलन ब्रिटिश खुफिया तंत्र की सक्रियता, सही समझ, प्रभावी नेतृत्व, मजबूत संगठन के अभाव में अंग्रेजी सत्ता को भारत से बाहर निकाल फेंकने के अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल नहीं हो सका, किंतु इसका आशय यह नहीं है कि आंदोलन निरर्थक था और पूरी तरह असफल हो गया। गदर आंदोलन ने ब्रिटिश राज को झकझोर कर रख दिया और ब्रिटिश सरकार विद्रोहों से निपटने के लिए कड़े निगरानी उपायों को लागू करने के लिए विवश हो गई। गदर क्रांतिकारियों ने विदेशी धरती पर भारतीयों को संगठित किया, उन्हें राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए एकजुट होने के लिए प्रेरित किया और इस प्रकार भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक नया मोड़ दिया। गदर क्रांतिकारियों ने तत्कालीन समाज की राजनीतिक चेतना को जाग्रत कर न केवल संघर्ष की नई रणनीतियों का विकास और प्रयोग किया, बल्कि धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र व समानता की परंपराओं की रचना और पुष्टि भी की। गदर आंदोलन के स्वशासन के संदेश ने भगतसिंह सहित भावी क्रांतिकारियों को प्रेरित किया, जो भारत के स्वतंत्रता संग्राम के प्रतीक बन गये। इस प्रकार जब भारत के प्रायः सभी राजनीतिक दल- कांग्रेस, मुस्लिम लीग, हिंदू महासभा और रियासतों के राजा प्रथम विश्वयुद्ध के समय ब्रिटिश सरकार की सहायता कर रहे थे, तो के जुझारू नवयुवक अपने जान की बाजी लगाकर अंग्रेजी शासन को समाप्त करने का प्रयास कर रहे थे। कुल मिलाकर, गदर पार्टी भारत की स्वतंत्रता के लिए लड़ने वाले भारतीयों के दृढ़-संकल्प का प्रमाण है।
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चौरी चौरा की घटना: अमर शहीदों को एक श्रद्धांजलि
भारत में क्रांतिकारी आंदोलन का उदय और विकास
आधुनिक भारतीय इतिहास पर आधारित महत्त्वपूर्ण बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर-1
प्राचीन भारतीय इतिहास पर आधारित महत्त्वपूर्ण बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर-5
नाथपंथ (संप्रदाय) पर आधारित महत्त्वपूर्ण बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर-4