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राष्ट्रकूट राजवंश का राजनीतिक इतिहास
राष्ट्रकूट राजवंश ने लगभग दो सौ वर्षों से अधिक समय तक भारतीय उपमहाद्वीप के एक बड़े भूभाग पर शासन किया। यद्यपि इस राजवंश की कई छोटी-छोटी शाखाएँ छठीं और सातवीं शताब्दी में उत्तरी, मध्य भारत और दक्कन के विभिन्न क्षेत्रों पर शासन कर रही थीं, किंतु बरार के अचलपुर (महाराष्ट्र में आधुनिक एलिचपुर) के राष्ट्रकूटों की शाखा सबसे प्रमुख और महत्वपूर्ण थी।
प्राचीन भारत के अन्य अनेक राजवंशों की भाँति बरार के राष्ट्रकूट भी आरंभ में बादामी के चालुक्यों के सामंत थे। लेकिन आठवीं शती ईस्वी के मध्य में इस शाखा के दंतिदुर्ग ने आधुनिक कर्नाटक के गुलबर्गा क्षेत्र में एक स्वतंत्र साम्राज्य का निर्माण किया। कालांतर में अचलपुर के राष्ट्रकूट ‘मान्यखेट के राष्ट्रकूट’ नाम से प्रसिद्ध हुए।
राष्ट्रकूट राजवंश के प्रतिभाशाली नरेशों ने न केवल सुदूर दक्षिण में रामेश्वरम् तक अपनी विजय-पताका फहराई,, बल्कि उत्तर भारत की राजनीतिक भागदौड़ में भी सक्रिय भूमिका निभाई। जिस समय दक्षिण में मान्यखेट के राष्ट्रकूटों का उत्थान हुआ, उसी समय बंगाल के पाल और मालवा के प्रतिहार क्रमशः पूर्वी और उत्तर-पश्चिमी भारत में अपनी-अपनी शक्ति का विस्तार कर रहे थे। फलतः गंगा के समृद्ध मैदान में स्थिति कन्नौज पर अधिकार के लिए संघर्षरत प्रतिहारों और पालों को राष्ट्रकूटों की विजयवाहिनी से पराजित होना पड़ा। आर.सी. मजूमदार ने लिखा है कि विंध्य के दक्षिण की किसी अन्य शक्ति ने उत्तरी भारत के इतिहास में अठारहवीं शताब्दी ईस्वी के मराठा पेशवाओं के समय तक इतनी प्रभावकारी भूमिका नहीं अदा की।
राष्ट्रकूट राजवंश के शासकों का शासनकाल राजनीतिक विस्तार की दृष्टि से ही नहीं, कलात्मक उपलब्धियों और साहित्यिक विकास की दृष्टि से भी दक्षिण भारतीय इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय है। राष्ट्रकूट शासकों की कलात्मक उपलब्धियों के प्रमाण उनके द्वारा एलोरा, एलिफेंटा (आधुनिक महाराष्ट्र) और पट्टडकल (कर्नाटक) में बनवाये गये भव्य देवालय एवं गुहामंदिर हैं, जो यूनेस्को की विश्व-धरोहर स्थलों की सूची में शामिल हैं। वास्तुकला के क्षेत्र में कृष्ण प्रथम द्वारा बनवाया गया एलोरा का कैलाशनाथ मंदिर द्रविड़ शैली का उत्कृष्ट उदाहरण है, जो एक ही पत्थर को काटकर बनाया गया है।
इस राजवंश के शासकों ने संस्कृत के साथ-साथ कन्नड़ भाषा के विकास को भी प्रोत्साहन दिया, जिसके परिणामस्वरूप जैन गणितज्ञों और विद्वानों ने कन्नड़ और संस्कृत भाषा में कई महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की। कन्नड़ साहित्य के त्रिरत्न पंपा, पोंन्न, रन्न थे, जिनमें से प्रथम दो विद्वानों का संरक्षक कृष्ण तृतीय ही था। इस राजवंश के प्रसिद्ध शासक अमोघवर्ष प्रथम ने स्वयं ‘कविराजमार्ग’ की रचना की, जो कन्नड़ भाषा का एक ऐतिहासिक दस्तावेज है।
यद्यपि इस राजवंश के आरंभिक नरेश शिव और विष्णु के उपासक थे, किंतु बाद के अमोघवर्ष जैसे राजाओं ने जैन धर्म को भी प्रश्रय प्रदान किया। राष्ट्रकूट शासक अन्य संप्रदायों के प्रति भी पूर्णतया उदार थे। इस राजवंश के राजाओं ने अपने राज्य में मुसलमान व्यापारियों को बसने तथा इस्लाम के प्रचार के स्वीकृति दी। इस सहिष्णुता की नीति से विदेशी व्यापार को प्रोत्साहन मिला, जिससे राष्ट्रकूट साम्राज्य में समृद्धि आई। अरब व्यापारी सुलेमान के अनुसार राष्ट्रकूट अमोघवर्ष (बल्हर) का साम्राज्य तत्कालीन विश्व के चार प्रमुख साम्राज्यों में एक था। विश्व के तीन अन्य प्रमुख साम्राज्य बगदाद के खलीफा, चीन के शासक और रोम के शासक के थे।
ऐतिहासिक स्रोत
राष्ट्रकूट राजवंश के इतिहास-निर्माण में अभिलेखों, संस्कृत एवं कन्नड़ भाषा के समकालीन ग्रंथों और अरब यात्रियों के विवरणों से सहायता मिलती है। राष्ट्रकूट शासकों द्वारा खुदवाये गये अनेक अभिलेख और दानपत्र भारत के विभिन्न भागों से पाये गये हैं। राष्ट्रकूटों के लेखों तथा दानपत्रों में दंतिदुर्ग के एलोरा तथा समनदगढ़ के ताम्रपत्राभिलेख, गोविंद तृतीय के राधनपुर, वनी डिंडोरी तथा बड़ौदा के लेख, अमोघवर्ष प्रथम का संजन अभिलेख, इंद्र तृतीय का कमलपुर अभिलेख, गोविंद चतुर्थ के काम्बे तथा सांगली के लेख और कृष्ण तृतीय के करहद तथा देवली लेख ऐतिहासिक दृष्टि से विशेष उपयोगी हैं। अधिकांश लेख तिथियुक्त हैं। इन लेखों से राष्ट्रकूट राजाओं की वंशावली, उनके सैनिक अभियान, धार्मिक अभिरुचि, शासन-व्यवस्था आदि की जानकारी मिलती है। इसके अतिरिक्त, समकालीन राजवंशों, जैसे- प्रतिहारों, पालों, चालुक्यों, चोलों, चेदियों के लेखों से भी राष्ट्रकूटकालीन इतिहास पर प्रकाश पड़ता है।
राष्ट्रकूटों के शासनकाल में पालि, कन्नड़ और संस्कृत भाषा में अनेक ग्रंथों की रचना हुई थी। तत्कालीन प्रमुख ग्रंथों में जिनसेन के ‘आदिपुराण’, महावीराचार्य के ‘गणितसारसंग्रहण’, अमोघवर्ष के ‘कविराजमार्ग’ ऐतिहासिक दृष्टि से विशेष उपयोगी हैं। इन रचनाओं से तत्कालीन समाज और संस्कृति के संबंध में अनेक महत्वपूर्ण सूचनाएँ मिलती हैं।
इसके अलावा, भारत आने वाले अरब यात्रियों, जैसे- सुलेमान (851 ई.), अलमसूदी (944 ई.) और इब्न खुर्ददबा (912 ई.) के विवरणों से भी तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन पर प्रकाश पड़ता है। मुस्लिम इतिहासकारों ने राष्ट्रकूटों की ‘वल्लभ’ उपाधि के स्थान पर ‘बल्हर’ शब्द का प्रयोग किया है। अरब यात्रियों ने राष्ट्रकूट साम्राज्य की गणना दुनिया के तत्कालीन चार महान् साम्राज्यों में की है।
राष्ट्रकूटों की उत्पत्ति
प्राचीन भारत के अन्य राजवंशों की भाँति दक्षिण भारत के इस ख्यातिनामा राजवंश की उत्पत्ति तथा मूल निवास-स्थान के संबंध में विवाद है। कुछ राष्ट्रकूट लेखों में इस राजवंश को ‘रट्ट’ कहा गया है। अमोघवर्ष के सिरूर लेख में इस वंश को ‘रट्टकुल से उत्पन्न’ बताया गया है। इंद्र तृतीय के नौसारी लेख के अनुसार अमोघवर्ष ने रट्टकुल लक्ष्मी का उद्धार किया था।
कृष्ण तृतीय के करहद तथा देवली लेखों में राष्ट्रकूटों को तुंग का वंशज बताया गया है और यह कहा गया है कि राष्ट्रकूट आदिपुरुष ‘रट्ट’ का पुत्र था। वर्धा ताम्रपत्रों में राष्ट्रकूटों का संबंध राजकुमारी रट्टा से जोड़ा गया है। राष्ट्रकूट इसी का पुत्र था।
कुछ राष्ट्रकूट लेखों में इन्हें ‘यदुवंशी’ कहा गया है। संजन अनुदानपत्र में राष्ट्रकूटों को साक्षात् कृष्णकुल (यादवान्वय) ही मान लिया गया है। वनि डिंडोरी ताम्र अनुदानपत्र से ज्ञात होता है कि जिस प्रकार मुरारी के जन्म से यदुवंशी अपराजेय हो गये थे, उसी प्रकार गोविंद तृतीय के जन्म से राष्ट्रकूट अपराजेय हो गये।
आर.जी. भंडारकार जैसे इतिहासकारों का सुझाव है कि राष्ट्रकूट वंश संभवतः तुंग परिवार से संबंधित था क्योंकि कृष्ण तृतीय के करहद तथा देवली लेखों में स्पष्ट कहा गया है कि इस कुल की उत्पत्ति तुंग से हुई थी। लेख में आदिपुरुष तुंग के पुत्र का नाम ‘रट्ट’ था। रट्ट के आधार पर ही इस वंश को राष्ट्रकूट कहा गया है।
किंतु अल्तेकर के अनुसार तुंग एवं रट्ट दोनों ही अनैतिहासिक हैं और इनके विषय में कोई जानकारी नहीं है। पुनः यदि राष्ट्रकूटों को उनसे उत्पन्न मान भी लें, तो भी उनकी उत्पत्ति और मूल-स्थान की समस्या का कोई समाधान नहीं होता।
जे.एफ. फ्लीट का विचार है कि राष्ट्रकूटों का संबंध राजपूताना-कन्नौज के राठौरों अथवा राठौड़ों से है क्योंकि ये शब्द राष्ट्रकूट शब्द से निष्पन्न हुए हैं। विश्वनाथ रेउ ने राष्ट्रकूटों को कन्नौज के गहड़वालों से संबंधित किया है क्योंकि सोलंकी शासक त्रिलोचनपाल के शक संवत् 972 के एक अभिलेख में कहा गया है कि सोलंकियों के आदिपुरुष का विवाह कन्नौज के राष्ट्रकूट शासक की पुत्री के साथ हुआ था।
किंतु दक्षिणापथ के राष्ट्रकूटों का कन्नौज के गहड़वालों अथवा राजपूताना के राठौरों से संबंधित कऱने का कोई ऐतिहासिंक आधार नहीं है। राठौरों तथा गहड़वालों का राजनीतिक उत्कर्ष राष्ट्रकूटों के पतन के बाद हुआ। गहड़वाल सूर्यवंशी क्षत्रिय थे और उनका गोत्र कश्यप था, जबकि राष्ट्रकूटों को चंद्रवंशी कहा गया है और उनका गोत्र गौतम था। इसके अलावा, गहड़वालों तथा राठौरों के अभिलेखों में उन्हें राष्ट्रकूट नहीं कहा गया है और न ही राष्ट्रकूट अभिलेखों में राष्ट्रकूटों के लिए गहड़वाल अथवा राठौर शब्द का प्रयोग मिलता है।
इस संबंध में डॉ. अल्तेकर का अनुमान है कि राठौर राष्ट्रकूटों के वंशज रहे होंगे। संभवतः ध्रुव प्रथम, गोविंद तृतीय, इंद्र तृतीय तथा कृष्ण तृतीय के उत्तर भारतीय अभियान के समय कुछ राष्ट्रकूट परिवार उत्तर में बस गये थे, जो कालांतर में राठौर नाम से प्रसिद्ध हुए। किंतु यह मत भी अंतिम रूप से स्वीकार्य नहीं है। यदि राठौर राष्ट्रकूटों के वंशज होते, तो वे अपना संबंध अपने पूर्वजों से अवश्य प्रदर्शित करते।
डॉ. बर्नेल ने माल्खेद के राष्ट्रकूटों की द्रविड़ उत्पत्ति को स्वीकार किया है और उनका संबंध आंध्र प्रदेश के रेड्डियों से बताया है। इनके अनुसार ‘राष्ट्र’ शब्द ‘रट्ट’ से बना है, जो तलगु अथवा कन्नड़ भाषा के ‘रेड्डी’ का समानार्थी है। इस प्रकार बर्नेल राष्ट्रकूटों को आंध्र के रेड्डियों से संबंधित करने का प्रयास करते हैं।
किंतु यह मत भी तर्कसंगत नहीं है। ‘राष्ट्रकूट’ शब्द ‘रेड्डि’ का तेलगु रूपांतर नहीं है। रेड्डियों की मूलभाषा तेलगु है और उनका मूलस्थान आंध्र प्रदेश है, और यह क्षेत्र अधिकांशतः राष्ट्रकूट साम्राज्य से बाहर रहा। राष्ट्रकूटों की मातृभाषा कन्नड़ थी और इनके प्राचीनतम् साक्ष्य मध्य भारत तथा बंबई प्रेसीडंसी के उत्तरी क्षेत्रों से मिले हैं, जबकि इन भागों से रेड्डि जाति के अस्तित्व का कोई प्रमाण नहीं मिला है। इसके अलावा, प्राचीन भारत में रेड्डियों का उल्लेख कृषक एवं व्यापारी के रूप में मिलता है और उनके सैनिक अभियानों का कोई संकेत नहीं है। इस प्रकार राष्ट्रकूटों को रेड्डियों का पूर्वज नहीं माना जा सकता है।
चिंतामणि विनायक वैद्य तथा एस.सी. नंदिमथ ने अशोक के अभिलेखों में वर्णित रठिकों का समीकरण राष्ट्रकूटों से किया है। इनके अनुसार माल्खेद के राष्ट्रकूट मराठी भाषा-भाषी परिवार के थे और आधुनिक मराठों के पूर्वज थे। किंतु अल्तेकर के अनुसार राष्ट्रकूटों की मातृभाषा कन्नड़ थी, न कि मराठी। इसलिए इन्हें महाराष्ट्र के स्थान पर किसी कन्नड़ क्षेत्र से ही संबद्ध किया जाना चाहिए।
ए.एस. अल्तेकर, नीलकंठ शास्त्री, एच.सी. रे, ए.के. मजूमदार जैसे अधिकांश इतिहासकार मानते हैं कि ‘राष्ट्रकूट’ शब्द किसी जाति अथवा कबीले का बोधक न होकर पद का बोधक है। अल्तेकर के अनुसार ‘रट्ट’ अथवा ‘राष्ट्रकूट’ प्राचीन रथिकों या रठियों की संतान हैं, जो अशोक के समय से सामंतों के रूप में छोटे-छोटे प्रदेशों पर शासन कर रहे थे। अशोक के लेखों में रथिकों या रठिकों को पश्चिम का निवासी बताया गया है, जिससे पता चलता है कि ये लोग महाराष्ट्र तथा बरार के प्रदेशों में भी रहते थे। रानी नायनिका के नानाघाट लेख में महारठी त्रनकयिर का उल्लेख मिलता है। इस समय रथिक नाम से अनेक सामंतों के शासन करने की सूचना मिलती है। खारवेल ने अपने पश्चिमी अभियान में रथिकों और भोजकों को पराजित किया था। अल्तेकर के अनुसार रथिकों तथा महारठियों के महाराष्ट्र के साथ-साथ कर्नाटक में भी शासन करने के प्रमाण मिलते हैं। कुछ महारठी परिवार कन्नड परिवार से घनिष्ठ रूप से संबंधित थे।
अल्तेकर के अनुसार रथि, महारथी, रथिक, राष्ट्रीय, राष्ट्रपति, राष्ट्रकूट शब्द किसी जाति या कबीले के बोधक नहीं, प्रत्युत् राजनीतिक एवं प्रशासनिक महत्व के हैं। प्राचीन काल में राज्य का विभाजन राष्ट्र में होता था। ग्राम का अधिकारी ग्रामकूट तथा राष्ट्र का अधिकारी राष्ट्रकूट कहा जाता था। सातवीं तथा आठवीं शताब्दी के दकन के लेखों में दान देते समय राष्ट्रपतियों तथा राष्ट्रकूटों को यह निर्देश दिया गया है कि वे दानग्रहीताओं के भोग में किसी प्रकार का हस्तक्षेप न करें। इस प्रकार अल्तेकर राष्ट्रकूटों को महारठियों या रठियों की ही संतान मानते हुए इन्हें कर्नाटक का मूल निवासी मानते हैं।
नीलकंठ शास्त्री भी मानते हैं कि राष्ट्रकूट का अर्थ राष्ट्र, भाग अथवा राज्य का स्वामी है और राष्ट्रकूट वंश के शासक इसी अधिकारी वर्ग से संबंधित थे। किंतु शास्त्री अल्तेकर का यह सुझाव नहीं मानते हैं कि राष्ट्रकूट अशोक के लेखों में उल्लिखित रठिकों के वंशज थे। शास्त्री के अनुसार रठिक एक कबीला था और इसे राष्ट्रकूटों से संबंधित नहीं किया जा सकता।
इस प्रकार राष्ट्रकूट शब्द किसी जाति या कबीले का नहीं, प्रत्युत् पद का बोधक है। किंतु इससे राष्ट्रकूटों की जाति अथवा उनके कुल के निर्धारण में कोई सहायता नहीं मिलती। इससे मात्र यही अनुमान किया जा सकता है कि राष्ट्रकूटों का संबंध किसी अभिजात कुल से रहा होगा, क्योंकि इन पदों पर प्रायः इन्हीं की नियुक्ति की जाती थी।
प्राचीन भारत में वैश्यों, क्षत्रियों और ब्राह्मणों की गणना द्विजों में की गई है, इसलिए राष्ट्रकूट इन्हीं में से किसी वर्ण से संबंधित रहे होंगे। राष्ट्रकूट ब्राह्मण या वैश्य नहीं थे क्योंकि इस प्रकार की संभावना का किसी भी साक्ष्य से कोई संकेत या समर्थन नहीं मिलता है।
लेखों में राष्ट्रकूटों को ‘यादवान्वय’ अथवा ‘चंद्रवंशीय क्षत्रिय’ कहा गया है। राष्ट्रकूटों के क्षत्रिय होने की संभावना का समर्थन अन्य उपलब्ध ऐतिहासिक साक्ष्यों से भी होता है। शक संवत् 836 के एक अभिलेख में कहा गया है कि दंतिदुर्ग का जन्म यदुवंश की सात्यकि शाखा में हुआ था-
तत्रान्वये विततसात्यकि वंश जन्मा।
श्रीदन्तिदुर्ग नृपतिः पुरुषोतमो भूत।
इसी प्रकार गोविंद तृतीय के 808 ई. के वनि डिंडोरी अभिलेख में कहा गया है कि जिस प्रकार मुरारि (कृष्ण) के जन्म से यदुवंशीय अपराजेय हो गये, उसी प्रकार गोविंद तृतीय के जन्म से राष्ट्रकूट अपराजेय हो गये-
यस्मिन्सर्वगुणाश्रये क्षितिपतौ श्रीराष्ट्रकूटान्वयो,
जाते यादववंशवन्मधुरिपावासीदलन्ध्यः परैः।।
871 ई. के संजन दानपत्र में राष्ट्रकूटों को साक्षात् कृष्णकुल (यादवान्वय) का मानते हुए भगवान वीरनारायण का वंशज बताया गया है-
अनन्तभोगस्थितिरत्र पातु वः, प्रतापशील प्रभवोदयाचलः,
सुराष्ट्रकूटोच्छ्तिवंश पूर्वजः स वीरनारायण एव यो विभुः।।
तदीय वीर्य्यायतयादवान्वये, क्रमेण वार्द्धाविव रत्नसंचयः,
वभूव गोविन्द महीप्रति र्भुवः प्रसाधनो पृच्छकराजनन्दनः।।
लेखों से स्पष्ट है कि राष्ट्रकूट वंश यदुवंश से भिन्न था। दिनेशचंद्र सरकार का विचार है कि वनि डिंडोरी लेख में इस वंश की यदु-कुल से तुलना केवल इसलिए संभव हुई कि राष्ट्रकूट शासक का नाम गोविंद था, जो वासुदेव कृष्ण का ही दूसरा नाम था। ऐसा इसलिए भी हुआ क्योंकि वैष्णव नरेश प्रायः अपने-आपको विष्णु रूप में कृष्ण का अवतार मानते थे।
भगवानलाल इंद्रजी का अनुमान है कि राष्ट्रकूटों को यदुवंश से संबंधित करने का सिद्धांत 930 ई. से शुरू हुआ, जब राष्ट्रकूटों ने सिंह के स्थान पर विष्णु के वाहन गरुड़ को राजचिन्ह के रूप में स्वीकार कर लिया। किंतु उल्लेखनीय है कि सिंह मानपुर के राष्ट्रकूटों का राजचिन्ह था, न कि मान्यखेट के राष्ट्रकूटों का। राष्ट्रकूटों के प्रारंभिक मुहरों एवं दानपत्रों में गरुड़ का चिन्ह मिलता है। कुछ परवर्ती लेखों में आसीनस्थ शिव का प्रतीक भी मिलता है, लेकिन सिंह का नहीं। यही नहीं, राष्ट्रकूटों के यदुवंशी होने का प्रमाण 871 ई. के संजन दानपत्रों और 808 ई. के वनि डिंडोरी दानपत्रों से ही मिलने लगता है। इस प्रकार राष्ट्रकूट चाहे यदुवंशी रहे हो या चंद्रवंशीय, इतना लगभग निश्चित है कि वे क्षत्रिय थे।
राष्ट्रकूटों के क्षत्रिय होने की पुष्टि इनके वैवाहिक संबंधों से भी होती है। राष्ट्रकूट नरेश दंतिदुर्ग ने अपनी पुत्री रेवा का विवाह नंदिवर्मन् पल्लवमल्ल के साथ किया था। राष्ट्रकूट शासक परबल की पुत्री रट्टादेवी पाल शासक धर्मपाल से ब्याही गई थी। कृष्ण द्वितीय ने अपनी पुत्री का विवाह चोल आदित्य प्रथम के साथ किया था। पल्लव, पाल तथा चोल सभी क्षत्रिय थे, इसलिए राष्ट्रकूट भी क्षत्रिय रहे होंगे।
राष्ट्रकूटों के अपने विवाह भी क्षत्रिय कुलों में ही हुए थे। गोविंद द्वितीय के भाई ध्रुव का विवाह वेंगी के शासक विष्णुवर्धन चतुर्थ की पुत्री शीलभट्टारिका से हुआ था। चेदि शासक कोक्कलदेव प्रथम की पुत्री महादेवी कृष्ण द्वितीय के साथ ब्याही गई थी। इसके पुत्र जगत्तुंग का विवाह चेदि शंकरगण की पुत्री लक्ष्मी के साथ हुआ था। इंद्र ने अपना विवाह कलचुरि शासक अम्मणदेव (अनंगदेव) की पुत्री बीजाम्बा के साथ किया था। अमोघवर्ष तृतीय की रानी कलचुरि शासक दुबराज प्रथम की पुत्री कुंडक देवी थी। वेंगि, चेदि एवं कलचुरि कुलों को सामान्यतः क्षत्रिय माना जाता है। इस प्रकार राष्ट्रकूटों को क्षत्रिय माना जाना चाहिए।
राष्ट्रकूटों का मूल-स्थान
राष्ट्रकूटों का साम्राज्य मुख्यतः महाराष्ट्र के आसपास के क्षेत्रों में फैला हुआ था। इनके अधिकांश लेख यहीं से मिले हैं और इनके प्रधान शाखा की राजधानी मान्यखेट (माल्खेद) भी इसी क्षेत्र में स्थित है। इस आधार पर सी.वी. वैद्य तथा आर.जी. भंडारकर जैसे विद्वानों ने महाराष्ट्र को राष्ट्रकूटों का मूल निवास-स्थान स्वीकार कर लिया। भंडारकर के अनुसार महाराष्ट्र महारठी का पर्याय है। वैद्य ने तो राष्ट्रकूटों को आर्यों का सेनापति बताया है, जिन्होंने महाराष्ट्र को अधिकृत किया था।
किंतु महाराष्ट्र को राष्ट्रकूटों का मूल निवास-स्थान नही माना जा सकता। आर.जी. भंडारकर का यह मत कि महाराष्ट्र महारठी का पर्याय है, ठीक नहीं है। महारठी नामक किसी जनजाति अथवा प्रजाति का कोई उल्लेख प्राचीन साहित्य में नहीं मिलता। राष्ट्रकूटों की मातृभाषा कन्नड थी और राष्ट्रकूट शासकों के संरक्षण में कन्नड साहित्य का पूर्ण विकास हुआ। राष्ट्रकूटों की मुख्य शाखा के साथ-साथ इनकी लघुशाखाओं के अभिलेख भी अधिकतर कन्नड़ भाषा में ही हैं। यदि राष्ट्रकूटों का मूलस्थान महाराष्ट्र होता, तो दक्षिणी गुजरात में शासन करने वाले राष्ट्रकूट ऐसी भाषा का प्रयोग कभी न करते, जो न तो दक्षिणी गुजरात में प्रचलित थी और न महाराष्ट्र में, बल्कि कर्नाटक में प्रचलित थी। बुंदेलखंड से प्राप्त कृष्ण तृतीय के जूरा लेख में प्रयुक्त कन्नड भाषा राष्ट्रकूटों का संबंध कर्नाटक से सिद्ध करती है। इसलिए राष्ट्रकूटों को महाराष्ट्र का मूल निवासी नहीं माना जा सकता है।
सामान्तया जिन रठी या महारठी परिवारों से राष्ट्रकूटों के विकास का अनुमान लगाया जाता है, उनका अस्तित्व तृतीय शती पहले से कर्नाटक में प्रमाणित होता है। मैसूर में चित्तलदुर्ग के निकट से ‘सादकनि कललाय महारठि’ विरूदयुक्त सिक्के मिले हैं। धर्ममहाराजाधिराज शिवस्कंदवर्मन् के हीरहडगल्ली दानपत्र में रठिकों का भी उल्लेख मिलता है। अनेक महारठी परिवार कन्नड़ परिवार से संबंधित थे। कन्हेरी लेख की नागमूलनिका एक महारठी से विवाहित थी, जो स्वयं एक कन्नड शासक की पुत्री थी। कर्नाटक में इनके लेख मिलने से उन्हें मात्र महाराष्ट्र में सीमित नहीं किया जा सकता।
राष्ट्रकूटों के इनके अधिकांश लेखों में ‘लट्टलूरपुरवराधीश’ (सर्वोत्तम नगर लट्टलूर का स्वामी) कहा गया है। अल्तेकर के अनुसार सौंदत्ति के रट्ट के कुछ लेखों में इसके स्थान पर ‘लट्टलूरापुरवराधिश’ (लट्टलूर के प्रवासी) पद प्रयुक्त किया गया है। इससे पता चलता है कि राष्ट्रकूट लट्टलूर के मूल निवासी थे। लट्टलूर का समीकरण पहले फ्लीट ने मध्यप्रदेश के बिलासपुर जिले के रतनपुर से किया था। बाद में फ्लीट ने अपने मत को संशोधित करते हुए सुझाव दिया कि लट्टलूर की पहचान हैदराबाद रियासत के लाटूर नामक स्थान से की जानी चाहिए। नंदिमथ का विचार है कि यह स्थान पहले कर्नाटक राज्य में शामिल था। अल्तेकर भी मानते हैं कि लट्टलूर पहले कन्न्ड़ भाषा-भाषी क्षेत्रों (कर्नाटक राज्य) में सम्मिलित था क्योंकि राष्ट्रकूटों की भाषा भी कन्नड़ थी और उन्होंने कन्नड़ भाषा को राजाश्रय प्रदान किया।
अल्तेकर के अनुसार दुर्गराज, गांविंदराज तथा स्वामिकराज बादामी के चालुक्यों के अधीन जिलों के शासक थे। स्वामिकराज का पुत्र नन्नराज लट्ठलूर (वर्तमान महाराष्ट्र का लाटूर जिला) से बरार चला आया और अचलपुर (एलिचपुर) में चालुक्यों के अधीन सामंत के रूप में शासन करने लगा। ए.के. मजूमदार भी मानते हैं कि लट्ठलूर से राष्ट्रकूटों का कुल बरार में अचलपुर (एलिचपुर) आया और अपना एक छोटा-सा राज्य स्थापित कर बादामी के चालुक्यों के अधीन शासन कर रहे थे। बाद में इन्हें महाराष्ट्र का निवासी मान लिया गया। इस प्रकार दंतिदुर्ग के पूर्वजों को लट्ठलूर से आया हुआ मान लेने पर इनकी मातृभाषा के कन्नड़ होने में कोई अस्वाभाविकता नहीं है।
राष्ट्रकूटों की आरंभिक राजधानी
राष्ट्रकूटों की आरंभिक राजधानी कहाँ थी, इस संबंध में कोई स्पष्ट सूचना नहीं है। कथाकोश में शुभतुंग को, जो कृष्ण प्रथम की उपाधि थी, माल्खेद का शासक बताया गया है। इस आधार पर कुछ इतिहासकारों का सुझाव है कि मान्यखेट आरंभ से ही राष्ट्रकूटों की राजधानी थी। किंतु कृष्ण द्वितीय को भी शुभतुंग की उपाधि से विभूषित किया गया है, इसलिए कृष्ण प्रथम को माल्खेद या मान्यखेट का संस्थापक मानना संदिग्ध है।
कर्क द्वितीय के दानपत्रों में स्पष्ट कहा गया है कि सर्वप्रथम अमोघवर्ष प्रथम ने मान्यखेट को राष्ट्रकूटों की राजधानी बनाया था। इस प्रकार स्पष्ट है कि अमोघवर्ष प्रथम के पहले राष्ट्रकूटों की राजधानी मान्यखेट के अलावा कहीं और थी।
कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि नासिक जिले में स्थित मयूरखिंडि या मारेखिंड दुर्ग ही आरंभिक राष्ट्रकूटों की राजधानी थी क्योंकि वांनि डिंडोरी दानपत्र इसी स्थान से जारी किया गया था। किंतु लेख में प्रयुक्त ‘मयूरखिंडीशमा वासितेनमया’ पद से ज्ञात होता है कि इस दानपत्र के जारी करने के समय गोविंद तृतीय यहाँ अस्थायी शिविर में ठहरा हुआ था। इसलिए मयूरखिंडि एक अस्थायी सैनिक शिविर था, राजधानी नहीं। इसी प्रकार नासिक को भी इनकी प्रारंभिक राजधानी नहीं माना जा सकता है क्योंकि धुलिया तथा पिप्पेरी अनुदानपत्रों में नासिक को वायसराय का केंद्र बताया गया है।
संभवतः राष्ट्रकूटों की आरंभिक राजधानी एलोरा के निकट सोलोबंजुन में स्थित थी क्योंकि इस स्थल से कुछ पुरातात्विक अवशेष और एक विशाल जलाशय के प्रमाण मिले हैं।
अल्तेकर के अनुसार बरार में एलिचपुर आरंभिक राष्ट्रकूटों की राजधानी रही होगी। किंतु राष्ट्रकूट इतिहास में एलिचपुर कभी सत्ता का सुदृढ़ केंद्र नहीं रहा। संभव है कि दंतिदुर्ग ने एलिचपुर के स्थान पर किसी दूसरे नगर को साम्राज्य का केंद्र बनाया रहा हो।
राष्ट्रकूटों की शाखाएँ
मानपुर अथवा मान्यपुर की शाखा
ईसा की छठीं तथा सातवीं शताब्दियों में दक्षिणापथ के विभिन्न भागों में राष्ट्रकूटों के कई सामंत कुल अस्तित्व में थे। इनमें एक सामंत शासक मानपुर अथवा मान्यपुर का अभिमन्यु था। इसकी जानकारी उंडिवाटिका अनुदानपत्र से मिलती है। यद्यपि यह लेख अतिथित है, लेकिन पुरालिपिशास्त्रीय प्रमाण के आधार पर इसे सातवीं शती ईस्वी का माना जाता है।
अनुदानपत्र में दी गई वंशावली के अनुसार अभिमन्यु मानांक का प्रपौत्र, देवराज का पौत्र तथा भविष्य का पुत्र था। मानपुर के समीकरण के संबंध में विद्वान् एक मत नहीं हैं। कुछ विद्वानों का विचार है कि मान्यपुर मध्य प्रदेश के रीवां के अंतर्गत बंधोगढ़ के निकट स्थित मानपुर है। कुछ अन्य लोगों की मान्यता है कि अभिमन्यु के पूर्वज मानांक तथा देवराज दक्षिणी कोशल के शरभपुर के मानमात्र तथा उसके पुत्र सुदेवराज से अभिन्न थे। किंतु डी.सी. सरकार के अनुसार शरभपुर के किसी राजा ने राष्ट्रकूट होने का दावा नहीं किया। दोनों परिवार दो भिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न राजधानियों से शासन कर रहे थे। शरभपुर के शासकों की मुहरों पर गजलक्ष्मी का प्रतीक मिलता है, जबकि मान्यपुर के राष्ट्रकूटों की मुहरों पर सिंह का। इसके साथ ही सरभपुर के शासकों के अनुदानपत्र डिब्बानुमा शीर्षरेखा वाली लिपि में लिखे गये थे, जबकि मान्यपुर के शासकों के अनुदानपत्र ऐसे नहीं थे।
दिनेशचंद्र सरकार का मानना है कि मानांक के पौत्र अविधेय द्वारा जारी एक अनुदान पत्र कोल्हापुर के समीप मानपुर से मिला है। इससे अनुमान किया जा सकता है कि मानपुर का परिवार मराठा देश के दक्षिणी भाग में शासन करता था। वी.वी. मिराशी मानपुर की पहचान सतारा जिले के मान से करते हैं। एच.सी. रे के अनुसार मानपुर का परिवार नर्मदा घाटी में म्हो से लेकर पंचमढ़ी तक शासन कर रहा था।
मानांक
मानपुर शाखा का पहला ज्ञात शासक मानांक था। उंडिवाटिका अनुदान पत्र में इसे राष्ट्रकूटों का आभूषण बताया गया है। इस आधार पर डी.सी. सरकार का अनुमान है कि शायद यह किसी राष्ट्रकूट या अन्य राजा का प्रांतीय शासक था। किंतु यह किसके अधीन था, स्पष्टतः ज्ञात नहीं है। इसके पौत्र अविधेय के पांडुरंगवल्ली अनुदानपत्र में मानांक को विदर्भ तथा अश्मक की विजयों का श्रेय दिया गया है। मानांक को कुंतल (जिसकी समता कन्नड़ के कदंबों से की गई है) का विजेता भी कहा गया है।
मानांक के बाद उसके बेटे देवराज ने शासन किया। इसके विषय में भी अधिक ज्ञात नहीं है। इसके दो पुत्रों भविष्य तथा अविधेय के संबंध में सूचना मिलती है। अविधेय ने अपने पिता अथवा भाई भविष्य अथवा भतीजे अभिमन्यु में से किसके बाद शासन किया, स्पष्टतः ज्ञात नहीं है।
अभिमन्यु के विषय में अपेक्षाकृत अधिक सूचनाएँ हैं। इसने हरिवत्स के दुर्ग के नायक जयसिंह की उपस्थिति में उंडिवाटिका गाँव भगवान शिव के सम्मान में शैव तपस्वी जटाभार को दान दिया था। दिनेशचंद्र सरकार की मान्यता है कि शायद मानपुर के शासकों को मौर्यों (कोंकण के) अथवा नलों ने पराजित किया, जिन्हें आगे चलकर प्रारंभिक चालुक्यों ने हराया।
लाट की राष्ट्रकूट शाखा
कर्कराज द्वितीय के 757 ई. के अंतरोली-छरोली अनुदानपत्र, जो गरुड़ांकित है, से लाट पर शासन करने वाले एक अन्य राष्ट्रकूट कुल का पता चलता है। इसमें कर्कराज के पहले के तीन शासकों गोविंद (पिता), ध्रुव (पितामह) और कर्कराज प्रथम (प्रपितामह) का उल्लेख मिलता है। अंतरोली-छरोली की पहचान सूरत के उत्तर-पूर्व स्थित स्थावरपल्लिका से की गई है। इससे लगता है कि कर्कराज द्वितीय सूरत एवं भड़ौच के प्रदेशों पर शासन कर रहा था।
कर्क द्वितीय दंतिदुर्ग का समकालीन था। दोनों परिवारों में क्या संबंध थे, स्पष्टतः ज्ञात नहीं है। डी.आर. भंडारकर कर्क एवं गोविंद को दंतिदुर्ग शाखा के इंद्र प्रथम का पिता एवं पितामह स्वीकार करते हैं।
चालुक्य विक्रमादित्य द्वितीय के नरवन अनुदानपत्रों से पता चलता है कि राष्ट्रकूट शिवराज के पुत्र गोविंदराज के अनुग्रह पर उसने नरवर गाँव ब्राह्मणों को दान में दिया था। इस गोविंदराज को अंतरोली-छरोली अनुदानपत्र के गोविंद से समीकृत करने का प्रयास किया गया है, किंतु यह उचित नहीं है क्योंकि दोनों लेखों में गोविंद के पिता का नाम भिन्न है। अंतरोली-छरोली लेख में गोविंद के पिता का नाम ध्रुव है, जबकि नरवन पत्रों में उल्लिखित गोविंदराज का पिता शिवराज था।
बेतूल-एलिचपुर के राष्ट्रकूट
छठीं तथा सातवीं शताब्दियों में एक राष्ट्रकूट परिवार आधुनिक बेतूल-एलिचपुर क्षेत्र में शासन कर रहा था। मध्य प्रदेश के बेतुल जिले के तिवरखेड (शक संवत् 553=631 ई.) तथा मुल्ताई (शक संवत् 631=709 ई.) अनुदानपत्रों में इस राष्ट्रकूट परिवार के चार शासकों का उल्लेख है। इन दोनों अनुदानपत्रों को नन्नराज ने जारी किया था। तिवरखेड तथा मुल्ताई अनुदानपत्रों में राष्ट्रकूट राजाओं का वंशानुक्रम इस प्रकार मिलता है- दुर्गराज, गोविंदराज, स्वामिकराज और नन्नराज। इस प्रकार नन्नराज दुर्गराज का प्रपौत्र, गोविंदराज का पौत्र एवं स्वामिकराज का पुत्र था। अल्तेकर के अनुसार दुर्गराज, गोविंदराज तथा स्वामिकराज ने आनुमानतः 570 से 630 ई. तक शासन किया।
नन्नराज
नन्नराज ने संभवतः 630 ई. में शासन ग्रहण किया था। वह अपने पूर्वजों की तुलना में अधिक शक्तिशाली था। इस तथ्य की पुष्टि उसके ‘युद्धसूर’ तथा ‘पंचमहाशब्द’ की उपाधि एवं उसके अभिलेखों के प्राप्ति स्थानों से हो जाती है। नन्नराज की प्रारंभिक ज्ञात तिथि उसके तिवरखेड अनुदानपत्र में 631-32 ई. मिलती है और उसकी अंतिम ज्ञात तिथि मुल्ताई अनुदानपत्र की 709-10 ई. है। इससे लगता है कि उसने कम से कम 78 वर्ष (630 ई. से 708 ई.) तक शासन किया था।
अल्तेकर के अनुसार आरंभिक राष्ट्रकूट शासक लट्टलूर (वर्तमान लाटूर) के मूलनिवासी थे जो नन्नराज के समय में लट्टलूर से बरार चले गये और वहाँ बादामी के चालुक्यों के अधीन शासन करने लगे।
मान्यखेट के राष्ट्रकूट (दंतिदुर्ग शाखा)
एलिचपुर के राष्ट्रकूटों के परिवार की एक दूसरी शाखा सातवीं शताब्दी ईस्वी के मध्य में उत्तरी दक्षिणापथ में विद्यमान थी। आठवीं शताब्दी ईस्वी के मध्यकाल में दंतिदुर्ग की इस शाखा, जिसे बाद में मान्यखेट की राष्ट्रकूट शाखा के नाम से प्रसिद्धि मिली, ने चालुक्यो की अधिसत्ता को चुनौती देकर स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। इस शाखा को मान्यखेट अथवा माल्खेद की राष्ट्रकूट शाखा भी कहा जाता है, क्योंकि मान्यखेट इनकी राजधानी थी। राष्ट्रकूट शासक अमोघवर्ष प्रथम के समय मान्यखेट को राष्ट्रकूटों की राजधानी बनने का सौभाग्य मिला।
मान्यखेट के आरंभिक शासक
दंतिवर्मा प्रथम
मान्यखेट के राष्ट्रकूटों का वास्तविक संस्थापक दंतिदुर्ग (735-755 ई.) था। किंतु इसके पूर्व शासन करने वाले राष्ट्रकूट शासकों का इतिहास तिमिराच्छादित है। दंतिदुर्ग के अभिलेखों में सामान्यतः इसके पूर्वजों की तीन पीढ़ियों का उल्लेख मिलता है। किंतु एलोरा के दशावतार गुहा में उत्कीर्ण लेख में दंतिदुर्ग के पाँच पूर्वजों क्रमशः इंद्र द्वितीय, कर्क प्रथम, गोविंदराज, इंद्र पृच्छकराज एवं दंतिवर्मा का नाम उल्लिखित है। इस प्रकार दंतिदुर्ग शाखा का प्रथम शासक दंतिवर्मा प्रतीत होता है।
प्रथम सातवीं शताब्दी के मध्य के लगभग उत्तरी दक्षिणापथ में दंतिवर्मा प्रथम राज्य कर रहा था। एलिचपुर के राष्ट्रकूट शासक नन्नराज युद्धसूर से दंतिदुर्ग के क्या संबंध थे, स्पष्टतः ज्ञात नहीं है। यह संभवतः नन्नराज का पुत्र या भाई था।
दंतिवर्मा भी संभवतः बादामी के चालुक्यों की अधीनता में शासन करता था। इसकी मृत्यु के लगभग 80 वर्ष बाद जारी किये गये दशावतार गुहालेख में इसकी परंपरागत प्रशस्ति मिलती है और उसे ‘पंचमहाशब्दाधिगत’ कहा गया है। इसका शासनकाल 650-670 ई. के लगभग माना जा सकता है।
इंद्र पृच्छकराज एवं गोविंदराज
दशावतार लेख में दंतिवर्मा के बाद इसके पुत्र इंद्र पृच्छकराज तथा पौत्र गोविंदराज का नाम मिलता है। लेख से पता चलता है कि इंद्र वीर शासक था और यज्ञों में श्रद्धा रखता था। इसने संभवतः 670-690 ई. के लगभग तक शासन किया।
गोविंदराज को वीरनारायण के नाम से भी जाना जाता था। कर्कराज सुवर्णवर्ष के 812 ई. के बड़ौदा दानपत्र से लगता है कि वह शिव का परम भक्त था। आर.जी. भंडारकर उसका समीकरण गोविंद नामक शासक से करते हैं, जिसे पुलकेशिन द्वितीय ने भीमा नदी के उत्तर में पराजित किया था। किंतु इस मत से सहमत होना कठिन है। गोविंदराज ने लगभग 690 से 700 ई. तक राज्य किया।
कर्कराज
गोविंदराज के बाद उसका पुत्र कर्कराज 700 ई. के आसपास राजा हुआ। दशावतार अभिलेख के अनुसार उसका नाम सुनते ही उसके शत्रुओं की स्त्रियों के नेत्र अश्रुपूर्ण हो जाते थे और उनकी कलाइयों से वलय गिरने लगते थे। विष्णु के उपासक कर्क ने वैदिक यज्ञ का संपादन किया था। इसने अनुमानतः पंद्रह वर्ष (700-715 ई.) तक शासन किया।
कर्कराज के तीन पुत्र थे- इंद्र, कृष्ण और नन्न (नन्नराज)। 757 ई. के अंतरोली-छरोली ताम्रपत्र के आधार पर कुछ इतिहासकार ध्रुव को भी कर्क का पुत्र मान लेते हैं। कर्कराज के पुत्रों में इंद्र ज्येष्ठ होने के कारण कर्क का उत्तराधिकारी हुआ।
इंद्र प्रथम
आरंभिक राष्ट्रकूट शासकों में इंद्र प्रथम सबसे अधिक महत्वाकांक्षी एवं योग्य था। यद्यपि इंद्र प्रथम भी वातापी के चालुक्य शासक विजयादित्य द्वितीय का सामंत था, लेकिन उसने अपने बाहुबल एवं योग्यता के बल पर उत्तर की ओर अपने राज्य का विस्तार किया और मध्य भारत के मराठी भाषा-भाषी क्षेत्र पर अधिकार कर लिया।
अमोघवर्ष प्रथम के संजन दानपत्रों से ज्ञात होता है कि इंद्रराज ने खेटक (गुजरात में कैरा नामक स्थान) में चालुक्य राजकुमारी भवनागा के साथ राक्षस-विवाह किया था–
इंद्रराजस्ततोग्रहातयश्चालुक्यनृपात्मजाम्।
राक्षसेन विवाहेन रणे खेटक-मण्डपे।।
भवनागा संभवतः लाट के चालुक्य सामंत मंगलेश विनयादित्य या उसके पुत्र पुलकेशिन् की पुत्री या भतीजी थी। कैरा संभवतः वल्लभी के मैत्रकों के अधीन था। लगता है कि चालुक्य राजकुमारी भवनागा का विवाह किसी मैत्रक राजकुमार के साथ निश्चित था, इसलिए कैरा में उसका स्वयंवर हो रहा था।
इंद्र एक शक्तिशाली शासक था और उसके पास अश्वारोहियों और गजारोहियों की विशाल सेना थी। फलतः उसने गुजरात के चालुक्यों एवं वल्लभी के मैत्रकों की अवहेलना करते हुए विवाह-मंडप से कन्या का अपहरण कर लिया। यह विवाह संभवतः 722 ई. के आसपास हुआ होगा। इंद्र का शासनकाल अनुमानतः 715 ई. से 735 ई. तक माना जाता है।
स्वतंत्र राष्ट्रकूट साम्राज्य की स्थापना
दंतिदुर्ग (735-756 ई.)
मान्यखेट के राष्ट्रकूट राजवश का वास्तविक संस्थापक दंतिदुर्ग को माना जाता है। यद्यपि दंतिदुर्ग भी आरंभ में बादामी के चालुक्य शासक विक्रमादित्य द्वितीय का सामंत था, किंतु उसने 753 ई. में चालुक्य नरेश कीर्तिवर्मन् को पराजित कर स्वतंत्र राष्ट्रकूट राज्य की स्थापना की। अधिक जानकारी के लिए पढ़ें
कृष्ण प्रथम (756-774 ई.)
दंतिदुर्ग के कोई पुत्र नहीं था, इसलिए उसके बाद उसका चाचा कृष्ण प्रथम 756 ई. के आसपास राष्ट्रकूट वंश का शासक बना। इसने मैसूर, वेंगी और कोंकण पर अपना अधिकार स्थापित किया और सभी दिशाओं में राष्ट्रकूट साम्राज्य का विस्तार किया। विश्व प्रसिद्ध एलोरा के कैलाशमंदिर का निर्माण कृष्ण प्रथम ने ही करवाया था। अधिक जानकारी के लिए पढ़ें
गोविंद द्वितीय (774-780 ई.)
कृष्ण प्रथम की मृत्यु के पश्चात् गोविंद 773-774 ई. के आसपास राष्ट्रकूट वंश की गद्दी पर बैठा। उसने अपने छोटे भाई ध्रुव को नासिक का राज्यपाल नियुक्त किया और स्वयं महाराजाधिराज, विक्रमावलोक, प्रभूतवर्ष, प्रतापावलोक एवं वल्लभ जैसी उपाधियाँ धारण की।
दौलताबाद अनुदानपत्र के अनुसार गोविंद द्वितीय (773-780 ई.) ने गोवर्द्धन का उद्धार किया और परिजात को पराजित किया था। गोवर्द्धन की स्थिति नासिक जिले में थी और परिजात संभवतः कोई स्थानीय शासक था। अल्तेकर के अनुसार ध्रुव नासिक एवं खानदेश का राज्यपाल था, इसलिए संभव है कि गोविंद ने गोवर्द्धन में अपने विद्रोही भाई ध्रुव को पराजित किया हो।
वास्तव में गोविंद ने युवराज के रूप में अपनी प्रशासनिक योग्यता एवं सैन्य-संचालन की क्षमता का अच्छा परिचय दिया था, किंतु लगता है कि राजा बनने के बाद उसने विलासितापूर्ण जीवन बिताना प्रारंभ कर दिया और प्रशासन का उत्तरदायित्व अपने भाई ध्रुव पर छोड़ दिया। ध्रुव योग्य तथा महत्वाकांक्षी था। उसने अपने भाई गोविंद की अकर्मण्यता का लाभ उठाकर उसके विरुद्ध विद्रोह कर दिया।
ध्रुव के विद्रोह को दबाने के लिए गोविंद ने राष्ट्रकूटों के पुराने शत्रुओं मालवा, गंगावाड़ी, वेंगी तथा कांची के शासकों से गठबंधन किया, जिससे गोविंद के मंत्री आदि भी उसका साथ छोड़कर ध्रुव के समर्थक हो गये। किंतु किसी शासक की सहायता मिलने से पहले ही ध्रुव ने गोविंद पर आक्रमण कर उसे पराजित कर दिया। गोविंद या तो युद्ध में मारा गया अथवा बंदी बना लिया गया।
कुछ इतिहासकारों के अनुसार गोविंद द्वितीय उदार एवं दूरदर्शी शासक था। वह अपनी दुर्बलता और ध्रुव की योग्यता से परिचित था। अतः उसने राज्य एवं प्रजा के हित में स्वयं राजसिंहासन त्याग दिया और ध्रुव को प्रशासन का संपूर्ण उत्तरदायित्व दे दिया। ध्रुव, गोविंद द्वितीय के प्रति सदैव निष्ठावान बना रहा। किंतु प्रामाणिक साक्ष्यों के अभाव में यह अनुमान मान्य नहीं है। गोविंद द्वितीय ने अनुमानतः एक वर्ष (773-780 ई.) तक शासन किया।
ध्रुव ‘धारावर्ष’ (780-793 ई.)
ध्रुव धारावर्ष ने संभवतः 780 ई. के आसपास अपने बड़े भाई गोविंद को हटाकर सिंहासन पर अधिकार किया था। ध्रुव राष्ट्रकूट वंश का पहला शासक था, जिसने उत्तर की राजनीति में हस्तक्षेप किया। उसने कन्नौज पर अधिकार करने के लिए त्रिपक्षीय संघर्ष में मालवा एवं राजपूताना के गुर्जर प्रतिहार नरेश वत्सराज और गौड़ (बंगाल) के पाल शासक धर्मपाल को पराजित किया। अधिक जानकारी के लिए पढ़ें
गोविंद तृतीय (793-814 ई.)
ध्रुव की मृत्यु के बाद उसका पुत्र गोविंद तृतीय 793 ई. के लगभग राजा हुआ। इस महत्वाकांक्षी नरेश ने उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में श्रीलंका तक और पश्चिम में सौराष्ट्र से लेकर पूरब में बंगाल तक के विस्तृत भूभाग में अपनी विजय पताका को फहराया। इसकी तुलना महाभारत के पार्थ (अर्जुन) तथा सिकंदर महान् से की गई है। अधिक जानकारी के लिए पढ़ें
शर्व ‘अमोघवर्ष’ प्रथम (814-878 ई.)
गोविंद तृतीय की मृत्यु के पश्चात् उसका उत्तराधिकारी पुत्र अमोघवर्ष प्रथम 814 ई. के आसपास राजा हुआ। अमोघवर्ष की रुचि युद्ध की अपेक्षा धर्म, विद्या, साहित्य और कला में अधिक थी। उसने कन्नड़ भाषा में ‘कविराजमार्ग’ और संस्कृत में ‘प्रश्नोत्तररत्नमालिका’ की रचना की। इसकी शांतिप्रियता के कारण इसे ‘दक्षिण का अशोक’ कहा जाता है। अधिक जानकारी के लिए पढ़ें
कृष्ण द्वितीय (878-914 ई.)
अमोघवर्ष के उपरांत उसका पुत्र कृष्ण द्वितीय 880 ई. के लगभग राष्ट्रकूट वंश की गद्दी पर बैठा। इसने वैवाहिक संबंधों के द्वारा अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने का प्रयास किया। इसको अपने प्रायः सभी पड़ोसी के साथ संघर्ष करना पड़ा था। अधिक जानकारी के लिए पढ़ें
इंद्र तृतीय (914-929 ई.)
इंद्र तृतीय 914 ई. के उत्तरार्द्ध में ही राष्ट्रकूट सिंहासन पर प्रतिष्ठित हो चुका था। इसने गुर्जर प्रतिहार सामंत उपेंद्र परमार, कनौज के प्रतिहार महिपाल और वेंगी के चालुक्यों को पराजित किया था। इसके शासनकाल में ही अरब निवासी अलमसूदी भारत आया था। दमयंतीकथा तथा मदालसा नामक चंपू का लेखक त्रिविक्रमभट्ट इंद्र का समकालीन था। अधिक जानकारी के लिए पढ़ें
अमोघवर्ष द्वितीय (929-930 ई.)
इंद्र तृतीय के बाद् उसका ज्येष्ठ पुत्र अमोघवर्ष द्वितीय 929 ई. के आसपास राष्ट्रकूट वंश का राजा हुआ। किंतु वह लगभग एक वर्ष ही शासन कर सका। संभवतः गोविंद चतुर्थ ने अमोघवर्ष को अपदस्थ कर राजसिंहासन को हस्तगत कर लिया। अधिक जानकारी के लिए पढ़ें
गोविंद चतुर्थ (930-936 ई.)
गोविंद चतुर्थ 930 ई. में राष्ट्रकूट राजवंश के सिंहासन पर बैठा। यह एक अयोग्य शासक था। राज्यारोहण के कुछ ही समय बाद उसकी बुद्धि तरुणियों के दृष्टिपाश में बंध गई और वह दुर्व्यसनो में आसक्त हो गया। अंततः इसके चाचा अमोघवर्ष तृतीय ने मान्यखेट के राष्ट्रकूट सिंहासन पर अधिकार कर लिया। अधिक जानकारी के लिए पढ़ें
बड्डेग ‘अमोघवर्ष’ तृतीय (936-939 ई.)
गोविंद चतुर्थ को अपदस्थ कर अमोघवर्ष तृतीय (बड्डेग) 936 ई. के आसपास मान्यखेट के राष्ट्रकूट राजगद्दी पर बैठा। अमोघवर्ष तृतीय की रुचि शासन में कम, ब्रह्म-चिंतन में अधिक थी, इसलिए शासन का संचालन उसके योग्य पुत्र युवराज कृष्ण तृतीय ने किया। अमोघवर्ष ने केवल तीन वर्षों (संभवतः 936-939 ई.) तक ही शासन किया। अधिक जानकारी के लिए पढ़ें
कृष्ण तृतीय (939-967 ई.)
अमोघवर्ष तृतीय के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र कृष्ण तृतीय 939 ई. में गद्दी पर बैठा। इस ‘चक्रवर्ती शासक’ को उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में रामेश्वरम् तथा श्रीलंका तक की विजयों का श्रेय दिया गया है। कृष्ण तृतीय के पश्चात राष्ट्रकूट शक्ति छिन्न-भिन्न हो गई। अधिक जानकारी के लिए पढ़ें
राष्ट्रकूट राजवंश का पतन
खोट्टिग
कृष्ण तृतीय की मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई खोट्टिग 967 ई. में राष्ट्रकूट वंश के सिंहासन पर बैठा। इसका शासनकाल एक प्रकार से राष्ट्रकूटों के अवसान का काल था। परमार उदयादित्य के उदयपुर प्रशस्ति में कहा गया है कि श्रीहर्ष (सीयक द्वितीय) ने खोट्टिग की राजलक्ष्मी का अपहरण कर लिया था। अधिक जानकारी के लिए पढ़ें
कर्क द्वितीय
खोट्टिग की मृत्यु के उपरांत उसके भाई नृपतुंग (निरुपम) का पुत्र (भतीजा) कर्क द्वितीय 972 ई. में राष्ट्रकूट सिंहासन पर आसीन हुआ। 973 ई. में तैलप ने कर्क को गद्दी से उतार कर सिंहासन पर अधिकार कर लिया और एक नये राजवंश (कल्याणी का चालुक्य वंश) की स्थापना की। अधिक जानकारी के लिए पढ़ें
राष्ट्रकूटों के पतन के कारण
राष्ट्रकूटों ने लगभग 735 ई. से लेकर लगभग 975 ई. तक भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 967 ई. में कृष्ण तृतीय के काल तक नर्मदा के दक्षिण का समस्त भू-भाग राष्ट्रकूटों के अधीन हो गया था, किंतु 973 ई. में ही इस वंश की मात्र स्मृति ही अवशिष्ट रह गई। राष्ट्रकूट साम्राज्य का इतनी जल्दी विघटित हो जाना एक आश्चर्यजनक घटना है। किंतु, यदि इसके कारणों का अनुशीलन किया जाए, तो पता चलता है कि जिस कृष्ण तृतीय ने नर्मदा से रामेश्वरम् तक अपनी विजय पताका फहराई थी, उसी की अदूरदर्शी नीतियों के कारण ही इस वंश का अवसान हुआ था।
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