राष्ट्रकूट शासक ध्रुव ‘धारावर्ष’ (Rashtrakuta Ruler Dhruva ‘Dharavarsha’, 780-793 AD)

ध्रुव ‘धारावर्ष

अपने अग्रज गोविंद द्वितीय को अपदस्थ कर ध्रुव ने राष्ट्रकूट राजवंश की बागडोर सँभाली। ध्रुव के राज्यारोहण की तिथि का स्पष्ट ज्ञान नहीं है। जिनसेन के ‘जैन हरिवंशपुराण’ में कहा गया है कि कृष्ण का पुत्र श्रीवल्लभ (क्षीरवल्लभ) 783 ई. में दक्षिण में शासन कर रहा था।

यद्यपि गोविंद द्वितीय और ध्रुव, दोनों के लिए लेखों में श्रीवल्लभ का विरुद प्रयोग किया गया है, किंतु गोविंद की मृत्यु 783 ई. के पहले ही हो गई थी, इसलिए जैन हरिवंशपुराण में जिनसेन ने जिस श्रीवल्लभ का संकेत किया है, वह गोविंद द्वितीय नहीं, ध्रुव ही था। धूलिया ताम्रपत्रों से भी ज्ञात होता है कि 779 ई. में ध्रुव गोविंद के अधीन शासन कर रहा था। इस प्रकार लगता है कि ध्रुव ने 780 ई. के आसपास स्वतंत्र शासक के रूप में शासन ग्रहण किया होगा।

राज्याभिषेक के अवसर पर ध्रुव ने धारावर्ष तथा निरूपम (अद्वितीय) की उपाधि धारण की। बाद में इसके लिए कलिवल्लभ (युद्ध से प्रेम करने वाला), श्रीवल्लभ आदि उपाधियों का भी प्रयोग किया गया है। वेंगी नरेश विष्णुवर्धन् चतुर्थ की पुत्री शीलभट्टारिका इसकी राजमहिषी थी।

ध्रुव की सैनिक उपलब्धियाँ

ध्रुव ने गोविंद द्वितीय की अधीनता में शासन करना शुरू किया था और 780 ई. के लगभग गोविंद द्वितीय को पराजित कर राष्ट्रकूट वंश का सिंहासन अपहृत कर लिया था। इसलिए शासन ग्रहण करने के बाद उसे कुछ आंतरिक समस्याओं का सामना करना पड़ा। सबसे पहले ध्रुव ने विद्रोही सामंतों तथा मंत्रियों का दमन कर राजधानी में अपनी स्थिति को सुदृढ़ किया और प्रजा में अपनी प्रभुसत्ता के प्रति आस्था उत्पन्न करने का प्रयत्न किया। इसके बाद उसने उन शक्तियों को दंडित करने की योजना बनाई, जिन्होंने गृह-कलह में उसके विरूद्ध गोविंद द्वितीय का साथ दिया था।

गंगों के विरूद्ध अभियान

राजधानी में अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के बाद ध्रुव ने सबसे पहले अपने दक्षिणी पड़ोसी गंगवाड़ी राज्य पर आक्रमण किया। कृष्ण प्रथम के काल में गंगशासक राष्ट्रकूटों की अधीनता स्वीकार करते थे, किंतु लगता है कि बाद में राष्ट्रकूटों की आंतरिक कलह का लाभ उठाकर उन्होंने अपनी स्वतंत्र घोषित कर दी थी।

कृष्ण प्रथम का समकालीन गंगशासक श्रीपुरुष मुत्तरस था, जिसने अपनी वृद्धावस्था के कारण प्रशासन का दायित्व अपने पुत्र शिवमार द्वितीय को सौंप रखा था। शिवमार द्वितीय योद्धा कम, विद्वान् अधिक था। कहा जाता है कि उसने हस्तिविद्या पर एक ग्रंथ की रचना भी की थी।

जब राष्ट्रकूट शासक ध्रुव की सेनाओं ने गंग राज्य आक्रमण किया, तो शिवमार के नेतृत्व में गंगों ने बड़ी वीरता से उसका सामना किया। गंग अभिलेखों के अनुसार प्रारंभ में शिवमार को राष्ट्रकूटों के विरुद्ध कुछ सफलता भी मिली, लेकिन अंततः ध्रुव ने शिवमार को पराजित कर बंदी बना लिया। ध्रुव द्वारा गंगों की पराजय की पुष्टि राष्ट्रकूट अभिलेखों के साथ-साथ़ गंग अभिलेखों से भी होती है।

ध्रुव ने गंग राज्य को राष्ट्रकूट साम्राज्य में मिला लिया और अपने पुत्र स्तंभ रणावलोक को गंगवाड़ी का शासक नियुक्त किया। इस प्रकार गंग राज्य की विजय से राष्ट्रकूट साम्राज्य की दक्षिणी सीमा कावेरी तक पहुँच गई।

पल्लवों के विरूद्ध अभियान

गंग राज्य को जीतने के बाद ध्रुव ने संभवतः काँची के पल्लवों के विरूद्ध अभियान किया, क्योंकि पल्लवों ने भी ध्रुव के विरूद्ध गोविंद द्वितीय का साथ दिया था। इस अभियान में भी ध्रुव को अपने समकालीन पल्लव शासक दंतिवर्मन् के विरूद्ध सफलता मिली। राधनपुर अनुदान पत्र में कहा गया है कि ‘एक ओर वास्तविक समुद्र तथा दूसरी ओर राष्ट्रकूटों की अगणित सेनारूपी समुद्र के बीच घिरकर पल्लव नरेश भयभीत हो गया और उसने अपनी सेना के बहुत से हाथी ध्रुव को समर्पित कर पल्लव राज की रक्षा की’-

एकत्रात्मवलेन वारि निधिनाप्यन्यत्र रुध्वा घनं,

निष्कृष्टासि भटोद्धतेन विहरद्ग्राहातिभीमेन च।

मातंगान्मदवारिनिर्ञ्झरमुचः प्राप्यानतात्पल्लवात्,

तच्चित्रं मदलेशमप्यनुदिनं यस्पृष्ट्वां न क्वचित्।।

इस प्रकार ध्रुव पल्लव शासक को छोटी-मोटी लड़ाइयों में पराजित कर अपनी अधीनता में लाने में सफल हो गया। पल्लवों की पराजय से राष्ट्रकूट राज्य की दक्षिणी सीमा सुरक्षित हो गई। इन युद्धों में ध्रुव को अपने ससुर वेंगीनरेश विष्णुवर्धन् चतुर्थ से भी सैनिक सहायता प्राप्त हुई थी।

वेंगी के चालुक्यों से संघर्ष

संभवतः पल्लवों के विरूद्ध अभियान के संबंध में ध्रुव का वेंगी के विष्णुवर्धन् चतुर्थ से संघर्ष हुआ। यद्यपि वेंगी का चालुक्य शासक विष्णुवर्धन् चतुर्थ ध्रुव का ससुर था, संभवतः उसने भी ध्रुव के विरूद्ध उसके भाई गोविंद की सहायता की थी। वेंगी के विरूद्ध अभियान में ध्रुव को अपने वेमुलवाड़ के चालुक्य सामंत अरिकेशरि प्रथम से सहायता मिली। अरिकेशरि की सहायता से ध्रुव ने वेंगी के चालुक्य शासक को पराजित कर त्रिकलिंग पर अधिकार कर लिया और  चालुक्य नरेश ने राष्ट्रकूटों की अधीनता में शासन करना स्वीकार किया। इन विजयों के परिणामस्वरूप ध्रुव दक्षिण भारत का सर्वाधिक शक्तिशाली सम्राट बन गया और संपूर्ण दकन में उसकी धाक जम गई।

उत्तर भारत में सैन्य-अभियान

ध्रुव केवल दकन की विजय से ही संतुष्ट होने वाला नहीं था। उसने दकन की विजय के बाद उत्तर भारत की राजनीति में भी हस्तक्षेप करने की योजना बनाई। पी.बी. देसाई का मानना है कि ध्रुव ने पहले उत्तर भारत के विरुद्ध अभियान किया और बाद में दक्षिण के राज्यों पर विजय प्राप्त की। किंतु यह मत तर्कसंगत नहीं है। दक्षिणापथ एवं सुदूर दक्षिण में अपनी प्रभुसत्ता स्थापित किये बिना उत्तर भारत की विजय के लिए जाना ध्रुव के लिए कतई उचित नहीं था। वास्तव में दक्षिणापथ एवं सुदूर दक्षिण में अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के बाद ही ध्रुव ने उत्तर भारत पर आक्रमण किया होगा।

उत्तर भारत की राजनीतिक स्थिति

ध्रुव प्रथम के उत्तरी अभियान के समय उत्तर भारत में कन्नौज पर अधिकार करने के लिए मालवा तथा राजपूताना के गुर्जर प्रतिहारों और गौड़ (बंगाल) के पालों के बीच काँटे की प्रतिद्वंद्विता चल रही थी। दरअसल हर्षवर्धन के समय से ही कान्यकुब्ज (कन्नौज) उत्तर भारत की राजनीति का केंद्र बन गया था। इस समय कन्नौज में इंद्रायुद्ध नामक एक दुर्बल कठपुतली राजा शासन कर रहा था। मालवा तथा राजपूताना में गुर्जर प्रतिहार शासक वत्सराज शासन कर रहा था, जबकि उसका प्रतिद्वंद्वी पाल नरेश धर्मपाल गौड़ (बंगाल) प्रदेश का शासक था।

भोज प्रथम की ग्वालियर प्रशस्ति से पता चलता है कि प्रतिहार वत्सराज ने 783 ई. के बाद कन्नौज पर आक्रमण कर इंद्रायुद्ध को पराजित किया और उसे अपने सामंत के रूप में कन्नौज का शासक नियुक्त किया। वत्सराज की यह सफलता गौड़ के पाल शासक धर्मपाल के लिए खुली चुनौती थी, जो संभवतः इंद्रायुद्ध का संबंधी भी था। धर्मपाल ने कन्नौज पर आक्रमण किया, किंतु उसे वत्सराज के हाथों पराजित होना पड़ा। राधनपुर लेख के अनुसार वत्सराज ने धर्मपाल को पराजित कर उसके दोनों श्वेत राजक्षत्रों को छीन लिया था-

हेलास्वीकृत गौडराज्य कमलामत्तं प्रवेश्याचिरात्,

दुमर्गिम मरुमध्यम प्रतिवर्लर्यो वत्सराजं बलैः।

गौडीय शरदिन्दुपादधवलंच्छत्रद्वयं केवलं,

तस्मान्नाहृत तद्यशोपि कुकुभां प्रान्ते स्थितं तत्क्षणात्।। राधनपुर लेख

वनि डिंडोरी लेख से भी पता चलता है कि गौड़ नरेश को पराजित कर वत्सराज दर्पयुक्त हो गया था। इस पराजय के बाद धर्मपाल ने पुनः शक्ति जुटाकर प्रतिहार वत्सराज से युद्ध करने का निश्चय किया और अपनी सेना का एक भाग गंगा-यमुना के दोआब में तैनात कर दिया।

प्रतिहारों से संघर्ष

इसी बीच 786 ई. में ध्रुव ने उत्तर भारत की राजनीति में हस्तक्षेप किया। किंतु ध्रुव के उतरी भारत के विरूद्ध अभियान के कारणों के संबंध में विवाद है। कुछ विद्वानों का अनुमान है कि वत्सराज ने मालवा पर आक्रमण किया और ध्रुव ने अपने सामंत लाट के शासक कर्क द्वितीय की सहायता के लिए वत्सराज पर आक्रमण किया।

कुछ विद्वानों का सुझाव है कि ध्रुव ने धर्मपाल के निमंत्रण पर वत्सराज के विरूद्ध अभियान किया था क्योंकि धर्मपाल का विवाह किसी राष्ट्रकूट सामंत परबल की पुत्री रट्टादेवी के साथ हुआ था। यद्यपि परबल की पहचान स्पष्ट नहीं है, लेकिन लगता है कि यह कोई राष्ट्रकूट सामंत रहा होगा। किंतु धर्मपाल द्वारा ध्रुव को आमंत्रित करने का कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है और संजन लेख से पता चलता है कि बाद में ध्रुव ने धर्मपाल को भी पराजित किया था।

बी.पी. सिन्हा जैसे इतिहासकारों का विचार है कि ध्रुव ने गंगाघाटी की आर्थिक समृद्धि और कन्नौज की राजनीतिक प्रतिष्ठा से आकर्षित होकर उत्तरी भारत में सैनिक अभियान किया था। वास्तव में प्रतिहार शासक वत्सराज ने ध्रुव के विरुद्ध उसके भाई गोविंद की सहायता की थी, इसलिए संभवतः ध्रुव के उत्तरी अभियान मुख्य उद्देश्य प्रतिहार शासक वत्सराज को दंडित करना और उत्तर भारत से धन-संपत्ति प्राप्त करना था।

ध्रुव ने नर्मदा नदी के तट पर अपनी सेना को एकत्रित कर उसे कई भागों में विभाजित किया और उनके संचालन का उत्तरदायित्व अपने पुत्रों- गोविंद एवं इंद्र को सौंपा। जिस समय प्रतिहार नरेश वत्सराज की सेना धर्मपाल से निपटने के लिए गंगा-यमुना के दोआब में थी, उसी समय ध्रुव ने विंध्यपर्वत पारकर प्रतिहार राज्य पर आक्रमण किया । युद्ध में प्रतिहार शासक वत्सराज बुरी तरह पराजित हुआ और वह राजपूताना के रेगिस्तान की ओर भाग गया। वनि डिंडोरी और राधनपुर लेख से पता चलता है कि इस युद्ध में ध्रुव ने वत्सराज के यश के साथ-साथ उन दोनों राजछत्रों को भी छीन लिया, जिन्हें उसने गौड़ नरेश से छीना था।

पालों से संघर्ष

वत्सराज को पराजित करने के बाद ध्रुव ने गंगा-यमुना के दोआब में ही बंगाल के पाल शासक धर्मपाल को भी पराजित किया। इस विजय की पुष्टि अमोघवर्ष के संजन लेख से होती है, जिसके अनुसार ध्रुव ने गंगा-यमुना के बीच भागते हुए गौड़राज की लक्ष्मी के लीलारबिंदों तथा श्वेत छत्रों को छीन लिया था-

गंगायमुनयोर्मध्ये राज्ञो गौडस्य नश्यतः।

लक्ष्मीलीलारविन्दानि श्वेतच्छत्राणि योऽहरेत्। संजन लेख

संजन लेख की इस उक्ति का समर्थन कर्क सुवर्णवर्ष के सूरत दानपत्र से भी होता है, जिसमें शिव तथा ध्रुव, दोनों के लिए कहा गया है कि गंगा की जलधारा को अवरूद्ध करने के कारण उनकी कीर्ति बढ़ गई थी (गांगोध सन्तति निरोधविवृद्ध कीर्तिः)।

कर्क के ही बड़ौदा ताम्रपत्र में भी वर्णित है कि ‘गंगा-यमुना के सुभग तरंगों को ग्रहण करने से ध्रुव ने उत्तमपद (ईश्वरता) को’ प्राप्त किया था। प्रिंसेप ने ‘उत्तमपद’ प्राप्त करने का अर्थ ध्रुव प्रथम द्वारा गंगा-यमुना के संगम में प्राण देने से लगाया है, किंतु अल्तेकर का सुझाव तर्कसंगत लगता है कि गंगा-यमुना तक अधिकार करने के कारण ध्रुव को स्वर्गीय सुखों की अनुभूति हुई थी।

डी.आर. भंडारकर का अनुमान है कि वत्सराज की पराजय के बाद ध्रुव प्रथम के विरूद्ध वत्सराज तथा धर्मपाल ने सम्मिलित रूप से युद्ध किया था। किंतु वत्सराज के पलायन के बाद इस संघ की कल्पना निराधार हो जाती है। ध्रुव को वत्सराज और धर्मपाल के विरूद्ध यह सफलता संभवतः 787-790 ई. के बीच मिली थी।

इस प्रकार ध्रुव ने वत्सराज एवं धर्मपाल को पराजित कर 790 ई. तक पाल-प्रतिहार आकांक्षाओं पर तुषारापात कर दिया। किंतु उसका उद्देश्य कन्नौज पर अधिकार करना अथवा उत्तर भारत में अपनी सत्ता का विस्तार करना नहीं था। फलतः कुछ समय तक गंगा एवं यमुना नदियों के तटवर्ती क्षेत्रों में ठहरने के बाद वह 790 ई. के लगभग अतुल संपत्ति और राजकीय-चिन्हों के साथ दक्षिण भारत वापस लौट आया। ध्रुव के उत्तरी अभियान की इस सफलता के बावजूद राष्ट्रकूट साम्राज्य की सीमाएँ पूर्ववत् बनी रहीं।

उत्तराधिकार की समस्या का समाधान

अपने राज्यकाल के अंतिम दिनों में ध्रुव ने उत्तराधिकार की समस्या का समाधान करने का प्रयत्न किया। ध्रुव के चार पुत्र थे- कर्क, स्तंभ, गोविंद और इंद्र। कर्क की मृत्यु ध्रुव के राज्यकाल में ही हो गई थी। शेष तीन पुत्रों में स्तंभ सबसे बड़ा था और नियमानुसार वही उसका वैध उत्तराधिकारी था। किंतु ध्रुव अपने तीसरे पुत्र गोविंद तृतीय से अधिक प्रभावित था और उसे अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहता था। उसने उत्तराधिकार के संभावित युद्ध से बचने के लिए स्तंभ को गंगवाड़ी का और इंद्र को मालवा तथा गुजरात का स्वतंत्र शासक नियुक्त कर दिया। ध्रुव ने गोविंद तृतीय को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत कर युवराजत्व चिन्ह कंठिका से अलंकृत किया-

यस्याकारममानुषं त्रिभुवनव्यापत्ति रक्षोचितम्,

कृष्णस्येव निरीक्ष्य यच्छति पितर्यैकाधिपत्यं भुवः।

आस्तां तात तवैतदप्रतिहता दत्ता त्वया कंठिका,

किन्नाज्ञेवमया धृतोति पितरं युक्तो वचो योऽभ्यधात्।। राधनपुर दानपत्र

इसकी पुष्टि पैठन दानपत्र से भी होती है। कर्क के सूरत दानपत्रों में भी कहा गया है कि गोविंद ने पिता से युवराज पद ही नहीं, बल्कि सम्राट पद भी प्राप्त कर लिया था-

राज्याभिषेक कलशैरभिषिच्यदत्ताम्।

राजाधिराजपरमेश्वरतां स्वपित्राः।।

इस प्रकार 792-93 ई. में एक विशाल समारोह में गोविंद तृतीय का विधिवत् राज्याभिषंक किया गया।

ध्रुव का मूल्यांकन

ध्रुव धारावर्ष के तेरहवर्षीय शासनकाल में राष्ट्रकूट राजवंश की शक्ति, प्रतिष्ठा एवं समृद्धि में अत्यधिक वृद्धि हुई। उसने पश्चिमी गंगों, वेंगी के चालुक्यों और पल्लवों को पराजित करने के बाद उत्तर भारत के गुर्जर प्रतिहारों और बंगाल के पालों को हराया, जिससे ध्रुव की कीर्ति एवं प्रतिष्ठा संपूर्ण दकन और उत्तर भारत में फैल गई। उसने अपनी विजयों के द्वारा उसने राष्ट्रकूट राज्य को एक विशाल साम्राज्य में परिवर्तित कर दिया और राष्ट्रकूटों को एक अखिल भारतीय शक्ति के रूप में परिवर्तित कर दिया। अब उत्तर या दक्षिण में कोई ऐसा शक्तिशाली शासक नहीं था, जो उसकी चुनौती को स्वीकार करता। सातवाहनों के पतन के बाद पहली बार दक्षिण की किसी शक्ति ने ध्रुव के नेतृत्व में मध्य भारत में अपनी शक्ति का विस्तार किया था।

ध्रुव ने धारावर्ष तथा निरूपम (अद्वितीय) के साथ-साथ कलिवल्लभ (युद्ध से प्रेम करने वाला), महाराजाधिराज, परमेश्वर तथा श्रीवल्लभ जैसी उपाधियाँ भी धारण की थी। उसकी अग्रमहिषी शीलभट्टारिका के नाम से भी शासनादेश जारी किये गये थे, जो वेंगी के चालुक्य शासक विष्णुवर्धन् चतुर्थ की पुत्री थी। ध्रुव ने लगभग तेरह वर्ष (780-793 ई.) तक शासन किया था।

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