लॉर्ड विलियम बैंटिंक (Lord William Bentinck, 1828-1835 )

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लॉर्ड विलियम बैंटिंक (1828 ई. – 1835 ई.)

लॉर्ड विलियम बैंटिंक का पूरा नाम विलियम हेनरी कैवेंडिश बैंटिंक था। उसका जन्म 14 सितंबर, 1774 को लंदन के बुलस्ट्रोड, बकिंघमशायर में हुआ था। उसके पिता ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री विलियम बैंटिंक थे। 16 साल की उम्र में विलियम बैंटिंक ब्रिटिश सेना में एनसाइन के रूप में शामिल हुआ और 1798 में लेफ्टिनेंट कर्नल के पद तक पहुँच गया। 1796 में वह संसद (हाउस ऑफ कामंस) का सदस्य बन गया। इसके बाद उसने उत्तरी इटली में नेपोलियन के विरूद्ध युद्धों में भाग लिया। उसका विवाह 18 फरवरी, 1803 को गॉसफोर्ड के प्रथम अर्ल आर्थर एचसन की पुत्री लेडी मैरी से हुआ।

लॉर्ड विलियम बैंटिंक को उसके सैनिक अनुभव के कारण 1803 में मद्रास का गवर्नर बनाकर भारत भेजा गया। उसने 1806 में अपने एक आदेश के द्वारा देशी सैनिकों के अपने पारंपरिक जातीय चिन्ह को धारण करने और कानों में बालियाँ पहनने पर प्रतिबंध लगा दिया, जिसके कारण जुलाई, 1806 में वेल्लोर में अचानक सिपाही विद्रोह फूट पड़ा। विद्रोह तो दबा दिया गया, लेकिन इस विद्रोह के लिए बैंटिंक को जिम्मेदार ठहराया गया और कोर्ट ऑफ डाइरेक्टर्स ने 1807 में उसे वापस बुला लिया।

लॉर्ड विलियम बैंटिंक (Lord William Bentinck)
लॉर्ड विलियम बैंटिंक

इक्कीस वर्ष के बाद लॉर्ड एमहर्स्ट द्वारा त्यागपत्र देने पर लॉर्ड विलियम बैंटिंक को बंगाल (फोर्ट विलियम) का गवर्नर जनरल नियुक्त किया गया। जुलाई, 1828 में उसने बंगाल के गवर्नर जनरल का पदभार ग्रहण किया। बाद में उसे 1833 के चार्टर ऐक्ट द्वारा भारत का गवर्नर जनरल (1833-1835) बना दिया गया। इस प्रकार लॉर्ड विलियम बैंटिंक भारत का पहला गवर्नर जनरल था, जबकि बंगाल का पहला गर्वनर जनरल वारेन हेस्टिंग्स था।

लॉर्ड विलियम बैंटिंक एक कट्टर ह्विग (उदारवादी) था और उस समय के कैथोलिक मुक्ति और संसदीय सुधार आंदोलनों से गहरे रूप से प्रभावित था। उसने 1812 में सिसलीवासियों को अंग्रेजी नमूने पर संवैधानिक सरकार बनाने की प्रेरणा दी थी। बैंटिंक पहला गवर्नर जनरल था, जिसने खुले रूप से इस सिद्धांत पर कार्य किया कि शासित जनता का कल्याण करना भारत में ब्रिटिश अधिकारियों का पहला कर्तव्य है। उसने क्रूर रीति-रिवाजों को बंद किया, अपमानजनक भेदभावों को समाप्त किया और जनता को अपने विचार प्रकट करने की स्वतंत्रता दी। निःसंदेह, बैंटिंक ने सती और कन्या-वध जैसी सामाजिक कुरीतियों का अंत करने के लिए प्रभावकारी कदम उठाये, ठगों को समाप्त कर शांति एवं व्यवस्था स्थापित की, भारतीयों को छोटे-छोटे पदों पर नियुक्त किया, समाचार-पत्रों को स्वतंत्रता प्रदान की और भारतीयों में शिक्षा के प्रचार के लिए महत्वपूर्ण निर्णय किये, लेकिन उसने शासन को उदारवादी बनाने का या भारत में राजनैतिक स्वतंत्रता को बढ़ावा देने का कोई प्रयास नहीं किया। उसकी सारी उदारता के बावजूद कंपनी का शासन पहले की तरह निरंकुश ही बना रहा।

जो भी हो, बैंटिंक का सातवर्षीय शासनकाल अधिकांशतः शांति का काल था। बैंटिंक स्वयं शांतिवादी नीति का समर्थक था और भारतीय राजनीति से परिचित था। उसने भारतीय रियासतों के मामले में यथासंभव तटस्थता की नीति अपनाई और रूस को मध्य एशिया में बढ़ने से रोकने के लिए पंजाब के महाराजा रणजीतसिंह और सिंध के अमीरों से मित्रता की संधि की। उसने भारत में उदारवादी तथा ब्रिटेन की स्वातंत्र्य भावना का विकास किया। अपने महत्वपूर्ण प्रशासनिक, वित्तीय, न्यायिक, शैक्षिक एवं सामाजिक सुधारों के कारण वह आज भी स्मरणीय है।

लॉर्ड विलियम बैंटिंक के सुधार

लॉर्ड विलियम बैंटिंक 1828 में बंगाल का गवर्नर जनरल के बनकर भारत आया। उस समय तक भारत के सभी देसी राजाओं और नवाबों पर कंपनी की सत्ता स्थापित हो चुकी थी। लॉर्ड हेस्टिंग्स और लॉर्ड एमहर्स्ट के कालों में युद्ध तथा विस्तारवादी नीतियों के कारण कंपनी की सरकार लगभग 1.5 मिलियन पाउंड के वार्षिक घाटे पर चल रही थी। इसलिए संचालकों ने बैंटिंक को निर्देश दिया था कि वह कंपनी को वित्तीय कठिनाइयों से उबारने का प्रयास करे। कंपनी के चार्टर की पुनरावृत्ति का समय निकट आ रहा था। कंपनी ब्रिटिश सरकार के समक्ष कंपनी की संतोषजनक आर्थिक स्थिति और उसके सुव्यवस्थित प्रशासन को प्रस्तुत करना चाहती थी, ताकि ब्रिटिश सरकार द्वारा कंपनी के चार्टर ऐक्ट का समय से नवीनीकरण सुनिश्चित किया जा सके। बैंटिंक ने अपने कुशल प्रबंधन, मितव्ययिता और कटौती के माध्यम से कंपनी के घाटे के बजट को संतुलित कर दिया।

बैंटिंक के वित्तीय सुधार

बैंटिंक ने भारत आकर सबसे पहले कंपनी की वित्तीय स्थिति को सुधारने पर ध्यान दिया, क्योंकि मुख्यतः इसी समस्या के समाधान के लिए उसे भारत भेजा गया था। हेस्टिंग्स और एमहर्स्ट के अनवरत युद्धों के कारण कंपनी की आर्थिक अवस्था शोचनीय हो गई थी। बर्मा युद्ध के समय धन की बहुत बर्बादी हुई थी। कंपनी की आय और व्यय में डेढ़ करोड़ रुपयों का अंतर हो गया था। बैंटिंक ने कंपनी सरकार की अर्थव्यवस्था को अनुकूल बनाने के लिए आर्थिक सुधारों का कार्य बड़ी दृढ़ता से संपन्न किया और व्यक्तिगत अलोकप्रियता की चिंता नहीं की। अपने वित्तीय सुधारों के द्वारा उसने न केवल घाटे का बजट संतुलित कर दिया, बल्कि डेढ़ करोड़ रुपये वार्षिक बचत करने में भी सफलता प्राप्त की।

पदों की छंटनी और वेतन में कमी

आर्थिक सुधारों के लिए आवश्यक था कि व्यय में कमी और आय में वृद्धि की जाये। इसके लिए बैंटिंक ने दो समितियाँ बनाई- एक सैनिक और दूसरी असैनिक। इन समितियों का कार्य नागरिक तथा सैनिक व्यय की जाँच करना और इसमें मितव्ययिता के लिए सुझाव देना था। दोनों समितियों ने विस्तृत जाँच करने के बाद बैंटिंक को अपनी रिपोर्ट सौंपी, जिसे उसने स्वीकार कर लिया। समितियों की सिफारिश पर बैंटिंक ने अनेक अनावश्यक पदों को समाप्त कर दिया और कई श्रेणियों के कर्मचारियों के वेतन में कटौती की। इन कटौतियों के बाद भी अधिकारियों के वेतन ऊँचे बने रहे।

भत्तों में कटौती

कंपनी के संचालकों का विशेष निर्देश था कि सैनिकों के भत्तों में भी कटौती की जाये। जब क्लाइव ने सैनिकों का दोहरा भत्ता समाप्त किया था, तो उसे सैनिकों के विरोध और विद्रोह का सामना करना पड़ा था। बैंटिंक ने भी सैनिकों के भत्तों में कटौती करने का निश्चय किया। उसने नियम बनाया कि कलकत्ता के 400 मील के भीतर रहने वाले सैनिकों को केवल आधा भत्ता दिया जायेगा। उसके इस एक निर्णय से कंपनी को 20,000 पौंड वार्षिक की बचत हुई, लेकिन इससे सैनिकों में असंतोष फैल गया। अंग्रेजी समाचार-पत्रों ने उसकी बड़ी आलोचना की, किंतु यह आलोचना उचित नहीं थी क्योंकि बैंटिंक ने यह कटौती संचालकों के आदेश पर ही की थी।

अफीम के व्यापार पर नियंत्रण

मालवा क्षेत्र में अफीम का उत्पादन होता था। इसका निर्यात दमन तथा ड्यू के बंदरगाहों से किया जाता था। चूंकि दोनों बंदरगाह पुर्तगालियों के अधिकार में थे, इसलिए पुर्तगाली चीन को अफीम का निर्यात करके भारी मुनाफा कमा रहे थे। अफीम का निर्यात कराची से भी होता था, जिससे सिंध के अमीरों को भी लाभ होता था। बैंटिंक ने कंपनी की आय बढ़ाने के लिए अफीम के व्यापार को नियमित और अनुपत्रित (लाईसेंस्ड) करके मालवा की अफीम को केवल बंबई बंदरगाह से निर्यात करने की आज्ञा दी। मालवा के व्यापारियों को सीधे बंबई अफीम लाने के लिए लाइसेंस दिये गये, जिससे कंपनी को भारी मुनाफा होने लगा।

करमुक्त भूमि पर करारोपण

बैंटिंक ने राजस्व में वृद्धि के लिए करमुक्त या माफी की जमीनों पर भी भूमिकर लगाया। कंपनी के शासन के पूर्व हिंदू और मुस्लिम शासकों द्वारा धार्मिक कार्यों के लिए करमुक्त जमीन प्रदान करने की परंपरा थी। बंगाल, बिहार, उड़ीसा में ऐसी बहुत-सी जमीनें थीं, जिनके स्वामी उन्हें करमुक्त होने का दावा करते थे। यद्यपि 1793 और 1801 में इस प्रकार की करमुक्त जमीनों की जाँच की गई थी, लेकिन उस समय यह कार्य संतोषजनक रूप से नहीं हो सका था। 1828 में बैंटिंक ने कलेक्टरों को आदेश दिया कि वे इस कार्य को गंभीरता से पूरा करें। उसने विशेष कमिश्नरों की नियुक्ति की, ताकि कलेक्टरों के निर्णयों के विरुद्ध अपील की सुनवाई की जा सके। जिन जमींदारों के पास करमुक्ति का कोई प्रमाण नहीं था, उनकी जमीनों पर कर लगाया गया, जिससे कंपनी की वार्षिक आय में 30 लाख रुपये की वृद्धि हो गई।

बैंटिंक के प्रशासनिक सुधार
भारतीयों की नियुक्ति

लॉर्ड बैंटिंक ने उच्च प्रशासनिक पदों पर भारतीयों को नियुक्त करने की नीति अपनाई। लॉर्ड कार्नवालिस ने अपनी प्रजातीय कुंठा के कारण भारतीयों को उच्च पदों पर नियुक्त न करने की नीति निर्धारित की थी। बाद के गवर्नर जनरलों ने भी इसी नीति का पालन किया, जिससे भारतीयों में गहरा असंतोष था। लॉर्ड बैंटिंक ने इस नीति में परिवर्तन करके 750 रुपये मासिक की नौकरियों का द्वार भारतीयों के लिए खोल दिया। यद्यपि यह प्रशासन में एक उदारवादी सुधार था, लेकिन इस नीति-परिवर्तन के और भी कई कारण थे- एक, 1833 के चार्टर ऐक्ट में कहा गया था कि किसी भी योग्यता-प्राप्त भारतीय को उसके जन्म, धर्म, जाति, वर्ण आदि के आधार पर ऊँचे पदों पर नियुक्त करने के लिए अयोग्य नहीं माना जायेगा। दूसरे, ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार लगभग पूरे भारत में हो चुका था और इस विस्तृत साम्राज्य के प्रशासन के लिए बड़ी संख्या में अधिकारियों की आवश्यकता थी। इन सभी पदों पर अंग्रेजों की नियुक्ति नहीं की जा सकती थी, क्योंकि उनका वेतन इतना अधिक होता था कि कंपनी उसे वहन करने में असमर्थ थी। ऐसे पदों पर भारतीयों को कम वेतन पर नियुक्त किया जा सकता था। तीसरे, भारतीयों में शिक्षा का प्रसार हो रहा था और वे भी उच्च पदों को प्राप्त करना चाहते थे। कंपनी सरकार की नीति-परिवर्तन से शिक्षित भारतीयों के असंतोष को दूर किया जा सकता था। जो भी हो, बैंटिंक की भारतीयों को नियुक्त करने की नीति का मूल उद्देश्य कंपनी के प्रशासनिक व्यय में कमी करना ही था।

कर-संग्रहण की नई व्यवस्था

कंपनी की आय में वृद्धि करने के उद्देश्य से लॉर्ड बैंटिंक ने भूमि कर-संग्रहण के लिए प्रभावशाली कदम उठाया। उसने उत्तर-पश्चिमी प्रांत (आधुनिक उत्तर प्रदेश) में राजस्व विभाग की स्थापना की। सिंधिया तथा अवध के नवाब से वेलेजली ने दोआब में जिन प्रदेशों को छीन लिया था, उन्हें उत्तर-पश्चिमी प्रांत के नाम से गठित किया गया था। इस प्रांत में पंचवर्षीय भूराजस्व व्यवस्था लागू की गई थी और यह असंतोषजनक व्यवस्था बैंटिंक के समय में भी चली आ रही थी।

बैंटिंक ने पंचवर्षीय भूराजस्व व्यवस्था का गहन अध्ययन किया और स्वयं इस क्षेत्र का दौरा कर स्थिति का आकलन किया। उसने इस प्रांत में तीसवर्षीय बंदोबस्त करने के लिए मर्टिन्स बर्ड को बंदोबस्त अधिकारी नियुक्त किया। बर्ड ने समस्त भूमि की पैमाइश कराई, पुराने अभिलेखों का निरीक्षण किया और भूराजस्व को 66 प्रतिशत निश्चित किया। उसने भूराजस्व के संग्रह के लिए महालवाड़ी पद्धति को अपनाया, जो इस क्षेत्र में परंपरा से चली आ रही थी। इससे सरकार को अधिक कर उपलब्ध होने लगा। इसके अलावा, बैंटिंक ने लोहे तथा कोयले के उत्पादन को, चाय तथा कॉफी के बगीचों तथा नहरों की परियोजनाओं को भी प्रोत्साहन दिया।

बैंटिंक के न्यायिक सुधार
प्रांतीय तथा सर्किट अदालतों की समाप्ति

लॉर्ड बैंटिंक ने प्रशासनिक व्यय में कमी करने के लिए कार्नवालिस द्वारा स्थापित प्रांतीय अपीलीय तथा सर्किट अदालतों को समाप्त कर दिया, क्योंकि इन अदालतों के अधिकारी निकम्मे और विलासी हो गये थे, जिससे न्यायिक प्रक्रिया बाधित होने लगी थी। इन अदालतों के स्थान पर बैंटिंक ने बंगाल प्रांत को 20 संभागों में विभाजित किया, प्रत्येक संभाग में एक कमिश्नर की नियुक्ति की और प्रांतीय अपीलीय अदालतों के समस्त कार्य कमिश्नरों को हस्तांतरित कर दिया। कमिश्नरों को कलेक्टरों, जिला जजों और पुलिस सुपरिंटेंडेंटों के कार्यों का निरीक्षण करने का भी अधिकर दिया गया।

न्यायिक पदों पर भारतीयों की नियुक्ति

न्यायिक क्षेत्र में लॉर्ड बैंटिंक का दूसरा महत्वपूर्ण सुधार अदालतों में भारतीय जजों की संख्या और उनके वेतन में वृद्धि करना था। कॉर्नवालिस के समय में केवल निम्न न्यायिक पदों पर ही भारतीयों की नियुक्ति की जाती थी और उच्च पद केवल यूरोपियनों के लिए आरक्षित थे। कॉर्नवालिस के बाद इस स्थिति में कुछ सुधार किया गया था और भारतीयों को भी कुछ उच्च पदों पर नियुक्त करने किया जाने लगा था। लेकिन लॉर्ड बैंटिंक ने इस नीति को बड़े स्तर पर लागू किया और उच्च पदों पर भारतीयों की नियुक्ति की नीति आरंभ की। उसने योग्यता-प्राप्त भारतीयों को मुंसिफ तथा सदर अमीन जैसे उच्च पदों पर नियुक्त किया, जिन्हें 300 रुपये तक के मुकदमें या अपीलें सुनने का अधिकार था। इसका एक प्रमुख कारण आर्थिक मितव्ययिता थी, क्योंकि भारतीय न्यायाधीशों को अपेक्षाकृत कम वेतन देना पड़ता था। प्रसंगतः, भारतीय न्यायिक अधिकारियों को यूरोपियनों के मुकदमों को सुनने का अधिकार नहीं था।

मजिस्ट्रेटों के अधिकारों में वृद्धि

लॉर्ड बैंटिंक ने एक आदेश के द्वारा मजिस्ट्रेटों के अधिकारों में वृद्धि कर दी। अब उन्हें दो वर्ष तक के सश्रम कारावास का दंड देने का अधिकार मिल गया। उनके निर्णयों के विरुद्ध कमिश्नरों के यहाँ अपील की जा सकती थी। दो वर्ष बाद लॉर्ड बैंटिंक ने कलेक्टरों को भू-राजस्व संबंधी मामलों को निस्तारित करने के लिए विशेष अधिकार दे दिये।

अदालतों की भाषा में परिवर्तन

मुगल काल से ही फारसी अदालतों की भाषा बनी हुई थी। लॉर्ड बैंटिंक ने निचली अदालतों में फारसी के स्थान पर स्थानीय भाषाओं के प्रयोग की आज्ञा दी और उच्च अदालतों में फारसी के स्थान पर अंग्रेजी भाषा को स्थापित किया। इन महत्वपूर्ण सुधारों के साथ बैंटिंक ने अपनी कार्यकारी परिषद के विधि सदस्य टी.वी. मैकाले की सहायता से कानूनों की एक संहिता तैयार कराने का भी प्रयास किया।

जूरी प्रथा आरंभ

विलियम बैंटिंक ने बंगाल प्रांत में जूरी प्रथा आरंभ की, ताकि मुकदमों का निर्णय करते समय यूरोपियन न्यायाधीश प्रतिष्ठित भारतीयों की सहायता ले सकें। अब जज प्रतिष्ठित व्यक्तियों से परामर्श लेने के लिए मामलों को पंचायतों में भेज सकते थे और जूरियों की नियुक्ति कर सकते थे।

न्यायालयों की स्थापना

कंपनी का साम्राज्य विस्तृत हो जाने के कारण कलकता के सदर अदालतों में अपील करने के लिए जनता को बड़ा कष्ट और असुविधा होती थी। लॉर्ड विलियम बैंटिंक ने दिल्ली तथा उत्तर प्रदेश के लिए इलाहाबाद में पृथक् सदर दीवानी तथा सदर निजामत अदालत की स्थापना की, ताकि उत्तर-पश्चिम क्षेत्र के लोगों को अपील के लिए कलकत्ते न जाना पड़े।

रेग्यूलेटिंग एक्ट द्वारा कलकत्ते में एक सुप्रीम कोर्ट की स्थापना की गई थी। लॉर्ड विलियम बैंटिंक ने जनता की सुविधा के लिए आगरा में भी सुप्रीम कोर्ट की स्थापना की। इसके अलावा, उसने भारतीय सेना में कोड़े मारने की प्रथा को भी समाप्त कर दिया और इलाहाबाद में बोर्ड ऑफ रेवेन्यू की स्थापना की।

सरकारी सेवाओं में भेदभाव का अंत

लॉर्ड विलियम बैंटिंक ने सरकारी सेवाओं में कॉनवालिस के काल से चली आ रही भेदभाव की नीति को समाप्त कर दिया। 1833 के चार्टर ऐक्ट की धारा 87 के अनुसार योग्यता ही सेवा का आधार स्वीकार की गई और कंपनी के अधीनस्थ किसी भी भारतीय नागरिक को उसके धर्म, जन्मस्थान, जाति अथवा रंग’ के आधार पर किसी पद से वंचित नही रखा जा सकेगा। कहा जाता है कि यह धारा बैंटिंक के आग्रह पर ही इस चार्टर ऐक्ट में सम्मिलित की गई थी।

इस प्रकार बैंटिंक द्वारा लागू किये गये प्रशासनिक एवं वित्तीय सुधार उसकी राजनीतिक परिपक्वता और बुद्धिमत्ता के परिचायक हैं। उसकी दूरदर्शी बचत योजनाओं एवं मितव्ययिता के फलस्वरूप कंपनी न केवल डेढ़ करोड़ के घाटे से उबर गई, बल्कि उसे 2 करोड़ रुपये वाषिक का लाभ भी होने लगा।

बैंटिंक के शैक्षणिक सुधार

लॉर्ड विलियम बैंटिंक का सबसे महत्वपूर्ण सुधार शिक्षा से संबंधित थे। एलफिंस्टन ने 1825 में ही कहा था कि सामाजिक सुधार का सबसे प्रभावशाली मार्ग शिक्षा है। हालांकि 1813 ई. के चार्टर ऐक्ट में ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों के बौद्धिक विकास के लिए एक लाख रुपया व्यय करने का प्रावधान किया था। किंतु पिछले 20 वर्षों में इस दिशा में न तो कोई नीति निर्धारित हो सकी थी और नहीं एक लाख रुपया व्यय किया जा सका था। इस क्षेत्र में बैंटिंक ने महत्वपूर्ण कार्य किया, जिससे भारतीय शिक्षा-व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन हुआ।

बैंटिंक ने शिक्षा के उद्देश्य तथा माध्यम दोनों पर विचार किया। शिक्षा के अनुदान का प्रयोग कैसे किया जाय, यह एक जटिल सवाल था। क्या इस अनुदान का प्रयोग पूर्वी भाषाओं तथा भारतीय साहित्य के प्रसार पर व्यय किया जाय या पाश्चात्य विज्ञान तथा साहित्य के अंग्रेजी माध्यम द्वारा प्रसार के लिए? इस विषय पर सार्वजनिक शिक्षा समिति के सदस्य दो समूहों में बँटे थे- प्राच्य विद्या के समर्थकों के अगुआ विल्सन व प्रिंसेप बंधु थे, जिन्होंने प्राच्य भाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाने की वकालत की और प्रस्ताव रखा कि हिंदी, संस्कृत, अरबी, फारसी जैसी प्राच्य भाषाओं के विकास एवं प्रसार पर इस धन को व्यय किया जाये। पाश्चात्य या आंग्ल विद्या के समर्थकों का नेता ट्रेवेलियन था, जिसे तत्कालीन उदारवादी समाज-सुधारकों- राजा राममोहनराय और ईश्वरचंद्र विद्यासागर का समर्थन प्राप्त था। पाश्चात्य विद्या के समर्थक चाहते थे कि शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी हो और इस धन को पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान के प्रसार पर व्यय किया जाए। बैंटिंक ने इस विवाद को हल करने के लिए लॉर्ड मैकाले की अध्यक्षता में एक शिक्षा समिति का गठन किया। उसने पाश्चात्य विद्या के समर्थन में निर्णय दिया और अपने विचारों को 2 फरवरी, 1835 के अपने सुप्रसिद्ध स्मरण-पत्र में प्रतिपादित किया। उसमें उसने भारत के आयुर्वेद विज्ञान, गणित, ज्योतिष, इतिहास तथा भूगोल की खिल्ली उड़ाई और कहा कि ‘क्या हमें इस मिथ्या धर्म से संबंधित इतिहास, गणित, ज्योतिष और आयुर्वेद पढ़ाना है।’ उसका तर्क था कि भारतीय भाषाओं में न तो कोई वैज्ञानिक जानकारी है और न ही कोई साहित्यिक तत्व। एक अच्छे पाश्चात्य पुस्तकालय की एक आलमारी भारत तथा अरब के समस्त साहित्य के बराबर है। दरअसल मैकाले की योजना थी कि भारत में ‘एक ऐसा वर्ग बनाया जाए जो रंग तथा रक्त से तो भारतीय हो, लेकिन प्रवृति, विचार, नैतिकता तथा बुद्धि से अंग्रेज हो।’ उसने अपने पिता को एक पत्र में यह आशा व्यक्त की थी कि ‘यदि हमारी शिक्षा योजनाओं का अनुसरण किया गया तो बंगाल के प्रतिष्ठित वर्ग में आने वाले तीस वर्षों में कोई मूर्ति-पूजक नहीं रहेगा।’

बैंटिंक ने मैकाले के विचार को 7 मार्च, 1835 को एक प्रस्ताव (अंग्रेजी शिक्षा अधिनियम 1835) द्वारा अनुमोदित कर दिया। उसने घोषणा की कि सरकार केवल अंग्रेजी तथा विज्ञान की शिक्षा पर ही धन व्यय करेगी और उच्च स्तरीय प्रशासन की भाषा अंग्रेजी होगी।

बैंटिक ने 1835 में ही पश्चिमी चिकित्सा-शिक्षा के प्रसार के लिए कलकत्ता में ‘कलकत्ता मेडिकल कॉलेज’ की स्थापना की, जो एशिया का पहला पश्चिमी मेडिकल कॉलेज था। इस मेडिकल कॉलेज से भारत में स्वास्थ्य-संबंधी वैज्ञानिक चिकित्सा-शिक्षा प्रारंभ हुई।

बैंटिंक के सार्वजनिक कार्य

लॉर्ड विलियम बैंटिंक ने यातायात तथा कृषि के विकास लिए कई महत्वपूर्ण कार्य किये। उसने यातायात की सुविधा के लिए न केवल पुरानी सड़कों की मरम्मत करवाई, बल्कि कई नवीन सड़कों का निर्माण भी करवाया। कलकत्ता से दिल्ली तक के मार्ग का पुनर्निर्माण करवाया गया और आगरा से बंबई जाने वाले नये मार्ग का निर्माण आरंभ किया गया।

लॉर्ड मिंटो के समय सिंचाई के लिए नहरों के निर्माण की योजनाएँ बनाई गई थीं, किंतु उनके निर्माण का कार्य बैंटिंक के काल में ही शुरू किया जा सका और आगरा प्रांत में सिंचाई के लिए नहरों का निर्माण आरंभ हुआ।

बैंटिंक ने जल परिवहन के विकास के लिए भी कार्य किया। उसके प्रयास से गंगा नदी में कलकत्ता से इलाहाबाद तक स्टीमर चलने लगे। बैंटिंक चाहता था कि भारत और इंग्लैंड के बीच की समुद्री यात्रा दो माह में पूरी की सके। इसके लिए उसने लाल सागर से स्वेज नहर तक एक स्टीमर भी भेजा था। उसने स्वेज नहर और लंदन के बीच भी यातायात स्थापित करने का प्रयास किया था।

बैंटिंक के सामाजिक सुधार

भारतीय इतिहास में लॉर्ड विलियम बैंटिंक का नाम सामाजिक सुधारों के लिए प्रसिद्ध है। वह इंग्लैंड की तत्कालीन उदारवादी विचारधारा से प्रभावित था। इसलिए वह इन सुधारों के प्रति मानवीय कल्याण की भावना से प्रेरित हुआ था। इस कार्य में उसे राजा राममोहन राय जैसे अनेक प्रबुद्ध समाज-सुधारकों का समर्थन प्राप्त हुआ। इसके पूर्व किसी गवर्नर जनरल ने सामाजिक प्रश्नों को इतने साहसपूर्ण ढ़ंग से निपटाने का प्रयत्न नहीं किया था।

वास्तव में इस समय भारतीय समाज में सती, कन्या-वध एवं नर-बलि जैसी कई ऐसी कुरीतियाँ व्याप्त हो गई थीं, जो क्रूर, घृणित और अमानवीय थीं। बैंटिंक ने इन सामाजिक कुरीतियों को दूर करने का साहस दिखाया, जो निश्चित ही एक प्रशंशनीय कार्य था।

सती प्रथा का उन्मूलन

भारत में प्राचीन काल से विधवाओं को उनके पति की चिता पर जिंदा जलाने की क्रूर एवं अमानवीय प्रथा प्रचलित थी, जिसे ‘सती प्रथा’ कहा जाता था। इस प्रथा का सबसे घृणित पक्ष यह था कि विधवा को सती होने पर बाध्य किया जाता था। कई बार उसे मादक द्रव्य पिलाकर अचेत कर दिया जाता था और बलपूर्वक पति की चिता में फेंक दिया जाता था। यह अमानवीय सामाजिक प्रथा उत्तरी भारत, विशेषकर बंगाल के उच्च वर्गों में अत्यंत विकृत तथा व्यापक रूप से फैली हुई थी। इसका कारण मुख्यतः कुलीन प्रथा थी, जिसमें अत्यंत वृद्ध और मृतप्राय कुलीन व्यक्तियों के साथ अबोध कन्याओं का विवाह कर दिया जाता था। बैंटिंक के पहले के गवर्नर जनरल भी इस निंदनीय प्रथा के विरुद्ध थे, लेकिन राजनीतिक कारणों से उन्होंने इस हिंदू रिवाज़ में हस्तक्षेप करना उचित नहीं समझा।

लॉर्ड विलियम बैंटिंक (Lord William Bentinck)
सती प्रथा

कुछ प्रबुद्ध भारतीय राजाओं ने इस क्रूर प्रथा को बंद करने का प्रयत्न किया था। अकबर ने इसे रोकने का प्रयत्न किया था। मराठों ने अपने प्रदेशों में इसे बंद कर दिया था। गोवा में पुर्तगालियों ने और फ्रांसीसियों ने चंद्रनगर में इसको बंद करने के लिए कुछ उपाय किये थे। पेशवा बाजीराव द्वितीय भी इसे रोकना चाहता था, लेकिन यह प्रथा चलती रही क्योंकि उन लोगों को दंड देने की कोई व्यवस्था नहीं थी, जो इस प्रथा को प्रोत्साहन देते थे। कंपनी की सरकार भी इस सामाजिक मामले में हस्तक्षेप करने से बचती रहती थी क्योंकि उसे विद्रोह की आशंका थी।

ईसाई मिशनरियों ने सती प्रथा के विरुद्ध आवाज उठाई। 1803 में विलियम केर्रा ने लॉर्ड वेलेजली का ध्यान इसकी ओर आकृष्ट किया था। वेलेजली ने इसके बारे में सदर निजामत से सलाह माँगी। अदालत ने सुझाव दिया कि यदि कोई स्त्री स्वेच्छा से सती हो रही हो, तो उसे न रोका जाये, लेकिन गर्भवती या ऐसी स्त्री, जिसके छोटे बच्चे हों, उसे सती न होने दिया जाये। कंपनी के संचालकों ने एमहर्स्ट से सती प्रथा पर प्रतिबंध लगाने के लिए कहा था, लेकिन ब्राह्मणों के विरोध की आशंका से उसने इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया। लॉर्ड हेस्टिंग्स के समय में पुलिस श्मशान घाट पर यह सुनिश्चित करने के लिए अवश्य जाती थी कि किसी स्त्री को बलपूर्वक जलने के लिए बाध्य तो नहीं किया जा रहा है।

लॉर्ड विलियम बैंटिंक समय बंगाल में एक ही वर्ष में सती होने के 643 मामले सामने आये। उसने राजा राममोहन रॉय जैसे प्रबुद्ध भारतीय सुधारकों की प्रेरणा से इस अमानवीय प्रथा को बंद करने का निर्णय किया। बैंटिंक ने पहले भारतीय जनमत, विशेषकर भारतीय सैनिकों की भावनाओं का आकलन किया और पूरी तरह संतुष्ट हो जाने के बाद उसने 4 दिसंबर, 1829 को विनियमन 17 द्वारा विधवाओं को जलाना गैरकानूनी और दंडनीय घोषित कर दिया। उसने व्यवस्था की कि सती की प्रेरणा देने वाले लोग हत्या के अपराधी माने जायेंगे। आरंभ में यह कानून केवल बंगाल में लागू किया गया, लेकिन बाद में 2 फरवरी, 1830 को इस कानून को मद्रास और बंबई प्रेसीडेंसी में भी लागू करा दिया गया।

यद्यपि इस प्रतिबंध के विरोध में राधाकांतदेव जैसे हिंदुओं ने कई हजार याचिकाएँ दाखिल की और इस मामले को प्रिवी कौंसिल तक ले गये, किंतु राममोहन रॉय तथा देवेंद्रनाथ टैगोर जैसे सुधारकों के समर्थन से 1832 में प्रिवी कौंसिल ने खाचिका खारिज कर दी और सती प्रथा पर प्रतिबंध लगा रहा।

कन्या-भ्रूण हत्या एवं नर-बलि पर प्रतिबंध

लॉर्ड विलियम बैंटिंक ने कन्या-भ्रूण हत्या, नवजात कन्याओं को मारने और नर-बलि की प्रथा पर भी प्रतिबंध लगाया। कन्या भ्रूण हत्या सभ्य लोगों द्वारा किये गये सबसे जघन्य और हृदयहीन अपराधों में से एक था। कन्या शिशुओं को मारने की यह प्रथा राजपूताना, पंजाब, मालवा और कच्छ में व्यापक रूप से प्रचलित थी। बैंटिंक ने कन्या-भ्रूण हत्या पर न केवल प्रतिबंध लगाया, बल्कि इसे दंडनीय अपराध भी घोषित कर दिया।

इसके अलावा, उस समय उड़ीसा की कुछ जनजातियों में देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए नर-बलि देने की प्रथा का भी प्रचलन था। बैंटिंक ने इस घिनौनी रस्म को रोकने के लिए प्रभावी कदम उठाया और नर-बलि देने वाले व्यक्तियों को हत्या का अपराधी मानकर मृत्युदंड दिये जाने का प्रावधान किया, जिससे कुछ समय बाद यह अमानवीय प्रथा समाप्त हो गई।

ठगों का दमन

लॉर्ड विलियम बैंटिंक का एक बहुत सराहनीय कार्य था- ठगों का दमन। ठगों का अभिप्राय उस समय के डाकुओं और हत्यारों के एक समूह से है, जो निर्दोष तथा आरक्षित व्यक्तियों को धोखे से या बलपूर्वक गला घोंटकर उनकी हत्या करके धन आदि लूट लेते थे। इसलिए कुछ लोग उन्हें ‘फांसीगर’ कहना अधिक प्रासंगिक मानते हैं, क्योंकि वे रूमाल के फंदे से अपने शिकार का गला घोंट देते थे।

मुगल साम्राज्य के पतन के बाद पुलिस व्यवस्था के छिन्न-भिन्न हो जाने के कारण इन ठगों को अपने कार्य-क्षेत्र को बढ़ाने का अवसर मिला। ठग लोग अकसर पचास से सौ लोगों के छोटे समूहों में घूमते थे, जिनमें हिंदू और मुसलमान सभी सम्मिलित होते थे। उन्हें स्थानीय जमींदारों तथा सामंतों का संरक्षण प्राप्त होता था। वे काली, भवानी, देवी की पूजा करते थे और प्रायः अपने शिकर का का सिर काटकर देवी के चरणों में बलि के रूप में अर्पित करते थे। इनके उपद्रवों के कारण उत्तर तथा मध्य भारत के मार्ग अरक्षित हो गये थे।

ठगों के दल पूर्णतया संगठित थे। कुछ लोग भेदिये का काम करते थे, कुछ गला घोंटने में निपुण होते थे और कुछ लोग कब्रें खोदकर अपने शिकर को तुरंत ठिकाने लगा देते थे। उनके अपने संकेतात्मक शब्द तथा संकेत होते थे। नौसिखियों को नियमबद्ध शिक्षा दी जाती थी और प्रवीण होने के बाद उन्हें एक निश्चित कर्मकांड के द्वारा दीक्षा दी जाती थी। ठगों का अनुशासन इतना सरल और कठेर था कि असफल प्रयत्न का एक भी मामला कभी सरकार के सामने नहीं आया।

ठगों का अंत करने और मार्गों को सुरक्षित बनाने के लिए बैंटिंक ने कर्नल स्लीमेन को नियुक्त किया। कर्नल स्लीमेन ने ठगों के विरुद्ध कठोर कार्यवाही करने के लिए 1830 में एक व्यवस्थित अभियान चलाया और स्थानीय रियासतों को भी इस अभियान में सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित किया। कर्नल स्लीमेन के प्रयास से 1830 से 1835 के बीच लगभग 2,000 ठग बंदी बना लिये गये। उनमें से अधिकांश को फाँसी दे गई, लेकिन शेष को आजीवन निर्वासन की सजा देकर अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह भेज दिया गया। बैंटिंक ने ठगों को सुधारने के लिए अचलपुर में एक सुधार-केंद्र भी स्थापित किया और वहाँ लगभग 500 ठगों को भेजा गया। बैंटिंक का ही प्रयास था कि 1837 के बाद संगठित रूप में ठगों का अंत हो गया।

उत्तराधिकार-नियम में संशोधन

हिंदू धर्म के अनुसार अगर कोई व्यक्ति धर्म परिवर्तन करता था, तो वह पैतृक संपति में उत्तराधिकार से वंचित हो जाता था। 1813 के बाद अनेक ईसाई धर्म प्रचारक भारत में ईसाई धर्म का प्रचार-प्रसार कर रहे थे। उनकी माँग थी कि ईसाई धर्म स्वीकार करने वालों के संपत्ति-संबंधी अधिकार की सुरक्षा की जाये। लॉर्ड विलियम बैंटिक भी ईसाई धर्म के प्रचार का समर्थक था। इसलिए उसने 1832 ई. में धर्म-परिवर्तन से होने वाली सभी अयोग्यताओं को समाप्त कर दिया और एक नियम पारित किया कि ईसाई धर्म स्वीकार करने वालों को पैतृक उत्तराधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता था।

प्रेस की स्वतंत्रता

बैंटिंक उदार और प्रगतिवादी सुधारक था। उसने समाचार-पत्रों के प्रति उदार दृष्टिकोण अपनाते हुए उनकी स्वतंत्रता की वकालत की। उसका मानना था कि प्रेस को सभी विषयों पर सच्चाई के साथ टीका-टिप्पणी करने का अधिकार है। वह इसे ‘असंतोष से रक्षा का अभिद्वार’ मानता था। उसने मद्रास के सैनिक विद्रोह का उल्लेख करते हुए बताया था कि कलकत्ता और मद्रास, दोनों जगह स्थिति एक जैसी थी, किंतु मद्रास में विद्रोह इसलिए हुआ था, क्योंकि वहाँ समाचार-पत्रों की स्वतंत्रता नहीं थी।

बैंटिंक भारतीय समाचार-पत्रों को स्वतंत्र करना चाहता था, किंतु 1835 में उसके इस्तीफा देने के कारण समाचार-पत्रों से प्रतिबंध हटा लेने का श्रेय उसके परवर्ती गवर्नर-जनरल चार्ल्स मेटकॉफ को मिला।

भारत का प्रथम गवर्नर जनरल

लॉर्ड विलियम बैंटिंक के कार्यकाल में 1833 का चार्टर ऐक्ट पारित किया गया, जिसे ‘सेंट हेलेना ऐक्ट 1833’ भी कहा जाता है। इस चार्टर ऐक्ट के द्वारा कंपनी के अधिकार पत्र को अगले बीस वर्षों के लिए विस्तारित कर दिया गया और कंपनी के व्यापारिक एकाधिकार का अंत हो गया।

नये चार्टर एक्ट के द्वारा अन्य कई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किये गये। बंगाल के गवर्नर जनरल के पद का नाम बदलकर भारत का गवर्नर जनरल कर दिया गया और इस प्रकार बैंटिंक बंगाल के गवर्नर जनरल से भारत का गवर्नर जनरल बन गया। इस ऐक्ट के द्वारा गवर्नर जनरल की कार्यकारी परिषद मे एक विधि-सदस्य को भी जोड़ा गया, जिससे कौंसिल के सदस्यों संख्या बढ़कर चार हो गई। अधिनियम में यह भी सिद्धांत निर्दिष्ट था कि किसी भी भारतीय को उसके धर्म, जन्म अथवा रंग के कारण कंपनी के अधीन किसी पद से, यदि वह उसके लिए योग्य हो, वंचित नहीं किया जायेगा। इसके अलावा, भारत में ईसाइयों की सुविधा के लिए बंबई, मद्रास और कलकत्ता में बिशप भी नियुक्त किये गये।

बैंटिंक की देसी राज्यों के प्रति नीति

लॉर्ड वेलेजली के काल में ब्रिटिश साम्राज्यवाद का तेजी से विकास हुआ था। इस काल में यह विचार स्थापित हुआ कि समस्त भारत पर अंग्रेजों का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष नियंत्रण होना चाहिए। वारेन हेस्टिंग्स के सामने अंग्रेजी राज्य की रक्षा का प्रश्न था और इस रक्षा के लिए ही उसने मराठों और मैसूर से युद्ध किया। उसने जो नीति अपनाई, उसे बाद में ‘रिंगफेंस की नीति’ के नाम से जाना जाता है। लेकिन कुछ राज्यों के प्रति उसकी नीति में कोई नैतिक सिद्धांत नहीं था, जैसे- बनारस के राजा चेतसिंह, अवध को बेगमों और रामपुर के फैजुल्ला के मामलों में। फिर भी, उसने भारतीय राज्यों के साथ समानता के आधार पर संधियाँ की थीं।

वेलेजली ने भारतीय राज्यों के साथ जो संधियाँ की थीं, उनमें समानता का सिद्धांत नहीं था, बल्कि भारतीय राज्यों को अधीनता की स्थिति में रखा गया था। फिर भी, वेलेजली ने भारतीय राज्यों पर पूर्ण ब्रिटिश प्रभुत्व स्थापित नहीं किया और देसी राज्य अपने आंतरिक मामलों में प्रायः स्वतंत्र थे।

लॉर्ड हेस्टिंग्स ने संधियों के मामलों में वेलेजली की ही नीति का पालन किया, लेकिन अब भारतीय राज्यों पर अंग्रेजों का नियंत्रण बढ़ गया था। वेलेजली के समय में देसी राज्यों की विदेश नीति पर कंपनी का नियंत्रण था, लॉर्ड हेस्टिंग्स ने देसी राज्यों के आंतरिक मामलों में भी हस्तक्षेप करना आरंभ कर दिया। लेकिन उसने किसी राज्य को बलपूर्वक अंग्रेजी राज्य में विलय करने की नीति नहीं अपनाई।

लॉर्ड हेस्टिंग्स के बाद भारतीय राज्यों के प्रति नीति में दो महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए- एक तो, आंतरिक मामलों में अंग्रेज रेजीडेंटों का हस्तक्षेप बढ़ गया, और दूसरे, भारतीय राज्यों को ब्रिटिश राज्य में सम्मिलित करने की नीति अपनाई जाने लगी थी।

बैंटिंक को संचालकों ने देसी राज्यों के मामलों में यथासंभव तटस्थता की नीति का पालन करने का आदेश दिया था, किंतु वह इस नीति का पूर्ण रूप से पालन नहीं कर सका। यद्यपि बैंटिंक ने प्रयास किया कि देसी राज्यों में हस्तक्षेप न करना पड़े, लेकिन आवश्यकता पड़ने पर उसने तटस्थता की नीति को छोड़कर निर्णायक रूप से हस्तक्षेप किया और इसके लिए ‘कुशासन’ को आधार बनाया गया।

मुगल सम्राट को यह शिकायत थी कि उसे अपर्याप्त धन नहीं दिया जाता था। संचालकों और ब्रिटिश सरकार के समक्ष इस समस्या को रखने के लिए मुगल सम्राट ने राजा राममोहन रॉय को इंग्लैंड भेजा, लेकिन यह प्रयास निष्फल रहा।

1829 में हैदराबाद के निजाम सिकंदरशाह की मृत्यु हो गई। नये निजाम नासिरुद्दौला ने अंग्रेज अफसरों को हटाने के लिए निवेदन किया। अंततः बैंटिंक ने इसे स्वीकार करके अंग्रेज अफसर को हटा दिया।

जयपुर में उपद्रव हुए और अव्यवस्था ने ऐसा उग्र रूप धारण किया कि 1835 में रानी और उसके प्रेमी को फाँसी दे दी गई। ब्रिटिश रेजीडेंट पर भी हमला किया गया, लेकिन बैंटिंक ने राज्य में हस्तक्षेप नहीं किया।

भोपाल में सिकंदर बेगम ने प्रशासन अपने हाथों में ले लिया, जिससे राज्य में अशांति फैल गई, लेकिन बैंटिंक ने हस्तक्षेप नहीं किया। इसी प्रकार जोधपुर, बूँदी, कोटा, तथा भेपाल में उसने हस्तक्षेप नहीं किया, यद्यपि ऐसा करने के लिए उसके पास पर्याप्त कारण थे।

किंतु आवश्यकता पड़ने पर बैटिक ने तीन राज्यों में हस्तक्षेप किया- मैसूर, कछार और कुर्ग में। उसने मैसूर, कुर्ग तथा कछार को ‘कुशासन’ का आरोप लगाकर अंग्रेजी राज्य में विलय कर लिया, लेकिन उसका उद्देश्य ब्रिटिश राज्य का विस्तार करना नहीं था। यद्यपि कुछ इतिहासकार मानते हैं कि बैंटिंक भी अन्य गवर्नर जनरलों की तरह साम्राज्यवादी था और उसने भी ब्रिटिश हितों की रक्षा की नीति अपनाई थी। लेकिन वास्तव में बैंटिंक को कुशासन से घृणा थी और वह चाहता था कि ब्रिटिश सुशासन का लाभ देसी राज्यों की जनता को भी मिलना चाहिए।

मैसूर का विलय

मैसूर राज्य में हस्तक्षेप का कारण भी कुशासन ही था। चौथे आंग्ल-मैसूर युद्ध के बाद वेलेजली ने वोडेयार वंश के अल्पवयस्क कृष्णाराव को मैसूर की गद्दी पर बिठाया था। उसे गद्दी पर बिठाते समय वेलेजली ने यह अधिकार अंग्रेजों के पास सुरक्षित रखा था कि कुशासन की स्थिति में कंपनी मैसूर का प्रशासन अपने हाथों में ले लेगी। कुछ वर्षों तक ब्रिटेन और मैसूर के संबंध मैत्रीपूर्ण बने रहे। 1820 के दशक के अंत में, मैसूर के महाराजा के कुशासन और दमनकारी कराधान के कारण मैसूर में एक नागरिक विद्रोह हुआ। फलतः बैंटिंक ने 1831 में मैसूर के प्रशासन पर पचास वर्षों के लिए सीधा नियंत्रण कर लिया और मैसूर के राजा को पेंशन दे दी। बाद में, रिपन ने मैसूर का प्रशासन कृष्णाराव के पुत्र को वापस कर दिया।

कछार का विलय

बंगाल के उत्तर-पश्चिम में स्थित कछार (आसाम) राज्य को बैंटिंक ने 1834 में अंग्रेजी राज्य में मिला लिया। इसका कारण यह था कि यहाँ का राजा अत्याचारी था और वहाँ की जनता ने अंग्रेजी राज्य में विलय के लिए निवेदन किया था। इस समय कछार क्षेत्र में अंग्रेज विशाल चाय बागानों की स्थापना कर रहे थे। कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि अंग्रेज बागान मालिकों के दबाव में ही बैंटिंक ने कछार का विलय किया था। लेकिन यह भी सही है कि देसी राजे-महाराजे अपनी जनता का बहुत शोषण करते थे। 1835 में आसाम का जयंतिया परगना भी ब्रिटिश भारत में मिला लिया गया।

कुर्ग का विलय

कुर्ग मैसूर राज्य के निकट एक छोटा-सा राज्य था। कुर्ग के राजा पर आरोप था कि उसने राजवंश के कई सदस्यों की हत्या करवा दी थी और प्रजा पर भी जघन्य अत्याचार कर रहा था। फलतः शासकीय अयोग्यता के आधार पर 1834 में बैंटिंक ने कुर्ग के राज्य को अंग्रेजी राज्य में मिला लिया। यद्यपि कुर्ग भी उत्पादक क्षेत्र था और अंग्रेज बागान मालिक इसे अंग्रेजी राज्य में मिलाने की माँग कर रहे थे, लेकिन इससे भारतीय राजाओं के अत्याचारी कृत्यों पर परदा नहीं डाला जा सकता है।

लॉर्ड विलियम बैंटिंक ने रूस को मध्य एशिया में बढ़ने से रोकने के लिए पंजाब के महाराजा रणजीतसिंह से रोपड़ में भेंट की। इंग्लैंड की सरकार के निर्देश पर उसने कैप्टन बर्न्स को भेजकर सिंध के अमीरों से व्यावसायिक संधियाँ कीं, जिसके फलस्वरूप सिंधु का जलमार्ग अंग्रेजों की जहाजरानी के लिए खुल गया। किंतु बैंटिंक ने रणजीतसिंह से जो व्यापारिक संधि की और सिंध के अमीरों से जो समझौता किया, बाद में वही आंग्ल-अफगान युद्ध के कारण बने।

बैंटिंक का त्यागपत्र और मृत्यु

बैंटिंक 20 मार्च, 1835 को अपने खराब स्वास्थ्य के कारण त्यागपत्र देकर इंग्लैंड लौट गये और उनके स्थान पर कंपनी के योग्यतम् अधिकारी चार्ल्स मेटकॉफ को अस्थायी तौर पर भारत का गवर्नर जनरल नियुक्त किया गया। अंततः 17 जून 1839 को 64 वर्ष की आयु में पेरिस में बैंटिंक की मृत्यु हो गई।

लॉर्ड विलियम बैंटिंकसीधा, घरेलू, ईमानदार, परोपकारी और समझदार गवर्नर जनरल था। यद्यपि उसके सुधारों का उद्देश्य आर्थिक मितव्ययिता थी, फिर भी, उसके कुछ सुधार केवल मानवीय कल्याण की भावना से प्रेरित थे। एक आधुनिक सुधारक के समान उसने भारतीय समाज की कई क्रूर और अमानवीय प्रथाओं को समाप्त कर दिया। सती प्रथा, कन्या-भ्रूण हत्या, नर-बलि जैसी सामाजिक क्रूर प्रथाओं की समाप्ति और बर्बर ठगों का अंत करना उसकी महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ थीं। उसने सिविल सर्विस के भारतीयकरण, प्रेस की स्वतंत्रता, न्याय प्रक्रिया को सरल और निष्पक्ष बनाने, शिक्षा प्रणाली को सुसंगठित करने का भी कार्य किया। यह आरोप पूरी तरह बेबुनियाद है कि उसके सुधार-कार्यक्रम 1857 के सिपाहियों के विद्रोह के लिए किसी रूप में जिम्मेदार थे।

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