भारत में सांप्रदायिकता के उदय के कारण (Causes of Rise of Communalism in India)

भारत में सांप्रदायिकता के उदय के कारण

सांप्रदायिकता का अर्थ

‘सांप्रदायिकता’ से तात्पर्य उस संकीर्ण मनोवृति से है, जो धर्म और संप्रदाय के नाम पर पूरे समाज तथा राष्ट्र के व्यापक हितों के विरुद्ध व्यक्ति को केवल अपने व्यक्तिगत धर्म व संप्रदाय के हितों को प्रोत्साहित करने और उन्हें संरक्षण देने की भावना को महत्व देती है। सांप्रदायिकता की भावना अपने धर्म के प्रति अंध-भक्ति तथा दूसरे धर्म और उसके अनुयायियों के प्रति विद्वेष की भावना उत्पन्न करती है।

मौलिक रूप में संप्रदायवाद इस विश्वास का नाम है कि चूंकि कुछ लोग किसी एक विशेष धर्म को मानते हैं, इसलिए उनके सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक हित भी समान होते हैं। संप्रदायवाद धार्मिक समूहों के मध्य तनावों से होते हुए अलगाववाद तक ले जाता है। एक ही देश में विभिन्न और प्रमुख संप्रदायों के बीच अलगाव और द्वेष की राजनीति को ‘सांप्रदायिक राजनीति’ (Communal Politics ) के नाम से पुकारा जाता है।

भारत में इस सांप्रदायिक राजनीति (Communal Politics ) के अंतर्गत पहले मुस्लिम सांप्रदायिकता (Muslim Communalism) का उदय हुआ और इसके बाद मुस्लिम सांप्रदायिकता की प्रतिक्रिया में हिंदू सांप्रदायिकता (Hindu Communalism) का उदय और विकास हुआ।

सांप्रदायिक विचारधारा के चरण

भारत में सांप्रदायिक विचारधारा (Communal Ideology) के मुख्यतः तीन चरण परिलक्षित होते हैं और उनमें एक तारतम्य दिखाई देता है। पहले चरण की सांप्रदायिक विचारधारा (Communal Ideology) के अनुसार चूंकि कुछ लोग किसी एक विशेष धर्म को मानते हैं, इसलिए उनके सांसारिक अर्थात् सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक हित भी समान होते हैं।

दूसरे शब्दों में, भारत में हिंदू, मुसलमान, सिख और ईसाई अलग-अलग और विशिष्ट समुदाय हैं और इन धर्मों के माननेवालों के आध्यत्मिक हित ही नहीं, बल्कि सांसारिक हित भी समान हैं। संप्रदायवाद के दूसरे चरण में यह धारणा निहित होती है कि किसी धर्म के अनुयायियों के सांसारिक हित (सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनैतिक हित), किसी दूसरे धर्म के माननेवालों के हितों से भिन्न होते हैं। भारत जैसे बहुभाषी समाज में किसी एक धर्म के अनुयायियों के सांसारिक हित अन्य किसी भी धर्म के अनुयायियों के सांसारिक हितों से भिन्न होते हैं।

सांप्रदायिकता अपने तीसरे चरण की शुरूआत तब होती है जब यह मान लिया जाता है कि विभिन्न धर्मों/संप्रदायों के अनुयायियों/ समुदायों के हित एक-दूसरे के विरोधी हैं। इस तीसरे चरण में विभिन्न धर्मों और संप्रदायों के अनुयायियों या विभिन्न धार्मिक समुदायों के हितों को परस्पर-विरोधी और शत्रुतापूर्ण समझा जाने लगता है।

अपने पहले चरण में सांप्रदायिकता धार्मिक पहचान पर बहुत ज्यादा बल देती है और इसी से धर्म पर आधारित सामाजिक-राजनीतिक समुदायों की धारणा का जन्म होता है। सांप्रदायिकता के दूसरे चरण को उदार सांप्रदायिकता या नरमपंथी सांप्रदायिकता कहा गया है जिसमें संप्रदायवादी उदारवादी, लोकतांत्रिक, मानवतावादी और राष्ट्रीयतावादी मूल्यों में कुछ विश्वास भी करता है। तीसरे चरण में सांप्रदायिकता उग्र हो जाती है और यह फासीवादी तौर-तरीके अपना लेती है।

उग्रवादी सांप्रदायिकता के तीसरे चरण में यह दावा किया जाता है कि दो विभिन्न धार्मिक समूहों या समुदायों के हित कभी भी समान नहीं हो सकते और विभिन्न धर्मों के अनुयायियों या धार्मिक समुदायों के सांसारिक हितों में परस्पर टकराव निश्चित है। हालांकि भारत में सांप्रदायिकता के तीनों चरण अलग-अलग समय पर आये, लेकिन वे एक-दूसरे को प्रभावित करते रहे और उनमें एक तरह की निरंतरता भी बनी रही।

भारत में सांप्रदायिकता की ऐतिहासिकता

किसी भी देश में अनेक धर्मों का होना सांप्रदायिकता के विकास का प्रमुख कारण नहीं होता है। किसी बहुधर्मी देश में सांप्रदायिकता का विकास होना अनिवार्य नहीं है। धर्म एक विश्वास-प्रणाली है और लोग व्यक्तिगत विश्वासों के एक अंग के रूप में इसका पालन करते हैं। संप्रदायवाद धर्म पर आधारित सामाजिक और राजनीतिक पहचान की विचारधारा का नाम है। धर्म संप्रदायवाद का कारण नहीं है और न ही धर्म से प्रेरित होता है। वस्तुतः संप्रदायवाद धर्म का राजनीतिक व्यापार है। धार्मिकता, सांप्रदायिकता को बहुत ज्यादा प्रोत्साहित करने का मूल कारण नहीं होती है।

चूंकि भारत जैसे देश में शिक्षा का अभाव था और लोगों में बाह्य जगत संबंधी चेतना न के बराबर थी, इसलिए धार्मिकता ने सांप्रदायिकता के लिए उत्प्रेरक की भूमिका निभाई। भारत में आधुनिक राजनीतिक चेतना निम्न, मध्य वर्ग के हिंदुओं और पारसियों की अपेक्षा उसी वर्ग के मुसलमानों में देर से विकसित हुई।

सांप्रदायिकता प्राचीन या मध्यकालीन अवशेष नहीं है जैसा कि अकसर कहा जाता है। यद्यपि सांप्रदायिकता प्राचीन और मध्ययुगीन विचारधाराओं का प्रयोग करती थी और उन पर आधारित भी होती थी, किंतु मूलतः यह एक आधुनिक विचारधारा और राजनीतिक प्रवृत्ति थी, जो आधुनिक सामाजिक समूहों, वर्गों और ताकतों की सामाजिक आकांक्षाओं को व्यक्त करती थी और उनकी राजनीतिक जरूरतों को पूरा करती थी।

भारत में सांप्रदायिक चेतना का उदय आधुनिक राजनीति के उदय से जुड़ा हुआ है। सांप्रदायिकता की सामाजिक जड़ों तथा इसके सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक लक्ष्यों को भारतीय इतिहास के आधुनिक काल में खोजा जा सकता है और खोजा भी जाना चाहिए।

ब्रिटिश शासन की स्थापना के पूर्व कई सदियों तक भारत पर मुसलमानों का आधिपत्य था। शताब्दियों तक एक-दूसरे के साथ रहने के कारण हिंदुओं-मुसलमानों, दोनों संप्रदायों के रहन-सहन, रीति-रिवाजों में काफी समानता आ गई थी और विभिन्न धर्मों के होते हुए भी सभी धर्मों में आश्चर्यजनक एकता स्थापित हो गई थी।

यद्यपि धर्म लोगों के जीवन का महत्त्वपूर्ण अंग रहा है और धर्म को लेकर कभी-कभी हिंदुओं-मुसलमानों में झगड़े होते थे, किंतु 1870 के दशक के पहले तक भारत में शायद ही किसी सांप्रदायिक विचारधारा और सांप्रदायिक राजनीति का अस्तित्व रहा हो।

1857 के सिपाही विद्रोह में हिंदुओं-मुसलमानों, दोनों संप्रदायों के लोगों ने कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष किया था और सर्वसम्मति से अंतिम मुगल बहादुरशाह को अपना नेता स्वीकार किया था।

भारत में सांप्रदायिकता के कारण

यद्यपि सांप्रदायिकता का संबंध धार्मिक आधार पर अलगाववाद और कट्टरता से है, किंतु भारत में सांप्रदायिक चेतना का जन्म औपनिवेशिक नीतियों (Colonial Policies) तथा उसके विरुद्ध संघर्ष करने की आवश्यकता से उत्पन्न परिवर्तनों के कारण हुआ।

भारत में सांप्रदायिकता का उदय जनता और उसकी भागीदारी पर आधारित एक नई, आधुनिक राजनीति का परिणाम है। आधुनिक राजनीति में जनता से व्यापक संबंध बनाने, उसकी आस्था जीतने और नई पहचान कायम करने की आवश्यकता के कारण सांप्रदायिकता उत्पन्न हुई। सांप्रदायिकता आधुनिक संप्रदायवादी राजनीति सामाजिक समूहों, वर्गों और ताकतों की सामाजिक आकांक्षाओं को व्यक्त करती थी और उनकी राजनीतिक जरूरतों की पूरा करती थी। समकालीन आर्थिक ढाँचे ने न केवल सांप्रदायिकता को उत्पन्न किया, अपितु उसके कारण इसका विकास और प्रसार हुआ।

सांप्रदायिकता का सामाजिक आधार उभरते हुए मध्य वर्ग पर अवलंबित था, जो तत्कालीन वातावरण में अपने धार्मिक हितों के साथ अपने आर्थिक हितों को भी ढूढ़ रहा था। जब नये विचारों को ग्रहण करने, नई पहचानों और विचारधाराओं का विकास करने तथा संघर्ष के दायरे को व्यापक बनाने के लिए लोगों ने पुरातन और पूर्व-आधुनिक तरीकों के प्रति आसक्ति प्रकट की, तो उससे सांप्रदायिकता की विचारधारा को सशक्त बनाने में मदद मिली। संकीर्ण सामाजिक प्रतिक्रियावादी तत्वों ने सांप्रदायिकता को पूर्ण समर्थन दिया। भारत जैसे धार्मिक व सांस्कृतिक बहुलता वाले देश में सांप्रदायिकता का विकास कोई आकस्मिक घटना नहीं थी, बल्कि यह अंग्रेजों द्वारा अपने साम्राज्यवादी एवं औपनिवेशिक हितों की पूर्ति के लिए ‘बांटो और राज करो की नीति के तहत उभारी गई एक क्रमिक प्रक्रिया थी।

भारत में सांप्रदायिकता के उदय के कारण (Causes of Rise of Communalism in India)
भारत में सांप्रदायिकता

दरअसल भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद की स्थापना के बाद जैसे-जैसे लोगों में राजनीतिक व आर्थिक चेतना का उदय हुआ, वैसे-वैसे धार्मिक पहचान का जुड़ाव राजनीतिक और आर्थिक मामलों से होने लगा और एक धार्मिक समूह के लोग अपने राजनीतिक और आर्थिक स्थिति की तुलना अन्य धार्मिक समूहों के राजनीतिक और आर्थिक स्थिति से करने लगे।

इस तुलनात्मक प्रक्रिया में जब किसी धार्मिक समूह को लगा कि उसके धार्मिक समूह की राजनीतिक व आर्थिक साधनों तक पहुँच अन्य समूहों की अपेक्षा कम है, तो वहीं से धार्मिक अलगाववाद और सांप्रदायिकता की भावना ने जन्म लेना शुरू किया। भारत में सांप्रदायिकता के उदय में अनेक कारणों ने सम्मिलित भूमिका निभाई।

सांप्रदायिकता के उदय के सामाजिक-आर्थिक कारण

भारत में सांप्रदायिकता उपनिवेशवादी अर्थव्यवस्था तथा इसके कारण उत्पन्न पिछड़ेपन का नतीजा थी। औपनिवेशिक शोषण के फलस्वरूप भारतीय अर्थव्यवस्था में जो ठहराव आया और भारतीय जनता, खासतौर से मध्य वर्ग के जीवन पर इसका जो प्रभाव पड़ा, उसके कारण ऐसी स्थितियाँ पैदा हुईं, जो भारतीय समाज के विभाजन और कलह तथा उसके गहरे रूपांतरण में सहायक थीं।

देशव्यापी आर्थिक ठहराव के कारण सरकारी नौकरियों, वकालत और डाक्टरी जैसे पेशों तथा उद्योग-धंधों में जबरदस्त प्रतिद्वंदिता थी। उपलब्ध आर्थिक अवसरों का अधिकतम हिस्सा हथियाने के लिए मध्यवर्ग के लोग जाति, प्रांत और धर्म जैसी सामूहिक पहचानों का सहारा लेते थे। इस तरह सांप्रदायिकता मध्यवर्ग के कुछ लोगों को तात्कालिक सहायता पहुँचा सकती थी और उसने पहुँचाया भी। वस्तुतः सिकुड़ते हुए आर्थिक अवसरों के उस दौर में सांप्रदायिकता की जड़ें मध्य वर्ग में निहित थीं तथा उसके द्वारा मध्य वर्ग ने अपने हितों तथा आकांक्षाओं को अभिव्यक्त किया। इस प्रकार सांप्रदायिकता मध्यवर्ग को सबसे अधिक आकर्षित करती थी।

मुसलमानों में सांप्रदायिक और अलगाववादी प्रवृत्ति के विकास का एक प्रमुख कारण शिक्षा, व्यापार और उद्योगों में उनका अपेक्षाकृत पिछड़ापन था। उन्नीसवीं सदी के पहले के 70 वर्षों में उच्च वर्ग के मुसलमान ब्रिटिश-विरोधी, रूढ़िवादी और आधुनिक शिक्षा के दुश्मन थे, इसलिए देश में शिक्षित मुसलमानों की संख्या बहुत कम थी। 1874-75 में बंगाल के स्कूल जानेवाले वाले बच्चों में मुसलमानों का भाग केवल 29 प्रतिशत था, जबकि हिंदुओं का भाग 70.1 प्रतिशत। उच्च शिक्षा में मुसलमानों का भाग तो और भी कम था- 1875 में बंगाल के कॉलेज जानेवाले छात्रों में 93.9 प्रतिशत हिंदुओं के मुकाबले मुसलमान केवल 5.4 प्रतिशत थे। साक्षर मुसलमानों में अंग्रेजी जानने वाले केवल 1.50 प्रतिशत थे, जबकि वे हिंदुओं में 4.40 प्रतिशत थे।

शिक्षा के अभाव में आधुनिक पश्चिमी विचार- विज्ञान, लोक और राष्ट्रवाद- मुसलमान बुद्धिजीवियों में नहीं फैल सके और उनमें राजनीतिक चेतना का विकास नहीं हो सका। इसके विपरीत, हिंदुओं ने बड़ी संख्या में अंग्रेजी तथा पश्चिमी शिक्षा प्राप्त करने में उत्साह दिखाया, जिसके परिणामस्वरूप नई शिक्षा पद्धति में ढलकर हिंदू सरकारी नौकरियों और अन्य आर्थिक लाभ के पदों पर काबिज हो गये।

सरकारी नौकरियों एवं व्यवसायों के लिए आधुनिक शिक्षा आवश्यक थी, किंतु धार्मिक रूढिवादिता, नवीन शिक्षा नीति और शिक्षा में अंग्रेजी भाषा के प्रसार के कारण मुसलमान बौद्धिक व्यवसाय में पिछड़ गये। ब्रिटिश सरकार के मुस्लिम-विरोधी चरित्र ने भी मुसलमानों के आर्थिक और सांस्कृतिक अधःपतन का पथ प्रशस्त किया।

यद्यपि 1858 की घोषणा में कहा गया था कि सार्वजनिक पदों पर नियुक्ति में सरकार, जाति, धर्म आदि का भेदभाव नहीं रखेगी, तथापि सरकार ने मुसलमानों को राजकीय पदों से वंचित करके और उन्हें शिक्षा तथा आर्थिक क्षेत्रों में लताड़कर बुरी तरह दंडित किया। ऊँचे पद यूरोपियनों को प्रदान किये गये और छोटे पद हिंदुओं को, किंतु मुसलमान सरकारी नौकरियों से वंचित हो गये, जिससे दोनों समुदायों के बीच आर्थिक और सांस्कृतिक खाई पैदा हो गई। 1871 में बंगाल में सरकारी अधिकारियों में मुसलमान केवल 5.9 प्रतिशत थे, तो हिंदू 41 प्रतिशत थे, यद्यपि 1882 में संयुक्त प्रांत की कम से कम 35 प्रतिशत सरकारी नौकरियाँ मुसलमानों के पास थीं और ऊँचे तथा प्रभावशाली पदों पर भी उनका अच्छा खासा प्रतिनिधित्व था।

किंतु 1883 में जब अंग्रेजी राज में अरबी और फारसी की जगह राजभाषा अंग्रेजी बनी, तो शक्ति और प्रभाववाले पद मुसलमानों से छिनकर हिंदुओं के हाथों में जाने लगे, जिन्होंने नये वातावरण से अपना तालमेल अधिक तेजी से स्थापित कर लिया था। कार्यपालिका और न्यायपालिका की निचली सेवाओं में मुसलमानों का भाग 1857 में 63.9 प्रतिशत था, जो 1886-87 में गिरकर 45.1 और 1913 में 34.7 प्रतिशत रह गया। जबकि इसी दौरान इन सेवाओं में हिंदुओं का भाग 24.1 प्रतिशत से बढ़कर 50.3 प्रतिशत और फिर 60 प्रतिशत हो गया। दूसरे शब्दों में, आधी सदी के अंदर सरकारी सेवाओं में हिंदुओ-मुसलमानों, दोनों समुदायों की तुलनात्मक उपस्थिति पूरी तरह उलट गई। यही स्थिति उद्योग-व्यापार में भी थी।

जब मुसलमानों में आधुनिक शिक्षा का कुछ विस्तार हुआ, तो एक शिक्षित मुसलमान के सामने व्यवसाय या व्यापार के बहुत कम अवसर थे। ऐसी स्थिति में मुसलमानों में यह धारणा पनपी कि अंग्रेजों और हिंदुओं के बीच मुस्लिम समाज के खिलाफ आंतरिक गठजोड़ है, जिससे दोनों समुदायों के बीच दूरी बढ़ने लगी और प्रतिक्रियावादी बड़े जमींदार, मध्यवर्गीय मुस्लिम जनता पर अपना प्रभाव बनाये रखने में सफल रहे। भू-स्वामी और जमींदार, चाहे हिंदू हों या मुसलमान, अपने स्वार्थ के कारण ब्रिटिश शासन का समर्थन करते थे।

वास्तव में उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षों में मुसलमान किसी भी तरह से एक स्पष्ट राजनीतिक विचार से युक्त एक समरस समुदाय नहीं थे। पूरे भारत में मुसलमानों की आबादी 1881 में कुल आबादी की 19.7 प्रतिशत थी, किंतु उनकी आबादी के वितरण में राजनीतिक अंतर था, जैसे संयुक्त प्रांत में 13 प्रतिशत से थोड़े से अधिक, पंजाब में 51 प्रतिशत से थोड़े से अधिक, और बंगाल में लगभग आधे (49.2 प्रतिशत) । इन असमानताओं के अलावा, भारतीय उपमहाद्वीप में फैले मुस्लिम समुदाय की स्थिति और संरचना में और भी कई भेद थे, जैसे शिया-सुन्नी के भेद, भाषा-संबंधी भेद और आर्थिक विषमताएं।

किंतु जब दक्षिण एशियाई इस्लाम में एक समरस धार्मिक राजनीतिक समुदाय का बिंब गढ़ा गया, तो भारतीय मुसलमानों का एक भाग भी अपने-आपको एकजुट, समरस और हिंदुओं से अलग उपनिवेशी छवि में देखने लगा। अब मुसलमानों ने एक मुस्लिम पहचान तैयार करने के लिए इन मिथकों को फैलाना शुरू किया और इसी पहचान ने बाद में और आगे बढ़कर मुस्लिम राष्ट्र का रूप घारण कर लिया। मुस्लिम उच्च वर्ग और प्रतिक्रियावादी बड़े जमींदारों ने अपने सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक हितों की रक्षा के लिए सांप्रदायिकता को एक राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया।

उच्चवर्गीय और प्रतिक्रियावादी मुसलमानों ने मुसलमानों में वर्गीय चेतना को उभारा और धर्म के आधार पर मुस्लिम समुदाय को एकताबद्ध किया ताकि मुस्लिम समुदाय को धार्मिक अस्मिता के नाम पर लामबंद करके ब्रिटिश सरकार और हिंदुओं से सौदेबाजी की जा सके। इन प्रतिक्रियावादी मुसलमानों ने प्रचार किया कि मुसलमानों के आर्थिक, राजनीतिक और धार्मिक अस्मिता की रक्षा तभी हो सकती है, जब उनका एक अलग राष्ट्र हो। प्रतिक्रियावादी मुसलमानों के दुष्प्रचार को धीरे-धीरे मुस्लिम निम्न वर्ग और मध्यम वर्ग की सहानभूति मिलने लगी, क्योंकि बड़ी चालाकी से उनकी आर्थिक दुर्दशा और धार्मिक अस्मिता को एक अलग राष्ट्र के विचार से जोड़ दिया गया।

‘बांटो और राज करो’ की ब्रिटिश नीति

अंग्रेजो के विरूद्ध 1857 में विद्रोही सैनिकों, जिनमें हिंदू और मुस्लिम दोनों थे, ने एकजुट होकर कंधे से कंधा मिलाकर ब्रिटिश शासन का विरोध किया था। विद्रोह में मुसलमानों की भूमिका को देखते हुए ब्रिटिश सरकार ने मुस्लिमों के खिलाफ भेदभावपूर्ण नीति अपनाई और हिंदुओं का पक्ष लेना शुरू किया। इस प्रकार 1857 के बाद सरकारी पदों पर मुसलमानों की नियुक्ति लगभग बंद कर दी गई और उन्हें संदेह की नजर से देखा जाने लगा। सरकार की इस भेदभाव की नीति से मुसलमानों को लगा कि उनके खिलाफ हिंदुओं और अंग्रेजों के बीच एक प्रकार का गठबंधन बन गया है और यहीं से हिंदुओं और मुसलमानों के बीच संदेह और अविश्वास की भावना पनपने लगी।

1870 के बाद भारतीय राष्ट्रवाद के उभार के कारण अंग्रेजों और मुसलमानों के बीच अच्छे संबंध की वकालत की जाने लगी। विलियम हंटर ने अपनी पुस्तक ‘दि इंडियन मुसलमान’ (The Indian Muslim) में ऐंग्लो-मुस्लिम मित्रता की आवश्यकता पर बल दिया, जिससे आंग्ल-मुस्लिम मित्रता की नींव पड़ी।

राष्ट्रीय भावना के विकास को रोकने के लिए अंग्रेजों ने ‘बाँटो और राज करो’ की नीति के तहत भारत की राजनीति में सांप्रदायिक और अलगाववादी प्रवृत्तियों को प्रोत्साहित देने के लिए मुसलमान जमींदारों, भू-स्वामियों और नवशिक्षित वर्गों को अपनी ओर खींचने का फैसला किया।

अंग्रेजों ने बंगाली वर्चस्व का नाम लेकर प्रांतवाद को हवा दी, गैर-ब्राह्मण जातियों को ब्राह्मणों के और निचली जातियों को ऊँची जातियों के खिलाफ खड़ा करने के लिए जातिप्रथा का प्रयोग किया। अंग्रेजों ने संयुक्त प्रांत और बिहार में उर्दू के स्थान पर हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया और आंदोलन को खुलकर प्रोत्साहन दिया।

ब्रिटिश सरकार ने हिंदुओं, मुसलमानों और सिखों को अलग-अलग समुदाय माना और सांप्रदायिक नेताओं को उनके सहधर्मियों का वास्तविक प्रतिनिधि मान लिया। ब्रिटिश सरकार ने प्रेस, पुस्तिकाओं, पोस्टरों, साहित्य और सार्वजनिक मंच से जहरीले सांप्रदायिक विचार और सांप्रदायिक घृणा फैलाने की भी पूरी छूट दे दी।

औपनिवेशिक सरकार ने जानबूझकर धर्म के आधार पर साक्षरता और व्यवसाय-संबंधी आंकड़ों का वस्तुनिष्ठ चित्र जनता के सामने रखा। उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षों में जब धर्मिक समूहों के संबंधों का पुनर्गठन हुआ तो हिंदुओं की लामबंदी के साथ ही साथ ‘दूसरा’ अर्थात् मुसलमानों की निंदा की गई। फलतः मुसलमान भी अपने साझे धर्म और गढ़े हुए अतीत के आधार पर अपनी सामुदायिक पहचान की तलाश करने लगे।

उन्नीसवीं सदी में पंजाब के शहरों में आर्यसमाज के आक्रामक आंदोलन ने मुसलमानों को जवाबी लामबंदी के लिए प्रेरित किया, तो देहातों में सज्जादानशीनों, पीरों और उल्मा के सहारे इस्लाम ने ग्रामीण राजनीति में पैठ की।

1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के बाद अंग्रेजों ने राष्ट्रवादी ताकतों को दबाने और मुस्लिम समुदाय का विश्वास अर्जित करने के लिए मुसलमानों को नौकरियों में आरक्षण, विभिन्न सेवाओं में प्राथमिकता और अन्य सुविधाएँ देने की नीति अपनाई। इस प्रक्रिया में सर सैयद अहमद खान जैसा व्यक्ति भी अंग्रेजों की ‘बांटो और राज करो’ की नीति के प्रभाव में आकर मुस्लिमों को हिंदुओं से दूर रहने और अंग्रेजों से अपनी नजदीकियां बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करने लगा।

बीसवीं सदी के पहले दशक में ब्रिटिश सरकार ने अपने ‘बांटों और राज करो’ की नीति के अंतर्गत बंगाल-विभाजन किया और मुस्लिम लीग जैसे सांप्रदायिक संगठन की स्थापना करवाई।

ब्रिटिश सरकार ने 1909 के मार्ले-मिंटो सुधार अधिनियम में मुस्लिमों के लिए पृथक् निर्वाचन क्षेत्रों की व्यवस्था करके दोनों समुदायों के मध्य विभाजन की दीवार को और चौड़ा कर दिया, जिसे 1919 के अधिनियम में अन्य अल्पसंख्यक वर्गों तक विस्तृत कर दिया। इस प्रकार ब्रिटिश सरकार की विभाजनकारी नीतियों के कारण भारत में सांप्रदायिकता का उदय हुआ।

इसके अलावा, ब्रिटिश सरकार ने एक सोची-समझी नीति के तहत जहाँ सांप्रदायिक नेताओं को अपने संप्रदाय के नेता के रूप में स्वीकार किया, वही राष्ट्रीय नेताओं पर आरोप लगाया कि वे केवल ‘सूक्ष्म अल्पतंत्र’ का ही प्रतिनिधित्व करते हैं।

सर सैयद अहमद खाँ की भूमिका

धार्मिक अलगाववाद के विकास में मुस्लिम पुनर्जागरण के अग्रदूत सर सैयद अहमद खाँ (सितार-ए-हिंद) की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है।

अपने सार्वजनिक जीवन के प्रारंभिक काल में सर सैयद अहमद खाँ कट्टर राष्ट्रवादी थे और उनका दृष्टिकोण बुद्धिमत्तापूर्ण, दूरदर्शी एवं सुधारवादी था, किंतु जीवन के अंतिम दिनों में उनकी राष्ट्रीयता सांप्रदायिकता में परिवर्तित हो गई। सैयद अहमद खाँ ने कांग्रेस की स्थापना के पूर्व असांप्रदायिक आधार पर कई शिक्षण संस्थाओं की स्थापना की थी।

सैयद अहमद खाँ के जीवन के दो प्रमुख उद्देश्य थे- प्रथम, अंग्रेजी हुकूमत और मुस्लिमों के मध्य 1857 के विद्रोह के बाद उत्पन्न हुए अविश्वास की खाई को भरना और दूसरा मुसलमानों में आधुनिक शिक्षा का प्रसार करना, ताकि उनका पिछड़ापन दूर हो सके और उन्हें ब्रिटिश सरकार के अंतर्गत होनेवाले सरकारी पदों के योग्य बनाया जा सके। सैयद अहमद का कहना था कि अल्पसंख्यक होने के बावजूद मुसलमानों को एक भूतपूर्व शासक वर्ग का होने के कारण सत्ता में विशेष प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए और राजनीतिक व्यवस्था के साथ उनका एक विशेष संबंध होना चाहिए। सैयद ने ‘भारत के वफादार मुसलमान’ नामक पत्र में मुसलमानों तथा अंग्रेजों के मध्य सद्भावना उत्पन्न करने के लिए कई लेख लिखे और मुसलमानों में आधुनिक शिक्षा के प्रसार के लिए कई संस्थाओं की स्थापना की।

भारत में सांप्रदायिकता के उदय के कारण (Causes of Rise of Communalism in India)
सर सैयद अहमद खाँ

सर सैयद का मुस्लिम-अंग्रेज गठबंधन का प्रयास यद्यपि हिंदू-विरोधी न होकर पूर्णरूप से मुस्लिम हितों की रक्षा करना था, लेकिन इस प्रक्रिया ने दोनों समाजों के बीच दरार पैदा की, जो आनेवाले समय में बढ़ती गई। अहमद खां हिंदू और मुसलमानों को भारत माता के दो नेत्र मानते थे।

अहमद खाँ की राजनीतिक विचारधारा इस विचार पर आधारित थी कि भारतीय समाज विभिन्न परस्पर विरोधी समुदायों का जमघट है, किंतु जब देश की आजादी के बाद कांग्रेस के नेतृत्ववाली सरकार बनेगी तो उसमें स्वाभाविक रूप से हिंदुओं का वर्चस्व होगा और मुसलमान दूसरे दर्ज के नागरिक माने जायेंगे। अहमद खाँ की राजनीतिक विचारधारा से हिंदू-मुस्लिम एकता पर विपरीत प्रभाव पड़ा और कांग्रेस के अधिवेशनों में मुस्लिमों की संख्या निरंतर घटती गई।

कांग्रेस ने 1888 में एक नियम यह बनाया था कि अगर हिंदू या मुसलमान प्रतिनिधियों का भारी बहुमत आपत्ति करे, तो कोई भी प्रस्ताव पारित नही होंगे। इसके साथ-साथ कांग्रेस ने 1889 में विधायिकाओं के सुधार की मांग करनेवाले प्रस्ताव में अल्पसंख्यकों के समानुपाती प्रतिनिधित्व की सिफारिश करनेवाली एक धारा भी जोड़ी गई।

किंतु बंबई के बदरुद्दीन तैयब जी को छोड़ दिया जाए तो, 1892 और 1909 के बीच के कांग्रेस के अधिवेशनों में आये प्रतिनिधियों में लगभग 90 प्रतिशत हिंदू थे, जबकि केवल 6.5 प्रतिशत मुसलमान थे। हिंदुओं में भी लगभग 40 प्रतिशत ब्राह्मण और बाकी सवर्ण हिंदू थे। इस प्रकार कांग्रेसी राष्ट्रवाद से मुस्लिम विमुखता मुख्यतः सर सैयद अहमद की देन थी।

सैयद अहमद खाँ के विचार निःसंदेह अवैज्ञानिक और वास्तविकता से दूर थे। यद्यपि हिंदू और मुसलमान अलग-अलग धर्मों को मानते थे, किंतु इस कारण उनके आर्थिक और राजनीतिक हित अलग-अलग नहीं थे। एक बंगाली मुसलमान और एक पंजाबी मुसलमान की तुलना में एक बंगाली मुसलमान और एक बंगाली हिंदू में अधिक समानता थी। उत्तर भारत के मुस्लिम समुदाय में सर सैयद के नेतृत्व को कभी पूरी तरह स्वीकार नहीं किया गया।

जमालुद्दीन अल-अफगानी जैसे लोग भी थे, जो कट्टर उपनिवेशवाद विरोधी थे और सर सैयद की अंग्रेजों के प्रति वफादारी को पसंद नहीं करते थे। 1880 के दशक के अंत तक उत्तर भारत के अनेक मुसलमान कांग्रेस की ओर झुकने लगे थे, जबकि 1887 में बंबई के बदरूद्दीन तैयब जी उसके पहले मुस्लिम अध्यक्ष बने। 1890 के दशक के अंत तक पंजाब के अनेक उर्दू अखबार यह कहने लगे थे कि अलीगढ़ संप्रदाय भारतीय मुसलमानों का प्रतिनिधित्व नहीं करता।

भारतीय इतिहास का सांप्रदायिक लेखन

ब्रिटिश साम्राज्यवाद को सुदृढ़ करने के उद्देश्य से अनेक अंग्रेजी इतिहासकारों ने भारतीय इतिहास की ऐसी विकृत व्याख्या की, जिससे हिंदुओं और मुसलमानों में सांप्रदायिक भावनाओं का विकास हुआ।

ब्रिटिश इतिहासकारों और उनका अनुकरण करनेवाले भारतीय इतिहासकारोंन ने प्राचीन भारत को ‘हिंदू काल’ तथा मध्य काल को ‘मुस्लिम काल’ की संज्ञा दी। तुर्क, अफगान और मुगल शासकों के शासन को ‘मुस्लिम शासन’ कहा गया।

यद्यपि मुस्लिम जनता भी हिंदू जनता की ही तरह पीडि़त और करों के बोझ से दबी थी और दोनों ही वर्गों को, चाहे हिंदू हो या मुसलमान, शासक वर्ग एक समान अपमान की दृष्टि से देखते थे। फिर भी, सांप्रदायिक इतिहासकारों ने यह अनैतिहासिक घोषणा की कि मध्यकालीन भारत में सारे मुसलमान शासक थे और सारे गैर-मुसलमान शासित थे।

वास्तव में, अन्य देशों की तरह भारत में भी प्राचीन और मध्यकालीन युग में राजनीति का आधार आर्थिक और राजनैतिक हित थे, न कि धार्मिक विचार। शासकों और विद्रोहियों, दोनों ने धर्म का उपयोग अपने भौतिक हितों और महत्त्वाकांक्षाओं को छिपाने के लिए किया। सांप्रदायिक इतिहासकारों ने भारत में शासकों के आपसी संघर्ष को हिंदू-मुस्लिम संघर्ष के रूप में प्रस्तुत किया।

गरमपंथी राष्ट्रवाद और हिंदू पुनरुत्थानवाद

उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भारत में उदारवादी आंदोलन की असफलता, राष्ट्रीय आंदोलन से आम जनता को जोड़ने की आवश्यकता और हिंदू धर्म के प्राचीन गौरव को उभारने के लिए ‘हिंदू पुनरुत्थानवाद का उदय हुआ।

भारत में सांप्रदायिकता के उदय के कारण (Causes of Rise of Communalism in India)
हिंदू पुनरुत्थानवाद

यह हिंदू ‘पुनरुत्थानवाद मात्र पोंगापंथ नहीं था, इसका एक जोरदार राजनीतिक स्वर भी था, जो एक आधुनिक भारतीय राष्ट्र की रचना की ऐतिहासिक आवश्यकता से प्रेरित था।’ हिंदू पुनरुत्थानवादी आंदोलन ने अनजाने में ही इस भ्रामक धारणा का प्रचार किया कि भारतीय समाज और संस्कृति प्राचीन काल में ‘महानता’ और ‘आदर्श’ की ऊँचाइयों पर विराजमान थी, किंतु मध्यकाल में मुस्लिम शासन और प्रभुत्व के कारण उनका निरंतर पतन हुआ और इसे अंग्रेजों की ओर से खतरा है।

आरंभ में तो हिंदू पुनरुत्थानवाद (Hindu Revivalism) का स्वरुप सामाजिक था, लेकिन शीघ्र ही इसने अपने लिए एक राजनीतिक भूमिका तैयार कर ली और धार्मिक प्रतीकों, देवी-देवताओं और सांस्कृतिक-धार्मिक उत्सवों के सहारे यह राष्ट्रीय आंदोलन का प्रचारक बन गया।

राष्ट्रीय आंदोलन के प्रारंभिक चरण में राष्ट्रवादियों ने अल्पसंख्यकों को यह विश्वास दिलाने की कोशिश की कि राष्ट्रीय आंदोलन सभी भारतीयों के धार्मिक और सामाजिक अधिकारों की सावधानीपूर्वक रक्षा करेगा। इसी क्रम में 1886 और 1889 के भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशनों में घोषित किया गया था कि उसके अधिवेशनों में सामाजिक-धार्मिक प्रश्न नहीं उठाये जायेंगे। किंतु गरमपंथी राष्ट्रवाद जहाँ राष्ट्रीय आंदोलन की दिशा में आगे की ओर बढ़ा हुआ एक कदम था, वहीं राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से एक प्रतिगामी कदम भी था।

उग्रपंथी विचारधारा अपने राजनीतिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए धर्म के व्यापक उपयोग में विश्वास करती थी। पंजाब के लाला लाजपत रॉय, बंगाल के विपिनचंद्र पाल और महाराष्ट्र के बाल गंगाधर तिलक जैसे कुछ गरमपंथी राष्ट्रवादियों के भाषण और लेखन धार्मिक और हिंदू रंगत में रंगे हुए होते थे। हिंदुओं को एकजुट करने के लिए गरमपंथी नेता तिलक ने गणपति एवं शिवाजी जैसे धार्मिक उत्सवों की शुरूआत की, हिंदुओं से मुस्लिम पर्वों एवं त्योहारों का बहिष्कार करने की अपील की।

उत्तर भारत में हिंदुओं की राजनीतिक लामबंदी के लिए आर्यसमाज ने गोरक्षा आंदोलन आरंभ किया जिससे मुस्लिम समुदाय के मन में विभिन्न प्रकार की शंकाओं ने जन्म लिया। 1893 के गोवध-संबंधी दंगों के बाद गोवध पर कानूनी प्रतिबंध की हिंदू माँग और उस पर कांग्रेस की चुप्पी ने अल्पसंख्यकों का डर और बढा़ दिया। इसके अलावा, बंगाल का हिंदू भद्रलोक अकसर मुसलमानों को अपमान भाव से देखता था। हिंदू जात्रा (ग्रामीण नाटकों की) पार्टियाँ अकसर मुस्लिम ऐतिहासिक पात्रों की निंदा करती थीं जिससे तनावों का बढ़ना स्वाभाविक था।

भारत माता तथा राष्ट्रवाद की धर्म के रूप में अरविंद घोष की अवधारणाएँ, गंगा-स्नान के पश्चात् बंग-भंग विरोधी आंदोलन का प्रारंभ तथा क्रांतिकारी आतंकवादियों द्वारा देवी काली या भवानी के सम्मुख शपथ-ग्रहण करने जैसी रस्में किसी मुसलमान को शायद ही पसंद आतीं। इन मुस्लिम-विरोधी रस्मों से हिंदुओं और मुसलमानों, दोनों समुदायों के बीच सांप्रदायिकता की खाई और चौड़ी हुई। अकबर और औरंगजेब के विरुद्ध क्रमशः महाराणा प्रताप और शिवाजी के राजनीतिक संघर्ष को धार्मिक संघर्ष के रूप में महिमामंडित करना भी ऐतिहासिक भूलें थीं।

यद्यपि गरमपंथी या हिंदू पुनरुत्थानवादी मुस्लिम-विरोधी या पूरी तरह संप्रदायवादी नहीं थे और उनमें से अधिकांश तो हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रबल समर्थक थे। फिर भी, राष्ट्रवादियों के राजनीतिक कार्यों और विचारों पर हिंदू रंगत की कुछ छाप हुआ करती थी और ब्रिटिश सरकार इस हिंदू रंगत का लाभ उठाकर मुसलमानों के मन में जहर घोलती थी। परिणामतः मुसलमान बड़ी संख्या में राष्ट्रीय आंदोलन से दूर होते चले गये या उसके शत्रु बन गये।

बंगाल विभाजन-विरोधी आंदोलन

भारतीय राष्ट्रवाद की उठती हुई लहर के जवाब के रूप में ब्रिटिश सरकार ने सरकारी सेवाओं में मुसलमानों का विशेष प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करके हिंदुओं के विरुद्ध मुसलमानों को खड़ा करने की नीति अपनाई।

मुसलमानों को विशेष संरक्षण देने की नीति सबसे पहले जुलाई 1885 के एक प्रस्ताव में पेश की गई थी। 1897 के एक गश्ती पत्र (सर्क्यूलर) में प्रावधान किया गया कि कार्यपालिका की निचली सेवाओं में दो-तिहाई खाली पद नामांकन द्वारा भरे जायेंगे, ताकि समुदायों के बीच संतुलन आ सके। मुसलमानों को विशेष संरक्षण की नीति को अंततः 1905 में बंग-भंग में संस्थागत रूप दिया गया, जब मुसलमानों के बहुमत वाला एक नया, पूर्वी बंगाल प्रांत बनाया गया।

बंगाल के विभाजन के लिए प्रशासनिक सुविधा का चाहे जितना ढिढोरा पीटा गया हो, इसका मुख्य उद्देश्य बंगाल में हिंदू-मुस्लिम एकता को तोड़कर उसे क्षेत्रीय आधार पर विभाजित करना था। इसके अलावा बंगाल-विभाजन से सरकार मुसलमानों को यह संदेश देना चाहती थी कि नया प्रांत बन जाने से उन्हें राजनीतिक व प्रशासनिक अवसर ज्यादा प्राप्त होंगे। कुछ हद तक ब्रिटिश सरकार और गवर्नर जनरल लार्ड कर्जन की मुसलमानों को यह विश्वास दिलाने में लगभग कामयाब रहे कि बंगाल का विभाजन मुस्लिमों के हित में है। यही कारण था कि मुस्लिमों का एक बड़े तबके ने अंग्रेजों झांसे में आते हुए बंगाल-विभाजन का समर्थन किया और बंग-भंग विरोधी आंदोलन को हिंदू बहुसंख्यक तानाशाही की संज्ञा दी।

बंग-भंग-विरोधी स्वदेशी नेता राजनीतिक प्रश्नों पर एक धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण अपनाने के बजाय बराबर यह राग अलापते रहे कि हिंदुओं की कीमत पर मुसलमानों को विशेष सुविधाएँ दी जा रही हैं। स्वदेशी आंदोलन ने जल्द ही मुसलमानों पर साफ-साफ ‘दूसरा’ या अन्य की मुहर लगा दी और विभाजन-विरोधी आंदोलन जल्दी ही मुसलमानों की चेतना में एक मुसलमान-विरोधी आंदोलन बन गया।

किंतु सभी मुसलमान अलगाववादी या सरकार-समर्थक नहीं थे। अब्दुर्रसूल और हसरत मोहानी जैसे कुछ प्रगतिशील मुस्लिम बुद्धिजीवी स्वदेशी आंदोलन में बड़ी संख्या में शामिल हुए थे। किंतु अनेक मुसलमान सांप्रदायिक दंगों की बाढ़ में बह गये और बंगाल के अनेक भागों में हिंदू-मुस्लिम दंगे (Hindu-Muslim Riots) हुए। यद्यपि बंगाल के दंगो का तत्कालिक कारण बंगाल-विभाजन का विरोध या समर्थन था, किंतु इस दंगे की प्रवृति मुख्यतः आर्थिक थी जो हिंदू जमींदारों या पूँजीपतियों और मुस्लिम किसानों और श्रमिकों के बीच थी।

अंततः अंग्रेजी सरकार ने जब 1911 में बंगाल-विभाजन को निरस्त किया तो बंगाल के उन मुस्लिमों को बहुत निराशा हुई जो नये राज्य में अपने लिए कुछ विशेष राजनीतिक व प्रशासनिक विशेषाधिकारों की उम्मीद पाल बैठे थे.। बंगाल के मुसलमानों के बीच यह प्रचार किया गया कि अगर कांग्रेस के नेतृत्व में ब्रिटिश शासन से आजादी प्राप्त हुई तोयह मुख्यतः हिन्दुओं की तानाशाही पर आधारित होगी और मुस्लिमों को दोयम दर्जे की नागरिक माना जायेगा।

मुस्लिम लीग की स्थापना

भारत-सचिव मार्ले ने 1906 के बजट-भाषण ने संकेत दिया कि भारत में प्रातिनिधिक शासन का आरंभ किया जानेवाला है तो सभी मुस्लिम नेता चिंतित हो उठे। मुस्लिम नेताओं को लगता था कि नई स्वशासी संस्थाओं में बहुसंख्यक हिंदू छा जायेंगे, जो अब कांग्रेस में अच्छी तरह संगठित थे। मुसलमानों का एक प्रतिनिधिमंडल 1 अक्टूबर 1906 को शिमला में गवर्नर जनरल लार्ड मिंटो से मिला। वायसराय ने आश्वासन दिया कि मुसलमानों के अधिकारों को हानि पहुंचने नहीं दी जायेगी। मुसलमानों प्रतिनिधिमंडल ने स्वतंत्र राजनीतिक कार्रवाई के लिए अपने समुदाय को संगठित करने का निर्णय किया ताकि ‘‘वे अपने लिए सरकार से एक राष्ट्र के अन्दर एक राष्ट्र की मान्यता पा सकें।’’

ब्रिटिश सरकर की शह पर 30 दिसंबर 1906 को ढाका (बांग्लादेश की राजधानी) में नवाब बकार-अल-मुल्क, आगा खाँ तथा मोहसिन-उल-मुल्क ने एक वफादार, सांप्रदायिक और रूढि़वादी राजनीतिक संगठन ‘आल इंडिया मुस्लिम लीग’ का गठन किया। मुस्लिम लीग ने न केवल बंगाल के विभाजन का समर्थन किया, बल्कि मुसलमानों के लिए अलग मतदाता मंडलों की माँग भी की। मुस्लिम लीग का संघर्ष ब्रिटिश सत्ता से नहीं, बल्कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और हिंदुओं से था।

भारत में सांप्रदायिकता के उदय के कारण (Causes of Rise of Communalism in India)
आल इंडिया मुस्लिम लीग

प्रसंगतः बंगाल का पहला मुस्लिम संगठन 1855 में स्थापित ‘मुहम्मडन एसोसिएशन’ (Muhammadan Association) या ‘अंजुमने-इस्लामी’ था।

मुहम्मडन एसोसिएशन के दो उद्देश्य थे- अपने समुदाय के हितों को बढ़ावा देना और अंग्रजों के प्रति वफादारी का उपदेश देना। गवर्नर को दिये गये अपने एक ज्ञापन में मुहम्मडन एसोसिएशन ने हिंदुओं के साथ प्रतियोगिता में कोई अलग विशेषाधिकार नहीं, बल्कि बराबरी के अवसर की माँग की थी।

इसके लिए मुहम्मडन एसोसिएशन ने शिक्षा के प्रसार के विशेष प्रयासों का समर्थन किया, अंग्रेजी राज के प्रति वफादारी जताई और 1857 के विद्रोह की निंदा की थी। मुस्लिम लीग अलीगढ़ आंदोलन का चरर्मोत्कर्ष नहीं थी, बल्कि बंगाली मुसलमानों में जारी राजनीतिक विकासक्रमों की उपज थी।

लीग के पहले आरंभिक दशक में उस पर संयुक्त प्रांत के मुसलमान हावी रहे और इसके कारण अलीगढ़ अखिल भारतीय मुस्लिम राजनीति का केंद्र बन गया। विकारुल-मुल्क और मोहसिनुल-मुल्क तथा कुछ पंजाबी नेताओं की मदद से अलीगढ़ के बजुर्गों ने लीग को स्वयं का संगठन बना लिया और उसे स्वयं की वैचारिक प्राथमिकताओं के साँचे में ढाला। 1907 और 1909 के बीच सभी प्रमुख प्रांतों में प्रांतीय मुस्लिम लीगों का गठन हुआ और उन्हें अपने संविधान तैयार करने की स्वतंत्रता थी। मई 1908 में लीग की लंदन शाखा का आरंभ हुआ और उसने सैयद अमीरअली के नेतृत्व में अपने 1909 के संवैधानिक सुधारों अर्थात् मार्ले-मिंटो सुधारों, को निर्धारित करने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

मार्ले-मिंटो सुधार और पृथक् चुनाव मंडल

मार्ले-मिंटो सुधारों ने अलग चुनाव-मंडल तथा केंद्रीय विधायिका और प्रांतीय विधायिकाओं में मुसलमानों के लिए आबादी में उनके अनुपात से कहीं बहुत अधिक संख्या में सीटों के आरक्षण का प्रावधान करके भारतीय मुसलमानों की अलग राजनीतिक पहचान को एक आधिकारिक वैधता दी।

अलग चुनाव-क्षेत्रों में सभी मतदाता एक ही धर्म के माननेवाले होते थे, जिससे जमकर सांप्रदायिक आधार पर चुनाव का प्रचार किया जाता था। भारत सचिव लार्ड मार्ले ने वायसराय मिंटो को लिखा था, ‘‘पृथक् निर्वाचन क्षेत्र बनाकर हम ऐसे घातक विष के बीज बो रहे हैं, जिनकी फसल बड़ी कड़वी होगी।’’

मुस्लिम लीग की अभिजातवर्गीय नेतृत्व की सरकारपरस्त, हिंदू-विरोधी नीतियों से युवा राष्ट्रवादी मुसलमानों को बहुत दुःख हुआ। नवाब सादिक अली खाँ को कहना था कि ‘‘मुसलमानों को यह शिक्षा देना कि उनके राजनीतिक हित हिंदुओं से पृथक् हैं, अच्छा नहीं है।’

मुहम्मद अली जिन्ना ने पृथक् प्रतिनिधित्व की व्यवस्था को भारत के ‘राजनीतिरूपी शरीर में बुरी नीयत से प्रविष्ट किया गया विषैला तत्त्व’ बताया। जिन्ना ने 1906 में कांग्रेस अधिवेशन में कांग्रेस के मंच से ‘मुसलमानों के लिए अलग प्रतिनिधित्व अथवा विशेष सुविधाओं’, जिनकी माँग आगा खाँ आदि ने अंग्रेजों के समक्ष रखी थी, का विरोध किया। जिन्ना ने कहा था, ‘‘मैं समझता हूँ कि मुस्लिम समाज के साथ वही सलूक करना चाहिए, जैसा हिंदू समाज के साथ किया जा रहा है।’’ 1906 के बाद जिन्ना ने जितनी जनसभाएं कीं, उनमें राष्ट्रीय एकता पर ही बल दिया, जिसके कारण सरोजनी नायडू ने उन्हें ‘हिन्दू-मुस्लिम एकता के राजदूत’ (Ambassador of Hindu-Muslim Unity) की संज्ञा दी थी।

सांप्रदायिकता की दिशा में जिन्ना का पहला कदम बिना उनकी इच्छा के उठा, जब वे पृथक मतदाता मंडलों की व्यवस्था के तहत बंबई से केंद्रीय विधान परिषद के मुसलमान सदस्य चुने गये। 1913 में जिन्ना मुस्लिम लीग में सम्मिलित हो गये।

बीसवीं सदी के पहले दशक के बाद विभिन्न कारणों से मुस्लिम युवा वर्ग में आधुनिक और परिवर्तनवादी विचारों का प्रवेश हुआ। 1911 में बंगाल-विभाजन की निरस्ति जैसे कार्यों से प्रथम विश्वयुद्ध के पहले ही नये मुस्लिम मध्य वर्ग में भी राजनीतिक परिपक्वता आ रही थी। मौलाना अबुलकलाम आजाद अल-हिलाल’ (1912) के माध्यम से बुद्धिवादी और राष्ट्रीय विचारों का प्रचार कर रहे थे। पढ़े-लिखे मुसलमानों को लगने लगा था कि अंग्रेजों का पिट्ठू बनकर रहना मुसलमानों के व्यापक और दीर्घकालीन हित में नहीं है।

डॉ. अंसारी, मौलाना मोहम्मद अली, हाकिम अजमल खां जैसे प्रखर मुस्लिम नेता, जो सैयद अहमद खान के अलीगढ आंदोलन की प्रशंसा करते हुए भी विश्वास करते थे कि मुसलमानों को अंग्रेजी सरकार से नजदीकियां त्यागकर राष्ट्रीय आंदोलन का भाग बनना चाहिए, कांग्रेस के साथ समझौता करना चाहते थे। इस प्रकार की राष्ट्रवादी भावनाएँ पारंपरिक मुसलमान उलेमाओं के एक वर्ग में भी उभर रही थी, जिसका नेतृत्व देवबंद स्कूल करता था।

हिंदूवादी सांप्रदायिकता

मुस्लिम सांप्रदायिकता के समानांतर हिंदू सांप्रदायिकता का भी उदय हुआ। अनेक हिंदू लेखकों और नेताओं ने मुस्लिम सांप्रदायिकता और मुस्लिम लीग के विचारों और कार्यक्रमों को ही दोहराया। वास्तव में हिंदू संप्रदायवाद की नींव आर्यसमाज (1875) के शुद्धि आंदोलनों ने ही रख दी थी।

संयुक्त प्रांत और बिहार में हिंदी के सवाल को सांप्रदायिक रंग दिया गया और इस अनैतिहासिक अवधारणा का प्रचार किया गया कि उर्दू मुसलमानों की और हिंदी हिंदुओं की भाषा है। दरअसल 1870 के बाद से ही हिंदू जमींदारों, सूदखोरों और मध्यवर्गीय पेशेवर लोगों ने मुस्लिम-विरोधी भावनाएँ भड़काना प्रारंभ कर दिया था। 1890 में दशक में महाराष्ट्र, पंजाब और देश के कुछ अन्य उत्तरी भाग में कुछ हिंदू संगठनों ने मुसलमानों के खिलाफ पूरे भारत में गोवध-विरोधी प्रचार अभियान चलाया जिसके कारण जगह-जगह भीषण दंगे हुए। गो-रक्षा-संबंधी दंगों के दौरान राजनीतिक लामबंदी के लिए हिंदू धार्मिक और ऐतिहासिक प्रतीकों के उपयोग की दूसरी और भी खुली कोशिशें की गईं।

1893 के बंबई के भीषण दंगे के बाद महाराष्ट्र में बाल गंगाधर तिलक ने मुसलमानों के पक्ष में सरकार के होने का आरोप लगाते हुए मुहर्रम के त्योहार का बहिष्कार करने और भगवान गणपति के पूजा के सार्वजानिक त्योहार में भाग लेने के लिए पूना के हिंदुओं का आह्वान किया। तिलक के अगुआई में धार्मिक उत्सव और प्रतीक, सांप्रदायिक राजनीति के औजार बन गये, जिसके फलस्वरूप धार्मिक उत्सव सांप्रदायिक तनाव के कारण बनने लगे और गणेश पूजा तथा मुहर्रम के दौरान होनेवाले उत्सवों पर देश के अनेक भागों से दंगों की खबर आने लगी।

भारत में सांप्रदायिकता के उदय के कारण (Causes of Rise of Communalism in India)
हिंदूवादी सांप्रदायिकता

इस प्रकार धार्मिक पुनरुत्थानवाद और गो-रक्षा के प्रश्न पर हुए भीषण दंगो के कारण देश में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच सदियों से चली आ रही परस्पर भाईचारे की भावना और 1857 में दिखाई गई एकता की मिशाल धुंधली पड़ने लगी।

किंतु अभी तक यह विवाद धार्मिक अलगाव तक ही सीमित था और राजनीतिक व राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधक नही बन सकी थी। हिंदू सांप्रदायिकता के उदय में हिंदू महासभा का योगदान सबसे अधिक था।

1909 में बी.एन. मुखर्जी तथा लालचंद्र ने पंजाब हिंदू सभा की स्थापना की थी। लालचंद्र को इस बात का बड़ा दुःख था कि राष्ट्रीय कांग्रेस सभी भारतीयों को एक राष्ट्र के रूप में संगठित करने की कोशिश कर रही है और मुसलमानों को राजी करने के लिए ‘हिंदू-हितों की बलि’ दे रही है। लालचंद्र ने घोषणा की कि हिंदू स्वयं को ‘पहले हिंदू और फिर भारतीय’ मानें। पता चलता है कि 1910 में इलाहाबाद के कुछ प्रमुख हिंदुओं ने अखिल भारतीय हिंदू महासभा बनाने का निश्चय किया था। 1911 मे पंजाब हिंदू महासभा ने अमृतसर में हिंदू सम्मलेन का आयोजन किया।

अप्रैल 1915 में अखिल भारतीय हिंदू महासभा का प्रथम अधिवेशन कासिम बाजार के महाराजा की अध्यक्षता में हुआ। बहुसंख्यक समुदाय द्वारा गठित इन गरमवादी संगठनों ने हिंदू राष्ट्रवाद तथा हिंदू हितों की वकालत की, जिसका मुस्लिम समुदाय पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा और सांप्रदायिकता को बढ़ावा मिला।

मुस्लिम लीग खुद को मुस्लिमों के एकमात्र सच्चे प्रतिनिधित्व का दावा करती थी तथा कांग्रेस को एक हिंदूवादी संगठन के रूप में प्रचारित करती थी। लेकिन कांग्रेस अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि को लेकर बहुत जागरूक थी तथा वह समाज के सभी धर्मो और वर्गों के हितों के प्रति सचेष्ट थी।

बंगाल-विभाजन को रद्द करने और प्रथम विश्वयुद्ध में तुकी के विरुद्ध इंग्लैंड द्वारा युद्व की घोषणा जैसे ब्रिटिश सरकार के निर्णयों के कारण मौलाना आजाद तथा मुहम्मद अली जिन्ना जैसे युवा राष्ट्रवादी सरकारपरस्तों पर भारी पड़ने लगे थे।

राष्ट्रीय आंदोलन को एक नई दिशा देने के लिए मुस्लिम लीग और कांग्रेस दोनों के वार्षिक अधिवेशन दिसंबर 1915 में बंबई में हुए और पहली बार इन दोनों राजनीतिक दलों के प्रमुख नेता एक स्थान पर एकत्र हुए। तिलक और जिन्ना के प्रयास से 1916 के अंत में लीग और कांग्रेस का अधिवेशन लखनऊ में हुआ। लीग और कांग्रेस ने ‘लखनऊ समझौते’ के तहत एक संयुक्त कार्यक्रम के आधार पर राजनीतिक क्षेत्र में एक दूसरे के साथ सहयोग करने के संबंध में एक समझौता किया और सरकार के सामने एक जैसी राजनीतिक माँगें रखीं।

भारत में सांप्रदायिकता के उदय के कारण (Causes of Rise of Communalism in India)
लीग और कांग्रेस में लखनऊ समझौता

लखनऊ समझौते में कांग्रेस ने मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचक मंडल की माँग को भी औपचारिक रूप से स्वीकार कर लिया, जो मुस्लिम लीग के लिए एक बहुत सकारात्मक उपलब्धि थी, क्योंकि कांग्रेस अब तक इसका विरोध करती आ रही थी। पृथक् निर्वाचन के सिद्धांत को स्वीकार कर कांग्रेस ने वास्तव में सांप्रदायिकता की राजनीति को स्वीकार कर लिया और मुस्लिम लीग को अप्रत्यक्ष रूप से मुसलमानों के प्रतिनिधि संस्था के रूप में मान्यता प्रदान कर दी जिससे एक नये प्रकार की सांप्रदायिकता का विकास हुआ।

मुस्लिमों का समर्थन पाने के लिए असहयोग आंदोलन में मुस्लिमों के धार्मिक आंदोलन ‘खिलाफत’ को जोड़ने से कुछ समय के लिए हिंदू-मुस्लिम एकता अपने चरम पर पहुंच गई, किंतु यह क्षणिक साबित हुई। खिलाफत आंदोलन से रुढि़वादी मुसलमानों को राजनीति में प्रवेश का मौका मिला जो स्वतंत्र भारत को धार्मिक समुदायों के एक संघ से ऊपर नही देखते थे।

खिलाफत आंदोलन ने मुस्लिम मध्यवर्ग की राष्ट्रीय तथा साम्राज्यवाद-विरोधी भावना को तो जगाया, लेकिन उनकी धार्मिक राजनीतिक चेतना को उच्चतर धरातल पर ले जाकर उसे धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक चेतना में परिवर्तित करने में असफल रहा। फलतः लीग-कांग्रेस गठबंधन से भारत में सांप्रदायिकता को पनपने का अवसर मिला।

भारतीय समाज शुरू से ही पश्चिमी समाज से अलग धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से एक एकीकृत समाज रहा था। ब्रिटिश उपनिवेशवादी नीतियों और कुछ भारतीय नेताओं और आर्थिक वर्गों के हितों के कारण भारत के एकीकृत समाज का धार्मिक-सामाजिक तानाबाना विखंडित हो गया। भारत में सांप्रदायिकता के उदय और विकास का कारण केवल धार्मिक मात्र नही था, बल्कि यह दोनों समुदायों के उच्च वर्गों के राजनितिक व आर्थिक स्वार्थों का परिणाम था। जहाँ अंग्रेजों के लिए अपनी सत्ता को कायम रखने के लिए भारत के सामाजिक-धार्मिक एकता को तोड़ना अनिवार्य था, वहीं हिंदुओं और मुस्लिमों के मध्य और संपन्न वर्गों को अपने लिए राजनितिक और आर्थिक अवसरों को तलाशने और एक दूसरे की प्रतिस्पर्धा का सामना करने के लिए अपने धार्मिक पहचान को आधार बनाने की जरुरत पड़ी।

भारत में सांप्रदायिकता के उदय का सबसे ज्यादा शिकार आम जनता हुई, जबकि इसका लाभ ज्यादातर दोनों समुदायों के आर्थिक-राजनीतिक संभ्रांतों ने उठाया। इस प्रकार ब्रिटिश भारत में सांप्रदायिकता का उदय आध्यात्मिक या धार्मिक न होकर राजनीतिक था, जिसका परिणाम देश के राजनीतिक विभाजन के रूप में सामने आया।

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