उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों से ही विभिन्न इस्लामी सुधार आंदोलनों के माध्यम से आम जनता के स्तर पर एक सुस्पष्ट मुस्लिम पहचान विकसित होती आ रही थी। इन आंदोलनों ने पहले के समन्वयवाद को अस्वीकार किया तथा मुसलमानों की संस्कृति, भाषा और रोजमर्रा के तौर-तरीकों के इस्लामीकरण और अरबीकरण के प्रयास में उन चीजों को बाहर निकाल दिये, जिनको वे गैर-इस्लामी समझते थे। इस प्रकार जहाँ पश्चिम के प्रति आरंभिक हिंदू प्रतिक्रिया जिज्ञासा भरी थी, वही मुसलमानों में पहली प्रतिक्रिया अपने आपको बाहरी प्रभाव से बचाये रखने और उसे एक संकीर्ण ढक्कन में बंद रखने की थी।
1860 के दशक में धार्मिक सुधार की दो सुस्पष्ट धाराएँ विकसित हुईं। एक ओर अब्दुल लतीफ खाँ और इनकी ‘मुहम्मडन लिटरेरी सोसायटी’ (1863) ने इस्लामी शिक्षा की परंपरागत व्यवस्था के अंदर आधुनिक विचारों के आलोक में धार्मिक, सामाजिक तथा राजनीतिक प्रश्नों पर विचार-विमर्श को बढ़ावा दिया और पश्चिमी शिक्षा अपनाने के लिए उच्च तथा मध्य वर्गों के मुसलमानों को प्रेरित किया, तो दूसरी ओर सैयद अमीर अली और उनके ‘सेंट्रल नेशनल मुहम्मडन एसोसिएशन’ (1877-1878) ने पश्चिमी और धर्मनिरपेक्ष तर्ज पर मुस्लिम शिक्षा के पूर्ण पुनर्गठन की या मुस्लिम शिक्षा के पूर्ण आंग्लीकरण का समर्थन किया।
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अलीगढ़ आंदोलन और सर सैयद अहमद खाँ

मुस्लिम सुधारकों में सर सैयद अहमद खाँ (1817-1898) का विशेष महत्व है। सैयद अहमद को परंपरागत मुस्लिम ढ़ंग से शिक्षा मिली थी। 1857 की क्रांति के समय वे कंपनी की न्यायिक सेवा में थे और कंपनी के प्रति पूर्ण वफादार बने रहे। सैयद अहमद आधुनिक वैज्ञानिक विचारों से काफी प्रभावित थे और जीवनभर इस्लाम के साथ उनका तालमेल बिठाने के लिए प्रयत्नशील रहे। उन्होंने मुसलमानों की बेहतरी और सामाजिक बुराइयों को मिटाने के लिए आधुनिकता का एक आंदोलन आरंभ किया, जिसे ‘अलीगढ आंदोलन’ के नाम से जाना जाता है। उनके अलीगढ़ समूह में चिराग अली, उर्दू शायर अल्ताफ हुसैन हाली तथा नजीर अहमद जैसे कुछ अन्य प्रमुख नेता भी थे।
सैयद अहमद खाँ का विश्वास था कि मुसलमानों का धार्मिक और सामाजिक जीवन पाश्चात्य वैज्ञानिक ज्ञान और संस्कृति को अपनाकर ही सुधर सकता है। वे पाश्चात्य शिक्षा द्वारा मुसलमानों का सर्वांगीण विकास करना चाहते थे। उनका राजनीतिक दर्शन इस विचार के इर्द-गिर्द घूमता था कि भारतीय समाज तमाम ऐसे प्रतियोगी समूहों (कौमों) का महासंघ है, जिसमें से हरेक की एक साझी वंश-परंपरा है। भूतपूर्व शासक वर्ग के रूप में मुसलमानों को शक्ति और सत्ता में विशेष प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए और राजनीतिक व्यवस्था के साथ उनका एक विशेष संबंध होना चाहिए। इसके लिए मुसलमानों का शिक्षित होना और कुशलताओं से लैस होना आवश्यक था। यही कारण है कि एक अधिकारी के रूप में सैयद अहमद ने अनेक नगरों में विद्यालय स्थापित किये और अनेक पश्चिमी ग्रंथों का उर्दू में अनुवाद करवाया।
सैयद अहमद का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य कुरान पर उनकी लिखी टीका है, जिसमें उन्होंने परंपरागत टीकाकारों की आलोचना की और आधुनिक वैज्ञानिक ज्ञान के अनुसार अपना मत व्यक्त किया। उन्होंने घोषित किया कि इस्लाम की एक मात्र प्रमाणिक पुस्तक कुरान है और बाकी सभी इस्लामी-लेखन गौण महत्त्व का है। उनके अनुसार कुरान की कोई भी व्याख्या अगर मानव-बुद्धि, विज्ञान या प्रकृति से टकरा रही है, तो वह गलत व्याख्या है। अपने विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए सैयद अहमद ने एक पत्रिका ‘तहजीब-उल-अखलाक’ (सभ्यता और नैतिकता) प्रकाशित किया।
सर सैयद अहमद खाँ ने लोगों से आलोचनात्मक दृष्टिकोण तथा विचार की स्वतंत्रता अपनाने का आग्रह किया और कहा कि, ‘‘जब तक विचार की स्वतंत्रता विकसित नहीं होती तब तक सभ्य जीवन संभव नहीं है।’’ उनका मानना था कि बंद दिमाग सामाजिक-बौद्धिक पिछड़ेपन की निशानी है। उन्होंने 1875 में अलीगढ़ में ‘मुहम्मडन आंग्लो-ओरियंटल कॉलेज’ की स्थापना की। यद्यपि सर सैयद का अलीगढ़ कॉलेज एक पक्की तरह से ‘राजनीतिक उद्यम था, जिसका उद्देश्य अपने मुस्लिम छात्रों में एक कौम की सदस्यता की भावना पैदा करना और उनके माध्यम से उत्तर भारत की मुस्लिम आबादी में अपनी सामाजिक पहुँच को और बढ़ाना था, किंतु इस कॉलेज के कोष में हिंदुओं, पारसियों और ईसाइयों ने भी दिल खोलकर दान दिया था। इसके दरवाजे भी सभी भारतीयों के लिए खुले थे। उदाहरण के लिए 1898 में इस कॉलेज में 64 हिंदू और 285 मुसलमान छात्र थे। सात भारतीय अध्यापकों में दो हिंदू थे और इनमें एक संस्कृत का प्रोफेसर था। बाद में 1920 में यह कॉलेज अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के रूप में विकसित हुआ।
सैयद अहमद खाँ धार्मिक सहिष्णुता के पक्के हिमायती थे। उनका विश्वास था कि सभी धर्मों में एक बुनियादी एकता मौजूद है, जिसे व्यवहारिक नैतिकता कहा जा सकता है। वे मानते थे कि धर्म व्यक्ति का अपना निजी मामला है और इसलिए वे वैयक्तिक संबंधों में धार्मिक कट्टरता की निंदा करते थे। वे सांप्रदायिक टकराव के भी विरोधी थे। हिंदुओं और मुसलमानों से एकता का आग्रह करते हुए उन्होंने 1883 में कहा था: ‘‘हम दोनों भारत की हवा में साँस लेते हैं और गंगा-यमुना का पवित्र जल पीते हैं। जीवन और मृत्यु, दोनों में हम एक साथ हैं। भारत में हमारे निवास ने हमारा खून बदल डाला है, हमारे शरीरों के रंग एक हो चुके हैं, हमारे हुलिए समान हो चुके हैं। निःसंदेह इस आधार पर कि हम दोनों एक ही देश में रहते हैं, हमारा एक राष्ट्र तथा देश है, हम दोनों की प्रगति और कल्याण हमारी एकता, पारस्परिक सहानुभूति और प्रेम पर निर्भर है, जबकि हमारे पारस्परिक मतभेद, अकड़, विरोध तथा दुर्भावना निश्चित ही हमें नष्ट कर देगी।’’
सैयद अहमद जीवनभर परंपराओं के अंधानुकरण, रिवाजों पर भरोसा, अज्ञान तथा अबुद्धिवाद के खिलाफ संघर्ष करते रहे। उन्होंने मुसलमानों से मध्यकालीन रीति-रिवाजों तथा विचार और कर्म की पद्धतियों को छोड़ देने का आग्रह किया और समाज में महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए पर्दाप्रथा खत्म करने तथा स्त्रियों में शिक्षा का प्रसार करने का समर्थन किया। वे बहुविवाह प्रथा और छोटी-छोटी बातों पर तलाक के रिवाज के भी विरुद्ध थे।
सैयद अहमद खाँ न केवल मुस्लिम समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर कर मुसलमानों के दृष्टिकोण को आधुनिक बनाना चाहते थे, बल्कि वे यह भी चाहते थे कि मुसलमान अंग्रेजी सत्ता को स्वीकार करें और उसके अधीन सेवा करना आरंभ करें ताकि उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार हो सके। अपने इस प्रयत्न में वे बहुत हद तक सफल भी रहे। किंतु जीवन के अंतिम वर्षों में वे अपने अनुयायियों को उभरते राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल होने से रोकने के लिए हिंदुओं के वर्चस्व की शिकायतें करने लगे थे और ‘मुहम्मडन एजुकेशजनल कॉन्फ्रेंस’ (1890 तक कांग्रेस), ‘इंडियन पैट्रियाटिक एसोसिएशन’ (1888) और ‘मुहम्मडन एंग्लो-ओरियंटल डिफेंस एसोसिएशन’ (1893) जैसे संगठनों के माध्यम से कांग्रेस का विरोध करने लगे थे। इस तरह सर सैयद अहमद खाँ और अलीगढ़ कॉलेज के अंतर्गत अलीगढ़ आंदोलन का विकास कांग्रेसी नेतृत्व वाले राष्ट्रवाद के विरोध में और अंग्रेजी राज से वफादारी के रूप में हुआ। फिर भी, सैयद बुनियादी तौर पर सांप्रदायिक नहीं थे और वे मात्र उच्च तथा मध्य वर्ग के मुसलमानों का पिछड़ापन खत्म करना चाहते थे। चूंकि उन्हें लगता था कि ब्रिटिश सरकार को आसानी से हटाया जाना संभव नहीं है और अंग्रेजों से शत्रुता शिक्षा-प्रसार के लिए घातक हो सकती है, इसलिए उन्होंने भारतीयों, विशेषकर पिछड़े मुसलमानों से अपील की कि वे कुछ समय के लिए राजनीति से दूर रहें।
किंतु उत्तर भारत के मुस्लिम समुदाय ने सर सैयद के नेतृत्व को कभी पूरी तरह स्वीकार नहीं किया। उल्मा उनकी पश्चिमीकरण की मुहिम को निश्चित ही पसंद नहीं करते थे, क्योंकि उन्हें लगता था कि यह मुस्लिम समाज में उनकी प्रधानता के लिए खतरा पैदा करेगी। जमालुद्दीन अल-अफगानी जैसे लोग भी थे, जो कट्टर उपनिवेशवाद विरोधी थे और सर सैयद की अंग्रेजों के प्रति वफादारी को प्रसंद नहीं करते थे। 1880 के दशक के अंत तक उत्तर भारत के अनेक मुसलमान कांग्रेस की ओर झुकने लगे थे, जबकि 1887 में बंबई के बदरूद्दीन तैय्यब जी उसके पहले मुस्लिम अध्यक्ष बने। 1890 के दशक के अंत तक पंजाब के अनेक उर्दू अखबार यह कहने लगे थे कि अलीगढ़ संप्रदाय भारतीय मुसलमानों का प्रतिनिधित्व नहीं करता।17 1898 में सर सैयद की मृत्यु के बाद अलीगढ़ की युवा पीढ़ी अलीगढ़ राजनीति की मौजूदा परंपरा से धीरे-धीरे दूर होने लगी।
कई इतिहासकारों ने अलीगढ़ आंदोलन और सर सैयद अहमद खाँ की बड़ी भर्त्सना की है कि इस आंदोलन के परिणामस्वरूप ही देश में सांप्रदायिकता की शुरूआत हुई। दरअसल यह आंदोलन उतना हिंदू-विरोधी नहीं था, जितना मुस्लिम-समर्थक। भारत के मुसलमानों के लिए इस आंदोलन का वही महत्त्व था, जो हिंदुओं के लिए उन्नीसवीं शताब्दी के भारतीय पुनर्जागरण का। इस आंदोलन ने मुस्लिम समुदाय को मध्ययुगीन वातावरण से बाहर निकाला और आधुनिकता के मार्ग पर अग्रसर किया। राममोहन रॉय की तरह सैयद अहमद अपने समाज को अंग्रेजी शिक्षा और पश्चिमी ज्ञान के माध्यम से उन्नत और आधुनिक बनाने के लिए कृत-संकल्प थे। सैयद अहमद अपने अलीगढ़ कॉलेज और शिक्षा के प्रसार के लिए इतना कटिबद्ध थे कि वे इसके लिए अन्य सभी हितों का बलिदान करने को तत्पर थे। रूढ़िवादी मुसलमानों को कॉलेज का विरोध करने से रोकने के लिए उन्होंने धार्मिक-सुधार के आंदोलन को भी लगभग त्याग दिया था। वे ब्रिटिश सरकार को किसी प्रकार से रुष्ट नहीं करना चाहते थे, किंतु सांप्रदायिकता और अलगाववाद को प्रोत्साहन देना एक गंभीर राजनीतिक भूल साबित हुई।
देवबंद स्कूल (नदवा) आंदोलन

देवबंद स्कूल आंदोलन एक पुनर्जागरणवादी आंदोलन था। इस स्कूल की आधारशिला 30 मई 1866 को मुहम्मद कासिम नानौत्वी, हाजी आबिद हुसैन व रशीद अहमद गंगोही द्वारा देवबंद (सहारनपुर, उ.प्र.) में रखी गई थी। इस आंदोलन के मुख्यतः दो उद्देश्य थे- एक तो मुसलमानों में कुरान तथा हदीस की शुद्ध शिक्षा का प्रसार करना और दूसरे विदेशी शासकों के विरुद्ध जेहाद की भावना को जीवित रखना। दारुल उलूम देवबंद केवल इस्लामी विश्वविद्यालय ही नहीं, एक विचारधारा है जो अंधविश्वास, कुरीतियों व आडंबरों के विरुद्ध इस्लाम को मूल और शुद्ध रूप में प्रसारित करता है।
1888 में देवबंद स्कूल के उलेमाओं ने सर सैयद अहमद खाँ की संयुक्त भारतीय राजभक्त सभा एवं ऐंग्लो-ओरियंटल सभा के खिलाफ फतवा जारी किया था। इस संस्था के मौलाना महमूद-उल-हसन, जो ‘शैखुल हिंद’ (भारतीय विद्वान्) की उपाधि से सम्मानित थे, उन स्वतंत्रता सेनानियों में से एक थे, जिन्होंने भारत ही नहीं, विदेशों में भी जाकर भारत की स्वतंत्रता के लिए हरसंभव प्रयास किया।
देवबंद स्कूल के समर्थकों में शिबली नूमानी फारसी और अरबी के लब्धप्रतिष्ठित विद्वान् और लेखक थे। वे परंपरागत मुस्लिम शिक्षा में सुधार लाने के लिए औपचारिक शिक्षा के स्थान पर अंग्रेजी भाषा तथा यूरोपीय विज्ञान को शामिल करने के समर्थक थे। शिबली ने 1874-75 में लखनऊ में ‘नदवतल उलमा’ और ‘दारूल उलूम’ की स्थापना की। आज देवबंद इस्लामी शिक्षा और दर्शन के प्रसार-प्रचार के लिए संपूर्ण संसार में प्रसिद्ध है।
अहमदिया आंदोलन

उन्नीसवीं शताब्दी में मिर्जा गुलाम अहमद (1838-1908) ने कादियान (गुरदासपुर, पंजाब) नामक स्थान पर 23 मार्च 1889 को ‘अहमदिया आंदोलन’ आरंभ किया। इस अनोखे आंदोलन का उद्देश्य इस्लाम धर्म के सच्चे स्वरूप को बहाल करना और मुसलमानों को आधुनिक औद्योगिक एवं तकनीकी प्रगति को धार्मिक मान्यता देना था। मिर्जा गुलाम अहमद ने ‘बराहीन-ए-अहमदिया’ नामक पुस्तक में अपने सिद्धांतों की व्याख्या की। उन्होंने 1891 में अपने-आपको हजरत मुहम्मद की बराबरी का इस्लाम का ‘मसीहा’ घोषित किया। यही नहीं, बाद में वे अपने को कृष्ण और विष्णु का आखिरी अवतार भी कहने लगे। वे पश्चिमी उदारवाद, ब्रह्मविद्या तथा हिंदुओं के धार्मिक सुधार आंदोलन से अत्यधिक प्रभावित थे।
मुहम्मद इकबाल

आधुनिक भारत के महानतम् कवियों में एक मुहम्मद इकबाल (1876-1938) ने अपनी कविता द्वारा युवा मुसलमानों तथा हिंदुओं के दार्शनिक और धार्मिक दृष्टिकोण पर गहरा प्रभाव डाला। स्वामी विवेकानंद की तरह उन्होंने भी निरंतर परिवर्तन तथा अबाध कर्म पर बल दिया और विराग, ध्यान तथा एकांतवास की निंदा की। उन्होंने ऐसा गतिमान दृष्टिकोण अपनाने का आग्रह किया, जो दुनिया को बदलने में सहायक हो। वे मूलतः एक मानवतावादी थे और मानव कर्म को प्रमुख धर्म मानते थे। उनका मानना था कि निरंतर कर्म द्वारा इस विश्व को नियंत्रित करना चाहिए क्योंकि स्थिति को निष्क्रिय रूप से स्वीकारना सबसे बड़ा पाप है। कर्मकांड, विराग तथा दूसरी दुनिया में विश्वास की प्र्रवृत्ति की निंदा करते हुए उन्होंने कहा कि मानव को इसी चलती-फिरती दुनिया में सुख प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। अपनी आरंभिक कविताओं में उन्होंने देशभक्ति के गीत गाये हैं, यद्यपि बाद में वे मुस्लिम अलगाववाद के समर्थक हो गये।
पारसियों में धार्मिक सुधार

सुधारवादी वातावरण में पारसी धर्म और समाज में भी सुधार की शुरूआत हुई। 1851 में अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त नौरोजी फरदूनजी, दादाभाई नौरोजी, एस.एस. बंगाली तथा कुछ अन्य लोगों ने बंबई में ‘रहनुमाए मज्दायासन सभा’ (रिलीजस रिफॉर्म एसोसिएशन) का गठन किया। इसका उद्देश्य पारसियों की सामाजिक अवस्था का पुनरुद्धार करना और पारसी धर्म को प्राचीन शुद्धता प्रदान करना था। सभा के संदेशों को प्रसारित करने के लिए गुजराती भाषा में एक पत्रिका ‘रास्त गोफ्तार’ (सत्यवादी) शुरू की गई।
दादाभाई नौरोजी (1825-1917) पारसी कानून संघ के जन्मदाताओं में भी थे। उन्होंने स्त्री-शिक्षा के प्रसार के लिए ‘ज्ञान प्रसारक मंडली’ नामक एक महिला हाईस्कूल की स्थापना की। पारसी धर्म में व्याप्त रूढ़ियों एवं कर्मकांडों को दूरकर उनके सामाजिक रीति-रिवाजों के आधुनिकीकरण का प्रयास किया गया। स्त्रियों की सामाजिक स्थिति में सुधार कर पर्दाप्रथा को समाप्त कर दिया गया, विवाह की आयु बढ़ा दी गई तथा स्त्री-शिक्षा पर विशेष जोर दिया गया। इन प्रयासों के परिणामस्वरूप धीरे-धीरे पारसी भारतीय समाज के सबसे विकसित अंग बन गये।
सिखों में धार्मिक सुधार
पश्चिम के विकासशील तथा तर्कसंगत विचारों ने सिख संप्रदाय को भी प्रभावित किया। सिख सुधार आंदोलन के अगुआ दयालदास थे जिन्होंने निरंकारी आंदोलन आरंभ किया था। पंजाब में पहला सामाजिक-धार्मिक आंदोलन कूका आंदोलन था, जिसकी शुरूआत 1840 में भगत जवाहर मल (सियेन साहब) ने की थी। इसने सिख धर्म में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों, अंधविश्वासों को मिटाने, जाति-भेद व अस्पृश्यता को दूर करने तथा अंतर्जातीय विवाहों पर बल दिया। इन सुधारकों ने सभी प्रकार की सामाजिक कुरीतियों और पूजा को बंद करवा दिया तथा सिर्फ गुरुबानी और उसके शब्दों के तेज आवाज में उच्चारण पर बल दिया। इस प्रकार के उच्चारण को पंजाब में ‘कूका’ कहते हैं। इस आंदोलन ने ब्राह्मणों के प्रभाव को कम किया, जिससे बड़ी संख्या में दलित भी इसमें शामिल हुए।

नामधारी आंदोलन के संस्थापक बालकसिंह (1799-1862) माने जाते हैं। इन्होंने सिख समाज में व्याप्त दिखावटीपन तथा आडंबरों को दूर करने में काफी सीमा तक सफलता प्राप्त की। बालकसिंह के एक कारीगर (शिल्पकार) जाति के शिष्य रामसिंह ने इस आंदोलन को नई दिशा दी और समाज-सुधार के साथ-साथ देश की स्वतंत्रता के लिए भी संघर्ष किया। बाद में ब्रिटिश सरकार ने रामसिंह गिरफ्तार कर देशद्रोह के आरोप में अंडमान (कालापानी) भेज दिया।
अकाली आंदोलन
19वीं शताब्दी के अंत में अमृतसर में ‘सिंह सभा’ द्वारा खालसा कॉलेज की स्थापना के साथ ही सिख-सुधार आंदोलन का आरंभ हुआ। ‘मुख्य खालसा दीवान’ के नाम से प्रसिद्ध इस संस्था ने पंजाब में अनेक गुरुद्वारों एवं स्कूल-कॉलेजों की स्थापना की। किंतु सुधार के प्रयासों को अधिक बल तब मिला, जब 1920 के बाद अकाली आंदोलन आरंभ हुआ। अकालियों का मुख्य उद्देश्य गुरुद्वारों के प्रबंध का शुद्धिकरण करना था। इन गुरुद्वारों को भक्तों की ओर से भूमि और धन दानस्वरूप मिलते थे, किंतु इनका प्रबंध भ्रष्ट और स्वार्थी महंतों द्वारा मनमाने ढ़ंग से किया जा रहा था। इन महंतों को सरकार का भी समर्थन प्राप्त था। 1921 में अकालियों के नेतृत्व में सिख जनता ने भ्रष्ट महंतों और सरकार के विरुद्ध एक शक्तिशाली सत्याग्रह आंदोलन छेड़ दिया। पहले सरकार ने इस आंदोलन को शक्ति से कुचलना चाहा, किंतु आंदोलन की प्रचंडता के कारण अंततः सरकार को झुकना पड़ा। 1922 में सिख गुरुद्वारा अधिनियम पारित हुआ, जिसे 1925 में संशोधित किया गया। कभी-कभी इस कानून की सहायता से, मगर अधिकतर सीधी कार्यवाही द्वारा सिखों ने गुरुद्वारों से भ्रष्ट महंतों को धीरे-धीरे बाहर खदेड़ दिया, यद्यपि इस आंदोलन में सैकड़ों लोगों को जान से हाथ भी धोना पड़ा।