बौद्ध धर्म-दर्शन
बौद्ध धर्म-दर्शन का उदय वैदिक धर्म की प्रतिक्रिया में ही हुआ था। वैदिक साहित्य में बहुदेववाद, कर्मकांड और युद्धों का इतना विशद् वर्णन है कि उनके आगे उनकी दार्शनिक, नैतिक, आध्यात्मिक चिंतनधारा मलीन दिखने लगती है। इसलिए वे तत्त्व-चिंतन के नाम पर कर्मकांड, धर्म के बजाय पाखंड, नीति के स्थान पर ऊँच-नीच का आडंबर रचते हुए नजर आते हैं। पुरोहित वर्ग उनके माध्यम से धर्म-दर्शन की स्वार्थानुकूल और मनमानी व्यवस्थाएँ थोपने का प्रयास करता रहा है। राजनीति के सहयोग से वह इस घृष्टता में सफल भी हुआ। धर्म और राजसत्ता परस्पर मिलकर लोगों के शोषण के लिए नये-नये विधान गढ़ते रहे हैं। समाजार्थिक शोषण का यह सिलसिला लगभग पाँच शताब्दियों तक निरंतर चलता रहा है। ऐसा भी नहीं था कि शेष समाज शोषण को अपनी नियति मान चुका था क्योंकि ब्राह्मणवाद का विरोध उसके आरंभिक दिनों से ही होने लगा था। समाज का एक बड़ा वर्ग वैदिक परंपराओं का खंडन करता था। इस कारण वेद-समर्थक और वेद-विरोधियों में बीच युद्ध भी हुआ करते थे। यद्यपि इस युद्ध में छल और कपट के कारण ब्राह्मणवादियों की ही विजय हुई थी।
गौतम बुद्ध ने कर्मकांड के स्थान पर ज्ञान-साधना पर जोर दिया था। वेद-वेदांगों में आत्मा-परमात्मा आदि को लेकर इतने अधिक तर्क-वितर्क और कुतर्क हो चुके थे कि बुद्ध को लगा कि इस विषय पर और विचार करना अनावश्यक है। इसीलिए उन्होंने आत्मा-परमात्मा, ईश्वर आदि विषयों को तात्कालिक रूप से छोड़ देने का तर्क दिया और उसके स्थान पर उन्होंने मानव-जीवन को संपूर्ण बनाने पर जोर दिया। गौतम बुद्ध ने ही अपने दर्शन में कर्मकांड, यज्ञों में दी जाने वाली पशुबलि और आडंबरवाद का जमकर विरोध किया तथा शांति और अहिंसा का पक्ष लिया था।
वह गौतम बुद्ध ही थे जिन्होंने धर्म-दर्शन को निरर्थक और अनुपयोगी प्रश्नों के चक्र से बाहर निकाल कर व्यावहारिक जीवन से जोड़ा और आडंबर से मुक्त कर उसे आचरण और व्यवहार के धरातल पर लाकर अवस्थित किया। उन्होंने मानवमन की आध्यात्मिक जिज्ञासाओं के सापेक्ष नैतिकता को केंद्र में रखा। उन्होंने पंडितों और पुरोहितों से अलग भाषा अपनाते हुए कहा कि धर्म और दर्शन दोनों का उद्देश्य इस विश्व का पुनर्निर्माण करना है, ब्रह्मांड की उत्पत्ति की व्याख्या करना नहीं। आज प्रयोगों द्वारा सिद्ध भी हो चुका है कि ब्राह्मांड की व्याख्या वैज्ञानिक नियमों द्वारा ही सही ढ़ंग से की जा सकती है। नैतिकता और धार्मिकता से कटा हुआ धर्म आडंबरमात्र है। जीवन को लेकर बुद्ध का दृष्टिकोण व्यावहारिक था। व्यावहारिक होने के कारण ही बौद्ध दर्शन को उन राजाओं और धनिकों का समर्थन मिला जो ब्राह्मणवाद से तंग आ चुके थे और उपयुक्त विकल्प की तलाश में थे।
संसाधनों के न्यायिक बँटवारे और प्रत्येक को उसकी आवश्यकता के अनुसार देना ही समाजवादी व्यवस्था का प्रमुख ध्येय है। यह कार्य राज्य नियामक संस्था की मदद से करता है, जबकि बुद्ध धर्म में इसे आत्मानुशासन के माध्यम से पाने का सफल प्रयास किया गया है। अष्टांगिकमार्ग और समाजवाद में अंतर मात्र इतना ही है कि समाजवाद राजनैतिक संवैधानिक व्यवस्था है, जबकि अष्टांगिकमार्ग एक नैतिक आचरण है जो त्याग और सर्वकल्याण की भावना पर आधारित है। यह आत्मानुशासन के बिना संभव नहीं है। समाजवाद में अनुशासन के लिए राजनीति की मदद ली जाती है जो बाह्य और खर्चीला उपक्रम है। स्पष्टतः अष्टांगिकमार्ग उच्चमानवादर्श है, किंतु यह मानव की पहुँच में है और व्यावहारिक भी है। बुद्ध का मध्यममार्ग भी एक प्रकार का समाजवाद ही है जो दोनों अतियों के निषेध पर आधारित हैं।
बुद्ध का दर्शन वर्जनाओं का दर्शन है। सर्वप्रथम उन्होंने वर्णाश्रम व्यवस्था पर प्रहार किया जो ब्राह्मणों को विशेषाधिकार संपन्न बनाती है। पुरोहितवाद की आवश्यकता को नकारते हुए बुद्ध ने कहा कि अपना दीपक स्वयं बनों। तुम्हें किसी बाहरी प्रकाश की आवश्यकता नहीं है। किसी मार्गदर्शक की खोज में भटकने से अच्छा है कि अपने विवेक को अपना मार्गदर्शक चुनो। समस्याओं से निदान का रास्ता, मुश्किलों से हल का रास्ता तुम्हारे ही पास है। सोचो! सोचो! और खोज निकालो। यदि मेरे विचार भी इसमें आड़े आते हों तो उन्हें भी छोड़ दो। केवल अपने विवेक की सुनो। करो वही जो तुम्हारी बुद्धि को जँचे। उन्होंने पंचशील के माध्यम से विश्व को मर्यादित जीवन जीने की सीख दी और कहा कि सिर्फ उतना ही सँजोकर रखो जितने की तुम्हें आवश्यकता है। दुःखों से छुटकारा पाने के लिए मनुष्य को स्वयं ही प्रयास करना होगा क्योंकि आपकी सहायता के लिए न कोई ईश्वर है, न देवी और न ही कोई देवता। पूजा-पाठ ज्योतिष और प्रार्थना सब व्यर्थ है, यह सिर्फ सुख का भ्रम पैदा करते हैं और मस्तिष्क को दुविधा में डालते हैं। शाश्वत सुख की प्राप्ति के लिए स्वयं को ही प्रयास करना होगा।
बुद्ध धम्म अध्यात्मिक शांति और सुख का मार्ग प्रशस्त करता है। बुद्ध कहते हैं कि निर्वाण परमसुख है। निर्वाण प्राप्ति के लिए आर्य आष्टांगिक मार्ग ही एक मात्र उपाय है। तृष्णा को नकारो, हिंसा छोड़ो और जीवमात्र से प्यार करो। प्रत्येक प्राणी को अपना जीवन जीने का उतना ही अधिकार है जितना कि तुम्हें है, इसलिए अहिंसक बनो। झूठ भी एक प्रकार की हिंसा ही है, क्योंकि वह सत्य का दमन करती है। झूठ मत बोलो, सिर्फ अपने श्रम पर भरोसा रखो। उसी वस्तु को अपना समझो जिसको तुमने न्यायपूर्ण ढ़ंग से अर्जित किया है। बुद्ध को पता था कि वैदिक धर्म गर्त के दलदल में क्यों चला गया? संयम-नियम का उपदेश देने वाले ऋषि और महात्मा जब आत्मनियंत्रण खोकर यज्ञीय बलि के बहाने माँस भक्षण करने लगे और सोम को देवताओं का प्रसाद कहकर अपने गले में मदिरा उड़ेलने लगे तो ऐसे में धर्म के टिकने की संभावना ही कहाँ थी?
बुद्ध की चिंता थी कि किस प्रकार मानव जीवन को सुखी और समद्ध बनाया जाए। सुख से उनका अभिप्राय केवल भौतिक संसाधनों की उपलब्धता से नहीं था। अर्थशास्त्री इ.एफ. सुमाकर ने पहली बार बौद्ध अर्थशास्त्र की अवधारणा को अपनी पुस्तक ‘स्माल इज ब्यूटीफुलः इकोनॉमिक्स एैज इफ पीपुल मैटर्ड’ में प्रस्तुत किया और यह सिद्ध किया कि बुद्ध का अर्थशास्त्र अधिकतम् संख्या के अधिकतम् कल्याण और सुख के सिद्धांत पर आधारित है जो न्यूनतम् उपभोग और अधिकतम् उपयोग का मध्यममार्ग है।
बुद्ध लोककल्याण में विश्वास करते थे और संपूर्ण मानव-जाति को दुखों से त्राण दिलाना चाहते थे। बुद्ध मानव जीवन के लिए न केवल सुख की सहज उपलब्धता चाहते हैं बल्कि संपूर्ण समाज के सुख की समान उपलब्धता की भी कामना करते हैं। यह वैदिक ब्राह्मणवाद से बिल्कुल भिन्न है जिसमें परलोक की काल्पनिक भ्रांति के कारण भौतिक सुखों की उपेक्षा की गई है जबकि ब्राह्मणवादियों का जीवन भोग और विलासिता से भरपूर है। यही नहीं, वर्णाश्रम व्यवस्था के माध्यम से इन्होंने समाज के बहुसंख्यक वर्गों को सुख एवं समृद्धि से दूर रखने की शास्त्रीय व्यवस्था भी कर ली थी। इस प्रकार आर्थिक विकास का बौद्ध नजरिया प्रतिद्वंद्विता और आपसी प्रतिद्वंद्विता को शमन करता है। मशीनों के प्रयोग से यथासंभव बचने की वकालत करता है और मानव सेवा को ज्यादा महत्व देता है। इसे मध्यममार्ग के द्वारा सरलता से प्राप्त भी किया जा सकता है। बुद्ध के हृदय की विशालता, मानवमात्र के कल्याण के साथ-साथ सभी प्राणियों के प्रति करुणा की भावना, सर्वजन कल्याण एवं समतावादी वैज्ञानिक चिंतन ने यह सिद्ध कर दिया है कि विश्व का कल्याण बुद्ध के सुझाये रास्ते पर चलकर ही संभव हो सकता है।
बुद्ध कोरे अध्यात्म पर जोर नहीं देते हैं। उनका दुःख की सत्ता को स्वीकारना और उसे चिंतन की परिधि में लाना उन्हें व्यावहारिक और जनसाधारण के निकट लाता है। उन्होंने अपने दर्शन को जन साधारण की भावनाओं का प्रतिनिधि बताते हुए दुःख की अनिवार्य सत्ता को स्वीकार किया। वे दुःख की बात कहकर जनमानस को डराते नहीं हैं। दुःख स्थायी और शक्तिशाली नहीं है, बल्कि उसका निदान किया जा सकता है। उनका मानना था कि दुःख-निवृत्ति भी संभव है, उसका एक निर्धारित मार्ग है। बस! इसके लिए जीवन के प्रति पूर्ण समर्पण चाहिए। इसके लिए कहीं बाहर जाने की आवश्यकता नहीं है- खुद को पहचानों और अपने भीतर छिपे प्रकाश को पकड़ो। उन्होंने ‘अप्पदीपो भव’ का उपदेश दिया अर्थात् अपना दीपक स्वयं बनो।
दुःख का कारण दूषित बुद्धि है, दुःख से मुक्ति के लिए प्रदूषित बुद्धि से मुक्त होना होगा। ‘चेतना नियति लोको’ से स्पष्ट है कि समस्त सांसारिक क्रियाएँ मानसिक होती हैं और यह संसार मस्तिष्क से ही संचालित होता है। मानव मन के प्रदूषित होने पर समस्याओं का उठना स्वाभाविक है। इसलिए सामाजिक पर्यावरण को शुद्ध बनाये रखने के लिए मानव मन को शुद्ध रखना होगा, तभी समाज का प्रत्येक व्यक्ति शांति और आनंद का अनुभव कर सकेगा। उन्होंने जीवन के प्रति मध्यममार्गी दृष्टिकोण अपनाते हुए जोर देकर कहा कि सुख केवल कुछ शीर्षस्थ लोगों की बपौती नहीं है, गृहस्थ के लिए धनार्जन न तो पाप है, न कोई अभिशाप। बुद्ध का अर्थशास्त्र उन लोगों को अवश्य पढ़ना चाहिए जो आर्थिक विकास की गति को आध्यात्मिक मूल्यों से अधिक महत्वशाली मानते हैं। आज बुद्ध का अर्थशास्त्र ही विकास के सतपथ का रास्ता दिखा सकता है…जो भौतिक उत्कर्ष और पारंपरिक गतिशीलता का मध्यम मार्ग है अर्थात् सम्यक् आजीव है।
समता और स्वतंत्रता बौद्ध धर्म में सदैव महत्वपूर्ण गुण माने जाते रहे हैं। इससे व्यक्ति स्वार्थपरता से छुटकारा प्राप्त करता है और समाज में स्वीकार्य होता है। समता एक ऐसा गुण है जो मानव को सभ्य बनाती है। बुद्ध का स्पष्ट मानना था कि सभी प्राणी समानरूप से दुःखी हैं। दुख प्रहाण ही उनके धर्म का प्रयोजन है। इसलिए संवेदना और सहानुभूति ही इस समता के आधारभूत तत्त्व हैं। सुखी और समृद्ध समाज की स्थापना के लिए समानता और स्वतंत्रता को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। आर्थिक न्याय और सामाजिक समानता शुद्ध समरस समाज के निर्माण के लिए आवश्यक है जो पंचशील के सार्वभौमिक सिद्धांत से ही संभव है।
बौद्ध धर्म-दर्शन की दृष्टि में आर्थिक और नैतिक मूल्यों को एक दूसरे से पृथक करना असंभव है। आध्यात्मिक विकास के बिना सम्यक् आर्थिक विकास और संतुष्टि असंभव है। धन-संपदा का संचय सामाजिक समस्याओं का मूल कारण है। संपत्ति का अहंकार बौद्ध धर्म के अनुसार पतन का कारण है। आधुनिक वैश्विक आर्थिक व्यवस्था लोभ, स्वार्थपरता और अधिकाधिक मुनाफा कमाने के सिद्धांत पर आधारित है।
आज के उपभोक्तावादी समाज में धन-संपदा को भौतिक विकास का मापदंड माना जा रहा है। धनवान व्यक्ति भी सुख और संतुष्टि का अनुभव नहीं कर पा रहा है। ऐन-केन-प्रकारेण संपत्ति-संचय बौद्ध धर्म के अनुसार निम्न कार्य है। धन-संपदा के प्रति बौद्ध दृष्टिकोण बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इस संस्कृति का स्पष्ट मानना है कि धन-संपदा केवल आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति का एक माध्यम मात्र है, इसलिए धनार्जन सदैव सम्यक् आजीव अर्थात् शुद्ध और नैतिक साधनों द्वारा ही किया जाना चाहिए।
बुद्ध का स्पष्ट मानना है कि स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए स्थानीय और प्राकृतिक रूप से उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों का न्यूनतम् उपयोग किया जाना चाहिए। आज प्राकृतिक पूँजी को सुरक्षित और संरक्षित करना मानव जीवन के लिए आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य हो गया है क्योंकि इस प्राकृतिक पूँजी को मानवीय प्रयासों से उत्पन्न करना संभव नहीं है। आधुनिक अर्थशास्त्र मानवीय विकास के सांख्यकीय आंकड़े प्रस्तुत कर अधिकतम् उत्पादन को आर्थिक प्रगति का आधार मानता है। सर्वाधिक उपयुक्त और सरल अर्थव्यवस्था उपलब्ध स्थानीय स्रोतों पर ही आधारित होनी चाहिए जिसमें साधारण तकनीक का प्रयोग किया जाता है। इस तकनीक से प्राकृतिक संसाधनों का दोहन नहीं होगा और स्थानीय आवश्यकताओं भी पूरा किया जा सकेगा। बुद्ध ने पूरी पारिस्थिकीय तंत्र के प्रति अहिंसात्मक और सम्माननीय दृष्टिकोण अपनाया। बड़े पैमाने पर प्रयुक्त उच्च तकनीकें ऐसी बृहद् आर्थिक संरचना को जन्म देती हैं जिससे मानव-समाज में असमानता और असंतोष उत्पन्न होता है जबकि लघु तकनीक में उत्पादक और उपभोक्ता आमने-सामने होते हैं और छोटे उत्पादकों में हीनता की भावना भी उत्पन्न नहीं होती है। इस प्रकार बौद्ध धर्म भारतीय इतिहास में सामाजिक न्याय की स्थापना करने के निमित्त वर्ग और जाति का भेदभाव समाप्त कर मानवीय एकता का सिद्धांत प्रतिपादित करता है क्योंकि मानवमात्र की एक जाति है।
वस्तुतः बौद्ध धर्म कर्मणा सिद्वांत पर आधारित नये समतामूलक समाज के निर्माण का एक बौद्धिक आंदोलन था। बुद्ध ने स्वयं सामाजिक असमानता और वर्णगत, जातिगत द्वेष-भाव को मिटाकर मानव में ईश्वरत्व को प्रतिष्ठित करने तथा मानव-मानव के बीच की कृत्रिम दूरियों को मिटाने का आजीवन प्रयास किया। उनकी दृष्टि में सभी मनुष्य बराबर थे। बौद्धधर्म ने प्रजातंत्र के स्वतंत्रता और समानता के सिद्वांतों को अपनाकर दलित और निम्नजाति के लोगों के स्तर को ऊँचा किया और सम्मान के साथ सामाजिक-आध्यात्मिक समानता तथा स्वतंत्रता दिलवाई। इस परंपरा ने अपनी नवीन समतामूलक दृष्टि एवं चिंतन-पद्धति से विश्व को प्रभावित किया। इसीलिए जातीय उत्पीड़न का शिकार रही जातियाँ तीव्र गति से बौद्ध धर्म को अपनाने लगीं।
शुद्धतावादी मानसिकता के कारण ब्राह्मण समुद्र पार की यात्रा को निषिद्ध और धर्मविरुद्ध मानते थे जबकि बौद्ध धर्म में ऐसा कोई बंधन नहीं था जिसके कारण न केवल व्यापार-वाणिज्य में तेजी आई बल्कि भारतीय अर्थव्यवस्था भी समृद्ध हुई। यही नहीं, देखते ही देखते बौद्ध धर्म देश की सीमाओं के बाहर विदेशियों की भूमि पर भी फैलता चला गया।
समाजवाद का एक स्वरूप बौद्ध संघ में भी दिखाई पड़ता है। संघ में कोई जातिभेद नहीं था। बौद्ध धर्म के अनुसार जन्म से कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र नहीं होता। नैतिकता और आचरण पर बल दिये जाने के कारण जिस किसी का भी चरित्र और आचरण शुद्ध होता था वह निम्न जाति का होकर भी इनका अनुयायी बन सकता था और संघ का सदस्य हो सकता था। उन्होंने भिक्षुओं को उपदेश देते हुए कहा कि जिस प्रकार गंगा, यमुना, अचिरवती, सरमू (सरयू) और मही जैसी महानदियाँ सागर में पहुँचकर अपना नाम, रूप और विशेषताएँ खो देती हैं और सागर के नाम से प्रसिद्ध होती हैं, उसी प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र भी तथागत द्वारा दिये गये धर्म-नियम स्वीकार करके गृहस्थ से परिव्राजक हो जाते हैं और अपने पूर्व नाम-गोत्र खोकर भिक्षु कहलाते हैं।
बौद्ध धर्म शील, समाधि और प्रज्ञा पर आधारित है। इसका आधार वाक्य है- ‘सोचो, विचारों, अनुभव करो, जब परमश्रेयस तुम्हारे अनुभव में आ जाए तो श्रद्धा या विश्वास करना नहीं होगा, स्वतः हो जायेगा।’
इस तरह बौद्ध धर्म पूर्णतः बुद्धि पर पर आधारित है, अंधश्रद्धा पर नहीं। बुद्ध ने सत्य-धर्म को वैज्ञानिक पद्धति से प्रकाशित किया। विज्ञान में भी एहिपस्सिक विधि (आओ, देखो) विद्यमान रहती है। इसी विधि के कारण बुद्ध का धम्म वैज्ञानिक धर्म कहलाता है। बुद्ध ने भी सच्चाई को जानने, परखने और अनुभव करने के लिए सभी को आमंत्रित किया।
इस प्रकार बुद्ध के वचन धार्मिक कट्टरपन की कैद में जकड़े मानव के लिए राजमार्ग प्रशस्त करते हैं और ‘आत्मदीपो भव’ का उद्घोष कर विवेक की स्वतंत्र ज्ञान-परंपरा को बल प्रदान करते हैं। बौद्ध-दर्शन, करुणा और अध्यात्म का संदेश देने वाला दुनिया का अनूठा दर्शन है। संपूर्ण मानवता के दुख-निवारण का जैसा प्रयास बुद्ध ने किया, वैश्विक धरातल पर इस तरह का दूसरा उदाहरण नहीं मिलता है। विवेक और मानव-प्रज्ञा पर विशेष जोर देने के कारण ही बौद्ध परंपरा आधुनिक साहित्य के लिए प्रमुख आधार-स्रोत बन सका। चाहे अंग्रेजी साहित्य में आधुनिकता के प्रणेता कवि टी.एस. इलियट की ‘द वेस्ट लैंड’ कविता हो या हरमन हेस का उपन्यास ‘सिद्धार्थ’, एडविन आर्नाल्ड की कृति ‘द लाइट आफ एशिया’ हो या अज्ञेय की कविता ‘असाध्य-वीणा’, यह अकारण नहीं है कि इन सभी रचनाओं में बौद्ध-चिंतन का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। उनके अनुसार चित्त से ही जगत् की सत्ता है और जगत् की सत्ता चित्त है। दृश्यमान् जगत् बुद्धि द्वारा उत्पन्न भ्रम का जाल है। भाग्यवाद और ईश्वर कोरी कल्पना है जो जीवन के सत्य और यथार्थ से अलग कर मानव को पर-निर्भर बनाता है। ईश्वर का होना या न होना एक काल्पनिक ज्ञान है। आत्मा तो पाँचों इंद्रियों का संघात मात्र है। सभी संस्कार अनित्य हैं। सभी संस्कार दुःख है, सभी धर्म अनात्म हैं। (क्योंकि) रुप अनित्य हैं, वेदना अनित्य है, संज्ञा अनित्य है। संस्कार अनित्य है और विज्ञान अनित्य है। जो अनित्य है सो दुःख है। जो दुःख है सो अनात्म है। जो अनात्म है वह न मेरा है, न वह मैं हूँ, न वह मेरी आत्मा है। धम्म की विपश्यना के अभ्यास से प्रत्यक्ष अनुभूति के स्तर पर इसे जाना जा सकता है। इस प्रकार बुद्ध की शिक्षाएँ प्राकृतिक संसार की नश्वरता, क्षणभंगुरता और परिवर्तनशीलता पर आधारित हैं जो जीवन की क्षणभंगुरता, जन्म-मरण के चक्र और सांसारिक अनित्यता की सीख देती हैं।
गौतम बुद्ध ने अपने उपदेशों में संतुलन की धारणा को सर्वाधिक महत्त्व दिया है। उन्होंने तप और सदाचार के पालन में मध्यम-मार्ग का अनुसरण किया, जिससे समान्यजन को ऐसा सरल, सुगम तथा सुबोध धर्म मिला जो अनुकरणीय था और जो पूरी मानवता का कल्याणक बन गया। बुद्ध का कहना है कि भोग की अति से बचना जितना आवश्यक है उतना ही योग की अति अर्थात् तपस्या की अति से भी बचना आवश्यक है। भोग की अति से विवेक लुप्त और संस्कार सुस्त हो जाते हैं और तपस्या की अति से शरीर दुर्बल तथा मनोबल क्षीण हो जाता है जिससे आत्मज्ञान की प्राप्ति अलभ्य हो जाती है। अष्टांगिक मार्ग ही वह मध्यम-मार्ग है जिससे दुःख का निदान होता है। अष्टांगिक मार्ग चूंकि ज्ञान, संकल्प, वचन, कर्मांत, आजीव, व्यायाम, स्मृति और समाधि के संदर्भ में सम्यकता से साक्षात्कार कराता है, इसीलिए यह मध्यम-मार्ग है। यह मध्यम-मार्ग ज्ञान देने वाला है, निर्वाण देने वाला है, इसलिए कल्याणकारी है और जो कल्याणकारी है वही श्रेयष्कर है। इस प्रकार भगवान् बुद्ध ने समाज और व्यक्ति के अंदर व्याप्त बुराइयों पर विजय प्राप्त कर उनमें संतुलन स्थापित करने का अभिनव प्रयोग किया, जो अंततः समस्त दुखों से मुक्ति दिलाकर मोक्ष नामक शाश्वत सुख का आधार बना।
बुद्ध ने अपना संपूर्ण जीवन मानव कल्याण के निमित्त शुद्ध-बुद्धि के विकास का रास्ता बताने में व्यतीत किया। बौद्ध धर्म ने अहिंसावादी एवं शांतिप्रिय धर्म की भूमिका का निर्वहन करते हुए तत्कालीन भारतीय चिंतन एवं संस्कृति पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव डाला। यद्यपि हिंदू दर्शन में भी चार पुरुषार्थों की मान्यता है, किंतु काम और मोक्ष को लेकर भारतीय परंपरा विरोधाभासों का शिकार रही है। एक ओर व्यक्ति को काम और अर्थ के लिए प्रोत्साहित किया जाता है तो दूसरी ओर उसे माया या भ्रम कहकर पारलौकिक सुख का लालच दिया जाता रहा है। बुद्ध की शिक्षाएँ प्राकृतिक संसार की नश्वरता और परिवर्तनशीलता पर आधारित हैं जो जीवन की क्षणभंगुरता और जन्म-मरण के चक्र द्वारा सांसारिक अनित्यता की सीख देती हैं। बुद्ध ने बुद्धत्व प्राप्ति अर्थात् निर्वाण प्राप्त करने का स्पष्ट मार्ग बताया, जो शील, समाधि और प्रज्ञा के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।
आज बुद्ध का अर्थशास्त्र ही विकास के सतपथ का रास्ता दिखा सकता है जो भौतिक उत्त्कर्ष और पारंपरिक गतिशीलता का मध्यम मार्ग अर्थात् सम्यक् आजीव है। बौद्ध संस्कृति की अहिंसा, त्याग, सेवाभावना, दयाशीलता, करुणा आदि गुणों ने समकालीन भारतीय समाज को प्रभावित किया और इस प्रकार एक ऐसे युग का सूत्रपात हुआ जिसमें भेदभाव और कर्मकांडों की कट्टरता के स्थान पर अहिंसा, दया, करुणा, शान्ति व सेवा की भावना व्याप्त थी।
बुद्ध गणतंत्र के प्रबल प्रशंसक और समर्थक थे इसीलिए उनके चिंतन-दर्शन में भी गणतंत्र की अच्छाइयाँ हैं। वे न केवल सामाजिक समानता पर जोर देते हैं बल्कि उसके लिए समाज के जातीय विभाजन को दोषी ठहराते हैं और जातिविहीन समाज की स्थापना की वकालत करते हैं। बौद्ध दर्शन की संपत्ति-संबंधी अवधारणा समाजवादी विचारधारा से मेल खाती है। वे प्रत्येक व्यक्ति को आर्थिक अधिकार देकर उन सामंती संस्कारों से बचाये रखना चाहते हैं जो धर्म और राजनीति की कुटिल संधियों की उपज थे। यही बुद्ध का अर्थशास्त्र है जो न्यूनतम् उपभोग और अधिकतम् कल्याण के विकास का मध्यममार्ग है। बौद्ध दर्शन व्यावहारिक बोध को महत्त्व देता है और जीवन की उपेक्षा करने बजाय उसको संयमित ढ़ंग से जीने पर विश्वास करता है; ऐसा जीवन जो अपने और दूसरों के लिए समान रूप से कल्याणकारी हो, सुखकारी हो। मानवीय लोभ ने मानव की आवश्यकताओं और इच्छाओें को असीमत कर दिया है जिसके कारण समाज में अंतहीन प्रतिद्वंद्विता और संघर्ष को बल मिला है। कामनाओं को अभ्यास द्वारा साधने लिए ही बुद्ध ने दुनिया के समक्ष अष्टांगिकमार्ग का व्यावहारिक विचार रखा। एक सच्चा बौद्ध गृहस्थ अपनी आवश्यकताओं और इच्छाओं को सीमित रखता है तथा लोभ से दूर रहता है।
जनसामान्य को उच्चवर्गों के समकक्ष लाने के लिए बुद्ध ने उन्हीं की भाषा में शिक्षा और उपदेश दिया। जब वैदिक परंपरा के पोषक लोकभाषाओं को उपेक्षित कर अपनी वर्णसंकोच वाली क्लिष्ट संस्कृत को दैवीवाक् का दर्जा देकर जनसाधारण को बरगलाने में संलग्न थे तो बुद्ध ने उपेक्षित लोकभाषाओं का सम्मान करते हुए न केवल अपने उपदेशों का माध्यम बनाया बल्कि अपने शिष्यों को भी लोकभाषाओं में ही उपदेश देने का निर्देश दिया- ‘अनुजानामि भिक्खवे, सकाय निरुत्तिया बुद्धवचनं परियापुणितं।’ इसीलिए बुद्ध के उपदेश पालि, पैशाची, संस्कृत, अपभ्रंश, मागधी आदि अनेक भाषाओं में संकलित हुए। बुद्ध ने समतावादी दृष्टिकोण सामने रखते हुए स्वस्थ एवं समृद्ध सामाजिक संरचना का कार्य किया।
इस प्रकार बुद्ध का दर्शन समाजवादी भावनाओं से ओतप्रोत है और कई अर्थों में वह मार्क्स के वैज्ञानिक समाजवाद से भी आगे है। मार्क्स का भौतिक द्वंद्ववाद जहाँ आर्थिक पहलुओं से आगे नहीं जा पाता है और वर्ग-संघर्ष पर आधारित है, वहीं बुद्ध का समाजवाद आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक सभी प्रकार की समानता के सभी पहलुओं की विस्तार से चर्चा करता है और आर्थिक मुद्दे पर कई स्थानों पर मार्क्स के समाजवाद से आगे निकल जाता है। आज जब वैश्विक सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था आपसी सहयोग के स्थान पर प्रतिद्वंद्विता को बढ़ावा दे रही है और समाज में अस्थिरता और अंतर्द्वंद पैदा हो रहा है तो संपूर्ण समाज के विकास की अवधारणा पर आधारित बुद्ध का अर्थशास्त्र पुनः प्रासांगिक हो गया है जिसके अनुसार आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही उत्त्पादन किया जाना चाहिए, अधिकतम् उपभोग और अर्थव्यवस्था की माँग को पूरा करने के लिए नहीं। आर्थिक विकास का मापदंड अधिकतम् कल्याण की भावना पर आधारित होना चाहिए, अधिकतम् उपभोग के लिए नहीं।
इस प्रकार अदृश्य होते हुए भी भविष्य, अतीत एवं वर्तमान द्वारा निर्देशित और निर्धारित होता है। बुद्धत्व अतीत की पुनर्व्याख्या है, वर्तमान का निरूपण है और सुखद, शांतिमय तथा प्रकाशपूर्ण भविष्य का सृजन है। बुद्ध कल कितने आवश्यक थे, इसका प्रमाण उनकी व्यापक लोकप्रियता है, उनका हर हृदय में सहज प्रवेश है। बौद्ध संस्कृति नियतकालिक नहीं, सार्वकालिक, सार्वदेशिक है। जबतक मानव रहेगा, तबतक बौद्ध संस्कृति रहेगी और मानव को सुधारने का मार्ग मिलता रहेगा; युग को नई प्रेरणा, नई गति और नई दिशा मिलती रहेगी।
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