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क्रांतिकारी आंदोलन का पुनरोदय
प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान क्रांतिकारी आंदोलनकारियों को बुरी तरह कुचल दिया गया। अनेक नेता जेल में डाल दिये गयेे और बाकी भूमिगत हो गये या इधर-उधर बिखर गये। किंतु राष्ट्रवादी जनमत को संतुष्ट करने और मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों को लागू करने हेतु सद्भावपूर्ण वातावरण बनाने के लिए सरकार ने 1920 के शुरू में क्रांतिकारी राष्ट्रवादियों को आम माफी देकर जेल से रिहा कर दिया।
गांधी, चितरंजनदास और अन्य नेताओं की अपील पर जेल से रिहा क्रांतिकारियों में से अधिकांश सशस्त्र क्रांति का रास्ता छोड़कर असहयोग आंदोलन में शामिल हो गये। किंतु चौरीचौरा कांड (4 फरवरी, 1922) के कारण असहयोग आंदोलन के अचानक स्थगन से इन जुझारू नवयुवकों ने राष्ट्रीय नेतृत्व की रणनीति तथा अहिंसा के सिद्धांत पर प्रश्नचिन्ह लगाना प्रारंभ कर दिया। असहयोग आंदोलन के दौरान 16 वर्षीय किशोर चंद्रशेखर जब पहली और अंतिम बार गिरफ्तार हुए थे, तब वह बार-बार ‘महात्मा गांधी की जय’ बोल रहे थे।
स्वराज्यवादियों के संसदीय संघर्ष तथा अपरिवर्तनवादियों (नो चेंजर्स) के रचनात्मक कार्य भी इन युवाओं को आकृष्ट नहीं कर सके। अधिकांश युवकों का अहिंसक आंदोलन की विचारधारा से विश्वास उठ गया और उन्हें लगने लगा कि देश को सिर्फ क्रांतिकारी मार्ग द्वारा ही मुक्त कराया जा सकता है। फलतः बंगाल, संयुक्त प्रांत और पंजाब में शिक्षित युवक क्रांतिकारी तरीकों की ओर आकृष्ट होने लगे। बंगाल में पुरानी अनुशीलन तथा युगांतर समितियाँ पुनः जाग उठीं तथा उत्तरी भारत के लगभग सभी प्रमुख नगरों में क्रांतिकारी संगठन बन गये।
क्रांतिकारी विचारधारा के प्रायः सभी प्रमुख नेताओं, जैसे- योगेशचंद्र चटर्जी, सूर्यसेन, भगतसिंह, सुखदेव, चंद्रशेखर आजाद, शिववर्मा, भगवती चरण बोहरा, जयदेव कपूर व जतीनदास ने गांधी के असहयोग आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई थी।
प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात् साम्यवादी विचारों के प्रसार और अनेक वामपंथी संगठनों ने भी क्रांतिकारी आंदोलन के पुनरोदय में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके अलावा 1922 के बाद से ही ‘आत्मशक्ति’, ‘सारथी’ और ‘बिजली’ जैसी बंगला पत्रिकाओं में, जिनके संपादक प्रायः भूतपूर्व कैदी होते थे, ऐसे अनेक लेख और संस्मरण छापे जाते थे जिनमें पुराने क्रांतिकारियों का गौरवगान किया जाता था।
सचिन सान्याल के ‘बंदी जीवन’ का, जो हिंदी और गुरुमुखी में भी छपा था, युवा पीढ़ी पर भारी प्रभाव पड़ा। बंगाल के सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने 1926 में ‘पथेर दाबी’ प्रकाशित किया, जिसमें शहरी मध्यवर्ग की क्रांति की स्तुति की गई थी।
इस चरण में क्रांतिकारी आंदोलन की मुख्यतः दो धाराएँ विकसित हुईं- पंजाब, उत्तर प्रदेश एवं बिहार में हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन या आर्मी (एच.आर.ए.), नौजवान सभा और बंगाल में युगांतर, अनुशीलन समितियाँ तथा सूर्यसेन के नेतृत्व में चटगाँव विद्रोह समूह।
इस चरण के क्रांतिकारी आंदोलन का झुकाव कुछ-कुछ समाजवाद की ओर होने लगा था। पहली बार क्रांतिकारियों ने कांग्रेस का विकल्प ढूढ़ने के उद्देश्य से स्वतंत्रता के बाद समाजवाद पर आधारित एक नये समाज की संरचना का कार्यक्रम प्रस्तुत किया। 1925 के एक परचे में, जिसे शायद सचिन सान्याल ने हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के लिए लिखा था, वैयक्तिक आतंकवाद का इस आधार पर पक्ष लिया गया था कि ‘नये तारे के जनम के लिए उथल-पुथल आवश्यक है’, लेकिन इसका अंतिम लक्ष्य था, ‘‘उन सभी व्यवस्थाओं की समाप्ति जो मानव द्वारा मानव के शोषण को संभव बनाती है।’’
हिंदुस्तान प्रजातांत्रिक संघ (HRA)
सबसे पहले उत्तर भारत के क्रांतिकारी संगठित होना शुरू हुए। पंजाब, उत्तर प्रदेश एवं बिहार में क्रांतिकारी आतंकवादी गतिविधियों का संचालन मुख्य रूप से ‘हिंदुस्तान प्रजातांत्रिक संघ’ (हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन) ने किया। इसका गठन अक्टूबर 1924 में कानपुर में क्रांतिकारी युवकों के एक अखिल भारतीय सम्मेलन में किया गया, जिसमें सयुंक्त प्रांत में रहनेवाले बंगाली सचिन सान्याल और जोगेश चटर्जी के अलावा अशफाकउल्ला खाँ, रोशनसिंह और रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ जैसे पुराने नेताओं के साथ भगतसिंह, शिववर्मा, सुखदेव, भगवतीचरण बोहरा और चंद्रशेखर आजाद जैसे नये नेता भी शामिल हुए थे। इस संगठन का उद्देश्य सशस्त्र क्रांति के माध्यम से औपनिवेशिक सत्ता को उखाड़ फेंकना और एक संघीय गणतंत्र ‘संयुक्त राज्य भारत’ (यूनाइटेड स्टेट्स आफ इंडिया) की स्थापना करना था, जिसका मुख्य आधार वयस्क मताधिकार हो।
हिंदुस्तान प्रजातांत्रिक संघ के घोषणा-पत्र में कहा गया था कि इसका उद्देश्य उन तमाम व्यवस्थाओं का उन्मूलन करना है, जिनके तहत एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति का शोषण करता है।
हि.स.प्र. ने रेलवे तथा परिवहन के अन्य साधनों तथा इस्पात और जहाज निर्माण जैसे बड़े उद्योगों के राष्ट्रीयकरण का प्रस्ताव रखा, किसानों और मजदूरों का संगठन बनाने तथा ‘संगठित हथियारबंद क्रांति’ के लिए काम करने का भी फैसला किया।
ब्रितानी सरकार ने इस क्रांतिकारी संगठन पर कड़ा प्रहार किया। हिंदुस्तान प्रजातांत्रिक संघ की ओर से प्रकाशित इश्तहार और उसके संविधान को लेकर बंगाल पहुंचे दल के नेता सचिन सान्याल बाँकुड़ा में गिरफ्तार कर लिये गये। जोेगेश चटर्जी एच.आर.ए. के संविधान की ढेर सारी प्रतियों के साथ हावड़ा में पकडे़ गये और हजारीबाग जेल में बंद कर दिये गयेे। दोनों प्रमुख नेताओं की गिरफ्तारी के कारण रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ के कंधों पर उत्तर प्रदेश के साथ-साथ बंगाल के क्रांतिकारी आंदोलन का उत्तरदायित्व भी आ गया।
क्रांतिकारियों द्वारा चलाये जा रहे राष्ट्रीय आंदोलन को गति देने के लिए धन की आवश्यकता पहले भी थी, किंतु अब यह आवश्यकता और भी अधिक बढ़ गई थी। धन की व्यवस्था करने के लिए बिस्मिल ने 8 अगस्त, 1925 को शाहजहाँपुर में बैठक कर सरकारी खजाना लूटने की योजना बनाई।
काकोरी ट्रेन एक्शन (9 अगस्त, 1925)
ऐतिहासिक ‘काकोरी ट्रेन एक्शन’ भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के क्रांतिकारियों द्वारा सरकारी खजाना लूटने की एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के केवल दस सदस्यों- जिसमें शाहजहाँपुर के रामप्रसाद ‘बिस्मिल’, अशफाकउल्ला खाँ, मुरारी शर्मा तथा बनवारी लाल, बंगाल के राजेंद्र लाहिड़ी, सचिन सान्याल तथा केशव चक्रवर्ती (छद्मनाम), बनारस के चंद्रशेखर आजाद तथा मन्मथनाथ गुप्त एवं औरैया के मुकुंदीलाल शामिल थे, ने ‘काकोरी ट्रेन एक्शन’ को अंजाम दिया।
9 अगस्त, 1925 को बिस्मिल के नेतृत्व में 8 डाउन सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर रेलगाड़ी को शाहजहाँपुर के काकोरी रेलवे स्टेशन से छूटने पर ट्रेन को रोककर सरकारी खजाना लूट लिया गया। इस ट्रेन-डकैती में जर्मनी के बने चार माउजर पिस्तौल काम में लाये गये और अहमदअली नामक एक यात्री मारा गया।
ब्रिटिश सरकार ने काकोरी ट्रेन डकैती के आरोप में कम से कम 40 युवकों को गिरफ्तार कर उन पर ‘काकोरी षड्यंत्र केस’ के नाम से मुकदमा चलाया। इस ऐतिहासिक मुकदमे में रामप्रसाद ‘बिस्मिल’, अशफाकउल्ला खाँ, ठाकुर रोशनसिंह और राजेंद्रनाथ लाहिड़ी को फाँसी, चार को आजीवन कारावास और 17 अन्य लोगों को लंबी-लंबी कैद की सजा मिली। ठाकुर मनजीतसिंह राठौर, मदनमोहन मालवीय और बैरिस्टर मोहनलाल सक्सेना काकोरी ट्रेन एक्शन के मृत्युदंड-प्राप्त कैदियों की सजा कोे उम्रकैद में बदलवाने के बहुत प्रयास किये, किंतु सफलता नहीं मिली।
क्रांतिकारियों के उत्साह और आत्मबल का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि 19 दिसंबर, 1927 को रामप्रसाद बिस्मिल गोरखपुर जेल में यह कहकर हँसते हुए फाँसी पर लटक गये कि, ‘‘मैं अंग्रेजी राज्य के पतन की कामना करता हूँ।’’ ठाकुर रोशनसिंह इलाहाबाद के नैनी जेल में वंदेमातरम् गाते हुए शहीद हो गये। इसी प्रकार फैजाबाद जेल में अशफाकउल्ला खाँ ने फांसी के समय कहा कि ‘‘आप सब एक होकर नौकरशाही का सामना कीजिए। मैं हत्यारा नहीं हूँ, जैसा मुझे साबित किया गया है।’’ इसके पहले 17 दिसंबर, 1927 को गोंडा जेल में राजेंद्रनगर लकड़ी फांसी के फंदे को चूम चुके थे।
काकोरी ट्रेन एक्शन के संबंध में विस्तार से जानने के लिए लिए पढ़ें-
नौजवान सभा
भगतसिंह
सरदार भगतसिंह ने यशपाल तथा छबीलदास के साथ मिलकर पंजाब में 1926 में ‘नौजवान सभा’ की स्थापना की। भगतसिंह नौजवान सभा के सचिव थे। 1907 में किशनसिंह के घर जन्मे भगतसिंह के चाचा अजीतसिंह और सवर्णसिंह भी क्रांतिकारी थे। नौजवान सभा का उद्देश्य जनता में क्रांतिकारी चेतना लाना और संवैधानिक संघर्ष के विरुद्ध लोगों में प्रचार करना था। यह सभा संगठित भारत राष्ट्र का निर्माण करने के लिए नवयुवकों में देशभक्ति की भावना को जाग्रत करके तथा मजदूरों और किसानों को संगठित करके भारत में स्वतंत्र मजदूर-किसानों का राज्य स्थापित करना चाहती थी।
नौजवान सभा ने शहीद क्रांतिकारी गोपीनाथ साहा की, जिसने बंगाल में एक अंग्रेज डे की हत्या की थी, प्रशंसा की और उसे अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की। सभा के प्रमुख सदस्यों में केदारनाथ सहगल, सोढ़ी पिंडीदास, आनंदकिशोर मेहता तथा सर्दूलसिंह जैसे लोग थे। इस सभा की बैठकों में पं. जवाहरलाल नेहरू, भूपेंद्रनाथ दत्त तथा श्रीपाद डांगे जैसे लोगों ने भी भाषण दिये। नौजवान सभा के तत्वावधान में भगतसिंह और सुखदेव ने खुले तौर पर काम करने के लिए ‘लाहौर छात्र संघ‘ का गठन किया।
नौजवान सभा ने पहली बार स्वतंत्रता के उपरांत समाजवादी समाज की स्थापना की योजना को प्रस्तुत किया। दरअसल भगतसिंह और उनके साथी क्रांतिकारी बुद्धिजीवियों के नेतृत्व में समाज के दलित, शोषित व गरीब तबके के जन-आंदोलन का विकास करना चाहते थे।
भगतसिंह कहा करते थे कि गाँव एवं कारखाने ही वास्तविक क्रांतिकारी सेनाएँ हैं। अप्रैल, 1928 में नौजवान सभा ने पंजाब के प्रत्येक गाँव में अपनी शाखाएँ खोलने का निर्णय किया, जिसमें किरती किसान पार्टी ने बड़ी सहायता की। इस सभा ने देश के नवयुवकों को स्वाधीनता संग्राम में कूद पड़ने का आह्वान किया और उनसे अपील की कि वे प्रथम स्वाधीनता संग्राम के वीरों और चीन, जापान, तुर्की व आयरलैंड के स्वतंत्रता सेनानियों से प्रेरणा लें।
नौजवान सभा ने रूस के साथ ‘मित्रता-सप्ताह’ और ‘काकोरी ट्रेन एक्शन’ की स्मृति में ‘काकोरी दिवस’ मनाने की परंपरा को भी आरंभ किया। यही नहीं, इस सभा ने देश के अन्य भागों में फैले क्रांतिकारियों की गतिविधियों में सामंजस्य स्थापित करने और उन्हें एक मंच पर लाने का भी प्रयास किया और सिंतंबर, 1928 में विख्यात ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी’ (हिसप्रस) की स्थापना की.
हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक संघ (9-10 सितंबर, 1928)
काकोरी कांड उत्तर भारत के क्रांतिकारियों के लिए एक बड़ा आघात अवश्य था, किंतु वह क्रांतिकारी गतिविधियों को रोक नहीं सका। हिंदुस्तान प्रजातांत्रिक संघ के जो सदस्य गिरफ्तार होने से बच गये थे, उन्होंने नये सदस्य बनाये और पंजाब के प्रतिभाशाली युवा विद्यार्थी भगतसिंह के नेतृत्व में उभरनेवाले समूह के साथ संबंध स्थापित किये।
उत्तर प्रदेश में विजयकुमार सिन्हा, शिववर्मा और जयदेव कपूर तथा पंजाब में भगतसिंह, भगवतीचरण बोहरा और सुखदेव ने चंद्रशेखर आजाद के नेतृत्व में ‘हिंदुस्तान प्रजातांत्रिक संघ’ को फिर से संगठित करना शुरू किया। इस समय युवा क्रांतिकारियों पर समाजवादी विचारधारा का प्रभाव स्पष्ट दिखने लगा था।
दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान में 9-10 सितंबर, 1928 को उत्तर भारत के युवा क्रांतिकारियों की एक बैठक हुई जिसमें चंद्रशेखर आजाद ने समाजवाद को अपना उद्देश्य घोषित करते हुए हिंदुस्तान प्रजातांत्रिक संघ का नाम बदलकर ‘हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक संघ’ (हिसप्रस) कर दिया।
हिसप्रस का उद्देश्य भारत में एक समाजवादी गणतंत्र की स्थापना करना था। संघ ने हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक सेना का गठन करने और इसमें गाँव तथा शहरों के युवकों को भर्ती कर सैनिक शिक्षा देने का भी निर्णय किया। अपने घोषणा-पत्र में हिसप्रस ने सशस्त्र क्रांति को उचित बताते हुए कहा कि, ‘‘क्रांति आतंकवाद के बिना पूर्ण नहीं होती। आतंकवाद शोषणकर्त्ताओं के दिलों में भय पैदा कर देता है। यह शोषित जनता के मन में प्रतिशोध लेने और मुक्ति की आशाएँ जगा देता है; यह अस्थिर मनःस्थितिवालों में साहस और आत्म-विश्वास भरता है, यह शासक वर्ग की श्रेष्ठता के जादू को तोड़ता है और दुनिया की नजरों में आम जनता की स्थिति को ऊँचा उठा देता है, क्योंकि यही राष्ट्र को स्वतंत्र कराने की लालसा का सबसे अधिक विश्वासोत्पादक प्रमाण है।’’
हिसप्रस का नारा था: ‘‘हम दया की भीख नहीं माँगते हैं। हमारी लड़ाई आखिरी फैसला होने तक की लड़ाई है, यह फैसला है- विजय या मौत।’’
सांडर्स की हत्या
यद्यपि क्रांतिकारी धीरे-धीरे व्यक्तिगत वीरता के कामों और हिंसात्मक गतिविधियों से दूर हटने लगे थे, किंतु जब 30 अक्टूबर, 1928 को लाहौर में साइमन कमीशन के विरुद्ध प्रदर्शन में पुलिस के बर्बर लाठीचार्ज से घायल पंजाब के नेता लाला लाजपतराय शहीद हो गये, तो युवा क्रांतिकारियों का खून खौल उठा। भगतसिंह और उनके साथी क्रांतिकारियों की दृष्टि में यह ‘राष्ट्र का अपमान’ था, जिसका उत्तर केवल ‘खून का बदला खून’ है।
लाहौर में हिसप्रस के तीन सदस्यों- भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद और राजगुरु ने 17 दिसंबर, 1928 को ब्रिटिश पुलिस अधिकारी स्काॅट के धोखे में सांडर्स और उसके रीडर चरनसिंह को गोलियों से भून दिया। अगले दिन लाहौर की दीवारों पर चिपके एक इश्तिहार में लिखा था: ‘‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन ने लाला लाजपतराय की हत्या का प्रतिशोध ले लिया है।’’
सांडर्स की हत्या को इन शब्दों द्वारा न्यायोचित करार दिया गया था: ‘‘हमें सांडर्स की हत्या का अफसोस है, किंतु वह उस अमानवीय व्यवस्था का एक अंग था, जिसे नष्ट करने के लिए हम संघर्ष कर रहे हैं।’’ सांडर्स हत्याकांड से ब्रितानी सत्ता काँप उठी।
सांडर्स की हत्या के बाद क्रांतिकारी आंदोलन के नायक राजगुरु, चंद्रशेखर आजाद और भगतसिंह वीरांगना दुर्गा भाभी के साथ कलकत्ता मेल से नया इतिहास बनाने लाहौर से कलकत्ता पहुँच गये।
अब हिसप्रस के नेताओं ने निर्णय किया कि अपने बदले हुए राजनीतिक उद्देश्य तथा जनक्रांति की आवश्यकता के बारे में जनता को बताया जाये। इसके लिए क्रांतिकारियों ने सेंट्रल असेंबली में बम फेंकने की योजना बनाई, ताकि अदालत को मंच के रूप में प्रयुक्त किया जा सके। इस कार्य के लिए पहले बटुकेश्वर दत्त और विजयकुमार सिन्हा को चुना गया था, किंतु बाद में भगतसिंह ने यह कार्य बटुकेश्वर दत्त के साथ स्वयं करने का फैसला लिया।
असेंबली बम विस्फोट (8 अप्रैल, 1929)
सेंट्रल असेंबली बमकांड की घटना 8 अप्रैल, 1929 को घटी। सरकार दिल्ली की केंद्रीय असेंबली में पब्लिक सेफ्टी बिल (जन सुरक्षा बिल) और ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल (औद्योगिक विवाद बिल) लाने की तैयारी कर रही थी। इन बिलों का प्रयोग देश में उठते युवा आंदोलन को कुचलने और मजदूरों को हड़ताल के अधिकार से वंचित रखने के लिए किया जाना था।
यद्यपि असेंबली के बहुत से सदस्य इन दमनकारी कानूनों के विरुद्ध थे, फिर भी, वायसराॅय इन्हें अपने विशेषाधिकार से पास कराना चाहता था।
निश्चित कार्यक्रम के अनुसार जब वायसराॅय इन दमनकारी प्रस्तावों को कानून बनाने की घोषणा करने के लिए उठा, बटुकेश्वर दत्त और भगतसिंह भी खड़े हो गये। जैसे ही बिल-संबंधी घोषणा की गई, पहला बम भगतसिंह ने और दूसरा बम दत्त ने फेंका और ‘इंकलाब जिंदाबाद’ का नारा लगाया। एकदम खलबली मच गई, जाॅर्ज शुस्टर अपनी मेज के नीचे छिप गया। सार्जेंट टेरी इतना भयभीत हो गया कि वह इन दोनों को गिरफ्तार नहीं कर सका।
बम से किसी को कोई नुकसान नहीं पहुँचा, क्योंकि उसे जानबूझकर ऐसा बनाया गया था कि किसी को चोट न आये। वैसे भी बम असेंबली में खाली स्थान पर ही फेंका गया था और इसके फेंकने का उद्देश्य किसी की हत्या करना नहीं, बल्कि क्रांतिकारियों के एक पर्चे के अनुसार ‘बहरों को सुनाना’ था।
भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त चाहते तो बम फेंकने के बाद आसानी से भाग सकते थेे, किंतु उन्होंने जान-बूझकर अपने को गिरफ्तार करा लिया क्योंकि वे क्रांतिकारी प्रचार के लिए अदालत का एक मंच के रूप में उपयोग करना चाहते थे।
सरकार की प्रतिक्रिया
सरकार ने क्रांतिकारियों पर तीखा प्रहार किया। राजगुरु, भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त के साथ प्रजातांत्रिक संघ के अनेक सदस्य गिरफ्तार किये गये और उन पर मुकदमें चलाये गये। भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त को असेंबली बमकांड के आधार पर फाँसी नहीं दी जा सकती थी, इसलिए सांडर्स की हत्या का मुकदमा भी असेंबली बमकांड से जोड़ दिया गया।
ऐतिहासिक भूख-हड़ताल
इन युवा क्रांतिकारियों ने अदालतों में दिये गयेे अपने निर्भीक बयानों और अवज्ञापूर्ण व्यवहारों से देशवासियों का दिल जीत लिया। इनके बचाव के लिए कांग्रेसी नेता आगे आये, जो वैसे अहिंसा के समर्थक थे। जेलों की अमानवीय परिस्थितियों के विरोध में उनकी भूख-हड़तालें विशेष प्रेरणाप्रद थीं। राजनीतिक बंदियों के रूप में उन्होंने जेलों में अपने साथ सम्मानित तथा सुसंस्कृत व्यवहार किये जाने की माँग की। इसी प्रकार की एक भूख हड़ताल में 63 दिनों की ऐतिहासिक भूख-हड़ताल के बाद एक युवा क्रांतिकारी जतीनदास (यतींद्रनाथ दास) शहीद हो गये।
देशव्यापी विरोध के बावजूद अदालत ने वही फैसला दिया, जिसकी उम्मीद थी। 7 अक्टूबर, 1930 को अदालत का फैसला जेल में पहुँचा, जिसमें भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु को मृत्युदंड, कमलनाथ तिवारी, विजयकुमार सिन्हा, जयदेव कपूर, शिववर्मा, गयाप्रसाद कटियार, किशोरलाल और महावीरसिंह को आजीवन कारावास, कुंदनलाल को सात वर्ष तथा प्रेमदत्त को तीन वर्ष के कठोर कारावास की सजा दी गई थी।
क्रांतिकारियों को फाँसी की सजा सुनाये जाने के साथ ही लाहौर में धारा 144 लगा दी गई। पूरे देश में उत्तेजना फैल गई। 17 फरवरी,1931 को ‘भगतसिंह दिवस’ मनाया गया। कहा जाता है कि मृत्युदंड के लिए 24 मार्च, 1931 की सुबह तय थी, किंतु जनाक्रोश से डरी-सहमी सरकार ने 23-24 मार्च की रात्रि में ही भगतसिंह, सुखदेव और शिवराम राजगुरु को फाँसी पर लटका दिया और रात के अंधेरे में ही सतलज नदी के किनारे फिरोजपुर में उनका अंतिम संस्कार भी कर दिया।
तीनों वीर युवक भारत माँ को गुलामी की जंजीरों से मुक्त कराने, देश के जवानों को बलिदान एवं त्याग की नई राह दिखाने के लिए स्वयं बलिपथ के पथिक बन गये। तीनों शेर जब फाँसी के लिए चले, तो उनके होठों पर गीत था-
‘दिल से निकलेगी न मरकर भी वतन की उल्फत,
मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आयेगी।।’
फाँसी के कुछ दिन पहले जेल सुपरिटेंडेंट को लिखे गये एक पत्र में इन तीनों क्रांतिकारियों ने कहा था: ‘‘बहुत जल्द ही अंतिम संघर्ष की दुंदुभि बजेगी। इसका परिणाम निर्णायक होगा। हमने इस संघर्ष में भाग लिया है और हमें इस पर गर्व है।’’
देश भर में भगतसिंह की शहादत को याद किया गया। भगतसिंह की मृत्यु की खबर को लाहौर के ‘दैनिक ‘ट्रिब्यून’ तथा न्यूयाॅर्क के एक पत्र ‘डेली वर्कर’ ने छापा। लाहौर के उर्दू दैनिक समाचारपत्र ‘पयाम’ ने लिखा: ‘‘हिंदुस्तान इन तीनों शहीदों को पूरे ब्रितानिया से ऊँचा समझता है। अगर हम हजारों-लाखों अंग्रेजों को मार भी गिराएँ, तो भी हम पूरा बदला नहीं चुका सकते। यह बदला तभी पूरा होगा, अगर तुम हिंदुस्तान को आजाद करा लो, तभी ब्रितानिया की शान मिट्टी में मिलेगी। ओ भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव! अंग्रेज खुश हैं कि उन्होंने तुम्हारा खून कर दिया, लेकिन वो गलती पर हैं। उन्होंने तुम्हारा खून नहीं किया है, उन्होंने अपने ही भविष्य में छुरा घोंपा है। तुम जिंदा हो और हमेशा जिंदा रहोगे।’’
दक्षिण भारत में रामास्वामी पेरियार ने अपने साप्ताहिक-पत्र ‘कुडई आरसू’ के 22-29 मार्च, 1931 के अंक में भगतसिंह के लेख ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ?’ पर संपादकीय लिखा।
सुभाषचंद्र बोस ने कहा कि ‘‘भगतसिंह जिंदाबाद और इंकलाब जिंदाबाद का एक ही अर्थ है।’’ गांधीजी ने भी स्वीकार किया था कि हमारे मस्तक भगतसिंह की देशभक्ति, साहस और भारतीय जनता के प्रति प्रेम तथा बलिदान के आगे झुक जाते हैं।
समाजवाद और क्रांतिकारी दर्शन
भगतसिंह एक असाधारण बुद्धिजीवी थे जो अपने समय के कई राजनेताओं की तुलना में अधिक पढ़े-लिखे थे। उन्होंने समाजवाद, सोवियत संघ और क्रांतिकारी आंदोलन से संबद्ध बहुत-सी पुस्तकों का गहराई से अध्ययन किया था। वे लगभग 2 साल जेल में रहे और बराबर अध्ययन करते रहे। जेल के दिनों में उनके द्वारा लिखे गये लेख व सगे-संबंधियों को लिखे गये पत्र, उनके विचारों के दर्पण हैं। अपने लेखों में उन्होंने कई तरह से पूँजीपतियों को अपना शत्रु बताया है।
अपने दो अंतिम पत्रों में भगतसिंह ने समाजवाद में अपनी आस्था व्यक्त की है। उन्होंने समाजवाद की एक वैज्ञानिक परिभाषा की कि इसका अर्थ पूँजीवाद और वर्ग-प्रभुत्व का पूरी तरह अंत है। वे लिखते हैं: ‘‘किसानों को केवल विदेशी शासन से ही नहीं, बल्कि जमींदारों और पूँजीपतियों के शोषण से भी मुक्त कराना होगा।’’
3 मार्च, 1931 को भेजे गये अपने अंतिम संदेश में उन्होंने घोषणा की थी: ‘‘भारत में संघर्ष तब तक जारी रहेगा, जब तक कि मुट्ठीभर शोषक अपने स्वार्थ के लिए साधारण जनता की मेहनत का शोषण करते रहेंगे। इस बात का कोई विशेष महत्त्व नहीं है कि शोषणकर्ता अंग्रेज पूँजीपति हैं या भारतीयों और अंग्रेजों का गठबंधन है या पूरी तरह भारतीय हैं।’’
भगतसिंह जानते थे कि क्रांतिकारी लक्ष्य प्राप्त करने में दर्शन या विचारधारा की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। उन्होंने लाहौर कोर्ट के सामने कहा था: ‘‘क्रांति की तलवार में धार वैचारिक पत्थर पर रगड़ने से ही आती है।’’ इसलिए भगतसिंह और उनके साथियों ने पहली बार क्रांतिकारियों के समक्ष क्रांतिकारी संघर्ष के तरीके एवं क्रांति के लक्ष्य के रूप में एक क्रांतिकारी दर्शन प्रस्तुत किया।
इन क्रांतिकारियों ने जनता को अपनी विचारधारा से अवगत कराने के लिए अपने बयान और दस्तावेज ‘दि फिलाॅसफी आफ द बाॅम्ब’ (बम का दर्शन) शीर्षक से जारी किया, जिसे चंद्रशेखर आजाद के अनुरोध पर भगवतीचरण बोहरा ने तैयार किया था।
क्रांति का तात्पर्य
भगतसिंह व उनके कामरेड साथियों ने क्रांति को व्यापक ढंग से परिभाषित किया। अब क्रांति का तात्पर्य हिंसा या लड़ाकूपन ही नहीं था। इसका पहला उद्देश्य था- ‘‘राष्ट्रीय स्वतंत्रता की स्थापना के लिए साम्राज्यवाद को जड़ से उखाड़ फेंकना और समाजवादी समाज की स्थापना करना। समाजवादी समाज का तात्पर्य ऐसे समाज से था जहाँ व्यक्ति द्वारा व्यक्ति का शोषण न हो।’’
असेंबली बमकांड में भगतसिंह ने अदालत में कहा था कि क्रांति के लिए रक्तरंजित संघर्ष आवश्यक नहीं है, व्यक्तिगत बैर के लिए भी उसमें कोई जगह नहीं है। यह पिस्तौल और बम की उपासना नहीं है। क्रांति से हमारा आशय यह है कि अन्याय पर आधारित वर्तमान व्यवस्था समाप्त होनी चाहिए।
दरअसल भगतसिंह अब मार्क्सवादी हो चले थे और इस बात में विश्वास करने लगे थे कि व्यापक जनांदोलन से ही क्रांति लाई जा सकती है। दूसरे शब्दों में, जनता ही जनता के लिए क्रांति कर सकती है।
4 जून, 1929 को सेशन जज के समक्ष बयान देते हुए भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने कहा था: ‘‘क्रांति के विरोधियों द्वारा भ्रांतिवश इस विचार को अपना लिया गया है कि क्रांति का तात्पर्य शस्त्रों, हथियारों या अन्य साधनों से हत्या या हिंसक कार्य करना है, जबकि क्रांति का अभिप्राय बम और पिस्तौल मात्र नहीं है। क्रांति से हमारा अभिप्राय है कि आज की वस्तुस्थिति और समाज व्यवस्था को, जो स्पष्ट रूप से अन्याय पर टिकी हुई है, बदला जाए। क्रांति व्यक्ति द्वारा व्यक्ति के शोषण को समाप्त करने और हमारे राष्ट्र के लिए पूर्ण आत्म-निर्णय का अधिकार प्राप्त करने के लिए है। हमारे विचार से क्रांति का अंतिम लक्ष्य यही है।’’
अपनी गिरफ्तारी के पहले ही भगतसिंह ने आतंकवाद का त्याग कर दिया था। 19 अक्टूबर, 1929 को पंजाब विद्यार्थी काॅन्फ्रेंस के एक संदेश में भगतसिंह और दत्त ने लिखा था: ‘‘हम युवकों को बम और पिस्तौल उठाने की सलाह नहीं देते।…..उन्हें लाखों मजदूरों और गाँव में रहने वाले गरीब किसानों के पास क्रांति का संदेश ले जाना चाहिए।’’ भगतसिंह ने 2 फरवरी, 1931 के पत्र में लिखा था: ‘‘देखने में मैंने एक आतंकवादी की तरह काम किया है, किंतु मैं आतंकवादी नहीं हूँ।……मैं अपनी पूरी शक्ति से यह घोषणा करना चाहूँगा कि मैं आतंकवादी नहीं हूँ और शायद अपने क्रांतिकारी जीवन के आरंभिक दिनों को छोड़कर मैं कभी आतंकवादी नहीं था और मुझे विश्वास है कि इन विधियों से हम कुछ भी हासिल नहीं कर सकते।’
भगतसिंह पूरी तरह से एक जागरुक तथा धर्मनिरपेक्ष क्रांतिकारी थे। वे प्रायः अपने साथियों से कहते थे कि सांप्रदायिकता भी उतना ही बड़ा शत्रु है जितना कि उपनिवेशवाद, और इसका सख्ती से मुकाबला करना होगा। नौजवान सभा के प्रथम सचिव के रूप में उन्होंने सांप्रदायिक विचार फैलानेवाले संगठनों या पार्टियों से कोई संबंध न रखने और लोगों में सामान्य सहिष्णुता की भावना जगाने का नियम बनाया था। वे जनता को अंधविश्वास तथा धर्म की जकड़न से मुक्त करने पर बहुत जोर देते थे।
अपनी मौत से कुछ समय पहले भगतसिंह ने जेल में अंग्रेजी में ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ?’ शीर्षक से एक लेख लिखा था, जो 27 सितंबर, 1931 को लाहौर के समाचारपत्र ‘दि पीपुल’ में प्रकाशित हुआ था। इस लेख में उन्होंने धर्म एवं धार्मिक दर्शन की खूब आलोचना की है और ईश्वर के अस्तित्व पर अनेक तर्कपूर्ण सवाल उठाये हैं। उन्होंने घोषित किया कि प्रगति के लिए संघर्षरत प्रत्येक व्यक्ति को अंधविश्वासों की आलोचना करनी ही होगी और पुरातनपंथी विचारों को चुनौती देनी ही होगी। प्रचलित विश्वासों की हरेक कड़ी की प्रासंगिकता और सत्यता को परखना होगा।
भगतसिंह की गिरफ्तारी के बाद चंद्रशेखर आजाद ने क्रांतिकारी दल का कार्य यशपाल तथा भगवतीचरण बोहरा के साथ जारी रखा। 23 दिसंबर, 1929 को निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन के समीप वायसराॅय लाॅर्ड इरविन की रेलगाड़ी को उड़ाने की कोशिश की गई, किंतु वायसराॅय बच गया।
इसी प्रकार 23 दिसंबर, 1930 को हरिकिशन ने पंजाब के गवर्नर को गोली मारी, जिससे वह घायल हो गया। इस कांड में हरिकिशन को मृत्युदंड की सजा मिली।
चंद्रशेखर आजाद 27 फरवरी, 1931 को इलाहाबाद (प्रयागराज) के कंपनी बाग (अल्फ्रेड पार्क) में पुलिस से लड़ते हुए शहीद हो गये।
आजाद की मृत्यु के बाद यशपाल ने हिसप्रस को संगठित करने का प्रयास किया, लेकिन 23 जनवरी, 1932 को उन्हें भी इलाहाबाद में गिरफ्तार कर लिया गया और 14 वर्ष की सजा दी गई। बाद में गोविंदवल्लभ पंत के प्रयत्नों से वे 1938 में रिहा कर दिये गयेे।
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