राजाधिराज चोल प्रथम (Rajadhiraja Chola I, 1044-1054 AD)

राजाधिराज चोल प्रथम (1044-1054)

राजेंद्र चोल प्रथम की मृत्यु के बाद उसका पुत्र राजाधिराज राजकेशरी 1044 ई. में चोल राजगद्दी पर बैठा। किंतु 1018 ई. में ही राजाधिराज को युवराज नियुक्त कर दिया गया था। राजाधिराज ने अपने पिता राजेंद्र प्रथम के शासनकाल में लगभग पचीस-छब्बीस वर्षों (1043-44 ई.) तक युवराज के रूप में शासन किया। इसने अपने पिता के समय में चोल सेनाओं का सफल नेतृत्व किया और जब सिंहल, पांडय और केरल में विद्रोह हुए तो इसने वीरता के साथ उन विद्रोहों का दमन भी किया। अपने वास्तविक शासनकाल में राजाधिराज श्रीलंका और चालुक्यों के साथ संघर्ष में उलझा रहा और अंततः चालुक्यों से संघर्ष में इसकी मृत्यु हो गई।

राजाधिराज प्रथम के शासनकाल के संबंध में इसके उत्तराधिकारियों के लेखो में 38, 36 अथवा 32 वर्षों के शासनकाल की जानकारी मिलती है। इसने संभवतः अपने युवराज काल से लेकर 36 वर्षों (1054 ई.) तक इसने शासन किया। इसी प्रकार राजेंद्र द्वितीय का अभिषेक 1052 ई. में हुआ था। इसका अंतिम शासनवर्ष बारहवाँ वर्ष है। इस प्रकार इसने 1064 ई. तक राज्य किया, जबकि इसके उत्तराधिकारी वीरराजेंद्र का अभिषेक 1062-63 ई. में हुआ था।

राजाधिराज चोल प्रथम (Rajadhiraja Chola I, 1044-1054 AD)
राजाधिराज प्रथम के समय में चोल साम्राज्य
श्रीलंका से संघर्ष

राजाधिराज के प्रारंभिक लेखों में सिंहल एवं कान्यकुब्ज विजय के उल्लेख मिलते हैं, जो राजेंद्र प्रथम के काल के प्रतीत होते हैं। चोलों तथा श्रीलंका के शासकों में 1029 ई. से ही संघर्ष चल रहा था। इसने विक्रमबाहु को पराजित कर उससे अपार संपत्ति अपहृत की। परवर्ती चोल अभिलेखों से ज्ञात होता है कि राजाधिराज ने सिंहल के राजा विक्रमबाहु का ताज उतार लिया, विक्रमपांड्य जो सिंहल में चोलों के भय से शरणार्थी था, राजाधिराज से भयभीत होकर संपूर्ण दक्षिणी तमिल प्रदेश छोड़कर ईलम में घुस गया। कन्नौज का राजा वीर सलामेघन, जो सिंहल में ठहरा हुआ था, युद्धभूमि में अपना काला हाथी और राजमुकुट छोड़कर भाग गया। इसके बाद ईलम के श्रीकृष्ण (श्रीकन्नर) वंशीय वल्लवन (श्रीवल्लभ मदनराज) को पराजित किया, जो ईलम का शासक था।

महावंश के अनुसार 1017 ई. में चोल राजेंद्र प्रथम ने ईलमंडलम् पर अधिकार कर लिया था। किंतु महेंद्र पंचम के पुत्र कस्सप (विक्रमबाहु) ने रोहण में बारह वर्ष तक शासन किया और सिंहल को चोलों से मुक्त कराने के लिए सदैव प्रयत्न करता रहा। 1029 ई. के लगभग राजेंद्र प्रथम के काल में रोहण में कस्सप (विक्रमबाहु) पराजित हुआ, किंतु इसमें राजाधिराज ने भाग लिया था अथवा नहीं, यह निश्चित नहीं है। चोल लेखों के अनुसार विक्रमबाहु चोलों से संघर्ष करता हुआ मारा गया, जबकि महावंश के अनुसार उसकी मृत्यु 1041 ई. के लगभग किसी बीमारी के कारण हुई थी।

विक्रमबाहु के बाद चोल और श्रीलंका में संघर्ष तीव्र हो गया। कित्ति के आठ दिन के शासन की अवहेलना करके शासक बनने वाला महालानकित्ति 1044 ई. में चोलों के साथ युद्ध में पराजित होकर अपना गला काटकर मर गया। महावंश के अनुसार इसके बाद विक्रमपांडय एवं जगतीपाल ने सिंहल पर शासन किया। विक्रमपांडय सिंहली पिता एवं पांड्य माता का पुत्र था। संभवतः इसीलिए वह सिंहल में निवास करता था। जगतीपाल को अयोध्या का निवासी बताया गया है। इसने विक्रमपांड्य का वध कर श्रीलंका की गद्दी पर अधिकार कर लिया। किंतु चोलों ने इसका वध कर इसकी पत्नी तथा पुत्री के साथ समस्त संपत्ति चोल राज्य में भेज दिया। इस प्रकार राजाधिराज को श्रीलंका के विरुद्ध निर्णायक रूप से सफलता मिली और श्रीलंका पर उसका अधिकार हो गया। चोल अभिलेखों एवं महावंश के विवरण से लगता है कि महेंद्र पंचम के बाद सिंहल में अनेक बाह्य शासकों ने शरण लिया और सिंहल पर शासन करने का प्रयास भी किया था। सिंहल से राजाधिराज के अनेक सिक्के मिले हैं।

किंतु चोलों का श्रीलंका पर प्रभुत्व बहुत समय तक नहीं रह सका। 1058 ई. में कित्ति विजयबाहु ने सिंहल को स्वतंत्र कराने के लिए संघर्ष छेड़ दिया। अंततः 1070 ई. में विजयबाहु को श्रीलंका को चोल प्रभाव से मुक्त कराने में सफलता मिल गई।

कल्याणी के पश्चिमी चालुक्यों से संघर्ष

राजाधिराज ने 1044 एवं 1046 ई. के मध्य पश्चिमी चालुक्यों के विरुद्ध अभियान किया। इस समय कल्याणी में चालुक्य शासक सोमेश्वर का शासन था। मणिमंगलै लेख (1046 ई.) के अनुसार चोल शासक राजाधिराज ने छोटे-छोटे चालुक्य सामंतों को पराजित किया और कम्पिलि नगर के राजप्रासाद को ध्वस्त कर दिया। राजाधिराज के शासन के 13वें वर्ष तथा इसके बाद के अभिलेखों से ज्ञात होता है कम्पिलि के राजप्रासाद का विध्वंस करने के बाद पुंडूर (कडकानगर) के युद्ध में चोलों ने बड़ी संख्या में स्त्रियों, विच्चय के भाई, उसकी माता तथा पुत्र के साथ तेलगु सरदारों को बंदी बना लिया और पुंडूर नगर को भस्मीसात् कर उसके अंतिम अवशेष को मिटाने के लिए गदहों से हल चलवाकर वराटिकै की बुआई करवाया। अंत में मण्णंदिपै के चालुक्य राजप्रासाद को जलाकर चोलों ने वहाँ एक विजय-स्तंभ बनवाया और उस पर सिंह का चिन्ह अंकित कराया।

चोल अभिलेखों के अनुसार पुंडूर के युद्ध में पराजित होने के बाद सोमेश्वर ने राजाधिराज के पास संधि के लिए दूत भेजे। किंतु राजाधिराज ने उन्हें अपमानित कर और उनके गले में एक तख्ती जिस पर लिखा था, ‘आहवमल्ल भयभीत होकर भाग गया’ लिखा था, टंगवा कर वापस कर दिया।

चोल अपनी हाथियों के साथ आगे बढ़ते गये तथा उन्हें शिरुतरै, पेरुवरै एवं देवभीमकशी नामक तीन घाटों का पानी पिलाया। इसने शत्रु के चिन्ह से अंकित पहाड़ियों (येत्तगिरि) में व्याघ्रयुक्त स्तंभ स्थापित किया। संघर्ष चलता रहा और कालिदास, नुलंब, चामुंड, कोम्मय तथा वल्लवराज जैसे चालुक्य सेनापति पराजित हुए। गुर्जरराज का सिर काट लिया गया और अधीनता मानने वाले छोड़ दिये गये। अंततः निराश होकर आहवमल्ल ने पुनः संधि प्रस्ताव लेकर अपने सेनापति पेरुडै को दो दूतों के साथ राजाधिराज के पास भेजा। किंतु इस बार भी चोल शासक ने इनके साथ अपमानपूर्ण व्यवहार किया।

इसके बाद चोलों ने चालुक्य राजधानी कल्याणी पर आक्रमण कर उसे बुरी तरह लूटा-पाटा और शाही महल को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। चोल राजाधिराज ने उसी नगर में अपना वीराभिषेक कराया और ‘विजयराजेंद्र’ की उपाधि धारण की। चोल सम्राट ने कल्याणी से एक द्वारपाल की मूर्ति लाकर तंजोर के दारासुरम् मंदिर के प्रवेश द्वार पर स्थापित किया। इन द्वारपालों की मूर्ति के नीचे लिखा है : उडैयार श्रीविजयराजेंद्रदेव के द्वारा कल्याणपुर को भस्म करने के बाद लाये गये द्वारपाल (स्वस्ति श्री उदैयार श्रीविजयराजेंद्रदेवर कल्याणपुरम् एरितु कोडुबंद तुवार पालकर)।

किंतु सोमेश्वर के लेखों में चोलों की इस सफलता का कोई उल्लेख नहीं मिलता है। इसके विपरीत विल्हण के विवरण से पता चलता है कि सोमेश्वर ने काँची तक विजय प्राप्त किया था। वस्तुतः चोल सोमेश्वर के विरुद्ध चाहे जितनी सफलता का दावा करें, सोमेश्वर के लेखों से स्पष्ट है कि तुंगभद्रा तक चालुक्यों का प्रभाव अभी भी बना हुआ था। 1047 ई. का एक लेख बेल्लारी से मिला है, जिसमें कालिदास सरदार द्वारा दिये गये दान का उल्लेख है। यह सरदार चोल शासक द्वारा पराजित सरदारों में भी सम्मिलित है। इस क्षेत्र से 1048 ई. के दो लेख मिले हैं, जिसके अनुसार सोमेश्वर का एक सरदार महामंडलेश्वर गंडरादित्य सिंदवाडि, बेन्नेपुर और नुरुगंड का शासक था। 1053 ई. के एक अभिलेख में इसके पुत्र सोमेश्वरदेव को ‘वेंगिपुरवरेश्वर’ की उपाधि दी गई है, जो बेलवोला तथा पुलिगिरे का शासक था। सोमेश्वर का 1055 ई. का एक लेख द्रक्षाराम से भी मिला है।

राजेंद्र चोल द्वितीय के शासन के दूसरे वर्ष अर्थात् 1054 ई. के एक लेख से पता चलता है कि राजाधिराज के शासन के अंतिम वर्षों में चोल-चालुक्य पुनः आरंभ हो गया। मणिमंगलै लेख (1055 ई.) के अनुसार राजाधिराज ने रट्टमंडल पर आक्रमण कर इसे तहस-नहस कर दिया। इस अभियान में इसका भाई राजेंद्र भी इसके साथ था। महानदी के तट पर कोप्पम् में सोमेश्वर ने चोल सेना का सामना किया। इस युद्ध में चालुक्य सैनिकों ने चोल राजाधिराज को मार डाला, जिससे चोल सेना में भगदड़ मच गई।

किंतु राजेंद्र चोल द्वितीय ने स्थिति को सँभाल लिया और अनेक चालुक्य सेनापतियों का वध करके युद्ध में सफलता प्राप्त की। लेख के अनुसार हाथी पर सवार होकर यमराज की भाँति उसने भयंकर युद्ध किया और चालुक्य सेनाओं को पराजित कर पीछे खदेड़ दिया। राजेंद्र ने चालुक्यों के घोड़ों, ऊँटों, हाथियों, राजकीय चिन्हों आदि पर अधिकार कर लिया और युद्धभूमि में ही अपना राज्याभिषेक कराया। कुछ लेखों के अनुसार वह कोल्हापुर तक गया और वहाँ जय-स्तंभ निर्मित स्थापित करवा कर गंगापुरी वापस आया।

यद्यपि सोमेश्वर के लेखों में कोप्पम् युद्ध की कोई चर्चा नहीं मिलती है, किंतु 1071 ई. के दो परवर्ती चालुक्य लेखों में राजाधिराज की मृत्यु एवं चोल अभियान का उल्लेख मिलता है। संभवतः राजाधिराज और राजेंद्र द्वितीय का चालुक्यों के विरुद्ध यह अभियान घावा मात्र ही सिद्ध हुआ, क्योंकि इस संघर्ष के बाद भी सोमेश्वर शासन करता रहा। राजाधिराज को उसके उत्तराधिकारियों के लेखों में ‘आनैमेरुंजिन’ अर्थात् ‘हस्ति के पीठ पर दिवंगत’ की उपाधि प्रदान की गई है।

राजाधिराज चोल प्रथम का मूल्यांकन

राजाधिराज चोल प्रथम का संपूर्ण शासनकाल युद्धों में व्यतीत हुआ। यह अपने शासनकाल में श्रीलंका तथा चालुक्यों के साथ दीर्घकालिक संघर्ष में उलझा रहा और अंत में युद्धभूमि में ही वीरगति को प्राप्त हुआ। राजाधिराज के शासनकाल में चोल साम्राज्य तुंगभद्रा से लेकर सिंहल तक और केरल से लेकर गंगा तक फैला हुआ था। इसके चाँदी के सिक्कों का एक ढेर उत्तरी कनारा जिले के समुद्र तटवर्ती क्षेत्र से मिला है, जिसके आधार पर कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि राजाधिराज ने इस भू-भाग पर भी आक्रमण किया था। इसने अपनी उपलब्धियों के अनुरूप विजयराजेंद्र, वीरराजेंद्रवर्मन्, आहवमल्लकुलांतक, कल्याणपुरंगौंडशेल जैसी उपाधियाँ धारण की थी।

राजाधिराज एक योग्य प्रशासक था। इसने अपने चाचा, भाइयों तथा पुत्रों को महत्वपूर्ण प्रशासनिक पदों पर नियुक्त किया था। इसके सामंतों में दंडनायकन, शोलन कुमारन, परांतक मारायन, पिल्लैयार शोलवल्लभ, दंडनायक अप्पिमय्य, पिल्लैयार विष्णुवर्द्धन देव विशेष उल्लेखनीय हैं। राजाधिराज को एक अश्वमेध यज्ञ करने का भी श्रेय दिया गया है। इसकी एक रानी की उपाधि त्रैलोक्यम् उडैयार थी, जो इसकी मृत्यु के बाद भी जीवित थी। इसके कई पुत्र थे, जिन्हें इसने विभिन्न प्रशासनिक पदों पर नियुक्त किया गया था। किंतु इसने युवराज पद अपने पुत्रों को न देकर अपने भाई राजेंद्र को दिया था, जिसने चालुक्य अभियान में इसका साथ दिया था। इसकी मृत्यु लगभग 1054-55 ई. में चालुक्यों के साथ संघर्ष में हुई थी। इसके बाद राजेंद्र चोल द्वितीय ने शासन प्रारंभ किया।

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