पल्लव राजवंश का राजनीतिक इतिहास (Political History of the Pallava Dynasty, 275-897 AD)

पल्लव राजवंश, प्राचीन भारत का एक शक्तिशाली और गौरवशाली राजवंश, जिसने दक्षिण भारत में काँची […]

पल्लव राजवंश का राजनीतिक इतिहास (Political History of the Pallava Dynasty, 275-897 AD)

पल्लव राजवंश, प्राचीन भारत का एक शक्तिशाली और गौरवशाली राजवंश, जिसने दक्षिण भारत में काँची को अपनी राजधानी बनाकर लगभग छह सौ वषों तक शासन किया। इस राजवंश ने कला, संस्कृति, साहित्य और धर्म के क्षेत्र में अभूतपूर्व योगदान दिया, विशेष रूप से पल्लव वास्तुकला के लिए विख्यात ममल्लपुरम के रथ मंदिर और काँची के कैलासनाथ मंदिर जैसे स्थापत्य कला के उत्कृष्ट नमूनों के निर्माण में। पल्लव शासकों ने न केवल शक्तिशाली प्रशासन स्थापित किया, बल्कि बौद्ध, जैन और हिंदू धर्म के संरक्षण के साथ-साथ संस्कृत और तमिल साहित्य को भी बढ़ावा दिया। चीनी यात्री ह्वेनसांग के विवरणों में पल्लवों की समृद्धि और उनके शासन की भव्यता का उल्लेख मिलता है। व्यापार, समुद्री शक्ति और सांस्कृतिक आदान-प्रदान में उनकी भूमिका ने दक्षिण-पूर्व एशिया तक भारतीय संस्कृति का प्रसार किया।

आंध्र-सातवाहनों के पतन के पश्चात् दक्षिण भारत में उदित होने वाले राजवंशों में पल्लवों का विशिष्ट स्थान है। पल्लवों ने कृष्णा और गोदावरी नदियों के बीच के क्षेत्र पर लगभग 600 वर्षों (275-897 ई.) तक शासन किया। मौर्य सम्राट अशोक के शिलालेखों में सुदूर दक्षिण के चोल, पांड्य तथा चेर राज्यों का उल्लेख मिलता है, किंतु पल्लवों का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है। कुछ विद्वान् अशोक के शिलालेखों में वर्णित ‘पलद’ या ‘पुलिंद’ को पल्लवों से जोड़ते हैं, यद्यपि यह समीकरण विवादास्पद है।

संगम युग के ग्रंथों, जैसे कलित्थोकै तथा तोल्काप्पियम में पल्लवों का उल्लेख मिलता है, परंतु इस काल में उनकी कोई स्पष्ट राजनीतिक पहचान नहीं थी। प्राचीन भूगोलवेत्ता टॉल्मी तथा पेरीप्लस ऑफ द एरिथ्रियन सी के विवरणों से ज्ञात होता है कि कोरोमंडल तट (पल्लव क्षेत्र) पर पल्लवों से पूर्व नागवंश का शासन था, जो सातवाहनों के विशाल साम्राज्य के दक्षिण-पूर्वी भाग के स्वामी थे। संभवतः अपने प्रारंभिक काल में पल्लव सातवाहनों के अधीन सामंत के रूप में शासन करते थे। कालांतर में, उन्होंने तोंडैमंडलम् को अपनी स्वतंत्र राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र बनाया तथा काँची (काँचीपुरम) में अपनी राजधानी स्थापित की।

पल्लव राज्य में मुख्य रूप से तमिलनाडु के चिंगलपुट तथा दक्षिणी अर्काट जिले, तंजावुर तथा तिरुचिरापल्ली जिलों के कुछ भाग तथा कर्नाटक का बेल्लारी शामिल थे। बादामी (वातापि) के चालुक्यों की भाँति पल्लव शासकों ने न केवल एक विस्तृत साम्राज्य का निर्माण किया, बल्कि साहित्य तथा कला को भी अभूतपूर्व संरक्षण प्रदान किया। उनके राजकीय चिह्न वृषभ तथा सिंह थे, जिनका अंकन उनके सिक्कों पर मिलता है। प्रारंभिक पल्लव शासकों ने सातवाहनों के अनुकरण में ताँबे के सिक्के जारी किए, जिनके पृष्ठ भाग पर मस्तूलयुक्त जहाज का चित्रण मिलता है, जो तत्कालीन समुद्री व्यापार का प्रमाण है।

Table of Contents

ऐतिहासिक स्रोत

साहित्यिक स्रोत

पल्लव राजवंश के इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए पर्याप्त साहित्यिक तथा पुरातात्त्विक सामग्री उपलब्ध है। साहित्यिक स्रोतों में संस्कृत ग्रंथ ‘अवंतिसुंदरकथासार’ तथा ‘मत्तविलासप्रहसन’ विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण हैं। अवंतिसुंदरकथासार महाकवि दंडी की रचना है, जिसमें पल्लव नरेश सिंहविष्णु तथा उसके समकालीन शासकों के साथ-साथ तत्कालीन राजनीतिक तथा सांस्कृतिक परिस्थितियों पर प्रकाश पड़ता है।

मत्तविलासप्रहसन संस्कृत साहित्य का प्राचीनतम प्रहसन है, जिसकी रचना पल्लव नरेश महेंद्रवर्मन प्रथम ने सातवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में की थी। अपनी लघुता के बावजूद यह प्रहसन अत्यंत रोचक है तथा तत्कालीन सामाजिक तथा धार्मिक स्थिति का महत्त्वपूर्ण स्रोत है। तमिल काव्य ‘नंदिकलंबकम’ में पल्लव शासक नंदिवर्मन तृतीय के जीवन-चरित्र तथा उपलब्धियों के साथ-साथ काँची की सांस्कृतिक समृद्धि का वर्णन मिलता है।

जैन तथा बौद्ध ग्रंथ

पल्लवों के इतिहास-निर्माण में जैन ग्रंथ ‘लोकविभाग’ तथा बौद्ध ग्रंथ ‘महावंश’ भी उपयोगी हैं। लोकविभाग में, जो मूलतः प्राकृत में जैनाचार्य भट्टारक सिंहसूरि (सिंहनंदि या सिंहकीर्ति) द्वारा रचित था, भूगोल तथा खगोलविद्या का वर्णन मिलता है। इस ग्रंथ से नरसिंहवर्मन के शासनकाल तक की जानकारी प्राप्त होती है। महावंश में, जिसकी रचना महानाम स्थविर ने पाँचवीं शताब्दी के अंत या छठी शताब्दी के प्रारंभ में की थी, मुख्य रूप से सिंहल (श्रीलंका) के इतिहास का निरूपण है, लेकिन यह पल्लवों के प्रारंभिक शासकों की तिथि-निर्धारण में भी सहायक है।

ह्वेनसांग का यात्रा-वृत्तांत

चीनी यात्री ह्वेनसांग ने 640-641 ई. में नरसिंहवर्मन प्रथम के शासनकाल के दौरान काँची की यात्रा की थी। उसने काँची के शासक को ‘महान राजा’ (ग्रेट किंग) बताया है तथा काँची की समृद्धि का वर्णन किया है। उसके अनुसार काँची का क्षेत्रफल लगभग 30 ली (लगभग 8 कि.मी.) था, भूमि उपजाऊ थी तथा बराबर जोती-बोई जाती थी। काँची में 100 से अधिक बौद्ध विहार थे, जिनमें स्थविर महायानी संप्रदाय के लगभग 13,000 साधु निवास करते थे। इसके अतिरिक्त, वहाँ 80 से अधिक जैन मंदिर थे। ह्वेनसांग ने कांची से 30 मीटर ऊँचे एक महाविहार का भी उल्लेख किया है, जहाँ प्रसिद्ध बौद्ध आचार्य धर्मपाल, जो काँची के प्रधानमंत्री का पुत्र था, निवास करता था।

पुरातात्त्विक स्रोत

पल्लवों के इतिहास के लिए पुरातात्त्विक स्रोत साहित्यिक स्रोतों की तुलना में अधिक विश्वसनीय हैं, जिनमें अभिलेख, सिक्के तथा स्थापत्य शामिल हैं।

अभिलेख

अभिलेख दक्षिण भारत के इतिहास, पल्लव साम्राज्य के विस्तार, कला तथा संस्कृति को समझने के लिए महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं, जो तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली, चेन्नई, वेल्लोर, काँचीपुरम, तंजावुर, अर्काट तथा चेरजल जैसे क्षेत्रों से प्राप्त हुए हैं। पल्लव अभिलेख मुख्य रूप से प्राकृत तथा संस्कृत में शिलाओं, ताम्रपट्टों तथा मुद्राओं पर अंकित हैं, जिनसे वंशावली, भूमि-दान, युद्ध-विजय, प्रशासन तथा धार्मिक सहिष्णुता की जानकारी मिलती है। प्राकृत अभिलेख तीसरी शताब्दी के मध्य से चौथी शताब्दी के मध्य तक के हैं, जबकि संस्कृत अभिलेख चौथी शताब्दी के मध्य से लेकर छठी शताब्दी के बीच के हैं।

प्राचीनतम प्राकृत अभिलेखों में शिवस्कंदवर्मन के मायिडवोलु ताम्रपट्ट लेख तथा हीरहडगल्ली लेख महत्त्वपूर्ण हैं। हीरहडगल्ली लेख शिवस्कंदवर्मन के शासनकाल के आठवें वर्ष का है, जिसमें उसे ‘अनेक यज्ञों का अनुष्ठानकर्ता’ बताया गया है।

इनके अलावा, वैलूरपाल्यम ताम्रपट्ट (तिरुचिरापल्ली, तमिलनाडु), सक्रेपट्टन ताम्रलेख (सक्रेपटन, कर्नाटक), कशाक्कुडि अभिलेख (तंजावुर), नरसिंहनल्लूर अभिलेख (अर्काट), चेर्जला अभिलेख (चेरजल, तमिलनाडु), पेरियकोलप्पाडि अभिलेख (तिरुचिरापल्ली), रेयूर अभिलेख (वेल्लोर), कूरम अभिलेख (कुरम, चेन्नई), कैलाश मंदिर अभिलेख (काँचीपुरम), चेंगम तालुका (तिरुवन्नामलाई) से प्राप्त नरसिंहवर्मन द्वितीय के छह अभिलेख, कोरागुड़ी (कोरागुड़ी, तमिलनाडु), बाहूर अभिलेख, नंदिवर्मन द्वितीय का महाबलिपुरम लेख, कोरागुड़ी, बाहूर तथा अपराजित के तोंडैमंडलम् लेख प्रमुख हैं। इन ताम्रपट्टों तथा अभिलेखों से पल्लव वंश की उत्पत्ति, ब्रह्मा से लेकर सिंहविष्णुवर्मन तक की वंशावली, भूमि-दान प्रथा, कर-मुक्त अनुदान, मंदिर निर्माण, कला तथा चालुक्यों और चोलों से होने वाले संघर्षों की सूचना मिलती है। सिंहविष्णुवर्मन का पल्लांकोयिल ताम्रपट्ट (छठी शताब्दी) पहला द्विभाषी अभिलेख है, जिसमें न केवल वंशावली तथा दान परंपरा का, बल्कि कर प्रणाली, शिक्षा तथा अर्थव्यवस्था का भी विवरण है।

पल्लव अभिलेखों के अतिरिक्त, समकालीन चालुक्य, राष्ट्रकूट, चोल, पश्चिमी गंग तथा पांड्य के अभिलेखों से भी पल्लव इतिहास पर प्रकाश पड़ता है। चालुक्य विक्रमादित्य प्रथम (655-681 ई.) का गदवाल (तेलंगाना) लेख, राष्ट्रकूट गोविंद तृतीय (793-814 ई.) का तुंगभद्रा दानपत्र, बाण शासक पृथ्वीपति द्वितीय (लगभग 850-900 ई.) का उदयेंद्रम दानपत्र, राजेंद्र चोल प्रथम (1012-1044 ई.) का तिरुवालंगाडु दानपत्र तथा बादामी के अंतिम चालुक्य शासक कीर्तिवर्मा द्वितीय (746-753 ई.) का केंदूर दानपत्र विशेष रूप से उपयोगी हैं।

सिक्के

सिक्के प्राचीन भारतीय इतिहास के निर्माण में महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। पल्लव वंश के सिक्के मुख्यतः आंध्र प्रदेश के गुर्जाला तथा येलेस्वरम जैसे पुरातात्त्विक स्थलों से प्राप्त हुए हैं। इनके अलावा महाबलीपुरम (तमिलनाडु), काँचीपुरम, कोरोमंडल तट क्षेत्र तथा दक्षिण भारत के अन्य हिस्सों में भी पल्लव सिक्के मिले हैं। गुर्जाला से विशेष रूप से सातवाहनों की शैली में निर्मित ताँबे के पल्लव सिक्के बरामद हुए हैं, जिन पर बैल, सिंह तथा मस्तूलयुक्त जहाज जैसे प्रतीक अंकित हैं। सिक्कों पर दो मस्तूलों वाली जहाज की आकृति पल्लवों की समुद्री शक्ति तथा कोरोमंडल तट से होने वाले अंतरराष्ट्रीय व्यापार का प्रमाण है। इस प्रकार सिक्के दक्षिण भारत की अर्थव्यवस्था, व्यापारिक समृद्धि तथा पल्लवों की समुद्री शक्ति के सूचक हैं।

स्थापत्य

पल्लवकालीन स्थापत्य दक्षिण भारतीय कला, संस्कृति, धर्म और सामाजिक-आर्थिक संरचना को समझने का महत्त्वपूर्ण स्रोत है, जो मुख्य रूप से तमिलनाडु के काँचीपुरम और महाबलीपुरम में केंद्रित हैं। इससे न केवल पल्लवों की शिल्पकला और तकनीकी कौशल की जानकारी मिलती है, बल्कि उनकी धार्मिक सहिष्णुता, राजकीय संरक्षण और सामाजिक संगठन पर भी प्रकाश पड़ता है।

पल्लव स्थापत्य दक्षिण भारतीय मंदिर वास्तुकला के प्रारंभिक विकास का सूचक है, विशेष रूप से द्राविड़ शैली का, जिसे बाद में चोल, पांड्य और विजयनगर साम्राज्यों ने अपनाया। नरसिंहवर्मन प्रथम (मामल्ल) द्वारा सातवीं शताब्दी में निर्मित महाबलीपुरम के एकाश्म रथ मंदिर (पंच रथ) पल्लव काल की प्रारंभिक शिल्पकला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। नरसिंहवर्मन द्वितीय (राजसिंह) द्वारा आठवीं शताब्दी में निर्मित काँचीपुरम का कैलाशनाथ मंदिर द्राविड़ शैली का प्रथम पूर्ण विकसित उदाहरण है। महाबलीपुरम का शोर मंदिर, जो तटीय क्षेत्र में स्थित है, समुद्री व्यापार और पल्लवों की नौसैनिक शक्ति का प्रतीक है। इसकी दो-शिखर वाली संरचना और जटिल नक्काशी द्राविड़ शैली के विकास का सूचक हैं।

इस प्रकार पल्लवकालीन स्थापत्य संरचनाएँ दक्षिण भारतीय मंदिर वास्तुकला के विकास, शिल्प तकनीकों, धार्मिक समन्वय, पल्लवों की आर्थिक समृद्धि और समुद्री व्यापार को समझने में सहायता करती हैं।

पल्लवों की उत्पत्ति

पल्लवों की उत्पत्ति और मूल स्थान के संबंध में इतिहासकारों में मतभेद है, क्योंकि पल्लव अभिलेखों में उनकी उत्पत्ति या मूलनिवास का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है। अभिलेखों में पल्लवों को ‘भारद्वाज गोत्रोत्पन्न’ और ‘अश्वत्थामा का वंशज’ बताया गया है। इतिहासकारों का एक वर्ग जहाँ पल्लवों को विदेशी बताता है, वहीं दूसरा वर्ग उन्हें भारतीय मूल का मानता है।

विदेशी उत्पत्ति का सिद्धांत

पल्लवों को विदेशी मानने वाले इतिहासकार दो समूहों में विभक्त हैं- एक वर्ग के अनुसार पल्लव तमिल देश की जनजाति हैं अथवा श्रीलंका के निवासी हैं, जबकि दूसरा वर्ग उन्हें फारस या पार्थिया का निवासी मानता है।

तमिल या श्रीलंकाई मूल

सी.आर. मुदालियर के अनुसार संगम युग के तमिल काव्य मणिमेकलै के आधार पर पल्लव श्रीलंका के दक्षिणी भाग में निवास करने वाले तमिल थे, जो चोल और नागवंश से संबंधित थे। उनके अनुसार तोंडैमंडलम् के चोल शासक किल्लिवन (नेडुमुडि किल्ली) ने श्रीलंका के मणिपल्लव नरेश की नागवंशीय कन्या से विवाह किया, जिससे तोंडैमान इलंतिरैयन नामक पुत्र हुआ। इलंतिरैयन ने दूसरी शताब्दी के उत्तरार्ध में तोंडैमंडलम् पर शासन किया और काँची को अपनी राजधानी बनाया। उसके वंशज माता के जन्म-स्थान ‘मणिपल्लव’ के नाम से प्रसिद्ध हुए, जो कालांतर में ‘पल्लव’ कहलाए। इस प्रकार पल्लवों में पितृपक्ष की ओर से उरैयूर के चोलवंश का और मातृपक्ष की ओर से श्रीलंका के नागवंश के रक्त का मिश्रण था।

वी.ए. स्मिथ ने प्रारंभ में पल्लवों को तमिल जनजाति बताया था, जो नागवंश से संबंधित थी, लेकिन बाद में उन्होंने पल्लवों को श्रीलंका का मूल निवासी बताया। उनके अनुसार पल्लव मूलतः श्रीलंका के निवासी थे। कालांतर में, उन्होंने अपनी शक्ति बढ़ाकर सुदूर दक्षिण के चोलों, चेरों को विजित कर काँची पर अधिकार कर लिया। इसी प्रकार एम.एस. रामस्वामी आयंगर भी पल्लवों को तमिल या श्रीलंकाई मूल का मानते हैं, जिनका प्रारंभिक नाम ‘तिरैयर’ था।

पल्लवों के श्रीलंका के मूलनिवासी होने और काँची को अपनी शक्ति का केंद्र बनाने के दावों का समर्थन किसी ठोस पुरातात्त्विक या साहित्यिक साक्ष्य से नहीं होता है। पल्लव शासकों की वंशावली में इलंतिरैयन नामक किसी आदिपूर्वज का नाम नहीं मिलता है। इसी प्रकार पल्लवों में विदेशी तथा भारतीय जनजातियों के रक्त-मिश्रण का भी कोई ठोस प्रमाण नहीं है। मणिमेकलै में इलंतिरैयन को तमिल कवि और साहित्य संरक्षक बताया गया है, जबकि प्रारंभिक पल्लव शासक प्राकृत भाषा के संरक्षक थे।

पार्थियन मूल

बी.एल. राइस, डुब्रील, वी. वेंकय्या, स्वामीनाथ अय्यर और सी.आर. श्रीनिवासन जैसे इतिहासकार पल्लवों को पार्थिया (फारस) के पह्लवों से सबंधित मानते हैं। उनका प्रमुख आधार ‘पल्लव’ और ‘पह्लव’ शब्दों की ध्वनिगत समानता है। उनके अनुसार पहली शताब्दी में शक, यवन और पह्लव जैसी विदेशी जातियाँ भारत में आईं और सिंधु घाटी तथा पश्चिमी भारत में बस गईं। बाद में, सातवाहनों की शक्ति क्षीण होने पर पल्लवों ने तोंडैमंडलम् पर अधिकार कर लिया और सांस्कृतिक परंपराओं को आत्मसात् कर लिया।

डुब्रील का विचार है कि शक शासक रुद्रदामन प्रथम के 150 ईस्वी के जूनागढ़ अभिलेख में वर्णित पह्लव गवर्नर सुविशाख ने ही काँची के सुप्रसिद्ध पल्लव राजवंश की स्थापना की थी। इस सिद्धांत का समर्थन काँची के बैकुंठपेरुमाल मंदिर में नंदिवर्मन द्वितीय के शीर्ष पर इंडो-ग्रीक शासक डेमेट्रियस जैसे गजशीर्ष मुकुट के चित्रण से भी होता है।

स्वामीनाथ अय्यर के अनुसार पल्लवों का प्रारंभिक नाम ‘तिरैयर’ था, जो फारसी शब्द ‘द्रय’ या ‘दरिया’ (नाविक) से निष्पन्न है, जिसका अर्थ ‘नाविक’ है। इसी प्रकार फादर हेरास का सुझाव है कि पल्लवों के सिक्कों के पृष्ठभाग पर उत्कीर्ण सूर्य और चंद्र की आकृतियाँ फारस के पार्थियन राजाओं के सिक्कों से ली गई लगती हैं। बी.वी. कृष्णराव के अनुसार पल्लव पहले आनर्त तथा कोंकण में बसे और वहीं से वे कुंतल या बनवासी होते हुए दक्षिणापथ में गए।

मात्र ध्वनिगत समानता के आधार पर पल्लवों को पह्लवों से जोड़ना उचित नहीं है। पल्लव अभिलेखों या समकालीन स्रोतों में ‘पह्लव’ शब्द का उल्लेख नहीं है। सुविशाख का पल्लव वंश से कोई संबंध नहीं है, क्योंकि वंशावली में उसका उल्लेख नहीं है। राजशेखर ने काव्यमीमांसा में पल्लवों और पह्लवों को दो अलग-अलग जनजाति बताते हुए पह्लवों को उत्तरापथ में और पल्लवों को माहिष्मती से आगे दक्षिणापथ का निवासी बताया है। नंदिवर्मन के मुकुट की डेमेट्रियस से समानता उत्पत्ति का प्रमाण नहीं माना जा सकता है। पल्लवों को ‘अश्वमेधयाजिन’ कहा गया है, जबकि शक या पह्लवों के अश्वमेध यज्ञ करने के प्रमाण नहीं हैं। फादर हेरास का यह कहना कि पल्लवों का प्रारंभिक नाम तिरैयर था और तिरैयर फारसी शब्द द्रय, दरय या दरिया से निष्पन्न है, कल्पनामात्र है।

भारतीय उत्पत्ति विषयक सिद्धांत

काशीप्रसाद जायसवाल, एस.के. आयंगर, आर. गोपालन, दिनेशचंद्र सरकार, के.ए. नीलकंठ शास्त्री और टी.वी. महालिंगम जैसे इतिहासकारों का एक बड़ा वर्ग पल्लवों को विदेशी न मानकर उन्हें भारतीय मूल से संबद्ध मानता है, यद्यपि इन इतिहासकारों ने पल्लवों का संबंध अलग-अलग कुलों से सिद्ध करने का प्रयास किया है।

वाकाटक और नाग संबंध

काशीप्रसाद जायसवाल के अनुसार के.पी. जायसवाल के अनुसार पल्लव वाकाटकों की ही एक शाखा थे, क्योंकि पल्लव और वाकाटक दोनों भारशिव नागों से संबंधित थे। जायसवाल के अनुसार पल्लव वंश के प्रथम शासक का नाम या उपाधि ‘वीरकूर्च’ थी। वीरकूर्च ने एक नाग राजकुमारी के साथ विवाह कर आंध्र क्षेत्र में अपनी सत्ता स्थापित की थी। वैलूरपाल्यम अभिलेख से भी पता चलता है कि वीरकूर्च के पूर्वज नागों के मित्र थे और उनसे संबद्ध थे।

लेकिन पल्लव और वाकाटक अभिलेखों में समान गोत्र या वंशावली का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है। वाकाटक विष्णुवृद्धि गोत्र के ब्राह्मण थे, जबकि पल्लव भारद्वाज गोत्र के बताए गए हैं।

तमिल मूल का सिद्धांत

एस.के. आयंगर, आर.आर. आयंगर, आर. मुदालियर और एन. सुब्रमण्यम ‘मणिमेकलै’ के आधार पर पल्लवों को तमिल राज्य का मूलनिवासी मानते हैं। उनके अनुसार ‘पल्लव’ शब्द ‘तोंडैयर’ या ‘तोंडमान’ का पर्याय है। आंध्र राज्य पल्लवों का आदि देश था, क्योंकि पल्लवों के प्राचीनतम अभिलेख आंध्र प्रदेश से ही मिले हैं। एस.के. आयंगर के अनुसार पल्लव सातवाहनों के सामंत थे और उनके पतन के बाद उन्होंने एक नवीन राजवंश की स्थापना की। एन. सुब्रमण्यम भी पल्लवों को भारतीय मानते हुए नागों एवं चोलों से संबंधित करते हैं।

दिनेशचंद्र सरकार और आर. सथियनथायर पल्लवों को तोंडैमंडलम् का निवासी मानते हैं, जिनका उल्लेख अशोक के शिलालेखों में ‘पलद’ या ‘पुलिंद’ के रूप में है। उनके अनुसार तोंडैयर ‘पल्लव’ का तमिल रूपांतर है। संभवतः पलद या पुलिंद तोंडैमंडलम की कुरुम्ब जनजाति से संबंधित थे। लेकिन पलद या पुलिंद को पल्लवों से जोड़ने का कोई ठोस प्रमाण नहीं है।

पाल-अविल सिद्धांत

ब्रिटिश पुरातत्त्वविद् और तमिल शिलालेखों के विशेषज्ञ अलेक्जेंडर रे के अनुसार तमिल भाषा में ‘पाल’ का अर्थ ‘दूध’ और ‘अविल’ का अर्थ ‘दुहना’ होता है। उनके अनुसार तमिल शब्द ‘पालअविल’ से ‘पल्लव’ बना है, जो गोपालन करने वाली जनजाति का सूचक है। कालांतर में इस जनजाति ने शक्ति बढ़ाकर अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित किया। उन्होंने अपनी प्रारंभिक स्थिति की स्मृति में अपने वंश का नाम ‘पालवन’ रखा, जो बाद में पल्लव हो गया। रिजले के अनुसार बंगाल में पल्लव नामक ग्वालों की एक उपजाति है। लेकिन यह सिद्धांत भाषिक व्युत्पत्ति पर आधारित है और इसका कोई पुरातात्त्विक प्रमाण नहीं हैं।

उत्तर भारतीय मूल का सिद्धांत

के. ए. नीलकंठ शास्त्री के अनुसार पल्लव कदंब और चुटु राजवंशों की तरह उत्तर भारत के मूल निवासी थे, जो दक्षिण में जाकर बस गए और बाद में उन्होंने वहाँ की संस्कृति और परंपराओं को अपना लिया। टी.वी. महालिंगम पल्लवों को वेंगी के शालंकायनों से संबंधित करते हैं, क्योंकि क्योंकि दक्षिण भारत के राजवंशों में पल्लवों के अतिरिक्त केवल शालंकायनों का ही गोत्र भारद्वाज था। इन दोनों राजवंशों में स्कंदवर्मन, बुद्धवर्मन तथा नंदिवर्मन नाम के शासक हुए। दोनों का ध्वज-चिह्न वृषभ था और दोनों राजवंशों के अभिलेखों में एक ही लिपि (वेंगी लिपि) का प्रयोग किया गया है। इसके साथ ही, दोनों के प्रारंभिक अभिलेख प्राकृत में और बाद वाले लेख संस्कृत भाषा में हैं।

पल्लव न तो भारशिव नागों से संबंधित थे और न वाकाटकों अथवा शालंकायनों से। वाकाटक विष्णुवृद्धि गोत्र के ब्राह्मण थे, जबकि पल्लवों को भारद्वाज गोत्रीय बताया गया है। कूर्च या वीरकूर्च को पल्लव वंश का संस्थापक नहीं माना जा सकता, क्योंकि पल्लव अभिलेखों में कहीं इसका नामोल्लेख नहीं है। पल्लवों का उदय वाकाटकों के बाद नहीं, प्रायः उनके साथ ही हुआ था।

पल्लव शब्द को पाल-अविल का विकृत रूप मानना और गोपालन से संबंद्ध करना भी एक कल्पनामात्र है। पल्लवों को तोंडैमंडलम् के कुरुम्बों अथवा अशोक के अभिलेखों में वर्णित पुलद या पुलिंदों से संबंधित होने का भी कोई निश्चित प्रमाण नहीं है। यह मत भी स्वीकार करना कठिन है कि पल्लव उत्तर भारत के मूलनिवासी थे क्योंकि पल्लवों का उत्तर भारत से दक्षिण में प्रवास का कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है। शालंकायनों से समानता सांस्कृतिक प्रभाव के कारण या आकस्मिक भी हो सकती है।

इस प्रकार पल्लवों की उत्पत्ति के संबंध में कोई निश्चित मत नहीं है। संभवतः पल्लव दक्षिण भारत के मूल निवासी थे, जो सातवाहनों के अधीन सामंत के रूप में शासन करते थे। सातवाहनों के पतन के बाद, उन्होंने तोंडैमंडलम् में अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित किया और काँची को अपनी राजधानी बनाया। सातवाहन सत्ता से संबद्ध होने और उन्हीं के साम्राज्य के अवशेषों पर अपनी शक्ति प्रतिष्ठित करने के कारण प्रारंभ में उन्होंने सातवाहनों की प्राकृत भाषा और शासन पद्धति को अपनाया।

पल्लव अभिलेखों में उन्हें भारद्वाज गोत्र का ब्राह्मण और अश्वत्थामा का वंशज बताया गया है, लेकिन कदंब शासक शांतिवर्मन के तालगुंड स्तंभलेख में उन्हें क्षत्रिय कहा गया है। पल्लव शासकों के नामांत में प्रयुक्त ‘वर्मन’ शब्द से भी लगता है कि वे क्षत्रिय थे। उनके प्रारंभिक अभिलेख कृष्णा और गोदावरी नदियों के बीच के क्षेत्रों से प्राप्त हुए हैं, जो उनके सातवाहन क्षेत्र पर प्रारंभिक अधिकार के प्रमाण हैं। बाद में, उन्होंने दक्षिण की ओर बढ़कर तमिल क्षेत्र को जीतकर अपनी सत्ता का विस्तार किया।

पल्लव राजवंश का प्रारंभिक इतिहास

पल्लव वंश की प्रारंभिक अवधि (लगभग तीसरी से छठी शताब्दी ई.) में कई शासक हुए, जिनकी वंशावली मुख्यतः अभिलेखों और ताम्रपट्टों से ज्ञात होती है। भाषा के आधार पर पल्लव अभिलेखों को दो वर्गों में विभाजित किया गया है- प्राकृत भाषा के अभिलेख (लगभग 250-350 ई.) और संस्कृत भाषा के अभिलेख (लगभग 350-575 ई.)। इन अभिलेखों में वर्णित कुछ पल्लव शासक केवल युवराज रहे और संभवतः उन्होंने स्वतंत्र रूप से शासन नहीं किया। पल्लव अभिलेखों में शासकों के शासनकाल के वर्षों का उल्लेख है, लेकिन किसी संवत् का प्रयोग नहीं हुआ है। इसलिए प्रारंभिक पल्लव शासकों का तिथिक्रम मुख्यतः अभिलेखों में प्रयुक्त भाषा और लिपि के आधार पर निर्धारित किया जाता है।

पल्लव राजवंश का राजनीतिक इतिहास (Political History of the Pallava Dynasty, 275-897 AD)
पल्लव राजवंश का राजनीतिक इतिहास

प्रारंभिक पल्लव शासक

प्रारंभिक पल्लव शासकों का कालक्रम विवादास्पद है। सामान्यतः 275 ई. से 460 ई. तक के पल्लव शासकों को प्रारंभिक चरण का माना जाता है।

प्राकृत भाषा के ताम्रपट्ट वाले प्रारंभिक शासक (275-375 ई.)

सिंहवर्मन प्रथम (लगभग 275-300 ई.)

प्राकृत भाषा के ताम्रपट्टों से पता चलता है कि पल्लव वंश का प्रथम शासक सिंहवर्मन प्रथम था, जिसने तृतीय शताब्दी ईस्वी के अंतिम चरण में आंध्र क्षेत्र में पल्लव सत्ता की नींव रखी। उसका गुंटुर अभिलेख तीसरी शताब्दी के अंत का है।

शिवस्कंदवर्मन (लगभग 300-325 ई.)

सिंहवर्मन प्रथम का उत्तराधिकारी शिवस्कंदवर्मन चतुर्थ शताब्दी ईस्वी के प्रारंभ में शासक हुआ, जो प्रारंभिक पल्लव शासकों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और शक्तिशाली था। उसके अभिलेख मायिडवोलु (आंध्र प्रदेश) और हीरहडगल्ली (कर्नाटक) से प्राप्त हुए हैं।

मायिडवोलु अनुदानपत्र में उसके पिता को ‘बप्पदेव’ कहा गया है, जो संभवतः पिता का सम्मानसूचक संबोधन है। अभिलेख के अनुसार शिवस्कंदवर्मन अपने पिता के शासनकाल में धान्यकटक में वायसरॉय था। उसे महाराज और भारद्वाज गोत्रीय ब्राह्मण बताया गया है। हीरहडगल्ली अभिलेख में, जो उसके शासन के आठवें वर्ष में काँची से जारी किया गया, उसकी उपाधि ‘धर्ममहाराज’ है और उसे अश्वमेध, वाजपेय तथा अग्निष्टोम जैसे यज्ञों का अनुष्ठानकर्ता बताया गया है। उसके राज्य में कृष्णा और तुंगभद्रा नदियों की घाटी, कुंतल और संभवतः दक्षिणी मैसूर का गंग क्षेत्र शामिल था। इस काल में मैसूर के गंग और बनवासी के कदंब पल्लवों के अधीन थे। संभवतः पल्लवों ने कृष्णा और गुंटूर क्षेत्र इक्ष्वाकुओं से छीना था।

विजयस्कंदवर्मन (लगभग 325-340 ई.)

शिवस्कंदवर्मन का उत्तराधिकारी विजयस्कंदवर्मन हुआ। कुछ स्रोतों में उसे आंध्र के बेल्लारी क्षेत्र का गवर्नर बताया गया है। कुछ इतिहासकार इसे स्कंदवर्मन प्रथम का दूसरा नाम मानते हैं, लेकिन हीरहडगल्ली अभिलेख में उसका नाम विजयस्कंदवर्मन है।

स्कंदवर्मन प्रथम (लगभग 340-350 ई.)

प्राकृत अभिलेखों के अनुसार विजयस्कंदवर्मन का उत्तराधिकारी स्कंदवर्मन हुआ। उसके शासनकाल का एकमात्र अभिलेख गुंटूर से प्राप्त हुआ है, जो ब्रिटिश म्यूजियम में है। इसमें युवराज बुद्धवर्मन की पत्नी चारूदेवी द्वारा दिए गए दान का उल्लेख है, जिसमें बुद्धयांकुर की भी चर्चा है, जो संभवतः बुद्धवर्मन का पुत्र था। बुद्धवर्मन और स्कंदवर्मन का आपसी संबंध स्पष्ट नहीं है। कुछ इतिहासकार मायिडवोलु, हीरहडगल्ली और ब्रिटिश म्यूजियम अभिलेखों के शिवस्कंदवर्मन, विजयस्कंदवर्मन और स्कंदवर्मन को एक ही मानते हैं।

विष्णुगोप (लगभग 350-355 ई.)

स्कंदवर्मन प्रथम के बाद विष्णुगोप शासक हुआ। यह काँची का पहला पल्लव शासक है, जिसका नाम प्राकृत और संस्कृत दोनों अभिलेखों में मिलता है। समुद्रगुप्त की प्रयाग-प्रशस्ति में उसे ‘कांचेयविष्णुगोप’ कहा गया है। प्रयाग प्रशस्ति के अनुसार समुद्रगुप्त ने अपने दक्षिणापथ अभियान के दौरान विष्णुगोप को पराजित किया। डुब्रील जैसे कुछ विद्वानों का मानना है कि विष्णुगोप के नेतृत्व में दक्षिण भारतीय राजाओं के संघ ने समुद्रगुप्त को पराजित किया, किंतु यह मत निराधार है, क्योंकि प्रयाग-प्रशस्ति में विष्णुगोप की पराजय का स्पष्ट उल्लेख है और किसी स्रोत में दक्षिण के शासकों द्वारा समुद्रगुप्त को पराजित करने का कोई संकेत नहीं है। समुद्रगुप्त का समकालीन होने से उसका शासनकाल लगभग 350-355 ई. माना जाता है। प्राकृत अभिलेखों में वर्णित पल्लव शासकों से उसके संबंध स्पष्ट नहीं हैं।

कुमारविष्णु प्रथम (लगभग 350-370 ई.)

वैलूरपाल्यम ताम्रपट्ट में कुमारविष्णु प्रथम को पल्लव वंश का पाँचवाँ शासक बताया गया है। चेंडलूर अनुदानपत्र में उसे स्कंदवर्मन का पुत्र बताया गया है।

संभवतः विष्णुगोप की पराजय के बाद काँची पल्लव राज्य से अलग हो गया था और कुमारविष्णु प्रथम ने इस पर पुनः अधिकार स्थापित किया। उसने अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया और महाराज की उपाधि धारण की। उसके काल में पल्लवों ने संस्कृत अभिलेखों का प्रयोग आरंभ किया।

संस्कृत ताम्रपट्टों वाले प्रारंभिक शासक (375-575 ई.)

संस्कृत ताम्रपट्टों से कई पल्लव शासकों के नाम ज्ञात हैं, लेकिन उनका परस्पर संबंध और क्रम निश्चित नहीं है। काँची के राजवंश की छिन्न-भिन्न शक्ति का लाभ उठाकर पल्लव साम्राज्य के उत्तरी भाग में नेल्लोर-गुंटुर क्षेत्र में एक सामंत पल्लव वंश ने अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित किया। संस्कृत ताम्रपट्टों से ज्ञात इस वंश के शासकों को 375 से 575 ई. के बीच रखा जा सकता है।

काँची की मुख्य शाखा के शासकों में सर्वप्रथम चेंडलूर ताम्रपट्ट से ज्ञात स्कंदवर्मन, उसके पुत्र कुमारविष्णु प्रथम, उसके पौत्र बुद्धवर्मन और प्रपौत्र कुमारविष्णु द्वितीय को रखा जा सकता है। इसके बाद वीरवर्मन (लगभग 385-400 ई.), स्कंदवर्मन तृतीय (लगभग 400-436 ई.), उसके पुत्र सिंहवर्मन द्वितीय (लगभग 436-460 ई.), पौत्र स्कंदवर्मन चतुर्थ (लगभग 460-480 ई.) और प्रपौत्र नंदिवर्मन प्रथम (लगभग 480-510 ई.) का नामोल्लेख मिलता है, लेकिन इनका पहले उल्लिखित आरंभिक पल्लव शासकों से संबंध स्पष्ट नहीं है। इतना अवष्य है कि सिंहवर्मन द्वितीय का काल 436 से 458 ई. तक था।

सिंहवर्मन द्वितीय (लगभग 455-477 ई.)

सिंहवर्मन द्वितीय के शासनकाल से पल्लव इतिहास का क्रम स्पष्ट होता है। जैन ग्रंथ लोकविभाग की रचना शक संवत् 380 (458 ई.) में उसके शासन के 22वें वर्ष में हुई। इस आधार पर उसका राज्यारोहण 436 ई. में माना जा सकता है। सिंहवर्मन और उसके पुत्र स्कंदवर्मन (चतुर्थ) का उल्लेख उनके सामंत गंगों के अभिलेखों में भी मिलता है।

सिंहवर्मन के शासनकाल में बाण शक्तिशाली हो गए थे। गंगों के पेनुगोंड अनुदानपत्र के अनुसार सिंहवर्मन ने बाणों से निपटने के लिए गंग शासक हरिवर्मन (आर्यवर्मन) और उसके पुत्र माधववर्मन द्वितीय का राज्याभिषेक किया। मृगेशवर्मन कदंब ने पल्लवों को ‘आग’ कहा है, जिससे पल्लवों की कदंबों से शत्रुता का संकेत मिलता है। सिंहवर्मन द्वितीय के अनुदानपत्र काँची के बजाय पीकिर, दशपुर और पलक्कड़ जैसे सैन्य शिविरों से जारी किए गए, जिससे लगता है कि काँची पर पल्लवों का पूर्ण अधिकार नहीं था।

स्कंदवर्मन चतुर्थ (लगभग 460-480 ई.)

सिंहवर्मन द्वितीय का उत्तराधिकारी स्कंदवर्मन चतुर्थ हुआ। पेनुगोंडा ताम्रपट्ट के अनुसार उसने पश्चिमी गंग शासक आर्यवर्मन के पुत्र माधववर्मन द्वितीय का राज्याभिषेक किया, जो पल्लव-गंग जो पल्लव-गंग मित्रता का सूचक है। उसके शासन में विष्णुकुंडिन राजा माधववर्मन द्वितीय ने पल्लवों को दक्षिणी आंध्र से बाहर किया, जिससे पल्लवों का प्रभाव उत्तरी और पश्चिमी सीमाओं तक सीमित हो गया।

स्कंदवर्मन चतुर्थ के दो पुत्र थे- कुमारविष्णु द्वितीय (उत्तराधिकारी) और बुद्धवर्मन। वैलूरपाल्यम अभिलेख में बुद्धवर्मन को ‘चोल सेना के लिए बड़ावाग्नि’ कहा गया है, जिससे चोल-पल्लव षत्रुता की सूचना मिलती है।

नंदिवर्मन प्रथम (लगभग 500-510 ई.)

स्कंदवर्मन चतुर्थ के बाद नंदिवर्मन प्रथम शासक हुआ, जो संभवतः कोई वंशज या निकट संबंधी था। काँचीपुरम से जारी उदयेंद्रम ताम्रपट्ट में उसे स्कंदवर्मन का पुत्र कहा गया है, जबकि वैकुंठ पेरुमल मंदिर अभिलेख के अनुसार वह सिंहविष्णु के भाई का वंशज था। उसका विवाह कदंब राजकुमारी से हुआ। वैलूरपाल्यम ताम्रपट्ट के अनुसार उसने ‘दृष्टिविष सर्प’ को पराजित किया। बेल्लारी अभिलेखों से पता चलता है कि उसने नागवंशी विद्रोहियों के विरुद्ध कदंब राजा कृष्णवर्मन द्वितीय की सहायता की।

शांतिवर्मन चंददंड (लगभग 458-500 ई.)

छठी षताब्दी के प्रारंभ में नंदिवर्मन प्रथम के साथ या बाद में शांतिवर्मन चंडदंड ने षासन किया, जो संभवतः उसका कोई निकट संबंधी था। ‘चंददंड’ उपाधि से लगता है कि उसने कडुवेट्टी परंपरा के अनुसार जंगलों को साफ कर कृषियोग्य भूमि का विस्तार किया था। उसने उच्छंगी शाखा के कदंब शासक विष्णुवर्मन का राज्याभिषेक किया, लेकिन वह कदंब शासक रविवर्मन (लगभग 485-519 ई.) के द्वारा मारा गया।

कुमारविष्णु द्वितीय (लगभग 510-530 ई.)

नंदिवर्मन प्रथम के बाद कुमारविष्णु द्वितीय शासक हुआ, जो स्कंदवर्मन चतुर्थ का पुत्र था। वैलूरपाल्यम ताम्रपट्ट के अनुसार उसके शासन के प्रारंभ में तेलुगु-चोलों ने काँची पर अधिकार कर लिया, लेकिन उसने अपने पुत्र बुद्धवर्मन की सहायता से उसे पुनः जीत लिया। अभिलेखों में उसकी उपाधि महाराज मिलती है।

बुद्धवर्मन (लगभग 530-540 ई.)

कुमारविष्णु द्वितीय का उत्तराधिकारी उसका पुत्र बुद्धवर्मन द्वितीय हुआ, जिसका उल्लेख वैलूरपाल्यम ताम्रपट्ट में है। उसका संक्षिप्त शासनकाल पल्लवों के लिए संकटपूर्ण था क्योंकि इस समय चोल पल्लवों के दक्षिणी क्षेत्रों पर तेजी से आक्रमण करने लगे थे।

कुमारविष्णु तृतीय (लगभग 540-550 ई.)

बुद्धवर्मन का उत्तराधिकारी उसका पुत्र कुमारविष्णु तृतीय हुआ। उसके शासनकाल में भी पल्लवों का चोलों के साथ संघर्ष चलता रहा और संभवतः वह स्वयं युद्ध में मारा गया। इस समय कालभ्रों के आक्रमण भी होने लगे थे, जिससे पल्लव सत्ता अस्थिर हो गई थी।

कुमारविष्णु तृतीय संभवतः संतानविहीन था, जिसके कारण उसका उत्तराधिकारी सिंहवर्मन तृतीय हुआ।

सिंहवर्मन तृतीय (लगभग 550-560 ई.)

कुमारविष्णु तृतीय के बाद सिंहवर्मन शासक हुआ, जिसका उल्लेख पल्लांकोयिल ताम्रपट्ट में है। वह संभवतः पल्लव वंश की पार्श्व शाखा से संबंधित था और सिंहविष्णु का पिता था। उसके शासन में पल्लवों ने चोलों से अपनी हार का बदला चुकाया। इसके बाद सिंहविष्णु के उदय का मार्ग प्रशस्त हुआ, जिसने कालभ्रों को पराजित कर पल्लव साम्राज्य की महानता और गौरव का इतिहास रचा।

पल्लव राजवंश की महानता और गौरव के युग का आरंभ

सिंहविष्णु (लगभग 575-600 ई.)

काँची के महान पल्लवों की परंपरा सिंहवर्मन द्वितीय के पुत्र सिंहविष्णु (575-600 ई.) के समय से प्रारंभ होती है। उसके राज्यारोहण से पल्लव इतिहास की अस्पष्टता और अनिश्चितता समाप्त हो जाती है और इस राजवंश की महानता और गौरव के नये युग का आरंभ होता है। उसने अवनिसिंह की उपाधि धारण की, जो उसकी वीरता और शौर्य का द्योतक है।

कशाक्कुडि अभिलेख के अनुसार सिंहविष्णु ने कालभ्रों, मालवों (संभवतः मलय पर्वत), चोलों, पांड्यों, केरलों और सिंहल के शासकों पर विजय प्राप्त की। यद्यपि परंपरागत प्रशस्ति के कारण इन सभी विजयों का श्रेय सिंहविष्णु को देना उचित नहीं है, लेकिन अधिकांश विद्वान मानते हैं कि उसने कालभ्रों को पराजित किया। मालव की पहचान अनिश्चित है, किंतु संभवतः इसका तात्पर्य मलय पर्वत- श्रृंखला से है, क्योंकि सुदूर मालवा क्षेत्र पर उसकी विजय असंभव प्रतीत होती है। चोलों पर उसकी सफलता की पुष्टि वैलूरपाल्यम अभिलेख से होती है, जिसमें कहा गया है कि सिंहविष्णु ने तालवृक्षों से आवृत कावेरी नदी की घाटी को अपने राज्य में शामिल किया।

पांड्य शासक कडुंगोन (लगभग 590-620 ई.) उसका समकालीन था, लेकिन उसके विरुद्ध सिंहविष्णु की सफलता अनिश्चित है। कुछ विद्वान मानते हैं कि चालुक्यों से संघर्ष उसके शासन के अंत में शुरू हुआ, लेकिन स्पष्ट प्रमाणों के अभाव में इस मत को स्वीकार करना कठिन है। टी.वी. महालिंगम के अनुसार सिंहविष्णु का पश्चिमी गंग शासक दुर्विनीत  (शासनकाल 529-579 ई.) के साथ भी संघर्ष हुआ।

जो भी हो, इस बात के सबल प्रमाण हैं कि सिंहविष्णु का राज्य मद्रास (कन्नूर) से कुंभकोनम तक विस्तृत था। अपनी विजयों और सफलताओं के उपलक्ष्य में उसने अवनिसिंह की उपाधि धारण की। उसके पुत्र महेंद्रवर्मन प्रथम ने अपनी रचना मत्तविलासप्रहसन में उसकी प्रशंसा की है और उसे महान शासक बताया है।

सिंहविष्णु वैष्णव धर्म का अनुयायी और कला का संरक्षक था। एक अभिलेख में उसके लिए शिंगविण्णु पेरुमार उपाधि का प्रयोग किया गया है। उसके शासन में मामल्लपुरम के आदिवराह गुहामंदिर का निर्माण हुआ, जिसके एक शिल्प में सिंहविष्णु की मूर्ति दो रानियों के साथ उत्कीर्ण है। उसके दरबार में संस्कृत के महान कवि भारवि निवास करते थे।

महेंद्रवर्मन प्रथम (600-630 ई.)

महेंद्रवर्मन प्रथम (600-630 ई.) पल्लव वंश का एक महान शासक था, जिसने सिंहविष्णु के बाद लगभग 600 ई. में पल्लव सिंहासन सँभाला। वह एक कुशल और समर्थ सम्राट था, जिसने अपने पिता से प्राप्त छोटे राज्य को सैन्य और कूटनीतिक कौशल से एक शक्तिशाली साम्राज्य में बदल दिया। उसके शासनकाल में पल्लवों का विस्तार उत्तर में चालुक्यों के बादामी राज्य और दक्षिण में पांड्य क्षेत्रों तक हुआ। महेंद्रवर्मन ने चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय से कई युद्ध लड़े, जिनमें उन्हें प्रारंभिक संघर्षों के बाद कुछ क्षेत्र खोने पड़े, लेकिन उसने दक्षिणी राज्यों में अपनी पकड़ मजबूत की।

महेंद्रवर्मन प्रथम ने कई महत्त्वपूर्ण युद्ध लड़े, जिनमें पल्लव-चालुक्य संघर्ष विशेष रूप से उल्लेखनीय है। चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय द्वारा अपनी साम्राज्यवादी नीतियों के तहत पल्लवों के सामंतों को अपदस्थ कर वेंगी क्षेत्र पर अधिकार करना इस संघर्ष का मुख्य कारण था। ऐहोल प्रशस्ति में उल्लेख है कि पुलकेशिन ने पल्लवों को कई युद्धों में पराजित कर उनके उत्तरी क्षेत्र हथिया लिए, लेकिन महेंद्रवर्मन ने दक्षिणी द्रविड़ क्षेत्रों में अपनी सत्ता बनाए रखा और पुल्लिलूर के युद्ध में उसने अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त की। उसने अनेक उपाधियाँ धारण की, जो उसके बहुआयामी व्यक्तित्व का प्रमाण हैं, जैसे मत्तविलास, विचित्रचित्त और चित्रकारिपुलि।

महेंद्रवर्मन प्रथम ने अपने शासनकाल में सांस्कृतिक विकास को बढ़ावा दिया। वह स्वयं एक प्रतिभाशाली कवि, चित्रकार, संगीतज्ञ और नाटककार था। उसकी प्रसिद्ध कृति ‘मत्तविलास प्रहसन’ व्यंग्यात्मक नाटक साहित्य का उत्कृष्ट उदाहरण है। प्रारंभ में जैन धर्म के अनुयायी रहने के बाद वह संत अप्पर के प्रभाव से शैव धर्म अपना लिए। उसने अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया और स्थापत्य कला को विकसित किया, विषेषकर पर गुफा मंदिरों का निर्माण। उसके शासनकाल को दक्षिण भारत में कला और संस्कृति का स्वर्णयुग माना जाता है, जिसने बाद के पल्लव शासकों के लिए आधार तैयार किया। अधिक जानकारी के लिए पढ़ें-

नरसिंहवर्मन प्रथम (630-668 ई.)

नरसिंहवर्मन प्रथम (630-668 ई.) पल्लव वंश का एक महत्त्वपूर्ण शासक था, जिसने अपने शासनकाल में दक्षिण भारतीय संस्कृति, कला और सैन्य शक्ति को नई ऊँचाइयों पर पहुँचाया। वह अपने पिता महेंद्रवर्मन प्रथम के उत्तराधिकारी थे और उसके समय में पल्लव साम्राज्य की प्रमुखता बनी रही। नरसिंहवर्मन को ‘मामल्लष्’ या ‘महामल्ल’ भी कहा जाता है, जिसका अर्थ है ‘महान पहलवान’। उसने अपने पिता की कला और स्थापत्य की परंपरा को आगे बढ़ाया और काशीपुरी, मामल्लपुरम जैसे स्थलों पर विशाल मंदिर और स्मारक का निर्माण करवाया। उसके नेतृत्व में पल्लवों ने चालुक्य शासक पुलकेशिन द्वितीय के साथ कई युद्ध लड़े और उसे पराजित किया। उसने वातापी पर विजय प्राप्त की। उसने लंका पर आक्रमण कर राजकीय और धार्मिक दोनों मामलों में सफलता प्राप्त की। नरसिंहवर्मन प्रथम की वीरता और सामरिक कौशल ने दक्षिण भारत में पल्लव राजवंश की स्थिति को सुदृढ़ किया और उसका नाम इतिहास में अमर हो गया। अधिक जानकारी के लिए पढ़ें-

परमेश्वरवर्मन प्रथम (670-695 ई.)

परमेश्वरवर्मन प्रथम (670-695 ई.) महेंद्रवर्मन द्वितीय की मृत्यु के बाद पल्लव वंश का शासक बना। उसके राज्यकाल में पल्लव साम्राज्य को चालुक्य शासक विक्रमादित्य प्रथम से भीषण संघर्ष का सामना करना पड़ा। प्रारंभिक युद्धों में विक्रमादित्य ने काँची सहित कई क्षेत्रों पर अधिकार कर पल्लव राज्य की प्रतिष्ठा को चुनौती दी और परमेश्वरवर्मन को अपनी राजधानी छोड़कर अन्यत्र शरण लेनी पड़ी। लेकिन परमेश्वरवर्मन अपनी प्रारंभिक असफलताओं से निराश नहीं हुआ; उसने 674-678 ई. के बीच चालुक्य सेना को पराजित कर रणक्षेत्र से खदेड़ दिया तथा पेरुवलनल्लूर की लड़ाई में चालुक्यों को निर्णायक रूप से पराजित किया। गंग शासक भूविक्रम, पल्लव-गंग संबंधों और पांड्य तथा अन्य दक्षिणी राज्यों के साथ परमेश्वरवर्मन की संधियों का उल्लेख मिलता है। यह समय पल्लव साम्राज्य के अस्तित्व के लिए अत्यंत चुनौतीपूर्ण रहा।

राजनीतिक चुनौतियों के बावजूद परमेश्वरवर्मन प्रथम ने पल्लव सत्ता को मजबूत बनाए रखा। रणक्षेत्र में उसके शौर्य का उदाहरण पेरुवलनल्लूर का युद्ध है, जिसमें उसने चालुक्य शासन को अपने साम्राज्य से पूरी तरह निष्कासित कर दिया। गंग शासक भूविक्रम के साथ संघर्ष का उल्लेख वेदिरुर अभिलेख में मिलता है, जिसमें कहा गया है कि युद्धभूमि में पल्लव शासक का हार छीन लिया गया। परंतु समकालीन वैष्णव संत तिरुमंगै आलवार ने उल्लेख किया है कि पल्लवों के अधीनस्थ नांगूर शासकों ने पांड्य और उत्तरी शक्तियों को पराजित किया। इस समय पल्लव साम्राज्य की सैन्य शक्ति और राजनीतिक कुशलता का परीक्षण हुआ, लेकिन परमेश्वरवर्मन ने अपने पूर्वजों की तरह वीर और गुणी शासक के रूप में राज्य को सुरक्षित रखा।

राजनीतिक चुनौतियों के बावजूद परमेश्वरवर्मन प्रथम ने सांस्कृतिक और धार्मिक उपलब्धियाँ भी अर्जित की। वह परम शैव थे और उसने ‘परममाहेष्वर’ की उपाधि धारण की। उसने काँची के समीप कूरम में एक भव्य शिवमंदिर का निर्माण करवाया, जिसका नाम ‘विद्याविनीत पल्लव परमेष्वर गृहम’ रखा। इस मंदिर में महाभारत के नित्य पाठ का प्रबंध किया गया था और शिलालेखों में ‘सदाशिव’ की प्रार्थना का उल्लेख दक्षिण भारत की अभिलिखित परंपरा में संभवतः पहली बार मिलता है। उसने धार्मिक भूमि में अश्वमेध यज्ञ सहित कई यज्ञों का आयोजन किया और पूर्वजों की परंपरा के अनुरूप उपाधियाँ भी धारण की। इस प्रकार परमेश्वरवर्मन प्रथम ने दक्षिण भारतीय स्थापत्य और पल्लव संस्कृति का संरक्षण किया तथा पल्लव युगीन कलाकृतियों को नया शिखर दिया। अधिक जानकारी के लिए पढ़ें-

नरसिंहवर्मन द्वितीय (लगभग 695-722 ई.)

नरसिंहवर्मन द्वितीय, जिन्हें राजसिंह के नाम से भी जाना जाता है, ने लगभग 695 से 722 ई. तक पल्लव साम्राज्य पर शासन किया। उसके शासनकाल को शांतिपूर्ण माना जाता है, जिसमें कला, साहित्य और वास्तुकला का विशेष विकास हुआ। उसने काँचीपुरम के प्रसिद्ध कैलाशनाथ मंदिर का निर्माण करवाया, जिसे राजसिद्धेश्वर मंदिर के नाम से भी जाना जाता है और इसके निर्माण को द्रविड़ स्थापत्य कला की शुरुआत माना जाता है।

उसके समय में सांस्कृतिक उन्नति के साथ-साथ कूटनीति और सैन्य संगठन भी दुर्लभ नहीं थे, लेकिन उसकी सैन्य उपलब्धियों का व्यापक विवरण उपलब्ध नहीं है। उसने चीन के साथ मित्रता स्थापित की और नागपट्टिनम में चीनी बौद्धों के लिए विहार का निर्माण करवाया। नरसिंहवर्मन द्वितीय शैव धर्म का अनुयायी था और उसने राजसिंह, आगमप्रिय और शंकरभक्त जैसी उपाधियाँ धारण की थी।

अभिलेखों और ऐतिहासिक स्रोतों से पता चलता है कि उसके शासनकाल में पल्लव साम्राज्य ने स्थापत्य कला, शिक्षा और धार्मिक समर्पण में बड़ी प्रगति की। उसके समय में बना कैलाशनाथ मंदिर और महाबलीपुरम के स्मारक आज भी उसके सांस्कृतिक योगदान के जीवंत उदाहरण हैं। नरसिंहवर्मन द्वितीय की शासन अवधि पल्लव साम्राज्य के इतिहास में कला और शांति का प्रतीक मानी जाती है। अधिक जानकारी के लिए पढ़ें-

महेंद्रवर्मन तृतीय (लगभग 722-728 ई.)

नरसिंहवर्मन द्वितीय के संभवतः दो पुत्र थे- महेंद्रवर्मन तृतीय और परमेश्वरवर्मन द्वितीय। नरसिंहवर्मन द्वितीय के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र महेंद्रवर्मन तृतीय लगभग 722 ई. में काँची की गद्दी पर आसीन हुआ।

महेंद्रवर्मन तृतीय को काँची के कैलाशनाथ मंदिर के प्रांगण में एक शिवमठ के निर्माण का श्रेय दिया जाता है। के.आर. श्रीनिवासन के अनुसार उसे पश्चिमी गंग शासक श्रीपुरुष (726-776 ई.) के विरुद्ध युद्ध में भाग लेना पड़ा। संभवतः इस युद्ध में श्रीपुरुष ने पल्लवों का राजकीय छत्र अपहृत कर लिया और महेंद्रवर्मन तृतीय मारा गया।

कुछ विद्वानों का मानना है कि पश्चिमी गंग राजा श्रीपुरुष के हेल्लेगरे अभिलेख (713-714 ई.) में उल्लिखित जय-विजय नामक पल्लवाधिराज उसके पुत्र हो सकते हैं। कुछ अन्य विद्वानों का सुझाव है कि वैकुंठपेरुमाल मंदिर के एक शिल्प में महेंद्रवर्मन तृतीय की मृत्यु का चित्रण है।

सत्यता जो भी हो, यह स्पष्ट नहीं है कि महेंद्रवर्मन तृतीय ने स्वतंत्र रूप से शासन किया या उसकी मृत्यु नरसिंहवर्मन द्वितीय के शासनकाल में ही हो गई। संभवतः उसकी मृत्यु के बाद परमेश्वरवर्मन द्वितीय ने काँची का सिंहासन ग्रहण किया।

परमेश्वरवर्मन द्वितीय (लगभग 728-730 ई.)

परमेश्वरवर्मन द्वितीय का शासनकाल अत्यंत संक्षिप्त रहा। उसका एकमात्र अभिलेख दक्षिणी अर्काट के तिरुवाडि से प्राप्त हुआ है, जो उसके शासन के तीसरे वर्ष का है। इसमें उसके द्वारा दिए गए स्वर्णदान का उल्लेख है। कशाक्कुडि अभिलेख में उसे ‘बृहस्पति की नीति का अनुगामी’ और ‘संसार का रक्षक’ बताया गया है। वैलूरपाल्यम अभिलेख के अनुसार उसने मनु के अनुसार शासन संचालित किया।

चालुक्य नरेश विजयादित्य के शासन के 35वें वर्ष (730-731 ई.) के उच्चल अभिलेख के अनुसार युवराज विक्रमादित्य ने काँची पर आक्रमण कर परमेश्वरवर्मन द्वितीय से कर और भेंट प्राप्त की। लेकिन इतिहासकारों का अनुमान है कि चालुक्य विक्रमादित्य ने परमेश्वरवर्मन द्वितीय की हत्या कर दी। वापसी में उसने पश्चिमी गंग शासक दुर्विनीत एरेयप्प को उच्चल और परियाल गाँव पुरस्कारस्वरूप प्रदान किया। संभवतः गंग शासक ने चालुक्यों की ओर से पल्लवों के विरुद्ध युद्ध में भाग लिया था।

नंदिवर्मन द्वितीय (730-796 ई.)

परमेश्वरवर्मन द्वितीय की मृत्यु के बाद पल्लव राज्य गंभीर राजनीतिक संकट और अराजकता में डूब गया, जिससे सामंतों, ब्राह्मणों और पदाधिकारियों ने चित्रमाय को हटाकर हिरण्यवर्मन के 12 वर्षीय पुत्र नंदिवर्मन द्वितीय को 730 ई. में सिंहासन पर बैठाया। सिंहासन के इस विवाद के कारण नंदिवर्मन द्वितीय को पांड्य, पश्चिमी गंग और चालुक्य शासकों के संयुक्त विरोध का सामना करना पड़ा, लेकिन उसके कुशल सेनापति उदयचंद्र ने विद्रोह का दमन कर उसे पुनः सत्ता में प्रतिष्ठित किया।

नंदिवर्मन द्वितीय के लंबे शासनकाल में पल्लव साम्राज्य को राष्ट्रकूट, पांड्य और गंग जैसे शत्रुओं से चुनौती मिली, पर वह वैष्णव धर्म का उदार संरक्षक बना रहा, जिसने काँची के मुक्तेश्वर और वैकुंठपेरुमाल मंदिरों का निर्माण कराया तथा दक्षिण भारत में कलात्मक और सांस्कृतिक पुनरुत्थान को स्थापित किया। अधिक जानकारी के लिए पढ़ें-

दंतिवर्मन (लगभग 796-847 ई.)

नंदिवर्मन द्वितीय के बाद उनका पुत्र दंतिवर्मन, राष्ट्रकूट राजकुमारी रेवा के गर्भ से उत्पन्न हुआ था, लगभग 796 ई. में पल्लव सिंहासन पर आसीन हुआ और लगभग 51 वर्षों तक शासन किया। दंतिवर्मन का काल पल्लव इतिहास में हृास और संकट का समय माना जाता है; उसने कदंबों से मैत्री स्थापित की और बनवासी के कदंब शासक पृथ्वीपति की पुत्री अग्गलनिम्मटि से विवाह किया, लेकिन पांड्य और राष्ट्रकूट शक्तियों के बढ़ते प्रभाव के आगे उन्हें बार-बार पराजय का सामना करना पड़ा।

दंतिवर्मन के शासनकाल में पांड्य, राष्ट्रकूट और चोल शक्तिशाली होते गए। दक्षिण में पांड्य शासक जटिल परांतक और श्रीमार श्रीवल्लभ ने पल्लव साम्राज्य के कई क्षेत्रों पर अधिकार किया और दंतिवर्मन की सत्ता को सीमित कर दिया। वहीं, राष्ट्रकूट शासक गोविंद तृतीय ने 804 और 808 ई. में पल्लव राज्य पर आक्रमण कर दंतिवर्मन को परास्त किया, जिससे वह सामंत के रूप में कार्य करने को मजबूर हुआ। इस पूरे कालखंड में दंतिवर्मन बाण वंश जैसे सामंतों और कदंबों के समर्थन से राज्य की रक्षा करते रहा, किंतु पल्लव राज्य लगातार कमजोर होता गया। अधिक जानकारी के लिए पढ़ें-

नंदिवर्मन तृतीय (लगभग 846-869 ई.)

नंदिवर्मन तृतीय, दंतिवर्मन और उनकी कदंबवंशीय महारानी अग्गलनिम्मटि की पुत्र था, जो 846 ई. में पल्लव सिंहासन पर बैठा और पल्लव वंश का अंतिम शक्तिशाली शासक सिद्ध हआ। उसने चोल, पांड्य और चेर राज्यों पर विजय प्राप्त कर पल्लव साम्राज्य की खोई प्रतिष्ठा पुनः स्थापित की। तमिल काव्य ‘नंदिकलंबकम’ में उसकी विजय और पराक्रम का विवरण मिलता है, जिससे उसकी सैन्य और राजनीतिक सफलता का पता चलता है।

उसके शासनकाल में पांड्य वंश के विरुद्ध निर्णायक युद्ध हुए, जिनमें तेल्लारु युद्ध प्रमुख था, जहाँ उसने शत्रुओं भीषण संघर्ष में विजय प्रापत की। उसने विजय के बाद ‘तेल्लार्ररिंद’ (तेल्लारु का विजेता) की उपाधि धारण की।

उसने अपने सामरिक और कूटनीतिक कौशल से कावेरी घाटी पर नियंत्रण किया और राष्ट्रकूट शासक अमोघवर्ष की पुत्री शंखा से विवाह कर अपनी उत्तरी सीमा को संभावित आक्रमण से सुरक्षित कर लिया।

सांस्कृतिक दृष्टि से भी नंदिवर्मन तृतीय का शासनकाल महत्त्वपूर्ण था। उसने मामल्लपुरम और मल्लै नगरों को समृद्ध किया, दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ व्यापारिक संबंध बढ़ाया और तमिल तथा संस्कृत साहित्य का संरक्षण किया। वह शिव का अनुयायी था और मंदिर निर्माण को सक्रिय रूप से प्रोत्साहन दिया। उसकी प्रस्तुतियाँ तमिल कवि पेरुन्देवनार के आश्रय रूप में भी प्रसिद्ध हैं, जो उसकी समृद्ध संस्कृतिक विरासत का सूचक है। अधिक जानकारी के लिए पढ़ें-

नृपतुंगवर्मन (लगभग 870-895 ई.)

नंदिवर्मन तृतीय की मृत्यु के बाद उसका पुत्र नृपतुंगवर्मन, जो राष्ट्रकूट राजकुमारी शंखा से उत्पन्न हुआ था, पल्लव सिंहासन पर बैठा। बाहूर अभिलेख से ज्ञात होता है कि उसने पांड्य शासक (संभवतः श्रीमार श्री परांतक वरगुण द्वितीय, जिसे परचक्रकोलाहल कहा गया है) को अरिचिल नदी (कुंभकोणम के निकट) में पराजित किया। डुब्रील महोदय के अनुसार यह युद्ध कुंभकोणम (कुडमुक्कु) क्षेत्र में हुआ। टी.वी. महालिंगम का अनुमान है कि नृपतुंगवर्मन ने अपने पांड्य सामंत वरगुण द्वितीय (862-880 ई.) की ओर से चोल शासक विजयालय (850-871 ई.) या आदित्य प्रथम (871-907 ई.) का सामना किया।

पांड्य अभिलेखों में वरगुण द्वितीय (परचक्रकोलाहल) को चोल, पल्लव, गंग और मगध नरेशों पर विजय का श्रेय दिया गया है। इससे लगता है कि उसे अपने सहयोगी नृपतुंगवर्मन के विरुद्ध भी कभी सफलता मिली थी।

तिरुचि (तिरुचिरापल्ली) और तंजावूर (तंजौर) क्षेत्र में नृपतुंगवर्मन के शासन के सातवें से 24वें वर्ष तक कोई अभिलेख नहीं मिलता है। इससे स्पष्ट होता है कि इस काल तक चोल शक्ति प्रबल हो गई थी और पल्लवों का प्रभुत्व केवल तोंडमंडलम (उत्तरी तमिल क्षेत्र) तक सीमित रह गया।

नृपतुंगवर्मन का शासनकाल सामान्यतः शांतिपूर्ण रहा, लेकिन शासन के अंतिम दिनों में उसे अपने सौतेले भाई अपराजित के विद्रोह का सामना करना पड़ा।  इस विद्रोह के दौरान पांड्यों ने नृपतुंग का साथ दिया, जबकि चोल (आदित्य प्रथम) और पश्चिमी गंग (पृथ्वीपति) ने अपराजित का। दोनों पक्षों के बीच श्रीपुरम्बियम (चेन्नई के निकट) में निर्णायक युद्ध हुआ, जिसमें पश्चिमी गंग नरेश पृथ्वीपति मारा गया, पांड्य पराजित हुए और चोलों की सहायता से अपराजित पल्लव ने नृपतुंगवर्मन को हराकर पल्लव साम्राज्य पर अधिकार कर लिया। इस युद्ध की तिथि विवादास्पद है-कुछ विद्वानों के अनुसार यह युद्ध 880 ई. में हुआ, जबकि अन्य के अनुसार 895 ई. में हुआ था। इस पराजय के बाद नृपतुंगवर्मन के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती।

नृपतुंगवर्मन साहित्य और कला का संरक्षक था। बाहूर अभिलेख से पता चलता है कि उसने वहाँ एक वैदिक विद्यालय को तीन ग्राम विद्याभोग और ब्रह्मदेय के रूप में दान दिया। उसकी रानी ने उक्कल में भुवननिमाणिक्क विष्णु मंदिर का निर्माण करवाया। उसके काल में नार्तामले शिवमंदिर तथा कुछ अन्य शैलकृत स्मारकों का भी निर्माण हुआ।

अपराजितवर्मन (लगभग 885-897 ई.)

अपराजित पल्लव वंश का अंतिम महत्त्वपूर्ण शासक था। उसने नृपतुंगवर्मन को पराजित कर लगभग 885 ई. (कुछ विद्वान 890 और 895 ई. मानते हैं) में पल्लव सिंहासन प्राप्त किया। अपराजित के समय तक पल्लवों की शक्ति बहुत क्षीण हो चुकी थी और वास्तविक सत्ता धीरे-धीरे चोलों के हाथ में जा रही थी। बाण शासक अभी भी पल्लवों की अधीनता स्वीकार करते थे, लेकिन अपराजित का सामंत और सहयोगी चोल शासक आदित्य प्रथम (871-907 ई.) शीघ्र ही उससे स्वतंत्र होकर शक्ति-संपन्न हो गया।

राजेंद्र चोल के तिरुवालंगाडु ताम्रपट्ट और वीर राजेंद्र चोल के कन्याकुमारी अभिलेख से पता चलता है कि आदित्य चोल ने अपराजित को युद्ध में हराकर उसका वध कर दिया और तोंडमंडलम (उत्तरी तमिलनाडु) पर अधिकार कर लिया। इस विजय की पुष्टि आदित्य चोल के शासन के 21वें वर्ष के बाद तोंडमंडलम से मिलने वाले चोल अभिलेखों से होती है। इस प्रकार पल्लव राज्य का अंत हो गया।

अपराजित के शासनकाल में तिरुत्तनि (तिरुत्तनी, आंध्र-तमिल सीमा) में वीरट्टानेश्वर मंदिर का निर्माण हुआ। मंदिर के एक अभिलेख में अपराजित को एक कविता का रचयिता भी बताया गया है, जिससे उसके साहित्यानुरागी स्वभाव का संकेत मिलता है।

नंदिवर्मन चतुर्थ और कम्पवर्मन (9वीं-10वीं शताब्दी)

अपराजित की हत्या के बाद पल्लव राज्य कुछ दशक तक अस्तित्व में रहा, किंतु राजनीतिक दृष्टि से अब पल्लव साम्राज्य कमजोर पड़ चुका था। इस उत्तरकालीन चरण में नंदिवर्मन चतुर्थ और उसके उत्तराधिकारी कम्पवर्मन (कम्पवर्मन द्वितीय) के नाम मिलते हैं।

अपराजित के बाद पल्लव परंपरा में नंदिवर्मन चतुर्थ का उल्लेख मिलता है, परंतु उसके शासनकाल संबंधी कोई ठोस जानकारी उपलब्ध नहीं है। इस समय तक पल्लव केवल नाममात्र के शासक रह गए थे और वास्तविक प्रभुसत्ता चोलों के हाथ केंद्रित थी।

नंदिवर्मन चतुर्थ के बाद पल्लव वंश का उत्तराधिकारी कम्पवर्मन हुआ। उसके अनेक अभिलेख प्राप्त होते हैं, जिनसे अनुमान होता है कि उसने अपने साम्राज्य को पुनः सशक्त बनाने का प्रयास किया।

लेकिन 10वीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक चोल शक्ति इतनी प्रबल हो चुकी थी कि पल्लव स्वतंत्र सत्ता कायम नहीं रख पाए। लगभग 980 ई. में कम्पवर्मन की मृत्यु के बाद पल्लव साम्राज्य पूरी तरह चोल साम्राज्य में विलीन हो गया और दक्षिण भारत की प्रभुसत्ता निर्णायक रूप से चोलों के हाथ चली गई।

पल्लव राजवंश का पतन

पल्लव राजवंश का पतन 9वीं शताब्दी में हुआ, जिसके कई कारण थे। सबसे प्रमुख कारण चालुक्यों, चोलों और राष्ट्रकूटों जैसे शक्तिशाली राजवंशों के आक्रमण थे। पहले चालुक्य विक्रमादित्य ने काँची पर आक्रमण कर परमेश्वरवर्मन द्वितीय की हत्या कर दी। बाद में, चोल शासक आदित्य प्रथम (871-907 ई.) ने अपराजितवर्मन को हराकर और उसका वध करके काँची पर अधिकार कर लिया, जिससे पल्लवों की शक्ति कमजोर हो गई। आंतरिक कलह और उत्तराधिकार विवादों ने भी शासन को अस्थिर किया। व्यापारिक और सैन्य संसाधनों की कमी, साथ ही पड़ोसी राजवंशों की बढ़ती शक्ति ने पल्लवों की स्थिति को कमजोर किया। इसके अतिरिक्त, पल्लवों की केंद्रीकृत शक्ति क्षेत्रीय स्तर पर कमजोर पड़ने लगी, जिससे स्थानीय सामंतों का प्रभाव बढ़ा। इन सभी कारकों ने मिलकर पल्लव राजवंश के पतन की गति को तीव्र कर दिया और 10वीं शताब्दी के अंतिम दशक में चोलों ने पल्लव सत्ता का अंत कर दिया।

पल्लव राजवंश के योगदान का मूल्यांकन

पल्लवों ने अपने लगभग 600 वर्षों के शासनकाल (लगभग 275-907 ई.) में दक्षिण भारत के राजनीतिक और सांस्कृतिक विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उनके शासनकाल में आशातीत साहित्यिक प्रगति हुई और राजधानी काँची अध्ययन-अध्यापन का प्रमुख केंद्र बन गई। पल्लवों ने स्थानीय तमिल साहित्य के साथ-साथ संस्कृत साहित्य को भी प्रोत्साहन दिया। भारवि और दंडी जैसे कवि उनके युग की देन हैं। साहित्य एवं विद्या का उदार संरक्षक होने के साथ-साथ कई पल्लव शासक स्वयं विद्वान थे। महेंद्रवर्मन प्रथम ने संगीतशास्त्र पर एक ग्रंथ और मत्तविलासप्रहसन नामक प्रसिद्ध संस्कृत कृति की रचना की।

पल्लव शासक प्रायः वैष्णव और शैव धर्म के अनुयायी थे। महेंद्रवर्मन प्रथम प्रारंभ में जैन थे, लेकिन बाद में उसने शैव मत स्वीकार कर लिया। पल्लव शासकों के संरक्षण में अनेक वैष्णव तथा शैव संतों ने भक्ति साहित्य की रचना की।

पल्लव धर्मसहिष्णु थे और उन्होंने बौद्धों व जैनों को भी संरक्षण प्रदान किया। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने काँची में बौद्ध और जैन विहारों का उल्लेख किया है, जहाँ वे स्वतंत्रतापूर्वक जीवन व्यतीत करते थे। कई पल्लव शासकों ने घटिकाओं (ब्राह्मण शिक्षण संस्थाओं) और अन्य शिक्षण संस्थाओं को दान दिया।

पल्लव राजवंश का राजनीतिक इतिहास (Political History of the Pallava Dynasty, 275-897 AD)
महाबलीपुरम के तटीय मंदिर

पल्लवों की सबसे बड़ी उपलब्धि उनकी वास्तुकला थी। उन्होंने द्रविड़ शैली को विकसित किया, जिसे राजसिंह, महेंद्र, मामल्ल और अपराजित शैली के नाम से जाना जाता है। इन शैलियों ने मंदिर वास्तुकला के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। पर्सी ब्राउन के अनुसार दक्षिण भारत के इतिहास निर्माण में वास्तुकला के क्षेत्र में पल्लवों की बराबरी कोई नहीं कर सका। विस्तृत अध्ययन के लिए देखें-

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
  1. पल्लव राजवंश की उत्पत्ति के विभिन्न सिद्धांतों का वर्णन कीजिए।
  2. पल्लव राजवंश के इतिहास के निर्माण में साहित्यिक और पुरातात्विक स्रोतों की भूमिका का मूल्यांकन कीजिए।
  3. पल्लव शासकों की सैन्य उपलब्धियों का वर्णन कीजिए।
  4. महेंद्रवर्मन प्रथम के सैन्य और सांस्कृतिक योगदान पर प्रकाश डालिए।
  5. नरसिंहवर्मन प्रथम की सैन्य उपलब्धियों का वर्णन कीजिए।
  6. परमेश्वरवर्मन प्रथम की उपलब्धियों का मूल्यांकन कीजिए।
  7. नरसिंहवर्मन द्वितीय के शासनकाल की विशेषताओं का वर्णन कीजिए ।
  8. पल्लव राजवंश के पतन के प्रमुख कारणों का विश्लेषण कीजिए तथा चोलों की भूमिका पर चर्चा कीजिए।
  9. पल्लव राजवंश के योगदान का मूल्यांकन कीजिए।
लघु उत्तरीय प्रश्न
  1. पल्लव राजवंश के प्रारंभिक क्षेत्र और राजधानी का वर्णन कीजिए।
  2. महेंद्रवर्मन प्रथम द्वारा रचित ‘मत्तविलासप्रहसन’ की क्या विशेषताएँ हैं?
  3. नरसिंहवर्मन प्रथम की वातापी विजय का क्या महत्त्व था?
  4. परमेश्वरवर्मन प्रथम की उपाधियों का उल्लेख कीजिए।
  5. नरसिंहवर्मन द्वितीय के काल में काँची में निर्मित प्रमुख मंदिरों का नाम बताइए।
  6. नंदिवर्मन द्वितीय के राज्यारोहण की परिस्थितियों का वर्णन कीजिए।
  7. दंतिवर्मन के कूटनीतिक संबंधों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
  8. नंदिवर्मन तृतीय की तेल्लारु विजय का महत्त्व बताइए।
बहुविकल्पीय प्रश्न

1.पल्लव राजवंश ने मुख्य रूप से किस क्षेत्र पर शासन किया?

(A) कावेरी और तुंगभद्रा

(B) गंगा और यमुना

(C) नर्मदा और ताप्ती

(D) कृष्णा और गोदावरी

उत्तर: (D) कृष्णा और गोदावरी

2. पल्लव राजवंश का काल कितने वर्षों तक माना जाता है?

(A) 275-897 ई.

(B) 100-500 ई.

(C) 600-900 ई.

(D) 900-1200 ई.

उत्तर: (A) 275-897 ई.

3. अशोक के शिलालेखों में पल्लवों को किस नाम से जोड़ा जाता है?

(A) चेर या केरल

(B) चोल या पांड्य

(C) पलद या पुलिंद

(D) नाग या इक्ष्वाकु

उत्तर: (C) पलद या पुलिंद

4. पल्लवों की राजधानी क्या थी?

(A) मदुरा

(B) काँची

(C) तंजावूर

(D) वातापि

उत्तर: (B) काँची

5. पल्लव राजवंश के राजकीय चिह्न क्या थे?

(A) कमल और तलवार

(B) अश्व और हाथी

(C) वृषभ और सिंह

(D) सूर्य और चंद्र

उत्तर: (C) वृषभ और सिंह

6. ‘मत्तविलासप्रहसन’ की रचना किस पल्लव शासक ने की?

(A) नरसिंहवर्मन प्रथम

(B) महेंद्रवर्मन प्रथम

(C) सिंहविष्णु

(D) दंतिवर्मन

उत्तर: (B) महेंद्रवर्मन प्रथम

7. ‘पल्लव’ शब्द का अर्थ है-

(A) शक्तिशाली

(B) तेज

(C) दयालु

(D) लता

उत्तर : (D) लता

8. आरंभिक पल्लव शासक किसके सामंत थे?

(A) सातवाहन

(B) चेर

(C) पांड्य

(D) चोल

उत्तर : (A) सातवाहन

9. ह्वेनसांग ने किस पल्लव शासक के काल में काँची की यात्रा की?

(A) नंदिवर्मन द्वितीय

(B) महेंद्रवर्मन प्रथम

(C) परमेश्वरवर्मन प्रथम

(D) नरसिंहवर्मन प्रथम

उत्तर: (D) नरसिंहवर्मन प्रथम

10. पल्लव अभिलेख मुख्य रूप से किस भाषा में हैं?

(A) तमिल और तेलुगु

(B) प्राकृत और संस्कृत

(C) कन्नड़ और प्राकृत

(D) संस्कृत और पाली

उत्तर: (B) प्राकृत और संस्कृत

11. शिवस्कंदवर्मन के अभिलेख कहाँ से प्राप्त हुए हैं?

(A) मायिडवोलु और हीरहडगल्ली

(B) कशाक्कुडि और वैलूरपाल्यम

(C) तिरुचिरापल्ली और तंजावूर

(D) महाबलीपुरम और काँची

उत्तर: (A) मायिडवोलु और हीरहडगल्ली

12. पल्लव सिक्कों पर क्या चित्रित है?

(A) हाथी की आकृति

(B) कमल का फूल

(C) मस्तूलयुक्त जहाज

(D) सूर्य की किरणें

उत्तर: (C) मस्तूलयुक्त जहाज

13. महाबलीपुरम के पंच रथ मंदिर किस शासक के काल में बने?

(A) महेंद्रवर्मन प्रथम

(B) नरसिंहवर्मन प्रथम

(C) नरसिंहवर्मन द्वितीय

(D) दंतिवर्मन

उत्तर: (B) नरसिंहवर्मन प्रथम

14. पल्लवों की उत्पत्ति को किससे जोड़ा जाता है?

(A) भारद्वाज गोत्र और अश्वत्थामा

(B) विष्णुवृद्धि गोत्र और विष्णु

(C) हरिवंश और कृष्ण

(D) नागवंश और चोल

उत्तर: (A) भारद्वाज गोत्र और अश्वत्थामा

15. पल्लवों को विदेशी मानने वाले उन्हें किससे जोड़ते हैं?

(A) ग्रीक या यवन

(B) पार्थियन या पह्लव

(C) शक या कुशाण

(D) हूण या तुर्क

उत्तर: (B) पार्थियन या पह्लव

16. पल्लवों को भारतीय मूल का मानने वाले उन्हें किससे संबंधित मानते हैं?

(A) शालंकायन या कदंब

(B) गुप्त या मौर्य

(C) चोल या पांड्य

(D) वाकाटक या नाग

उत्तर: (D) वाकाटक या नाग

17. शिवस्कंदवर्मन को क्या कहा गया है?

(A) वातापीकोंड

(B) अश्वमेधयाजिन

(C) राजसिंह

(D) महामल्ल

उत्तर: (B) अश्वमेधयाजिन

18. समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति में किस पल्लव शासक का उल्लेख है?

(A) स्कंदवर्मन

(B) सिंहविष्णु

(C) विष्णुगोप

(D) कुमारविष्णु

उत्तर: (C) विष्णुगोप

19. सिंहविष्णु ने किसे पराजित किया?

(A) चालुक्यों को

(B) कालभ्रों को

(C) राष्ट्रकूटों को

(D) गुप्तों को

उत्तर: (B) कालभ्रों को

20. महेंद्रवर्मन प्रथम की उपाधि क्या थी?

(A) पल्लवमल्ल

(B) वातापीकोंड

(C) राजसिंह

(D) विचित्रचित्त

उत्तर: (D) विचित्रचित्त

21. पुलकेशिन द्वितीय को किसने पराजित किया?

(A) परमेश्वरवर्मन प्रथम

(B) महेंद्रवर्मन प्रथम

(C) नरसिंहवर्मन प्रथम

(D) दंतिवर्मन

उत्तर: (C) नरसिंहवर्मन प्रथम

22. नरसिंहवर्मन प्रथम की उपाधि क्या थी?

(A) राजसिंह

(B) मामल्ल

(C) महेंद्रविक्रम

(D) अपराजित

उत्तर: (B) मामल्ल

23. नरसिंहवर्मन प्रथम ने सिंहल में किसकी सहायता की?

(A) मानवर्मन की

(B) दत्तोपतिस्स की

(C) कस्सप की

(D) हत्थदत्त की

उत्तर: (A) मानवर्मन की

24. परमेश्वरवर्मन प्रथम ने किस युद्ध में विक्रमादित्य को हराया?

(A) तेल्लारु

(B) पुल्लिलूर

(C) पेरुवलनल्लूर

(D) श्रीपुरम्बियम

उत्तर: (C) पेरुवलनल्लूर

25. रेचुरु अभिलेख किस शासक से संबंधित है?

(A) नरसिंहवर्मन द्वितीय

(B) परमेश्वरवर्मन प्रथम

(C) महेंद्रवर्मन प्रथम

(D) नंदिवर्मन द्वितीय

उत्तर: (B) परमेश्वरवर्मन प्रथम

26. नरसिंहवर्मन द्वितीय को क्या कहा जाता है?

(A) पल्लवमल्ल

(B) मामल्ल

(C) वातापीकोंड

(D) राजसिंह

उत्तर: (D) राजसिंह

27. कैलाशनाथ मंदिर किसने बनवाया?

(A) महेंद्रवर्मन प्रथम

(B) नरसिंहवर्मन द्वितीय

(C) नरसिंहवर्मन प्रथम

(D) दंतिवर्मन

उत्तर: (B) नरसिंहवर्मन द्वितीय

28. नंदिवर्मन द्वितीय ने किससे विवाह किया?

(A) चोल राजकुमारी से

(B) कदंब राजकुमारी से

(C) राष्ट्रकूट राजकुमारी रेवा से

(D) पांड्य राजकुमारी से

उत्तर: (C) राष्ट्रकूट राजकुमारी रेवा से

29. दंतिवर्मन ने किससे विवाह किया?

(A) कदंब अग्गलनिम्मटि से

(B) राष्ट्रकूट राजकुमारी से

(C) गंग राजकुमारी से

(D) चोल राजकुमारी से

उत्तर: (A) कदंब अग्गलनिम्मटि से

30. नंदिवर्मन तृतीय की प्रमुख विजय क्या थी?

(A) पेरुवलनल्लूर युद्ध

(B) पुल्लिलूर युद्ध

(C) तेल्लारु युद्ध

(D) श्रीपुरम्बियम युद्ध

उत्तर: (C) तेल्लारु युद्ध

31. अपराजितवर्मन को किसने हराया?

(A) पांड्य वरगुण ने

(B) चोल आदित्य प्रथम ने

(C) राष्ट्रकूट ध्रुव ने

(D) गंग श्रीपुरुष ने

उत्तर: (B) चोल आदित्य प्रथम ने

32. पल्लवों का पतन किस शताब्दी में हुआ?

(A) 7वीं शताब्दी

(B) 8वीं शताब्दी

(C) 9वीं शताब्दी

(D) 10वीं शताब्दी

उत्तर: (C) 9वीं शताब्दी

33. पल्लवों ने किस शैली को विकसित किया?

(A) वेसर शैली

(B) नागर शैली

(C) द्रविड़ शैली

(D) इंडो-इस्लामिक शैली

उत्तर: (C) द्रविड़ शैली

34. महाबलीपुरम का शोर मंदिर किसने बनवाया?

(A) नरसिंहवर्मन प्रथम

(B) नरसिंहवर्मन द्वितीय

(C) महेंद्रवर्मन प्रथम

(D) परमेश्वरवर्मन प्रथम

उत्तर: (B) नरसिंहवर्मन द्वितीय

35. पल्लवों के सिक्कों पर क्या प्रतीक था?

(A) सिंह और वृषभ

(B) कमल और सूर्य

(C) हाथी और अश्व

(D) जहाज और मस्तूल

उत्तर: (D) जहाज और मस्तूल

36. ‘लोकविभाग’ ग्रंथ किससे संबंधित है?

(A) शैव ग्रंथ

(B) बौद्ध ग्रंथ

(C) वैष्णव ग्रंथ

(D) जैन ग्रंथ

उत्तर: (D) जैन ग्रंथ

37. महावंश ग्रंथ मुख्य रूप से किसका इतिहास है?

(A) पांड्य का

(B) चोल का

(C) सिंहल का

(D) चेर का

उत्तर: (C) सिंहल का

38. पल्लवों का प्रारंभिक इतिहास किस भाषा के अभिलेखों से ज्ञात है?

(A) संस्कृत

(B) प्राकृत

(C) तमिल

(D) कन्नड़

उत्तर: (B) प्राकृत

39. सिंहविष्णु की उपाधि क्या थी?

(A) वातापीकोंड

(B) महामल्ल

(C) राजसिंह

(D) अवनिसिंह

उत्तर: (D) अवनिसिंह

40. महेंद्रवर्मन प्रथम ने किस युद्ध में शत्रुओं को हराया?

(A) पुल्लिलूर

(B) तेल्लारु

(C) वातापी

(D) श्रीपुरम्बियम

उत्तर: (A) पुल्लिलूर

41. नरसिंहवर्मन प्रथम ने किस नगर की स्थापना की?

(A) मदुरा

(B) काँची

(C) मामल्लपुरम

(D) तंजावूर

उत्तर: (C) मामल्लपुरम

42. परमेश्वरवर्मन प्रथम को किस यज्ञ का श्रेय दिया जाता है?

(A) अग्निष्टोम

(B) राजसूय

(C) वाजपेय

(D) अश्वमेध

उत्तर: (D) अश्वमेध

43. नरसिंहवर्मन द्वितीय ने किस देश में दूत भेजे?

(A) तिब्बत

(B) सिंहल

(C) चीन

(D) फारस

उत्तर: (C) चीन

44. दंतिवर्मन का शासनकाल किस रूप में जाना जाता है?

(A) ह्रास का काल

(B) उत्कर्ष का काल

(C) विस्तार का काल

(D) शांति का काल

उत्तर: (A) ह्रास का काल

45. नंदिवर्मन तृतीय की माता कौन थी?

(A) अग्गलनिम्मटि

(B) रेवा

(C) शंखा

(D) रंगपताका

उत्तर: (A) अग्गलनिम्मटि

46. अपराजितवर्मन का अंत किसने किया?

(A) राष्ट्रकूट गोविंद ने

(B) पांड्य वरगुण ने

(C) चोल आदित्य प्रथम ने

(D) गंग श्रीपुरुष ने

उत्तर: (C) चोल आदित्य प्रथम ने

47. पल्लवों का अंतिम शासक कौन था?

(A) कम्पवर्मन

(B) अपराजितवर्मन

(C) नृपतुंगवर्मन

(D) नंदिवर्मन चतुर्थ

उत्तर: (A) कम्पवर्मन

48. पल्लवों ने किस आंदोलन को बढ़ावा दिया?

(A) बौद्ध आंदोलन

(B) जैन आंदोलन

(C) भक्ति आंदोलन

(D) सूफी आंदोलन

उत्तर: (C) भक्ति आंदोलन

49. ह्वेनसांग के अनुसार काँची में कितने बौद्ध विहार थे?

(A) 100 से अधिक

(B) 50 से अधिक

(C) 20 से अधिक

(D) 10 से अधिक

उत्तर: (A) 100 से अधिक

50. पल्लवों का प्रमुख योगदान क्या था?

(A) वेसर स्थापत्य

(B) नागर स्थापत्य

(C) द्रविड़ स्थापत्य

(D) इंडो-ग्रीक स्थापत्य

उत्तर: (C) द्रविड़ स्थापत्य
error: Content is protected !!
Scroll to Top