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पल्लव राजवंश
आंध्र-सातवाहनों के पतन के बाद दक्षिण में उदित होने वाले राजवंशों में पल्लवों का विशिष्ट स्थान है, जिन्होंने कृष्णा और गोदावरी नदियों के बीच के प्रदेश पर चौथी से नौवीं शताब्दी तक शासन किया। मौर्य सम्राट अशोक के लेखों में सुदूर दक्षिण के चोल, पांड्य एवं चेर राज्यों के साथ पल्लवों का उल्लेख नहीं मिलता है। किंतु कुछ विद्वान अशोकीय लेखों के वर्णित ‘पलद’ या ‘पुलिंद’ का समीकरण पल्लवों से करते हैं। संगमयुगीन ग्रंथों ‘कलिथोकै’ और ‘तोल्काप्पियम’ में पल्लवों का उल्लेख मिलता है, किंतु इस युग में पल्लवों की कोई राजनीतिक पहचान नहीं थी। पेरीप्लस एवं टाल्मी के विवरणों से ज्ञात होता है कि कारोमंडल (पल्लव क्षेत्र) पर पल्लवों के पूर्व नागों का अधिकार था, जो सातवाहनों के विशाल साम्राज्य के दक्षिण-पूर्वी भाग के स्वामी थे। संभवतः राज्य स्थापना के प्रारंभिक वर्षों में पल्लव सातवाहनों के अधीन शासन कर रहे थे। किंतु कालांतर में उन्होंने तोंडमंडलम् को अपनी स्वतंत्र राजनैतिक गतिविधियों का केंद्र बनाकर अपनी शक्ति का विस्तार किया और काँची को अपनी राजधानी बनाई। पल्लव राज्य में मूलतः तमिलनाडु के संपूर्ण चिंगलपेट एवं दक्षिणी अर्काट जिले, तंजावुर तथा तिरुचिरापल्ली जिलों के कुछ भाग तथा कर्नाटक का बेल्लारी जिला शामिल थे। बादामी के चालुक्यों की भाँति प्रतिभाशाली पल्लव शासकों ने न केवल एक विस्तृत साम्राज्य का निर्माण किया, बल्कि साहित्य एवं कला को भी अभूतपूर्व संरक्षण प्रदान किया। वृषभ एवं सिंह उनके राजकीय चिन्ह थे, जिनका अंकन इस राजवंश के सिक्कों पर मिलता है। प्रारंभिक पल्लव राजाओं ने आंध्र-सातवाहनों के अनुकरण पर ताँबे के सिक्के जारी किये, जिनके पृष्ठ भाग पर जहाज का अंकन मिलता है जो तत्कालीन सामुद्रिक व्यापार का सूचक है।
ऐतिहासिक साधन
साहित्यिक स्रोत
पल्लव राजवंश के इतिहास-निर्माण के लिए पर्याप्त साहित्यिक एवं पुरातात्त्विक सामग्री उपलब्ध है। साहित्यिक स्रोतों में संस्कृत ग्रंथ ‘अवतिसुंदरीकथासार’ तथा ‘मत्तविलासप्रहसन’ विशेष महत्वपूर्ण हैं। महाकवि दंडी की रचना अवतिसुंदरीकथासार में पल्लव नरेश सिंहविष्णु और उसके समकालीन शासकों के साथ-साथ तत्कालीन राजनीतिक एवं सांस्कृतिक स्थिति के संबंध में भी सूचनाएँ मिलती हैं। संस्कृत साहित्य के प्राचीनतम् प्रहसन मत्तविलासप्रहसन की रचना पल्लव नरेश सिंहविष्णु के पुत्र महेंद्रवर्मन् प्रथम ने सातवीं शताब्दी ईस्वी के पूर्वार्द्ध में की थी। अपनी लघुता के बावजूद यह प्रहसन अत्यंत रोचक है और तत्कालीन सामाजिक एवं धार्मिक दशा की जानकारी का महत्त्वपूर्ण साधन है।
पल्लवों के इतिहास-निर्माण में तमिल काव्य ‘नंदिकलम्बकम्’ की उपादेयता भी महत्वपूर्ण है। इस तमिल काव्य में पल्लव शासक नंदिवर्मन् तृतीय के जीवन चरित और उपलब्धियों के साथ-साथ काँची की भी सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति का वर्णन मिलता है। पल्लवों के इतिहास-निर्माण में उपर्युक्त ग्रंथों के साथ-साथ जैनग्रंथ ‘लोकविभाग’ और बौद्धग्रंथ ‘महावंश’ भी बहुत उपयोगी हैं। करणानुयोग से संबंधित लोकविभाग में भूगोल एवं खगोलविद्या का वर्णन है। इस ग्रंथ की रचना प्रसिद्ध जैनाचार्य भट्टारक सिंहसूरि ने की थी, जो सिंहनंदि या सिंहकीर्ति के नाम से भी प्रसिद्ध हैं। लोकविभाग मूलतः प्राकृत भाषा में था, जिसकी रचना मुनि सर्वनंदि ने की थी, किंतु प्राकृत लोकविभाग संप्रति उपलब्ध नहीं है। लोकविभाग में नरसिंहवर्मन् के शासन तक की सूचनाएँ मिलती हैं। बौद्धग्रंथ महावंश, दीपवंश की भाँति एक इतिहास ग्रंथ है, जिसकी रचना महानाम स्थविर ने लगभग ईसा की पाँचवीं शताब्दी के अंतिम भाग या छठी शताब्दी ईस्वी के आरंभ में की थी। इसमें मूलरूप में सिंहल (श्रीलंका) के इतिहास का निरूपण किया गया है, किंतु इससे पल्लव राजवंश के प्रारंभिक नरेशों की तिथि निर्धारित करने में भी सहायता मिलती है।
साहित्यिक ग्रंथों के साथ-साथ चीनी यात्री ह्वेनसांग का यात्रा-वृतांत भी पल्लवों के इतिहास-निर्माण में उपयोगी है। ह्वेनसांग ने नरसिंहवर्मन् शासनकाल में 640-41 ई. में पल्लवों की राजधानी काँची की यात्रा की थी। उसने समकालीन काँची नरेश को ‘महान राजा’ (ग्रेट किंग) कहकर संबोधित किया है और काँची की समृद्धि की चर्चा की है। काँची के विषय में उसने लिखा है कि इसका क्षेत्रफल लगभग 30 ली (लगभग 8 किमी) था। भूमि उपजाऊ थी और बराबर जोती-बोई जाती थी। इसने पल्लव राज्य का क्षेत्रफल 6,000 ली बताया है। काँची में सौ से अधिक बौद्ध विहार थे, जिनमें स्थविर महायानी संप्रदाय के लगभग 13,000 साधु रहते थे। काँची में स्थित बौद्धेतर लगभग 80 मंदिरों में, अधिकांशतः जैन संप्रदाय के लोग रहते थे। पल्लव राजधानी से थोड़ी दूर लगभग 30 मीटर (100 फीट) ऊँचा एक महाविहार था। ह्वेनसांग के अनुसार प्रसिद्ध बौद्ध आचार्य धर्मपाल काँची का निवासी और इस देश के प्रधानमंत्री का पुत्र था।
पुरातात्त्विक स्रोत
पल्लवों के इतिहास-निर्माण में साहित्यिक स्रोतों की अपेक्षा पुरातात्त्विक स्रोत अधिक विश्वसनीय हैं। पुरातात्त्विक स्रोतों में अभिलेख सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं, जो प्राकृत और संस्कृत भाषा में शिलाओं, ताम्रफलकों तथा मुद्राओं पर अंकित हैं। प्राकृत लेख प्रायः तीसरी शती ईस्वी के मध्यकाल से चौथी के मध्यकाल तक से संबंधित हैं, जबकि संस्कृत लेख चौथी शती ईस्वी के मध्यकाल से लेकर छठी शती ईस्वी तक के बीच के हैं। प्राकृत लेखों में शिवस्कंदवर्मा के मायिडवोलु ताम्रपट्टलेख और हीरहडगल्लि लेख अत्यंत महत्वपूर्ण तथा प्राचीनतम् हैं। हीरहडगल्लि लेख में शिवस्कंदवर्मन् के शासनकाल के आठवें वर्ष का है, जिसमें उसे अनेक यज्ञों का अनुष्ठानकर्ता बताया गया है।
विष्णुगोप तथा उसके बाद के पल्लव शासकों के इतिहास निर्माण में वैलूरपाल्यम लेख, उदयेंदिरम ताम्रलेख, सक्रेपटन ताम्रलेख, कशाक्कुडि लेख, नरसिंहल्लूर लेख (अर्काट जिले के नरसिंहनल्लूर से प्राप्त), चेर्जला लेख, पेरियकोलप्पाडि लेख, रेयूर लेख, कूरम लेख, कैलाश मंदिर लेख, चेंगम तालुके से प्राप्त नरसिंहवर्मन् द्वितीय के छः अभिलेख, कोरैगुडी लेख, बाहूर लेख, नंदिवर्मन् द्वितीय के शासनकाल का महाबलिपुरम लेख, तोंडमंडलम् से प्राप्त अपराजित के लेख, करंडै लेख तथा मेलपट्टि आदि लेखों से सहायता मिलती है।
पल्लव अभिलेखों के अतिरिक्त समकालीन चालुक्य, राष्ट्रकूट तथा चोल राजाओं के लेखों से भी पल्लवों के इतिहास पर प्रकाश पड़ता है। इस दृष्टि से विक्रमादित्य प्रथम का गदवल लेख, राष्ट्रकूट गोविंद तृतीय का तुंगभद्रा दानपत्र, बाण शासक पृथ्वीपति द्वितीय का उदयेंदिरम दानपत्र लेख, राजेंद्र चोल का तिरुवालंगाडु दानपत्र, कीर्तिवर्मा द्वितीय तथा केंदूर दानपत्र लेख विशेष रूप से उपयोगी हैं। पल्लवों के अधीन अथवा अर्द्धस्वतंत्र पश्चिमी गंगों, पश्चिमी चालुक्यों, पांड्यों, मुत्तरैयर के लेख भी पल्लवों के इतिहास-संरचना में सहायक हैं।
अभिलेखों के साथ-साथ सिक्के प्राचीन भारतीय इतिहास निर्माण के अमूल्य साधन है, किंतु दक्षिण भारत से उपलब्ध प्राचीन सिक्के आकार-प्रकार में इतने छोटे हैं कि उन पर उत्कीर्ण अक्षरों को पढ़ पाना कठिन है। अधिकतर सिक्कों पर लेखों का अभाव है और उन पर उत्कीर्ण आकृतियाँ अस्पष्ट हैं। इसके बावजूद, इन सिक्कों से पल्लवों के इतिहास निर्माण में कुछ सहायता मिलती है। पल्लवों ने आंध्र सातवाहनों की अनुकृति पर ताँबे के सिक्के प्रचलित किये, जिनके पृष्ठ भाग पर अंकित मस्तूलयुक्त जहाज उनकी समुद्री शक्ति एवं समुद्री व्यापार की आसाधारण प्रगति का सूचक है।
पल्लवों की उत्त्पत्ति
पल्लवयुगीन अभिलेखों में पल्लवों को प्रायः भारद्वाज गोत्रोत्पन्न तथा अश्वत्थामा का वंशज बताया गया है। किंतु इनमें कहीं भी स्पष्टतः उनकी उत्पत्ति अथवा उनके मूलनिवास की चर्चा नहीं की गई है। इसलिए अन्य प्राचीन राजवंशों की भाँति पल्लवों की उत्पत्ति एवं मूलस्थान के संबंध में इतिहासकारों में विवाद है। इतिहासकारों का एक वर्ग पल्लवों को विदेशी और दूसरा वर्ग भारतीय मूल से संबंधित सिद्ध करने का प्रयास करता है।
पल्लवों की विदेशी उत्पत्ति संबंधी सिद्धांत
पल्लवों को विदेशी मानने वाले इतिहासकार दो वर्गों में विभाजित हैं। इतिहासकारों के एक वर्ग के अनुसार पल्लव तमिल देश की जनजाति हैं अथवा श्रीलंका के निवासी हैं, जबकि दूसरा वर्ग पल्लवों को फारस या पार्थिया का निवासी मानता है।
सी.आर. मुदालियर के अनुसार संगमयुगीन तमिल काव्य ‘मणिमेकलै’ के आधार पर मानते हैं कि पल्लव सिंहल के दक्षिणी भाग में रहने वाले तमिल थे और वे प्रारंभिक चोलों एवं चोड नागवंश से संबंधित थे। उनके अनुसार तोंडमंडलम् के चोल शासक किल्लिवन (नेडुमुडि-किल्ली) ने श्रीलंका के मणिपल्लव नरेश की नागवंशीया कन्या के साथ विवाह किया, जिससे तोंडैमान इलंतिरैयन नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। इलंतिरैयन दूसरी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में तोंडमंडलम् का राजा हुआ और उसने काँची को राजधानी बनाया। इलंतिरैयन के वंशज, उसकी माता के जन्म-स्थान ‘मणिपल्लव’ के नाम से प्रसिद्ध हुए और कालांतर में उनका नाम केवल ‘पल्लव’ रह गया। इस प्रकार मुदालियर के अनुसार पल्लवों में पितृपक्ष की ओर से उरैयूर के चोलवंश और मातृपक्ष की ओर से श्रीलंका के नागवंश के रक्त का मिश्रण था।
वी.ए. स्मिथ ने भी आरंभ में पल्लवों को तमिल राज्य में निवास करने वाली एक जनजाति बताया था, जो नागवंश से संबंधित थी। किंतु बाद में उन्होंने पल्लवों को श्रीलंका का आदि निवासी मान लिया। स्मिथ के अनुसार पल्लव मूलतः श्रीलंका के निवासी थे, किंतु कालांतर में अपनी शक्ति बढ़ाकर पल्लवों ने सुदूर दक्षिण के चोलों, चेरों को विजित कर काँची पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार पल्लवों में भारतीय एवं विदेशी जनजातियों के रक्त का मिश्रण था। इसी प्रकार एम.एस. रामस्वामी आयंगर के अनुसार पल्लव तमिल राज्य या सिंहल के मूलनिवासी थे और उनका प्रारंभिक नाम ‘तिरैयर’ था।
किंतु कोई ऐसा साक्ष्य या प्रमाण नहीं है जिससे पता चलता हो कि पल्लव श्रीलंका के मूलनिवासी थे और कालांतर में काँची को अपनी शक्ति का केंद्र बनाये। पल्लव अभिलेखों से भी इस प्रकार की कोई सूचना नहीं मिलती है। इसी प्रकार पल्लवों में विदेशी तथा भारतीय जनजातियों के रक्त-मिश्रण का भी कोई ठोस प्रमाण नहीं है। पल्लव शासकों की वंशावली में इलंतिरैयन नामक किसी आदि पूर्वज का नाम नहीं मिलता। मणिमेकलै में इलंतिरैयन को तमिल भाषा का कवि एवं तमिल साहित्य का संरक्षक बताया गया है, जबकि आरंभिक पल्लव शासक प्राकृत भाषा के संरक्षक थे।
पार्थिया के मूलनिवासी
बी.एल. राइस, डुब्रील, वी. वेंकैय्या, स्वामीनाथ अय्यर, सी.आर. श्रीनिवासन जैसे इतिहासकारों के अनुसार पल्लवों का मूल देश पार्थिया था। इन विद्वानों के अनुसार पल्लव प्राचीन पार्थिया के पह्लवों से संबंधित हैं। इस मान्यता का सर्वप्रमुख आधार पल्लव और पह्लव शब्दों की ध्वनि साम्यता है। इन विद्वानों के अनुसार प्रथम शताब्दी में शकों, यवनों आदि विदेशी जातियों के साथ पल्लव (पह्लव) भी भारत में प्रविष्ट हुए और सिंधु घाटी तथा पश्चिमी भारत में बस गये। कालांतर में आंध्र-सातवाहनों की शक्ति क्षीण होने पर उन्होंने तोंडैमंडलम् पर अधिकार कर लिया। भारत में बहुत समय तक रहने के कारण उन्होंने यहाँ की अनेक सांस्कृतिक परंपराओं को भी अपना लिया।
बी.वी. कृष्णराव के अनुसार पल्लव पहले आनर्त तथा कोंकण में बसे और वहीं से वे कुंतल या बनवासी होते हुए दक्षिणापथ में गये। डुब्रील का विचार है कि शक शासक रुद्रदामन् प्रथम के 150 ई. के जूनागढ़ अभिलेख में वर्णित पह्लव गवर्नर सुविशाख ने ही काँची के सुप्रसिद्ध पल्लव राजवंश की स्थापना की थी। इसलिए उसे पल्लव राजवंश का संस्थापक राजा माना जा सकता है। काँची के बैकुंठपेरुमाल मंदिर की एक दीवार पर उत्कीर्ण शिल्प में पल्लव शासक नंदिवर्मन् द्वितीय के शीर्ष पर इंडोग्रीक शासक डेमेट्रियस की भाँति ही गजशीष निर्मित है। इस आधार पर भी कुछ विद्वान पल्लवों को पह्लवों से संबंधित कऱने का प्रयास करते हैं।
स्वामीनाथ अय्यर के अनुसार पल्लवों का प्रारंभिक नाम ‘तिरैयर’ था जो फारसी के द्रय, दरय या दरिया शब्दों से निष्पन्न है, जिसका अर्थ ‘नाविक’ है। ‘तिरैयर’ फारसी शब्द है, इसलिए ‘पल्लव’ अर्थात् तिरैयर भी फारस के मूलनिवासी प्रतीत होते हैं। इसी प्रकार फादर हेरास का सुझाव है कि पल्लवों के सिक्कों के पृष्ठभाग पर उत्कीर्ण सूर्य और चंद्र की आकृतियाँ फारस के पार्थियन राजाओं के सिक्कों से ली गई लगती हैं।
किंतु मात्र ध्वनि साम्य के आधार पर पल्लव और पह्लव को एक नहीं माना जा सकता है। पल्लव शासकों के किसी अभिलेख या समकालीन किसी अन्य स्रोत में पह्लव शब्द का प्रयोग नहीं मिलता है। किसी प्रमाण से यह सिद्ध नहीं होता है कि पल्लव शब्द पह्लव का पर्याय है। यही नहीं, राजशेखर ने ‘काव्यमीमांसा’ में पल्लवों और पह्लवों को दो अलग-अलग जनजाति बताते हुए पह्लवों को उत्तरापथ में और पल्लवों को माहिष्मती से आगे दक्षिणापथ का निवासी बताया है। रुद्रदामन् प्रथम के मंत्री सुविशाख को पल्लवों का पूर्वज नहीं माना जा सकता है क्योंकि पल्लव वंश-तालिका में इसका कहीं कोई उल्लेख नहीं है। नंदिवर्मन् द्वितीय के मुकुट की डेमेट्रियस के मुकुट से समानता के आधार पर भी पल्लवों का पह्लवों से जोड़ऩा उचित नहीं है। समुद्रगुप्त अपने प्रारंभिक सिक्कों पर प्रायः कुषाण वेशभूषा में दिखाया गया है, किंतु इस आधार गुप्तों का संबंध कुषाणों से नहीं जोड़ा जाता है। शक, पह्लव जैसी विदेशी शक्तियों के अश्वमेध यज्ञ करने के प्रमाण नहीं मिलते हैं, जबकि पल्लवों को ‘अश्वमेधयाजिन’ बताया गया है। फादर हेरास का यह कहना कि पल्लवों का प्रारंभिक नाम तिरैयर था और तिरैयर फारसी शब्द द्रय, दरय या दरिया से निष्पन्न है, कल्पना मात्र है।
भारतीय उत्त्पत्ति-विषयक मत
पल्लवों की विदेशी उत्पत्ति के सिद्धांतों के विपरीत काशीप्रसाद जायसवाल, एस.के. आयंगर, आर. गोपालन, दिनेशचंद्र सरकार, के.ए. नीलकंठ शास्त्री टी.वी. महालिंगम जैसे अनेक इतिहासविदों का एक बड़ा वर्ग पल्लवों को विदेशी न मानकर उन्हें भारतीय मूल से संबद्ध मानता है, यद्यपि इन इतिहासकारों ने पल्लवों का संबंध अलग-अलग कुलों से सिद्ध करने का प्रयास किया है। के.पी. जायसवाल के अनुसार पल्लव वाकाटकों की ही एक शाखा थे क्योंकि पल्लव और वाकाटक दोनों भारशिव नागों से संबंधित थे। जायसवाल के अनुसार पल्लव वंश के प्रथम शासक का नाम या उपाधि ‘वीरकूर्च’ थी। वीरकूर्च ने एक नाग राजकुमारी के साथ विवाह कर आंध्र क्षेत्र में अपनी सत्ता स्थापित की थी। वैलूरपाल्यम् अभिलेख से भी पता चलता है कि वीरकूर्च के पूर्वज नागों के मित्र थे और उनसे संबद्ध थे।
संगमयुगीन तमिल काव्य ‘मणिमेकलै’ के आधार पर एस.के. आयंगर, आर.आर. आयंगर, आर. मुदालियर, एन. सुब्रमण्यम जैसे विद्वान पल्लवों को तमिल राज्य का मूलनिवासी मानते हैं। इनके अनुसार ‘पल्लव’ शब्द ‘तोंडैयर’ तथा ‘तोंडमान’ का पर्याय है। एस.के. आयंगर लिखते हैं कि पल्लव सातवाहनों के सामंत थे और सातवाहनों के पतन के बाद इन सामंतों ने तोंडमान सामंतों से पृथक पल्लवों के एक नवीन राजवंश की स्थापना की। आर. गोपालन और सी. मीनाक्षी आंध्र राज्य को पल्लवों का आदि देश मानते हैं, क्योंकि पल्लवों के प्राचीनतम अभिलेख आंध्र प्रदेश से ही मिले हैं। इनके अनुसार भी पल्लव सातवाहनों के सामंत थे। एन. सुब्रमण्यम भी पल्लवों को भारतीय मानते हुए नागों एवं चोलों से संबंधित करते हैं।
आर. सथियनथायर एवं डी.सी. सरकार पल्लवों को भारतीय मानकर इन्हें तोंडैमंडलम् का निवासी मानते हैं, जिनका उल्लेख मौर्य सम्राट अशोक के अभिलेखों में ‘पलद’ या ‘पुलिंद’ के नाम से हुआ है। संभवतः पलद या पुलिंद तोंडैमंडलम की कुरुम्ब जनजाति से संबंधित थे। इन विद्वानों के अनुसार तोंडैयर पल्लव का तमिल रूपांतर है। डी.सी. सरकार का यह भी अनुमान है कि इस भू-भाग के दो प्राचीन क्षेत्र पुलिनाडु तथा पुलियूरकोट्टम भी पल्लवों से संबंधित हैं।
अलेक्जेंडर रे का विचार है कि संस्कृत के विद्वानों ने तमिल शब्द पालअविल को बिगाड़ कर पल्लव में परिवर्तित कर दिया। तमिल भाषा में पाल का अर्थ दूध और अविल का अर्थ दुहना है। इस प्रकार पालअविल जनजाति प्रारंभ में गोपालन द्वारा अपना जीवन निर्वाह करती थी। कालांतर में उसने शक्ति बढ़ाकर अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया। इन्होंने अपनी प्रारंभिक स्थिति की स्मृति में अपने वंश का नाम पालवन रखा, जो बाद में पल्लव हो गया। रिजले के अनुसार बंगाल में पल्लव नामक ग्वालों की एक उपजाति है।
के.ए. नीलकंठ शास्त्री के अनुसार कदंब और चुटु राजवंशों की भांति पल्लव मूलतः उत्तर भारत के निवासी थे। बाद में उन्होंने दक्षिण भारत में जाकर वहाँ की संस्कृति और परंपराओं को अपना लिया। टी.वी. महालिंगम पल्लवों को वेंगी के शालंकायनों से संबंधित करते हैं क्योंकि दक्षिण भारत के राजवंशों में पल्लवों के अतिरिक्त केवल शालंकायनों का ही गोत्र भारद्वाज था। इन दोनों राजवंशों में स्कंदवर्मन्, बुद्धवर्मन् तथा नंदिवर्मन् नाम के शासक हुए। दोनों का ध्वज-चिह्न वृषभ था और दोनों राजवंशों के अभिलेखों में एक ही लिपि (वेंगी लिपि) का प्रयोग किया गया है। इसके साथ ही, दोनों के प्रारंभिक अभिलेख प्राकृत में और बाद वाले लेख संस्कृत भाषा में हैं।
किंतु पल्लव न तो भारशिव नागों से संबंधित थे और न वाकाटकों अथवा शालंकायनों से। वाकाटक विष्णुवृद्धि गोत्र के ब्राह्मण थे जबकि पल्लवों को भारद्वाज गोत्रीय बताया गया है। कूर्च या वीरकूर्च को भी पल्लव वंश का संस्थापक नहीं माना जा सकता, क्योंकि पल्लव अभिलेखों में कहीं इस नाम का उल्लेख नहीं है। पल्लवों का उदय वाकाटकों के बाद नहीं, प्रायः उनके साथ ही हुआ था। पल्लव शब्द को पालअविल का विकृत रूप मानना और गोपालन से संबंधित करना भी एक कल्पनामात्र है। पल्लवों को तोंडैमंडलम् के कुरुम्बों से अथवा अशोक के अभिलेखों में वर्णित पुलद या पुलिंदों से जोड़ने के लिए भी कोई निश्चित प्रमाण नहीं है। यह मत भी स्वीकार करना कठिन है कि पल्लव उत्तर भारत के मूलनिवासी थे और बाद में वे दक्षिण भारत में बस गये।
संभवतः पल्लव दक्षिण भारत के ही मूलनिवासी थे। आरंभ में वे आंध्र राज्य में सातवाहनों के अधीन सामंत या पदाधिकारी थे। सातवाहन सत्ता के अवसान के बाद उन्होंने तोंडैमंडलम् क्षेत्र में अपने स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। सातवाहन सत्ता से संबद्ध होने के कारण और उन्हीं के साम्राज्य के अवशेषों पर अपनी शक्ति प्रतिष्ठित करने के कारण पल्लवों ने आरंभ में सातवाहनों द्वारा प्रयुक्त प्राकृत भाषा और उनकी शासन-पद्धति को अपनाया। यद्यपि पल्लवों के अभिलेखों में उन्हें भारद्वाज गोत्र का ब्राह्मण और अश्वत्थामा का वंशज बताया गया है। किंतु कदंब शासक शांतिवर्मन् के तालगुंड स्तंभलेख में उन्हें क्षत्रिय कहा गया है। पल्लव शासकों के नाम के अंत में प्रयुक्त ‘वर्मन्’ शब्द से भी लगता है कि वे क्षत्रिय रहे होंगे। संभवतः वे काँची की नाग जनजाति से भी संबंधित रहे होंगे।
पल्लवों के प्रारंभिक अभिलेख कृष्णा और गोदावरी नदियों के बीच के क्षेत्रों से ही मिले हैं। मायिडवोलु, हीरहडगल्लि एवं कुछ अन्य प्रारंभिक अभिलेख सातवाहन क्षेत्र (कर्नाटक के धारवाड़ एवं बेल्लारी जिले) पर पल्लवों के अधिकार के सूचक हैं। बाद में पल्लवों ने दक्षिण की ओर बढ़कर अपनी सत्ता का विस्तार किया और तमिल राज्य को जीत कर काँची को अपनी राजधानी बनाया।
पल्लव राजवंश के प्रारंभिक शासक
प्रारंभिक पल्लव शासकों के संबंध में मुख्यतः उनके अभिलेखों से ही जानकारी मिलती है। पल्लव अभिलेखों को दो वर्गों में विभाजित किया गया है- प्राकृत भाषा के अभिलेख और संस्कृत भाषा के अभिलेख। प्रारंभिक अभिलेख प्राकृत भाषा में हैं और बाद के लेख संस्कृत में। दिनेशचंद्र सरकार ने पल्लवों के प्राकृत अभिलेखों को 250 तथा 350 ई. के बीच में रखा है और संस्कृत अभिलेखों को 350 से 575 ई. के बीच। उनकी मान्यता है कि उपर्युक्त दोनों वर्गों के अभिलेखों में वर्णित पल्लव शासकों में से कुछ केवल युवराज ही रहे और उन्होंने स्वतंत्र रूप से संभवतः कभी शासन नहीं किया। पल्लव अभिलेखों में विभिन्न पल्लव शासकों के केवल शासन के वर्षों का उल्लेख मिलता है; इनमें किसी संवत् का प्रयोग नहीं हुआ है। इसलिए प्रारंभिक पल्लव राजाओं के तिथिक्रम का निर्धारण मुख्यतः उनके अभिलेखों में प्रयुक्त भाषा और लिपि के आधार पर ही किया गया है। गुप्त शासक समुद्रगुप्त ने 350 ई. के लगभग पल्लव विष्णुगोप को पराजित किया था। इस आधार पर न केवल विष्णुगोप का, वरन् उसके पूर्ववर्ती तथा परवर्ती शासकों का तिथिक्रम भी मोटे तौर पर निर्धारित किया जा सकता है।
जैन ग्रंथ लोकविभाग की रचना 458 ई. में पल्लव सिंहवर्मन् के शासन के 22वें वर्ष में हुई थी। इस प्रकार उसके राज्यकाल का प्रारंभ 436 ई. के आस-पास माना जाता है। कदंब शासक शांतिवर्मा के तालगुंड अभिलेख में और पश्चिमी गंगों के पेनुगोंड ताम्रपत्रों में कहा गया है कि दो गंग राजाओं (माधववर्मन् द्वितीय तथा माधववर्मन् तृतीय) का राज्याभिषेक पल्लव शासक सिंहवर्मन् तथा उसके पुत्र स्कंदवर्मन् ने किया था। पेनुगोंड ताम्रपत्रों की लिपि के आधार पर इन पल्लव शासकों को 5वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में रखा जा सकता है।
नंदिवर्मन् तृतीय के वैलूरपाल्यम् ताम्रपत्रों में वर्णित पल्लव शासकों की लंबी सूची में एक नाम अशोकवर्मन् का भी है। कुछ विद्वानों ने उसका समीकरण मौर्य सम्राट अशोक से किया है और इस आधार पर भी पल्लवों के अभ्युदय की तिथि निर्धारित करने का प्रयास किया है, किंतु यह एकीकरण संभव नहीं है।
पल्लव राजवंश के प्रमुख शासक
शिवस्कंदवर्मन् (चतुर्थ शताब्दी ई.)
प्राकृत भाषा के ताम्रलेखों से पता चलता है कि पल्लव वश का प्रथम शासक सिंहवर्मन् था, जिसने तृतीय शताब्दी ई. के अंतिम चरण में शासन किया था। उसका उत्तराधिकारी शिवस्कंदवर्मन् चतुर्थ शताब्दी ईस्वी के प्रारंभ में शासक हुआ, जो प्रारंभिक पल्लव शासकों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं शक्तिशाली था। मायिडवोलु अनुदानपत्र में उसके पिता को बप्पदेव कहा गया है। दिनेशचंद्र सरकार के अनुसार यहाँ ‘बप्प’ का अर्थ केवल पिता है, क्योंकि ‘बप्प’ शब्द का प्रयोग पिता के अर्थ में अन्य कई अभिलेखों में भी मिलता है। आंध्र राज्य के गुंटूर जिले से प्राप्त सिंहवर्मन् नामक शासक के प्राकृत अभिलेखों की लिपि आंध्र के इक्ष्वाकुओं के अभिलेखों की लिपि से काफी मिलती-जुलती है और शिवस्कंदवर्मन् के पहले का है। दिनेशचंद्र सरकार का अनुमान है कि सिंहवर्मन् शायद शिवस्कंदवर्मन् का पिता था और उसने तृतीय शताब्दी के अंतिम चरण में राज्य किया होगा। किंतु यह भी असंभव नहीं है कि शिवस्कंदवर्मन् के पिता का नाम बप्पदेव रहा हो।
मायिडवोलु अभिलेख में शिवस्कंदवर्मन् को ‘महाराज’ तथा ‘भारद्वाज गोत्रीय ब्राह्मण’ कहा गया है। इसमें धान्यकटक में विद्यमान आंध्रपथ के प्रांतीय शासकों को दिये गये बप्पदेव के आदेशों का वर्णन है। हीरहडगल्लि अभिलेख शिवस्कंदर्मन के शासन के आठवें वर्ष में काँची से निर्गत किया गया था। इसमें उसे ‘धर्ममहाराज’ की उपाधि दी गई है और उसे अश्वमेध, वाजपेय तथा अग्निष्टोम आदि यज्ञों का अनुष्ठानकर्ता बताया गया है। इस प्रकार लगता है कि शिवस्कंदवर्मन् एक स्वतंत्र एवं शक्तिशाली शासक था। उसके राज्य में कृष्णा एवं तुंगभद्रा नदियों की घाटी, कुंतल और संभवतः दक्षिणी मैसूर का गंग क्षेत्र भी सम्मिलित था। इस समय मैसूर के गंग और बनवासी के कदंब पल्लवों की अधीनता स्वीकार करते थे। पल्लवों ने कृष्णा और गुंटूर क्षेत्र इक्ष्वाकु शासकों से अपहृत किये होंगे।
स्कंदवर्मन् (श्रीविजय स्कंदवर्मन्)
शिवस्कंदवर्मन् के बाद संभवतः स्कंदवर्मन् (श्रीविजय स्कंदवर्मन्) ने शासन किया। इसके शासनकाल का एकमात्र अभिलेख गुंटूर से मिला है जो इस समय ब्रिटिश म्यूजियम में है। इस लेख में युवराज बुद्धवर्मन् की पत्नी चारूदेवी द्वारा दिये गये दान का उल्लेख है और प्रसंगतः बुद्धयांकुर की भी चर्चा है। बुद्धयांकुर संभवतः बुद्धवर्मन् का पुत्र था, किंतु बुद्धवर्मन् एवं स्कंदवर्मन् का पारस्परिक संबंध अज्ञात है।
डी.सी. सरकार मायिडवोलु एवं हीरहडगल्लि अभिलेखों के शिवस्कंदवर्मन् और ब्रिटिश म्यूजियम अभिलेख के स्कंदवर्मन् को एक ही शासक मानते हैं। उनके अनुसार शिव केवल आदर सूचक शब्द है जो स्कंदवर्मन् के नाम से पहले जोड़ दिया गया है। किंतु सरकार के मत से सहमत होना कठिन है। शिवस्कंदवर्मन् और स्कंदवर्मन् दो पृथक शासक प्रतीत होते हैं और स्कंदवर्मन् ने शिवस्कंदवर्मन् के बाद में राज्य किया होगा।
विष्णुगोप (350 ई.)
काँची के पल्लव वश का चौथा शासक संभवतः विष्णुगोप (350 ई.) था, जिसका उल्लेख समुद्रगुप्त की प्रयाग-प्रशस्ति में मिलता है (कांचेयविष्णुगोप)। विष्णुगोप पहला पल्लव शासक है जिसका नाम संस्कृत व प्राकृत दोनों भाषाओं के अभिलेखों में मिलता है। प्रयाग-प्रशस्ति से पता चलता है कि समुद्रगुप्त ने अपने दक्षिणापथ अभियान के दौरान विष्णुगोप को पराजित किया था। डुब्रील जैसे कुछ विद्वानों के अनुसार विष्णुगोप के नेतृत्व में दक्षिण भारत के राजाओं के संघ ने समुद्रगुप्त को पराजित कर दिया था। किंतु यह मत निराधार है क्योंकि प्रयाग-प्रशस्ति में विष्णुगोप की पराजय का स्पष्ट उल्लेख है और किसी स्रोत में विष्णुगोप अथवा दक्षिण के किसी शासक द्वारा समुद्रगुप्त को पराजित करने का कोई संकेत नहीं मिलता है।
समुद्रगुप्त का समकालीन होने के कारण विष्णुगोप की तिथि मोटे तौर पर 340 तथा 350 ई. के बीच मानी जा सकती है। किंतु प्राकृत अभिलेखों में वर्णित पल्लव शासकों से विष्णुगोप के संबंध का ज्ञान नहीं है।
विष्णुगोप (लगभग 350 ई.) और सिंहवर्मन् (लगभग 550 ई.) के बीच के 200 वर्षों के काल में आठ पल्लव राजाओं के नाम मिलते हैं- कुमारविष्णु प्रथम, बुद्धवर्मन्, कुमारविष्णु द्वितीय, स्कंदवर्मन् द्वितीय, सिंहवर्मन्, स्कंदवर्मन् तृतीय, नंदिवर्मन् प्रथम तथा शंतिवर्मन् चंददंड। इन राजाओं के संबंध में अधिक जानकारी नहीं है। कुछ विद्वानों का अनुमान है कि विष्णुगोप की पराजय के बाद काँचीनगर पल्लव राज्य से अलग हो गया और कुमारविष्णु प्रथम ने इस पर पुनः अपना अधिकार किया था। चेंदलूर अनुदानपत्र के अनुसार कुमारविष्णु स्कंदवर्मन् का पुत्र था, किंतु यह स्पष्ट नहीं है कि कुमारविष्णु का पिता वही स्कंदवर्मन् है जिसका उल्लेख ब्रिटिश म्यूजियम लेख में है।
वैलूरपाल्यम् अभिलेख में बुद्धवर्मन् को ‘चोल सेना के लिए बड़वानल’ कहा गया है। इससे लगता है कि उसके राज्यकाल में चोलों ने काँची पर आक्रमण किया होगा। किंतु यह निश्चित नहीं है कि कुमारविष्णु प्रथम ने अपने पारिवारिक प्रतिद्वंदियों से काँची को पुनः प्राप्त किया था अथवा चोलों से। कुमारविष्णु द्वितीय और स्कंदवर्मन् द्वितीय के विषय में कुछ विशेष ज्ञान नहीं है। उदयेंदिरम ताम्रपत्र में नंदिवर्मन् द्वितीय को स्कंदवर्मन् द्वितीय का प्रपौत्र कहा गया है।
सिंहवर्मन् प्रथम (458-500 ई.)
स्कंदवर्मन् द्वितीय के पश्चात् सिंहवर्मन् प्रथम (458-500 ई.) राजा हुआ। जैन ग्रंथ लोकविभाग की रचना शक संवत् के वर्ष 380 (458 ई.) के लगभग हुई थी जो सिंहवर्मन् के शासन का 22वाँ वर्ष था। इस आधार पर सिंहवर्मन् का राज्यारोहण 436 ई. में माना जा सकता है।
सिंहवर्मन् के राज्यकाल में बाण काफी शक्तिशाली हो गये थे। गंगों के पेनुकोंड अनदानपत्र से पता चलता है कि सिंहवर्मन् प्रथम ने बाणों से निपटने के लिए गंग शासक हरिवर्मन् (आर्यवर्मन्) का राजसिंहासन पर अभिषेक किया था। सिंहवर्मन् के अनुदानपत्र काँची के बजाय पीकिर, दशपुर तथा पलक्कड़ आदि सैनिक-शिविरों से जारी किये गये थे। इससे लगता है कि इस बीच काँची नगर चोलों के अधीन था और उसके भाई कुमारविष्णु को काँची पर पुनः अधिकार स्थापित करना पड़ा था।
सिंहवर्मन् के बाद स्कंदवर्मन् तृतीय ने शासन किया। पेनुकोंड ताम्रपत्र के अनुसार स्कंदवर्मन् तृतीय ने पश्चिमी गंग आर्यवर्मन् के पुत्र माधवसिंहवर्मन् द्वितीय का अभिषेक किया था।
नंदिवर्मन् प्रथम के विषय में कुछ ज्ञात नहीं है। अंतिम शासक शांतिवर्मन् के संबंध में पता चलता है कि उसने उच्छंगी शाखा के कदंब शासक विष्णुवर्मन् का राज्याभिषेक किया था। इन पल्लव राजाओं की उपलब्धियों आदि के बारे में अधिक सूचना नहीं है। अनुमानतः उन्होंने 458 से 500 ई. के बीच शासन किया होगा। छठी शताब्दी के प्रारंभ में काँची से जारी किये गये एक अभिलेख में काँची के राजा चंडदंड का उल्लेख है, जिसका कदंब शासक रविवर्मन् से युद्ध हुआ था।
सिंहवर्मन् द्वितीय
अभी हाल में ही सिंहवर्मन् द्वितीय के राज्यकाल के सक्रेपटन ताम्रलेख प्रकाश में आये हैं। इन ताम्रलेखों में पहली बार स्कंदवर्मन् द्वितीय से लेकर सिंहवर्मन् द्वितीय तक के चार पल्लव शासकों का वंशानुक्रम वर्णित है। सिंहवर्मन् द्वितीय के बाद इसका पुत्र सिंहविष्णु काँची के सिंहासन पर आसीन हुआ।
सिंहविष्णु (575-600 ई.)
काँची के महान पल्लवों की परंपरा सिंहवर्मन् द्वितीय के पुत्र सिंहविष्णु के समय से प्रारंभ होती है क्योंकि सिंहविष्णु (575-600 ई.) के राज्यारोहण के काल से पल्लव इतिहास की अस्पष्टता तथा अनिश्चितता समाप्त हो जाती है और इस राजवंश की महानता और गौरव का नया युग आरंभ होता है। सिंहविष्णु ने ‘अवनिसिंह’ की उपाधि धारण की, जो उसकी वीरता और शौर्य का द्योतक है।
कशाक्कुडि लेख के अनुसार सिंहविष्णु ने कलभ्रों, मालवों (अथवा मलय), चोलों, पांड्यों, केरलों तथा सिंहल के शासकों के साथ युद्ध किया और उनमें सफलता प्राप्त की। यद्यपि परंपरागत प्रशस्ति होने के कारण इन सभी सफलताओं का श्रेय सिंहविष्णु को नहीं दिया जा सकता है, किंतु अधिकांश विद्वान मानते हैं कि उसने कलभ्रों को पराजित किया था। मालवा की पहचान अनिश्चित है, किंतु लगता है कि इसका आशय मलय पर्वत-श्रृंखला से है, क्योंकि सुदूर मालवा क्षेत्र पर सिंहविष्णु की विजय असंभव है। चोलों पर उसकी सफलता की पुष्टि वैलूरपाल्यम लेख से होती है, जिसके अनुसार सिंहविष्णु ने तालवृक्षों से आवृत कावेरी नदी की घाटी को अपने राज्य में सम्मिलित किया था।
जहाँ तक पांड्यों का संबंध है, सिंहविष्णु का समकालीन पांड्य शासक कडुगोन (590-620 ई. लगभग) रहा होगा। किंतु कडुंगोन के विरुद्ध सिंहविष्णु को सफलता मिली अथवा नहीं, इस संबंध में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है।
कुछ विद्वानों का अनुमान है कि दक्षिणापथ की प्रभुसत्ता के लिए पल्लवों और चालुक्यों में संघर्ष का प्रारंभ सिंहविष्णु के शासनकाल के अंतिम भाग में ही हो गया था, किंतु किसी स्पष्ट प्रमाण के अभाव में इस मत को स्वीकार करना कठिन है। टी.वी. महालिंगम के अनुसार सिंहविष्णु का पश्चिमी गंग शासक दुर्विनीत के साथ भी संघर्ष हुआ था।
जो भी हो, इस बात के सबल प्रमाण हैं कि सिंहविष्णु का राज्य मद्रास (कन्नूर) से लेकर कुम्भकोनम तक फैला हुआ था। अपनी सफलताओं और विजयों के उपलक्ष्य में ही उसने अवनिसिंह की उपाधि धारण की थी। इसके पुत्र महेंद्रवर्मन् प्रथम ने अपनी रचना ‘मत्तविलासप्रहसन’ में उसकी अत्यधिक प्रशंसा की है और उसे महान शासक बताया है।
सिंहविष्णु वैष्णव धर्म का अनुयायी और कला का संरक्षक भी था। उसके शासनकाल में ही मामल्लपुरम् के आदिवराह गुहामंदिर का निर्माण किया गया था। इस मंदिर के एक शिल्प में राजा सिंहविष्णु की मूर्ति उसकी दो रानियों के साथ उत्कीर्ण है। इस विद्यानुरागी राजा के राजदरबार में संस्कृत के महान् कवि भारवि रहते थे। नरसिंहनेल्लूर अभिलेख से स्पष्ट है कि सिंहविष्णु ने कम से कम 33 वर्ष तक शासन किया था। इस अभिलेख में उसके लिए ‘शिंगविण्णु पेरुमार’ उपाधि का प्रयोग किया गया है। सिंहविष्णु ने लगभग 600 ई. तक राज्य किया था।
महेंद्रवर्मन् प्रथम (600-630 ई.)
सिंहविष्णु के बाद् उसका पुत्र महेंद्रवर्मन् प्रथम 600 ई. के आसपास शासक हुआ। कुछ विद्वानों के अनुसार 609 ई. में सिंहविष्णु ने महेंद्रवर्मन् (600-630 ई.) को कन्न्ड़ राज्य की विजय का नेतृत्व सौंपा था। जो भी हो, अपने पिता से प्राप्त छोटे से पल्लव राज्य को महेंद्रवर्मन् प्रथम ने अपनी कूटनीतिक क्षमता तथा सैन्य शक्ति के बल पर एक शक्तिशाली साम्राज्य के रूप में प्रतिष्ठित किया।
महेंद्रवर्मन् प्रथम की सामरिक उपलब्धियाँ
महेन्द्रवर्मन् प्रथम ने जिस पल्लव राज्य को उत्तराधिकार में प्राप्त किया था, वह उसकी विस्तारवादी महत्वाकांक्षा की दृष्टि से संतोषजनक नहीं था। फलतः दक्षिण भारत में अपनी प्रभुसत्ता की स्थापना के लिए उसे समकालीन साम्राज्यवादी शक्तियों- उत्तर-पश्चिम में वातापि के चालुक्यों और धुर दक्षिण में पांड्यों से संघर्ष करना पड़ा।
पल्लव-चालुक्य संघर्ष का आरंभ: महेंद्रवर्मन् के समय की एक महत्वपूर्ण घटना है- पल्लव-चालुक्य संघर्ष का आरंभ। इस समय उत्तर में वातापी के चालुक्य और दक्षिण में मदूरा के पांड्य काफी शक्तिशाली हो गये थे और अपनी-अपनी साम्राज्यवादी नीतियों के क्रियान्वयन में लगे थे। महेंद्रवर्मन् का समकालीन और प्रमुख प्रतिद्वंद्वी वातापी का चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय था। ऐहोल प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि चालुक्यों का उत्कर्ष पल्लवों को पसंद नहीं था। पल्लव-चालुक्य संघर्ष का तात्कालिक कारण चालुक्य नरेश पुलकेशिन् द्वितीय द्वारा बनवासी के कदंबों और गंगों को, जो पहले पल्लवों के सामंत थे, अपदस्थ कर वेंगी पर अधिकार कर अपने भाई विष्णुवर्द्धन को शासक नियुक्त करना था। चेर्जला अभिलेख से पता चलता है कि उसके शासन के प्रारंभ में आंध्र राज्य के वर्तमान गुंटूर जिले का क्षेत्र पल्लवों के अधीन था। किंतु 610 से 616 ई. के बीच इस भू-भाग को पुलकेशिन् द्वितीय ने अधिकृत कर लिया था। पल्लवों ने चालुक्यों की इस साम्राज्यवादी नीति का विरोध किया, जिसके कारण दानों वंशों के बीच शत्रुता का बीजारोपण हो गया।
ऐहोल प्रशस्ति (634-35 ई.) के अनुसार पुलकेशिन् ने (दक्षिण) कोशल, कलिंग, पिष्ठपुर आदि नगरों की विजय करने के बाद पल्लव राज्य पर आक्रमण किया और चालुक्य वंश से शत्रुता रखने वाले पल्लवपति के प्रताप को अपनी सेना की धूल से धूमिल कर उसे काँची नगर की चहारदीवारी में छिपकर शरण लेने के लिए विवश किया (प्राकारान्तरितप्रतापरमकरोध पल्लवानाम्पतिम्)।
अधिकांश विद्वान पल्लवपति की पहचान महेंद्रवर्मन् प्रथम से करते हैं, यद्यपि टी.वी. महालिंगम इससे सहमत नहीं हैं। इस पराजय के परिणामस्वरूप पल्लव राज्य के उत्तर के कई क्षेत्र चालुक्यों के अधिकार में चले गये, यद्यपि द्रविड़ क्षेत्र में पल्लवों की सत्ता बनी रही।
परवर्ती पल्लव शासक नंदिवर्मन् द्वितीय के कशाक्कुडि लेख से ज्ञात होता है कि महेंद्रवर्मन् प्रथम ने पुल्लिलूर (काँची से लगभग 24 कि.मी. दूर) में अपने प्रमुख शत्रुओं पर विजय प्राप्त की थी (पुल्लिलूरे द्विषतां विशेषान्)। इस लेख में शत्रुओं का नाम नहीं दिया गया हैं, किंतु कुछ विद्वान मानते हैं कि पराजित शत्रुओं में पुलकेशिन् द्वितीय भी था। चूंकि पल्लव शासक के शत्रुओं के लिए ‘बहुवचन’ (द्विषता) का प्रयोग हुआ है, जिससे लगता है कि उसने दक्षिण के कुछ छोटे शासकों पर विजय प्राप्त की होगी।
टी.वी. महालिंगम का अनुमान है कि तेलगू-चोड शासक नल्लडि ने कुछ समय के लिए काँची के निकटवर्ती क्षेत्र पर अधिकार कर लिया था और पुल्लिलूर के युद्ध में महेंद्रवर्मन् ने संभवतः नल्लडि और उसके कुछ मित्र राजाओं को पराजित किया था।
ऐहोल प्रशस्ति में कहा गया है कि पल्लव शासकों को पराजित करने के बाद पुलकेशिन् द्वितीय ने कावेरी नदी को पारकर पांड्य, चोल एवं केरल राज्यों से मित्रता की और उनकी समृद्धि में वृद्धि की। टी.वी. महालिंगम का अनुमान है कि पुलकेशिन् द्वितीय ने संभवतः नल्लडि चोल की सहायता करके उसे पल्लव आधिपत्य से मुक्त कराया और इसी प्रकार अन्य शासकों को भी सहायता की होगी। किंतु किसी भी साक्ष्य से न तो महेंद्रवर्मन् प्रथम द्वारा नल्लडि की पराजय का संकेत मिलता है और न ही पुलकेशिन् द्वारा चोल शासक की सहायता करने का।
महेंद्रवर्मन् प्रथम के शासन के प्रारंभ में ही पल्लव राज्य उत्तर में नर्मदा तथा विष्णुकुंडिन राज्यों तक विस्तृत था। तिरुचिरापल्ली अभिलेख से से पता चलता है कि उसके साम्राज्य की दक्षिणी सीमा कावेरी नदी थी और इस नदी को ‘पल्लवों की प्रिया’ कहा गया है। संभवतः कावेरी का क्षेत्र पल्लवों ने चोलों से छीन लिया था, किंतु पुलकेशिन् द्वारा पराजित होने के बाद पल्लवों का राज्य उत्तर में तिरुपति के पर्वतीय क्षेत्र और दक्षिण में तिरुचिरापल्ली तक ही सीमित रह गया।
महेंद्रवर्मन् प्रथम की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ
महेंद्रवर्मन् प्रथम के शासनकाल में पल्लव साम्राज्य न केवल राजनीतिक दृष्टि से सुदृढ़ हुआ, बल्कि सांस्कृतिक, कलात्मक एवं साहित्यिक दृष्टि से भी उन्नति के शिखर पर पहुँच गया। वह एक महान विजेता होने के साथ-साथ कला, साहित्य एवं संगीत का महान् संरक्षक भी था। उसकी साहित्यिक अभिरुचि एवं विद्वता का प्रमाण उसकी रचना ‘मत्तविलासप्रहसन’ है। कुछ विद्वान महेंद्रवर्मन् को ‘भगवदज्जुकीयम्’ नामक एक अन्य प्रहसन की रचना का भी श्रेय देते हैं, जो संदिग्ध है। महेंद्रवर्मन् ने अपने अभिलेखों को संस्कृत भाषा में उत्कीर्ण करवाया था। उसके अभिलेखों में व्यास तथा बाल्मीकि की प्रशंसा की गई है।
महेंद्रवर्मन् एक कुशल संगीतज्ञ भी था और सुप्रसिद्ध संगीतज्ञ रुद्राचार्य के निर्देशन में संगीत का अध्ययन किया था। कहा जाता है कि उसने संगीत शास्त्र पर एक ग्रंथ की रचना की थी और संगीत पढ़ने वाले छात्रों के लिए वीणाशास्त्र पर भी कुछ लिखा था, जिसे उसकी आज्ञा से कुडिमियामलय के संस्कृत अभिलेख में उत्कीर्ण करवाया गया था। कुछ विद्वान उसे चित्रकला से संबंधित ‘दक्षिणचित्र’ नामक पुस्तक की रचना का भी श्रेय देते हैं।
महेंद्रवर्मन् प्रथम ने स्थापत्य के क्षेत्र में शैलकृत-मंदिर निर्माण शैली को प्रोत्साहन दिया। दक्षिणी अर्काट जिले के मंडपट्ट अभिलेख के अनुसार विचित्रचित्त (महेंद्रवर्मन् प्रथम) ने ब्रह्मा, ईश्वर तथा विष्णु के लिए एकाश्मक मंदिरों का निर्माण करवाया था। महेंद्रवर्मन् के समय के निर्मित मंदिर तिरुचिरापल्ली, महेंद्रवाड़ी (अरकोणम के समीप) दलवानूर (दक्षिणी अर्काट जिला) तथा वल्लभ (चिंगलपुट के समीप) में विद्यमान हैं। उसने महेंद्रवाड़ी में एक जलाशय का भी निर्माण करवाया था।
महेंद्रवर्मन् आरंभ में जैन धर्म का अनुयायी था, किंतु पेरियपुराणम् के अनुसार वह बाद में संत अप्पर के प्रभाव से शैव हो गया। तिरुचिरापल्ली अभिलेख में गुणभर (महेंद्रवर्मन् प्रथम) को शिवलिंग का उपासक बतलाया गया है (गुणभरनामनि राजनयन लिंगिनिज्ञानम्)। धर्म-परिवर्तन के बाद महेंद्रवर्मन् ने पारलिपुरम् (कड्डलोर) के जैन-विहारों को तुड़वाकर तिरुवाडि में एक शिव मंदिर का निर्माण करवाया था। चूंकि पेरियपुराणम् में पल्लव राजा के नाम का उल्लेख नहीं है, इसलिए टी.वी. महालिंगम के अनुसार महेंद्रवर्मन् प्रथम के साथ उसका समीकरण संदिग्ध है। किंतु अधिकांश विद्वान पल्लवपति को महेंद्रवर्मन् प्रथम ही मानते हैं। उसके शासनकाल में भक्ति आंदोलन ने जोर पकड़ा और शैव एवं वैष्णव संप्रदायों का काफी प्रचार हुआ।
महेंद्रवर्मन् ने मत्तविलास (विलासिता में आसक्त), गुणभर (सद्गुणों से परिपूर्ण), विचित्रचित्त (अद्भुत अभिरुचियों वाला), महेंद्रविक्रम, ललितांकुर, अवनिभाजन, अलुप्तकाम, कलहप्रिय, चेत्थकारी (मंदिरों का निर्माण कराने वाला), चित्रकारिपुल्ल (महान चित्रकार), शत्रुमल्ल, संकीर्णजाति आदि विभिन्न उपाधियाँ धारण की थी, जो उसकी बहुमुखी प्रतिभा की परिचायक हैं। आर. कृष्णमूर्ति को महेंद्रवर्मन् प्रथम के दो सिक्के मिले हैं- एक चाँदी का और दूसरा ताँबे का। इन सिक्कों के अग्रभाग में खड़े हुए वृषभ की आकृति और 7वीं शती की ग्रंथ लिपि में लक्षित उपाधि अंकित है।
दिनेशचंद्र सरकार जैसे इतिहासकारों का अनुमान है कि उसने लगभग 600 से 630 ई. तक शासन किया। किंतु हाल ही उसके शासन के 39वें वर्ष का एक लेख उत्तरी अर्काट के सात्तणूर से मिला है, जिसके आधार पर उसका शासनकाल 640 ई. तक माना जाना चाहिए।
नरसिंहवर्मन् प्रथम (लगभग 630-668 ई.)
महेन्द्रवर्मन् के बाद उसका पुत्र और उत्तराधिकारी नरसिंहवर्मन् (लगभग 630-668 ई.) पल्लव राज्य का शासक बना। नरसिंहवर्मन् प्रथम भी अपने पिता की तरह महान् विजेता और कुशल प्रशासक था। उसने असाधारण पौरुष, साहस एवं पराक्रम के द्वारा पल्लवों को दक्षिण की एक प्रमुख शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित कर अपनी ‘महामल्ल’ की उपाधि को चरितार्थ किया और पल्लव साम्राज्य को अपराजेय बना दिया।
नरसिंहवर्मन् की सैनिक उपलब्धियाँ
चालुक्यों के विरूद्ध सफलता: नरसिंहवर्मन् को अपने परंपरागत शत्रु चालुक्यों के विरूद्ध सफलता प्राप्त की। संभवतः पल्लवों ने 630 ई. के आसपास चालुक्यों के महत्वपूर्ण क्षेत्र कर्मराष्ट्र पर अधिकार करने का प्रयास किया था। इसीलिए चालुक्य नरेश पुलकेशिन् द्वितीय ने नरसिंहवर्मन् के राज्यकाल में पल्लवों पर आक्रमण किया। पुलकेशिन् द्वितीय के 631 ई. के कोप्परम् ताम्रपत्रों के अनुसार उसने कर्मराष्ट्र में स्थित एक ग्राम को दान में दिया था। इससे स्पष्ट है कि इस तिथि तक चालुक्यों ने पुनः इस क्षेत्र को विजित कर लिया था।
कर्मराष्ट्र की विजय के बाद पुलकेशिन् द्वितीय ने पल्लवों के विरुद्ध अभियान किया और रॉयलसीमा में शासन करने वाले पल्लवों के सामंत बाणों को पराभूत कर पल्लवों पर आक्रमण किया। इस चालुक्य-पल्लव संघर्ष में पुलकेशिन् द्वितीय को पराजित होकर भागना पड़ा। कूरम अभिलेख से ज्ञात होता है कि नरसिंहवर्मन् ने सहस्त्रबाहु कार्तवीर्य के समान अनुपम शौर्य प्रदर्शित किया और परियाल, शूरमार (चितूर जिले का शुरमार) तथा मणिमंगलम् के युद्धों में पुलकेशिन् द्वितीय को पराजित कर उसकी पीठ पर वि-ज-य अक्षर अंकित कर दिया।
किंतु नरसिंहवर्मन् चालुक्यों को पराजित कर और उन्हें अपने राज्य से खदेड़कर ही संतुष्ट नहीं हुआ। कशाक्कुडि अभिलेख के अनुसार उसके सेनापति शिरुतोंड ने पुलकेशिन् की राजधानी वातापी पर आक्रमण कर उसे उसी प्रकार नष्ट-भ्र्रष्ट कर दिया, जिस प्रकार अगस्त्य ऋषि ने वातापी राक्षस की जीवन-लीला समाप्त की थी। वैलूरपाल्यम लेख के अनुसार उसने बादामी के अरिवर्ग को पराजित कर वहाँ के विजय-स्तंभ पर भी अधिकार कर लिया था (नरसिवर्मा वातापिमध्ये विजितारिवर्गः स्तितंजय स्तम्भमलयमद्यः)।
नरसिंहवर्मन् प्रथम ने चालुक्यों पर यह विजयाभियान अपने शासनकाल के 13वें वर्ष में किया था। इस प्रकार स्पष्ट है कि पल्लव सेना ने 642 ई. में चालुक्यों को परास्त कर वातापी पर अधिकार कर लिया, पुलकेशिन द्वितीय युद्ध में मारा गया और शिरुत्तोंड पराजित शत्रु की बहुत सारी धन-संपत्ति लेकर वापस लौटा। पेरियपुराणम् तथा नंदिवर्मन् तृतीय के वैलूरपाल्यम् से ज्ञात होता है कि इस विजय की स्मृति को स्थायी बनाने के लिए नरसिंहवर्मन् ने वातापी में एक कीर्ति-स्तंभ भी स्थापित किया और ‘वातापीकोंड’ (वातापी को अधिकृत करने वाला) की उपाधि धारण की। इस पराजय के फलस्वरूप चालुक्य साम्राज्य के दक्षिणी प्रदेशों पर कुछ समय के लिए पल्लवों का प्रभुत्व स्थापित हो गया।
चूंकि पुलकेशिन् द्वितीय के छोटे भाई वेंगी के शासक विष्णुवर्द्धन की अंतिम ज्ञात तिथि भी 641-42 ई. है। इस आधार पर कुछ विद्वानों का अनुमान है कि वह भी पुलकेशिन् द्वितीय के साथ पल्लवों से युद्ध करता हुआ मारा गया था। दोनों भाइयों की मृत्यु के पश्चात् लगभग 13 वर्ष तक चालुक्य राज्य राजनैतिक संकट एवं अराजकता से ग्रसित रहा।
सिंहल के विरूद्ध सफलता: नरसिंहवर्मन् प्रथम को दूसरी महत्वपूर्ण सफलता सिंहल के विरूद्ध मिली। सिंहल के इतिवृत्त शासक महावंश के अनुसार कस्सप के पुत्र मानवर्मन् ने राजसिंहासन से अपदस्थ किये जाने के बाद 640 ई. के लगभग नरसिंह (नरसिंहवर्मन् प्रथम) के राज्य में शरण ली थी और अपनी सेवा और निष्ठा द्वारा वह पल्लव शासक का कृपापात्र बन गया। पुलकेशिन् द्वितीय के आक्रमण के समय भी उसने नरसिंहवर्मन् सहायता की थी। चालुक्यों से निपटने के बाद नरसिंहवर्मन् ने मानवर्मन् को श्रीलंका के राजसिंहासन पर प्रतिष्ठापित करने के लिए उसके साथ अपनी एक नौ सेना श्रीलंका भेजी। जब मानवर्मन् ने पल्लव सेना के साथ श्रीलंका पर आक्रमण किया तो उसका प्रतिद्वंद्वी दत्थोपतिश भयभीत होकर भाग गया। किंतु नरसिंहवर्मन् की अस्वस्थता का समाचार पाकर पल्लव सेना सिंहल से वापस आ गई जिसके कारण मानवर्मन् को पुनः नरसिंहवर्मन् की शरण लेनी पड़ी। कुछ समय बाद नरसिंहवर्मन् ने और अधिक शक्तिशाली नौ सेना के साथ सिंहल विजय के लिए तैयार की और उसके साथ स्वयं महाबलीपुरम् तक गया।
पल्लव सैनिकों को श्रीलंका ले जाने के लिए महाबलीपुरम् में जलयानों की सुदृढ़ व्यवस्था थी, किंतु पल्लव सेना ने सिंहल जाने से इनकार कर दिया। अंततः नरसिंहवर्मन् ने अपना आभूषण, राजमुकुट और राजकीय-चिह्न मानवर्मन् को पहना दिया और पल्लव सेना उसे नरसिंहमन प्रथम समझकर उसके साथ चल पड़ी। इस अभियान में मानवर्मन् को निर्णायक सफलता मिली और उसका प्रतिद्वंद्वी हत्थदत्थ पराजित होकर मारा गया। उसके दूसरे शत्रु पोत्थकुत्थ ने जहर खाकर आत्महत्या कर ली। इस विजय के कारण कशाक्कुडि अभिलेख में नरसिंहवर्मन् की तुलना लंका विजयी राम से की गई है (लंकाजयाधरितराम पराक्रमश्री)।
कहा जाता है कि नरसिंहवर्मन् ने चोल, चेर, कलभ्र और पांड्य सभी को पराजित किया था, किंतु इन विजयों का कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है। जो भी हो, पुलकेशिन द्वितीय और सिंहल के विरूद्ध सफलता के फलस्वरूप नरसिंहवर्मन् का साम्राज्य बादामी से लेकर सिंहल तक फैल गया था।
अपने शासन के अंतिम दिनों में नरसिंहवर्मन् को कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था। लगता है कि कुछ ही समय बाद बादामी उसके अधिकार से निकल गया। पुलकेशिन् द्वितीय के पुत्र एवं उत्तराधिकारी विक्रमादित्य प्रथम ने संभवतः अपने नाना गंग शासक दुर्विनीत और कुछ अन्य समर्थकों की सहायता से 655 ई. के आसपास पल्लवों को पराजित कर अपने पिता की पराजय का बदला ले लिया और पल्लवों को चालुक्य राज्य से बाहर खदेड़ दिया। विक्रमादित्य के हैदराबाद अभिलेख में उसे नरसिंहवर्मन् के यश को नष्ट करने वाला कहा गया है। गदवल अभिलेख से भी ज्ञात होता है कि उसने नरसिंहवर्मन् के यश एवं प्रताप को नष्ट किया और महामल्ल के परिवार का विनाश करने के बाद ‘राजमल्ल’ की उपाधि धारण की थी (मुदित नरसिंहयशसा योराजमल्ल शब्द बिहितमहामल्ल कुलनाश)। विक्रमादित्य प्रथम का 660 ई. का तलमंचि अभिलेख कर्मराष्ट्र पर उसके अधिकार को प्रमाणित करता है। इस प्रकार पल्लवनरेश नरसिंहवर्मन् प्रथम को पराजित करके न केवल अपने पिता के अपमान का बदला चुकाया, अपितु पल्लवों द्वारा अपहृत चालुक्य राज्य को भी उनसे मुक्त करा लिया।
नरसिंहवर्मन् की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ
नरसिंहवर्मन् एक विजेता और साम्राज्य-निर्माता होने के साथ-साथ एक कुशल निर्माता, कला एवं स्थापत्य का संरक्षक भी था। उसके शासनकाल में वास्तुकला के क्षेत्र में सिंहशीर्षक स्तंभ निर्माण की एक विशिष्ट शैली का विकास हुआ, जो उसके नाम पर ‘मामल्ल शैली’ के नाम से प्रसिद्ध है। उसने न केवल महामल्लपुरम् (महाबलीपुरम) नगर की स्थापना की, बल्कि सप्तरथों (सेवन पैगोडा) का निर्माण भी करवाया, जो स्थापत्य कला के उत्कृष्ट नमूने हैं। कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि महाबलीपुरम् के पत्तन (बंदरगाह) का निर्माण भी नरसिंहवर्मन् प्रथम ने ही करवाया था। किंतु एन. सुब्रमण्यम जैसे विद्वानों का कहना है कि यह पत्तन नरसिंहवर्मन् के राज्यकाल से पहले से विद्यमान था क्योंकि आरंभिक तीन आलवरों ने इसका उल्लेख किया है।
चीनी यात्री ह्वेनसांग के समय ही काँची की यात्रा की थी। उसने वहाँ की समृद्धि, मंदिरों, बौद्ध बिहारों तथा विद्यालयों आदि का विशद वृतांत प्रस्तुत किया है। ह्वेनसांग के अनुसार नालंदा विश्वविद्यालय का प्रसिद्ध आचार्य धर्मपाल काँची का ही निवासी था। इस प्रकार नरसिंहवर्मन् प्रथम के समय पल्लव सभ्यता और संस्कृति अपने विकास के उच्चतम शिखर पर पहुँच गई थी। इसके शासनकाल का अंत 668 ई. के लगभग हुआ।
महेंद्रवर्मन् द्वितीय (लगभग 668-670 ई.)
नरसिंहवर्मन् प्रथम के पश्चात् उसका ज्येष्ठ पुत्र महेंद्रवर्मन् द्वितीय (लगभग 668-670 ई.) पल्लव सिहासन पर बैठा। कूरम तथा कशाक्कुडि अभिलेखों में उसके उत्तराधिकार की सूचना मिलती है। इसके विपरीत वैलूरपाल्यम लेख में नरसिंहवर्मन् के बाद परमेश्वरवर्मन् का नाम मिलता है। इसका कारण संभवतः यह है कि महेंद्रवर्मन् द्वितीय ने बहुत कम समय तक शासन किया था।
महेंद्रवर्मन् द्वितीय के शासनकाल के संबंध में कोई महत्वपूर्ण सूचना नहीं मिलती। गदवल दानपत्र के अनुसार चालुक्य शासक विक्रमादित्य प्रथम ने महेंद्रवर्मन् द्वितीय को पराजित किया था (विहितमहेन्द्रप्रतापविलयेन)। किंतु चालुक्यों की यह विजय प्रतिशोधात्मक लगती है कि क्योंकि कूरम दानपत्र में महेंद्रवर्मन् द्वितीय को वर्णाश्रम धर्म का संस्थापक और पल्लव साम्राज्य में सुख एवं शांति का उन्नायक कहा गया है (महेन्द्रवर्म्मणः सुप्रणीतवण्णाश्रमधर्मस्य)। कुछ परवर्ती लेखों में महेंद्रवर्मन् को बाहुबल से राज्य प्राप्त करने वाला तथा मध्यम लोकपाल कहा गया है।
नंदिवर्मन् द्वितीय के कशाक्कुडि ताम्रपत्र के अनुसार महेंद्रवर्मन् द्वितीय ब्राह्मणों, मंदिरों और वैदिक विद्यालयों का संरक्षक था। संभवतः महेंद्रवर्मन् द्वितीय ने मात्र दो वर्ष (670 ई.) तक शासन किया था, यद्यपि पेरियकोल्पपाठि लेख के आधार पर सी.आर. श्रीनिवासन ने उसकी शासनावधि 11 वर्ष प्रतिपादित की है।
परमेश्वरवर्मन् प्रथम (670-695 ई.)
महेंद्रवर्मन् द्वितीय की मृत्यु के बाद् उसका पुत्र परमेश्वरवर्मन् प्रथम 670 ई. के लगभग पल्लव वंश का शासक हुआ। उसके शासनकाल में भी पल्लव-चालुक्य संघर्ष चलता रहा। इसका समकालीन चालुक्य शासक विक्रमादित्य प्रथम था। विक्रमादित्य प्रथम के गदवल अभिलेख से पता चलता है कि उसने ईश्वरपोत (परमेश्वरवर्मन् प्रथम) के विरुद्ध विजय प्राप्त की, महामल्ल (नरसिंहवर्मन् प्रथम) के परिवार को नष्ट कर दिया और प्राचीर एवं परिखा से सुरक्षित काँची नगर को अधिकृत कर ‘राजमल्ल’ की उपाधि धारण की। इस घटना की पुष्टि केंदूर दानपत्र से भी होती है, जिसके अनुसार विक्रमादित्य प्रथम का चरणकमल पल्लवपति के मुकुट द्वारा चुम्बित था (काञ्चीपतिमुकुटचुम्बित पादाम्बुजस्य विक्रमादित्यः)।
यह युद्ध परमेश्वरवर्मन् प्रथम (670-695 ई.) के राज्यकाल के चौथे वर्ष में कावेरी नदी के दक्षिणी तट पर उरगपुर (उरैयूर) में हुआ था और इसी स्थान से विक्रमादित्य प्रथम ने अपने शासन के 20वें वर्ष में (शक संवत् 596) में गदवल दानपत्र जारी किया था। संभवतः इस पराजय के बाद परमेश्वरवर्मन् प्रथम को अपनी राजधानी छोड़कर किसी अन्य सुरक्षित स्थान पर शरण लेनी पड़़ी थी।
परमेश्वरवर्मन् की सैनिक उपलब्धियाँ
किंतु परमेश्वरवर्मन् अपनी पराजय से निराश नहीं हुआ और उसने 674-678 ई. के बीच अपनी पराजय का बदला ले लिया। कूरम अभिलेख से ज्ञात होता है कि परमेश्वरवर्मन् ने उस विक्रमादित्य को पराजित कर रणक्षेत्र से भगा दिया, जिसकी सेना में लाखों सैनिक थे। वैलूरपाल्यम् अभिलेख में भी उसे अपने शत्रुओं के मद को नष्ट करने वाला सूर्य कहा गया है (चालुक्यक्षितिमृत्सैन्यध्वान्तध्वंस दिवाकरणः)। इसी प्रकार महेंद्रवर्मन् के उदयेंदिरम् अभिलेख में भी कहा गया है कि यह युद्ध उडैयूर से लगभग तीन किमी उत्तर-पश्चिम पेरुवलनल्लूर नामक स्थान पर हुआ था। स्पष्ट है कि परमेश्वरवर्मन् चालुक्यों को अपने शासित प्रदेश से निष्कासित करने में पूरी तरह सफल रहा।
गंग शासक भूविक्रम (655-679 ई.) के वेदिरुर अभिलेख में कहा गया है कि उसने विलंद (कर्नाटक के तुम्कुरु जिले में स्थित) में किसी पल्लवनरेंद्रपति से युद्ध किया था, जबकि हेल्लेगेरे और ब्रिटिश म्युजियम लेखों में कहा गया है कि गंग शासक भूविक्रम ने युद्धभूमि में पल्लव शासक का रत्नजटित हार छीन लिया था। यद्यपि इन साक्ष्यों में पल्लव राजा के नाम का उल्लेख नहीं किया है, लेकिन संभव है कि यह सफलता उसने परमेश्वरवर्मन् प्रथम के विरुद्ध प्राप्त की हो।
नागुर सरदारों से युद्ध: पल्लवकालीन प्रसिद्ध वैष्णव संत तिरुमंगै आलवार के अनुसार नांगूर सरदारों ने पांड्यों और उत्तर के किसी शक्तिशाली शासक को पराजित किया था। नांगूर उस समय पल्लवों की अधीनता में थे, इसलिए संभव है कि नागूर शासकों ने संभवतः अपने स्वामी परमेश्वरवर्मन् प्रथम की ओर से किसी उत्तरी नरेश (संभवतः चालुक्यों) के विरुद्ध सामरिक अभियान में सम्मिलित होकर विजय प्राप्त की थी।
परमेश्वरवर्मन् प्रथम की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ
परमेश्वरवर्मन् प्रथम पल्लव राजवंश का महत्वपूर्ण शासक था। उसने विपरीत परिस्थितियों में भी बड़ी वीरता के साथ पल्लव साम्राज्य को सुरक्षित रखा। उसने चालुक्य शासक विक्रमादित्य प्रथम का बडी वीरता के साथ सामना किया और पेरुवलनल्लूर के मैदान में रणरसिक विक्रमादित्य प्रथम को परास्त कर चालवयों के सामरिक हौसले को चूर-चूर कर दिया (ततः पेरवलनसूर्म्युडे विजितवल्लभ बतः परमेश्वरवर्म्मा)। अपने पूर्वजों की भाँति उसने अत्यंतकाम, विद्याविनीत, उग्रदंड, लोकादित्य, चित्रमाय, गुणभाजन, श्रीभर, एकमल्ल, रणंजय जेसी उपाधियाँ धारण की थी और अनेक धार्मिक कृत्यों का संपादन किया था।
रेचुरु लेख में परमेश्वरवर्मन् को ‘यथावदामृत अश्वमेधाद्यनेक क्रतुयाजिन’ कहा गया है, जिसके आधार पर इसे अश्वमेध यज्ञ के संपादन का श्रेय दिया जाता है। किंतु किसी अन्य प्रमाणिक स्रोत से इसका समर्थन नहीं होता है।
परमेश्वरवर्मन् प्रथम परम शैव था और उसने ‘परममाहेश्वर’ की उपाधि धारण की थी। कूरम अभिलेख में सदाशिव की प्रार्थना की गई है (परमेश्वर इव सर्वाधिक दर्शनः परमेश्वरम्)। दक्षिण भारत के अभिलेखों में सदाशिव का संभवतः प्राचीनतम उल्लेख है।
परमेश्वरवर्मन् प्रथम ने पल्लवयुगीन द्राविड़ वास्तुकला का संवर्द्धन किया। उसने काँची के निकट कूरम में एक भव्य शिवमंदिर का निर्माण करवाया और अपने नाम पर उसका नाम ‘विद्याविनीत पल्लव परमेश्वर गृहम्’ रखा। कूरम अभिलेख में कहा गया है कि इस शिव मंदिर में महाभारत के नित्य पाठ का भी प्रबंध किया गया था। मामल्लपुरम् का गणेश मंदिर और कुछ अन्य स्मारक भी संभवतः इसी के शासनकाल में निर्मित किये गये थे। परमेश्वरवर्मन् प्रथम ने लगभग 695 ई. तक शासन किया था।
नरसिंहवर्मन् द्वितीय (लगभग 695-722 ई.)
परमेश्वरवर्मन् प्रथम के बाद उसके पुत्र एवं उत्तराधिकारी नरसिंहवर्मन् द्वितीय ने लगभग 965 ई. में पल्लव शासन की बागडोर सँभाली। इसे सामान्यतया राजसिंह के नाम से जाना जाता है। इसी नाम से उसने काँची के सुप्रसिद्ध कैलाशनाथ मंदिर का निर्माण करवाया था। इसलिए इस मंदिर को राजसिंहेश्वर मंदिर के नाम से भी जाना जाता है।
यद्यपि लेखों से पता चलता है कि नरसिंहवर्मन् द्वितीय (लगभग 695-722 ई.) ने रणंजय, रणविक्रम, अमित्रमल्ल, अरिमर्दन, आहवकेशरि, परचक्रमर्दन, पार्थविक्रम तथा समरधनंजय जैसी उपाधियाँ धारण की थीं, किंतु उसकी प्रशस्तियों में उसकी किसी सामरिक उपलब्धि का स्पष्ट विवरण नहीं मिलता है।
नरसिंहवर्मन् द्वितीय की सैनिक उपलब्धियाँ
कैलाशनाथ मंदिर पर उत्कीर्ण नरसिंह द्वितीय के एक लेख में कहा गया है कि उसने शत्रुओं का विनाश किया, अपनी शक्ति एवं नीतिनिपुणता द्वारा शत्रुओं को मार दिया और अन्य राजाओं को अपने अधीन किया था। कशाक्कुडि लेख में उसकी तुलना विष्णु के नृसिंहावतार से की गई है और वैलूरपाल्यम् अभिलेख में उसे महेंद्र के समान बतलाया गया है। किंतु इन स्रोतों से उसकी सामरिक उपलब्धि पर कोइ्र प्रकाश नहीं पड़ता है।
नरसिंहवर्मन् द्वितीय का राज्यकाल सामान्यतः शांतिपूर्ण ही रहा। कहा जाता है कि उसका चीन से मित्रतापूर्ण संबंध था और संभवतः उसने नागपट्टिनम में चीनी बौद्धों के लिए एक विहार का निर्माण कराया था। 1013 ई. के चीनी कोश ‘त्सो-फुओ-युयान-कोई’ के अनुसार दक्षिण भारत के शासक चेलि-ना-लो-सेंग-किया ( श्रीनरसिंह ) ने 720 ई. में अपना एक दूतमंडल चीनी दरबार में भेजा था। इस दूतमंडल ने जब चीनी शासक को बताया कि नरसिंहवर्मन् द्वितीय अरबों (तारिक-ताचे) और तिब्बतियों (तोज-पो) के विरुद्ध सैनिक कार्यवाही की तैयारी कर रहा है, तो चीनी सम्राट बहुत प्रसन्न हुआ और उसने श्रीनरसिंहपोतवर्मन् को ‘दक्षिण भारत के सम्राट’ की उपाधि प्रदान की।
नरसिंहवर्मन् द्वितीय की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ
नरसिंहवर्मन् द्वितीय के राज्यकाल में साहित्य, कला विशेषकर वास्तुकला और शिक्षा की अभूतपूर्व प्रगति हुई जिसके परिणामस्वरूप काँची संस्कृति का एक प्रमुख केंद्र बन गया। उसके काल में निर्मित काँची के कैलाशनाथ तथा ऐरावतेश्वर मंदिर और महाबलीपुरम् में समुद्रतटीय मंदिर अपनी भव्यता के लिए विख्यात हैं। उसने मंदिर वस्तु में एक नवीन कला-शैली को जन्म दिया, जो ‘राजसिंह शैली’ के नाम से प्रसिद्ध है। कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि नरसिंहवर्मन् द्वितीय के समय में ही मामल्लपुरम के समस्त स्मारकों का निर्माण हुआ था। किंतु अन्य साक्ष्यों से इसका समर्थन नहीं होता है।
नरसिंहवर्मन् द्वितीय शैव धर्म का अनुयायी था। उसकी ईशानशरण, देवदेवीभक्त, शंकरभक्त और ईश्वरभक्त उपाधियाँ उसकी धाम्रिक प्रवृत्ति और शैव धर्म के प्रति उसके समर्पण का प्रमाण हैं। वैलूरपाल्यम लेख के अनुसार उसने कैलाश पर्वत के समान ऊँचे एक शिव मंदिर का निर्माण कराया था। शैव होकर भी वह अन्य धर्मों के प्रति उदार था। उसकी ‘श्रीपतिवल्लभ’ की उपाधि विष्णु के प्रति उसकी श्रद्धा का प्रमाण है।
कला के साथ साथ नरसिंहवर्मन् द्वितीय संस्कृत साहित्य का भी उदार संरक्षक था। कहा जाता है कि संस्कृत के कवि दंडी नरसिंहवर्मन् के ही सभापंडित थे। वैलूरपाल्यम लेख के अनुसार उसने काँची के घटिका विद्यालयों को पुनर्जीवित किया था (नरसिहपुनव्यधाद्यो घटिकां द्विजाना……)। कशाक्कुडि लेख से पता चलता है कि उसने चारों वेदों में पारंगत ब्राह्मणों को भूमिदान दिया था। आर. गोपालन जैसे विद्वानों के अनुसार नरसिंहवर्मन् द्वितीय के ही समय में भास के नाटकों की रचना हुई थी। किंतु यह विवादास्पद है।
वेल्लोर से प्राप्त कुछ सिक्कों के अग्रभाग पर श्रीमार या श्रीनिधि लेख अंकित है। सी. मीनाक्षी के अनुसार ये सिक्के नरसिंहवर्मन् द्वितीय के हैं। उसकी वाद्यविद्याधर, वीणानारद और अतोदय-तुम्बुरु जैसी उपाधियाँ उसकी संगीत के प्रति अभिरुचि का परिचायक हैं। संभवतः इसी कारण चालुक्यों ने नरसिंहवर्मन् द्वितीय को पराजित कर उसके वाद्ययंत्र अपहृत कर लिये थे। पल्लव अभिलेखों में उसकी विदुषी अग्रमहिषी रंगपताका के रचनात्मक व्यक्तित्व का भी उल्लेख मिलता है। नरसिंहवर्मन् द्वितीय ने संभवतः 722 ई. तक शासन किया था।
महेंद्रवर्मन् तृतीय (लगभग 722-728 ई.)
नरसिंहवर्मन् द्वितीय के संभवतः दो पुत्र थे- महेंद्रवर्मन् तृतीय और परमेश्वरवर्मन् द्वितीय। संभवतः ज्येष्ठ महेंद्रवर्मन् तृतीय ने नरसिंहवर्मन् द्वितीय के बाद काँची की गद्दी सँभाली। महेंद्रवर्मन् तृतीय (लगभग 722-728 ई.) को काँची के कैलाशनाथ मंदिर के प्रांगण में एक शिवमठ के निर्माण का श्रेय दिया गया है। के.आर. श्रीनिवासन के अनुसार महेंद्रवर्मन् तृतीय को श्रीगंग पुरुष के विरूद्ध युद्ध में भाग लेना पड़ा था। संभवतः इस युद्ध में श्रीपुरुष ने पल्लवों का राजकीय छत्र अपहृत कर लिया और महेंद्रवर्मन् तृतीय मारा गया था।
कुछ विद्वानों के अनुसार श्रीपुरुष के 713-14 ई. के हेल्लेगरे अभिलेख में जिन जय-विजय नामक पल्लवाधिराजों का उल्लेख है, वे महेंद्रवर्मन् तृतीय के पुत्र थे। कुछ विद्वानों का सुझाव है कि बैकुंठपेरुमाल के एक शिल्प में महेंद्रवर्मन् तृतीय की मृत्यु का चित्रण है। सत्यता जो भी हो, संभवतः नरसिंहवर्मन् द्वितीय के समय में ही महेंद्रवर्मन् तृतीय की मृत्यु हो गई और उसने कभी स्वतंत्र रूप से शासन नहीं किया। अतः नरसिंहवर्मन् द्वितीय के उपरांत परमेश्वरवर्मन् द्वितीय ने काँची का सिंहासन ग्रहण किया।
परमेश्वरर्मन द्वितीय (लगभग 728-730 ई.)
परमेश्वरवर्मन् द्वितीय (लगभग 728-730 ई.) का शासनकाल भी बहुत कम रहा। इसका केवल एक अभिलेख दक्षिणी अर्काट के तिरुवाडि से मिला है जो उसके शासन के तीसरे वर्ष का है। इसमें उसके द्वारा दिये गये स्वर्णदान की चर्चा है। कशाक्कुडि अभिलेख में उसे बृहस्पति की नीति का अनुगामी तथा संसार का रक्षक बताया गया है। वैलूरपाल्यम् लेख के अनुसार वह मनु के अनुसार शासन संचालित करता था।
चालुक्य नरेश विजयादित्य के शासन के 35वें वर्ष (730-31 ई.) के उच्चल लेख के अनुसार युवराज विक्रमादित्य ने काँची पर आक्रमण कर परमेश्वरवर्मन् द्वितीय से कर एवं भेंट प्राप्त की और वापस आते समय पश्चिमी गंग शासक दुर्विनीत एरेयप्प को उच्चल तथा परियाल गाँव पुरस्कार-स्वरूप प्रदान किया था। संभवतः गंग शासक ने चालुक्यों की ओर से पल्लवों के विरूद्ध युद्ध में भाग लिया था। कुछ विद्वानों का अनुमान है कि परमेश्वरवर्मन् द्वितीय चालुक्यों से युद्ध करता हुआ मारा गया और कुछ के अनुसार उसकी मृत्यु संभवतः पश्चिमी गंगों से लड़ते हुए हुई थी। इसके अलावा, परमेश्वरवर्मन् द्वितीय के राज्यकाल की किसी अन्य विशेष घटना घटना का ज्ञान नहीं है।
नंदिवर्मन् द्वितीय (730-796 ई.)
परमेश्वरवर्मन् द्वितीय की मृत्यु के बाद पल्लव राज्य में राजनैतिक संकट एवं अराजकता फैल गई। पता नहीं किन कारणों से परमेश्वरवर्मन् द्वितीय के अल्पवयस्क पुत्र चित्रमाय को राज्याधिकार से वंचित कर सामंतों, पदाधिकारियों, ब्राह्मणों और व्यापारियों ने हिरण्यवर्मन् ने बारह वर्षीय पुत्र नंदिवर्मन् द्वितीय को 730 ई. के लगभग पल्लव राजगद्दी पर आसीन किया।
उदयेंदिरम् अभिलेख में नंदिवर्मन् द्वितीय को परमेश्वरवर्मन् द्वितीय का पुत्र बताया गया है (तस्य परमेश्वरवर्मणः पुत्रोः नंदिवर्मन्)। किंतु इस अभिलेख की प्रामाणिकता संदिग्ध है और अन्य स्रोतों में उसे हिरण्यवर्मन् का ही पुत्र बताया गया है। नंदिवर्मन् द्वितीय के राज्याभिषेक के विभिन्न अनुष्ठानों के चित्रण काँची के बैकुंठपेरुमाल मंदिर की मूर्तियों की पट्टियों पर उत्कीर्ण लेखों में मिलते हैं।
नंदिवर्मन् द्वितीय की सैनिक उपलब्धियाँ
कोरंगुडी अभिलेख में हिरण्यवर्मन् प्रथम को काँची का स्वतंत्र शासक बताया गया है, किंतु वैलूरपाल्यम् एवं बाहूर लेखों में उल्लिखित पल्लव शासकों में हिरण्यवर्मन् का नाम नहीं है। लगता है कि हिरण्यवर्मन् पल्लवों की सगोत्री शाखा से संबंधित था और परमेश्वरवर्मन् द्वितीय के समय सामंत अथवा किसी प्रदेश का स्वतंत्र शासक था। परमेश्वरवर्मन् की मृत्यु के बाद पल्लव राज्य की राजनैतिक अराजकता का लाभ उठाकर उसने अपनी शक्ति बढ़ा ली और काँची के राजसिंहासन पर अपने पुत्र नंदिवर्मन् द्वितीय को प्रतिष्ठित कर दिया।
संभवतः राज्याधिकार से वंचित कर दिये जाने के कारण परमेश्वरवर्मन् द्वितीय के पुत्र चित्रमाय ने पल्लवों के परंपरागत शत्रुओं-पांड्य, पश्चिमी गंग और चालुक्यों का संघ बनाकर नंदिवर्मन् द्वितीय के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। नंदिवर्मन् के समकालीन पांड्य शासक मानवर्मन् राजसिंह प्रथम ने इस संघ का नेतृत्व किया। सी.आर. श्रीनिवासन के अनुसार महेंद्रवर्मन् तृतीय के दो पुत्रों ने भी संभवतः उसका साथ दिया था। चित्रमाय और उसके सहयोगियों ने नंदिवर्मन् को पराजित कर उसे कुंभकोणम के निकट नंदिपुर के दुर्ग में शरण लेने के लिए विवश कर दिया।
किंतु नंदिवर्मन् द्वितीय के राज्यकाल के 12वें वर्ष के उदयेंदिरम लेख से पता चलता है कि नंदिवर्मन् के विश्वसनीय सामंत और सेनानायक उदयचंद्र ने अपनी वीरता और कूटनीति के बल पर विरोधी संघ के सभी शत्रु शासकों को पराजित कर अपने अधिराट नंदिवर्मन् को कारागार से मुक्त कराया और उसे पुनः पल्लव राजसिंहासन पर प्रतिष्ठित कर दिया।
चालुक्य आक्रमण: पल्लव अभिलेखों में नंदिवर्मन् द्वितीय के चालुक्यों के साथ संबंधों पर कोई प्रकाश नहीं पड़ता है, किंतु विक्रमादित्य द्वितीय के केंडूर अभिलेख से पता चलता है कि उसने अपने स्वाभाविक शत्रु (प्रकृति अमित्र) के विरुद्ध एक विशाल सेना भेजकर तुंडक प्रदेश पर अधिकार कर लिया और नंदिवर्मन् द्वितीय को अपनी राजधानी काँची से भागने के लिए बाध्य कर दिया था। काँचीपुरम् लेख से ज्ञात होता है कि विक्रमादित्य प्रथम ने काँची की विजय के बाद न तो कोई तोड़फोड़ की और न ही नगर को कोई हानि पहुँचाई। उसने स्वयं अनाथों और मंदिरों को धन-संपत्ति दान दिया।
विक्रमादित्य का पल्लव राज्य पर यह आक्रमण 740 ई. के आसपास हुआ होगा। टी.वी. महालिंगम का अनुमान है कि नंदिवर्मन् अपना राज्य एवं राजधानी छोड़कर भाग गया था और उसने राष्ट्रकूट शासक दंतिदुर्ग के यहाँ शरण ली, क्योंकि दंतिदुर्ग वातापी के चालुक्यों का विरोधी था। किंतु नंदिवर्मन् द्वितीय द्वारा दंतिदुर्ग के यहाँ शरण लेने का संकेत किसी साक्ष्य में नहीं मिलता। पल्लव अभिलेखों के अनुसार नंदिवर्मन् को उसके सेनानायक उदयचंद्र ने पुनः उसका राज्य वापस दिलाया था।
गंगों के विरूद्ध संघर्ष: तंडनतोट्टम् अभिलेख में कहा गया है कि पल्लवों ने गंगवाड़ी पर आक्रमण कर गंग शासक शिवमार या श्रीपुरुष को पराजित किया और गंग राजा से वह बहुमूल्य हार अपहृत कर लिया, जिसमें उग्रोदय नामक मणि जड़ी हुई थी। इसके विपरीत, पश्चिमी गंगों के अभिलेखों से पता चलता है कि श्रीपुरुष ने पल्लवों पर विजय प्राप्त की थी। इन परस्पर-विरोधी विवरणों से लगता है कि दोनों राजवंशों को बारी-बारी से एक दूसरे के विरुद्ध कुछ सफलता मिली थी।
राष्ट्रकूटों का आक्रमण: नंदिवर्मन् द्वितीय के राज्यकाल के अंतिम वर्षों में राष्ट्रकूटों ने पल्लव राज्य पर आक्रमण किया। कडव अभिलेख में कहा गया है कि दंतिदुर्ग ने नंदिवर्मन् द्वितीय को पराजित कर काँची पर अधिकार कर लिया था। एलोरा एवं बेगुम्रा अभिलेखों से भी दंतिदुर्ग की नंदिवर्मन् द्वितीय के विरुद्ध सफलता की पुष्टि होती है। स्रोतों से संकेत मिलता है कि काँची पहुँच कर दंतिदुर्ग ने नंदिवर्मन् द्वितीय से संधि कर लिया और अपनी पुत्री रेवा का विवाह पल्लव नरेश के साथ कर दिया। वैलूरपाल्यम् अभिलेख में दंतिदुर्ग की पुत्री रेवा को नंदिवर्मन् द्वितीय की पत्नी बताया गया है। कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि दंतिदुर्ग ने उस पल्लवराज को पराजित था जिससे नंदिवर्मन् को राज्यारोहण के बाद युद्ध करना पड़ा था।
पांड्यों के विरूद्ध संघ का निर्माण: पल्लवों के वास्तविक शत्रु पांड्य थे। पांड्य मानवर्मन् राजसिंह ने नंदिवर्मन् के विरूद्ध चित्रमाय की सहायता की थी। 765 ई. के आसपास राजसिंह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र जटिल परांतक पांड्य उत्तराधिकारी हुआ। जटिल परांतक की विस्तारवादी योजनाओं पर अंकुश लगाने के लिए नंदिवर्मन् द्वितीय ने कोंगु, केरल तथा तगदूर के शासकों का एक संघ बनाया। किंतु नंदिवर्मन् द्वितीय को पांड्यों के विरूद्ध कोई सफलता नहीं मिली।
स्रोतों से पता चलता है कि नंदिवर्मन् द्वितीय और राष्ट्रकूट गोविंद द्वितीय ने गंग शासक श्रीमार को उसके भाई दुग्गमार ऐरयप्प के विरूद्ध सहायता दी थी और दोनों उसके राज्याभिषेक के अवसर पर उपस्थित थे। नंदिवर्मन् द्वितीय और श्रीमार ने राष्ट्रकूट गोविंद द्वितीय की भी उसके भाई ध्रुव के विरूद्ध सहायता की थी। किंतु गृहयुद्ध में गोविंद द्वितीय की असफलता के बाद ध्रुव ने राष्ट्रकूट राजसिंहासन पर अधिकार लिया और नंदिवर्मन् तथा उसके सहयोगियों को दंडित करने के लिए नंदिवर्मन् पर आक्रमण कर उसे आत्मसमर्पण के लिए बाध्य किया और श्रीमार को बंदी बना लिया।
नंदिवर्मन् द्वितीय की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ
नंदिवर्मन् द्वितीय का अंतिम अभिलेख उसके शासनकाल के 65वें वर्ष का है, जो महाबलीपुरम् से मिला है। इससे स्पष्ट है कि उसने कम से कम 65 वर्ष तक शासन किया था। यद्यपि नंदिवर्मन् द्वितीय में युद्ध एवं सैन्य-संचालन की विशेष योग्यता नहीं थी, फिर भी, उसके लंबे शासनकाल में पल्लव साम्राज्य सुरक्षित रहा, इसका श्रेय निश्चित रूप से नंदिवर्मन् द्वितीय और उसके सेनानायक उदयचंद्र को दिया जाना चाहिए।
पूर्ववर्ती पल्लव शासकों की भाँति नंदिवर्मन् द्वितीय का शासनकाल भी कला, साहित्य एवं संस्कृति के संवर्द्धन का काल था। उसने अपनी देख-रेख में काँची में मुक्तेश्वर तथा बैकुंठपेरूमाल जैसे मंदिरों का निर्माण कराया। उसने कला के समुन्नयन के साथ-साथ साहित्य को भी संरक्षण प्रदान किया। वह वैष्णव धर्म का अनुयायी था और उसके समय में तिरुमंगै आलवार ने इस धर्म का काफी प्रचार-प्रसार किया। उदयेंदिरम् लेख के आधार पर कुछ इतिहासकार नंदिवर्मन् द्वितीय को एक अश्वमेध यज्ञ करने का भी श्रेय देते हैं, किंतु इस संबंध में कोई ठोस प्रमाण उपलब्ध नहीं है।
कशाक्कुडि लेख में नंदिवर्मन् को पल्लवमल्ल, क्षत्रियमल्ल, राजाधिराज, परमेश्वर एवं महाराज की उपाधियाँ दी गई हैं, और उसे वेदों तथा धर्मशास्त्रों का विद्वान बताया गया है। नंदिवर्मन् के शासन का अंत 796 ई. के आसपास माना जा सकता है।
दंतिवर्मन् (लगभग 796-847 ई.)
नंदिवर्मन् द्वितीय के बाद 796 ई. के लगभग उसका पुत्र दंतिवर्मन् पल्लव राज्य का उत्तराधिकारी हुआ, जो राष्ट्रकूट राजकुमारी रेवा से उत्पन्न हुआ था। इसके अभिलेख शासन के दूसरे वर्ष से लेकर इक्यावने वर्ष तक के मिले हैं, जिसके आधार पर माना जाता है कि इसने 51 वर्ष तक शासन किया था।
दंतिवर्मन् का शासनकाल पल्लव इतिहास में एक प्रकार से हृास का काल माना जा सकता है। इसने युद्ध और कूटनीति के द्वारा अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने का प्रयास किया और कदंबों से मैत्री संबंध स्थापित कर कदंब शासक पृथ्वीपति की पुत्री राजकुमारी अग्गलनिम्मटि के साथ विवाह किया। किंतु अंततः उसे पांड्यों और राष्ट्रकूटों से पराजित होना पड़ा।
पांड्यों का आक्रमण
दंतिवर्मन् के समय राष्ट्रकूट, चोल और पांड्य काफी शक्तिशाली हो गये और उन्होंने पल्लव साम्राज्य के कई क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। दंतिवर्मन् का दक्षिण में पांड्यों के आक्रमण का सामना करना पड़ा। स्रोतों से पता चलता है कि पांड्य शासक वरगुण और उसके पुत्र श्रीमार श्रीवल्लभ ने दंतिवर्मन् पर आक्रमण किया और उसे पराजित कर पल्लव साम्राज्य के दक्षिणी प्रदेशों पर अधिकार कर लिया। त्रिचनापल्ली और तंजोर के जिले अगले कई दशक तक पांड्य साम्राज्य का अंग बने रहे। दंतिवर्मन् के शासन के 16वें वर्ष से लेकर 51वें वर्ष के बीच का उसका कोई अभिलेख कावेरी घाटी से नहीं मिला है, जबकि इसी अवधि के इस क्षेत्र से पांड्य शासक मारंजडैयन के कई लेख मिले हैं। यही नहीं, पांड्य शासक मारसिंह के पुत्र को केरल एवं पल्लवों की संयुक्त सेना का विजेता कहा गया है।
राष्ट्रकूटों का आक्रमण
जहाँ एक ओर पल्लवों को दक्षिण में पांड्यों के हाथों पराजित होना पड़ा, वहीं दूसरी ओर उत्तर में उसे राष्ट्रकूटों के आक्रमण का सामना करना पड़ा। पहले राष्ट्रकूटों और पल्लवों के मैत्रीपूर्ण संबंध थे, किंतु लगता है कि गोविंद तृतीय के विरूद्ध दंतिदुर्ग ने गोविंद तृतीय के भाई स्तंभ की सहायता की थी। ब्रिटिश म्यूजियम दानपत्र से संकेत मिलता है कि 804 ई. से कुछ पहले राष्ट्रकूट गोविंद तृतीय ने पल्लव राज्य पर आक्रमण किया और दंतिवर्मन् को पराजित कर उसकी राजधानी तक पहुँच गया। यहीं राष्ट्रकूट शासक को श्रीलंका के दूतमंडल ने तत्कालीन शासक के समर्पण की सूचना दी थी।
अल्तेकर जैसे इतिहासकारों का अनुमान है कि संभवतः इस अभियान में गोविंद तृतीय को पूर्ण सफलता नहीं मिल सकी थी, इसलिए उसने 808 ई. में उसने पुनः काँची पर आक्रमण किया और पल्लवों को पराजित किया। इस प्रकार गोविंद तृतीय को दंतिवर्मन् के विरूद्ध सफलता मिली और उसने पल्लव नरेश को वार्षिक कर देने पर बाध्य किया। यही कारण है कि गोविंद तृतीय के 810 ई. के मन्ने लेख में दंतिवर्मन् को ‘समधिगतपंचमहाशब्द’ और ‘महासामंताधिपति’ की उपाधि दी गई है।
दंतिवर्मन् के शासनकाल के इक्कीसवें वर्ष से लेकर उन्चासवें वर्ष तक के बीच का कोई भी लेख नहीं मिला है। इस आधार पर कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि इस दौरान पल्लव राज्य पर किसी बाह्य शक्ति का अधिकार था। लगता है कि चोल शासक श्रीकंठ ने दंतिवर्मन् को पराजित कर किसी अल्पवयस्क पल्लव राजकुमार को काँची की गद्दी पर अपने अधीनस्थ के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया था। बाद में दंतिवर्मन् ने अपने सुयोग्य पुत्र नंदिवर्मन् तृतीय की सहायता से पल्लव राजसिंहासन पुनः प्राप्त कर लिया होगा। किंतु इस संबंध में निश्चित रूप से कुछ कह सकना कठिन है।
इस प्रकार दंतिवर्मन् अपने पूरे शासनकाल में विपत्तियों में ही उलझा रहा। दक्षिण से पांड्यों और उत्तर से राष्ट्रकूटों से वह अपनी रक्षा नहीं कर सका। फिर भी, वह पल्लव गद्दी की सुरक्षा करते हुए इक्यावन वर्ष तक शासन करने में सफल रहा। कदंबों के अतिरिक्त बाण नरेश विजयादित्य मावलिबाणरायर दंतिवर्मन् के सामंत थे। इसकी पुष्टि इसके शासनकाल के उन्चासवें वर्ष के गुडिमल्लम लेख से होती है।
दंतिवर्मन् योग्य एवं सतगुणी शासक था। वैलूरपाल्यम् अभिलेख में दंतिवर्मन् को तीनों लोकों का रक्षक, क्षमाशील, शौर्य, त्याग एवं कृतज्ञता आदि गुणों से युक्त तथा विष्णु का अवतार बताया गया है। इससे स्पष्ट है कि वह अपने पिता के समान वैष्णव धर्म का अनुयायी था। अपने दीर्घकालीन शासन में उसने साहित्य एवं कला के संबर्द्धन में विशेष योगदान किया। मद्रास के समीप त्रिपलीकेन नामक स्थान पर स्थित पार्थसारथि मंदिर में उत्कीर्ण एक तमिल लेख में उसे ‘पल्लवकुलभूषण’ की उपाधि दी गई है और उसे इस देवालय के जीर्णोद्धार का श्रेय दिया गया है। चिंगलेपुट जिले के आलम्बाक्कम का कैलाश मंदिर का निर्माण दंतिवर्मन् ने ही करवाया था। इसके शासनकाल के चौथे वर्ष में तिरुवेल्लेरे में स्वस्तिक के आकार का एक कुंआ भी बनाया गया।
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